भारत ने अपनी ऊर्जा खपत के लिए, साल 2070 तक नेट ज़ीरो हासिल करने का लक्ष्य बनाया है।1.5 अरब आबादी वाले देश में, इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें 2019 की तुलना में तीन गुना अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होगी। इसका मतलब है कि रिन्युएबल ऊर्जा के लिए स्थापित क्षमता – 2030 तक 500 गीगावॉट के लक्ष्य को पूरा करने वाला एक राष्ट्रीय कार्यक्रम पहले से ही चलाया जा रहा है – को यथासंभव तेज गति देनी होगी। सीईईडब्ल्यू के एक अध्ययन के अनुसार, 2070 तक पहले से स्थापित सौर क्षमता को 5,630 गीगावॉट की सीमा को पार करना होगा। संदर्भ के लिए, सितंबर 2023 तक, भारत की कुल स्थापित नवीनीकृत ऊर्जा (आरई) क्षमता 132.13 गीगावॉट थी जिसमें 72.02 गीगावॉट सौर ऊर्जा थी।
जहां नवीनीकृत ऊर्जा ग्रह पर कार्बन निर्माण को रोकने और (उम्मीद है) जलवायु परिवर्तन की गति को कम करने का वादा करती है, वहीं यह इसका एकमात्र परिणाम नहीं है जिसके बारे में हमें सोचने की जरूरत है। रिन्यूएबल परियोजनाओं को उनके पहलुओं के लिए आंका जाना चाहिए। ऐसा करते हुए उनकी मूल्य श्रृंखलाओं की सामाजिक और पारिस्थितिक लागत को शामिल किया जाना चाहिए – उनके खनिजों की उत्पत्ति से लेकर उनके फोटोवोल्टिक पैनल और टरबाइन ब्लेड के निपटान तक। आख़िरकार, वे भी बुनियादी ढांचागत परियोजनाएं हैं और किसी भी अन्य परियोजना की तरह भूमि, पानी, पदार्थों और श्रमिकों पर निर्भर होती हैं, और इन संसाधनों के उपयोग के लिए अपनाए गए उनके तरीक़ों पर ही यह तय होगा कि इनसे उत्पादित ऊर्जा कितनी स्वच्छ और हरित है।
विडंबना यह है कि पुनर (RE) के पहले ‘हरित’ और ‘स्वच्छ’ जैसे शब्द का प्रयोग करने से ऐसे अर्थ निकलते हैं जो हमें इन परियोजनाओं के हानिकारक प्रभावों की पहचान करने और उनका समाधान निकालने से रोकते हैं। यह एक ऐसी समस्या है जो उनके लिए भूमि-उपयोग, जल और पर्यावरणीय नियमों में लागू किए अपवाद या दी गई छूट के कारण जटिल हो गई है।
लेकिन, चूंकि यह सेक्टर अपेक्षाकृत नया है और इसमें परिवर्तन की गुंजाइश है, हम ऐसे बेस्ट प्रैक्टिस तैयार कर सकते हैं जो पर्यावरण को आगे बढ़ाने और स्वच्छ ऊर्जा के लिए लोगों को केंद्रित करने में योगदान दे सकती हैं। इसे निम्नलिखित तरीक़ों से किया जा सकता है।
एक अनुमान के अनुसार, साल 2050 तक सौर एवं पवन इंफ़्रास्ट्रक्चर के लिए 95,000 वर्ग किमी भूमि की आवश्यकता हो सकती है। यह क्षेत्रफल बिहार राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है। भूमि इस सेक्टर के लिए प्रमुख संसाधनों में से एक है और पत्ते या अधिग्रहण के माध्यम से इसकी ख़रीद को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। हालांकि, अतीत में, भूमि की इस तरह के सौदेबाज़ी ने भूमि मालिकों और हितधारकों – जैसे कि भूमिहीन श्रमिक, चरवाहे, महिलाएं, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजाति – को व्यापार की शर्तों के आधार पर असंतुष्ट ही छोड़ा है। उनकी शिकायतों में अपर्याप्त मुआवज़ा, नौकरी देने के वादे से मुकरने से लेकर आजीविका के संकट जैसे मुद्दे शामिल हैं।
रिपोर्ट बताती हैं कि स्थानीय लोगों को अपनी ज़मीन देने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से ठेकेदारों एवं दलालों द्वारा मेगा सौर ऊर्जा संयंत्रों में संभावित रोज़गार की संख्या को अक्सर बढ़ा कर आंका जाता है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक के पावागाडा सोलर पावर पार्क में, ठेकेदारों द्वारा किए गए रोज़गार के वादे का केवल दसवां हिस्सा ही स्थानीय लोगों को उपलब्ध कराया गया है। आमतौर पर, स्थापना, संचालन और रखरखाव वाली कुशल तकनीकी भूमिकाओं की बजाय इनके लिए पैनल क्लीनर, गार्ड और घास काटने जैसी निम्न-कौशल वाली भूमिकाएं होती हैं।
सामाजिक प्रभाव आकलन को नकारात्मक सामुदायिक प्रभावों के खिलाफ उचित सुरक्षा उपायों के रूप में उद्धृत किया गया है, लेकिन आम तौर पर विदेशी निवेशकों और बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) द्वारा आर्थिक मदद प्राप्त बड़े डेवलपर्स को इन जांचों और उपायों के प्रति जवाबदेह ठहराया जाता है। इन सर्वेक्षणों से बाकी लोगों को मिलने वाली छूट अप्रभावित समुदायों पर सामाजिक और आर्थिक प्रभाव डाल सकती है, जो परियोजना को पूरी तरह से अस्वीकार या बाधित कर सकते हैं।
आरई डेवलपर्स को समुदाय के साथ सहयोग करने की आवश्यकता है ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि एक प्रोजेक्ट अपने दीर्घकालिक लाभों के लिए अल्पकालिक लाभ प्रदान करने के अलावा भी कुछ करे। इसे कस्टम-बिल्डिंग (आवश्यकता-आधारित निर्माण) के द्वारा किया जा सकता है, एक प्रोजेक्ट को किसी साईट की विशिष्ट स्थितियों के अनुरूप तैयार करके – चाहे वह सामाजिक, संस्कृति या पर्यावरणीय हो – व्यवसाय के ऐसे मॉडल के ज़रिए जो समुदाय के सामाजिक न्याय और आर्थिक लचीलेपन को सामने रखता है।
नियमित और समावेशी सहभागिता के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है। आजीविका और भूमि उपयोग के बारे में अपनी चिंताओं को व्यक्त करने के लिए लोगों को आमंत्रित करके और उनके लिए उपयुक्त समाधानों पर पहुंचने के लिए उनके साथ काम करके, आरई डेवलपर्स क्षेत्र में वास्तविक गेम चेंजर के रूप में उभर कर सामने आ सकते हैं। वे स्थानीय कौशल का उपयोग कर सकते हैं, कौशल-विकास और क्षमता-निर्माण कार्यक्रमों के माध्यम से उन्हें तराश सकते हैं और, स्थायी और व्यापक काम को सुनिश्चित करने वाली स्थायी आजीविका का निर्माण कर सकते हैं। (‘इंडियाज़ एक्सपेंडिंग क्लीन एनर्जी वर्कफोर्स’ अध्ययन के अनुसार, देश के सौर और पवन क्षेत्रों में 500 गीगावॉट लक्ष्य को पूरा करने के लिए 10 लाख श्रमिकों को रोजगार देने की क्षमता है।)
इसके अलावा, एग्रीवोल्टेइक जैसे बहु-भूमि उपयोग मॉडल पर भी विचार किया जाना चाहिए, जहां भूमि का उपयोग फोटोवोल्टिक बिजली उत्पन्न करने और कृषि के लिए एक साथ किया जाता है। अनुकूलन आधारित ऐसे दृष्टिकोण किसानों की आजीविका पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को कम या सीमित कर सकते हैं और समुदायों को सक्षम बना सकते हैं कि वे भूमि से जुड़ाव और स्वामित्व की भावना को बनाए रख सकें।
डेवलपर्स और/या राज्य को परियोजनाओं की लाइफ-साइकल पूरी होने जाने के बाद भूमि के उपयोग में आये बदलाव के लिए सक्रियता के साथ योजना तैयार करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इससे स्थानीय बदलाव में भी योगदान मिलता रहे। उनकी प्रभावशीलता की जांच और अचानक डेवलपर्स पर आने वाले खर्चों को रोकने के लिए रचनात्मक उपायों को धीरे-धीरे चरणबद्ध तरीक़े से लागू किया जाना चाहिए।
सौर परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर किए जाने वाले भूमि-ख़रीद के कारण प्रकृति के साथ स्थानिक संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है। उदाहरण के लिए, सौर पैनलों के लिए चरागाहों पर बसने वाले जानवर और पौधों को जब अपनी भूमि छोड़नी पड़ती है तो इससे जैव विविधता नष्ट होती है। पवन टरबाइन के मामले में, टावर खड़े करने के लिए भूमि को समतल किया जाता है और टरबाइन के चौड़ी और बड़ी पत्तियों (150 फीट से भी लंबी ब्लेड) के लिए पेड़ों को काटकर सड़कें चौड़ी की जाती हैं, ख़ासकर जंगली इलाक़ों में, जिससे वन्यजीवों के आवास को नुकसान पहुंचता है।
कुछ छोटी पनबिजली परियोजनाएं (25 मेगावॉट से कम) एक अलग डोमिनोज़ प्रभाव पैदा करने के लिए जानी जाती हैं। अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि – स्थलाकृति, मिट्टी, जलीय विविधता और जैव विविधता पर निर्भर करता है – संभावित प्रभावों की श्रेणी में नदी का विखंडन, परिवर्तित जल रसायन और नदी में मछलियों की संख्या में कमी शामिल आदि भी शामिल हैं।
हालांकि, भारत ने अभी तक सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं के लिए एक नियामक ढांचा नहीं बनाया है, लेकिन पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2020 से उन्हें मिलने वाली छूट, आवास और जैव विविधता के नुकसान के जोखिम को बढ़ा सकती है, और स्वच्छ ऊर्जा के सकारात्मक लाभ को कम कर सकती है। और जब पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों के आदेश पर आयोजित किए जाते हैं, तो उनमें अक्सर मज़बूती और प्रतिबद्धता की कमी होती है। जूनियर कर्मचारियों के लिए चेकलिस्ट, वे परियोजना को प्रभावित करने वाले पूरे परिदृश्य के बजाय एक सीमित क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और 20-25 सालों के दौरान उभरने वाली समस्याओं का अनुमान लगाने की बजाय केवल मूल्यांकन के समय स्पष्ट प्रभावों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यहां तक कि बहुत अधिक मेहनत और निष्पक्षता के साथ किए जाने के बाद भी निर्णयकर्ता इन आकलनों के परिणामों को हमेशा प्राथमिकता नहीं देते हैं।
सक्षम ईआईए, लंबे समय में डेवलपर्स, स्थानीय समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए मुश्किल साबित होने वाले वन्यजीव विस्थापन, प्रवासी मार्गों में व्यवधान, स्थानीय वनस्पति का क्षरण, जल स्रोतों का मोड़ जैसे पारिस्थितिक जोखिमों का अनुमान लगा सकते हैं और उन्हें कम भी कर सकते हैं। जैसलमेर में एक पर्यावरणीय मूल्यांकन ने पवन और सौर डेवलपर्स को उन जोखिमों के प्रति सचेत कर दिया जो ओवरहेड ट्रांसमिशन लाइनें गंभीर रूप से लुप्तप्राय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के लिए पैदा करती हैं, जिससे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बाद में जमीन के नीचे केबलों को दफनाने की अतिरिक्त लागत से बचा जा सका। सार्वजनिक परामर्श (पब्लिक कंसल्टेशन) ईआईए की ज़रूरत होती है जो बाहरी मूल्यांकनकर्ताओं को स्थानीय समुदायों से उन पारिस्थितिक प्रभावों और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के बारे में सीखने का अवसर प्रदान करता है जो तत्काल प्रभाव से स्पष्ट नहीं होती है। इसलिए इन आकलनों के प्रति मजबूत प्रतिबद्धता महत्वपूर्ण है। जब संभावित पर्यावरणीय प्रभावों को पहले ही चिन्हित कर लिया जाता है, तो डेवलपर्स के लिए पहले से मौजूद समाधानों की बजाय प्रासंगिक समाधान तैयार करना आसान हो जाता है, जिससे उनके संसाधनों और समय की बचत होती है और स्थानीय लोगों का समर्थन और साथ भी मिलता है।
डेवलपर्स प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत कर सकते हैं, जिससे वे अधिक लचीले और उत्पादक बन सकते हैं।
दुनिया के कुछ हिस्सों में, ‘सोलर गेजिंग’ की प्रक्रिया अपनाई जा रही है। इस प्रक्रिया में खेती की ज़मीन को पहले सौर-पार्क में बदल दिया गया और जिसने अब चारागाह का रूप ले लिया है। इससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार आया है और मवेशियों को स्वस्थ भोजन प्रदान करके भूमि के इन टुकड़ों से अब दोहरे लाभ उठाये जा रहे हैं। और इसलिए, अपनी परियोजनाओं को कम प्रभाव वाले क्षेत्रों में स्थापित करके, स्थानीय परिस्थितियों के आधार इन परियोजनाओं की योजना बनाकर, और डिजाइन चरण में ही नवाचार का उपयोग करके, डेवलपर्स वास्तव में प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत कर उन्हें अधिक लचीले और उत्पादक बन सकते हैं।
निम्न-कार्बन ऊर्जा सेक्टर के बढ़ने के साथ ही खनिजों की इसकी भूख भी बढ़ती जा रही है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार, ऊर्जा सेक्टर द्वारा प्रेरित लिथियम, निकिल और कोबाल्ट जैसे मुख्य संक्रमण खनिजों (ट्रांजीशन मिनरल) का बाज़ार 2017 से 2022 के बीच में दोगुना हो गया है, और साल 2050 तक इसके छह गुना बढ़ने का अनुमान है। अपने सौर पीवी मॉड्यूल, पवन टरबाइन और बैटरी के लिए आपूर्ति श्रृंखला को सुरक्षित करने के उद्देश्य से भारत ने अपने खनन कार्यक्रम में तेजी ला दी है और जम्मू और कश्मीर में नए लिथियम भंडार का दोहन करने की तैयारी कर रहा है, लिथियम भारत द्वारा आयात किए जाने वाले महत्वपूर्ण खनिजों में से एक है।
लेकिन खनन के दुष्परिणाम-प्रदूषित भूजल, श्वसन संबंधी बीमारियां, मानवाधिकारों का उल्लंघन, बाल श्रम-कोयले से लेकर कोबाल्ट तक एक समान हैं, यह समस्या कमजोर नियमों के कारण गंभीर हो गई है। निरीक्षण और जवाबदेही के लिए बनी क्ठोर व्यवस्था के बिना, रिन्यूएबल सेक्टर को भी इन आरोपों के लिए हाइड्रोकार्बन-आधारित अपने पूर्ववर्ती सेक्टर की तरह ही दोषी ठहराया जा सकता है।
इस सेक्टर को एक अन्य जाल से भी सावधान रहना चाहिए जो लैंडफिल तक जाता है। भारत नवीनीकृत ऊर्जा का अग्रणी उत्पादक बनने की दौड़ में शामिल है, और वह इससे पैदा होने वाले कचरे से भी जूझ रहा है। पहले से ही स्थापित सौर क्षमता का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक होने के कारण 2050 तक, भारत में 40 लाख टन फोटोवोल्टिक कचरा पैदा होने का अनुमान लगाया गया है। सौर पीवी मॉडल का जीवन चक्र 25 से 30 वर्षों का होता है; वहीं बैटरी की उम्र तीन से 10 साल के बीच (इसकी रसायन पर निर्भर करता है) होती है; और पवन टरबाइन का जीवन चक्र 20 वर्षों में खात्मे पर पहुंच जाता है। साल 2050 तक, दुनिया भर में 430 लाख टन टरबाइन ब्लेड कचरा होगा। हालांकि, आरई घटक अपनी अंतिम तिथि से बहुत पहले ही आरई कचरा में तब्दील हो सकते हैं। परिवहन, स्थापना और संचालन, और ओलावृष्टि या तूफान जैसे मौसम की घटनाओं के कारण नुकसान हो सकता है। सौर कचरा निपटान के लिए सुविधाजनक और लागत प्रभावी तंत्र की कमी आरई डेवलपर्स को अपनी सुविधाओं पर निष्क्रिय पीवी पैनलों के भंडारण के लिए मजबूर करती है, जिससे उनके कार्यबल और साइट को लीचिंग का ख़तरा होता है।
अनौपचारिक रीसाइक्लिंग चैनलों से गुजरने वाले पैनल और बैटरियां अपशिष्ट संचालकों को सीसा, कैडमियम, टिन और सुरमा जैसे खतरनाक तत्वों के संपर्क में लाती हैं, जिससे सतह और भूजल के प्रदूषण के माध्यम से उनके और पर्यावरण के स्वास्थ्य और सुरक्षा से समझौता होता है।
कचरे की मात्रा कम करना, उपयोग योग्य सामग्री को पुनर्प्राप्त करना और संसाधनों को पुनर्जीवित करना प्रमुख है। आरई कचरे से जुड़ा पहले से ही एक सख़्त नियम है, ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) नियम 2022 उत्पादकों और विनिर्माताओं को इसके सुरक्षित प्रसंस्करण और निपटान के लिए जवाबदेह बनाता है।
मानव और पर्यावरणीय सुरक्षा के अलावा, जिम्मेदार पुनर्चक्रण का अतिरिक्त लाभ महत्वपूर्ण खनिजों और धातुओं की पुनर्प्राप्ति है – जो मॉड्यूल की कुल सामग्री का 50 फ़ीसद हो सकता है। यह भारत के संसाधन स्वायत्तता से जुड़ता है, एक परियोजना जो सौर सेल खनिजों पर वैश्विक निर्यात नियंत्रणों को देखते हुए विशेष महत्व रखती है। कुछ सौर निर्माता, रीसाइक्लिंग इकाइयों की स्थापना और डेवलपर्स के लिए रीसाइक्लिंग सेवा समझौतों का विस्तार करके पहले से ही दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपना रहे हैं।
शुरुआत में ही संपूर्णता में डिज़ाइन करना एक आदर्श दृष्टिकोण होता है।
हालांकि, पुनर्चक्रण कचरे की समस्या का केवल एक हिस्सा ही हल कर सकता है, क्योंकि बार-बार इस प्रक्रिया को दोहराए जाने पुनर्प्राप्त सामग्री की गुणवत्ता में कमी आने लगती है। आरई घटकों और बुनियादी ढांचे के लिए आवश्यक कंक्रीट, प्लास्टिक, खनिज और धातुओं जैसी सामग्रियों के मूल्य और आयु सीमा को बढ़ाने के लिए एक आदर्श दृष्टिकोण वही है जिसमें शुरुआत में ही संपूर्णता को ध्यान में रखकर डिज़ाइन किया जाए।
रिन्यूएबल सेक्टर के लिए एक सर्कुलर वैल्यू चेन स्वच्छ तकनीकों द्वारा उत्पादित और विश्व स्तर पर स्वीकृत डिजाइन मानकों के आधार पर इष्टतम पुनर्प्राप्ति के लिए डिज़ाइन की गई सामग्रियों को नियोजित करेगी। विभिन्न हिस्सों के त्वरित और सुविधाजनक पुनर्प्रयोजन के लिए वैल्यू चेन स्वयं एक सहयोगी, क्रॉस-सेक्टोरल पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर संचालित होगी।
भारत में कुछ सौर पैनल निर्माता पहले से ही अधिकतम सामग्री पुनर्प्राप्ति के लिए विनिर्माण करके सर्कुलरिटी की ओर बढ़ रहे हैं, जो मॉड्यूल का 90 फीसद तक हो सकता है। यदि पारंपरिक पैनल का मूल्य 100 रुपये था तो निष्कर्षण के लिए डिज़ाइन नहीं की गई इन पहली पीढ़ी के मॉड्यूल की रीसाइक्लिंग से केवल 2-3 रुपये प्राप्त होंगे। लेकिन रीसाइक्लिंग के उद्देश्य से बनाये गये 100 रुपये की क़ीमत वाले पैनल से रीसाइक्लिंग के बाद 30–40 रुपये तक प्राप्त हो सकते हैं।
सर्कुलरिटी के लिए एक मजबूत व्यावसायिक केस बनाना निर्माताओं के लिए विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी को बढ़ावा देने का एक तरीका हो सकता है। साथ ही, मूल्य और राजस्व धाराओं की शुरुआती पहचान करने से डेवलपर्स के लिए डिकमीशनिंग लागत को कम करने में मदद मिल सकती है।
अतीत ने हमें सिखाया है कि सामान्य व्यवसायिक दृष्टिकोण के साथ अपनाई गई गति और मात्रा, भविष्य में हमारी समस्याओं को पहले से अधिक बढ़ा देगी। नई ऊर्जा अर्थव्यवस्था को अधिक महत्वाकांक्षी होना चाहिए। एक न्यायसंगत और पुनरुत्पादक मार्ग की ज़रूरत है जिसे बनाने में एक व्यापक पर्यावरणीय, सामाजिक और शासन (ईएसजी) मानक और सख़्त नियामक नीतियां मददगार साबित हो सकती हैं। उचित सरकारी विनियमन की कमी ने ईएसजी मानदंड – जो कि बड़े पैमाने पर विदेशी फाइनेंसरों और निवेशकों, एमडीबी और सेबी जैसे कॉर्पोरेट प्रशासन निकायों द्वारा अनिवार्य है – को इस सेक्टर के लिए सबसे मजबूत घेरा बना दिया है।
लेकिन मानकीकृत मेट्रिक्स और सख़्त निरीक्षण की अनुपस्थिति में, ईएसजी मानदंड एकपक्षीय हो सकता है जो कार्रवाई के लिए एक असमान, कभी-कभी निम्न और अक्सर स्वैच्छिक आधाररेखा निर्धारित करता है जो सुधार की बजाय क्षतिपूर्ति की बात करता है। हालांकि, आरई व्यवसाय जो सक्रिय रूप से और पूर्व-निर्धारित रूप से अपने संचालन के लिए उच्च मानक निर्धारित करते हैं, उनके चुने हुए स्थान पर उनकी पकड़ मजबूत होगी और वे अप्रत्याशित चुनौतियों के प्रति अधिक लचीले बनेंगे। वे अपनी व्यावसायिक महत्वाकांक्षाओं को व्यापक सामाजिक-पारिस्थितिक उद्देश्यों के साथ संरेखित करेंगे, और भागीदारीपूर्ण निर्णय लेने और पारदर्शी और निष्पक्ष आपूर्ति श्रृंखलाओं के माध्यम से उन्हें आगे बढ़ाएंगे।
तभी रिन्यूएबल ऊर्जा वास्तव में परिदृश्य को बदलेगी।
फोरम फॉर द फ्यूचर के एनर्जी एंड क्लाइमेट चेंज के मुख्य रणनीतिकार सक्षम निझावन के सहयोग के साथ।
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कोरोना महामारी के दौरान पूरा देश प्रवासी मजदूरों की हज़ारों किलोमीटर लंबी पैदल यात्राओं का गवाह बना था। लेकिन प्रवास सिर्फ गांवों से शहरों की तरफ ही नहीं, बल्कि गांवों से गांवों में भी होता है। एक गांव से दूसरे गांव जाने वाले ज़्यादातर मजदूर खेती के काम से पलायन करते है। इनकी समस्याएं कहीं ज़्यादा अदृश्य और व्यापक हैं।
राजस्थान के उदयपुर जिले के कोटड़ा ब्लॉक में एक से दूसरे गांव में प्रवास करने वाले अधिकतर मजदूर आदिवासी समुदाय से आते हैं। इन आदिवासियों को अपने आसपास के गांवों में खेती का काम करना ठीक लगता है क्योंकि इससे वे अपने परिवार के साथ रह पाते है। भले ही, इसके लिए उन्हें अपने राज्य की सीमा पार करनी पड़ जाए।
कोटड़ा ब्लॉक, दक्षिण राजस्थान का आखिरी छोर है। यहां अधिकतर भील आदिवासी समुदाय बसता है। इन आदिवासियों की आजीविका ऐतिहासिक रूप से जंगलों से जुड़ी रही है। मसलन तेंदू (बीड़ी बनाने में उपयोगी) पत्ता बीनकर बेचना, बांस, विभिन्न औषधियां तथा अन्य लघु-वनोपज इनकी आय के स्त्रोत रहे हैं। लेकिन 30-40 साल पहले बने कुछ कानूनों ने आदिवासियों को उनके जंगल से दूर कर दिया। ख़ासतौर पर 1972 का वन्य जीव संरक्षण अभयारण्य कानून लागू होने और 1983 में कोटड़ा में ‘फुलवारी की नाल अभयारण्य’ घोषित किए जाने के बाद इनका जीवन बहुत प्रभावित हुआ। कानूनों के प्रभावी होते ही, सरकारी महकमों ने इन्हें वनोपज लेने से रोक दिया।
चूंकि कोटड़ा राजस्थान और गुजरात की सीमा पर है और यहां से महज 10 किलोमीटर दूर से गुजरात के खेत शुरू हो जाते हैं। ज़्यादा दूरी ना होने के कारण भाषा और संस्कृति में कोई खास फर्क नहीं है। इसलिए कोटड़ा के आदिवासियों ने शहरों में प्रवास करने की बजाय गुजरात के गांवों में प्रवास करना बेहतर समझा क्योंकि शहरों में जाकर रहना उनके लिए अपेक्षाकृत कठिन था।
राजस्थान से जुड़ने वाले उत्तरी गुजरात के दो जिलों साबरकांठा और बनासकांठा -जो गुजरात में सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादक है- कृषि की नई तकनीक अपनाने वाले जिले हैं। यहां कई बड़े किसान बस्ते है जिनमें से एक पटेल समुदाय परंपरागत रूप से कृषि प्रधान समुदाय है। इनके पास कई एकड़ ज़मीन है और उन्हें स्थानीय मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है। इन ज़िलों को साबरमती नदी पर बने धरोई बांध से पानी मिलता है और इसलिए इस इलाक़े में, साल में तीन-चार फसलें ली जा सकती हैं।
इसके अलावा, गुजरात में तेजी से औद्योगिक विकास होने की वजह से वहां के स्थानीय मजदूर जैसे ठाकुरडा समुदाय, अनु-सूचित जाति (एससी) और भूमि-हीन अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) जो खेती के काम करते थे, अब उनका रुझान थोड़ा कम हुआ है। उन्होंने गांव में काम करने की बजाय शहरों में बसना शुरू कर दिया है। इनके प्रवास के कारण गुजरात के किसानों को मज़दूरों की ज़रूरत लगी – जो राजस्थान के आदिवासी मजदूरों ने पूरी करी।
1. जमीन का आकार: कोटड़ा एक पहाड़ी इलाका है। यहां बहुत कम कृषि भूमि है। कुल उपलब्ध जमीन का बस 19 प्रतिशत इलाका ही सिंचाई लायक है। असंचित इलाका अधिक होने से आजीविका के साधन बेहद सीमित हो जाते हैं। इसके अलावा, यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव भी देखने को मिलता है।
2. अवसरों का न होना: इलाक़े में जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन थी, उनके भी परिवार बड़े होते जा रहे हैं और खेती की जमीन कम होती जा रही है। इतने लोगों का पालन-पोषण सिर्फ जमीन के भरोसे संभव नहीं है। ऐसे में लोगों को जमीन बेचनी पड़ती है। खेती-किसानी के अलावा लोगों के पास ऐसा कोई कौशल भी नहीं है जिससे शहर जाकर कमाई की जा सके और ना ही आसपास ऐसे अवसर और सुविधाएं हैं।
3. एक साथ पैसों की जरूरत: शादी-ब्याह, गंभीर बीमारी, कुआं खुदवाने जैसी चीज़ों के लिए एक मुश्त रक़म की जरूरत पड़ती है। ऐसी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भी प्रवास करना पड़ता है।
खेती-किसानी के काम में लगातार मजदूर की आवश्यकता होती है। अगर किसान मजदूर को दैनिक मजदूरी पर रखेगा तो वह अपेक्षाकृत बहुत महंगा पड़ता है क्योंकि मजदूर को हर माह पैसे देने पड़ेंगे। और, यदि फसल खराब हुई तो अलग नुकसान होगा। इसलिए इस इलाके में दैनिक मजदूरी की जगह हिस्से की खेती अपनाई गई। हिस्से की खेती मतलब शेयरक्रॉपर—जिसे स्थानीय भाषा में ‘भागिया’ बोलते हैं। इसमें किसान को खेती से जो उत्पादन होता है उसका एक हिस्सा मजदूर को मिलता है। मसलन, किसान को एक फसल में 120 क्विंटल गेंहू प्राप्त हुए तो शेयर क्रॉपर (भागिया) को छठे हिस्से के हिसाब से 20 क्विंटल गेंहू पूरी फसल के दौरान की गई मजदूरी के तौर पर मिलेगा। अगर किसान कोई एडवांस पैसा देता है तो वह भी इसी में से काटा जाएगा। अगर इस फसल चक्र में मजदूरी के लिए अतिरिक्त मजदूर लगाए गए तो उनका भुगतान भी इसी छठे हिस्से यानी 20 क्विंटल से होगा।
आमतौर पर, सीज़न की शुरुआत में किसान और मजदूर के बीच एक मौखिक अनुबंध होता है। किसान 15-20000 रुपए मजदूर को एडवांस देता है। अनुबंध पक्का होने पर मजदूर खेती के काम में परिवार समेत लग जाएगा और पूरे खरीफ़ और कभी-कभी रबी सीज़न तक वहां रहेगा। यह छह महीने से साल भर का प्रवास हो सकता है।
ज़मीन के छह हिस्से कुछ इस तरह से विभाजित हैं: ज़मीन, पानी, बीज, खाद, नई तकनीक, और मजदूर। किसानों का कहना है कि नई तकनीक के कारण मज़दूरों को कम मेहनत करनी पड़ती है तो एक हिस्सा उसका भी रहेगा। लेकिन मजदूर के छठे हिस्से का कोई गणित नहीं है। मजदूर आसानी से मिल रहे हैं तो उसका खामियाजा मजदूर ही भुगतते हैं।
1. न्यूनतम मजदूरी: गुजरात में कृषि न्यूनतम मजदूरी 268 रुपए है। जब मजदूर शेयर क्रॉपिंग में जाते हैं तो यह मजदूरी घट कर ₹100 के करीब हो जाती है। न्यूनतम मजदूरी के मुक़ाबले यह हिसाब मजदूर के लिए बड़ा घाटा साबित होता है।
2. स्पष्ट कानून की कमी: हिस्से की खेती का कोई कानून नहीं है। मजदूर और मालिक के बीच यदि कोई विवाद हो जाए तो न्याय हो पाना बहुत मुश्किल है। श्रम अधिनियम में दैनिक मजदूरी के भुगतान का प्रावधान है। लेकिन कृषि कार्यों में दैनिक मेहनताना जैसी कोई व्यवस्था ही नहीं है। इसलिए विवादित मामलों में कई बार स्वयं को मजदूर साबित करना तक मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति में बिना भुगतान के ही मजदूर को खाली हाथ घर वापस आना पड़ता है। एक मजदूर जब बाहर मजदूरी करने जाता है तो वह राजनैतिक और सामाजिक रूप से कुछ करने में सक्षम नहीं होता।
3. एडवांस का गणित: किसान मज़दूरों को एक साथ एडवांस देने की बजाय किस्तों में पैसा देते हैं। सबसे पहले, जब मजदूर खेत देखने जाता है तो वहीं सब तय हो जाता कि वह कितने मजदूर लाएगा और किसान उसे कितना एडवांस देगा। उदाहरण के लिए, अगर 30000 रुपए की बात हुई तो शुरुआत में किसान 15 हजार देगा और दूसरी किस्त राखी के त्योहार (अगस्त) पर देगा। जुलाई और अगस्त खेती के लिए भी बहुत ज़रूरी होते हैं। जून में बुवाई का काम शुरू होता है और अगस्त तक फसल के साथ खरपतवार हटाना, कीट नाशक स्प्रे जैसे मुख्य काम होते हैं। किसान एडवांस में जितना पैसा देता है, उतनी मजदूरी किसान उनसे करवा लेता है। अगर किसान की मजदूर के साथ नहीं बनती तो वह दूसरी किस्त दिए बगैर उसे रवाना कर देता है। इसमें मजदूर का पूरा साल खराब होता है क्योंकि मजदूर को अब कहीं कोई और नई जगह भागिया में रखने वाला नहीं होगा, सबने इस समय तक अपने-अपने हिस्सेदार रख लिए होंगे। ऐसे में मजदूर पूरे साल के लिए बेरोजगार हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में कई बार वह कर्ज में आ जाता है।
4. अतिरिक्त मजदूरी: खेती के काम में बहुत बार ऐसा होता है कि तय मजदूर के अतिरिक्त भी और मज़दूरों को काम में लगाना पड़ता है। अतिरिक्त मजदूरों की मजदूरी भागिया के हिस्से से दी जाती है। आमतौर पर भागिया भी इसे सही मानते हैं।
1. सस्ता एवं सामाजिक रूप से कमजोर मजदूर: एक से दूसरे गांव में प्रवास के चलते किसानों को साल भर के लिए एक सस्ता मजदूर मिल जाता है। मजदूर के दूसरे राज्य होने के कारण उस पर किसान के राज्य के नीतिगत कानून भी लागू नहीं होते हैं। राज्य सरकार भी प्रवासी मजदूरों की प्रति ज्यादा जवाबदेह नहीं है तो उनके मामले भी खुलकर सामने नहीं आते हैं। किसान भी राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्षम और सशक्त, स्थानीय मज़दूरों को रखने से परहेज़ करते हैं।
2. मनचाही फसल-मनचाहा हिस्सा: आदिवासी मजदूर शहरों में जाने की बजाय गांव में आना ज्यादा पसंद करता है। यह काम उसके लिए परिचित होता है और किसान यह बात समझ गए हैं। इसलिए मजदूर का हिस्सा किसान तय करते हैं। बनासकांठा में आलू की बहुत फसल होती है तो उसमें किसान 10वां हिस्सा तक देते हैं क्योंकि इसमें मुनाफ़ा ज़्यादा है।
3. मजदूरी खर्च: मजदूरी का सारा खर्चा मजदूर के हिस्से में जाता है। खेती का काम में लगभग 50 प्रतिशत लागत और 50 प्रतिशत मजदूरी में खर्च होता है। बीज, पानी, दवाई और बिजली का खर्च एक तरफ और मजदूरी एक तरफ। हिस्से की खेती में मजदूर के हिस्से से इन सभी कामों का और साथ ही, अतिरिक्त मजदूर का भी खर्चा निकल जाता है जिससे किसान का मुनाफा बढ़ जाता।
किसानों के लिए अभी तक एक ही नुकसान सामने आया है कि कई बार ऐसे भागिये किसान के हाथ लग जाते हैं जो एडवांस लेकर चले जाते हैं और काम पर नहीं आते हैं। ऐसा अभी तक 2-3 प्रतिशत केस में देखने को मिला है। किसान का पैसा और मजदूर दोनों चले जाते हैं तो उसे नया आदमी ढूंढना पड़ता है। एक अंदाज़े के मुताबिक़, गुजरात के इन दो ज़िलों में ही लगभग 90 हजार से ज्यादा किसान हैं और सबके पास अपने भागिये हैं। कृषि मजदूर का जब नाम आता है तो आज भी दिहाड़ी मजदूरों की धारणा मन में आती है। लेकिन उससे हटकर यह 30-40 हजार मज़दूर राजस्थान और गुजरात में हिस्से की खेती का काम करते हैं। इन मज़दूरों की जनसंख्या अभी तक किसी को दिखाई नहीं दी है।
अगर आप इस विषय के बारे में सरफ़राज़ शेख की आवाज़ में सुनना चाहते हैं तो यहाँ सुनें।
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मिर्ज़ा असतुल्लाह खां ग़ालिब यानी चचा ग़ालिब, अपनी शायरी के साथ-साथ अपने ज़माने में, अपनी तरह से इतिहास को दर्ज करने के लिए भी जाने जाते हैं। लेकिन अब वो नहीं हैं और इतिहास भी दूसरी तरह से लिखा जा रहा है, और दोनों बातों पर हमारा कोई ज़ोर नहीं है। हां, चचा ग़ालिब की नज़र से दुनिया को देखने के अलावा, हम इतना ज़रूर कर सकते हैं कि डेवलपमेंट सेक्टर के कुछ शब्दों के मायने आपको समझा दें।
वैसे तो, हम यह काम सरल कोश में करते हैं लेकिन इस बार हमने चचा ग़ालिब से मदद ली है।
बढ़ रहा है साल दर साल टेम्परेचर ग़ालिब
कहीं सूखा पड़ा तो कहीं बाढ़ आयी है
गुडविल ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना अपनी सात पुश्तों के इंतज़ाम थे
इंटरवेंशन को चाहिए इक उम्र असर होने तक
क्या ही टिकता है इरादा, रीसाइकल-रियूज़ होने तक
हमको मालूम है मॉनिटरिंग में ही हक़ीक़त लेकिन
दिल को बहलाने को इवैल्यूएशन कर लेना अच्छा है
न था कुछ तो एफसीआरए था, कुछ ना होता तो रिटेल फंडिंग थी
डुबोया मुझको लाइसेंस खोने ने, ना होता एनजीओ तो फॉर प्रॉफ़िट होता
इम्पैक्ट पर ज़ोर नहीं, कैसे दिखाएं डेटा ग़ालिब
ज़मीं पे मिले, लेकिन काग़ज़ पे दिखाई न पड़े
नारोल, अहमदाबाद नगर निगम के दक्षिण जोन के बड़े औद्योगिक समूहों में से एक है। यहां लगभग 2,000 उद्यम हैं जो कपड़ों की ढुलाई, रंगाई, ब्लीचिंग, स्प्रेइंग, डेनिम फिनिशिंग और छपाई (प्रिंटिंग) जैसी विशिष्ट प्रक्रियाओं का काम करते हैं। ये सभी उद्यम अनौपचारिक हैं और ठेके के आधार पर संचालित होते हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि प्रमुख नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच ठेकेदारों की एक लंबी कड़ी होती है।
कारखाने में काम करने वाले किसी श्रमिक का संपर्क केवल उसके ठेकेदार से होता है, जिसे उससे ऊपर का ठेकेदार श्रमिकों के पास अपना एजेंट बनाकर भेजता है। कुल मिलाकर, ये सभी उद्यम अनरजिस्टर्ड शॉप फ़्लोर्स की तरह काम करते हैं, जिसमें हर शॉप-फ़्लोर पर 20–30 कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है जो एक टीम बनाकर तीन या चार मशीनों पर काम करते हैं। ये कर्मचारी कंपनी के प्रबंधन या प्रमुख नियोक्ता की बजाय सीधे अपने ऊपर काम करने वाले ठेकेदार के प्रति जवाबदेह होते हैं। इन व्यापारिक व्यवस्थाओं और व्यापार को जोड़ने वाला एक सामान्य सूत्र ‘बॉयलर’ है, जो एक भट्टी जैसा कंटेनर होता है जिससे भाप निकलती है। यह कपड़ा तैयार करने की प्रक्रिया के हर चरण के लिए जरुरी होता है।
रख-रखाव (मेंटेनेंस) के अलावा बॉयलर को हमेशा चलाये रखने की ज़रूरत होती है, जिसका मतलब है कि इसे चलाने वाले श्रमिकों को ओवरटाइम करना पड़ता है। चूंकि इन बॉयलर से लगातार भारी मात्रा में गर्मी और धुंआ निकलता है, इसलिए यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके अलावा, विस्फोट और जलने जैसे अन्य जोखिम भी हैं।
यह फोटो निबंध नारोल के बॉयलर उद्योग में कार्यरत लोगों के जीवन की एक झलक देता है। साथ ही, यह भी दिखाता है कि कैसे श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और उनके काम की अनौपचारिक प्रकृति उनके जीवन की चुनौतियों को बढ़ाती है।
बॉयलर का काम आमतौर पर अनुसूचित और अधिसूचित जनजातियों से आने वाले प्रवासी श्रमिक ही करते हैं जिन्हें छोटे ठेकेदारों द्वारा थोड़े समय के लिए नियुक्त किया जाता है। ऐसे ज़्यादातर श्रमिक गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के सीमांत जिलों से आते हैं। इनमें से अधिकतर श्रमिक भूमिहीन होते हैं जो थोड़ी ही सही लेकिन नियमित आमदनी के लिए अहमदाबाद जैसे शहरों में आ जाते हैं। इसलिए कि ऐसे मौक़े उनके अपने इलाक़ों में उपलब्ध नहीं होते हैं। आमतौर पर ये श्रमिक अपने परिवारों के साथ आते हैं जो उनके साथ इन्हीं फ़ैक्ट्रियों में काम भी करते हैं। खेती के मौसम में जब वे वापस अपने गांव जाते हैं, तब उन्हें दूसरे लोगों के खेतों में खेतिहर मज़दूर के रूप में काम पर रखा जाता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि गांव से वापस लौटने पर फैक्ट्री में उनकी नौकरी बची ही रहेगी, क्योंकि मौखिक ठेके पर मिलने वाले उनके रोज़गार की अवधि छह से बारह महीने तक ही होती है।
ठेकेदार इन श्रमिकों को काम पर रखते समय खर्ची (भत्ता) देते हैं और बाकी का पैसा उन्हें महीने के पहले सप्ताह में मिलता है। इन श्रमिकों को गुजरात के कानून के हिसाब तय न्यूनतम वेतन से कम मिलता है जो 11,752 रुपये प्रति माह है। यह राशि कपड़ा निर्माण के उच्च स्तर की प्रक्रियाओं जैसे रंगाई, छपाई और धुलाई में शामिल श्रमिकों की कमाई से बहुत कम है, जो आसानी से प्रति माह 14,000-16,000 रुपये तक कमाते हैं। इसके अलावा, बॉयलर श्रमिकों को अनिवार्य आठ घंटे से अधिक काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उन्हें इस ओवरटाइम के लिए अलग से कोई पैसा भी नहीं मिलता है। ये श्रमिक, कर्मचारी राज्य बीमा और भविष्य निधि जैसे उपायों से मिलने वाला सामाजिक सुरक्षा कवरेज से भी वंचित होते हैं।
आमतौर पर बॉयलर में काम करने वाले लोग, कार्यस्थल पर सामाजिक आर्थिक रूप से सबसे निचले पायदान पर आने वाले लोग होते हैं – वे सबसे अधिक वंचित जाति समूहों से आते हैं और उनके पास शिक्षा और आजीविका के बहुत अधिक अवसर नहीं होते हैं। बॉयलर में काम करने का उनका मूल कारण अपनी आमदनी को बढ़ाना होता है – वे अस्थायी नौकरी करते हुए अस्थायी बस्तियों में रहकर किराये में लगने वाले पैसे की बचत करते हैं।
बिना किसी संघ से जुड़े हुए कर्मचारी अक्सर कारख़ानों में सुरक्षा प्रोटोकॉल से जुड़ी कमियों की शिकायत नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें अपने काम से निकाले जाने का डर होता है। दो टन क्षमता वाले एक बॉयलर को चलाने के लिए चार परिवारों को काम पार रखा जाता है जो दो शिफ्ट में काम करते हैं। पुरुष ईंधन को हाथों से जलाते हैं जो आमतौर पर लकड़ी या कोयला ही होता है; वे 400–450- डिग्री तापमान वाली भट्ठी के नजदीक खड़े होते हैं और उन्हें लगातार कई-कई घंटों तक गर्मी, धुंआ और धूल का सामना करते हुए काम करना पड़ता है। लकड़ियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने, उन्हें भट्ठी तक लेकर जाने और राख को निकालने और प्रबंधित करने जैसे छोटे-छोटे काम महिलाएं करती हैं। इन सभी प्रकार के कामों को करते समय उन्हें धूल कण, चारकोल और राख के बीच रहना पड़ता है जिसका उनके स्वास्थ्य पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव पड़ता है। पति-पत्नी दोनों के काम पर होने के कारण उनके बच्चे बिना किसी निगरानी के उन फैक्ट्रियों के आसपास घूमते रहते हैं। अगर बॉयलर का नियमित प्रबंधन और देखरेख ना किया जाए तो उनके फटने और उनमें आग लगने का जोखिम बहुत अधिक होता है।
बॉयलर में काम करने वाली 27 साल की चंदा* ने बताया कि ‘चूंकि पुरुषों को मजदूरी के रूप में मिलने वाला पैसा घर चलाने के लिए पर्याप्त नहीं होता है इसलिए महिलाएं काम में उनका हाथ बंटाती हैं। महिला श्रमिकों को किसी तरह की निजता नहीं मिलती है – हमें कार्यस्थलों पर परेशान किया जाता है – हम लोगों का वेतन भी पुरुष श्रमिकों के वेतन से आधा होता है। इसके अलावा हमें खाना पकाने, जरूरत का सामान खरीदने, कपड़े और बर्तन धोने के साथ ही बच्चों को संभालने का काम भी करना पड़ता है।
बड़े और सुरक्षित फैक्ट्रियों में, बॉयलर सीएनजी जैसे कम उत्सर्जन वाले ईंधन पर चलाये जाते हैं और एक ऑपरेटर की जरूरत केवल ईंधन आपूर्ति का ध्यान रखने और भट्ठियों का तापमान सेट करने के लिए होती है। लेकिन उन्नत तकनीक वाले ऐसे बॉयलर नारोल जैसी जगहों में कम ही हैं जहां मशीनों के संचालन, मरम्मत और रखरखाव का काम भी बाहर के ठेकेदारों को दिया जाता है। इन ठेकेदारों को बेहतर तकनीक वाली मशीनों के निर्माताओं की ना तो जानकारी होती है और ना ही उनके साथ किसी तरह का संपर्क। ऐसे किसी निर्माता के बारे में जानकारी होने पर भी वे उनसे संपर्क करने में झिझकते हैं क्योंकि ऐसी तकनीकें श्रम बल की जगह ले सकती हैं और उन्हें काम का नुकसान हो सकता है।
महिलाओं का स्वास्थ्य घर के पुरुषों की तुलना में और भी अधिक जोखिम में होता है।
श्रमिक एक अस्थायी ऑन-साईट ढांचे में रहते हैं जिसे प्रोजेक्ट बंद होने या उसकी जगह बदल जाने की स्थिति में आसानी से ध्वस्त किया जा सकता है। इन ढांचों को एस्बेस्टस, पीतल, या कभी-कभी स्टील की मदद से बनाया जाता है; ये ढांचे गंदे होते हैं, रौशनी की कमी होने और हवादार ना होने की वजह से ये बहुत गर्म और शुष्क होते हैं। इन फैक्ट्रियों में श्रमिकों को लगातार खतरनाक स्थितियों में काम करना पड़ता है और उनके घरों पर भी साफ-सुथरे वातावरण का अभाव होता है। नतीजतन उन्हें कई तरह की गंभीर और लाइलाज बीमारियां हो जाती हैं। घरेलू कामों का बोझ पूरी तरह से महिलाओं पर ही होता है और चूंकि वे लंबे समय तक वैतनिक और अवैतनिक दोनों तरह के काम करती हैं, घर में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का स्वास्थ्य अधिक जोखिम में होता है।
पेशे से मेडिसिन विशेषज्ञ और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के स्वास्थ्य पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था, बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज के साथ एक शिक्षक के रूप काम करने वाले डॉक्टर आरके प्रसाद कहते हैं कि ‘बॉयलर में काम करने वाला एक आदमी मुश्किल से एक दिन 800 कैलोरी का सेवन करता है, लेकिन काम करते समय लगभग 2,000 कैलोरी जलाता है। इससे समय के साथ उनके जीवन की गुणवत्ता कम हो जाती है। बॉयलर में काम करने वाली सभी महिलाएं [और श्रमिकों के बच्चे] गंभीर रूप से कुपोषित हैं। इसकी पूरी संभावना है कि कुछ श्रमिकों को न्यूमोकोनियोसिस या ‘ब्लैक लंग डिजीज’ हो गया है, जो लंबे समय तक सांस के माध्यम से कोयले की धूल के लगातार फेफड़ों के अंदर जाने के कारण होता है।
बॉयलर ऑपरेशन नियम, 2021 की धारा 4 में कहा गया है कि बॉयलर ऑपरेशन इंजीनियर को या तो सीधे बॉयलर ऑपरेशन का प्रभारी होना होगा या एक अटेंडेट नियुक्त करना होगा। इसके अलावा, इस नियम की धारा 7 के अनुसार इस व्यक्ति को बॉयलर के 100 मीटर के दायरे में उपस्थित रहने का भी निर्देश है। अहमदाबाद में कारखानों में कार्यरत प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों और पात्रताओं पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन कारखाना श्रमिक सुरक्षा संघ (केएसएसएस) ने 25 उद्यमों के साथ एक सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि ऑपरेटिंग बॉयलर वाले उद्यम इन नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। इसमें यह भी बताया गया कि अधिकांश फैक्ट्रियों में वेतन, सामाजिक सुरक्षा, ओवरटाइम और निर्धारित काम के घंटों से जुड़े नियमों का उल्लंघन होता है। श्रमिकों को मास्क, दस्ताने या जूते आदि जैसे सुरक्षा के साधन मुहैया नहीं करवाए जाते हैं। इसके अलावा, ना तो ऐसे किसी अधिकारी की नियुक्ति की जाती है और ना ही ऐसी कोई समिति बनाई जाती है जो काम वाली जगह पर किसी भी प्रकार की आपात स्थिति को रोक सके या उससे निपट सके। साथ ही, महिलाओं के लिए अलग शौचालय और बच्चों के लिए डे-केयर की सुविधा भी नहीं है। केएसएसएस अब श्रमिकों के अधिकारों और पात्रताओं से जुड़े प्रशिक्षण और कानूनी साक्षरता प्रदान करता है, मालिकों और ठेकेदारों के बीच औद्योगिक विवाद की मध्यस्थता कर उनका समर्थन करता है, और राज्य और स्थानीय सरकारों के अंदर आने वाले विभिन्न विभागों के साथ मिलकर इन्हें मदद पहुंचाता है।
केएसएसएस के सदस्य, कारखाना श्रमिकों का एक मिश्रित समूह हैं, जिनमें बॉयलर, रंगाई, छपाई, धुलाई, सिलाई और पैकेजिंग के साथ-साथ छोटे ठेकेदार भी शामिल हैं। ऐसे छोटे ठेकेदार जो यूनियन के सदस्य हैं, वे कारखाना श्रमिकों के संघर्ष को समझते हैं और उनके साथ सहानुभूति रखते हैं, और वे अहमदाबाद के अनौपचारिक प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों और पात्रताओं को सामने लाने के यूनियन के लक्ष्यों के साथ जुड़ते हैं।
श्रमिकों ने अब विभिन्न मुद्दों को औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य निदेशालय (डीआईएसएच), कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) के क्षेत्रीय निदेशक और गुजरात के बॉयलर निदेशालय के कार्यालय में उठाया है। वर्तमान में, डीआईएसएच ने वेतन उल्लंघन के लिए 11 उद्यमों को नोटिस जारी किया है। ईएसआईसी भी उन उद्यमों का निरीक्षण करने और दंडित करने पर सहमत हो गया है जो श्रमिकों को कर्मचारी राज्य बीमा कवर प्रदान नहीं करते हैं।
बॉयलर साइट पर काम करने वाले 37 वर्षीय छोटे ठेकेदार और केएसएसएस सदस्य मदनलाल* कहते हैं ‘जिस उद्यम में मैं काम करता हूं, उसे मिलाकर कई उद्यमों ने यूनियन द्वारा मांग पत्र सौंपे जाने के बाद बॉयलर का निरीक्षण किया। बाद में, श्रम विभाग ने एक उद्यम में सभी बॉयलर ऑपरेटरों की एक बैठक भी बुलाई थी और सुरक्षा प्रोटोकॉल पर एक सत्र आयोजित किया था। यह संघ की हिमायतों का ही परिणाम था।’
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिये गये हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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विकास सेक्टर में काम करने वाले कभी अपने काम के बारे में एक शब्द या एक लाइन में नहीं बता पाते हैं। लंबा और विस्तार से समझाने के बाद भी आसपास ऐसी ही लोग ज़्यादा दिखते हैं जिनको यह पता नहीं चलता कि वे करते क्या हैं। ऐसी ही कुछ दुविधाओं का ज़िक्र नीचे हैं, उम्मीद है कि इन उदाहरणों में से बहुत कम आपके हिस्से आए हों। (लेकिन ऐसा होगा नहीं, ये आपको भी पता है, है न!)
लखनऊ। सुबह के लगभग 8 बज रहे होंगे। शैलेंद्र अपने ट्रैक्टर पर हल्के हाथ से कपड़ा मारते हैं और सीट पर बैठकर चाबी लगा देते हैं। बगल वाली सीट पर अपने सहयोगी को बैठाते हैं और गाड़ी लेकर निकल जाते हैं। कभी इस समय वे अपने खेतों में होते थे।पिछले साल धान लगाया। शुरू में बारिश नहीं हुई। डीजल मशीन से सिंचाई करनी पड़ी। फसल पकी तो इतनी बारिश हुई कि आधी फसल पानी में डूब गई, जो बाद में सड़ गई। उससे पहले मेंथा में नुकसान हुआ था। इसके बाद पहली बार आधे खेत में मक्का लगाया। नुकसान तो नहीं हुआ। लेकिन फायदा भी नहीं हुआ। ऐसा कई साल से चल रहा। इसलिए मैंने अपने खेत का एक हिस्सा एक प्राइवेट कंपनी को दे दिया। अब खेत कम है तो काम भी कम है। ट्रैक्टर से अब दूसरे खेत जोतता हूं और पैसे मिलने पर दूसरे काम भी करता हूं।’
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 60 किलोमीटर दूर जिला बाराबंकी के तहसील फतेहपुर के टांडपुर में रहने वाल शैलेंद्र शुक्ला (46) खुश तो नहीं हैं। लेकिन उन्हें मजबूरी में खेत का एक बड़ा हिस्सा प्राइवेट कंपनी को देना पड़ा।
‘पिछले दो साल में खेती से बस नुकसान ही हुआ है। पिछले साल मार्च में हुई बारिश से पांच एकड़ में लगी आलू की फसल लगभग 20% तक खराब हो गई। दो से तीन रुपए प्रति किलो का भाव मिला। मार्च की बारिश की वजह से मेंथा की बुवाई पिछड़ गई। इसलिए पहली बार मक्का लगाया। शुरू में मक्के के पौधों में कीड़े लग गये। सही रेट की समस्या तो किसानों को पहले भी थी। लेकिन अब मौसम हमारा सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है।’ शैलेंद्र इन सबके लिए बदलते मौसम को कसूरवार ठहराते हैं।
भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार फरवरी 2023 में अधिकतम तापमान 29.66 डिग्री सेल्सियस (ºC), मिनिमम 16.37ºC और औसत तापमान 23.01ºC था जबकि 1981-2010 की अवधि के अनुसार ये तापमान क्रमश: 27.80 ºC, 15.49 ºC और 21.65 ºC था। विभाग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि पूरे भारत में फरवरी 2023 के दौरान औसत अधिकतम तापमान 1901 के बाद से सबसे अधिक 29.66 ºC रहा और इसने 29.48 ºC के पहले के उच्चतम रिकॉर्ड को तोड़ दिया जो फरवरी 2016 में था।
इंडियास्पेंड हिंदी, शैलेंद्र को पिछले एक साल से फॉलो कर रहा है। दरअसल हम देखना चाहते थे कि किसान बदलते मौसम से कितना प्रभावित हो रहे हैं। इस कड़ी में हमने कुछ ऐसे किसानों से भी बात की जिनसे हम खेती-किसानी के मुद्दों पर पहले भी बात कर चुके हैं। कई किसानों ने हमें बताया कि बदलते मौसम की वजह से उन्हें नुकसान तो उठाना ही पड़ रहा, फसली चक्र भी बदलना पड़ा है जिसकी वजह से हमारा नुकसान और बढ़ रहा।
‘पिछले कुछ वर्षों से खेती से कमाई बहुत अनिश्चित हो गई। निजी कंपनी हमें प्रति बीघा के हिसाब से 12 हजार रुपए सालाना देगी। हमने अपना 18 बीघा खेत कंपनी को दे दिया जो यहां पराली से बायो ईंधन बनाने का प्रोजेक्ट लगा रही है।’
शैलेंद्र इस बात से खुश हैं कि उनके पास हर हाल में एक निश्चित आय होगी। ‘मेरे पास अभी जो लगभग 20 बीघा खेत है, उसमें गेहूं लगाने की तैयारी कर रहा हूं। इस साल भी फसल पिछड़ चुकी है। जो बुवाई नवंबर के पहले सप्ताह में हो जानी चाहिए थी, वह दिसंबर के पहले सप्ताह तक नहीं हो पाई है क्योंकि अक्टूबर में बारिश की वजह से धान की कटाई पिछड़ गई। अब गेहूं फसल तो प्रभावित होगी ही, पिछली बार की तरह इस बार भी उत्पादन प्रभावित होगा।
‘मौसम में इतना उतार चढ़ाव हो रहा कि किसान परेशान हैं। जब पानी चाहिए तो बारिश होती नहीं। जब फसल कटने वाली होती है तो बारिश हो जाती है। इतना रिस्क शायद ही किसी और काम में हो।’ शैलेंद्र अपनी बात खत्म करते हुए कहते हैं।
वे यह भी कहते हैं कि वर्ष 2022 में भी अक्टूबर महीने में हुई बारिश के कारण धान की फसल तो बर्बाद हुई ही, गेहूं की बुवाई में भी देरी हुई। फिर फरवरी 2023 में ज्यादा तापमान की वजह से पैदावार प्रभावित हुई।
इंडियास्पेंड ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि कैसे फरवरी महीने का उच्च तापमान गेहूं सहित रबी की दूसरी फसलों की पैदावार प्रभावित हो सकती है।
लखनऊ से लगभग 250 किलोमीटर दूर भदोही में रहने वाले किसान पप्पू सिंह (55) पिछले साल की तरह इस साल भी परेशान हैं। पिछले सीजन में पैदावार लगभग 30% कम थी। वे कहते हैं पिछले साल तरह इस साल भी हो रहा।
‘पिछली बार गेहूं की बुवाई इसलिए पिछड़ गई थी क्योंकि देर से हुई बारिश की वजह से धान कटाई में देरी हुई। इस साल भी ऐसा ही हुआ है। अक्टूबर में बारिश हो गई। पिछले साल तो 25 नवंबर को बुवाई कर दी थी। इस साल बुवाई दो दिसंबर तक हो पाई है। अब ऐसे में अगर पिछले साल की तरह फरवरी में तापमान फिर बढ़ा तो पैदावार और कम हो सकती है क्योंकि उस समय बालियों में दाना लगना शुरू होता है।’
वे बताते हैं कि 2021 में प्रति एकड़ लगभग 26 क्विंटल गेहूं निकला था। 2022 में ये घटकर 22 क्विंटल हो गया था। उन्हें आशंका है कि इस साल पैदावार और घटेगी इसलिए उन्होंने इस साल गेहूं 50 बीघा की जगह 30 बीघे में ही गेहूं लगाया।
खरीफ सीजन 2022-23 में 2021-22 में गेहूं का रकबा बढ़कर 304.59 से बढ़कर 314 लाख हेक्टयेर तक पहुंच गया और उत्पादन कुल उत्पादन में भी बढ़ोतरी देखी गई। लेकिन प्रति हेक्टेयर उत्पादन 3,537 किलोग्राम से घटकर (2021-22 की अपेक्षा) 3,521 किलोग्राम पर आ गया।
धान उत्पादन के मामले में देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के किसानों पर वर्ष 2022 में दोहरी मार पड़ी थी।
पहले जब जरूरत थी, तब बारिश नहीं हुई। फसल पककर खड़ी हुई तो बारिश इतनी हुई कि खड़ी फसल बर्बाद हो गई। मई और जून का महीना धान की बुवाई के लिए सबसे सही समय माना जाता है। बुवाई के तीसरे सप्ताह से ही पानी की जरूरत पड़ने लगती है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार 1 जून से 24 अगस्त 2022 के बीच पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 294 मिलीमीटर बारिश हुई थी जो सामान्य से 41% कम थी। इसी दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश में 314.9 मिमी बारिश हुई थी जो सामान्य से 46% कम रही।
यह भारत के लिए अल नीनो वर्ष है जिसकी वजह से मौसम संबंधी घटनाक्रम होते हैं जो मानसून में भिन्नता का कारण बनती है। कहीं असामान्य रूप से बारिश होगी तो कहीं कम बारिश या सूखा। चक्रवात बिपरजॉय और अन्य मौसमी प्रभावों के बाद भी भारत में जून 2023 के अंत तक मानसून बारिश की 10% कमी रही। वहीं इस मानसून सत्र में पूरे देश में 6% बारिश कम हुई जो 2018 के बाद सबसे कम रही। हालांकि खरीफ सीजन में सबसे ज्यादा बोई जाने वाली फसल धान का रकबा बढ़ गया।
देश में गेहूं की बुवाई का रकबा 17 नवंबर, 2023 तक एक साल पहले की तुलना में 4.7 लाख हेक्टेयर यानी 5.5 फीसदी घटकर 86 लाख हेक्टेयर रह गया है। इस बीच केंद्र सरकार ने पिछले साल की तरह इस साल भी गेहूं निर्यात पर रोक लगा दी। क्योंकि केंद्रीय पूल में गेहूं भंडारण की स्थिति पिछले वर्ष की ही तरह इस साल भी कम है। नवंबर महीने तक भंडार में 219 लाख मीट्रिक टन गेहूं था। वर्ष 2022 में इस समय 210, 2021 में 420, 2020 में 419 और 2019 में 374 लाख मीट्रिक टन गेहूं का स्टॉक था।
वर्ष 2022 में 1 से 10 अक्टूबर के बीच 129 मिमी बारिश हुई थी जो सामान्य से 683 प्रतिशत अधिक थी। इसकी वजह से पिछले रबी सीजन में भी गेहूं की बुवाई प्रभावित हुई थी।
पिछले साल की तरह अक्टूबर 2023 में भी देश के कई हिस्सों में भारी बारिश हुई। ये वह समय था जब धान की फसल पक गई थी और कटने को तैयार थी। 17 अक्टूबर 2023 को उत्तर प्रदेश के 13 जिलों में भारी बारिश हुई जिसकी वजह से गेहूं बुवाई में देरी हो रही है।
उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर के कछवा में रहने वाले युवा किसान विवेक कुमार (30) का लगभग दो एकड़ में लगी धान की फसल अभी तक कट नहीं पाई है। वे बताते हैं, ‘इन खेतों में इस साल गेहूं लगाना मुश्किल लग रहा। अक्टूबर में हुई बारिश की वजह से खेतों से नमी जा ही नहीं पाई है। धूप बहुत कम हो रही। अब दिसंबर की शुरुआत में ही एक बार फिर बारिश हो रही है। इस साल गेहूं खरीदकर ही खाना पड़ेगा।’
‘इस साल मिर्च भी लगाया था जिसकी लागत बहुत ज्यादा आ गई। गर्मी की शुरुआत में बारिश नहीं हुई जिसकी वजह से खेत सूख गये। जिसकी वजह से पानी की खपत तीन से चार गुना बढ़ गई। डीजल महंगा होने की वजह से बुवाई की लागत बढ़ गई। खेती में हमारे हिस्से नुकसान ही आ रहा।’
मौसम विभाग ने चक्रवात मिगजॉम की वजह से देश के कई हिस्सों में दिसंबर 2023 के पहले सप्ताह में भारी और कई जगह हल्की बारिश की चेतावनी दी है। कई राज्यों में 3 और 4 दिसंबर को भारी बारिश हुई।
हरियाणा के करनाल स्थित भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान (IIWBR) के प्रधान कृषि वैज्ञानिक अनुज कुमार (Quality and Basic Science) बताते हैं कि किसान गेहूं की तीन किस्मों की खेती करते हैं। अगेती यानी समय से पहले, समय पर, और पछेती। हर किस्म का दाना पकने में अलग-अलग समय लेता है। सामान्य तौर पर 140-145 दिनों में फसल तैयार होती। 100 दिन की फसल में बाली आने लगती है।
’25 नवबंर से पहले बोई गई फसल मार्च के महीने में तैयार हो जाती है, जबकि 25 नवंबर के बाद बोई गई फसल अप्रैल तक पक जाती है। आखिरी के एक महीने में गेहूं की बालियों में दूध भरने लगता है। इस समय सही तापमान की जरूरत पड़ती है। ज्यादा तापमान के कारण बालियां जल्दी पक जाती हैं जिसकी वजह से दाने पतले हो जाते हैं। ऐसे में दानों की संख्या तो ठीक रहेगी। लेकिन वजन कम हो जायेगा।’ वे आगे बताते हैं।
भारतीय मौसम विभाग ने शीतकालीन मौसम दिसंबर 2023 से फरवरी 2024 तक के लिए मौसम पूर्वानुमान जारी कर दिया है जिसके बाद जानकार चिंतित हैं। विभाग के अनुसार इन महीनों के दौरान देश के ज्यादातर हिस्सों में न्यूनतम और अधिकतम तापमान सामान्य से ज्यादा रहेगा। ठंडी लहरों की संभावना सामान्य से कम रह सकती है। तो क्या ज्यादा तापमान से गेहूं की फसल प्रभावित होगी?
इस बारे में कृषि वैज्ञानिक अनुज कुमार का कहना है कि अभी कुछ भी भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगा।
‘ये बात बिल्कुल सही है कि ज्यादा तापमान से गेहूं की फसलों को नुकसान पहुंचता है। लेकिन यहां देखने वाली बात यह भी कि अगर ज्यादा तापमान एक सप्ताह से ज्यादा तक रहता है तो नुकसान हो सकता है। गेहूं की पैदावार पर असर पड़ सकता है। लेकिन दिन-रात का तापमान देखना होगा। हम कई वर्षों से बदलते मौसम को देख रहे हैं। ऐसे में हम काफी समय से ऐसी किस्मों पर जोर दे रहे हैं कि जो ऐसे प्रतिकूल मौसम से लड़ने में सक्षम है। देश के बहुत हिस्सों में ऐसी ही किस्म लगाई जा रही।’
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. दीपल राय कहते हैं कि ‘अगर तापमान बढ़ता है तो फसलों पर इसका प्रतिकूल असर तो पड़ेगा ही, लागत भी बढ़ेगी। गेहूं के लिए 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान सही माना जाता है। लेकिन हमने पिछले सीजन में इससे ज्यादा तापमान देखा था और गेहूं की पैदावार पर इसका असर भी पड़ा।’
‘अगर इस सत्र में भी ऐसा होता है तो इस बार नुकसान ज्यादा होगा क्योंकि अक्टूबर की बारिश के बाद गेहूं की बुवाई में देरी हो चुकी है। ऐसे में जब गेहूं में दाना आने का समय फरवरी का आखिरी या मार्च का पहला सप्ताह होगा और तब अगर पूर्वानुमान के हिसाब से तापमान बढ़ा तो इस बार पैदावार प्रभावित हो सकती है।’ दीपल चिंता व्यक्त करते हैं।
‘इस साल और देख रहा। अगले साल खेत अधिया (बंटाई) पर देकर कहीं बाहर कमाने चला जाऊंगा। महंगाई के इस दौर पर दिन-रात मेहनत करने के बाद कुछ बचे भी ना तो परिवार कैसे चलेगा।’ विवेक खेती में लगातार हो रहे नुकसान से निराश हैं।
यह आलेख मूलरूप से इंडियास्पेंड हिंदी पर प्रकाशित हुआ है जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
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विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
विकास सेक्टर से जुड़े साथियों ने कैपेसिटी बिल्डिंग या क्षमता निर्माण शब्द ज़रूर कहीं न कहीं सुना होगा। यहां तक कि आपकी संस्था ने इसको लेकर कई कार्यक्रम भी आयोजित करवाये होंगे। आज हम इसी शब्द पर बात करने जा रहे हैं।
विकास सेक्टर से जुड़े कई लोग इस शब्द का मतलब ट्रेनिंग समझते हैं। लेकिन ट्रेनिंग, कैपेसिटी बिल्डिंग का एक तरीका भर है। और, कैपेसिटी बिल्डिंग ज़रूरी है ताकि आप तेज़ी से बदलते दौर के साथ न केवल बने रह पाएं, बल्कि समय के साथ तरक्की भी कर सकें।
अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।
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शिक्षा से लेकर संगठनात्मक व्यवहार तक, विभिन्न सेक्टरों में काल्पनिक अवधारणों को समझने के लिए साइकोमेट्रिक साधनों (टूल्स) को बहुत तेजी से उपयोग में लाया जाने लगा है। ये ऐसे उपकरण या मूल्यांकन प्रणाली होते हैं जिन्हें किसी व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक खूबियों, क्षमताओं, रवैये और विशेषताओं को मापने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इनका उपयोग मानव व्यवहार और अनुभूति के विभिन्न पहलुओं को मापने और उनके मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है।
ये साधन शक्तिशाली होने के बावजूद, पारंपरिक अनुभव से किए जाने वाले विश्लेषण की सीमा को बढ़ाते हुए अक्सर जटिल एवं भ्रांति पैदा करने वाले परिणाम देते हैं। इनकी ताकत अमूर्त या काल्पनिक विचारों और वास्तविक मेट्रिक्स के बीच अंतर को कम करने की क्षमता में निहित होती है, जो आंकड़ों में हल खोजने वाले लोगों के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण समझ को महत्व देने वाले लोगों को भी पसंद आती है।समाजसेवी संस्थाएं अक्सर ही इन साधनों का उपयोग शिक्षा, जीवन कौशल, आजीविका और स्वास्थ्य जैसे विभिन्न सेक्टर में कार्यक्रमों के प्रभाव को मापने के लिए करते हैं। साथ ही, इसका उपयोग जरूरतों की पहचान करने, पाठ्यक्रम गतिविधियों की योजना बनाने, ग्राहक से जुड़ी जानकारियों की निगरानी (क्लाइंट प्रोग्रेस मॉनिटरिंग) करने और संगठनात्मक संस्कृति का मूल्यांकन करने जैसे कामों में भी होता है।
हमारे संगठन उद्यम लर्निंग फाउंडेशन में हम सीखने वालों की मानसिकता और दृष्टिकोण में बदलाव का पता लगाने के लिए इन साइकोमेट्रिक परीक्षणों का इस्तेमाल करते हैं। एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि: क्या ये परिणाम लगातार विश्वसनीय और सटीक बने रहते हैं?
अपनी समझ को गहरा करने, दृष्टिकोण को बेहतर बनाने और परीक्षण के परिणाम में सुधार लाने के लिए हमने अनुभवी विशेषज्ञों के साथ साझेदारी की और एक गहन अध्ययन शुरू किया। हम ने इन परीक्षणों के क्रियान्वयन के समय पैदा होने वाली सामान्य बाधाओं की एक सूची बनाई जिन्हें अनदेखा करने पर परिणाम और निर्णय की दिशा दोनों बदल सकती है।
विश्वसनीयता महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुसंगत और भरोसेमंद स्कोर सुनिश्चित करती है। इसके बिना, किसी भी परीक्षण से ऐसे अनियमित परिणाम प्राप्त होंगे जिनसे किसी भी तरह का सार्थक निष्कर्ष निकालना मुश्किल हो जाएगा। साइकोमेट्रिक परीक्षणों में विश्वसनीयता की कमी चिंता का विषय है। 2010 के अध्ययन में यह पाया गया कि 16पीएफ (पर्सनैलिटी फैक्टर), जो कि एक सामान्य व्यक्तित्व साइकोमेट्रिक परीक्षण है, की वैधता विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग है। हालांकि कि पश्चिमी देशों में इस परीक्षण की वैधता का स्तर अच्छा था लेकिन ग़ैर-पश्चिमी संस्कृतियों में यह कम मान्य थी।
वैधता भी सामान्य रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि परीक्षण ने उन्हीं कारकों की जांच की है जिसके लिए इसे किया गया था। जब हम बिना किसी ठोस अनुभव के अपने टूल का निर्माण करते हैं तो ऐसी स्थिति में हम कौशल, व्यवहार या ज्ञान के सही मूल्यांकन को सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं जो हमारा लक्ष्य है। इससे परिणामों की विश्वसनीयता और उपयोगिता कम हो जाती है।
उद्यम में, हमने हाल ही में मानक ग्रिट स्केल की वैधता की जांच की जिसका उपयोग हमने अपने पहले के कामों में किया था। यह स्केल किसी व्यक्ति के दीर्घकालिक लक्ष्यों के प्रति जुनून और दृढ़ता को मापता है। इस परीक्षण से, हमने पाया कि पैमाने की विश्वसनीयता और कन्वर्जेंट वैलिडिटी खराब थी।इसके अलावा, जिस सैंपल पर हमने इसका उपयोग किया था, उसके लिए इसमें पर्याप्त साइकोमेट्रिक गुण प्रदर्शित नहीं हुए। इस प्रकार हमें इसके आगे के स्तर का विश्लेषण करने की प्रेरणा मिली ताकि हम यह पता लगा सकें कि क्या कुछ चीजों या प्रश्नों को हमारे डेटा सेट के अनुसार और अधिक संरेखित करने के लिए समायोजित करने की ज़रूरत है।
इसने पहले से ही उपकरणों की विश्वसनीयता और वैधता का परीक्षण करने के महत्व को सुदृढ़ किया। एक ही व्यक्ति के साथ विभिन्न मौक़ों पर किए गये परीक्षणों के स्कोर समान होने चाहिए, और स्कोर को लक्षित ज्ञान या कौशल से संबंधित भी होना चाहिए।
संगठन अपने ख़ुद के साइकोमेट्रिक जैसे टूल विकसित करने का प्रयास कर सकते हैं। इससे उन्हें मूल्यांकन फॉर्म के लंबे होने या फिर लक्षित कार्यक्रम के लिए ग़ैर-जरूरी हिस्सों को हटाने जैसी चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ने में आसानी हो सकती है। उदाहरण के लिए, कई बार संगठन किसी एक पैमाने या स्केल को बनाने के लिए विभिन्न साइकोमेट्रिक स्केल्स और उनके संबंधित प्रश्नों को मिलाकर उपयोग में लाने का चुनाव करते हैं। ऐसा करने के पीछे उनका यह मानना होता है कि यह प्रक्रिया उनके कार्यक्रम के मुख्य पहलुओं पर केंद्रित होने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करेगा कि प्रश्नावली इतनी छोटी हो कि उन्हें करने में कम समय लगे। लेकिन सघन प्रक्रियाओं का पालन किए बिना ऐसे टूल को विकसित करने से विश्वसनीयता और वैधता से संबंधित समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
इसके अलावा, परीक्षा तैयार करने में विशेषज्ञता के बिना साइकोमेट्रिक जैसे उपकरण बनाने से अनपेक्षित पूर्वाग्रह या ग़लत पैमाने उत्पन्न हो सकते हैं। साइकोमेट्रिक्स में पेशेवरों के पास निष्पक्ष और सटीक मूल्यांकन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल होता है। इस विशेषज्ञता के बिना उपकरण विकसित करने से पक्षपातपूर्ण मूल्यांकन या भेदभावपूर्ण व्यवहार की समस्या उत्पन्न हो सकती है। उदाहरण के लिए, महिलाओं या विशिष्ट नस्लीय समूहों के प्रति पूर्वाग्रह प्रदर्शित करने वाले टूल के प्रमाण उपलब्ध हैं, जिसका मुख्य कारण शुरुआती सैंपल में इन जनसांख्यिकी की अनुपस्थिति है।
साइकोमेट्रिक परीक्षणों को विकसित करने और उन्हें मान्य बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में समय, प्रयास और संसाधनों की ज़रूरत होती है।
विशेषज्ञों द्वारा पहले से विकसित एक स्थापित और मान्य परीक्षण पर निर्भर रहने से समय की बचत हो सकती है।
हालांकि, साइकोमेट्रिक परीक्षणों को विकसित करने और उन्हें मान्य बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में समय, प्रयास और संसाधनों की ज़रूरत होती है। मूल्यांकन को विकास, पायलट परीक्षण, डेटा संग्रहण, विश्लेषण और शोध सहित कई चरणों से गुजरना होता है। संभव है कि संगठन के पास इस व्यापक प्रक्रिया को शुरू करने के लिए ज़रूरी विशेषज्ञता या संसाधन उपलब्ध ना हों। ऐसे मामलों में, विशेषज्ञों द्वारा पहले से विकसित एक स्थापित और मान्य परीक्षण पर निर्भर रहने से समय की बचत हो सकती है और गुणवत्ता मूल्यांकन को भी सुनिश्चित किया जा सकता है। यदि संगठन अपने टूल का निर्माण करना चाहते हैं तो ऐसी स्थिति में उनके लिए टूल के विकास के लिए विश्वसनीयता और मान्यता परीक्षण के साथ ही बेस्ट प्रैक्टिस का अनुपालन करना उचित होगा। वैकल्पिक रूप से, प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए संगठन, ऐसे उपकरणों के मूल रचनाकारों या लेखकों से सहायता ले सकते हैं। टूल समस्या-समाधान के दौरान विशेषज्ञों के साथ सहयोग करने और व्यापक समुदाय तक पहुंचने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता है।
कई साइकोमेट्रिक परीक्षण पश्चिमी देशों में विकसित किए गए हैं और दुनिया के अन्य हिस्सों में उपयोग के लिए सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त नहीं भी हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये परीक्षण उन मूल्यों और मानदंडों पर आधारित हो सकते हैं जो उस विशेष संस्कृति का हिस्सा नहीं हो सकते हैं; यह बात भारत पर भी लागू होती है।
शिक्षा और साक्षरता भी विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के स्कोर को महत्वपूर्ण तरीक़े से प्रभावित करती है, जैसे कि कुछ स्वदेशी आबादी की वर्किंग मेमोरी और विज़ुअल प्रोसेसिंग का आकलन करना।
इसलिए, भारत के लिए साइकोमेट्रिक परीक्षणों का चयन करते समय, केवल उन्हीं को चुनना महत्वपूर्ण है जिन्हें सांस्कृतिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उपयोग के लिए मान्य किया गया है। ऐसे कई परीक्षण हैं जिन्हें विशेष रूप से भारत में उपयोग के लिए विकसित किया गया है। उदाहरण के लिए, निम्हांस न्यूरोसाइकोलॉजिकल बैटरी, पी रामलिंगास्वामी द्वारा इंडियन एडेप्टेशन ऑफ वेक्स्लर एडल्ट परफॉर्मेंस इंटेलिजेंस स्केल (डब्ल्यूएपीआईएस – पीआर) का भारतीय अनुकूलन, और ऐसे ही अन्य।
संगठन द्वारा उपयोग किए जाने वाले साइकोमेट्रिक परीक्षण उनके कार्यक्रम के लक्ष्यों के अनुरूप होना महत्वपूर्ण है। यदि परीक्षण उन विशिष्ट लक्षणों, कौशलों या ज्ञान को नहीं मापते हैं जिन्हें विकसित करने के लिए कार्यक्रम डिज़ाइन किया गया है, तो परीक्षणों से सार्थक परिणाम प्राप्त नहीं होंगे। गलत परीक्षणों का उपयोग करने से गलत निदान होने की संभावना है, जिसके गंभीर परिणाम होते हैं जैसे कलंक या सहायता के अवसर चूक जाना।
यह सुनिश्चित करते हुए कि एकत्र किया गया डेटा सटीक और निष्पक्ष दोनों है, व्यक्तियों के संज्ञानात्मक विकास से मेल खाने वाले उपकरणों का उपयोग करना अनिवार्य है।
उदाहरण के लिए, हमने आत्म-जागरूकता, धैर्य और आत्म-प्रभावकारिता सहित मानसिकता का मूल्यांकन करने के लिए साइकोमेट्रिक उपकरण अपनाए हैं। यदि 14 से 18 वर्ष की आयु वर्ग वाले शिक्षार्थियों को दिया जाने वाला उद्यमिता का हमारा पाठ्यक्रम सीधे तौर पर इन विशिष्ट लक्षणों की वृद्धि के बारे में बात नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में यह अंतर हमारे पाठ्य सामग्री के साथ साइकोमेट्रिक मूल्यांकन के परिणामों को संरेखित करना चुनौतीपूर्ण बना देगा। नतीजतन, हमारे पाठ्यक्रम में हस्तक्षेप को परिष्कृत और बेहतर बनाने के लिए एक फीडबैक तंत्र स्थापित करने में बाधा उत्पन्न होगी। साइकोमेट्रिक परीक्षणों से सटीक आंकड़े प्राप्त करने के लिए यह ज़रूरी है कि कार्यक्रम के पाठ्यक्रम को किए जाने वाले कार्यक्रम और सीखने के लक्ष्यों के अनुरूप तैयार किया गया हो।
लोगों के संज्ञानात्मक विकास से मेल खाने वाले उपकरणों का उपयोग अनिवार्य होता है।
किसी वर्ग का साइकोमेट्रिक मूल्यांकन करने के लिए आयु उपयुक्त होना और साक्षरता स्तरों के सावधानीपूर्वक मूल्यांकन की आवश्यकता होती है। यह सुनिश्चित करते हुए कि एकत्र किया गया डेटा सटीक और निष्पक्ष दोनों है, लोगों के संज्ञानात्मक विकास से मेल खाने वाले उपकरणों का उपयोग अनिवार्य होता है। इसके अलावा, स्पष्ट संचार को बढ़ावा देने और मूल्यांकन प्रक्रिया में संभावित पूर्वाग्रह या निराशा को रोकने के लिए विविध साक्षरता स्तरों को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है। ये विचार लोगों की क्षमताओं और विशेषताओं के मूल्यांकन में नैतिक मानकों को बनाये रखते हैं।
भाषा और सांस्कृतिक बारीकियां साइकोमेट्रिक मूल्यांकन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कुछ शब्दों या अवधारणाओं के अर्थ विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में भिन्न हो सकते हैं। इन बारीकियों पर विचार किए बिना अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में वस्तुओं या निर्देशों का सीधा अनुवाद गलतफहमी या गलत व्याख्या का कारण बन सकता है, जिससे मूल्यांकन परिणामों की सटीकता और वैधता प्रभावित हो सकती है।
उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी में पूछा गया प्रश्न ‘सेल्फ-एस्टीम’ के बारे में है तो, हिन्दी में इसके शाब्दिक अनुवाद के लिए ‘आत्म-मूल्य’ या ‘आत्म-सम्मान’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। हालांकि इन शब्दों के अर्थ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं लेकिन ये शब्द सही अर्थों में ‘सेल्फ-एस्टीम’ को संदर्भित नहीं करते हैं, जिससे भाषा की मूल बारीकियों को नुकसान पहुंचता है और संभावित रूप से नए सांस्कृतिक संदर्भ में उपकरण की वैधता प्रभावित होती है।
साइकोमेट्रिक टूल के लिए अनुवाद प्रक्रिया कठोर और व्यवस्थित होनी चाहिए ताकि टूल के अनुवादित संस्करण की वैधता और विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सके। इसमें लक्ष्य भाषा में विश्वसनीय मूल्यांकन पद्धति बनाने के लिए वैचारिक तुल्यता, भाषाई सत्यापन, सांस्कृतिक अनुकूलन, पुनरानुवाद (बैक ट्रांसलेशन) और सत्यापन अध्ययन की गारंटी देना शामिल है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के थाना गांव की हालत भी भारत के कई ग्रामीण समुदायों की तरह दयनीय ही थी: सीमित मात्रा में होने वाली वर्षा और क्षेत्र की गर्म एवं शुष्क जलवायु परिस्थितियों के कारण इलाक़े के लोग अपने मवेशियों के लिए पर्याप्त मात्रा में चारे का इंतज़ाम कर पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। इसके अलावा, चारागाह (सार्वजनिक भूमि) की अव्यस्वथा और अतिक्रमण के कारण यह समस्या लंबे समय तक दूर होती दिख नहीं रही थी। इस परिस्थिति के कारण उनके पास दो ही विकल्प बचते थे। पहला यह कि वे दूर-दराज के इलाक़ों से चारा आयात करें जो कि न केवल बहुत महंगा होता बल्कि सभी के लिए ऐसा कर पाना संभव भी नहीं था। और, दूसरा यह कि वे अपने मवेशियों को खुला छोड़ दें। पहले जब परिवहन एक चुनौती थी, ग्रामीणों के पास अपने मवेशियों के साथ लगभग 400 किमी दूर मध्य प्रदेश के मालवा तक पैदल चलने और उन्हें चरने के लिए वहां छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हालांकि, 2006 में इस समस्या को समझने वाले और इसे अपने ग्रामीणों तक पहुंचाने वाले गांव के कुछ लोगों ने सामूहिक रूप से कार्रवाई की। अतिक्रमण करने वालों से अपने चरागाह को संरक्षित करने और उसे अपने मवेशियों के लिए खाद्य स्रोत के रूप में परिवर्तित करने के लिए वे समुदाय के रूप में एकजुट हुए।
यह फ़ोटो निबंध समुदाय के सदस्यों की संरक्षण यात्रा को दर्शाने के साथ ही इस मॉडल को विकसित करने और बनाए रखने के दौरान उनके सामने आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालता है। यह पशुओं और पर्यावरण दोनों के प्रति समुदाय की अटूट प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है क्योंकि वे अपनी सार्वजनिक भूमि के संरक्षण के लिए संघर्षरत हैं।
थाना गांव में लगभग 1,200 पशु हैं जिनमें मवेशी, भेड़ और बकरियां शामिल हैं। यहां रहने वाले अधिकांश लोगों की आजीविका का प्राथमिक स्रोत चारे की खेती करना है। इलाके में अक्सर ही सूखा पड़ता है और चारे की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करना, खासकर सर्दियों के अंत से लेकर गर्मियों के मध्य तक, एक बड़ी चुनौती है। इसी इलाके में रहने वाले श्याम गुज्जर कहते हैं कि ‘2022 में पड़े सूखे के दौरान भूख से कई जानवरों की मौत हो गई। ख़ासकर छोड़ दिये गये ऐसे जानवर जिन्होंने भूख के कारण प्लास्टिक खाना शुरू कर दिया था।’ श्याम के दोस्त कालू का कहना है कि ‘हमें आवारा पशुओं से सहानुभूति है लेकिन हमें अपने मवेशियों को ही खिलाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।’
इस दौरान, केवल जीवित रखने के लिए एक जानवर को खिलाने का खर्च 10,000 रुपये तक जा सकता है और उनके विकास के लिए इससे भी अधिक निवेश की ज़रूरत होती है। श्याम ने विस्तार में बताया कि, ‘इन महीनों में, गेहूं के चारे की कीमत 20 रुपये प्रति किलोग्राम या 600 रुपये प्रति 40 किलोग्राम तक चली जाती है। केवल एक पशु के ज़िंदा रहने के लिए कम से कम 600 से 700 किलोग्राम और उसके समुचित विकास के लिए 4,000 किलोग्राम चारे की ज़रूरत पड़ती है।’
समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से मज़बूत सदस्यों द्वारा सार्वजनिक भूमि के अतिक्रमण से छोटी जोत वाले किसानों की समस्या बढ़ जाती है। उन्हें मजबूर किया जाता है कि वे अपनी कमाई का एक हिस्सा चारा खरीदने में लगाएं। वहीं, यदि उनके जानवरों को स्वतंत्र रूप से चरने के लिए पर्याप्त ज़मीन मिल जाए तो यह एक ऐसा खर्च है जिससे वे बच सकते हैं।
सार्वजनिक भूमि के बिना समुदाय की भावना में भी कमी आ जाती है।
सार्वजनिक भूमि के बिना समुदाय की भावना में भी कमी आ जाती है। श्याम कहते हैं कि, ‘सामुदायिक स्वामित्व, व्यक्तिगत स्वामित्व से अलग होता है। एक व्यक्ति अपनी ज़मीन के चारों तरफ़ एक छह फुट ऊंची दीवार खड़ी कर सकता है और इस बात का भी फ़ैसला कर सकता है कि उसके भीतर कौन जा सकता है और कौन नहीं। लेकिन सार्वजनिक भूमि के मामले में, अमीर से अमीर और ग़रीब से ग़रीब दोनों ही तरह के व्यक्ति का उस पर समान अधिकार होता है। वे यह तय कर सकते हैं कि उन्हें इस ज़मीन का उपयोग किस प्रकार करना है; अमीर इसका उपयोग आराम और सुविधा के लिए कर सकते हैं, जबकि कम भाग्यशाली लोग इसके माध्यम से अपनी आजीविका कमा सकते हैं।’
साल 2006 में, श्याम के पिता बाबूलाल गुज्जर ने साझी ज़मीन पर हो रहे अतिक्रमण के विरोध में गांव के लोगों को एकजुट करने का नेतृत्व संभाला था। ग्रामीणों ने खाद्य सुरक्षा के लिए इन संसाधनों की सुरक्षा और सुधार के महत्वपूर्ण महत्व को पहचाना और पूरे दिल से इस पहल का समर्थन किया। उस साल, एक अनौपचारिक समिति का गठन किया गया, जिसने इन भूमियों के विकास के लिए स्थानीय अधिकारियों के साथ मिलकर सहयोग किया। निष्पक्ष निर्णय प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए, थाना गांव के लोगों ने एक संरचित प्रणाली की स्थापना की। वे प्रत्येक महीने की पांच और बीस तारीख को बैठकें आयोजित करते हैं। इन बैठकों में चराई के समय की अनुमति, गांव के लोगों के लिए चराई शुल्क और अतिक्रमण हटाने और नये अतिक्रमणों की पहचान से जुड़ी जानकारियों को साझा करने से जैसे महत्वपूर्ण मामलों पर निर्णय लिये जाते हैं।
हालांकि इसकी स्थापना अनौपचारिक थी, लेकिन समिति को आधिकारिक तौर पर मार्च 2021 में राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1996 के तहत चारागाह विकास समिति के रूप में पंजीकृत किया गया था। इस प्रकार स्थानीय संसाधनों, धन इकट्ठा करने और समुदाय के जीवन स्तर में सुधार लाने के उद्देश्य के साथ शुरू की गई इस समिति को विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए सरकारी समर्थन प्राप्त करने का क़ानूनी अधिकार प्राप्त हुआ। इस अधिनियम के तहत, समिति को इन भूमियों के प्रबंधन, सभी निवासियों के लिए समान पहुंच सुनिश्चित करने और भूमि उपयोग एवं पर्यावरण संरक्षण से संबंधित नियमों को लागू करने से जुड़े सभी निर्णय लेने के लिए कानूनी अधिकार प्राप्त हैं।
थाना गांव में लगभग 2,000 बीघा सार्वजनिक भूमि है, और एक ऐसा समय था जब लगभग यह पूरी कि पूरी ज़मीन अतिक्रमण का शिकार हो चुकी थी। चारागाह विकास समिति के निरंतर प्रयास से इस ज़मीन के 10 फीसद (200 बीघा) हिस्से पर से अतिक्रमण को सफलतापूर्वक हटा लिया गया है।
कालू का कहना है कि ‘इस भूमि पर वापस अपना दावा हासिल करना बहुत अधिक चुनौतीपूर्ण काम है क्योंकि अतिक्रमण करने वाले अक्सर ही साथी-संगी या फिर आसपास के, गांव के ही लोग होते हैं। हम पहले बातचीत से ज़मीन को हासिल करने का प्रयास करते हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब हमें अपने संसाधनों का निवेश करना पड़ता है और यहां से 100 किमी दूर जाकर भीलवाड़ा में दोषियों के ख़िलाफ़ औपचारिक शिकायत दर्ज करनी पड़ती है।’
अतिक्रमण के तरीक़े अलग-अलग होते हैं। जहां कुछ लोग अपनी निजी संपत्ति की सीमा को धीरे-धीरे बढ़ाकर सार्वजनिक भूमि में मिला देते हैं, वहीं कुछ अपने मवेशियों के सार्वजनिक भूमि तक जाने के लिए पगडंडी बना लेते हैं। लोगों ने तो इस भूमि पर मठ और मंदिर का बनाने का भी प्रयास किया है। ऐसा ही एक उदाहरण है जिसमें एक बाबा (धार्मिक गुरु) को आमंत्रित करके इस भूमि में रहने के लिए कहा गया। इसके पीछे उन लोगों की सोच यह थी कि लोग उस बाबा के ख़िलाफ कुछ भी करने से डरेंगे और इस प्रकार भूमि पर अधिकार हासिल करने में वह मददगार साबित होगा।
समिति इन अतिक्रमणों से निपटने के लिए विभिन्न तरीके अपनाती है। उदाहरण के लिए, जब उनका सामना भूमि पर अतिक्रमणकारियों द्वारा बनाई गई पत्थर की चारदीवारी से होता है, तो समिति के सदस्य उस चारदीवारी को तोड़ देते हैं और अन्य सार्वजनिक दीवारें बनाने के लिए उन पत्थरों का पुनरुपयोग करते हैं। रैंप के निर्माण से जुड़े मामलों में, उसे हटाने के लिए बुलडोजर जैसी भारी मशीनरी को बुलाया जाता है। जब पड़ोसी गांव के एक निवासी ने एक पत्थर का मंदिर बनाया तो कालू ने मामले को अपने हाथों में ले लिया, और उन पत्थरों को उठाकर उन लोगों के घरों के पास पहुंचा दिया, जिन्होंने मंदिर स्थापित करने का प्रयास किया था।
वे बताते हैं कि अतिक्रमणकारी ऐसी रणनीति अपनाते हैं क्योंकि तीर्थस्थल धार्मिक महत्व रखते हैं, जिससे किसी के लिए भी दैवीय प्रतिशोध के डर से उन्हें हटाना असंभव हो जाता है। श्याम ने इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहा कि, ‘सार्वजनिक भूमि पर बाबा के बस जाने वाले मामले में हम लोगों ने माइक्रोफ़ोन और ड्रम की सहायता से घोषणाएं की और पूरे गांव के लोग को इकट्ठा किया। जब तक हम सभी एकत्रित हुए बाबा उस क्षेत्र को छोड़कर भाग चुका था।’
जहां अतिक्रमण को हटाना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है वहीं फिर से हासिल की गई भूमि का विकास भी उतना ही महत्वपूर्ण है ताकि इसे उत्पादक बनाने के साथ ही मवेशियों के लिए खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने में इसकी भूमिका तय की जा सके। हालांकि, इस संदर्भ में विकास का अर्थ केवल वित्तीय संसाधन का निवेश नहीं है। श्याम ने जोर देते हुए कहा कि ‘धन के अलावा, लोगों ने इस भूमि को विकसित करने के लिए अपनी मेहनत का भी योगदान दिया है। निजी परिवारों ने चारदीवारी के एक हिस्से के निर्माण आदि जैसी विशिष्ट ज़िम्मेदारियां भी अपने कंधों पर ली।’
आर्थिक योगदान और श्रम इनपुट के अलावा, संस्थागत समर्थन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और चारागाह विकास समिति इन प्रयासों को सुविधाजनक बनाती है। योजनाबद्ध भूमि विकास के लिए मनरेगा और मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन योजना जैसी सरकारी योजनाओं का कुशल उपयोग सुनिश्चित करने के लिए समिति ग्राम पंचायत, ब्लॉक और जिला विकास अधिकारियों के साथ सहयोग करती है। लंबे समय तक टिकने वाली चारदीवारी, तालाब, चेक डैम और आसपास की खाइयों (कंटोर ट्रेंचेज) के निर्माण सहित भूमि का अधिकांश विकास इन योजनाओं के समन्वित उपयोग के माध्यम से पूरा किया गया है।
श्याम ने बताया कि, ‘भूमि के विकास में असंख्य लोगों ने अपना योगदान दिया है। इसमें थाना गांव के लोगों के अलावा आसपास के गांवों के लोग भी शामिल हैं। कुछ लोग तो आठ किमी दूर से आकर इस भूमि में काम करते थे। हमारा अनुमान है कि एक करोड़ रुपये से अधिक लागत वाला काम पूरा हो चुका है जिससे कि स्थानीय समुदाय के लोग लाभान्वित हो रहे हैं। जहां प्रति व्यक्ति वित्तीय लाभ पर्याप्त नहीं हो सकता है, लेकिन यह किसी एक ठेकेदार के हाथों में जाने वाले पैसे की तुलना में कहीं अधिक न्यायसंगत है।’
चरागाह के उचित रखरखाव के लिए 2.5-3 लाख रुपये के अनुमानित वार्षिक बजट की आवश्यकता होती है।
धन जुटाने के लिए, समिति मानसून के मौसम के बाद काटी गई घास और फलों की नीलामी करती है, जिससे उन्हें लगभग 50,000 रुपये की कमाई होती है। इस पैसे से एक साल में कई महीनों के लिए एक सुरक्षा गार्ड को काम पार रखा जाता है जिसकी ज़िम्मेदारी यह सुनिश्चित करना होती है कि कोई भी आवारा पशु चारागाह में प्रवेश ना करे और साथ ही कोई भी व्यक्ति बिना अनुमति के अपने मवेशियों को चराने के लिए चारागाह में न ले जाए। इस गार्ड को प्रति माह 6,000 रुपये वेतन के रूप में दिये जाते हैं।
नीलामी के अलावा, समिति के पास नियमित आय के स्रोत की कमी है। श्याम का अनुमान है कि चारागाह के समुचित रखरखाव के लिए सालाना 2.5–3 लाख रुपये की ज़रूरत है। चारदीवारी की मरम्मत, पौधारोपण और पूरे साल सुबह-शाम दोनों समय के लिए सुरक्षा गार्ड को काम पर रखने के लिए इन पैसों की ज़रूरत है। कालू ने ज़ोर देते हुए कहा कि सरकार या परोपकारी संस्थाओं के समर्थन से इन प्रयासों में काफी मदद मिलेगी।
जब चरागाह के विकास से प्राप्त लाभों की बात आती है, तो इसकी दो अलग-अलग श्रेणियां होती हैं। सबसे पहले, मुख्य रूप से महत्वपूर्ण महीनों के दौरान विस्तारित चारे की आपूर्ति के रूप में मिलने वाला प्रत्यक्ष लाभ। इससे अधिक नहीं भी तो प्रति पशु लगभग 6,000 रुपये की पर्याप्त वार्षिक बचत होती है। दूसरा, मनरेगा के माध्यम से रोज़गार के अवसरों में वृद्धि हुई है, जिससे ना केवल आय बढ़ी है बल्कि पशुओं को पोषक चारा मिल रहा है और वे स्वस्थ हो रहे हैं। गांव में और उसके आसपास रहने वाले लोगों के लिए, पुनर्प्राप्त और दोबारा उपयोग में लाई जा रही यह भूमि शांति और आराम प्रदान करने वाली एक जगह बन गई है।
श्याम बताते हैं कि ‘कालू और मैं अक्सर ही यहां के शांत में माहौल में बैठने और चिड़ियों की चहचहाहट सुनने के लिए आते हैं।’ कालू ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा, ‘यह जगह इतनी पवित्र है कि यदि आप खाली पेट भी यहां आयेंगे तो आने के बाद अपनी भूख के बारे में भूल जाएंगे।’
भूमि के स्वामित्व और लगाव की यह गहरी भावना इस बात से उपजती है कि उनके श्रम का प्रतिफल स्वयं समुदाय के सदस्यों को ही मिलता है। इसके लाभार्थी केवल यहां रहने वाला मानव समुदाय ही नहीं है। गांव के घरेलू जानवरों के साथ वन्य जीव जैसे कि नीलगाय और पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां इस भूमि की प्रचुरता का आनंद उठाती हैं।
श्याम और कालू कहते हैं कि ‘हम इस भूमि पर विभिन्न प्रकार के फल और पेड़ लगाते हैं। इससे असंख्य वन्य जीव एवं पक्षी लाभान्वित होते हैं और उन्हें पौष्टिक आहार मिलता है और ये सब कुछ जैव विविधता के समग्र संरक्षण में योगदान देता है।’
इस प्रयास को और बढ़ाने के लिए चारागाह विकास समिति के प्रावधानों को मजबूत करना जरूरी है। कालू और श्याम कहते हैं कि, ‘नियमित आय का एक स्रोत हमारे द्वारा यहां विकसित की गई प्रणाली को सुदृढ़ करने में मदद कर सकता है। यदि सरकार वार्षिक बजट आवंटित कर सकती है [सार्वजनिक भूमि के रखरखाव के लिए], तो यह अधिक से अधिक पंचायतों को हमारी तरह समितियां स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करेगी – जिससे सामान्य रूप से अधिक लोगों, जानवरों और पर्यावरण की मदद होगी। यहां तक कि निजी संस्थान और समाजसेवी संस्थाएं भी विशिष्ट पहल के लिए धन की सहायता कर सकते हैं या संरक्षण ज्ञान साझा करके और हमारी समिति की कार्यक्षमता को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं।’
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