क्या शिक्षा से जुड़े डेटा केवल नीति निर्माताओं के ही काम आते हैं?

आंकड़े इकट्ठा करना और उसका विश्लेषण करना, कार्यक्रम मूल्यांकन और सुधार प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा है। उदाहरण के लिए छात्रों के प्रदर्शन, उपस्थिति और सहभागिता से जुड़े आंकड़े जुटाकर और उनका विश्लेषण कर, शिक्षक अपने पढ़ाने के तरीक़ों में बेहतरी ला सकते हैं। उसी तरह प्रशासन एक समेकित आंकड़े का उपयोग – कार्यक्रम के क्रियान्वयन के बारे में जानने, प्राप्त लक्ष्यों के बारे में समझने और सुधार की आवश्यकता वाले क्षेत्रों की पहचान करने के लिए कर सकते हैं। यही आंकड़ा नीति निर्माताओं को यह तय करने में भी मदद कर सकता है कि संसाधन कहां आवंटित किए जाएं और कौन से कार्यक्रम लागू किए जाएं।

ज्ञान प्रकाश फाउंडेशन (जीपीएफ) में, हम महाराष्ट्र के चार जिलों (परभणी, नंदूरबार, सतारा और सोलापुर) के ग्रामीण सरकारी स्कूलों में योग्यता-आधारित शिक्षा के माध्यम से सीखने में बुनियादी बदलाव लाने के लिए काम कर रहे हैं। हमने साल 2011 में संस्था की स्थापना के बाद से शिक्षकों, स्कूल लीडर्स, क्लस्टर अधिकारियों, ब्लॉक और जिला स्तर के अधिकारियों, और माता-पिता और समुदाय के प्रतिनिधियों के साथ काम करते हुए एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाया है। ये सभी बच्चों के लिए सीखने को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

यह लेख आंकड़े के लिए विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण अपनाने से मिली हमारी सीख पर आधारित है, हमारा मानना ​​है कि इसका उपयोग इसमें शामिल सभी हितधारकों – नीति निर्माताओं और शिक्षकों – द्वारा प्रभावी निर्णय लेने के लिए किया जा सकता है।

विभिन्न हितधारक आंकड़ों का उपयोग कैसे करते हैं?

शिक्षा के सेक्टर में, यदि किसी कार्यक्रम में बच्चे शामिल हैं तो आंकड़े हासिल करने का सबसे आम बिंदु बच्चों के सीखने से जुड़े आंकड़े होते हैं। ये आंकड़े मुख्यरूप से दो तरह के भागीदारों के लिए होते हैं: निर्णय लेने वाले (क्लस्टर के प्रमुख और प्रखंड और ज़िले के शिक्षा अधिकारी) और कक्षा में शिक्षक। निर्णायक भूमिकाओं में बैठे लोगों के सामने जो आंकड़े रखे जाते है, वे आमतौर पर बच्चे के समेकित मूल्यांकन डेटा, स्कूल के बुनियादी ढांचे की जानकारी, अगले शैक्षणिक वर्ष की योजनाओं से जुड़े होते हैं। ये आंकड़े क्लस्टर, ब्लॉक और जिले में शिक्षा की स्थिति को समझने के लिए जरूरी हैं और इसका उपयोग रणनीतियां बनाने, कार्यक्रम में बड़े बदलाव करने और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध करवाई जाने वाली रिपोर्ट लिखने में किया जाता है। शिक्षकों के लिए तैयार किए गए आंकड़े ज्यादातर बार बच्चों का व्यक्तिगत मूल्यांकन आंकड़ा होता है जो उनकी खुद के पढ़ाने के तरीक़ों को बेहतर बनाने में मदद करता है।

आंकड़े के प्रवाह की दिशा लगभग तय हैयह शिक्षकों से नीतिनिर्माताओं तक पहुंचती है।

आंकड़ों की मांग ज्यादातर बार, उच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा निचले स्तर पर मौजूद लोगों से की जाती है। आमतौर पर ये प्रदर्शन से जुड़े होते हैं, फिर चाहे वह बच्चों का हो, शिक्षक को हो या अधिकारियों का। यह माना जाता है कि किसी बच्चे का मूल्यांकन परीक्षा में उसे मिले अंकों के आधार पर किया जाता है तो शिक्षक का मूल्यांकन उनकी कक्षा में ‘अच्छा’ प्रदर्शन करने वाले छात्रों की संख्या के आधार पर होता है। हालांकि यह सही नहीं है लेकिन इससे शिक्षकों में आंकड़ों को लेकर डर पैदा हुआ है। नतीजतन, शिक्षक या तो आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया से अलग रहते हैं फिर उच्च अधिकारियों को ऐसी रिपोर्ट भेजते हैं जो कक्षा में उनके छात्रों के सटीक प्रदर्शन को नहीं दिखाती है।

आंकड़ों के प्रवाह की दिशा लगभग तय है – ये शिक्षकों से नीति-निर्माताओं तक पहुंचते हैं। उदाहरण के लिए, एक शिक्षक अपनी कक्षा से समेकित आंकड़ा एकत्र कर उस क्लस्टर प्रमुख को देता है जो क्लस्टर के सभी स्कूलों से आंकड़े एकत्र कर क्लस्टर-स्तर की रिपोर्ट तैयार करता है। यह क्लस्टर-रिपोर्ट ब्लॉक के प्रमुख के पास जमा की जाती है जो सभी क्लस्टर से प्राप्त आंकड़ों से एक समेकित आंकड़ा तैयार कर ब्लॉक-रिपोर्ट बनाता है। चूंकि आंकड़े एक ही दिशा में आगे बढ़ते हैं जिससे इसकी ज़िम्मेदारी एक से दूसरी इकाई को स्थानांतरित होती रहती है। ऐसा होना इसे शिक्षकों से दूर कर देता है और इसके लिए उन पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है। शिक्षक के पास प्रत्येक छात्र के प्रदर्शन की जानकारी देने वाले आंकड़े होते हैं जिनका उपयोग बदलाव लाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन, असल में यह बच्चों की शिक्षा में सुधार लाने के लिए सीधे तौर पर उनके शिक्षण के तरीक़ों में कोई मदद नहीं करता है।

आंकड़ों को अधिक उपयोगी कैसे बनाया जा सकता है?

किसी भी तरह का आंकड़ा तभी उपयोगी होता है जब इसके उपयोगकर्ता के पास इस पर आधारित कुछ फ़ैसले लेने की शक्ति होती है। आंकड़ों को एकत्र करना और व्यवस्थित करना आसान होना चाहिए और हर स्तर पर उपयोगकर्ताओं के पास उनका इस्तेमाल कर कार्रवाई करने की ताकत होनी चाहिए। हालांकि, शिक्षा के क्षेत्र में, आंकड़ों का उपयोग केवल नीति के स्तर पर ही किया जाता है। इसमें से शिक्षकों का नज़रिया गायब होता है – कक्षा के संदर्भ में, एकत्र किए गए आंकड़े से प्रत्येक छात्र ने क्या सीखा है इसकी जानकारी स्पष्ट होनी चाहिए। उसके बाद शिक्षकों को इतना सक्षम होना चाहिए कि वे अपने छात्रों की ज़रूरतों की पहचान कर सकें और प्रत्येक बच्चे के सीखने से जुड़े आंकड़ों के आधार पर सिखाने के उपयुक्त तरीके अपना सकें।

हमारे कार्यक्रम में, हम आंकड़ों को काम लायक बनाने के लिए तीन तरह की प्रमुख रणनीतियां लेकर आए हैं: शिक्षकों के लिए आंकड़े उपयोगी हो सकें, आंकड़ों को लेकर उच्च अधिकारियों के नज़रिए को बदलना, और आंकड़ों को समेकित करने के लिए तकनीक का उपयोग करना।

फोन की स्क्रीन देखता हुआ एक आदमी_नीति-निर्माता समाजसेवी संस्था
किसी भी तरह का आंकड़ा तभी उपयोगी होता है जब इसके उपयोगकर्ता के पास इस पर आधारित कुछ फ़ैसले लेने की शक्ति होती है। | चित्र साभार: मिर्सिया इंकू / सीसी बीवाय

1. आंकड़ों को शिक्षकों के लिए उपयोगी बनाएं

कोई भी आंकड़ा शिक्षकों के लिए सबसे उपयोगी तब होता है जब वे इसे समझ सकें, यानी इसका उपयोग इस बात का आकलन करने के लिए कर सकें कि बच्चों ने क्या सीखा है। साथ ही, यह तय करने के लिए कर सकें की सिखाने के तरीक़ों को सुधारने के लिए कौन से मुख्य कदम उठाने की जरूरत है।

ऐसा करने के लिए, 2016 में, हमने शिक्षकों के साथ एक सरल ऑफ़लाइन स्प्रेडशीट बनाई, जिससे उन्हें अपनी कक्षाओं से जुड़ी जानकारी को समझने में मदद मिली। प्रत्येक पंक्ति में एक छात्र का नाम और प्रत्येक कॉलम में उन कौशलों या दक्षताओं को सूचीबद्ध किया गया है जिनमें उनसे एक निश्चित अवधि के भीतर महारत हासिल करने की उम्मीद की गई थी (उदाहरण के लिए, 10 तक की संख्याओं को पहचानना, या ‘अधिक’ और ‘कम’ की अवधारणाओं को समझना)। शिक्षकों को उन दक्षताओं पर चिह्न लगाने के लिए हरी पेंसिलें दी गईं, जिनमें छात्रों ने महारत हासिल कर ली है और लाल पेंसिलें उन दक्षताओं को चिन्हित करने के लिए दी गईं, जिनमें छात्रों को अभी महारत हासिल करनी है।

अब केवल इस शीट पर एक नज़र भर डालकर शिक्षकों को इस बात की जानकारी मिल सकती थी कि छात्र ने किसी कौशल में महारत हासिल की या नहीं। यह देखना भी आसान हो गया कि पूरी कक्षा अच्छा प्रदर्शन कर रही है या नहीं। इस शीट का उपयोग कर, शिक्षक दो प्रमुख बातों की पहचान कर सकते थे: वे विशिष्ट सहायताएं जिनकी व्यक्तिगत रूप से छात्रों को आवश्यकता होती है, और वे दक्षताएं जिन पर उन्हें पूरी कक्षा के साथ काम करने की आवश्यकता होती है। इन दोनों को मिलाकर, शिक्षक व्यक्तिगत रूप से हर छात्र के लिए और पूरे समूह के लिए बेहतर योजना बनाने में सक्षम होने के साथ ही कक्षा में समय के उपयोग के तरीक़ों पर भी सोच सकते थे। जब शिक्षकों ने देखा कि ये आंकड़े उन्हें छात्रों के साथ बेहतर काम करने में मदद कर रहे हैं तो इससे आंकड़ों के प्रति उनका डर दूर हो गया। एक बार जब आंकड़ों का स्वामित्व इसके स्त्रोत के पास ही रहा और सूचना के प्रवाह की दिशा बदल गई और तब ये आंकड़े भी उपयोगी हो गए। इसी शीट का उपयोग, उच्च अधिकारियों के पास साझा किया जाने वाला कक्षा का औसत आदि जैसे अलग तरह के आंकड़ों को भी तैयार करने में किया जा सकता था।

दो वर्षों तक, जीपीएफ ने छात्र शिक्षण आंकड़े को उपयोगी बनाने के लिए ‘लाल-हरी शीट’ का उपयोग किया। यह प्रक्रिया मैन्युअल थी, जिससे इसमें त्रुटियां होने की संभावना थी और इसे प्रबंधित करना और स्केल करना कठिन था। 2018 में, जीपीएफ समाजसेवी संस्था गूरू द्वारा विकसित एक डिजिटल प्लेटफॉर्म –लर्निंग नेविगेटर– में बदल गया। इस प्लेटफ़ॉर्म ने ठीक उसी आवश्यकता को पूरा करते हुए आंकड़ों के प्रबंधन और प्रस्तुति को और अधिक कुशल बना दिया। यह शिक्षकों को हर बच्चे की जानकारी रखने और व्यक्तिगत, सामूहिक और समेकित रिपोर्ट हासिल करने में सहायता करता है। यह उन दक्षताओं की पहचान करने में मदद करता है जिन पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।

2. आंकड़ों पर उच्च अधिकारियों के दृष्टिकोण में बदलाव लाएं

हम लाल और हरे रंग की शीट के डेटा को न केवल शिक्षकों के लिए, बल्कि उच्च अधिकारियों के लिए भी व्यावहारिक बनाना चाहते थे, जो इन आंकड़ो का उपयोग करके बेहतर निर्णय ले सकें। इससे क्लस्टर अधिकारियों को आंकड़े को नए नजरिए से देखने का मौका मिला। आंकड़े को केवल किसी शिक्षक या स्कूल के प्रदर्शन के रूप में देखने की बजाय, सभी कक्षाओं और स्कूलों के सामूहिक आंकड़ों ने क्लस्टर प्रमुख को उनकी सीखने की यात्रा में छात्रों के सामने आने वाली चुनौतियों को समझने और शिक्षकों की मुश्किलों की पहचान करने में मदद की। छात्र किन दक्षताओं से जूझ रहे थे? उन अवधारणाओं को पढ़ाते समय शिक्षकों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था?

शिक्षकों ने देखा कि उनकी कक्षाओं से इकट्ठा किए गए आंकड़े का उपयोग उनके छात्रों के साथ प्रभावी ढंग से काम करने की क्षमता बढ़ाने में किया जा रहा है। परिणामस्वरूप, सटीक आंकड़ों की रिपोर्टिंग को लेकर उनके मन में व्याप्त शंका में कमी आई। नतीजतन, प्रत्येक विषय के छह से सात अनुभवी शिक्षकों वाले क्लस्टर रिसोर्स ग्रुप्स को बुलाया गया। इन समूहों ने क्लस्टर में अन्य शिक्षकों की क्षमताओं के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शिक्षणपरिषदों में लाल-हरे रंग की शीट से प्राप्त आंकड़े के उपयोग से क्लस्टर के प्रमुख को किसी विशेष माह में ध्यान केंद्रित करने के लिए सीखने से जुड़े नतीजों की पहचान करने में मदद मिली। साथ ही, इसकी मदद से उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि सभी शिक्षक अपनी कक्षाओं में उन दक्षताओं को सीखने के लिए कुशल हैं।

3. आंकड़ों को समेकित करने के लिए तकनीक का उपयोग करें

चूंकि जीपीएफ़ एक बड़े-स्तर का कार्यक्रम है इसलिए हमारी रुचि समेकित आंकड़े में थी। 2021 के अक्टूबर में समेकित आंकड़े को उन अधिकारियों को उपलब्ध करवाया गया जो महाराष्ट्र के चार जिलों में शिक्षकों का सहयोग करते हैं। लर्निंग नेविगेटर पर ‘मिशन कंट्रोल’ सुविधा के इस अपडेट के साथ, एक जिले के सभी स्कूलों का आंकड़ा वास्तविक समय में न केवल शिक्षक के लिए उपलब्ध कराया गया, बल्कि पूरे सिस्टम में स्कूल प्रबंधन समितियों, क्लस्टर प्रमुखों, ब्लॉक शिक्षा अधिकारियों और जिला अधिकारियों को भी उपलब्ध कराया गया।

एक क्लस्टर प्रमुख ने कहा कि जिस क्षेत्र के लिए वह जिम्मेदार है, उसके अंतर्गत आने वाले सभी शिक्षकों के काम की निगरानी करना उनके लिए आसान है। ‘दोनों समूहों से शिक्षकों की कुल संख्या [जिनकी मैं देखरेख करता हूं] 182 से अधिक है। लेकिन आज, जहां मैं हूं, मेरे लिए यह देखना संभव है कि कितने शिक्षकों ने किस विशिष्ट शिक्षण परिणाम पर काम किया है।’

आंकड़ा किसी कार्यक्रम के सभी स्तरों पर हितधारकों के लिए उपयोगी हो सकता है।

एक ब्लॉक शिक्षा अधिकारी ने बताया कि मिशन कंट्रोल फीचर उनके लिए कैसे फायदेमंद होगा। ‘हम परभणी जिले के नौ ब्लॉकों के छात्रों को ट्रैक करने के लिए मिशन नियंत्रण का उपयोग करेंगे। इससे हमें प्रत्येक छात्र को उनके ग्रेड के अनुसार अपेक्षित सभी सीखने के परिणाम प्राप्त करने में सक्षम बनाने के लक्ष्य की दिशा में काम करने में मदद मिलेगी।’

हमने जो रणनीतियां अपनाईं, उनसे यह सुनिश्चित करने में मदद मिली कि हर स्तर पर उपयोगकर्ता अपने हाथों में डेटा के साथ सशक्त थे और हर कक्षा में हर बच्चे के सीखने में सुधार के लिए निर्णय ले सकते थे। हम अक्सर यह समझने में गलती करते हैं कि आंकड़ों के वास्तविक और एक मात्र उपभोक्ता वे संस्थाएं हैं जो गतिविधियों को फंड देती हैं। दरअसल यह एक मिथक है। आंकड़ा किसी कार्यक्रम के सभी स्तरों पर हितधारकों के लिए उपयोगी हो सकता है। आंकड़ों की उपयोगिता और प्रमाणिकता की जांच सेल्फ़-चेक द्वारा की जा सकती है। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे लेकर कई कार्यक्रम संघर्षरत रहते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

समाजसेवी संस्थाएं क़ानून निर्माण की प्रक्रिया में जन-सहभागिता को कैसे संभव बनाती हैं

एक नागरिक के तौर पर, सरकार से जुड़ने के लिए हमारे पास उपलब्ध तरीक़ों में से एक – नए क़ानूनों को आकार देने में हमारी भूमिका भी है जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। फ़रवरी 2014, में क़ानून बनाए जाने की प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता और वैधता लाने की मांग पर गौर करते हुए, कानून और न्याय मंत्रालय ने भारत की पूर्व-विधान परामर्श नीति (प्री-लेजिस्लेशन कंसल्टेशन पॉलिसी – पीएलसीपी) का मसौदा तैयार किया।

पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के लिए यह नीति बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि कई विकास परियोजनाओं और पर्यावरण कानूनों को कुछ अनिवार्य परामर्शों से गुजरना पड़ता है।

सुधार के अन्य उपायों के अलावा, यह नीति बताती है:

हालांकि लोगों की राय को किस हद तक माना जाता है, यह सोचने वाली बात है। लेकिन यह जान कर ख़ुशी होती है कि 2014 से सिविस (क़ानून बनाने में मदद करने वाली एक समाजसेवी संस्था) ने सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं के लिए खोले गए परामर्शों की संख्या में 805 फ़ीसद बढ़ोतरी देखी है – पर्यावरण क़ानूनों की पहुंच पर सिविस के आंकड़े यहां देखे जा सकते हैं।

इसके साथ ही, अदालतें हाशिए पर मौजूद समुदायों के अधिकारों की अधिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए लोगों के प्रभावी परामर्श का फायदा उठा रही हैं। गोवा में एक खनन परियोजना को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी के खिलाफ अपील के दौरान, उत्कर्ष मंडल बनाम भारत संघ के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक परामर्श की कानूनी आवश्यकता को बरकरार रखा। इसमें कहा गया है कि नागरिकों को ऐसी परियोजना के विवरण और निहितार्थों के बारे में जानकारी देने वाली सामग्री के प्रकाशन के बीच और सार्वजनिक सुनवाई की तारीख के बीच 30 दिन की अवधि अनिवार्य है। एक ही दिन में हुई कई सुनवाइयों के मुद्दे पर अदालत ने कहा कि परामर्श प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों को पर्याप्त अवसर दिए जाने की आवश्यकता है।

ऐसा इसलिए है क्योंकि अक्सर हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लोग किसी भी तरह की सुनवाई में भाग लेने में सक्षम नहीं होते हैं, क्योंकि इसके कारण उन्हें अपने काम से अनुपस्थित रहना होगा। उसी प्रकार, नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने ओसिस फर्नांडीस & ओआरएस बनाम पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय पर अपने फ़ैसले में प्रभावी सार्वजनिक परामर्श की सुविधा के लिए सार्वजनिक सुनवाई के दौरान राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने, हर आवाज को सुनने और रिकॉर्ड करने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करने की बात कही है। साथ ही, इसने प्रासंगिक तकनीकी और वैज्ञानिक डेटा प्रस्तुत करने जैसी शर्तों का सुझाव भी दिया है। 

जहां न्यायपालिका जैसे हितधारक अपने काम में पीएलसीपी दिशानिर्देशों को शामिल करते रह सकते हैं, वहीं हाशिए पर रहने वाले समुदायों के साथ मिलकर काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं लोगों की भागीदारी को सुविधाजनक बनाने में कैसे मदद कर सकती हैं?

एक महिला का इंटरव्यू रिकोर्ड करती एक अन्य महिला_सामाजिक न्याय
हितधारकों के साथ लगातार बातचीत के कारण जमीनी स्तर के संगठन आम सहमति बनाने में विशिष्ट रूप से सक्षम हैं। | चित्र साभार: वीडियो वॉलंटीयर्स / सीसी बीवाय

समाजसेवी संगठनों की भूमिका

विशिष्ट डोमेन वाले क्षेत्रों में काम करने वाले संगठन के रूप में हमारा काम और हमारी विशेषज्ञता सार्वजनिक नीति निर्माण से जुड़ जाती है। जहां कुछ संगठन – उदाहरण के लिए, वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टिट्यूट (जिसने मुंबई की जलवायु क्रियान्वयन योजना को तैयार करने में महाराष्ट्र सरकार की सहायता की थी) – सीधे ही नीति निर्माण के स्तर पर काम करता है। दूसरी तरफ सुझाव प्रक्रिया में शामिल होने वाले ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले और समुदाय-आधारित संगठनों की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। 

नागरिक समाज संगठनों (सीएसओ) के लिए, नीति निर्धारण प्रक्रिया से जुड़े रहने के कुछ तरीके यहां दिए गए हैं:

1. जागरूकता बढ़ाएं

बुनियादी स्तर पर, जमीनी स्तर के संगठन और मीडिया किसी भी नए कानून या नीति के बारे में हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं जो उनके जीवन और आजीविका को प्रभावित कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, 2019 में, बृहन्मुंबई नगर निगम ने मुंबई की आरे कॉलोनी में 2,238 पेड़ों की कटाई के मुद्दे पर सार्वजनिक टिप्पणियां आमंत्रित करने के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन दिये थे। एक स्थानीय सामुदायिक संगठन, लेट इंडिया ब्रीद ने व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया मंचों के जरिए इस परामर्श में भाग लेने के महत्व से जुड़ी जानकारियों का प्रचार-प्रसार किया था। उन लोगों ने ई-मेल के माध्यम से प्रतिक्रिया रखने पर विस्तृत निर्देश प्रदान किए, जिसके परिणामस्वरूप भागीदारी में वृद्धि हुई। 

कानून का मसौदा तैयार करने के चरण में इस तरह की जागरूकता फैलाने से सामुदायिक संगठनों को प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिलता है। इससे भी जरूरी यह है कि यह उन समुदायों की मदद करता है जिनके साथ वे काम करते हैं, उन्हें उद्योग के उतार-चढ़ाव और अन्य कारकों को समझने में मदद मिलती है जो आने वाले वर्षों में उनकी आजीविका को प्रभावित कर सकते हैं।

2. अपने समुदायों को बदलाव में शामिल करें

संगठनों के रूप में, हम अक्सर ज़मीन पर अपने स्वतंत्र अनुभव के आधार पर नीतिगत निर्णयों पर मजबूत सिफारिशें कर सकते हैं। हालांकि, किए गए प्रतिनिधित्व में हमारे समुदायों को शामिल करना एक महत्वपूर्ण काम है।

2020 में, सामाजिक न्याय मंत्रालय ट्रांसजेंडर लोगों के लिए बनाए जा रहे नियमों के मसौदे पर प्रतिक्रिया मांग रहा था, जिसमें उस प्रक्रिया को निर्दिष्ट किया गया था जिसके द्वारा ट्रांसजेंडर व्यक्ति पहचान पत्र के लिए आवेदन कर सकते थे। साझा की गई अन्य प्रतिक्रियाओं में, ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों – जिनमें से कई ने पहली बार सीएसओ के जरिए नियमों के बारे में सुना – ने विशिष्ट और कार्रवाई योग्य सुझाव दिए।

सुझावों में आवेदन पत्र में अंतिम नाम की अनिवार्यता को हटाने जैसे इनपुट शामिल थे – एक सरल उपाय जिसने सदस्यों के लिए कार्ड का आवेदन करना आसान बना दिया। कानून में स्पष्टता प्रदान करने और विवादों के सभी सम्भावित क्षेत्रों को शामिल करने की इच्छा रखने के कारण सरकारी अधिकारी अक्सर ऐसी सभी सूक्ष्म जानकारियों पर ध्यान देते हैं।

संख्या बल हमेशा किसी कानून के तैयार किए जा रहे मसौदे पर उत्पन्न होने वाले तर्क की गंभीरता को व्यक्त करने में मदद करता है।

आख़िर में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संख्या बल हमेशा किसी कानून के तैयार किए जा रहे मसौदे पर उत्पन्न होने वाले तर्क की गंभीरता को व्यक्त करने में मदद करता है। उदाहरण के तौर पर, समाजसेवी संगठनों के लिए सीएसआर अधिनियम में 2020 में प्रकाशित सुधारों पर विचार किया जा सकता है। इस संसोधन में प्रस्ताव दिया गया है कि सेक्शन 8 कम्पनियों के अलावा कोई भी ट्रस्ट, सोसायटी आदि सीएसआर फ़ंडिंग प्राप्त नहीं कर सकेगा। सिविस के मंच पर परामर्श का जवाब देने वालों के बीच एकमत राय यह थी कि ट्रस्ट और सोसायटी के पास भी सीएसआर फंडिंग प्राप्त करने की पात्रता होनी चाहिए। इसके तुरंत बाद, इस प्रतिक्रिया को शामिल कर लिया गया और अब सभी प्रकार के सीएसओ सीएसआर फंडिंग के लिए आवेदन कर सकते हैं।

3. प्रतिक्रिया को सुव्यवस्थित करें

हालांकि नीति निर्माण में समुदायों को शामिल करना एक कठिन और अव्यवस्थित काम हो सकता है। लेकिन हितधारकों के साथ लगातार बातचीत, समुदाय के बीच विश्वास और अपने इलाक़ों में उनकी गहरी पहुंच के कारण जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन सर्वसम्मति बनाने के लिए विशिष्ट रूप से तैयार होते हैं। समुदाय के समीकरणों और नजरिए के बारे में उनकी समझ, साथ ही सुविधा की अनोखी पद्धतियां (जैसे समुदायों की मैपिंग या समूह चर्चाएं) इस प्रक्रिया को रचनात्मक और आकर्षक बनाती हैं। 

हालांकि, समुदाय-आधारित संगठनों की अपनी चुनौतियां हैं। जमीनी स्तर पर काम करने वाले केवल थोड़े से संगठनों के पास वकीलों की अपनी टीम या नीति संसाधन हैं जो इस तरह के परामर्शों पर नज़र रख सकते हैं और उनसे जुड़ सकते हैं।

लेकिन इनमें से कुछ बाधाओं को निम्नलिखित टूल और विधियों की मदद से दूर किया जा सकता है:

यदि पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक परामर्श की बढ़ती संख्या को संकेत के रूप में देखा जाए तो कानूनी प्रणाली को वास्तव में समावेशी बनाने के लिए परामर्श का क्षेत्र हमें अनेक अवसर प्रदान कर सकता है। आखिरकार, समावेशी कानून और नीतियां पहले से ही जमीन पर कार्यरत रीति-रिवाजों और बेस्ट प्रैक्टिस के प्रभाव को बढ़ा सकते हैं। परामर्श की प्रक्रिया उन तरीकों में से एक है जिससे नागरिक समाज बड़े पैमाने पर बदलाव ला सकता है।

जलवायु नीति के क्षेत्र में भागीदारी की प्रेरणा का स्तर बढ़ सकता है क्योंकि स्वदेशी तरीक़े समग्र रूप से हमारे पारिस्थितिक तंत्र के लिए एक स्थायी दृष्टिकोण प्रदान कर सकते हैं। लेकिन, इन प्रथाओं को अपने उस रास्ते की तलाश की आवश्यकता है जिस पर चलकर वे सही समय पर नीति-निर्माताओं तक पहुंच सकें।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

अधिक करें

विमुक्त जनजातियों पर पुलिसिया पहरे के पीछे जातिवाद है

साल 1871 में, अंग्रेज सरकार ने भारत में आपराधिक जनजाति अधिनियम लागू किया था। यह एक ऐसा कदम था जिसने सैकड़ों खानाबदोश जनजातियों को ‘जन्म से ही अपराधी’ घोषित कर दिया। हालांकि, 1952 में भारत सरकार ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया लेकिन ये अपराधी जनजातियां – जिन्हें अधिसूचित जनजातियां (डिनोटिफाइड ट्राइब्स – डीएनटी) या विमुक्त समुदायों के नाम से जाना जाता है – आज तक हाशिए पर जीवन जीने को मजबूर हैं। 

उदाहरण के लिए, भोपाल में बसने वाले पारधी नाम के विमुक्त समुदाय की बात करते हैं। यदि किसी पारधी परिवार में शादी-ब्याह जैसा कोई आयोजन होता है तो इन्हें इसके लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन से अनुमति लेनी पड़ती है। साथ ही, शादी में शामिल होने वाले अतिथियों की सूची के साथ एक आवेदन जमा करना पड़ता है। यदि वे इस नियम का पालन नहीं करते हैं तो यह मान लिया जाता है कि पारधी समुदाय के लोग किसी तरह का अपराधिक षड्यंत्र करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। इसके बाद वहां की स्थानीय पुलिस कभी भी उन्हें उठाकर ले जा सकती है। 

आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा विमुक्त समुदाय के साथ, व्यवस्था के स्तर पर किए जाने वाले उत्पीड़न को न तो लोग समझ पाते हैं और ना ही इस पर किसी तरह के सवाल ही उठाए जाते हैं।

अपराधीकरण की जातिरहित समझ

और परम्परा के स्तर पर एक दूसरे से अलग होते हुए भी उत्पीड़न के साझा इतिहास से एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। व्यवस्था के स्तर पर हिंसा और उत्पीड़न की, बेढंगी और स्वाभाविक रूप से जाति-रहित, समझ के आधार पर उनके जीवन और आजीविका को पीढ़ियों से अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इनकी आपराधिकता को वंशानुगत माना जाता है – एक ऐसी अवधारणा जो सीधे तौर पर भारत की जाति व्यवस्था पर आधारित है जिसमें व्यवसाय को जन्म से जोड़कर देखा जाता है। इसलिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपराधी घोषित किए जाने के कारण यह सोच जाति की संस्था द्वारा पोषित होती आ रही है। आज भी यथास्थिति और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जातिवाद को ही उपयोग में लाया जाता है। 

जब भारत सरकार ने आपराधिक जनजाति अधिनियम को निरस्त कर दिया, तब कई राज्यों ने बडी तेज़ी से एक नई व्यवस्था बना दी जिसे आदतन अपराधी शासन कहा गया। कई अन्य कानूनों के साथ मिलकर यह व्यवस्था विमुक्त समुदायों के जीवन और आजीविका का अपराधीकरण जारी रखती है।

जंगलों में रहने वाली जनजातियों और आदिवासी समुदायों पर वन्यजीव संरक्षण कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जाता है।

उदाहरण के लिए, जिन समुदायों की संस्कृति में शराब के सेवन की परम्परा है। उन्हें शराब के आयात, निर्यात, बिक्री और ख़रीद को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए उत्पाद शुल्क क़ानूनों (एक्साइज़ लॉ) के तहत लगातार और गलत तरीके से अपराधीकरण का शिकार होना पड़ता है। हमने यह भी पाया कि जंगल में रहने वाले और आदिवासी समुदायों पर सूखी लकड़ी या मशरूम जैसी वन उपज इकट्ठा करने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है जबकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत ऐसी सभी गतिविधियां उनके अधिकारों के अंतर्गत आती हैं। 

इन समुदायों के असंगत अपराधीकरण के पीछे दिया जा सकने वाला तर्क जाति व्यवस्था है और पुलिस इस जातिवादी औपनिवेशिक विरासत को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पुलिस का काम विवेक के इर्द-गिर्द केंद्रित होता है, जो पुलिस अधिकारियों को यह स्वतंत्रता देता है कि वे यह तय कर सकें कि किसे संदिग्ध माना जाए या कौन सार्वजनिक सुरक्षा के लिए ख़तरा बन सकता है। किसी को भी आदतन अपराधी की श्रेणी में शामिल कर देना और उस श्रेणी को परिभाषित करना, दोनों ही अधिकार पुलिस के पास होते हैं। लेकिन, जिन अंतर्निहित धारणाओं के आधार पर पुलिस ये आकलन करती है, उन पर कभी सवाल नहीं उठाया जाता है।

पुलिस बैरिकेड_विमुक्त जनजातियां पुलिस
रोजाना की पुलिस कार्रवाई में छोटे-मोटे अपराधों को लक्ष्य बनाया जाता है और इनसे उत्पीड़ित जाति समुदायों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपराधिक करार दे दिया जाता है। | चित्र साभार: ट्रैविस वाइज़ / सीसी बीवाय

क़ैद बनी जीवनशैली का हिस्सा

अपराधीकरण पर की जाने वाली चर्चाएं कारावास पर बातचीत तक ही सीमित होती हैं। इससे यह गलतफहमी पैदा होती है कि किसी व्यक्ति को अपराधी ठहराए जाने से होने वाला एकमात्र नुकसान उसका जेल जाना है – यह एक ऐसा नजरिया है जो विमुक्त समुदायों के जीवन की वास्तविकताओं से बहुत दूर है।

सच तो यह है कि उनके लिए, कारावास को जबरन उनके जीवन का ऐसा हिस्सा बना दिया गया है जिसका विस्तार जेल की चारदीवारी से आगे भी है। पारधी समुदाय की तरह, अन्य विमुक्त समुदायों के सदस्य भी कड़ी निगरानी में अपना जीवन बिताते हैं। कइयों को स्थानीय बाज़ारों में जाने से भी डर लगता है या फिर एक निश्चित समय के बाद वे घर में ही रहते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उन पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है और उन्हें आशंका होती है कि पुलिस किसी भी बात के लिए उन्हें सड़क से ही उठा सकती है। इसलिए वे एक आत्म-नियंत्रित और अनुशासित जीवन जीते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनके कामों की जांच की जाएगी। आपराधिक अस्तित्व एक अर्थ यह भी है कि इन समुदायों के बच्चे बदनामी और तिरस्कार के कारण बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। जेल में होने जैसा जीवन जीना ही इनके पास उपलब्ध विकल्प है जो इन समुदायों के हर पहलू पर अपना असर छोड़ता है।

वास्तविक अनुभवों का सामने लाने के लिए जागरुकता लाना

जब मैंने अधिसूचित जनजातियों से आने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वकील के तौर पर  काम करना शुरू किया तो सबसे पहले आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में गहराई से जानना शुरू किया। मैं जल्दी ही समझ गई थी कि उत्पीड़न से जुड़ी व्यक्तिगत घटनाओं पर प्रतिक्रिया देना उपयोगी तो है लेकिन पर्याप्त नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों को उनकी सामुदायिक पहचान के कारण निशाना बनाया जा रहा था।

हमारे काम में, नियमित रूप से ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं जिनमें दो लोग सड़क किनारे बैठ कर पत्ते खेल रहे थे तो उन्हें सार्वजनिक रूप से जुआ खेलने के इलज़ाम में उठा लिया गया तो किसी को बिना लाइसेंस के चाकू रखने के कारण आर्म्स एक्ट 1959 के तहत हिरासत में ले लिया गया। ये सभी छोटे-मोटे अपराध हैं, फिर भी रोजाना की पुलिस कार्रवाई में ऐसी गिरफ्तारियां बहुतायत में देखी जाती हैं। आदतन अपराधी शासन  – जो न्यायिक निरीक्षण के अधीन नहीं आता है – से पुलिस की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। जिन लोगों को इस शासन के तहत अपराधी बनाया गया था, वे बहुत लंबे समय से इस वास्तविकता को जी रहे हैं। हालांकि जिस प्रणालीगत भेदभाव का उन्हें सामना करना पड़ता है, उसकी पुष्टि करने के लिए कोई ऐस साक्ष्य नहीं होता जिसे वे दिखा सकें। 

मैंने 2020 में कुछ लोगों के साथ सीपीए प्रोजेक्ट, एक आपराधिक न्याय अनुसंधान और अभियोग कार्यक्रम की स्थापना की। हमारा लक्ष्य आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अनुचित तरीके से निशाना बनाने की इस प्रक्रिया को समाप्त करना है। इस काम के लिए हम कई तरीक़ों का इस्तेमाल करते हैं। उनमें से एक, व्यवस्थित रूप से एफआईआर और गिरफ्तारी रिकॉर्ड का अध्ययन करना है ताकि हम पुलिस द्वारा अपनी ताकत इस्तेमाल करने के जातिवादी तरीक़ों को सामने ला सकें और उन्हें चुनौती दे सकें।

मध्य प्रदेश में किए गए शोध अध्ययनों से हमें कुछ तथ्य पता चलते हैं: 

हमारे द्वारा तैयार किया गया आंकड़ा रोजमर्रा की पुलिसिंग के पैटर्न को सामने लाता है और जो हमें बताता है कि किसे अपराधी बनाया जा रहा है और किस अपराध के लिए। यह आंकड़ा उस लोकप्रिय धारणा को चुनौती देता है कि पुलिस यौन हिंसा जैसे जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों के पीछे पड़कर अपराध को नियंत्रित करती है। हमारा शोध सामने लाता है कि प्रतिदिन की पुलिसिंग छोटे-मोटे अपराधों को कुछ ज्यादा ही निशाना बनाती है और इस प्रकार उत्पीड़ित जाति समुदायों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपराधीकृत कर देती है। इसका उनके समग्र उत्पीड़न में भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।

प्राप्त किये गए आंकड़े और साक्ष्य कानूनी समुदाय को विभिन्न कानूनों के तहत रणनीतिक मुकदमेबाजी करने में सक्षम बनाते हैं।

हम अपने शोध का उपयोग उत्पीड़ित जातियों के अपराधीकरण को रोकने के लिए करते हैं। प्राप्त किये गए आंकड़े और साक्ष्य कानूनी समुदाय को विभिन्न कानूनों के तहत रणनीतिक मुकदमेबाजी करने में सक्षम बनाते हैं। इसमें कानून द्वारा मान्यता प्राप्त कुछ अधिकारों की मान्यता की वकालत करना शामिल है, जैसे वन अधिकार जो वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 द्वारा अपराधीकृत हैं। इसके अतिरिक्त, इसमें कुछ छोटे-मोटे अपराधों को अपराध-मुक्त करने की वकालत करना भी शामिल है। हम आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर उनके वन अधिकारों के उल्लंघन पर सवाल उठाने के लिए इस डेटा तक पहुंचने और उसका लाभ उठाने में मदद करने के लिए भी काम करते हैं।

उत्पीड़ित समाज की आवाज़ को केंद्र में लाना

ज्ञान और समझ बनाने को लेकर एक काली-सफ़ेद सी बात चलती है जिसमें कुछ खास समुदायों को हमेशा ही शोध का विषय बना लिया जाता है। वहीं, कुछ अन्य समुदाय उनके जीवन का अध्ययन और विश्लेषण करते हैं। और, उनकी कहानी बाहर लाते हैं। 

सीपीए प्रोजेक्ट की संकल्पना एक ऐसे प्रयास के रूप में की गई है जो विभिन्न उत्पीड़ित जाति समुदायों के लोगों द्वारा बनाया और चलाया जाता है। उनकी भागीदारी अनुसंधान को विकसित करने और तैयार करने के साथ-साथ यह तय करने में भी होती है कि इन शोध निष्कर्षों का उपयोग कैसे किया जाना चाहिए। हम उन लोगों के साथ काम करते हैं जिन्हें अपराधी घोषित कर दिया गया है। इसके अलावा, हम समुदाय के कार्यकर्ताओं और वकीलों के साथ मिलकर यह निर्धारित करते हैं कि वे हासिल किए गए आंकड़ों का क्या इस्तेमाल करना चाहते हैं।

विभिन्न स्त्रोतों से ली गई जानकारी उन बातों की पुष्टि करती है जो उत्पीड़ित समुदायों के लोग पहले से जानते हैं। लेकिन यह उनकी आवाज़ों को केंद्रित करने का माध्यम भी बनती है और साथ ही, पीढ़ियों से चले आ रहे अपराधीकरण से लड़ने का एक हथियार भी। जातिवादी यथास्थिति को चुनौती देने वाले आंकड़े और सबूत तैयार करना और उनका दस्तावेजीकरण, और कुछ नहीं बल्कि अपनी कहानियों पर अपना अधिकार हासिल करना और उन्हें लोगों के सामने लाने की कोशिश है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

पुरुषों का साथ महिलाओं के लिए भूमि अधिकार हासिल करना आसान बना सकता है

भूमि स्वामित्व, महिला सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। लेकिन भारत में महिलाओं की भूमि-हीनता पर लिंग आधारित डेटा की कमी है। ऐसे में क्या इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 जैसे प्रगतिशील कानूनों के चलते देश में भूमि के संयुक्त स्वामित्व में वृद्धि हुई है। बात यह भी है कि महिलाओं के भूमि अधिकारों के मुद्दे को आगे बढ़ाने में यह कानून केवल पहला कदम है, क्योंकि भारत में महिलाओं को भूमि और संपत्ति पर अपने अधिकारों को प्राप्त करने, और उनका प्रयोग करने में महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। 

लैंगिक अधिकारों पर काम करने वाली शोध संस्था, इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वुमेन (आईसीआरडब्ल्यू) के रवि वर्मा बताते हैं कि इन प्रणालियों के केंद्र में मौजूद पितृसत्ता ही कानूनों के अप्रभावी होने का कारण है। वे कहते हैं कि “पारंपरिक प्रथाओं और असमान लैंगिक मानदंडों से मज़बूती पाने वाली पितृसत्ता, जमीन जैसी प्रमुख संपत्ति पर नियंत्रण के जरिए अपनी व्यापक और अक्सर हिंसक उपस्थिति को बनाए रखती है। उत्तराधिकार कानून और पहलें इस बात पर निर्णायक प्रभाव डालने में सक्षम नहीं हो सके हैं।” 

ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए समर्पित एक समाजसेवी संस्था, प्रकृति ने नागपुर जिले के 30 से अधिक गांवों में काम किया है। प्रकृति के मुताबिक पुरुषों की भागीदारी एक प्रभावी रास्ता है। प्रकृति की कार्यकारी निदेशक सुवर्णा दामले का कहना है कि “हमें इस बात का अहसास शुरुआत में ही हो गया था कि महिलाओं से बात करना और उन्हें अपने अधिकारों के बारे में बताना महत्वपूर्ण है। लेकिन अगर हम इस बातचीत में पुरुषों को शामिल नहीं करेंगे तो खास अंतर नहीं ला पाएंगे।”

रवि बताते हैं कि “महिलाओं के भूमि अधिकारों पर बातचीत में पुरुषों को शामिल करने का एक और कारण हिंसा को रोकना है।” वे आगे जोड़ते हैं कि महिलाओं को अक्सर ही बलपूर्वक और आक्रामक तरीक़े से उनकी भूमि से बेदख़ल कर दिया जाता है। कभी-कभी तो उनकी जान को भी ख़तरा होता है। भूमि का अधिग्रहण मिलने के बावजूद महिलाओं को पुरुषों द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। रवि बताते हैं कि “मैंने ऐसी कई महिलाओं के बारे में सुना है जिनके पास भूमि है लेकिन इन तमाम कारणों से उन्हें अपनी भूमि एक बोझ जैसी लगती है।” परिवार से अलग कर दिए जाने का डर भी महिलाओं को भूमि पर किसी भी प्रकार के अधिकार का दावा करने से रोकता है।

एक प्रभावी समाधान के लिए इन प्रणालियों में शामिल पुरुषों को लिंग और पितृसत्ता के बारे में संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है। रवि ज़ोर देते हुए कहते हैं कि इस तरह के संवाद के बिना, भूमि आवंटन से निपटने के क्रम में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को पुरुष वर्ग न तो समझ पाएगा और न ही इनका समाधान कर पाएगा।

महिलाओं के भूमि अधिकारों में पुरुषों का शामिल होना

सुवर्णा ने इस संदर्भ में पुरुष हितधारकों की भागीदारी का विवरण दिया। इनमें सबसे पहले सरकार और व्यवस्था से जुड़े लोग जैसे सरपंच, ग्राम सेवक या पटवारी आते हैं। सुवर्णा कहती हैं कि “हम कार्यान्वयन स्तर पर इन ऑफिस-होल्डर्स के साथ काम करते हैं। लेकिन अगर हम 50 ग्राम प्रधानों से बात करें, तो उनमें से केवल पांच ही महिलाओं के भूमि आवंटन और विरासत के मुद्दों पर बात और काम करने के लिए तैयार होंगे।” रवि इन जवाबदेह लोगों में होने वाले लैंगिक पूर्वाग्रहों की बात भी करते हैं। ऊपर से भले ही इन पूर्वाग्रहों क पता न चलता हो लेकिन निश्चित तौर पर ये महिलाओं को हाशिए पर खड़ा और वंचित महसूस करवाते हैं। वे कहते हैं कि “ये संस्थाएं पूरी तरह से पितृसत्तात्मक हैं और यहां पुरुषों का वर्चस्व है।” इस प्रकार, भूमि अधिकार मुद्दों को हल करने में इन जवाबदेह लोगों का शामिल न होना, न केवल भूमि अधिकार कानूनों के अपर्याप्त कार्यान्वयन और क्रियान्वयन की स्थिति पैदा करता है, बल्कि भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देने की महिलाओं की क्षमता को भी बहुत सीमित करता है।

परिवारों के भीतर, विशेष रूप से कृषि गतिविधियों से जुड़े परिवारों में, भूमि के विभाजन का भी विरोध होता है।

भेदभाव विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों से संबंधित महिलाओं या विधवाओं, अपने परिवार से अलग रहने वाली या परित्यक्त महिलाओं के मामले में बढ़ जाता है। रवि इस बात पर जोर देते हैं कि “पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं और उनका पालन करने वालों के पास इन महिलाओं के साथ जुड़ने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण, उपकरण, भाषा और संवेदनशीलता का अभाव है।” इसलिए, यहां पर पुरुषों (और महिलाओं) के बीच वास्तविक समानता का विचार विकसित किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि हाशिए पर रहने वाली महिलाओं की भूमि तक पहुंच बढ़ाने के लिए, कानूनों को लागू करने वाली संस्थाओं द्वारा अलग से प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।

नागपुर में, प्रकृति सक्रिय रूप से उन पुरुषों के साथ जुड़ कर काम करती है जो व्यक्तिगत नुकसान की संभावनाओं के कारण महिलाओं के भूमि अधिकारों का कड़ा विरोध करते हैं। सुवर्णा बताती है कि “उन्हें इस बात का डर होता है कि हम उनसे उनकी भूमि छीन लेंगे और महिलाओं को दे देंगे। हमें उन्हें यह समझाना होगा कि हमारा इरादा ऐसा कुछ करने का बिल्कुल नहीं है।” परिवार के पुरुष सदस्य इसका महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सुवर्णा इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि परिवारों के भीतर, विशेष रूप से कृषि गतिविधियों से जुड़े परिवारों में, भूमि के विभाजन का भी विरोध होता है। परिणामस्वरूप, महिलाओं के विरासत के अधिकार का विरोध किया जाता है। यह विधवाओं के लिए विशेष रूप से बुरा है। संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन इस बात पर प्रकाश डालता है कि तलाकशुदा या विधवा होने की स्थिति में कई महिलाओं को अपने भूमि अधिकार खोने का जोखिम उठाना पड़ता है।

धान की खेत की मेड़ पर चलती के महिला-भूमि अधिकार
जब महिलाओं के भूमि अधिकारों की बात आती है तो भूमि के विभाजन का डर सबसे बड़ी चुनौती है। | चित्र साभार: वॉलपेपरफ़्लेयर

पुरुषों को शामिल करने के प्रभाव

प्रकृति ऊपर बताए गए सभी हितधारकों के साथ खुलकर बातचीत करती है और भूमि अधिकारों से जुड़ी चर्चाओं में पुरुषों को शामिल करती है। सुवर्णा का कहना है कि “कम से कम 20-30 फ़ीसद पुरुष हमारे साथ बैठकर अपने परिवार में महिला सदस्यों के भूमि अधिकारों और इससे उनकी आजीविका और आय पर पड़ने वाले प्रभावों पर बातचीत करने के लिए तैयार रहते हैं।” नागपुर में इनके कार्यक्रम के विस्तार के साथ, इन चर्चाओं में भाग लेने वाले पुरुषों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।

रवि इस बात पर जोर देते हैं कि यदि इन कार्यक्रमों की परिकल्पना और डिज़ाइन पुरुषों की उपस्थिति के साथ की जाती है तो इससे परिवर्तन एवं प्रभाव दोनों ही स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेंगे। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पुरुष कठोर मानदंडों पर सवाल उठाते हैं और उन्हें चुनौती देते हैं। साथ ही, अपनी भागीदारी और प्रभाव को लेकर महत्वपूर्ण आत्म-विश्लेषण की प्रक्रिया भी शुरू कर देते हैं। पिछली क़तार में खड़े रहने वाली अपनी भूमिका से निकलकर ये सहयोग करने के तरीक़े ढूंढते हैं और परिवर्तन लाने वाली प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

रवि का कहना है कि “हमारे शोध के अनुसार इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पुरुष, लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा और आर्थिक इच्छाओं का समर्थन करते हैं, बाल विवाह या कम उम्र में होने वाले विवाहों को रोकने में मदद करते हैं और हिंसा को रोकते हैं।” आईसीआरडब्ल्यू ने यह भी नोट किया है कि परिवर्तन प्रक्रिया को बनाए रखने के लिए, पुरुषों को सहायक सहकर्मी समूहों और महिला सशक्तिकरण रणनीतियों के साथ तालमेल स्थापित करने की आवश्यकता है।

चुनौतियों से निपटना

अपने काम के दौरान प्रकृति ने पाया है कि जब महिलाओं के भूमि अधिकारों की बात आती है तो भूमि के विभाजन का डर सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरता है। इस डर के पीछे उनकी यह चिंता होती है कि महिला परिवार के सदस्यों के बीच भूमि के बंटवारे से विखंडन की स्थिति पैदा होगी और ऐसा संभव है कि इससे भूमि जोत की उत्पादकता और आर्थिक व्यवहार्यता भी प्रभावित हो। परम्परागत रूप से भूमि से जुड़े सभी फ़ैसले लेने का अधिकार रखने वाले परिवार के पुरुष सदस्य कम कृषि उत्पादन और आर्थिक स्थिरता से जुड़ी आशंकाओं के कारण भूमि के विभाजन का विरोध कर सकते हैं।

“अगर परिवार के पास पांच से छह एकड़ भूमि होती है तो हम प्रयास करते हैं कि वे एक या आधी एकड़ ज़मीन महिलाओं को दे दें।”

प्रकृति ने निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करने का प्रयास करके इस समस्या से निपटने का एक तरीका अपनाया है। सुवर्णा कहती हैं कि “अगर परिवार के पास पांच से छह एकड़ भूमि होती है तो हम प्रयास करते हैं कि वे एक या आधी एकड़ ज़मीन महिलाओं को दे दें, ताकि वे भूमि के उस टुकड़े पर अपनी इच्छा के अनुसार खेती कर सकें।” खेती से जुड़े कामों में महिलाओं की भूमिका को केवल श्रमिक होने तक न सीमित रख कर प्रकृति उन्हें कृषि से जुड़े मामलों के विभिन्न पहलुओं में सक्रिय रूप से शामिल करती है। साथ ही, यह सुनिश्चित करती है कि महिलाएं खेती से संबंधित वित्तीय मामलों में अधिक महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाएं।

रवि इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं कि “पुरुषों पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक लिंग परिवर्तनकारी रणनीति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाएं किसी भी चर्चा में खुले तौर पर भाग ले सकें या भूमि से जुड़ी निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग ले सकें। और ऐसा समानता और सम्मान की भावना के साथ और बिना किसी दबाव के किया जा सके।”

प्रकृति के सामने आने वाली चुनौतियों में से एक, पुरुषों द्वारा किया जाने वाला यह दावा है कि यदि उत्तराधिकार और भूमि अधिकार भारतीय कानून का हिस्सा हैं ही तो फिर बाहरी हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। हालांकि जैसा कि सुवर्णा बताती हैं, ये तर्क कानून के कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियों को नजरअंदाज करते हैं। कभी-कभी, सही दस्तावेज उपलब्ध नहीं होते हैं और पटवारी और अन्य सरकारी अधिकारी सहयोग करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में धीरे-धीरे व्यवहार परिवर्तन को बढ़ावा देना ही एकमात्र समाधान है।

महिलाओं के भूमि अधिकारों की खोज में पुरुषों को शामिल करने का महत्व साफ है। ऐसा करने का इरादा रखने वाले संगठनों को उन कार्यक्रमों में पुरुषों को शामिल करना चाहिए जो व्यक्तिगत परिवर्तन लाने में मददगार हों। रवि के अनुसार, इसे हासिल करने के लिए “लोगों में एक गहरी समझ पैदा करने की जरूरत होगी जो महिलाओं और पुरुषों दोनों के साथ जुड़ सके और लैंगिक मानकों को बनाने और मजबूत करने वाली वजहों पर काम कर सके।” इससे संगठनों को शक्ति असंतुलन को सही करने, सुरक्षित स्थान बनाने, लैंगिक समानता के फ़ायदों पर संवाद करने में सुविधा होगी। साथ ही, इससे मजबूत संस्थागत साझेदारी बनाने और उन पर विचार और कार्रवाई की एक परंपरा के लिए प्रतिबद्ध होने में मदद मिलेगी। यह सामूहिक रूप से सार्थक परिवर्तन लाने में योगदान कर सकता है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

सुवर्णा दामले प्रकृति की कार्यकारी निदेशक हैं। वह 1993 से ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के कार्यक्रमों से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने स्थानीय निर्णय लेने वाले निकायों में चुनी गई महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर काम किया है। सुवर्णा दक्षिण एशियाई महिला नेटवर्क से जुड़ी रही हैं और उन्हें 2012 में संसदीय अध्ययन पर राज्यसभा फ़ेलोशिप भी मिल चुका है।

रवि वर्मा एक सामाजिक वैज्ञानिक और सामाजिक जनसांख्यिकी और मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लिंग और पुरुषत्व के विशेषज्ञ हैं।उनके पास तीन दशकों से अधिक का अनुभव है और अभी वह अनुसंधान करने, तकनीकी सहायता प्रदान करने, क्षमता निर्माण और कई मुद्दों पर नीतिगत संवाद में भाग लेने में आईसीआरडब्ल्यू के प्रयासों का नेतृत्व करते हैं।रवि लिंग और स्वास्थ्य पर लैंसेट आयोग में आयुक्त के रूप में भी कार्य करते हैं और वूमेन लिफ्टहेल्थ और ग्लोबल हेल्थ 50/50 के बोर्ड में बैठते हैं।

अधिक जानें

पानी बचाना है तो समुदाय को उसका मालिक बनाना होगा 

पूर्वी एवं मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों- जहां प्रदान पिछले 40 सालों से काम कर रहा है- में छोटे एवं पिछड़े किसानों का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो अपने खेतों में वर्षा-आधारित खेती करते हैं और जंगलों पर आश्रित हैं। इन इलाकों में भारी मात्रा में वर्षा होती है लेकिन पहाड़ी इलाक़ा होने कारण बारिश का सारा पानी बह कर नीचे चला जाता है। नतीजतन, यहां के लोगों को गंभीर जलसंकट से जूझना पड़ता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड की राज्य सरकारों द्वारा वाटरशेड विकास के प्रयासों में कामचलाऊ निवेश होने के कारण इनका प्रभाव सीमित है। ज़्यादातर मामलों में योजना और कार्यान्वयन, दोनों ही स्तरों पर जनजातीय समुदायों की उपस्थिति नदारद पाई गई है। 

योजनाएं बनाने और फ़ैसले लेने की प्रक्रियाओं में समुदायों की भागीदारी सीमित होने के कारण, लोग विकास पहलों को अपने जीवन और आजीविका के अवसरों के साथ जोड़कर नहीं देख पाते हैं। एक जल संरक्षण प्रणाली तभी सफल और टिकाऊ हो सकती है, जब यह समुदाय के उस नजरिए के मुताबिक बनाई गई हो जिसमें लोग अपने लिए बेहतर जीवन और आजीविका की संभावना देखते हों। इसे लोगों और पशु-पक्षियों, दोनों की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए। प्रदान में काम करते हुए यही हमारे लिए एक महत्वपूर्ण सीख रही है।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, और जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी समस्याओं का समाधान, इलाके में व्यक्तिगत स्तर पर परिवारों और किसानों से सूक्ष्म स्तर पर जुड़कर निकाला जा सकता है। प्रदान में, हम ऐसा मानते हैं कि लोग हमेशा ही अपनी ज़रूरतों के अनुसार बदलाव लाने में सक्षम होते हैं। सामुदायिक भागीदारी से यह तय होता है कि समुदाय की जरूरतों और ज्ञान का भी तालमेल बड़ी विकास पहलों के साथ हो सके। बॉटम-अप का यह दृष्टिकोण कोई नया विचार नहीं है। समाजसेवी संस्थाएं कई दशकों से, भागीदारी और समुदाय-आधारित योजना निर्माण और कार्यान्वयन को साथ लाने का काम करती रही हैं।

हम महिलाओं की जल्दी से सीखने और उसके मुताबिक ढलने की इच्छा देखकर हैरान रह गए।

अपने शुरुआती दिनों में, हमने माइक्रोफ़ाइनैन्स के लिए महिलाओं के स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) स्थापित किए थे। लेकिन जब हमने उन्हें बचत और लेनदारी से परे जाकर योजना निर्माण की प्रक्रियाओं में शामिल करना शुरू किया तब हम उनकी जल्दी सीखने और अनुकूल होने की ललक एवं समुदाय के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता को देखकर हैरान रह गए। हमने उनके भीतर वित्तीय, तकनीकी, सामाजिक और यहां तक कि राजनीतिक सम्भावनाएं, ज्ञान और उद्यमशीलता पाई।

हम जल्द ही इस बात को समझ गए थे कि विकास कार्यक्रमों के योजना निर्माण की प्रक्रिया पर दोबारा सोचने का समय आ गया है। साथ ही, इन प्रक्रियाओं में न केवल महिलाओं को शामिल करने की आवश्यकता है बल्कि हमें अपनी योजनाओं और उनके कार्यान्वयन की बागडोर भी उनके हाथों में थमा देनी चाहिए। अब महिलाओं ने कार्यक्रमों का स्वामित्व अपने हाथों में ले लिया है; कई एसएचजी की सदस्य अब स्थानीय चुनाव लड़ रही हैं और पंचायत सदस्य बन चुकी हैं। इसलिए हम इस बात से सहमत थे कि महिलाएं इस प्रक्रिया की मुख्य हितधारक हैं और उन्हें आगे आकर नेतृत्व करना चाहिए। 

सदी के शुरुआती सालों से हमने ग्रामीण क्षेत्रों में जल सुरक्षा योजनाओं में किसानों, खासतौर पर महिलाओं को संगठित करना शुरू कर दिया था। पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में हमारा एकीकृत प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (इंटीग्रेटेड नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट) मॉडल 110,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि में फैला है और इसने 740,000 से अधिक किसानों की आय में सुधार लाने का काम किया है। यह कैसे सम्भव हो सका?

सामुदायिक भागीदारी

समुदाय जब अपनी योजनाओं पर काम करते हैं तो उन्हें प्रेरणा मिलती है। व्यक्तिगत स्तर पर परिवारों को योजना निर्माण के चरण में शामिल करने से सदस्यों के अंदर स्वामित्व का भाव पैदा होता है। इस तरह वे इसे अपनी सम्पत्ति मानते हैं और जुड़ाव महसूस करते हैं। दरअसल, हमें एक ऐसे तरीक़े की ज़रूरत है जिससे समुदायों से जुड़ी बॉटम-अप योजनाओं को अच्छी तरह से आपस में जोड़ा जाए ताकि इसे विभिन्न सरकारी विभागों से फंड भी मिल सके। इस प्रकार, सरकार लोगों द्वारा बनाई गई योजनाओं पर काम करती है न कि लोग सरकार द्वारा बनाई गई योजनाओं पर। जब समुदाय के लोगों को प्रक्रिया के शुरुआती चरण में ही जोड़ लिया जाता है तब वे इसके निर्माण और देखभाल में अपना समय, अपनी ऊर्जा और यहां तक कि वित्तीय और ग़ैर-वित्तीय संसाधनों का भी निवेश करते हैं। 

किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले सामुदायिक संसाधन व्यक्ति (कम्यूनिटी रिसोर्स पर्सन) समुदायों को उनकी जरूरतों और चुनौतियों को समझने के लिए संगठित करते हैं। हम महिलाओं के एसएचजी, ग्राम-स्तरीय संगठनों और क्लस्टर-स्तरीय संघों के साथ काम करते हैं। सदस्य अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों पर विचार करने के लिए इकट्ठा होते हैं और अपने सामने उपस्थित विकल्पों पर सोच-विचार करते हैं। वे गांव के बुनियादी ढांचे या स्कूलों और अपने बच्चों के लिए सुविधाओं की आवश्यकता पर चर्चा करते हैं। अक्सर ही ये बातचीत आजीविका के मुद्दे पर आ जाती है और आजीविका से जुड़ी सारी बातचीत और चर्चाओं के केंद्र में पानी होता है। 

खेती-किसानी, जंगल के संसाधनों या मवेशी पालन से अपनी आजीविका चलाने वाले लोग बातचीत के अंत में पानी की उपलब्धता से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा करने लग जाते हैं। इस बातचीत के अगले चरण में हम इस पर चर्चा करते हैं कि खाद्य एवं जल सुरक्षा को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके आधार पर, टोले और गांव जल संरक्षण के लिए अपनी योजनाएं बनाते हैं जो उनके संसाधनों – भूमि, जल, पशुधन और मानव संसाधन – के साथ-साथ उनकी ज़रूरतों, प्राथमिकताओं और आकांक्षाओं से जुड़ी होती हैं। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि नियंत्रण, पहल और प्रभाव की बागडोर समुदाय के हाथों में ही रहे। लेकिन हम विचारों को योजनाओं में बदलने के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करते हैं और साथ ही उनकी व्यवहार्यता का पेशेवर मूल्यांकन भी करते हैं।

खेत में कुदाल लेकर एक क़तार में खड़ी कुछ महिला किसान-समुदाय जल संरक्षण
जब समुदायों की निर्णय लेने में सीमित भागीदारी होती है, तो वे विकास पहलों को अपने जीवन से जोड़ने में असमर्थ होते हैं। | चित्र साभार: सीआईएमएमवायटी / सीसी बीवाय

सार्वजनिक धन का उपयोग

क्षेत्रों को सूखे, वनों की कटाई और मिट्टी के क्षरण से बचाव को सुनिश्चित करने वाले संसाधनों के निर्माण के लिए 2005 से महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत सार्वजनिक धन को उपलब्ध कर दिया गया है। दैनिक रोज़गार पाने की इच्छा रखने वाले लोग मनरेगा फंड का उपयोग जल संग्रहण करने वाले स्थानों जैसे कि तालाब, खाइयों, गली प्लग, सीपेज टैंकों और वर्षा जल संचयन संरचनाओं के निर्माण के लिए कर सकते हैं।

इन योजनाओं को लागू करने में, समुदाय के सदस्य अपनी खुद की भूमि और जल संपत्ति के निर्माण के दौरान मज़दूरी कमाते हैं।

ग्राम पंचायत, योजना इकाई होती है। जब स्वयं सहायता समूह पंचायत के साथ मिलकार काम करते हैं तो स्थानीय रूप से उपयोगी व्यापक उपचार योजनाओं को विकसित करना सम्भव हो जाता है। साथ ही इनमें लोगों की ज़रूरतों को भी ध्यान में रखा जाता है। उसके बाद पंचायत इस बजट को तीन से चार साल की योजनाओं में आवंटित करती है। इन योजनाओं को लागू करने में, समुदाय के सदस्य अपनी खुद की भूमि और जल संपत्ति के निर्माण के दौरान मज़दूरी कमाते हैं। यह बदले में खेती को टिकाऊ बनाता है। इसके बाद खेती में निवेश से बेहतर परिणाम के लिए प्रदान उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।

सबको साथ लाने का नुस्खा

प्रदान यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि ग्राम पंचायत योजना निर्माण प्रक्रिया में एसएचजी को जोड़ा जाए। पंचायती राज संस्थाओं, स्वयं सहायता समूहों और स्थानीय प्रशासन के बीच यह सहयोग परिवर्तन की प्रक्रिया की रीढ़ है। एक बार जब किसी योजना को लागू करने का यह मॉडल सफल हो जाता है- इस मामले में मनरेगा के साथ- तब यह अन्य सरकारी विभागों, दानकर्ताओं और संगठनों के भाग लेने के लिए मार्ग बनता है। इसी टेम्पलेट का उपयोग रुचि लेने वाले अन्य हितधारकों से प्राप्त संसाधनों के मिलान के लिए भी किया जा सकता है। लगाए गए संसाधनों की मात्रा के आधार पर, यह विस्तार के लिए एक ढांचा बन जाता है जहां नागरिक समाज संगठन और सरकार पूरक भूमिका निभाते हैं। वित्तीय संस्थान उसी ढांचे के भीतर काम करने के लिए पूंजी और बाजार से जुड़े अन्य समर्थन भी प्रदान कर सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कई हस्तक्षेप एकीकृत हो जाते हैं, और इसका प्रभाव कई गुना अधिक हो जाता है, जिससे संपूर्ण मूल्य श्रृंखला बन जाती है। वास्तव में, कई जगहों पर यह अब कृषि से आगे बढ़कर किसान उत्पादक संगठनों तक पहुंच गया है। प्रदान प्रोटोटाइप बनाता है लेकिन, समय के साथ, यह इस कारगर व्यवस्था में शामिल कई हितधारकों में से एक बन जाता है।

‘लोगों के झुकावके लिए प्रशिक्षण

स्थानीय समुदायों को उनके संसाधनों का प्रबंधन करने की क्षमता के निर्माण के अपने इतने सालों के अनुभव से हमने यह सीखा है कि कोई भी मॉडल “सिल्वर बुलेट” नहीं है; और न ही कोई ऐसा ढांचा हो सकता है जो सभी दृष्टिकोणों के लिए लिए अनुकूल हो। समाधानों को स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक तैयार करने और लोगों को अपने संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। 

यही कारण है कि हम सर्वश्रेष्ठ तकनीकी और प्रबंधकीय कॉलेजों के छात्रों की भर्ती करते हैं और उन्हें एक गहन विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम का हिस्सा बनाते हैं। वे उन समुदायों के लोगों के बीच एक साल का समय बिताते हैं जिनके साथ भविष्य में उन्हें काम करना होता है। वे अपना यह एक साल सीखने और उससे अधिक महत्वपूर्ण रूप से पहले से सीखी गई बातों को भूलने में लगाते हैं। ऐसा सम्भव है कि एक इंजीनियर के भीतर इंजीनियरिंग को लेकर कोई झुकाव हो और एक कृषक में खेती के प्रति।  हम चाहते हैं कि वे सभी ‘लोगों’ को लेकर झुकाव बनाएं, ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी आवाज सुनने की संभावना सबसे कम है। 

वास्तविक विकास के लिए, हमें एक समाज के रूप में उन लोगों को सुनने की जरूरत है जिन्हें कभी नहीं सुना जाता है। हमें क़तार में खड़े सबसे अंतिम व्यक्ति को पहला बनाने का भरोसा जताना होगा। सामुदायिक दृष्टिकोण या बॉटम-अप दृष्टिकोण का काम बिल्कुल यही है – सबसे कमजोर और बेआवाज़ लोगों को अपनी बात रखने के लिए जगह या मंच प्रदान करना।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

महिलाएं जलवायु परिवर्तन के काम को रफ्तार दे सकती हैं

जलवायु संकट, हमारे समय की सबसे बड़ी आपदाओं में से एक है लेकिन यह एक लैंगिक समीकरणों से परे रहने वाला कोई मुद्दा नहीं है। अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक निर्भरता, सार्वजनिक निर्णय लेने में भागीदारी की कमी और जमीन तक सीमित पहुंच समेत कई कारणों से महिलाएं जलवायु परिवर्तन से ग़ैर-अनुपातिक रूप से प्रभावित होती हैं। हालांकि इस संकट से निपटने के लिए डिज़ाइन किए गए समाधानों में अक्सर ही महिलाओं को बाहर ही रखा जाता है। 

महिलाओं पर जलवायु संकट का प्रभाव भिन्न तरीक़े से पड़ता है

दुनियाभर में, जलवायु संकट के कारण विस्थापित हुए लोगों में 80 फ़ीसद महिलाएं हैं। डबल्यूएचओ के अध्ययन के अनुसार मौसम से जुड़ी आपदाओं के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। ग्रामीण एवं शहरी, दोनों ही क्षेत्रों की महिलाओं को जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से अलग-अलग तरीक़ों से गुजरना पड़ता है। 

उदाहरण के लिए, घरों में पेयजल एवं अन्य कामों में इस्तेमाल के लिए पानी के इंतज़ाम की जिम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं के ही कंधे पर होती है। ग्रामीण महिलाओं को ज्ञान, कौशल एवं साधनों तक पहुंचने में उनकी मदद करने वाली समाजसेवी संस्था बज़ वीमेन की संस्थापक उथरा नारायणन बताती हैं कि घटते भूजल संसाधन महिलाओं के लिए मानसिक तनाव का कारण बन गए हैं। वे कहती हैं कि “महिलाएं लगातार इस बात को लेकर चिंतित रहती हैं कि पानी कहां से लाएं। साथ ही, उन्हें परिवार तथा खेती के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पानी के इंतज़ाम पर होने वाले खर्च को लेकर भी फ़िक्रमंद रहती है।” उन्होंने बताया कि देश के कई हिस्सों में अत्यधिक और अप्रत्याशित रूप से होने वाली बारिश के कारण पिछले दो वर्षों में फसलों को होने वाले नुक़सान और उसके चलते उन पर पड़ने वाले कर्ज से भी उनके तनाव का स्तर बढ़ा ही है। 

शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को अत्यधिक गर्मी और जलभराव के कारण समान मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है। 

शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को अत्यधिक गर्मी और जलभराव के कारण समान मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है, जो कि शहरों में जलवायु परिवर्तन के सबसे स्पष्ट प्रभावों में से एक है। मानसून के दौरान, भीड़भाड़ वाले शहरी क्षेत्रों में -विशेष रूप से झुग्गियों में – अक्सर ही बाढ़ आ जाती है। उचित बुनियादी ढांचा न होने के चलते इन परिस्थितियों में शौचालय अनुपयोगी हो जाते हैं। ऐसे में जहां पुरुषों के पास नित्यकर्म के लिए बाहर जाने की सुविधा उपलब्ध होती है, वहीं महिलाओं के लिए यह अक्सर ही दूभर हो जाता है।

इसके अतिरिक्त, बाढ़ से डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया जैसी कई तरह की बीमारियां फैलती है। चूंकि आमतौर पर परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल करने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है इसलिए किसी भी सदस्य के बीमार होने पर महिलाओं पर मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार का बोझ बढ़ जाता है। लिंग और शहरी विकास के अंतर्संबंध पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था महिला हाउसिंग ट्रस्ट (एमएचटी) की कार्यकारी निदेशक बीजल ब्रह्मभट्ट बताती हैं कि “बाढ़ के कारण होने वाली गंदगी की सफ़ाई और नुक़सान की भरपाई दोनों ही का ज़िम्मा महिलाओं का होता है। इसके अलावा परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल का बोझ बढ़ने के कारण उन्हें आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए कम समय मिलता है। नतीजतन इससे उनकी आमदनी प्रभावित होती है। 

जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं को ऐसे संज्ञानात्मक बोझ का अनुभव करना पड़ता है जिनसे आमतौर पर पुरुष मुक्त होते हैं।

शहरों में घरों का निर्माण वेंटीलेशन को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है। हवादार नहीं होने के कारण इन घरों के अंदर गर्मी बहुत अधिक होती है और यह महिलाओं को विशिष्ट रूप से प्रभावित करती है। बीजल विस्तार से बताती हैं कि अनौपचारिक क्षेत्रों की महिलाएं अपने घरों का इस्तेमाल आर्थिक गतिविधियों के लिए करती हैं। नतीजतन, बहुत गरमी होना उनके स्वास्थ्य को ख़राब करता है और उनकी उत्पादकता में लगातार कमी आती है। बीजल आगे कहती हैं कि “इन प्रभावों को मापना मुश्किल है और इनकी क्षतिपूर्ति भी नहीं की जा सकती है। लेकिन ये सर्वव्यापी हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं के ऊपर ऐसे कई अदृश्य बोझ पड़ते हैं जिनसे आमतौर पर पुरुषवर्ग अछूता रहता है।”

बीजल का कहना है कि इस तरह के बढ़ते बोझ के बावजूद भारत के शहरी इलाक़ों में निम्न आय वर्ग की महिलाएं जलवायु संकट पर ध्यान नहीं देती हैं क्योंकि उनका पूरा ध्यान जीवनयापन पर होता है। वे बताती हैं कि “ऐसी महिलाओं के लिए हर दिन एक संघर्ष है। वे भूकम्प या बाढ़ जैसी आपदाओं के प्रभावों को समझती हैं लेकिन जब बात अधिक तापमान या जल से जुड़ी बीमारियों की होती है तब वे इन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं देती हैं।” बीजल आगे कहती हैं कि संकट का यह विचार उनके लिए दूर की कौड़ी जैसा है और शहरी क्षेत्रों की मध्य और उच्च वर्ग की महिलाओं की भी सोच ऐसी ही है। उन्होंने बताया कि “हम अपना बहुत अधिक समय महिलाओं को यह समझाने में लगाते हैं कि समस्या पहले से ही मौजूद है और यह और भी बदतर होने वाली है। लेकिन हमें लोगों को इसकी गंभीरता समझाने के लिए अधिक ऊर्जा और समय निवेश करने की आवश्यकता होगी।”

हालांकि ग्रामीण इलाक़ों की महिलाएं अपने जीवन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अपेक्षाकृत जल्दी समझ जाती हैं। उथरा कहती हैं कि शुरुआत में उनकी टीम गरीब ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने को लेकर सशंकित थी और उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को लेकर उनकी समझ पर शक भी था। लेकिन उन महिलाओं ने उन्हें ग़लत साबित कर दिया। चूंकि उन्हें प्रति दिन इन सबसे गुज़रना पड़ता है इसलिए वे इन्हें लेकर उत्सुक थीं और तेज़ी से सीख रही थीं। उन लोगों ने जलवायु परिवर्तन के महत्व को बहुत जल्दी समझ लिया और इस दिशा में काम करने लिए प्रेरित हो गईं।

वे जोड़ती हैं कि “उन्होंने तुरंत ही इस समस्या को अगली पीढ़ी पर पड़ने वाले प्रभावों के साथ जोड़ लिया और इस बात को लेकर चिंतित हो गईं कि वे अपने बच्चों के लिए विरासत में क्या छोड़कर जाएंगे। ‘अगर मुझे पानी के लिए बहुत दूर पैदल चलकर जाना पड़ता है और इसके लिए पैसे भी खर्च करने पड़ते हैं तो कल्पना कीजिए कि बड़ी होने के बाद मेरी बेटी को प्रयास और पैसे, दोनों ही स्तरों पर कितना अधिक खर्च करना पड़ेगा।’  जब हमने उनसे वित्तीय साक्षरता के बारे में बात की तो हमें इस बात का अहसास हुआ कि उन्हें लगता है कि धन कमाना अब भी उनके पति की जिम्मेदारी है। लेकिन बात जब पानी, खाने और स्वास्थ्य की आती है तब महिलाएं इन समस्याओं को अपनाती हैं और इनके समाधान के लिए खुद को ज़िम्मेदार भी मानती हैं।” 

महिलाएं संकट का सामना जल्दी कर लेती हैं

उथरा कहती हैं कि समस्या की भयावहता को समझने के बाद, ग्रामीण महिलाएं इस बदलाव के अनुकूल उपाय विकसित कर रही हैं। 

जल का पुनर्चक्रण एक ऐसी ही शुरुआत है। उथरा का कहना है कि अपनी रसोई से घर के पिछले हिस्से को एक चैनल के माध्यम से जोड़कर महिलाओं ने रसोई से निकलने वाले अपशिष्ट जल का प्रयोग कर अपने मवेशियों के लिए चारा उगाना शुरू कर दिया। उन्होंने खेती के पुराने तरीक़ों की ओर लौटना शुरू कर दिया है, कीटनाशकों का कम उपयोग करने लगी हैं और मिट्टी के पोषक तत्वों को बरकरार रखने के लिए बदल-बदल कर फसलों को उगाना शुरू कर दिया है।

अपने हाथ में सोलर पैनल लेकर खड़ी चार महिलाएं_महिला जलवायु परिवर्तन
हमें केवल महिलाओं को जलवायु परिवर्तन के शिकार के रूप में देखना बंद करना होगा। | चित्र साभार: डीएफ़आईडी / सीसी बीवाय

बीजल बताती हैं कि महिलाओं को संकट से निपटने के लिए सरल और अधिक किफायती साधन तलाशने पर मजबूर होना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने वाली एयर कंडीशनर जैसी तकनीकें गरीब वर्ग के लोगों को को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गई हैं।

उदाहरण के लिए, बाढ़ और जलभराव से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए महिलाएं अपने घरों के सामने एक छोटी दीवार बनाती हैं – इससे पानी अंदर आने से रुक जाता है। वे आगे जोड़ती हैं कि “यदि उनके पैसा धन है और वे ऋण ले सकती हैं तो वे अपने घर की प्लिन्थ को उंचा कर लेती हैं ताकि इसकी उंचाई सड़क की उंचाई से अधिक हो जाए। उसी प्रकार, गर्मियों में घरों को ठंडा रखने के लिए वे अपनी छतों पर चूने की एक परत चढ़ाती हैं।”

बीजल यह भी बताती हैं कि महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से अपनाए गए बदलाव समाधानों को यदि बड़े पैमाने पर लागू किया जाए तो इससे बड़ी राहत मिल सकती है। उनका कहना है कि “अधिकांश मामलों में, हम महिलाओं को व्यक्तिगत और घरेलू स्तर पर जो करते देखते हैं, वह अनुकूलन है – उदाहरण के लिए, गर्मी की लहरों से निपटने में मदद के लिए घर की छतों को ठंडा रखना। लेकिन यदि इसे शहर या राज्य के स्तर पर अपनाया जाए तो यही प्रयास राहत कार्य का रूप ले सकती है। क्योंकि शहर भर में ठंडी छतें एयर कंडीशनिंग की खपत को कम करेंगी, जिसके परिणामस्वरूप कार्बन उत्सर्जन कम हो सकता है।”

हालांकि, आम धारणा यह है कि महिलाएं ज़्यादातर तुक्का लगा रही हैं और अनुकूलन पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही हैं क्योंकि जलवायु संकट उन्हें और उनके परिवार को प्रभावित कर रहा है। उन रणनीतियों और मॉडलों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है जिनका वे हिस्सा हैं, जो जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं। 

महिलाओं को सुधार संबंधी मुख्यधारा के प्रयासों का हिस्सा बनना चाहिए

इंडस्ट्री की साझेदारी एवं संचार प्रमुख, अकीला लीन का मानना है कि जलवायु से जुड़ी सकारात्मक कहानियों में महिलाएं मूल्यवान व्यवस्थापक हो सकती हैं, विशेष रूप से तब जब इसे सामूहिक बनाया जाए। इंडस्ट्री एक समाजसेवी संस्था है जो महिलाओं को स्थायी आजीविका निर्माण में मदद के लिए समता, जलवायु और लिंग (ईसीजी) पर काम करता है। वे बताती हैं कि कैसे प्रकृति-आधारित समाधानों पर काम करने वाली महिलाएं पहले से ही कार्बन पृथक्करण और शमन प्रयासों में योगदान दे रही हैं। “अब हमें उन्हें वैश्विक जलवायु सकारात्मक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनने के लिए तैयार करना चाहिए।” 

अकीला महाराष्ट्र में ईएसजी-अनुपालक बांस परियोजना का उदाहरण देती हैं जो वायुमंडल में सालाना 20,000 टन तक कार्बन डाइऑक्साइड को अलग करने में मदद करेगी। “बांस के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक होने के बावजूद, भारत के सभी बांस उत्पाद अभी भी आयात किए जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम एफ़एससी- प्रमाणित बांस का उत्पादन नहीं करते हैं जो निजी भूमि पर उगाए गए बांस को संदर्भित करता है।” उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा कि अपनी महिला किसानों को अपनी जमीन के अप्रयुक्त क्षेत्रों में बांस उगाने के लिए प्रोत्साहित करके, भारत बांस आधारित उत्पाद तैयार कर सकता है। इसलिए बांस में इंडस्ट्री का काम महिलाओं के लिए आजीविका सृजन के साथ-साथ जलवायु शमन की दोहरी भूमिका निभाता है।

महिलाएं जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और निभा रही हैं।

उनके अन्य महिला समूह भी हाथ से बुनी हुई टोकरियां और सियाली पत्ती प्लेट जैसे विभिन्न हरित उत्पाद बनाते हैं जो एकल-उपयोग प्लास्टिक के बदले इस्तेमाल में लिए जाते हैं। अकीला कहती हैं कि “अभी, हमारा पूरा ध्यान महिलाओं को केवल जलवायु परिवर्तन के निष्क्रिय प्रभावितों के रूप में देखने पर केंद्रित है लेकिन अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। वे सुधार और प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और निभा रही है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके अंदर अपनी आमदनी बढ़ाने की और आगे बढ़ने के लिए मुख्यधारा में शामिल होने की क्षमता है।”

उथरा इस बात से सहमत दिखती हैं कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रयासों में महिलाओं की भागीदारी से न केवल कार्रवाई में सहायता मिलेगी बल्कि उनके लिए आजीविका के वैकल्पिक अवसर भी उपलब्ध होंगे। वे गांवों में पैकेज्ड फूड और घरेलू सामान जैसे एफएमसीजी उत्पादों की बढ़ती खपत की ओर इशारा करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप गांवों में नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरे में तेजी से वृद्धि हुई है।हालांकि जलवायु की समस्याओं में अपना योगदान देने वाली बड़े पैमाने पर होने वाली इस खपत आयर पलस्टिक के निपटान की ख़राब व्यवस्था महिलाओं के लिए अवसर का रूप ले सकती हैं।

बाढ़ के कारण सड़क पर हुए जलजमाव में चलती हुई एक महिला_महिला जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन के लिंग-विशिष्ट प्रभावों को हल करने वाली पहलों की पहचान करना और उन्हें अपनाना आवश्यक है। | चित्र साभार: वर्षा देशपांडे / सीसी बीवाय

उथरा के अनुसार यदि गांवों में महिलाएं ऐसी वस्तुओं का निर्माण करना शुरू कर दें जिनकी बिक्री और खपत स्थानीय स्तर पर हो सके तो इससे न केवल आमदनी होगी बल्कि यह बड़ी कंपनी द्वारा बड़े पैमाने पर निर्मित वस्तुओं के आयात से उत्पन्न कार्बन फुटप्रिट्स में भी कमी लाएगा।

बज़ वीमेन, स्थानीय उत्पादन और उपभोग के इस विचार के साथ प्रयोग कर रही है। उन्होंने भारत के शहरी इलाक़ों में टूथ पाउडर बेचने वाली दिल्ली-स्थित कंपनी, पक्षांतर से बात की और उनके तरीकों के बारे में जाना है। उथरा कहती हैं कि “उसके बाद हमने कर्नाटक के तुमकुर जिले के अरकेरे गांव में महिलाओं को स्थानीय सामग्रियों का उपयोग करके टूथ पाउडर बनाने का प्रशिक्षण दिया, उन्हें पैकेजिंग डिजाइन करने में मदद की और स्थानीय बिक्री को सक्षम बनाया। इसने मुझे यह सोचने पर प्रेरित किया कि शायद पर्याप्त स्थानीय मांग वाले अन्य उत्पाद भी हैं जिन्हें महिलाएं बना सकती हैं।” उन्होंने पाउडर और डिटर्जेंट जैसे सफाई उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया क्योंकि लोग किसी ब्रांड विशेष से बंधे नहीं हैं, और इन उत्पादों को खरीदने का फ़ैसला अक्सर महिलाएं लेती हैं।

बीजल का मानना है कि बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले इस कचरे से महिलाओं के लिए एक अलग तरह का अवसर पैदा होता है। वे कहती हैं कि “यदि व्यवसायिक अवसर के रूप में महिलाओं को कचरा रूपांतरण और संरक्षण के काम में शामिल किया जाए तो इससे उन्हें न केवल आमदनी होगी बल्कि वातावरण को भी फायदा पहुंचेग़ा। यदि हम यह तय करने में सक्षम हो जाएं कि शहरी वानिकी की देखभाल, विकास और रखरखाव में महिला एसएचजी को कैसे शामिल किया जाए और इसके लिए उन्हें किस प्रकार उचित मुआवज़ा दिया जाए तो शहरी वानिकी पर सरकारी कार्यक्रम भी एक अवसर हो सकता है।”

महिलाओं की पहचान जलवायु समाधानों के संचालक के रूप में करना

मौजूदा संरचनात्मक असमानताएं मौजूदा संकट से निपटने में समस्या को हल करने वाले के तौर पर  महिलाओं की भूमिका को सीमित करती हैं। हालांकि अपेक्षाकृत अधिक समावेशी जलवायु समाधान विकसित करने में इस बात को समझना एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है कि महिलाएं इसका निपटान किस प्रकार कर सकती हैं। इसके लिए निम्नलिखित कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं:

1. कहानी में महिलाओं को पीड़ित के बदले प्रभावशाली व्यक्ति में बदलना

बीजल और अकीला, दोनों का कहना है कि अब इस कहानी को बदलने का समय आ गया है – हमें महिलाओं को केवल जलवायु परिवर्तन का शिकार मानना ​​बंद करना चाहिए जो मूल रूप से वैश्विक उत्तर में मंचों पर होने वाली बातचीत में व्यापक रूप से शामिल है। 

महिलाओं में शमन प्रयासों का नेतृत्व करने की क्षमता है। वे पहले से ही जलवायु के बुरे प्रभावों से बचने के लिए किए जाने वाले अनुकूलनों का नेतृत्व कर रही हैं। लेकिन इससे जुड़े वैश्विक संवादों में जिस एक बात को नजरअंदाज़ किया जाता है, वह है जलवायु संकट को काफ़ी हद तक धीमा करने में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका। हम सभी को इस एक प्रश्न पर सोचने की ज़रूरत है कि क्या हम उनकी क्षमता और योग्यता को बढ़ाने का प्रयास कर सकते हैं ताकि इस काम में उनकी भूमिका सशक्त हो सके?

2. एक सहज शब्दावली का निर्माण करें

उथरा कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन के लिए एक ऐसी शब्दावली का निर्माण कितना अधिक महत्वपूर्ण है जिसे महिलाएं अपनी रोज़मर्रा के जीवन से जोड़ सकें। वे बताती हैं कि नीतिनिर्माताओं और थिंक टैंकों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जलवायु भाषा ज़्यादातर लोगों खासतौर पर महिलाओं के लिए एक बिल्कुल अनजान भाषा है। उथरा कहती हैं कि “हमें जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन जैसी तकनीकी, जटिल शब्दावली से दूर जाने की जरूरत है। क्योंकि इससे उन महिलाओं और उनके परिवारों को मदद नहीं मिलती है जो इसे और अपने जीवन पर इसके प्रभाव को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए, स्थानीय स्तर पर ही जलवायु-संबंधी सही जानकारी और उपकरण मुहैया करवाने के अतिरिक्त क्या सरकार एवं नागरिक समाज संगठन नागरिकों को उनकी रोज़मर्रा की भाषा में ही जलवायु को समझाने का प्रयास कर सकते हैं?

3. महिलाओं की बात सुनें और उनके समाधान का आकलन करें

एमएचटी ने महसूस किया कि यदि वे केवल घरेलू स्तर पर महिलाओं के साथ काम करते हैं, तो यह लंबे समय में जलवायु परिवर्तन के समाधान में मददगार साबित नहीं होगा। इसलिए संगठन महिलाओं के समूहों को वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है ताकि वे शहरी तापमान से जुड़ी कार्य योजनाओं के विकास पर स्थानीय सरकारों के साथ काम कर सकें। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि हम भले ही शहरों की योजना बनाने में मदद के लिए विभिन्न थिंक टैंक और अनुसंधान संगठनों को उभरते हुए देख रहे हैं लेकिन इसमें जिस एक चीज़ की कमी है. वह है लोगों का विशेष रूप से ऐसे लोगों का समावेशन जिनका योगदान जलवायु परिवर्तन में सबसे कम है। लेकिन इस परिवर्तन से सबसे अधिक वही प्रभावित होते हैं। 

उनका कहना है कि इनमें से कुछ धीरे-धीरे बदल रहा है। भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा गर्मी को प्रमुख आपदा में से एक घोषित करने के बाद शहरों को कार्य योजना बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। हालांकि इसका कार्यान्वयन चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि शहर प्रशासन के पास इसके लिए पर्याप्त धन या क्षमता नहीं है। बीजल कहती हैं कि “इसलिए स्थानीय समुदायों द्वारा लगातार दबाव बनाते रहना महत्वपूर्ण है। यहीं पर महिलाओं का समूह मुख्य भूमिका निभाता है – जब मुद्दे से जुड़ा ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनकी भागीदारी होगी तो वे सरकार को जवाबदेह ठहरा सकती हैं और साथ ही समस्याओं के समाधान निर्माण में हिस्सा ले सकती हैं और उसके क्रियान्वयन में मददगार साबित हो सकती हैं। जोधपुर, एमएचटी महिलाओं का एक उदाहरण है जो सिटी हीट प्लान योजना विकसित करने और उस पर कार्य करने के लिए स्थानीय शहर प्रशासन और एक तकनीकी भागीदार (राष्ट्रीय संसाधन रक्षा परिषद) के साथ काम कर रही हैं।

महिलाओं और जलवायु के बारे में बात करते समय आजीविका ही एकमात्र दृष्टिकोण नहीं है जिसे लागू किया जाना चाहिए।

अकीला ने नीति निर्माण और फ़ैसले लेने में महिलाओं की भागीदारी के महत्व को दोहराया है। वे कहती हैं कि महिलाओं और जलवायु के बारे में बात करते हुए हमें केवल आजीविका के दृष्टिकोण को ही नहीं अपनाना चाहिए। वे यह भी जोड़ती हैं कि “यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उनकी बात भी सुनी जाए। और इसकी शुरुआत उन्हें अपने बारे में और उनकी अपनी क्षमताओं के बारे में जागरूकता पैदा करने में मदद करने से होती है। एक बार जब वे जागरूक हो जाती हैं, खासकर सैकड़ों महिलाओं के समूह के रूप में तो उन्हें अपनी आवाज मिल जाती है और ग्रामीण समाज में सुधार होता है।” ऐसे में जब वे बड़े निगमों के साथ उनकी आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनने के लिए जुड़ती हैं तो यह सामूहिक शक्ति और आवाज उन्हें ठीक तरह से संवाद करने का साहस प्रदान करता है।

निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन में लिंग-विशिष्ट प्रभावों को हल करने वाली पहलों की पहचान करना और उन्हें अपनाना आवश्यक है। और हमें महिलाओं के लिए एक सक्षम वातावरण बनाना होगा ताकि वे उन समस्याओं के समाधान विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभा सकें जो उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करती हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

आत्मदाह और एसिड हमले के पीड़ितों को मुख्यधारा में कैसे लाया जाए?

भारत में प्रत्येक वर्ष लोगों के जलकर घायल होने के 70 लाख मामले घटित होते हैं। इनमें एसिड अटैक और आत्मदाह के मामले भी शामिल हैं। इन घटनाओं के पीड़ितों में 91,000 महिलाएं हैं जिनमें से ज्यादातर निम्न-आयवर्ग वाले घरों से आती हैं। इन पीड़ितों का इलाज लम्बे समय तक चलता है इसलिए अक्सर इन्हें और इनके परिवार वालों को इसके चलते आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है। इस तरह के मामलों में सरकार से मिलने वाली मदद उपलब्ध होने के बावजूद ऐसे लोगों तक नहीं पहुंच पाती है। 

एसिड अटैक के शिकार लोगों के पुनर्वास के लिए काम करने वाली संस्था, ब्रेव सोल्स फाउंडेशन की संस्थापक शाहीन मलिक कहती हैं, “जहां हर्ज़ाने में मिलने वाली राशि बहुत छोटी है, वहीं इसके लिए लंबी और थकाऊ सरकारी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जो इस तक पहुंचना और कठिन बना देता है। इसके लिए न केंद्र की कोई पुनर्वास योजना है और न राज्यों में कोई पेंशन योजना। यहां तक ​​कि [कई राज्यों में] विकलांग पेंशन भी बमुश्किल 500-600 रुपये है।” शाहीन इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि सरकार द्वारा दी जाने वाली मदद को आमतौर पर पहली सर्जरी पर खर्च किया जाता है, जो अधिकतम 2 लाख रुपये तक हो सकती है। इसके बाद पीड़ित की सहायता के लिए किसी भी प्रकार का पुनर्वास या वित्तीय मदद प्रदान नहीं किए जाते हैं।

आत्मदाह के मामलों में तो सरकार द्वारा किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं दिया जाता है। बर्न-सर्वाइवर्स की मदद करने वाले चेन्नई-स्थित संगठन इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन फ़ॉर क्राइम प्रिवेन्शन एंड विक्टिम केयर (पीसीवीसी) से जुड़ी स्वेता शंकर बताती हैं कि इन मामलों को अक्सर ही आत्महत्या के प्रयास के मामलों के रूप में दर्ज किया जाता है। घर के भीतर होने वाली घरेलू हिंसा को न तो रेखांकित किया जाता है और ना ही आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप ही दर्ज किए जाते हैं। 

दैनिक वेतन पर काम करने वाले परिवारों के लिए, अस्पताल में जीवित बचे लोगों के साथ रहने का मतलब है, अपनी आय को खोना। इन परिवारों की बचत के पैसे बहुत जल्द ख़त्म हो जाते हैं और ये कर्ज के बोझ तले दबने लगते हैं। स्वेता कहती हैं कि “ऐसी परिस्थिति आने पर परिवार के लोग पीड़ित को अस्पताल से छुट्टी दिलवाकर घर ले जाने पर जोर देने लगते हैं जो उनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है।” ऐसा होने से रोकने के लिए देखभाल करने वालों को सहायता प्रदान करना आवश्यक हो जाता है। यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि पीड़ितों के परिवारों को भर पेट खाना मिल रहा है और उनके पास अपने बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त धन है।

रोज़गार के लिए मार्गदर्शन करना

शाहीन बताती हैं कि अस्पताल से घर वापस जाने के बाद भी पीड़ितों को आमदनी के स्त्रोतों की ज़रूरत होती है ताकि वे अपना आगे का इलाज करवा सकें। लेकिन यह मुश्किल हो जाता है क्योंकि उनके घाव के कारण उनकी आजीविका के विकल्प प्रभावित होते हैं। वे बताती हैं कि “बहुत हद तक लोगों के करियर बदल जाते हैं [और कइयों को तो फिर से शुरुआत करने की ज़रूरत होती है]। हमारे पास एक ऐसी सर्वाइवर हैं जिन्होंने एमबीए किया है लेकिन अब उनकी आंखों की रौशनी चली गई है। अब उन्हें ब्रेल लिपि सीखनी होगी और सब कुछ शुरू से शुरू करना होगा।”

ज़्यादातर पीड़ित युवा हैं और उनके पास उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के अवसर नहीं थे। ऐसी स्थिति में कौशल निर्माण उनके पुनर्वास का एक महत्वपूर्ण घटक बन जाता है। शाहीन कहती हैं कि “अंग्रेज़ी और कम्प्यूटर सीखना रोज़गार के प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है क्योंकि ये कौशल नौकरी के लिए अवसरों का दरवाज़ा खोलते हैं। कम्पनियों से रोज़गार के लिए बातचीत करने के अतिरिक्त हम भाषा, योग, कम्प्यूटर की कक्षाओं के साथ-साथ पीड़ितों के लिए क़ानूनी जागरूकता के शिविर भी आयोजित करते हैं।

मनोसामाजिक सहयोग आर्थिक सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि जलने के बाद पीड़ित अपने आप को दूसरी तरह से देखते हैं।

मनोसामाजिक सहयोग आर्थिक सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि जलने के बाद पीड़ित खुद को दूसरी तरह से देखने लगते हैं। वे अब चोट के कारण आए अपने शारीरिक बदलावों और अपनी सार्वजनिक छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। स्वेता कहती हैं कि “सामाजिक मेलजोल, पुनर्वास प्रक्रिया का हिस्सा होता है। इस तरह के मेलजोल का उद्देश्य सार्वजनिक जगहों पर उन्हें सहज महसूस करवाना होता है। इससे वे अपने जलने को लेकर, लोगों द्वारा किए जाने वाले उन सवालों से निपटना भी सीखते हैं जो उन्हें परेशान करते हैं।” इस प्रकार सार्वजनिक जगहों के संपर्क में आना समाज का हिस्सा बनने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम बन जाता है।

अपने मनोसामाजिक परामर्श प्रक्रिया का उपयोग करते हुए, पीसीवीसी इस पर भी विचार करता है कि किसी एक सर्वाइवर के लिए किस प्रकार का रोज़गार उपयुक्त होगा। स्वेता बताती हैं कि इसे विस्तार से समझने के लिए वे सर्वाइवर के साथ बहुत लम्बी बातचीत करते हैं। वे आगे बताती हैं कि “कभी-कभी वे बताती हैं कि उनका गणित अच्छा है या फिर वे अपने घर के बजट के प्रबंधन में अच्छी थीं। हम उन्हें ऐसे प्रशिक्षण प्रदान करते हैं जो उनकी इन योग्यताओं को रोज़गार अवसर में बदलने में मददगार साबित होते हैं।” 

हालांकि, उचित रोजगार के अवसरों के बिना कौशल प्रशिक्षण व्यर्थ होते हैं। कई समाजसेवी संस्थाएं और सीएसआर पहलें सौंदर्य उद्योग में काम करने के लिए सर्वाइवर्स को प्रशिक्षित करने में निवेश कर रही हैं। लेकिन शाहीन कहती हैं कि “सर्वाइवर्स में अक्सर [आंशिक] अंधापन जैसी अक्षमताएं आ जाती हैं, जिससे उनके लिए ब्यूटीशियन या दर्जी के रूप में काम करना मुश्किल हो जाता है।” वे कहती हैं कि “इन रोज़गारों से अच्छे पैसे भी नहीं मिलते हैं लेकिन बेहतर अवसरों की कमी के कारण ये लोकप्रिय विकल्प बन गए हैं।”

एक समूह में खड़ी महिलाएं_एसिड अटैक रोज़गार
आम जनता के बीच संवेदनशीलता की कमी और सरकार से मिलने वाले अपर्याप्त समर्थन के कारण पीड़ित का जीवन लगातार ख़तरे में होता है। | चित्र साभार: ब्रेव सोल्स फ़ाउंडेशन

कार्य स्थल पर मार्गदर्शन करना

पीड़ितों के लिए रोज़गार प्राप्त करना ही अपने-आप में एक चुनौतीपूर्ण काम होता है लेकिन नौकरी मिलने के बाद उन्हें कई अलग प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पीड़ितों के रूप-रंग को लेकर कई तरह की गलत धारणाओं जुड़ी होती हैं और ऐसा संभव है कि उनके सहकर्मी कई बार गलत तरीके से, उन्हें असहज बनाने वाले, अनुचित सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल करें। स्वेता बताती हैं कि “ कई पीड़िताएं अपनी साथियों से इस बारे में सीखती हैं कि उनकी निजता में दख़ल देने वाले प्रश्नों को किस प्रकार विनम्रता से टाला जा सकता है।” पीसीवीसी के पुनर्वास केंद्र में हमने कई आइने लगाए हैं ताकि ये पीड़ित अपने रूप-रंग और छवि को लेकर सहज हो सकें।

हालांकि सीमाएं बनाना सीखना और सार्वजनिक रूप से सहज महसूस करना महत्वपूर्ण है, लेकिन नियोक्ताओं और सहकर्मियों के लिए संवेदनशीलता प्रशिक्षण से गुजरना भी उतना ही जरूरी है। कभी-कभी सहकर्मियों द्वारा यह भेदभाव कुछ ‘विशेषाधिकारों’ जैसे कि नियोक्ताओं द्वारा चिकित्सीय कारणों या उपचार और क़ानूनी सुनवाई के लिए पीड़ितों को दी जाने वाली अतिरिक्त छुट्टियों आदि के कारण उपजी चिढ़न की वजह भी बन जाता है। स्वेता कहती हैं कि “पीड़ितों को कभी भी उनकी नौकरी के लिए एहसानमंद नहीं महसूस करवाना चाहिए। यदि कार्यस्थल पर उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है तो पीसीवीसी जैसी समाजसेवी संस्थाएं मैनेजरों के साथ मिलकर इन मुद्दों को सुलझाने में मदद कर सकती हैं जो इन समस्याओं के समाधान के लिए उचित कदम उठा सकते हैं। हालांकि यदि यह उपाय कारगर नहीं होता है तो वैसी परिस्थिति में समाजसेवी संस्थाओं को उनके लिए रोज़गार के अन्य अवसरों की तलाश में मदद करनी चाहिए।”

नीतिगत कमी

अपने समावेशी अभियान के अंतर्गत कई संगठन आत्मदाह और एसिड हमले के पीड़ितों को अपने यहां काम पर रखने की इच्छा जताते हैं। हालांकि आम लोगों में संवेदनशीलता की कमी और सरकार से मिलने वाले अपर्याप्त सहयोग के कारण इन पीड़ितों का जीवन लगातार ख़तरे में होता है। यहां तक कि इन्हें विकलांग प्रमाणपत्र हासिल करने में भी कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। शाहीन का कहना है कि “अपने काम के दौरान मैंने यह महसूस किया है कि लोग इसके बारे में जानते तो हैं लेकिन वे पीड़ितों द्वारा झेली जा रही समस्याओं के प्रति वास्तव में संवेदनशील नहीं होते हैं।” न्यूनतम मुआवजे के अलावा सरकार से अन्य किसी भी प्रकार की मदद मुहैया नहीं करवाई जाती है। रोज़गार को लेकर सरकार की ओर से न तो किसी प्रकार का समर्थन दिया जाता है और न ही किसी तरह की सब्सिडी मिलती है। शाहीन आगे बताती हैं कि “हम सरकारों के साथ मीटिंग करते हैं लेकिन कई महीने बीतने के बाद भी कुछ नहीं होता है। हमें नीतिगत-स्तर पर बदलावों की ज़रूरत है।”

आत्मदाह से बचने वाले लोगों को किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं मिलता है, इसलिए उन्हें सहयोग हासिल करने के लिए बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है। स्वेता का मानना है कि जलने के मामलों, जिनमें आत्मदाह भी शामिल है, के लिए एक केंद्रीकृत नीति पूरी प्रक्रिया को यादगार रूप से कारगर बनाएगी। वे कहती हैं कि “हम सामाजिक कल्याण विभाग और उनके विभाग की योजनाओं और पहलों के साथ मिलकर काम करने में सक्षम हो सकेंगे।”

यह महत्वपूर्ण है कि रोकथाम कार्यक्रमों में घरेलू हिंसा के खिलाफ उपाय शामिल हों जो इस मुद्दे की जड़ है।

एसिड हमलों और आत्मदाह के मामलों को ख़त्म करने के लिए घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाना एक महत्वपूर्ण उपाय है। स्वेता कहती हैं कि “हमारे द्वारा देखे जा रहे मामलों में नब्बे फ़ीसद मामले घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं।” यह महत्वपूर्ण है कि रोकथाम कार्यक्रमों में घरेलू हिंसा के खिलाफ उपाय शामिल हों, जो इस मुद्दे की जड़ है। तेजाब, मिट्टी के तेल और खुले पेट्रोल की बिक्री पर प्रतिबंध भी जलने से बचाव पर बातचीत का अहम हिस्सा बन गया है। “भारत ने खुले पेट्रोल की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन हमें अभी भी घरेलू हिंसा को समाप्त करने की आवश्यकता है जो इस समस्या का मूल कारण है।” कैरोसीन तेल की बिक्री पर प्रतिबंध की अपनी चुनौतियां हैं क्योंकि सब्सिडी के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति एलपीजी की ख़रीद में सक्षम नहीं है।

यह महत्वपूर्ण है कि एसिड हमलों और आत्मदाह के मामलों को लैंगिक हिंसा के रूप में देखा जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि नीतियों में इनकी स्वीकार्यता हो। साथ ही, पुनर्वास प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करना भी आवश्यक है। स्वेता आगे कहती हैं कि “जब तक हम सही संदेश नहीं देंगे तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है।”

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

क्यों शिक्षकों को उनके काम का पूरा श्रेय मिलना जरूरी है 

2018 में, वर्की फाउंडेशन ने 35 देशों में ग्लोबल टीचर स्टेटस इंडेक्स सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य यह पता लगाना था कि दुनियाभर के समाजों में शिक्षकों की स्थिति क्या है। इस सर्वे में शिक्षकों के काम के घंटों को लेकर लोगों की अवधारणाओं का अध्ययन किया गया। प्राप्त आंकड़ों की तुलना शिक्षकों द्वारा अपने काम में दिए गए वास्तविक समय से की गई जिसमें क्लासरूम के अलावा अन्य गतिविधियों में लगाया गया समय भी शामिल होता है। अध्ययन से यह बात सामने आई कि ज़्यादातर देशों में लोग शिक्षकों के वास्तविक काम के घंटों को कम करके आंकते हैं, भारत में शिक्षकों के काम के घंटों को प्रति सप्ताह लगभग दो घंटे कम करके आंका जाता है। इसके अलावा, भारत उन छह देशों में शामिल था जहां जनता की तुलना में शिक्षकों की अपनी स्थिति की धारणा के बीच सबसे बड़ा अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ा।

अपनी शाला में हमने यह समझने की कोशिश की कि मुंबई के स्कूलों में काम करने वाली हमारी टीम के लिए इस बात का क्या मतलब है। अपनी शाला का उद्देश्य स्कूलों में शिक्षकों एवं छात्रों के साथ साप्ताहिक सत्र आयोजित कर सामाजिक भावनात्मक शिक्षा (सोशल इमोशनल लर्निंग – एसईएल) के अनुरूप शिक्षा का निर्माण करना है। यह काम एक समावेशी, एसईएल-सम्मिलित पाठ्यक्रम को तैयार करके और छात्रों के जीवन के अनुभवों की जानकारी रखने और परवाह करने वाले शिक्षण अभ्यासों के माध्यम से किया जाता है।

हमारी टीम के साथ उनकी बातचीत के दौरान स्कूल के शिक्षकों ने यह महसूस किया कि उनकी नौकरी को क्लास में पढ़ाने या उनके निर्देशात्मक घंटों तक ही सीमित करके देखा जाता है। इसने हमें एक अनौपचारिक सर्वे के लिए प्रेरित किया ताकि हम यह जान सकें कि एक आम आदमी की नजर में शिक्षक की क्या भूमिका होती है। उत्तरदाताओं को ज्ञान को छात्रों तक पहुंचाने और उन्हें कुशल बनाने के साथ-साथ नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करने में एक शिक्षक की भूमिका के बारे में पता था। हालांकि, शिक्षकों की प्रशासनिक या अन्य अनदेखी ज़िम्मेदारियों को लेकर उनमें जागरूकता की कमी थी। इन ज़िम्मेदारियों में किताबों या छात्रों के रिकॉर्ड की देखभाल करना, छात्रों के काम की जांच करना, अभिभावक-शिक्षक मीटिंग आयोजित करना और सीखने के लिए एक सुरक्षित वातावरण को बढ़ावा देना शामिल होता है। इससे पता चलता है कि ऐसी गतिविधियां जो सीधे तौर पर छात्रों के सीखने से संबंधित नहीं हैं, उन्हें मापना एक मुश्किल काम होता है। 

व्यवस्था के स्तरों जैसे कि स्कूलों, संगठनों पर भी शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले ग़ैर-शिक्षण श्रम को नज़रअंदाज़ किया जाता है। यहां तक कि नीति निर्माता भी शिक्षकों के कार्य समय के लिए पर्याप्त योजनाएं बनाने में विफल रहे हैं। शिक्षकों की प्रेरणा पर एसटीआईआर एजुकेशन और माइक्रोसॉफ़्ट रिसर्च इंडिया द्वारा किए गए एक अध्ययन के रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों में से एक शिक्षण कार्य के साथ-साथ प्रशासनिक काम करना भी है। शिक्षकों के अनुसार प्रशासनिक कार्यों के कारण उन्हें पाठ्यक्रम की योजना बनाने और अपने छात्रों के साथ गहरे संबंध स्थापित करने का समय नहीं मिल पाता है। 

एसटीआईआर एजुकेशन की एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि स्कूल शिक्षकों के प्रशासनिक कार्यों पर जोर देते हैं और उन्हें विषय-संबंधी कौशल विकसित करने का अवसर देते हैं। लेकिन वे उनके लिए अनुकूल वातावरण निर्माण, उनका उत्साह बनाए रखने और छात्रों के लिए बेहतर सोचने की उनकी स्वायत्ता, विशेषज्ञता और उद्देश्य पर कुछ विशेष ज़ोर नहीं देते हैं। स्कूल के प्राध्यापकों और शिक्षकों के साथ हुई हमारी बातचीत ने इस बात की पुष्टि की है कि – ऐसा माना जाता है कि स्कूल के दौरान शिक्षकों को अपने प्रशासनिक कार्यों को अवश्य प्राथमिकता देनी चाहिए, वहीं पाठ्यक्रम की योजना और क्लासरूम प्रबंधन के लिए रणनीति बनाने जैसी ज़िम्मेदारियों को काम के घंटों के समाप्त होने के बाद पूरा किया जाना चाहिए। किसी भी स्तर पर नीतियां काफी हद तक डेटा द्वारा संचालित होती हैं लेकिन, हमारी जानकारी के अनुसार, ऐसे कुछ अध्ययन हैं जो शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के ग़ैर-शिक्षण श्रम की जानकारी देते हैं।

शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले कामों को समझने और छात्रों के आगे सीखने के लिए अपना समय बिताने के विभिन्न तरीक़ों के बारे में अपनी समझ बनाने के लिए हमने अपनी शाला में शिक्षकों के साथ सेमी-स्ट्रक्चर्ड इंटरव्यू किया। हम नीचे आपको उस इंटरव्यू के कुछ मुख्य परिणामों के बारे में बता रहे हैं।

भावनात्मक श्रम

शिक्षकों और फैसिलिटेटर्स के साथ हमारी टीम की बातचीत से यह पता चला कि वे अपना बहुत अधिक समय उस काम में लगाते हैं जिसे समाजशास्त्री अर्ली रशेल हॉक्सचाइल्ड ने भावनात्मक श्रम का नाम दिया है। इसमें देखभाल-आधारित काम शामिल होता है जिनमें शिक्षकों को आवश्यक रूप से भाग लेना चाहिए लेकिन जो नौकरी से अपेक्षित शारीरिक और मानसिक श्रम से परे है। और इसलिए यह अक्सर ही अदृश्य होता है और लगभग हमेशा ही इसे कम करके आंका जाता है।
उदाहरण के लिए, एक फैसिलिटेटर ने विभिन्न प्रकार के परिवारों के बारे में एक कहानी सुनाने का अनुभव साझा किया, जिसके बाद उसने एक छात्र को कक्षा से बाहर जाते हुए देखा। कक्षा समाप्त होने के बाद उस छात्र से बात करने पर फैसिलिटेटर को पता चला कि वह छात्रा अपने परिवार के साथ नहीं रहती थी। उसने इस जानकारी का उपयोग समय-समय पर कक्षा समाप्त होने के बाद उस छात्रा से बातचीत करने के लिए किया। उन्होंने ग़ैर-पारंपरिक घरों में रहने वाले युवाओं के अनुभव को लेकर बेहतर समझ विकसित करने के उद्देश्य से अधिक जानकारी एकत्र करने के लिए सहयोगियों से भी सम्पर्क किया। इससे उन्हें कक्षा के दौरान छात्रों के भावनात्मक ज़रूरतों का प्रभावी ढंग से उत्तर देने और सीखने में उनका समर्थन करने में भी मदद मिली।

एक शिक्षक ज़मीन पर बैठकर दो छात्रों को पढ़ाता हुआ_ शिक्षक
शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले गैर-शिक्षण श्रम की व्यवस्था के स्तर पर भी अनदेखी की जाती है। | चित्र साभार: दीपा श्रीकांतैया / सीसी बीवाय

एक विविध कक्षा के लिए पाठ योजना

समान शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए, शिक्षक उचित मात्रा में अपना समय पाठों की योजना बनाने, शिक्षण और सीखने की सहायक सामग्री बनाने और सीखने का दस्तावेजीकरण और मूल्यांकन करने में लगाते हैं। कक्षा 10 के फैसिलिटेटर ने बताया कि अपने एसईएल सत्रों में, उन्होंने एक ही कक्षा में कई उपकरणों (जैसे कला, कहानी सुनाना और गीत) का उपयोग किया और कक्षा को छात्रों की रुचियों के आधार पर वर्गों में विभाजित किया। इससे छात्रों को अधिक विकल्प मिलते हैं और उन्हें कक्षा में व्यस्त रहने में मदद मिलती है। यह सीखने और अभिव्यक्ति में उपयोग की जाने वाली विधा को बाधा बनने से भी रोकता है। लेकिन इन तरीकों को विकसित करने में समय लगता है। 

सीखने की प्रक्रिया को अधिक न्यायसंगत बनाने में एक अन्य महत्वपूर्ण कारक प्रगति को मापने के लिए हर छात्र को अलग तरह से देखना भी है। कभी-कभी इसमें छात्रों के कौशल और सीखने के संबंध में अलग-अलग शुरुआती बिंदुओं का लगातार आकलन करना और फिर प्रगति की सूक्ष्म समझ का निर्माण करना शामिल होता है।

खोज (अपनी शाला की एसईएल-एकीकृत स्कूल पहल) में कक्षा 2 की एक शिक्षिका बताती हैं कि वह अपने छात्रों की सीखने की विभिन्न आवश्यकताओं के बारे में जानती हैं, और नतीजे और प्रक्रिया दोनों से अपने दृष्टिकोण को अलग करती हैं। डिफ़रेंशिएशन बाई प्रोडक्ट का एक उदाहरण यह है कि यदि सीखने का उद्देश्य जोड़ की प्रक्रिया से जुड़ा है तो कुछ छात्र शब्द की समस्या के माध्यम से सीखते हैं तो कुछ छात्र शब्द समस्याओं के माध्यम से सीखते हैं। वहीं अन्य संख्यात्मक समस्याओं को हल करते हैं या दृश्यात्मक साधनों को उपयोग में लाते हैं। वहीं दूसरी ओर डिफेरेंशिएटिंग बाई प्रोसेस का अर्थ यह है कि कुछ छात्र वॉलंटीयर के साथ काम कर सकते हैं जबकि अन्य को शिक्षकों के साथ अलग से समय मिल सकता है।

परिवर्तन एवं निर्णयनिर्माण पर प्रतिक्रिया देना

कक्षा के हमेशा बदलते संदर्भ के अनुकूल होने के लिए, फैसिलिटेटर्स और शिक्षकों को बहुत सारे निर्णय लेने पड़ते हैं। ये परिवर्तन छात्रों के मूड, स्कूल के वातावरण या फिर छात्रों के स्वास्थ्य के कारण हो सकते हैं। निर्णय लेना एक शिक्षक के जीवन का अंतहीन हिस्सा है क्योंकि वह निर्देशात्मक और तार्किक दोनों ही प्रकार के निर्णयों की एक ऋंखला का निर्माण करता है। कक्षा में निर्णय क्षमता का अर्थ, उन कारकों को ध्यान में रखना है जो छात्रों की सीखने की प्राथमिकताओं, ताकत, सीमाओं और उनकी बदलती सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की जरूरतों से जुड़े होते हैं। अन्य कारक जैसे मानसिकता या मूड या फ़िर दिन का समय या मौसम आदि भी अनुकूलन की आवश्यकता उत्पन्न करते हैं। (गर्म मौसम के कारण पैदा होने वाली चिड़चिड़ाहट बहुत ही आसानी से कक्षा की सबसे रोचक गतिविधि पर हावी हो सकती है।)

एक शिक्षक ने ऐसे समय का उदाहरण दिया जब एक छात्र असाधारण रूप से शांत था और अपनी कक्षा में होने वाली किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं ले रहा था। अगली कक्षा शारीरिक शिक्षा की थी और जहां बाक़ी के छात्र नीचे मैदान में जाने के लिए क़तार में थे, वहीं इस छात्र ने शिक्षक से कहा कि उसे भूख लगी है क्योंकि उन्होंने सुबह का नाश्ता नहीं किया है। शिक्षक ने बाक़ी छात्रों को जाने देने का फ़ैसला किया और उस एक छात्र को रुकने की अनुमति दी ताकि शारीरिक शिक्षा के सत्र में जाने से पहले वह कुछ खा-पी सके।

छात्र को समझना

शिक्षकों द्वारा अपने छात्रों को जानने और समझने के लिए निरंतर सूचना संग्रह में लगे रहना पड़ता है और यह काम कुछ हद तक एक शोध परियोजना जैसा होता है। शिक्षक अपना समय ऐसे अन्य शिक्षकों से बातचीत करने में लगाते हैं जिन्होंने उनके छात्रों को पढ़ाया है, वे कक्षा समाप्त होने के बाद छात्रों से बात करते हैं और उन्हें लेकर बेहतर समझ विकसित करने के उद्देश्य से उनकी देखभाल करने वाले लोगों/अभिभावकों से संवाद करते हैं।

हमारे द्वारा आयोजित सेमी-स्ट्रक्चर्ड साक्षात्कारों के दौरान शिक्षाओं ने बताया कि वे लगातार छात्रों की देखभाल करने वाले लोगों से संवाद में थे ताकि उनके साथ संबंध स्थापित कर सकें। खोज एवं मुंबई के अन्य स्कूलों के संदर्भ में इसमें देखभाल करने वालों को बुलाना, अभिभावकों और माता-पिता के साथ लगातार सम्पर्क में रहना और छात्रों और उनके घर के वातावरण पर नजर बनाए रखने के लिए उनके घरों का दौरा करना शामिल है।

कहां पर बदलाव की जरूरत है?

शिक्षकों द्वारा अनुभव की जाने वाली थकान अक्सर बर्नआउट का कारण बन सकती है। 2008 के एक अध्ययन में भाग लेने वाले आधे से अधिक माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों ने कुछ हद तक बर्नआउट की बात को स्वीकार किया और इसी समूह के भीतर 11 फ़ीसद से अधिक ने बर्नआउट के उच्च स्तर की बात को स्वीकारा है। शोध से पता चलता है कि महामारी के दौरान दुनिया भर के शिक्षकों के सामने आने वाली चुनौतियों और संकट ने इसमें और इजाफा किया। कई मामलों में, इसके कारण शिक्षकों ने अपने इस पेशे को ही छोड़ दिया।

यहां हम उन कुछ तरीकों के बारे में बता रहे हैं जिन्हे स्कूल एवं संगठन अपने शिक्षकों के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए लागू कर सकते हैं और इस प्रकार यह छात्रों के कल्याण एवं सीखने की प्रक्रिया को भी सुनिश्चित करेगा।

1. काम को पुनर्परिभाषित करना

स्कूल और संगठन कक्षा की तैयारी, पाठ योजना, आकलन ग्रेडिंग, और काम के रूप में लगने वाले घंटों का लेखा-जोखा रख सकते हैं। अपनी शाला के एसईएल कार्यक्रमों के सूत्रधार आधे घंटे पहले अपनी कक्षाओं में पहुंचते हैं ताकि वे खुद को स्थिर कर सकें और एक घंटे के सत्र की तैयारी कर सकें। यह समय कार्यक्रम के डिज़ाइन में शामिल होता है।

अपने बेहिसाब भावनात्मक श्रम को स्पष्ट करने में शिक्षकों की मदद करना एक ऐसे वातावरण के निर्माण की दिशा में प्रभावी शुरुआती बिंदु हो सकता है जो इस पेशे में होने वाले असाधारण तनाव के प्रबंधन के लिए अनुकूल साबित हो। अपनी शाला में होने वाले पाठ्यक्रम सभाओं (सूत्रधारों के लिए आयोजित होने वाले पेशेवर विकास सत्र) के हिस्से के रूप में प्रतिभागी अक्सर उन सम्भावित स्थानों के बारे में बताते हैं जहां उन्हें तनाव महसूस होता है और इसके बेहतर प्रबंधन के लिए आवश्यक रणनीतियों पर विचार कर सकते हैं।

2. प्रशासनात्मक परिवर्तनों को लागू करना

यह अब रहस्य नहीं रह गया है कि आराम और मानसिक शिथिलता से लोगों को तनाव से निपटने में मदद मिल सकती है। इसलिए स्कूलों और संगठनों की संरचना में शिक्षकों को विराम देने के लिए जगह बनाना प्रभावी साबित हो सकता है। अवकाश के लिए जगह बनाकर और काम की ऐसी संस्कृति को विकसित कर इसे किया जा सकता है जिसमें शिक्षकों को सक्रिय रूप से नियमित आराम करने की आज़ादी प्राप्त हो। काम के घंटों के भीतर प्रासंगिक प्रशासनिक कार्य के लिए सिस्टम स्थापित करना या इसके समान वितरण से भी मदद मिल सकती है। 

छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) का कम होना एक ऐसा बदलाव है जिसे व्यवस्था के स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 में स्कूल स्तर पर 30:1 से कम पीटीआर और 25:1 से कम पीटीआर “…सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित छात्रों की बड़ी संख्या वाले क्षेत्रों” को संबोधित करता है। इस कदम को उठाने के पीछे की सोच यह है कि शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों पर व्यक्तिगत रूप से दिया जाने वाला ध्यान सीखने की प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है। यह इस बात को भी मानता है कि शिक्षकों के लिए आवश्यक काम की मात्रा सामाजिक-आर्थिक विविधता, सीखने के अंतर और न्यूरोडायवर्सिटी जैसे कारकों पर निर्भर करती है। इसे लागू करना शिक्षकों एवं छात्रों की बेहतरी एवं कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से घनी आबादी वाले सार्वजनिक और निजी स्कूलों में जहां हाशिए के छात्र भी होते हैं।

3. समुदाय का निर्माण करना 

एक ऐसे समुदाय को बढ़ावा देना जहां शिक्षक चुनौतियों को साझा और संबोधित कर सकते हैं, और शिक्षकों की भलाई और सामुदायिक उपचार के लिए स्थान बनाना भी उपयोगी साबित हुआ है। अपनी शाला में, पर्यवेक्षी संरचनाओं के उत्तरदायित्व को बढ़ावा देने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इसके अलावा, यह पुनर्स्थापनात्मक स्थानों के रूप में कार्य करने के लिए भी शिक्षकों को अभ्यास पर सोचने और कक्षा की मौजूदा सेटिंग्स में नियमित रूप से लगातार तनाव को नियंत्रित करने की अनुमति देता है। टीम के सदस्यों द्वारा आयोजित ऐसी बैठक या सभाएं जिनमें कला, संगीत और खेलकूद को शामिल किया जाता है या फिर विविध चिकित्सीय उपकरणों जैसे कि माइंडफुलनेस प्रैक्टिस भी उपचार और ग्राउंडिंग के लिए उपयोगी साबित हुई हैं। इनके अतिरिक्त, शिक्षकों के बीच दोस्ताना व्यवहार देखभाल, सोच-विचार और ठहर कर सोचने के लिए जगह बनाता है। एक उदाहरण मानसिक स्वास्थ्य सहायता या एक दूसरे की स्थिति की जांच के लिए उपयोग किए जाने वाले बडी सिस्टम्स हैं।

शिक्षकों की बेहतरी के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। लेकिन शिक्षक-छात्र अनुपात को कम करके या सजग रूप से उनकी प्रशासनिक जिम्मेदारियों में कमी लाने जैसे व्यवस्था से जुड़े परिवर्तन शिक्षकों को उनकी भूमिकाओं में सहयोग देने में एक बड़ी भूमिका निभाएंगे।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

आंकड़े मुस्लिम महिला श्रमिकों के बारे में क्या नहीं बताते हैं?

सामाजिक ढांचों ने हमेशा आर्थिक विभाजनों को बढ़ावा ही दिया है। कोरोना महामारी ने पिछड़े तबके के लिए, लिंग, धर्म, जाति और अन्य आधार पर होने वाले भेदभाव से जुड़ी पहले से ख़राब स्थितियों को और बदतर बना दिया है। ऐसे में मुस्लिम महिलाएं, जो भारत में कामकाजी महिलाओं की आबादी का केवल दसवां हिस्सा हैं, उनके लिए स्थितियां कहीं जटिल हैं। साथ ही, उन्हें नफ़रती अभियानों, काम पर रखने के दौरान होने वाले भेदभावों और राज्य द्वारा स्वीकृत विध्वंस अभियानों का ख़ामियाज़ा भी भुगतान पड़ता है।

हमने भारत में मुस्लिम महिला श्रमिकों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संगठनों तथा कार्यकर्ताओं से बात की। इस बातचीत में हमने पाया कि समुदाय की सभी महिलाओं को रोज़गार मिलने और उसे बचाए रखने में अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, उनके संघर्ष उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति, शिक्षा के स्तर और काम करने के क्षेत्र जैसे कारकों के आधार पर अलग-अलग थे।

शिक्षा की उच्च डिग्री हासिल करने वाली उच्च एवं मध्य वर्ग की मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी और यहां तक कि महामारी के दौरान उनके हालात में कुछ सकारात्मक विकास भी देखने को मिले। वहीं, इसके विपरीत निम्न-आयवर्ग समूहों से आने वाली महिलाओं को पैसों के लिए संघर्ष करना पड़ा और परिवार की आय ख़त्म होने जाने की वज़ह से उन्होंने काम करना शुरू कर दिया। अनौपचारिक क्षेत्र के प्रवासी श्रमिकों को सबसे अधिक नुक़सान हुआ क्योंकि अन्य चुनौतियों के अलावा उनके पास किसी प्रकार का सुरक्षा जाल भी नहीं था। एक तरह से, महामारी ने एक बार फिर से यह स्पष्ट कर दिया कि हाशिए के समुदायों के भीतर भी, किसी के जीवन और आजीविका को परिभाषित करने में उसके सामाजिक स्थान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है।

आबादी के एक हिस्से का प्रदर्शन बेहतर रहा

कॉलेज में पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाओं के बीच लीडरशिप तैयार करने के लिए काम करने वाले एक इनक्यूबेटर –लेडबी फ़ाउंडेशन की सीओओ दीपांजलि लाहिरी- का सोचना है कि वे जिनके साथ काम करती हैं कोविड-19 का उन लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वे कहती हैं कि “जहां एक तरफ़ महामारी के कई अन्य नकारात्मक परिणाम हुए, वहीं दूर-दराज के इलाकों में काम कर रही हमारी लेडबी साथियों के लिए अच्छा रहा। हम जिन महिलाओं के साथ काम कर रहे थे उनमें से ज्यादातर को यात्रा की अनुमति नहीं थी। लॉकडाउन के दौरान उनमें से कईयों का कहना था कि “चूंकि मैं घर से काम कर सकती हूं इसलिए अब मैं आराम से काम कर पा रही हूं।” महामारी ने दूरस्थ जगहों पर रहकर भी काम करना सम्भव बना दिया। इसलिए टियर- I और टियर- II शहरों की युवा मुस्लिम महिलाएं – जिनके परिवार आमतौर पर काम की तलाश में उन्हें महानगरीय क्षेत्रों में जाने देने की अनुमति नहीं देते थे – जॉब मार्केट में प्रवेश करने में सक्षम हो गई हैं। ऐसे तो नियुक्ताओं ने अपने दफ़्तरों में बैठकर काम करना और करवाना शुरू कर दिया है लेकिन लेडबी के नेतृत्व कार्यक्रम के प्रतिभागी वास्तव में दूरस्थ और हाइब्रिड कार्य के लिए बातचीत करना जारी रख रहे हैं। दीपांजलि को इस बात की चिंता सता रही है कि अब जब नौकरियां फ़िर से ऑफ़लाइन मोड में जा रही हैं उस स्थिति में हिज़ाबी मुस्लिम महिलाओं के लिए रोज़गार की तलाश मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि कुछ नियोक्ता पहले ही उनके सामने कार्यस्थल पर हिजाब न पहनने की शर्त रख चुके हैं। हालांकि भारत में मुस्लिम आबादी की केवल एक हिस्से के पास औपचारिक क्षेत्रों में काम करने के लिए आवश्यक शैक्षणिक योग्यता है जहां कर्मचारियों को दूरस्थ कामों को करने की सुविधा उपलब्ध है। देश में अधिकांश मुसलमान अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं, जहां कम विकल्प और सुरक्षा उपाय हैं।

विध्वंस और नौकरी के नुकसान ने कम आय वाले मुस्लिम इलाकों को बदल दिया

मुस्लिम महिला कार्यकर्ताओं को उन्हें निशाना बनाने वाले अभियानों का सामना करना पड़ा, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय पर ‘कोरोना जिहाद’ छेड़ने —जानबूझकर अन्य धर्मों के लोगों के बीच कोविड-19 वायरस फैलाने वाले –  लोग होने का आरोप लगाया गया था। मुसलमानों के आर्थिक एवं सामाजिक बहिष्कार का आंदोलन चलाया गया। पंजाब में अनौपचारिक महिला श्रमिकों पर पहले लॉकडाउन के प्रभाव के बारे में जानने के लिए किए गए एक अध्ययन में इस्लामोफोबिया के कई उदाहरण दर्ज किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि अपने पति के साथ परचून की दुकान चलाने वाली एक मुस्लिम महिला को सामाजिक बहिष्कार के कारण महामारी के दौरान भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा।

दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इस दौरान आम हो चुके ‘अतिक्रमण विरोधी अभियान’ के कारण भी समुदाय को बहुत अधिक नुक़सान झेलना पड़ा। जहां सरकार का कहना था कि इन अभियानों का उद्देश्य फुटपाथ एवं सड़कों को साफ़ रखना है वहीं आलोचकों ने इस ओर इशारा किया है कि इन विध्वंसों के जरिए अंधाधुंध तरीक़े से कम-आय वाले मुस्लिम इलाक़ों को निशाना बनाया गया है।

दिल्ली के जहांगीरपुरी जैसे इलाक़ों में महिलाओं के सशक्तिकरण और शिक्षा पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था ख़ैर हेल्प फ़ाउंडेशन की संस्थापक शबनम नफ़ीसा कलीम बताती हैं कि “पांच-छह महिलाओं के एक समूह ने बाज़ार में इत्र और ऐसी ही चीजों को बेचने के लिए एक स्टॉल लगाया था। विध्वंस के समय उनके स्टॉल के साथ उसमें रखे उनके माल को भी बुलडोज़र से रौंद दिया गया। कबाब, बिरयानी आदि बेचने वाले ऐसे ही 15–20 ठेले भी बर्बाद कर दिए गए।”

पुरुषों की आय में योगदान देने के लिए परिवार की महिलाएं एक साथ आईं।

इन इलाक़ों को महामारी और सम्पत्ति के नुक़सान की दोहरी मार झेलनी पड़ी, नतीजतन आय में भारी गिरावट आई। शबनम के अनुसार, “पहले प्रति माह 15,000 रुपए की आमदनी वाले परिवारों की आय अब घटकर 10,000 रुपए हो गई थी। जो 10,000 कमा रहे थे, उनके लिए अब 5,000 रुपए जुटाना भी मुश्किल था।” 

ऐसी कई घटनाएं हैं जब पुरुषों की आमदनी में आई गिरावट की क्षतिपूर्ति के लिए परिवार की महिलाओं ने काम करना शुरू किया है। शबनम ने उत्तर पूर्व दिल्ली की खजूरिया ख़ास इलाके की एक महिला का उदाहरण दिया। उस महिला ने लॉकडाउन के दिनों में कमाना शुरू किया और डेनिम की सिलाई और कपड़ों के बड़े ऑर्डर को पूरा करते हुए घर चलाया। शबनम कहती हैं कि “छह महीनों तक उस महिला और उसकी बेटी ने घर का पूरा खर्च चलाया। छह महीने के बाद 2022 में उसके पति ने ई-रिक्शा चलाने का काम शुरू किया।” लॉकडाउन के दौरान, ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम महिलाओं – यहां तक कि कम-आयवर्ग वाले घरों की महिलाओं- ने काम करना शुरू कर दिया और उनमें से कई अब भी काम कर रही हैं। शबनम आगे बताती हैं कि “यहां तक ​​कि जो पहले काम नहीं करती थीं और जिनके पति ही अकेले कमाने वाले थे, वे भी अब काम कर रही हैं।” 

खैर हेल्प फाउंडेशन उन मुस्लिम इलाकों में काम करता है जहां महिलाएं स्वरोजगार करती हैं। चूंकि उनके व्यवसाय स्थानीय लोगों की सेवा करते हैं, इसलिए उन्हें गैर-मुस्लिम क्षेत्रों में काम करने वाले मुस्लिमों की तरह धार्मिक भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन उन प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिकों के बारे में क्या जो न केवल धार्मिक उत्पीड़न का सामना करती हैं बल्कि सरकारी रिकॉर्ड में भी दर्ज नहीं हैं, यहां तक कि कल्याणकारी कार्यक्रमों की सूची से भी गायब हैं?

रेशम के धागे से काम करती एक महिला_मुस्लिम महिला श्रमिक
प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिक एरर ऑफ़ ओमिशन से पीड़ित हैं। | चित्र साभार: जेपी डेविडसन / सीसी बीवाय

प्रवासी मुस्लिम महिलाओं की उपस्थिति अब भी गौण है

संग्रामी घरेलू कामगार यूनियन (उत्तर भारत में सक्रिय घरेलू कामगारों का एक संघ) और मायग्रंट वर्कर्स सॉलिडैरिटी नेटवर्क की सदस्य श्रेया घोष कहती हैं कि “अधिकांश प्रवासी मुस्लिम महिलाएं खाना पकाने और साफ़-सफ़ाई जैसे घरेलू काम करती हैं और ऐसी प्रवासी मुस्लिम महिलाओं की संख्या बहुत कम हैं जो कपड़ा बनाने और निर्माण के क्षेत्र में कार्यरत हैं। दरअसल हमारे संघ से जुड़ी घरेलू कामगारों की 65–70 फ़ीसद हिस्सा मुसलमानों का है और बाक़ी के बचे लोग दलित वर्ग से हैं।”

लॉकडाउन का प्रभाव जिन लोगों पर सबसे ज़्यादा पड़ा है, उनमें से एक घरेलू कामगार भी हैं। आवागमन पर प्रतिबंध लगने के कारण उनके काम तो छूट ही गए, कई मामलों में उन्हें अपराधी भी करार दे दिया गया। 2020 में भारत के आठ राज्यों में किए गए एक सर्वे के अनुसार इनमें से 85 फ़ीसद लोगों को उनके काम का पैसा नहीं मिला।

लॉकडाउन के दौरान, घरेलू कामगारों पर अतिरिक्त निगरानी और उनके साथ होने वाली हिंसा और दुर्व्यवहार में बढ़ोतरी के कई मामले सामने आए।

श्रेया बताती हैं कि “चूंकि अधिकांश प्रवासी मुस्लिम महिलाएं घरेलू कामगारों का काम करती हैं, इसलिए इसका सीधा अर्थ यह भी है कि उन्हें संघर्ष भी करना पड़ता है।” लॉकडाउन के दौरान, घरेलू कामगारों पर अतिरिक्त निगरानी और उनके साथ होने वाली हिंसा और दुर्व्यवहार में बढ़ोतरी के कई मामले सामने आए। श्रेया आगे बताती हैं कि “गेटेड सोसायटीज में घरेलू कामगारों को प्रवेश के पहले सैनिटायज़ करने वाले शॉवर काउंटर से गुजरना अनिवार्य था। जबकि वहां के निवासियों को ऐसा करने की ज़रूरत नहीं थी। इसका स्पष्ट मतलब यह है कि आप घरेलू कामगारों को वायरस के वाहक के रूप में देख रहे थे।”

श्रेया के अनुसार, नियोक्ताओं की पहली पसंद प्रवासी घरेलू कामगार होते हैं क्योंकि वे कम पैसे मांगते हैं और अक्सर ज़्यादा दिनों तक टिकते हैं। वे आगे कहती हैं कि “कोविड-19 के चरम और प्रवासियों के अपने गांव लौटने के दिनों में भी घरेलू कामगार नहीं गए। कुछ ने छह महीनों तक इंतज़ार किया तो वहीं कुछ ने एक साल तक इस उम्मीद में अपने दिन काटे कि चीजें सामान्य हो जाएंगी। किसी दूसरे शहर में रहने और खाने का संघर्ष होने के बावजूद वे शहर छोड़ कर नहीं गए क्योंकि वहां अपने गांव में उनके पास न तो खेती के लिए ज़मीन है और ना ही छोटा-मोटा कोई धंधा शुरू करने के लिए आवश्यक संसाधन।”

मुस्लिम महिलाओं के लिए काम का भविष्य कैसा है?

भले ही कोविड-19 के कारण आवाजाही पर अब उस प्रकार से प्रतिबंध नहीं रह गया है लेकिन घरेलू कामगारों और प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिकों की स्थिति में सुधार की सम्भावना न के बराबर है। उनका यह संघर्ष ज़ारी रहेगा क्योंकि उनके पास श्रम क़ानून सुरक्षा की कमी है। 1959 से कई ऐसे बिल संसद में पेश किए गए हैं जो बुनियादी सुरक्षा उपायों जैसे कि उचित वेतन, पेंशन और घरेलू कामगारों को मातृत्व और स्वास्थ्य लाभ सुनिश्चित करने की मांग करते हैं। लेकिन इनमें से एक भी क़ानून पारित नहीं हुआ है।

प्रवासी मुस्लिम महिलाओं को एरर ऑफ़ ओमिसन का भी सामना करना पड़ता है। 2011 जनसंख्या सर्वे के अनुसार कुल प्रवासी आबादी का 67 फ़ीसद महिलाएं हैं और ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इनमें 11 फ़ीसद महिलाओं ने अपने पूरे परिवार के साथ प्रवास किया है। इस आंकड़े में यह नहीं दर्शाया गया है कि इनमें से अपने पतियों के साथ प्रवास करने वाली ज़्यादातर महिलाएं भले ही खुद को घर का खर्च चलाने वाले के रूप में न देखती हों लेकिन वे काम करती हैं। श्रेया बताती हैं कि “अगर आप उन घरेलू कामगारों से पूछेंगे तो उनका यही कहना होगा कि ‘हम अपना घर-गांव छोड़कर इसलिए आ गए क्योंकि हमारे पति प्रवासी थे’, लेकिन वे सभी कामकाजी महिलाएं हैं। हमारे समाज में महिलाओं के श्रम को जिस रूप में देखा और समझा जाता है वह एक शोचनीय प्रश्न है।”

भारत में अंतरराज्यीय प्रवासन पर पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है और सरकार, महामारी के दौरान नौकरियों के नुकसान और श्रमिकों की मौतों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र करने में विफल रही है। आजीविका पर पहचान के प्रभाव को लेकर भी शोध की कमी है। बिना आंकड़ों के सरकारी योजनाओं, नीतियों और कल्याणकारी कार्यक्रमों का लाभ लोगों तक कैसे पहुंचेगा?

श्रमबल में मुस्लिम महिलाओं के विषय पर कोई भी गहन शोध नहीं कर रहा है।

श्रेया का मानना है कि यह जानबूझकर छोड़ा गया विषय है। “सरकार उनकी गिनती नहीं करती है क्योंकि वह उन उद्योगों को नुक़सान नहीं पहुंचाना चाहती जो बड़े पैमाने पर कुछ राज्यों से विशेष आर्थिक क्षेत्रों में प्रवासन से लाभान्वित हो रहे हैं। वे चाहते हैं कि श्रमिकों को नागरिकों के बजाय एक समूह के रूप में देखा जाए जो अपनी तरह की चुनौतियां लेकर आता है।”

शोध की यह कमी केवल प्रवासियों तक ही सीमित नहीं है। 2022 में लेड बाय ने प्रवेश स्तर की नौकरियों में मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ भेदभाव पर एक अध्ययन प्रकाशित किया था। दीपांजलि कहती हैं कि “हमने अध्ययन शुरू किया क्योंकि हम यह कहते-कहते थक गए थे कि किसी भी तरह का वास्तविक डेटा उपलब्ध नहीं है। कोई भी [कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं पर] गहन शोध नहीं कर रहा है। उदाहरण के लिए, भारत में काम पर हिजाबी महिलाओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, उन पर कोई शोध नहीं है, हालांकि विदेशों में ऐसे अध्ययन हैं जो उनके साथ बड़े पैमाने पर हो रहे भेदभाव को दिखाते हैं।”

समाजसेवी संस्थाओं का मानना ​​है कि भारत के विशाल और विविध भूगोल और जनसांख्यिकी के अनुरूप बड़े पैमाने पर अनुसंधान करने के लिए केवल सरकार के पास बैंडविड्थ है। श्रेया कहती हैं कि “जब हम श्रमिकों के बीच काम करते हैं, तो हमारे पास एक व्यापक सर्वेक्षण करने के लिए आवश्यक संसाधन और पहुंच नहीं है। यह सरकार का काम है। यहां तक ​​कि सबसे साधन-संपन्न समाजसेवी संस्था भी उस तरह का सर्वेक्षण नहीं कर सकती है, जैसा कि सरकारी कार्यालय कर सकता है।”

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

इंसान और वन्यजीवों के बीच जंगल का बंटवारा कैसे हो?

इंटर्नेशनल यूनियन कन्ज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (आईयूसीएन) का एक सिस्टम जो ख़तरों का वर्गीकरण करता है, “जलवायु परिवर्तन और उग्र मौसम” को वन्यजीवों के लिए ख़तरा पैदा करने वाली 12 श्रेणियों में से एक रूप में पहचानता है।

इंटरगवर्नमेंटल सायंस-पॉलिसी प्लैटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ की एक ऐतिहासिक रिपोर्ट के अनुसार, वन्य जीवों में से 47 फ़ीसदी और विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके पक्षियों में से 23 फ़ीसदी पर पहले से ही जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। 

भारत में, नैशनल वाइल्डलाइफ एक्शन प्लान (एनडबल्यूएपी) 2017–31 इस बात को स्वीकार करती है कि देश के संरक्षित क्षेत्रों को जब डिज़ाइन किया गया था तब वन्यजीव संरक्षण के लिए जलवायु परिवर्तन को मानदंड नहीं माना जाता था। एनडबल्यूएपी इस ओर ध्यान दिलाता है कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप वन्यजीव प्रजातियों को अधिक अनुकूल आवास मुहैया करवाने की ज़रूरत है। वर्तमान में भारत में वन्यजीव के लिए सुरक्षित क्षेत्र के रूप में केवल 5 फ़ीसद भूमि ही आवंटित है। ये सुरक्षित क्षेत्र भी अक्सर सघन आबादी वाली बस्तियों से घिरे होते हैं जहां मनुष्य एवं पशुओं के बीच पस्पर संबंध एवं संघर्ष की गुंजाइश होती है। वन्यजीव शोध, संरक्षण, नीति एवं शिक्षा पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था सेंटर फ़ॉर वाइल्डलाइफ़ स्टडीज़ (सीडबल्यूएस) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में वन्यजीव संघर्ष की दर बहुत ऊंची है और यहां सरकार द्वारा वन्यजीव संघर्ष से जुड़े औसतन 80 हजार मामले प्रतिवर्ष दर्ज किए जाते हैं।

संघर्ष के पैटर्न

मोटे तौर पर पांच तरह के संघर्ष होते हैं: लोगों की फसल का नुकसान, संपत्ति का नुकसान, पशुधन पर हमला, लोगों का घायल होना या मृत्यु। लगभग 70 फ़ीसद मामले फसल एवं सम्पत्ति के नुक़सान से जुड़े होते हैं। पशुधन नुक़सान का आंकड़ा लगभग 15–20 फ़ीसद है और लोगों को पहुंचने वाली चोट या मृत्यु के 5 फ़ीसद मामले दर्ज किए जाते हैं। हालांकि हाथियों, सूअरों, बाघों, तेंदुओं और भालुओं जैसे बड़े जानवरों के निकट संपर्क में आने वाले लोगों की भारी संख्या को देखते हुए यह आंकड़ा उल्लेखनीय रूप से कम है।

सीडब्ल्यूएस की कार्यकारी निदेशक डॉ कृति कारंत बताती हैं कि किन परिस्थितियों में मानव-वन्यजीव संघर्ष चरम पर पहुंच जाता है। वे कहती हैं कि “अगर एक हाथी किसी किसान के खेत में घुसता है और सात साल में 70 बार किसी की फसल बर्बाद कर देता है तो लोगों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है जैसा कि हमने अपने वाइल्ड सेव कार्यक्रम में देखा है। सम्भव है कि ये लोग अपने खेतों में खुले तार बिछा दें जिससे उनके खेतों को चरने वाले हाथियों को करंट लग जाए। यह इस बात का एक उदाहरण है कि यदि आप नुक़सान उठा रहे लोगों की मदद के लिए आगे नहीं आते हैं तो क्या-क्या हो सकता है। किसी व्यक्ति को चोट पहुंचने या उसकी मृत्यु की स्थिति में भीड़ वन अधिकारियों पर हमला कर देती है क्योंकि लोग मानते हैं कि ये वन्यजीव इन अधिकारियों की जिम्मेदारी हैं। हालांकि ये सब अतिवादी स्थितियां है। लेकिन ऐसा रोज़-रोज़ नहीं होता है।”

‘ये जानवर हमसे पहले से यहां रह रहे थे। हमें उनके साथ रहना सीखना होगा।’

मानव-पशु संघर्ष का यह मामला अकेले भारत की समस्या नहीं है। बड़े पैमाने पर विकास, ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव और आर्थिक रूप से प्रगति करने के बावजूद भारत ने अपने वन्य जीवन को बनाए रखा है। यहां के लोगों में पशुओं के प्रति एक गज़ब की सांस्कृतिक सहिष्णुता होती है। कृति के अनुसार “भगवान गणेश के कारण हाथियों के प्रति श्रद्धा तो होती ही है। इसके अलावा हमें कई लोगों ने यह भी बताया कि ‘ये जानवर हमसे पहले से यहां रह रहे थे। हमें उनके साथ रहना सीखना होगा।’ यही बात भारत को अन्य एशियाई देशों से अलग बनाती है। चीन, थाईलैंड और वियतनाम जैसे देशों में भी ऐसे ही जानवर हैं, लेकिन वन्यजीव से उनके अलग प्रकार के संबंध के कारण इन जानवरों की संख्या अब बहुत कम रह गई है।” कृति का मानना है कि अपनी अंतर्निहित संस्कृति और जगह को साझा करने की अपनी विरासत के कारण भारत ने लोगों और जानवरों के बीच एक बहुत ही अस्थिर सा संतुलन बनाए रखा है। 

दक्षिणी भारत के बन्नेरघट्टा होसुर इलाके में वैज्ञानिक अनुसंधान, पर्यावरण शिक्षा और समुदाय-आधारित संरक्षण परियोजनाओं पर काम करने वाली संस्था- ए रोचा इंडिया के कार्यकारी निदेशक अविनाश कृष्णन भी कृति की इस बात से सहमति जताते हैं। “एक देश के रूप में हम इस तरह के संघर्षों के प्रति बहुत अधिक सहिष्णु हैं। इसलिए हम इस क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकते हैं क्योंकि समुदायों की नींव में स्वीकृति और सकारात्मकता है। ऐसी स्थितियां तभी आती हैं जब आप इस संघर्ष को उस स्तर पर पहुंचने देते हैं जहां लोगों का जीवन और उनकी आजीविका गम्भीर रूप से ख़तरे में पड़ जाएं और वे प्रतिशोध की भावना से भर जाएं।”

वे आगे जोड़ते हैं कि यदि हम संघर्ष को प्रबंधित किए जा सकने लायक बनाए रख पाएं और इसकी जवाबदेही उठाएं तो लोगों में स्वीकार्यता का स्तर बढ़ेगा। “समस्या यह है कि संघर्ष की जवाबदेही कोई नहीं लेता है। यदि किसानों की फसलों को नुक़सान पहुंचता है तो वन विभाग की यह जिम्मेदारी होती है कि वह तुरंत उस घटना की जांच करे और आवश्यक कदम उठाए। लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि किसान अपना ग़ुस्सा सीधे उन पर ही निकालेंगे। वहीं, दूसरी तरफ किसानों को लगता है कि इन जानवरों की ज़िम्मेदारी वन विभाग की है। लेकिन हमने देखा है कि जब हमने (एक संरक्षण संगठन के रूप में) लोगों से सम्पर्क किया तो हमारे हाथियों के पक्ष से होने के बावजूद उन लोगों को महसूस हुआ कि उनकी बातें सुनी जा रही हैं और उनकी भी सुध लेने वाला कोई है।”

जंगल की एक सड़क पार करता हुआ एक हाथी_मानव वन्यजीव संघर्ष
हाथी हिमाचल प्रदेश और देश के अन्य ठंडे प्रदेशों की ओर जा रहे हैं। | चित्र साभार: द बेलूर्स / सीसी बीवाय

संघर्ष लोगों को हर स्तर पर प्रभावित करते हैं

संघर्ष इन प्रदेशों के लोगों की आजीविका को नष्ट कर देते हैं और उन्हें शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के पूर्वी घाटों में स्थित बनेरघट्टा नैशनल पार्क (बीएनपी) के आसपास के इलाक़ों में फसल सीधे हाथियों की चपेट में आ जाती हैं। अविनाश के अनुसार, इस इलाक़े में किसानों को प्रति एकड़ पैदा होने वाले 15 क्विंटल रागी में से औसतन 10 क्विंटल का नुक़सान उठाना पड़ता है। अपनी जीविका के लिए खेती करने वाले एक किसान की फसल का 75 फ़ीसद हिस्सा बर्बाद हो जाने के बाद उसके पास कुछ भी नहीं बचता है। कौशल की कमी के कारण उनके पास वैकल्पिक काम के सीमित अवसर उपलब्ध होते हैं। वे आसपास के शहरों में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में भी काम करने में सक्षम नहीं होते। इसके अतिरिक्त, इन इलाक़ों में सब्सिडी या सामाजिक सुरक्षा के रूप में किसी तरह की सहायता की व्यवस्था भी उपलब्ध नहीं है। इसलिए हाथियों के इस आतंक से बचने में किसानों की मदद करने के अलावा उनकी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के प्रयास भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, अविनाश सुझाव देते हैं। ताकि मानव-हाथी संघर्ष के बावजूद इन किसानों के पास एक आय का एक स्थिर स्त्रोत उपलब्ध हो सके।

संरक्षण व्यावहारिक होना चाहिए

सुरक्षा के पारम्परिक तरीक़ों का प्रभाव सीमित होता है। सीडबल्यूएस ने संघर्ष को कम करने के लिए लोगों द्वारा किए गए बिजली या सौर बाड़ लगाने, मिर्ची या अदरक उगाने या खाई खोदने जैसे विभिन्न उपायों का वैज्ञानिक मूल्यांकन किया है। उनके अध्ययन से यह बात सामने आई है कि ज़मीन की सुरक्षा में किए गए ज़्यादातर निवेश व्यर्थ जाते हैं। कृति बताती हैं कि बाड़ वाला उपाय तभी कारगर हो सकता है जब ये लोग नियमित रूप से बिजली के बिल का भुगतान करें या फिर सौर बाड़ के लिए बैट्री का इस्तेमाल करें। लेकिन सीडबल्यूएस के अनुसार शुरुआती उत्साह के बाद समुचित रखरखाव की कमी के कारण ये सभी उपाय असफल साबित होते हैं।

जानवरों के चरने और इसके लिए उनके द्वारा वन के उपयोग के तरीक़ों में भी बदलाव आ रहा है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को ध्यान में रखना भी महत्वपूर्ण है। बेमौसम और अनियमित बारिश पहले फसल की पैदावार और उसके बाद किसानों की आय को प्रभावित करती है। नतीजतन, इन किसानों की स्थिति और अधिक कमजोर हो जाती है। जानवरों के चरने और वन का इस्तेमाल करने के तरीक़ों में भी बदलाव आ रहा है। कुछ प्रजातियों में मौसम के अनुसार नियमित रूप से फूल और फल नहीं लगते हैं जिसके कारण पेट भरने के लिए इन इलाक़ों के जानवर अपना रास्ता बदल लेते हैं। नतीजतन, तेज़ी से असंतुलन की स्थिति पैदा हो रही है।

अविनाश बताते हैं कि वन के कुछ क्षेत्रों में जानवरों की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए लेकिन उनके रास्ता बदलते रहने के कारण इकोसिस्टम में भी बदलाव आ रहा है। इसके चलते चीजों की प्राकृतिक व्यवस्था प्रभावित हो रही है। उदाहरण के लिए, हाथी हिमाचल और देश के अन्य ठंडे प्रदेशों की ओर बढ़ रहे हैं, उन इलाक़ों में जहां पिछले चार दशकों में हाथी नहीं देखे गए थे। हाथी चलते हुए अपने रास्ते में आने वाले जंगलों को रौंदते हुए आगे बढ़ते हैं। नतीजतन इन इलाक़ों में रह रही प्रजातियों का जीवन भी प्रभावित होता है। 

संघर्ष को कम करना: उपयुक्त समाधान

1. समुदायों के साथ विश्वासपूर्ण संबंध स्थापित करना

संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली सीडबल्यूएस, ए रोचा और नेचर कंज़र्वेशन फ़ाउंडेशन जैसी समाजसेवी संस्थाएं अपना बहुत सारा समय इन इलाक़ों में रहने वाले समुदायों के साथ विश्वासपूर्ण संबंध स्थापित करने में लगाती हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 के दिनों में सीडबल्यूएस ने राहत अभियान चलाए थे जिनमें उन्होंने पश्चिमी घाटों में स्थित 610 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में दवा एवं अन्य जरूरी चीजों की आपूर्ति की थी। चूंकि इन इलाक़ों में उनके अलावा कोई दूसरी संस्था इस तरह का काम नहीं कर रही थी इसलिए उन्हें यहां के लोगों के साथ भरोसेमंद रिश्ते बनाने में बढ़िया सफलता मिली। महामारी के दौरान सीडबल्यूएस ने जब इन समुदायों की मदद की, तब स्थानीय लोगों को इस बात का एहसास हुआ कि यह संगठन न केवल वन्यजीव संरक्षण का काम करता है बल्कि लोगों के कल्याण का भी ध्यान रखता है।

2. ज्ञान की कमी को पूरा करना

संरक्षण के प्रयासों में लगे हुए ज़्यादातर लोगों के पास स्थितियों को समझने एवं उपयुक्त समाधान देने के लिए आवश्यक पारम्परिक और स्थान-विशिष्ट ज्ञान की कमी होती है। अविनाश के अनुसार, संरक्षण को कारगर बनाने के लिए संघर्ष में शामिल समुदायों के समीकरणों या विशिष्ट प्रजातियों की इकोलॉजी और जीवविज्ञान को समझना जरूरी है। अविनाश कहते हैं कि “इस ज्ञान की अनुपस्थिति में हम ऐसे समाधान लेकर आते हैं जो लम्बे समय तक प्रभावी नहीं रह पाते।”

सीडबल्यूएस, वाइल्ड सुरक्षे नाम से एक सामुदायिक कार्यशाला संचालित करता है। इस कार्यशाला में वन्यजीव एवं समुदायों के बीच पुल की तरह काम करने वाले लोगों जैसे ग्राम पंचायत, आशा तथा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जाता है। इन कार्यशालाओं में उन्हें संघर्ष के कारण, सुरक्षित रहने के उपायों, वन्यजीवों, लोगों और मवेशियों में फैलने वाली छह आम बीमारियों तथा उन्हें फैलने से रोकने के उपायों आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। कृति का कहना है कि ज़मीन पर हुई इन साझेदारियों की मदद से उन्हें समुदाय की ज़रूरतों के बारे में गहराई से जानने और संघर्ष को कम करने वाले समाधानों पर काम करने में आसानी होती है।

3.  समाधानों के समूह का निर्माण

हर संघर्ष की प्रकृति स्थानीय पर्यावरण, संदर्भ और पारिस्थितिकी के मुताबिक विशिष्ट होती है, इसलिए इनका समाधान भी विशिष्ट होना चाहिए। अविनाश एलिफ़ेंट सिग्नल का उदाहरण देते हैं जिसे एक बड़ी समस्या के सरल समाधान के रूप में तैयार किया गया था। अन्य संरक्षित क्षेत्रों के विपरीत, बीएनपी का एक रास्ता पार्क के बीच से होकर गुजरता है। चूंकि ये सड़कें आधिकारिक रास्ता नहीं हैं इसलिए यहां आए दिन हाथियों और आम लोगों के बीच टक्कर होती रहती है। इसके एक सरल समाधान के रूप में ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह ही ‘एलिफ़ेंट सिग्नल’ लगाया गया जो चेतावनी यंत्र की तरह काम करता है। यह सिग्नल लोगों को हाथियों के चलने की जानकारी देता है और उन्हें रुकने और सावधान होने का संकेत प्रदान करता है। यह सिग्नल शहरों में काम करने वाले ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह ही काम करता है। स्थानीय लोगों ने इसे स्वीकार किया क्योंकि इससे उन्हें अपना दैनिक कामकाज जारी रखने और अपनी आजीविका चलाने में सुविधा हुई।

ए रोचा इंडिया, संस्था भी समुदायों के साथ मिलकर काम कर रही है ताकि उन किसानों को आर्थिक स्थिरता प्रदान की जा सके जिनकी फसलें हाथियों के कारण बर्बाद हो जाती हैं। अविनाश कहते हैं कि “हमने स्वदेशी रागी और मसूर की कुछ क़िस्मों के बारे में उन्हें बताया जो पर्यावरण के बदलावों का सामना ज्यादा कर सकती हैं। जलवायु परिस्थितियों के बदलते रहने की स्थिति में भी इन फसलों की उपज स्थिर रहती है।” अविनाश आगे जोड़ते हैं कि संरक्षण के लिए किसी भी प्रकार के स्केलेबल मॉडल का होना असंभव है। उनका कहना है कि इसके बदले यहां छोटे-छोटे और अति स्थानीय समाधानों की एक श्रृंखला अधिक कारगर है। इनमें एलिफ़ेंट सिग्नल, वैकल्पिक फसल की उपलब्धता, आय के स्त्रोत के रूप में मधुमक्खी पालन आदि शामिल हैं। जब आप इन उपायों को एक साथ अपनाते हैं, तब यह समुदायों और संरक्षण के लिए एक कारगर समाधान के रूप में काम करता है।

4. वन्यजीव क्षतिपूर्ति निधि तक पहुंचने में लोगों की मदद करना

संघर्ष के कारण हुए नुकसान के लिए मुआवजा एक महत्वपूर्ण रणनीति है। कृति का कहना है कि कई राज्यों में वन्यजीव मुआवजे के लिए अलग से राशि उपलब्ध होती है। लेकिन वास्तविक चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि इस राशि का लाभ उन लोगों तक पहुंचे जिन्हें मानव-पशु संघर्ष के कारण नुक़सान उठाना पड़ता है।

अपने पुरस्कृत वाइल्ड सेव कार्यक्रम की मदद से सीडबल्यूएस एक पुल की तरह काम करता है। इसका काम यह सुनिश्चित करना है कि आवेदकों के दावे ख़ारिज न हों और उन्हें मुआवज़े की राशि मिल जाए। टोल-फ़्री नंबर जैसे सहज उपाय पर केंद्रित वाइल्ड सेव कार्यक्रम की पहुंच भारत में चार अभ्यारण्यों के आसपास बसे लगभग 1,500 गांवों तक हो चुकी है। किसी भी प्रकार की दुर्घटना की स्थिति में लोग इस नम्बर पर फ़ोन करते हैं जिसके बाद सीडबल्यूएस के कर्मचारी घटना स्थल पर पहुंच कर दुर्घटना को दर्ज करने और मुआवजे के लिए आवश्यक काग़ज़ात तैयार करने, फ़ोटो लेने और सरकार के सामने दावे को वैध बनाने जैसे जरूरी काम करते हैं। कृति बताती हैं कि अपने कार्यान्वयन के सात सालों में उन्होंने 22,000 से अधिक मामलों को दर्ज करवाने में मदद की है और लोगों को कर्नाटक एवं तमिलनाडु सरकार से पांच लाख डॉलर से अधिक राशि मुआवजे के रूप में दिलवाई है। 

5. हितधारकों के बीच संवाद को प्रोत्साहित करना

मानव-पशु संघर्ष में तीन तरह के हितधारक शामिल होते हैं। सरकार में वन से जुड़े सभी विभाग क्योंकि संघर्षों के प्रबंधन की जिम्मेदारी उनकी होती है; दूसरे संघर्ष से सीधे रूप से प्रभावित होने वाले स्थानीय समुदाय और दोनों के बीच पुल के रूप में काम करने और समस्याओं पर ध्यान दिलवाने में मदद करने वाले समाजसेवी संगठन वगैरह। अविनाश कहते हैं कि इन हितधारकों के बीच संवाद, समन्वय एवं सहयोग को विकसित करना जरूरी है जो अब तक न के बराबर है। “जब तक हम इसे किसी दूसरे की समस्या के रूप में देखना बंद कर, इसके लिए सामूहिक रूप से कुछ करना आरम्भ नहीं कर देते हैं। तब तक आज उभर रही ये समस्याएं, जो पहले से हमें विरासत में मिली हैं, भविष्य में अधिक जटिल मुद्दों के रूप में हमारे सामने आएंगी।

कृति के अनुसार, समाजसेवी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है लेकिन उनके काम और उनके महत्व को कम आंका जा रहा है जिसे बदलने की ज़रूरत है। “समाजसेवी संस्थाएं सरकार की तरह बड़े पैमाने पर किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती हैं। लेकिन उनके पास कई वर्षों में हासिल हुआ ज्ञान, उपकरण और सबसे महत्वपूर्ण गहरी समझ और कारगर उपायों की विशेषज्ञता ज़रूर है।” कृति का सुझाव है कि सरकारों को सरकारी प्रणालियों में समाजसेवी संस्थाओं को ज्ञान के सहयोगी के रूप में शामिल करना चाहिए क्योंकि वे इस मानव-पशु संघर्ष को प्रबंधित करने वाले आवश्यक कार्यक्रम बनाने में सक्षम हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को संरक्षण के बारे में सोचना चाहिए

संरक्षण के प्रयासों को समाजसेवी संस्थाओं, युवा कार्यकर्ताओं या शहरी सम्भ्रांत लोगों के एक छोटे से समूह तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। अविनाश के अनुसार एक बढ़ई से लेकर एक मंत्री तक सभी को संरक्षण के प्रयास से जुड़ना चाहिए।

संस्था के स्तर पर, शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों को स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए संरक्षण को एक विषय के रूप में शामिल करने के प्रयास पर काम करना चाहिए। उदाहरण के लिए, सीडबल्यूएस के वाइल्ड शेल कार्यक्रम को भारत में वन्य जीव अभ्यारण्यों के आसपास के ग्रामीण इलाक़ों में स्कूल जा रहे 10–13 वर्ष के बच्चों के लिए तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम के हिस्से के रूप में वे कला, कथा-वाचन और विभिन्न प्रकार के खेलों का उपयोग कर बच्चों को पर्यावरण विज्ञान और संरक्षण के बारे में इस प्रकार सिखाते हैं जिससे उनका ध्यान पर्यावरण की देखभाल पर जाता है।

अविनाश का सुझाव है कि सामाजिक दृष्टिकोण से स्थानीय राजनेताओं जैसे कि विधायकों एवं सांसदों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि “लोगों को उनसे पूछना चाहिए कि संरक्षण को लेकर उनकी क्या राय है। आज हम अपने प्रतिनिधियों से ख़राब सड़कों, स्ट्रीट लाइट के न होने जैसी चीजों की शिकायतें करते हैं लेकिन जंगलों का मुद्दा भी हमें इतना ही प्रभावित करता है। जब हम जंगल बचाते हैं, तभी बाक़ी लोगों को इकोसिस्टम से लाभ मिल पाता है। यह तापमान को कम करता है और हवा को साफ़ रखता है। हमारा संदेश यही होना चाहिए, न कि यह कि पर्यावरण विकास विरोधी है।”

जिस तरह से मीडिया में मानवपशु संवाद को कवर किया जाता है उसे बदलने की जरूरत है।

मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। कृति का मानना है कि जिस तरह से मीडिया में मानव-पशु संवाद को कवर किया जाता है उसे बदले जाने की जरूरत है। वे कहती हैं कि “उन्हें मानव-पशु संघर्षों से जुड़े मामलों को सनसनीखेज़ बनाना बंद करना होगा। चाहे किसी बाघ की वज़ह से किसी इंसान की मृत्यु हो या फिर गलती लोगों की हो, यह सब कुछ एक बड़े और विस्तृत संवाद का हिस्सा होता है। मारे जा रहे लोगों या जानवरों की क्लिप को बार-बार चलाना सही नहीं है। जब मीडिया संघर्ष की इन घटनाओं को सनसनीखेज बनाता है, तो यह दीर्घावधि में संरक्षण के प्रयासों के प्रभाव को कम करता है और उसे असफल बनाता है।”

समाज के हर व्यक्ति के जागरूक होने से, जानवरों के जीवन में अंतर आ सकता है, इन जानवरों के आसपास रहने वाले स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिल सकती है। साथ ही, ऐसा होना संरक्षण के प्रयासों को समग्र रूप से प्रभावी बनाने में भी अपना योगदान दे सकता है।

इस लेख में हलीमा अंसारी ने भी योगदान दिया है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें