भारत में मातृत्व लाभ: पीएमएमवीवाई के अधूरे वादे

दस साल पहले राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सभी गर्भवती महिलाओं को प्रसूति (मातृत्व) लाभ का अधिकार दिया गया था। भले ही इसकी शुरुआत प्रति बच्चा मात्र 6,000 रुपये से हुई थी, लेकिन यह अधिनियम का सबसे क्रांतिकारी प्रावधान था। यह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि किसी भी गर्भवती महिला को गर्भावस्था और बच्चे के जन्म से जुड़ी आकस्मिक स्थितियों का सामना करने के लिए किसी ना किसी प्रकार के सामाजिक सहयोग की आवश्यकता हो सकती है। बहुत कम विकासशील देशों ने प्रसूति (मातृत्व) अधिकार के प्रति इस तरह के प्रगतिशील दृष्टिकोण को अपनाया है।

यदि इस अधिनियम को लागू किया गया होता और जीडीपी में हो रही वृद्धि के साथ इसके भी लाभ को बढ़ाया गया होता तो, भारतीय महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान लगभग 20,000 रुपये नक़द का लाभ मिलता, जैसा कि तमिलनाडु की गर्भवती महिलाओं को मिलता है। इससे उन्हें यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती कि इस कठिन समय में वे पर्याप्त पोषण, आराम और स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित न रहें।

इसकी बजाय, केंद्र सरकार ने इस अधिनियम के तहत मिले अपने दायित्वों से बचने का हर संभव प्रयास किया है। पूरे चार वर्षों तक (2013 से 2017), इस अधिनियम से जुड़ा एक भी कदम नहीं उठाया गया। आखिरकार 2017 में, प्रसूति (मातृत्व) लाभ के लिए प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (पीएमएमवीवाई) नाम से एक राष्ट्रीय योजना की शुरुआत की गई। हालांकि इस योजना के तहत, ‘पहले जीवित बच्चे’ के लिए मात्र 5,000 रुपये की धनराशि की सीमा रखी गई है जो तीन किश्तों में दिया जाता है। साल 2020 के शुरुआती दिनों में, कोविड- 19 के आने तक यह सीमित राशि भी दूर की कौड़ी थी।

इस दौरान, लाखों महिलाओं के लिए गर्भावस्था और प्रसव एक कष्टदायक अनुभव ही रहा है। साल 2019 में किए गए जच्चा-बच्चा सर्वे में उत्तर भारत के छह राज्यों में 700 ग्रामीण महिलाओं के साथ सर्वे किया गया। इस सर्वे में गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के अभाव और असुरक्षा के खतरनाक स्तर पर होने की बात सामने आई है। पिछले छह महीनों में बच्चे को जन्म देने वाली 364 महिलाओं में से एक चौथाई से भी कम महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान सामान्य से अधिक बार पौष्टिक भोजन मिला था। साथ ही, लगभग 40% महिलाओं ने उन दिनों में आराम की कमी की शिकायत की थी। गर्भावस्था के दौरान वजन बढ़ना अनुशंसित मानदंड से काफ़ी कम, मात्र औसतन 7 किलोग्राम था। यह स्थिति तब और भी अधिक चिंताजनक हो जाती है जब कई सारी महिलाएं शुरु से ही गंभीर रूप से कुपोषण की शिकार होती हैं। (देखें:  20 नवम्बर, 2021 की इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में ज्यां द्रेज, रीतिका खेड़ा और अनमोल सोमांची द्वारा लिखा लेख “प्रसूति (मातृत्व) अधिकार: महिलाओं के अधिकार पथभ्रमित हो गये हैं।”)

वर्तमान में पीएमएमवीवाई का प्रदर्शन कैसा है? इसके बारे में बता पाना आसान नहीं है क्योंकि पीएमएमवीवाई के पास किसी भी तरह का सार्वजनिक पोर्टल नहीं है जहां से जानकारियां इकट्ठा की जा सकें। इस संबंध में, यह भारत के सामाजिक कार्यक्रमों से अलग दिखता है, और सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के सक्रिय प्रकटीकरण मानदंडों का उल्लंघन करता है। हमें पीएमएमवीवाई के विकास से जुड़े सबसे मूल आंकड़ों के लिए भी आरटीआई के प्रश्नों का सहारा लेना पड़ा। जनवरी 2023 में (प्रश्नों को जमा किए जाने के चार महीने बाद), महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने अपनी सबसे नई प्रतिक्रिया में पीएमएमवीवाई के पिछले कुछ वर्षों के प्राप्तकर्ताओं की राज्य-वार और वर्ष-वार सूची को शामिल किया है।

इन आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2019 के अंत तक पीएमएमवीवाई के तहत जो भी सीमित प्रगति हुई थी, वह कोविड-19 संकट के दौरान काफी हद तक कोविड-19 [से] पहले की स्थिति में पहुंच गई थी। 2019-20 में 96  लाख महिलाओं को पीएमएमवीवाई के तहत मिलने वाले कुछ लाभ प्राप्त हुए थे, लेकिन इनकी संख्या 2020-21 में 75 लाख और 2021-22 में 61 लाख पर पहुंच गई – [यानी] दो वर्षों में लगभग 40% की गिरावट।

इसे परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, प्रति हजार 19.5 की जन्म दर (2020 के लिए सैंपल पंजीकरण प्रणाली अनुमान) और कुल जनसंख्या को 140 करोड़ मानने की स्थिति में, आज भारत में जन्म लेने वालों की वार्षिक संख्या लगभग 270 लाख होनी चाहिए। इनमें से बमुश्किल 23% जन्म 2021-22 में पीएमएमवीवाई के तहत कवर किए गए थे (चार्ट देखें)। यदि हम आशावादी होकर मान भी लेते हैं कि औपचारिक सेक्टर में जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या का अन्य 10% हिस्सा भी प्रसूति (मातृत्व) लाभ योजनाओं में शामिल है, फिर भी यह कुल जन्म के एक तिहाई से भी कम ही होगा।

प्रधान मंत्री मातृ वंदना योजना के अनुमानित कवरेज को मापने वाला एक ग्राफ_ प्रधान मंत्री मातृत्व वंदना योजना
स्रोत: दी इंडिया फोरम

पीएमएमवीवाई के ये आंकड़े उन माताओं की संख्या को दर्शाते हैं जिन्हें तीन में से कम से कम एक किस्त मिली है। यदि हम अपना दायरा बढ़ाते हैं और तीनों किस्त मिलने वाली महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं तब, इसके तहत आने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम हो जाती है। 2021-22 में, पीएमएमवीवाई की तीसरी किस्त प्राप्त करने वाली महिलाओं की संख्या केवल 35 लाख थी – जो वार्षिक जन्म-दर का लगभग 13% है। तालिका- 1 में राज्य-वार आंकड़े दर्शाये गये हैं। 2019-20 और 2021-22 के बीच, केरल और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश के सभी प्रमुख राज्यों में पीएमएमवीवाई कवरेज में गिरावट आई। पश्चिम बंगाल की स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यह योजना ठप पड़ चुकी है। ऐसा शायद ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना की तरह ही इस योजना का भी केंद्र-राज्य विवाद का शिकार हो जाने के कारण है? 2021-22 तक पीएमएमवीवाई अन्य कई अन्य राज्यों में भी लगभग ठप हो गई, जिसमें गुजरात जैसे कुछ “डबल इंजन” सरकार वाले राज्य भी शामिल थे। अधिकांश राज्यों में अधिकांश महिलाओं को तीसरी किस्त नहीं मिल पाई है।

भारत और प्रमुख राज्यों में पीएमएमवीवाई लाभ प्राप्त करने वाले सभी जन्मों के अनुमानित अनुपात को दर्शाने वाली एक तालिका_ प्रधान मंत्री मातृत्व वंदना योजना

हम अपने लक्ष्य को बदल कर अपना ध्यान पहले (बच्चे के) जन्म पर केंद्रित कर सकते हैं, जो पीएमएमवीवाई का आधिकारिक लक्ष्य है। जब प्रजनन दर प्रति महिला दो बच्चा है, और ज्यादातर महिलाएं कम से कम एक बच्चे को जन्म देती हैं, जैसा कि आज भारत की स्थिति है, उस स्थिति में पहले बच्चे का जन्म ही सभी बच्चों के जन्म का आधा हिस्सा होता है। इसलिए यदि हम सूचकांक में सभी बच्चों के जन्म के बदले पहले बच्चे का जन्म रखते हैं तो उस स्थिति में लाभ प्राप्तकर्ता का आंकड़ा लगभग दोगुना हो जाएगा (चार्ट देखें)। हालांकि, इस स्थिति में भी यह बहुत कम है और 2021-22 में ‘कम से कम एक किस्त प्राप्त महिलाओं’ की संख्या मात्र 46% और तीसरी किस्त प्राप्त महिलाओं की संख्या 26% ही है।

इस बात की कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती है कि 2022-23 में पीएमएमवीवाई कवरेज में तेज विस्तार होगा। दरअसल, सामर्थ्य पैकेज (जिसका पीएमएमवीवाई मुख्य घटक है) पर केंद्रीय व्यय 2021-22 की तुलना में 2022-23 में मुश्किल से 10% अधिक था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत प्रसूति (मातृत्व) लाभ के पूर्ण कार्यान्वयन के लिए प्रति वर्ष लगभग 14,000 करोड़ रुपये की अनुमानित आवश्यकता की तुलना में प्रति वर्ष बमुश्किल 2,000 करोड़ रुपये की राशि मिलती है जो कि ऊंट के मुंह में जीरा वाली बात है।

2020-21 और 2021-22 में पीएमएमवीवाई को लगा झटका, कोविड-19 संकट के कुप्रबंधन का संकेत है। पीएमएमवीवाई मात्र एक नकद हस्तांतरण योजना है, इसके इतने बुरी तरह बाधित होने का कोई भी कारण नहीं है। और निश्चित रूप से 2022-23 में भी इस व्यवधान का कुछ ख़ास कारण नजर नहीं आता है।

इस असफलता की जड़ें इस तथ्य में निहित हैं कि सार्वजनिक नीतियों और चुनावी राजनीति में गर्भवती महिलाओं का महत्व बहुत कम है। “प्रसूति (मातृत्व) लाभ को सार्वभौमिक बनाने के वास्तविक प्रयास से हलचल मच सकती थी।” इसके बदले, केंद्र सरकार ने एक ऐसी लचर योजना की शरण ली जो वास्तव में आगे नहीं बढ़ पाई। तीन मौक़ों पर, वित्त मंत्री ने प्रसूति (मातृत्व) लाभ पर होने वाले खर्च को बढ़ाने की 60 भारतीय अर्थशास्त्रियों की अपील को नजरअंदाज कर दिया। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने भी इस जड़ता को चुनौती देने के बहुत कम प्रयास किए हैं। इसका परिणाम यह है कि एक और दशक के लिए महिलाएं प्रसूति (मातृत्व) लाभ अधिकारों से वंचित रही हैं।

यह लेख मूल रूप से दी इंडिया फोरम पर प्रकाशित हुआ था।

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बच्चे प्रश्नपत्र हल करते हुए कुछ प्रश्नों को क्यों छोड़ देते हैं?

आमतौर पर यह माना जाता है कि बच्चों को सिखानाबताना और समयसमय पर इसकी परख करते रहना ही, शिक्षक की प्रमुख ज़िम्मेदारियां हैं। स्वाभाविक है कि यह परख, छमाहीवार्षिक परीक्षा या सतत शैक्षणिक मूल्यांकन के जरिए की जाती है। लेकिन क्या सिखाने और परखने के इस चक्र के बीच में भी कुछ आता है

अक्सर बच्चों का शैक्षणिक मूल्यांकन करते हुए हम देखते हैं कि किसी बच्चे को अमुक विषय में कितने नम्बर मिले, या वह सारे प्रश्नों के जवाब दे पाया या नहीं। हम यह भी देखते हैं कि वह सिखाई-बताई गई बातों को कितना याद रख पाया और जो लिखना सिखाया गया था, उसे किस हद तक सही-सही लिख पाया? कुछ मामलों में थोड़ा आगे बढ़कर हम यह देख लेते हैं कि वे कौन से प्रश्न थे जो बच्चे ने छोड़ दिए हैं या किन प्रश्नों की वजह से उसे कम नम्बर मिले हैं। लेकिन यह सब करते हुए हम अक्सर उन कारणों पर गौर नहीं करते हैं जिनकी वजह से कोई बच्चा प्रश्नों को छोड़ देता है, जैसे कि क्या प्रश्न छोड़ने की वजह उसके द्वारा पढ़ाई-लिखाई में की गई कमी है या उसकी समझ ही कम है? इससे जुड़ी दूसरी ज़रूरी बात जो आमतौर पर नहीं होती दिखती है, वह है इस विषय पर बच्चे से विस्तृत संवाद। इस संवाद की कितनी जरूरत है और क्या यह संवाद व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर किया जा सकता है? बच्चों के साथ काम करते हुए जब हमने इन बातों पर गौर किया तो एक अलग ही तस्वीर सामने आई और यही वह कड़ी है जो सिखाने और परखने के चक्र से ग़ायब दिखती है।  

राजस्थान के कई जिलों में काम करने वाली समाजसेवी संस्था सेवा मंदिर, हर साल स्कूल जाना छोड़ चुके (शालात्यागी) बच्चों के लिए आवासीय शिविरों का आयोजन करती है। इन शिविरों का आयोजन साल में तीन बार किया जाता है जिसमें 150 से 200 बच्चे शामिल होते हैं। इन शिविरों में बतौर शिक्षक जुड़ने के चलते, ऐसे कई मौके मिलते हैं जहां बच्चों के सीखने-सिखाने के आयामों को बहुत क़रीब से और बारीकी से देखा-समझा जा सकता है। ऐसे कुछ अनुभवों के यहां पर साझा करने की सबसे बड़ी वजह यही है कि हम बच्चों की शैक्षणिक प्रगति को उनकी परीक्षा में मिलने वाले नंबरों से अलग करके देख सकें।

कक्षा में शिक्षक_शिक्षा मनोविज्ञान
शिक्षक के लिए बच्चों के पूर्व ज्ञान, संदर्भ और वातावरण को समझना जरूरी है। | चित्र साभार: फ्लिकर

गलती होने का मतलब समझ की कमी होना नहीं है

शिविर के दौरान, बच्चों के सतत मूल्यांकन की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। हम क्रम से सभी विषयों (हिंदी, गणित, अंग्रेजी) के प्रश्नों पर बच्चों के साथ बात करते हैं। हर बच्चे के जवाब अनुसार संवाद को आगे बढ़ाते हैं। ऐसी ही एक गतिविधि के दौरान, एक शिक्षक ने बच्चों का मूल्यांकन करने के बाद उन्हें जांची हुई कापियां दे दीं और कहा कि अब वे खुद अपनी कापियां दुबारा जांचें और देखें कि उन्हें कितने नम्बर मिले हैं और क्यों? लगभग पौन घंटे तक 25 बच्चों ने अपनी उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन किया और साथ में बैठे दूसरे बच्चों की कापियों को भी देखा। बच्चों ने इस पर आपस में बात की और यह भी देखा उन्होंने जिन प्रश्नों को छोड़ दिया था, उनके कई साथियों ने भी उन्हें छोड़ दिया था। शिक्षक ने बच्चों से प्रश्न पहचानने, उसे समझने और हर प्रश्न पर थोड़े समय रुक कर देखने की बात की। उन्होंने पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो इस पर  बच्चों के जवाब कुछ इस तरह थे – ‘प्रश्नपत्र जल्दी पूरा करना था’ या ‘यह प्रश्न हम देख नहीं पाए’ या ‘घंटी लगने से पहले सारे प्रश्न करने थे नहीं तो छूट जाता’ और कुछ ने तो ‘भूख लगी थी’ जैसे कारण भी गिनाए। 

क्या प्रश्न छोड़ने की वजह उसके द्वारा पढ़ाई-लिखाई में की गई कमी है या उसकी समझ ही कम है?

इन प्रश्नों पर चर्चा के दौरान एक दिलचस्प बात देखने को मिली जिसे कुछ उदाहरणों से समझते हैं। जैसे हिंदी के प्रश्नपत्र में एक प्रश्न में पहाड़ का चित्र बना था जिसे देखकर आकृति का नाम लिखना था। सभी बच्चों ने इसके अलग-अलग जवाब लिखे थे। इन जवाबों में ‘पहाड़’ ‘पाहाड़’ ‘पाहड़’ ‘पहाड़े’ शामिल थे। इस क्रम में शिक्षक ने उन सभी बच्चों को बुलाया और उनके जवाबों कारण जानने की कोशिश की कि बच्चों ने वह शब्द क्या सोचकर लिखा था? सबसे पहले जिस बच्चे को बुलाया गया था, उसने लिखा था – ‘पाहाड़’। जब शिक्षक ने बच्चों से पूछा कि क्या यह जवाब सही है? लगभग एक तिहाई बच्चों ने हाथ उठाकर कहा कि ‘हां, सही लिखा है।’ इस पर शिक्षक ने बच्चों से कहा कि ‘एक बार इस आकृति का नाम जोर से बोलकर देखो तो सभी बच्चों ने तेज आवाज में एक स्वर में बोला – पाहाड़। 

बच्चों के इस जवाब मुख्य कारण यह था कि वे अपनी बोलचाल की भाषा में पहाड़ को पाहाड़ ही बोलते हैं। इसलिए उन्होंने पाहाड़ ही लिखा और उसे सही भी मान रहे थे। वहीं, जिन बच्चों ने जवाब में ‘पहाड़े’ लिखा था, उनका कहना था कि चित्र में पहाड़ कुछ ऐसे बना था जिसमें पहाड़ की एक से ज्यादा चोटियां दिख रही थीं, इसलिए उन्होंने बहुवचन में जवाब लिखा। और, जिन बच्चों ने ‘पहाड’ लिखा था, उन्होंने बताया कि वे ड और ड़ के अंतर को नहीं समझ रहे थे। चित्रों को देखकर नाम लिखने से जुड़े अन्य प्रश्नों और वाक्य में शब्दों को सही क्रम से जमाने के जवाबों में भी बच्चों ने कुछ इसी तरह की ग़लतियां की थीं। इससे हमें यह समझ आया कि बच्चे जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते भी हैं। इस अनुभव के बाद शिक्षकों में यह सहमति बनी कि स्थानीय भाषा को हिंदी से जोड़ना जरूरी है। हमने यह भी तय किया जिन प्रश्नों के जवाब बच्चों ने स्थानीय भाषा में दिए हैं, उनके लिए कॉपी जांचते हुए, उन्हें पूरे अंक दिए जाएं।

हर बच्चे की समझ और जवाब देने के तरीके अलग होते हैं

बच्चों से आगे हुई चर्चा के दौरान, उनका यह भी कहना था कि ‘मेरा तो एक ही नाम है लेकिन सूरज और चांद के इतने सारे नाम क्यों हैं?’ या फिर, पहाड़ या पानी को और किन नामों से बुलाया जाता है। बच्चों के बोलचाल में इस्तेमाल होने वाले नाम और किताब में लिखे गए नामों में किस तरह का फर्क है। इस तरह के तमाम सवाल-जवाबों के जरिए शिक्षक ने उन्हें यह समझना सिखाया कि प्रश्नपत्र में यह कैसे पहचाना जाए कि वहां पर आपसे क्या पूछा जा रहा है, कैसे प्रश्न में ही वे निर्देश होते हैं जो बताते हैं कि उन्हें जवाब में क्या लिखना है। साथ ही, यह भी कि प्रश्न एक ही होता है लेकिन उसके जवाब देने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। 

इन सारे अलग-अलग प्रश्नों पर बात करते हुए आखिरी में बच्चों के साथ इस बात पर एक सफल चर्चा हो सकी कि प्रश्नपत्र को ध्यान से पढ़कर हल करना जरुरी है। ऐसा करके हम कैसे अपने सवालों को सही तरीके से हल कर सकते हैं। बच्चों को कक्षा में पढ़ाते समय किया गया अवलोकन शिक्षकों को यह समझने में मदद करता है कि बच्चों के सीखने के अलग-अलग तरीके क्या हो सकते हैं। यह उनके और अन्य शिक्षकों के लिए अपनी शैक्षणिक पद्धतियां बनाने में मददगार होते हैं। 

बच्चों की कल्पनाशीलता व विषय-वस्तु से सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया उनके वातावरण से जुड़े होते हैं।

जैसे हमने देखा कि कई बार बच्चों के दैनिक जीवन में प्रयोग में आने वाले शब्द और उसके मानक हिंदी उच्चारण में काफी फर्क होता है। इसकी वजह से जब बच्चे अपनी उच्चारण शैली में जवाब देते या लिखते हैं तो कई बार उन्हें मात्राई दोष की तरह देखा जाता है। यह माना जाता है कि बच्चे को लिखने और मात्रा ज्ञान पर काम करने की जरुरत है। कई बार उसे पूरी तरह गलत मान लिया जाता हैं तो कई बार आधा सही और आधा गलत। इसके साथ ही बच्चों द्वारा रंगों की पहचान, रंगों के नामों की पहचान और उन्हें लेकर स्पष्टता में भी अंतर दिखाई पड़ता है।

अलग-अलग बच्चों की अपनी कल्पनाशीलता व विषय-वस्तु से सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया और उनका तरीका, उनके दैनिक जीवन और वातावरण से जुड़े होते हैं। कई बार यह भी देखा जाता है कि कुछ प्रश्न, कुछ बताये या पूछे गए उदाहरण बच्चों ने शायद पहले कभी देखे-सुने ही न हों। ऐसे में उससे जुड़ पाने में उनको दिक्कत का सामना करना पड़ता है और वे कही जा रही बात को पूरी तरह से नहीं समझ पाते हैं। शिक्षकों को सिखाने की प्रक्रिया इन तमाम बातों को शामिल करने की जरूरत होती है। सीखते हुए वे विषय और अवधारणा को जितना अपने आप से जोड़कर देख पाएंगे, सीखना उनके लिए उतना ही आसान और मज़ेदार होगा। 

इसके अलावा, हर बच्चे के प्रश्न समझने और जवाब देने का तरीका अलग होता है। कई बार बच्चे प्रश्नपत्र में प्रश्न इसलिए भी छोड़ देते हैं कि उन्हें प्रश्नवाचक चिन्ह और पूर्णविराम जैसे चिन्हों की समझ नहीं होती है। इन सारी बातों और अनुभवों से साफ होता है यदि बच्चों को प्रश्न समझ में आ जाये और उनके पूर्व ज्ञान, संदर्भ और वातावरण को शिक्षक/मूल्यांकनकर्ता समझे तो बच्चों के सीखने की प्रक्रिया रुचिकर बनेगी। और, बच्चा भी अपना पूरा प्रयास करेगा कि वह अपनी समझ और ज्ञान को सामने रख सके।

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बंकर रॉय: ‘साधारण से समाधान को लागू करना सबसे अधिक कठिन होता है’

ग्रासरूट नेशन, रोहिणी नीलेकणी फ़िलैंथ्रोपीज का एक पॉडकास्ट है जो हमारे देश में सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में नेतृत्व कर रहे कुछ बड़े नामों के जीवन और काम पर गहराई से प्रकाश डालता है। इस एपिसोड में संजीत रॉय, जिन्हे बंकर रॉय के नाम से जाना जाता है, सामाजिक कार्य एवं अनुसंधान केंद्र, अब बेयरफुट कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध, की कहानी बता रहे हैं। पत्रकार रजनी बख्शी के साथ अपनी इस बातचीत में रॉय ने अपनी इस यात्रा में आने वाली चुनौतियों और उनसे मिलने वाले सबक की एक रूपरेखा प्रस्तुत की है।

इस बातचीत का कुछ हिस्सा आप यहां पढ़ सकते हैं: 

2.50

बेयरफुट का निर्माण

बंकर: मैं 1965 में बिहार में पड़ने वाले अकाल को देखने गया था। मेरे वहां जाने का एकमात्र कारण मेरी जिज्ञासा थी क्योंकि मैं नहीं जानता था कि भारत कैसा था। मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी। ऐसी किसी चीज से मेरा वास्ता ही नहीं पड़ा था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरा अस्तित्व सीमित है। मैं नहीं जानता था कि वास्तव में भारत कैसा था। इसलिए उस समय, सुमन दुबे ने कहा, ‘हम बिहार क्यों नहीं चलते हैं?’

यह मेरे लिए बहुत ही दर्दनाक अनुभव था, बहुत ज़्यादा दुख देने वाला। मैं अब भी बिहार के अकाल के उन दिनों के बारे में सोचता हूं। मैंने कहा, ‘मैं यहां क्या कर रहा हूं? मुझे सब कुछ सबसे अच्छी तरह का मिल रहा है, कहने को सबसे अच्छी शिक्षा भी और इसे हासिल करने के बाद भी मैं भारत के गांवों के लिए कुछ भी नहीं कर सकता।’  यही वह पल था जब मेरे दिमाग़ में यह विचार कौंधा कि – मुझे कुछ करना है…

मुझे 20,000 रुपये का पहला दान टाटा ट्रस्ट से मिला। इससे हमने भूजल सर्वेक्षण करना शुरू किया और इसमें 110 गांवों का दौरा किया। लेकिन आप जानते हैं कि प्रत्येक संगठन को कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ता है। ऐसा कोई संगठन नहीं हो सकता जिसके सामने संकट ना आए हों।

हमने 1972 में शुरू किया था। अरुणा [रॉय] ने 1974 में अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और मेरे साथ आ गईं। अपने प्रशासनिक अनुभव के आधार पर वे कुछ ऐसी व्यवस्थाएं और प्रबंधन प्रणालियां लेकर आना चाहती थीं जिनसे ये पेशेवर नफ़रत करते थे। उनकी नज़र में यह एक अच्छा विचार नहीं था क्योंकि यह थोड़ा ज़्यादा ही पेशेवर होने वाला था। इसलिए हमारा पहला संकट यह रहा कि- जब अरुणा आईं और उन्होंने कुछ प्रणालियों में सुधार लाने का प्रयास किया और तब कई सारे लोगों ने इस पर विरोध जताया। इसलिए उनमें से कई हमसे अलग भी हो गये।

पहला सबक यह है कि कभी भी बाहर के पेशेवरों अर्थात बाहर से आए शहरी पेशेवरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। हमेशा अपने संगठन के भीतर के लोगों की ही क्षमता और योग्यता को विकसित किया जाना चाहिए क्योंकि वे ही वे लोग हैं जो हमेशा वहां रहने वाले हैं। इस तरह मेरा पहला सबक यही था और मेरी इस सीख से मुझे अब बहुत अधिक मदद मिलती है। क्योंकि मैं सोचता हूं कि हमारे लिए ज़मीनी स्तर का नेतृत्व विकसित करना बहुत आवश्यक है। उनके आधार पर ही आगे संगठन को संचालित किया जाना चाहिए।

इसके बाद दूसरी चीज जो मैंने सीखी वह यह थी कि साक्षरता और शिक्षा में अंतर होता है। देखिए, मार्क ट्वेन ने कहा था कि ‘कभी भी अपनी शिक्षा में स्कूल को हस्तक्षेप मत करने दो।’ स्कूल वह जगह होती है जहां आप पढ़ना और लिखना सीखते हैं। शिक्षा वह होती है जो आप अपने पारिवारिक माहौल और अपने समुदाय से सीखते हैं। इसलिए मुझे यह एहसास हुआ कि हमें इन दोनों में अंतर करना आना चाहिए, हमें केवल इन्हें इसलिए साथ नहीं रखना चाहिए क्योंकि लोग कहते हैं कि ‘अरे साहब वे अशिक्षित हैं।’ मैंने कहा, ‘नहीं, ऐसा मत कहिए। वे असाक्षर हैं, लेकिन अशिक्षित नहीं।’

बंकर रॉय एक माइक पकड़े हुए_साक्षरता और शिक्षा
ऐसा कोई संगठन नहीं हो सकता जिसे संकटों का सामना ना करना पड़ता हो। | चित्र साभार: आशीष सुनील साहूजी / सीसी बीवाय

23.50

सही लोगों का चुनाव

रजनी: लेकिन बंकर, जब आप कहते हैं कि इन सब के चलते आप मज़बूत हुए हैं तो इससे आपका मतलब यह है कि आपके संगठन की दूसरी और तीसरी पंक्ति भी इन संकटों से उबरने और उनपर बात करने में शामिल था। आप एक नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और फिर भी जब मैं आपके आसपास के लोगों और टीम को देखती हूं तो मुझे कुछ स्पष्ट महसूस होता है। यहां सबमें अधिकार का भाव दिखाई पड़ता है। यह संपूर्ण गतिशीलता कैसे प्राप्त हुई?

बंकर: रजनी, आप बीस साल पहले के समय में जा रही हैं क्योंकि 1979 में जब हम इस संकट से गुजर रहे थे तब हमारा संगठन बहुत ही छोटा था। लेकिन अपने साथ काम करने वाले लोगों का चुनाव जानबूझ कर किया गया था। हमने केवल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी श्रेणी के लोगों को चुना था और तब वे इतने शक्तिशाली नहीं थे कि उच्च जातियों या राजपूतों, ब्राह्मणों और जाटों को मात दे सकें। इसलिए जब हम संकट से गुजर रहे थे तब वे पृष्ठभूमि में थे। वे चुपचाप हमारी मदद कर रहे थे, लेकिन वे सामने आकर उनके ख़िलाफ़ चिल्लाते नहीं थे और ना ही नारे लगाते थे, क्योंकि तब वहां की स्थिति पूरी तरह से अलग थी। और ऐसे लोगों में हमारे निवेश का परिणाम यह था कि इससे हमें हमारा क़द बढ़ा क्योंकि संकट के बाद भी ये लोग हमारे साथ खड़े थे।

रजनी: इन लोगों के चयन के समय या फिर कहें कि टीम के निर्माण के समय आपने मूल्यों के किस ढांचे को लागू किया था? आप उन लोगों में किन मूल्यों को ढूंढ़ रहे थे?

बंकर: यह तो तय है कि तिलोनिया में हमारे साथ काम करने वाले किसी भी आदमी को न्यूनतम वेतन पर काम करना होगा। उच्चतम और न्यूनतम का अनुपात 1:2 होगा – और हम उस समय का आत्म-मूल्यांकन करेंगे – अब हम ऐसा नहीं करते हैं – बल्कि ऐसा तब करते थे जब हम आगे बढ़ रहे थे, हम अपने प्रदर्शन और संगठन में अपने योगदान का स्व-मूल्यांकन करते थे और एक दूसरे को ईमानदारी, नैतिकता, सहयोग, नवाचार पर अंक देते थे। सौ अंकों में से तीन अंक शैक्षणिक योग्यता के लिए दिया गया था। इससे फर्क़ नहीं पड़ता था कि आप अनपढ़ हैं या नहीं, लेकिन यह संगठन को दिया गया आपका योगदान था।

30.35

सोलर की शक्ति

रजनी: तो बंकर, तिलोनिया में वापस चलते हैं, और अगला फेज जो उभर रहा है मुझे लगता है कि हम इसे ‘सोलर मामा’ फेज कह सकते हैं, मेरे कहने का मतलब है कि, आपने सोलर के लोकप्रिय होने से बहुत पहले इस काम को कर लिया था। इस अनुभव से मिलने वाले वे मुख्य परिणाम कौन से हैं जिन पर यहां आप बात करना चाहेंगे, ताकि जिनके माध्यम से हमें तकनीकी कहानी के सकारात्मक पहलू की संभावनाओं के बारे पता चल सके? तकनीक और लोग और लोकतंत्र तीनों एक साथ।

बंकर: तिलोनिया में हमारे पास दो परिसर हैं और दोनों ही पूरी तरह से सौरऊर्जा से मिलने वाली बिजली पर चलते हैं। हमारे छत पर तीन-सौ किलोवॉट के पैनल लगे हैं जो अगले पच्चीस वर्षों के लिए पर्याप्त हैं। जब तक सूरज चमकेगा तब तक मुझे बिजली की कोई समस्या नहीं होगी। मैंने पूरी दुनिया की लगभग साठ देशों का दौरा किया है – उन साठ से ऊपर देशों में से- तीस से ज्यादा देश अफ़्रीका में हैं। और आप वहां क्या देखते हैं? आपको वहां के गांवों में बहुत बूढ़े पुरुष, स्त्री और बहुत छोटे-छोटे बच्चे दिखाई पड़ते हैं। सभी वयस्क जा चुके हैं। वे रोज़गार ढूंढ़ने के लिए शहरों में चले गये हैं। तो…दिमाग़ में एक बात कौंधती है, यही था ब्रेनवेव! इन सुदूर के गांवों की महिलाओं को सोलर इंजीनियरिंग का प्रशिक्षण क्यों ना दिया जाए? ग्रिड से दूर और जहां बिजली नहीं है…और वे किरासन तेल और मोमबत्तियों पर प्रति माह 10 डॉलर (लगभग 800 रुपए) बर्बाद कर रहे हैं।

रजनी: यह कब की बात है, बंकर? जब आपने ब्रेनवेव पर काम किया था?

बंकर: शायद 1997 में। तो जैसा मैंने कहा, ‘क्यों ना इन महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाए? और वे अनपढ़ भी हैं तो क्या हुआ? चलो देखते हैं कि हम उन्हें सोलर इंजीनियरिंग का प्रशिक्षण दे सकते हैं या नहीं।’ इसलिए हमने अफ़गानिस्तान से शुरू किया।

मैं अफ़गानिस्तान गया। वहां हमने तिलोनिया आने के लिए तीन महिलाओं को चुना। उन महिलाओं ने कहा कि, ‘मैं पुरुषों के बिना नहीं जा सकती क्योंकि वे इसकी अनुमति नहीं देंगे।’ इसलिए उनके साथ तीन पुरुष भी आये। शुरुआती छह महीने उनके लिए बहुत ही मुश्किल भरे थे क्योंकि यह गर्मियों का चरम था लेकिन वे सोलर इंजीनियर बन गईं। हमने उन्हें सोलर इंजिन कैसे बनाया? दिखा और सुनाकर। हमारे इस प्रशिक्षण में कुछ भी लिखा या बोला नहीं गया था। हमने लिखे और बोले हुए शब्दों का प्रयोग नहीं किया। हमारे पास एक मैन्युअल (निर्देशपुस्तिका) है जो पूरी तरह से चित्र आधारित है, उसे देखकर आप केवल छह महीनों के भीतर सोलर इंजीनियर बनना सीख सकते हैं। इसका मतलब है कि आप छह महीने में सोलर सिस्टम और सोलर लालटेन के निर्माण, स्थापना, मरम्मत और रखरखाव के तरीक़े सीख सकते हैं। इसकी ख़ूबसूरती यही है कि इसके माध्यम से दुनिया के किसी भी कोने की पैंतीस से पैंतालीस साल के बीच की अनपढ़ महिला सोलर इंजीनियर बन सकती है।

रजनी: दुनिया भर में अपने काम के विस्तार में मिली सफलता का राज क्या है?

बंकर: विश्वास। इसमें सक्षम होने के लिए आपको लोगों पर विश्वास करना होगा। आपको दिखाना होगा …मुझे अफ़्रीका के पूरे समुदाय से बात करने में, एक महिला को भारत भेजने में दो दिन लग जाते हैं। सबसे पहले, लोगों में नाराज़गी है, वे ग़ुस्से में यह सवाल करते हैं कि आप एक महिला को भारत ले जाकर अपना समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं? और फिर उन्हें यह समझाने की प्रक्रिया…यह प्रक्रिया को लोगों को उनके मन में व्याप्त डर को समझाने की प्रक्रिया थी- इस बात का डर कि उन्हें अरब देशों में बेच दिया जायेगा या फिर वे कभी वापस नहीं लौट पायेंगे – ये सब बिल्कुल वास्तविक डर हैं। मैंने देखा कि महिलाओं में साहस है, वहां जाने का साहस। क्या आप उन्नीस घंटे लंबी हवाई यात्रा की कल्पना कर सकते हैं? अब तक के अपने जीवन में उसने कभी भी हवाई यात्रा नहीं की थी। क्या आप उसके भारत आने की और अगले छह महीनों तक वहां की भाषा ना बोल पाने की स्थिति कि कल्पना कर सकते हैं?

रजनी: तो एक तरह से यह एक प्रतिबद्धता निर्माण अभ्यास बन गया क्योंकि आप बहुत आसानी से भारत में शिक्षकों का चयन कर सकते थे और उन्हें दुनिया भर के देशों में भेज सकते थे, लेकिन आपने उल्टा रास्ता चुना।

48.10

बॉटम-अप समाधानों की खोज

रजनी: बंकर, फिर यह क्या है, अगर हम भारत को एक बड़े समाज के रूप में देखते हैं, तब इन सभी अनुभवों से होने वाले परिवर्तन के पीछे का संभावित सिद्धांत क्या है? मुझे लगता है कि कम से कम हम सभी को बाहर खड़े होकर देखने से ऐसा ही दिखता है कि आपके इस काम के पीछे का अंतर्निहित अनुमान यह था कि खुद लोग इसकी देखादेखी करने लगेंगे, और जैसा कि आपने बताया, कई जगहों पर यह हुआ भी। फिर भी, इन दृष्टिकोणों ने पूरे देश को सूचित और परिवर्तित नहीं किया है, और मैं सामूहिक स्वैच्छिक क्षेत्र के बारे में बात कर रही हूं। तो फिर यह कैसे होगा?

बंकर: रजनी, साधारण से समाधान को लागू करना सबसे अधिक कठिन होता है। किसी भी ग्रामीण समस्या का कोई शहरी समाधान नहीं हो सकता है। ग्रामीण समस्या का समाधान ग्रामीण ही होता है। हमने उसके बारे में अभी जाना भी नहीं है। हम हमेशा यही सोचते हैं कि कोई बाहर से आएगा और हमारी समस्याओं का समाधान लाएगा, जो कि एक मिथक है। इसे नीचे से आना होगा।

गांधी को बॉटम अप का दृष्टिकोण अपनाना पड़ा, इन सब को आगे ले जाने के लिए नीचे से किसी को बुलाना पड़ा, जिसका मतलब है कि आपको अपने काम को सफल बनाने के लिए लोगों का विश्वास जीतना होगा। हमें तुरंत ऐसा नहीं करना है। हम यह दिखा चुके हैं कि क्या संभव है, लेकिन हम ऐसा करने में सक्षम नहीं हो पाये हैं। यह इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि आपके पास एक विचार है क्योंकि एक तरह …आप जानती हैं, मुझे लगता है कि आज के समय में विकास को सबसे अधिक ख़तरा पढ़े लिखे पुरुषों और महिलाओं से हैं।

रजनी: इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं?

बंकर: उनके पास शैक्षणिक व्यवस्था से मिले कुछ विचार हैं जो बहुत ही घातक हैं और जो नियंत्रण से बाहर है। आज की तारीख़ में शिक्षा प्रणाली के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि आपने युवाओं से उनके साहस को छीन लिया है। वे जोखिम उठाना नहीं चाहते हैं। वे कुछ भी लीक से हटकर नहीं करना चाहते हैं। वे असफल नहीं होना चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है इसका उन पर किसी तरह का प्रभाव पड़ेगा। आज की सबसे बड़ी समस्या यही है।

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डिजिटल वित्त सेवाएं महिलाओं के लिए कारगर कैसे बनें?

आर्थिक प्रगति और समावेशी विकास के मुख्य चालक ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम’ (माइक्रो स्मॉल एंड मीडियम इंटरप्राइजेज – एमएसएमई) होते हैं। यह सेक्टर देश के 11 करोड़ लोगों को रोज़गार मुहैया करवाता है और वित्तीय वर्ष 2021–2022 में इसने देश के कुल निर्यात में 45 फ़ीसद और जीडीपी में 30 फ़ीसद का योगदान दिया है। इसके अलावा, इस तरह के 20.37 फ़ीसद उद्यमों की मालिक महिलाएं हैं जो इस श्रम बल का 23.3 फ़ीसद हिस्सा हैं। इन महिला उद्यमियों में लगभग 90 फ़ीसद उद्यमियों ने औपचारिक वित्तीय संस्थानों से मिलने वाले धन का उपयोग नहीं किया है।

ऐसा माना जाता है कि महिलाएं स्वाभाविक रूप से बचत करने वाली, विवेकशील निवेशक और ज़िम्मेदारी से कर्ज़ चुकाने वाली होती हैं। वे वफ़ादार ग्राहक होती हैं और अक्सर अपने वित्तीय सेवा प्रदाताओं ( फायनेंशिय सर्विस प्रोवाइडर्स – एफएसपी) को नहीं बदलती हैं। इसी वजह से फिक्स्ड डिपॉजिट, बीमा, पेंशन, गोल्ड लोन और एजुकेशन लोन जैसे उत्पादों के लिए उन्हें एक आदर्श ग्राहक बनाता है। इस बात का प्रमाण हमें प्रधानमंत्री जन-धन योजना (पीएमजीडी) के खाताधारकों को देखकर मिलता है जहां महिला खाताधारकों द्वारा प्राप्त वित्तीय राजस्व पुरुषों की तुलना में 12 फ़ीसद अधिक है। इसलिए, महिलाओं को कर्ज़ दिया जाना बढ़ा है।

पुरुष नेतृत्व वाले उद्यमों की तुलना में, महिला नेतृत्व वाले लघु उद्यमों को सांस्कृतिक और सामाजिक बाधाओं के साथ-साथ समय, गतिशीलता और संसाधनों की सीमाओं के मामले में अधिक और बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। महिलाओं के लिए नेटवर्किंग और मेंटरशिप के कम अवसर उपलब्ध होते हैं। घरेलू ज़िम्मेदारियों, आर्थिक नुकसान के प्रति अधिक संवेदनशीलता और सूचना और तकनीकी कौशल तक सीमित पहुंच के कारण उन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा स्मार्टफोन और डिजिटल वित्तीय सेवाओं तक भी महिलाओं की पहुंच कम है। इन सब वजहों के चलते महिलाओं को कर्ज़ के लिए आवेदन करना, भुगतान करना और बीमा खरीदना कठिन लग सकता है, और आमतौर पर कर्ज़दाता उन तक नहीं पहुंचते हैं।

महिलाओं के लिए समाधान तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करने वाली कुछ कंपनियों को छोड़ दें तो, वित्त उद्योग ने महिलाओं की विशिष्ट जरूरतों, प्राथमिकताओं और बाधाओं को नजरअंदाज कर दिया है।

क्रेडिट कहां है?

ज्यादातर महिला उद्यमियों का कहना है कि कर्ज़ तक पहुंच न होना उनके लिए एक बड़ी चुनौती है। इंटरनेशलन फ़ायनेंस कॉर्पोरेशन का अनुमान है कि वैश्विक रूप से, महिलाओं के नेतृत्व वाले व्यवसायों का क्रेडिट अंतराल (क्रेडिट अंतराल या क्रेडिट गैप, वह अंतर है जो क्रेडिट और जीडीपी के अनुपात और इसके लॉन्ग टर्म ट्रेंड के बीच होता है) 1.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग 124 लाख करोड़ रुपए) है। कर्ज़ तक पहुंच की इस कमी के कारण, अक्सर उनका व्यवसाय अनौपचारिक, घर से किया जाने वाला, छोटे पैमाने का और पारंपरिक रूप से महिलाओं को सौंपे जाने वाले सेक्टर तक ही सीमित रह जाता है। महिलाएं आमतौर पर छोटे व्यवसाय ही चलाती हैं लेकिन इनकी वित्तीय जरूरतें अतिसूक्ष्मवित्तीय संस्थानों के लिए (जैसे 50,000 रुपये से अधिक के ऋण आवश्यकता होना) बहुत बड़ी और बैंकों के लिए बहुत छोटी (10 लाख रूप से कम की कर्ज़ आवश्यकता होती है) होती हैं। नतीजतन, महिलाओं के नेतृत्व वाले छोटे व्यवसाय अधिकांश वित्तीय सेवा प्रदाताओं द्वारा दिए जाने वाले कुल कर्ज़ या ग्रॉस लोन पोर्टफोलियो का केवल 10 फ़ीसद हैं। 

आमतौर पर, एक ऋण आवेदन (लोन एप्लीकेशन) कई चरणों से होकर गुजरता है। हर स्तर पर, महिलाओं को कर्ज़ देते समय उनके साथ पक्षपात किए जाने की संभावना बहुत अधिक होती है – पुरुषों आवेदकों की तुलना में महिलाओं के ऋण आवेदन के अस्वीकृत होने की संभावना दोगुनी होती है। महिलाएं आज भी ऐतिसाहिक मान्यताओं और सांस्कृतिक रूढ़ियों से उपजे परिणामों का सामना कर रही हैं, उनके पास संपत्ति का मालिकाना हक़ भी बहुत कम होता है जिसका सीधा मतलब है कि उनके पास कोलैटरल सुरक्षा की कमी होती है। इसके कारण महिलाओं के नेतृत्व वाले व्यवसाय अक्सर ही बैंक के साथ अपनी साख नहीं बना पाते हैं। इसका असर यह होता है कि वे बैंकों से कर्ज़ नहीं लेना चाहते हैं, इस पर कम निर्भर होते हैं और उन्हें महंगा लोन मिलता है। ऋण आवेदन अस्वीकृत हो जाने का एक दूसरा कारण यह है कि महिलाएं ‘थिन फाइल’ श्रेणी वाले ग्राहकों में आती हैं, अर्थात्, उनके पास औपचारिक क्रेडिट स्कोर और क्रेडिट हिस्ट्री जैसी चीजों की कमी होती है। ऐसी क्रेडिट उत्पाद आवश्यकताएं महिलाओं के लिए काम नहीं कर सकती हैं।

वरली पेंटिंग करती हुई एक महिला-डिजिटल वित्त सेवाएं
महिला उद्यमी कर्ज़ तक पहुंच की कमी को एक चुनौती बताती हैं। | चित्र साभार: वीमेन’स वर्ल्ड बैंकिंग

कर्ज़ देने की प्रक्रिया महिलाओं के लिए आसान कैसे बने?

उचित और महिलाओं के लिए सहज ऋण प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने के लिए पूर्वाग्रहों का सक्रियता से मुक़ाबला करना जरूरी है। डेटा संग्रह प्रक्रिया के दौरान ही पूर्वाग्रह पैदा हो जाते हैं क्योंकि ऑनलाइन कर्ज़ देने वाले साधन उपयोगकर्ता के हैंडहेल्ड डिवाइस से प्रतिदिन इंटरनेट के उपयोग आदि जैसी विभिन्न जानकारियां इकट्ठा करते हैं। यह वित्तीय उत्पादों के लिए पात्रता मापने का उचित मानदंड नहीं हो सकता है। ऐसे ऐप विकसित करने वाले व्यक्तियों के अचेतन पूर्वाग्रहों पर नज़र रखने और प्रक्रिया के हर चरण की जांच करने से कर्ज़ देने की निष्पक्ष प्रक्रियाओं का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग जैसी तकनीकें ऋण तक पहुंच प्रदान करने में मददगार साबित हो सकती हैं।

वीमेन्स वर्ल्ड बैंकिंग ने कर्ज़ देने से जुड़े लैंगिक पूर्वाग्रहों का पता लगाने के लिए उपकरणों का एक सेट तैयार किया है। इस उपकरण में क्रेडिट स्कोर, अनुमोदन दर, कर्ज़ की राशि, ब्याज दर, कोलैटरल साइज़ और अस्वीकृत उम्मीदवारों की विशेषताओं जैसे छह कारकों को मानक रखा गया है। उपकरण वित्तीय संस्थानों को सक्षम बनाते हैं ताकि वे स्व-मूल्यांकन कर सकें और इसका पता लगा सकें कि क्या वे महिला ग्राहकों के लिए मार्केटिंग कर रहे हैं या उन्हें अपना लक्ष्य बना रहे हैं, सक्रियता से अधिक से अधिक महिलाओं को शामिल कर रहे हैं, और जेंडर डाइवर्स पोर्टफ़ोलियो का बना और क़ायम रख पा रहे हैं या नहीं।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग जैसी तकनीकें कर्ज़ तक पहुंच प्रदान करने में मददगार साबित हो सकती हैं। उनका उपयोग वैकल्पिक डेटा उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है ताकि क्रेडिट योग्यता का आकलन करने और अधिक महिलाओं को क्रेडिट फ़नल में लाने के लिए प्रॉक्सी स्कोर बनाया जा सके। डेटा में एलपीजी गैस कनेक्शन, इनडोर स्वच्छता सुविधाएं और घर के प्रकार जैसी संपत्तियों का मूल्यांकन शामिल हो सकता है। लेन-देन से व्यवहार संबंधी डेटा जैसे कि औपचारिक या समवर्ती कर्ज़ों के लिए अनौपचारिक कर्ज़ों का अनुपात भी एक प्रोफ़ाइल बनाने में मदद कर सकता है जो पूरी तरह से ग्राहक के कोलैटरल और क्रेडिट हिस्ट्री पर आधारित नहीं है।

डिजिटल भुगतान का लाभ उठाना

हालांकि 48 फ़ीसद से अधिक महिलाएं किसी भी प्रकार के भुगतान के लिए डिजिटल माध्यमों के उपयोग की बजाय नक़द भुगतान को प्राथमिकता देती हैं। लेकिन यूपीआई के उपयोग से इसमें वृद्धि देखी गई है – जो कि डिजिटल भुगतानों के प्रति महिलाओं की स्वीकृति को दर्शाता है। इंटरनेट तक बेहतर पहुंच के साथ-साथ वैकल्पिक भुगतान के तरीके उनके आसपास के व्यापारिक केंद्रों में अधिक प्रचलित हो गए हैं, जिससे डिजिटल वित्त के बारे में महिलाओं की जागरूकता के स्तर में वृद्धि हुई है। डिजिटल भुगतान महिलाओं के लिए केवल तभी काम कर सकता है जब जब बैंक, एफएसपी और फिनटेक कंपनियां भौतिक संपर्क बिंदुओं के माध्यम से उन्हें शामिल करने की सुविधा प्रदान करती हैं। फिशिंग हमलों पर बातचीत करके, धन निकासी की सीमा तय करके, आंकड़ों की सुरक्षा में निवेश करके और ऐसे ही कई कदम उठाकर डिजिटल भुगतान में महिलाओं के विश्वास का निर्माण करना महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, महिलाओं को नियंत्रण और गोपनीयता की भावना प्रदान करने वाले ऐप की शुरूआत उन्हें डिजिटल वित्तीय सेवाओं को अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। बेसिक फ़ोन पर काम करने में सक्षम यूपीआई 123 पीएवाई लॉन्च करने का निर्णय उन महिलाओं के लिए भुगतान समाधान डिजाइन करने का एक बेहतरीन उदाहरण है जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है। 

जब ऐप्स प्रभावी ढंग से महिलाओं को लक्षित करते हैं और उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं और क्षमताओं को केंद्र में रखते हुए डिज़ाइन किए जाते हैं, तो सेवा प्रदाता निम्न-आय समूहों के लोग, और महिलाएं, जो महत्वपूर्ण प्रतिधारण और आजीवन मूल्य प्रदान करने वाले एक नये ग्राहक-आधार प्राप्त करके लाभ अर्जित करते हैं। 

चूंकि पहले से अधिक महिलाएं अब भुगतान और रिमिटेंस के लिए डेबिट और क्रेडिट कार्ड, बैंकिंग एप्लिकेशनों या यूपीआई  का इस्तेमाल करने लगी हैं, नक़दी के इस्तेमाल में कमी ला चुकी हैं और व्यावसायिक लेनदेन के लिए डिजिटल माध्यमों का उपयोग करती हैं, इसलिए अब उनका ख़ुद का क्रेडिट हिस्ट्री भी विकसित होगा, जिससे बैंकों को ग्राहकों के इस तबके को कर्ज़ देने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

डिजिटल सार्वजनिक इंफ़्रास्ट्रक्चर में महिलाओं को शामिल करना 

क्रेडिट और डिजिटल भुगतान तक पहुंच सिक्के का एक पहलू है। डिजिटल सार्वजनिक इंफ़्रास्ट्रक्चर (डीपीआई) अपने पैमाने के आधार पर महिलाओं की वित्तीय समावेशन यात्रा में महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में काम कर सकती है और यह सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के लिए एक कन्वर्जेंस मंच है। अगर डीपीआई को महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाया बनाया जाएगा तो वे इसकी सबसे बड़ी लाभार्थी हो सकती हैं। साथ ही, एक नए व्यावसायिक अवसर का द्वार भी खोल सकती हैं। भारत ने पहले ही डीपीआई के निर्माण की तीन नींवों पर काम शुरू कर दिया है – आधार के माध्यम से डिजिटल पहचान प्रणाली, यूपीआई के माध्यम से रियल-टाइम तेज भुगतान प्रणाली, और डेटा एम्पॉवरमेंट प्रोटेक्शन आर्किटेक्चर (डीईपीए) के माध्यम से, इंडियास्टैक के जरिए सहमति-आधारित डेटा एकत्रीकरण।

महिलाओं के पास डिजिटल और वित्तीय क्षमता होना महत्वपूर्ण है।

उद्यमियों के संबंध में, भारत के डिजिटल सार्वजनिक इंफ़्रास्ट्रक्चर को ध्यान में रखने पर- ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स (ओएनडीसी) – जिसका अर्थ एक ऐसा इक्वालाइज़र होना है जो विक्रेताओं, ख़रीददारों, और क्रेडिटर को साथ लाएगा और भीतरी इलाक़ों के उद्यमियों और शहर-आधारित खुदरा व्यवसायों के बीच व्यापार की सुविधा प्रदान करेगा। ग्रामीण महाराष्ट्र की एक ऐसी महिला सूक्ष्म-उद्यमी की कल्पना कीजिए जो हाथ से पेंट की गई वारली साड़ियां बनाती है। यदि वह इस डीपीआई में सफलतापूर्वक शामिल हो जाती तो उसकी न केवल कर्ज़ और भुगतान समाधान तक सीधी पहुंच होती, बल्कि उन बाजारों, खुदरा विक्रेताओं और ब्रांडों तक भी पहुंच होती जो उसके उत्पाद में निवेश करना चाहते हैं। अब जब अधिकतर महिलाओं के पास जन-धन खाता है तो उनकी अपनी क्रेडिट हिस्ट्री और अपनी व्यावसायिक पहचान भी बन रही है, और वे अपने व्यवसाय के लिए कर भुगतान के लिए भी पंजीकृत हैं। वे सभी ओएनडीसी पर अपने ख़रीददारों से जुड़ने में सक्षम हो जायेंगी, भुगतान के लिए यूपीआई का इस्तेमाल करेंगी और ओपन क्रेडिट एनेबलमेंट नेटवर्क (जो कर्ज़दाताओं और बाज़ारों को जोड़ने में मदद करता है) के माध्यम से क्रेडिट हासिल कर सकेंगी।

ऐसी महिलाएं जो डिजिटल वित्तीय सेवाओं का इस्तेमाल करती हैं उनके लिए डिजिटल और वित्तीय योग्यताओं से लैस होना महत्वपूर्ण है। साक्षरता से परे, इसके लिए उनके पास ज्ञान, दृष्टिकोण और कौशल होना चाहिए जो उनकी शर्तों पर डिजिटल और वित्तीय सेवाओं का सक्रिय रूप से उपयोग की उनकी क्षमता को बढ़ाता है। यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक एफएसपी अपनी महिला ग्राहकों में निवेश नहीं करते। 

भारत ने मौलिक अधिकार के रूप में डिजिटल पहुंच के महत्व को पहचानकर और एक संपन्न डीपीआई पारिस्थितिकी तंत्र की स्थापना करके महिलाओं के लिए वित्तीय समावेशन की दिशा में अपनी यात्रा पहले ही शुरू कर दी है। डिजिटल विभाजन को पाटने के प्रयासों के केंद्र में लैंगिक मंशा होनी चाहिए और यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रत्येक नागरिक को डिजिटल क्षेत्र में भाग लेने के समान अवसर मिले।

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क्या भारत की राजनीतिक व्यवस्था में सुधार का वक्त आ गया है?

स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के जश्न के बाद, अब अगले मील के पत्थर – 2047 यानी आज़ादी की शताब्दी की ओर उत्सुकता से देखने का समय आ चुका है। आने वाले पच्चीस साल हमारी सामूहिक राष्ट्रीय आकांक्षाओं और उन्हें पूरा करने में आने वाली बाधाओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हैं।

बीते 75 सालों में जहां हमने बहुत कुछ हासिल कर लिया है, वहीं अब भी बहुत कुछ बाक़ी रह गया है। इस बात को समझाने के लिए केवल दो आंकड़ों का ही हवाला देना काफ़ी होगा। साल 1947 में भारतीयों की औसत जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी जो बढ़कर 2022 में 70 वर्ष हो चुकी है। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएस – 5, 2019–21) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के 35.5 फ़ीसद बच्चे विकसित, 19.3 फ़ीसद कुपोषित और 32.1 फ़ीसद कम वजन वाले हैं।

हम दशकों से सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक और पर्यावरण से जुड़े क्षेत्रों में भी ऐसा ही द्वन्द देखते आ रहे हैं। बाघों की हालिया जनगणना के अनुसार, पांच-दशक-पुराने, प्रोजेक्ट टाइगर ने भारत में बाघों की संख्या को दोगुना कर दिया है और अब इनकी संख्या 3,000 से अधिक हो चुकी है। लेकिन फिर भी 2021 तक भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र में सघन और मध्यम सघन वनों के क्षेत्रफल में 12.4 फीसद की कमी आई है। आर्थिक परिदृश्य की बात करने पर भी हमें ऐसा ही द्वन्द दिखाई पड़ता है। एक ओर, भारत अपनी जीडीपी के आकार और वृद्धि दर के आधार पर शीर्ष की पांच अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन चुका है, और वहीं दूसरी ओर, यहां ग़रीबों की संख्या सबसे अधिक है। साथ ही, यह आय और संपत्ति की असमानता में सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है। राजनीतिक रूप से देखें तो हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं – 2024 तक भारत में मतदाताओं की कुल संख्या 94 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी – और फिर भी हम हमारी राजनीति में आई भयानक गिरावट के मूक गवाह बने हुए हैं। फिर चाहे बात मणिपुर से मेवात तक की हो रही हो या लोकसभा से लेकर स्थानीय स्वशासन तक की।

विकास और उपेक्षा के दो चरमों के बीच असंगति स्पष्ट है। ‘सर्वेसुखिनाभवन्तु’ से लेकर ‘सर्वोदय’ जैसे पीढ़ियों पुराने श्लोकों और ‘ग़रीबीहटाओ’, ‘सबकीप्रगति’ और ‘सबकासाथ, सबकाविकास’ जैसे नारों के बावजूद, सर्वांगीण प्रगति और कल्याण हासिल करने में हमारी असमर्थता के क्या कारण हैं? यह महज़ एक संयोग नहीं हो सकता है, और यह स्पष्ट है कि सत्ता और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों ने नीति और शासन का उपयोग अपने फ़ायदे के लिए और देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को नुक़सान पहुंचाने के लिए किया है। मैं यह कहना चाहता हूं कि भारत का अभिजात्य वर्ग, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया था और जिसमें अधिकतर अपना बलिदान देने वाले आदर्शवादी लोग शामिल थे, स्वतंत्रता के बाद उनकी जगह धीरे-धीरे बहुत अधिक स्वार्थी और भौतिकवादी लोगों ने ले ली। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो स्वतंत्रता के बाद के अभिजात वर्ग की नैतिकता ‘मेरे और मेरे परिवार के लिए अधिकतम लाभ’ तक सीमित थी जो कुछ मामलों में, ‘मेरे विस्तृत परिवार’ – आमतौर पर जाति भाइयों के लिए – तक जाती थी।

हमारा मुख्य काम राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करना और इस खेल के नियमों को बदलना है क्योंकि यह जीवन के हर पहलू पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

मेरा मानना है कि हमारी यह स्थिति दरअसल हमारी राजनीतिक व्यवस्था के ढांचे की कमियों का परिणाम ही है। हमने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार वाले चुनावी संसदीय लोकतंत्र को चुना। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि राजनीतिक समानता, सामाजिक और आर्थिक समानता लाने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण बनेगी। लेकिन, व्यवहार में, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं ने राजनीतिक प्रक्रिया पर कब्ज़ा कर लिया है और तमाम तरीक़ों से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को एक सांकेतिक क़वायद भर बनाकर रख दिया है – जो पहले की सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को जारी रखने की प्रक्रिया पर अपनी मोहर लगाता है। उत्साही नागरिकों वाले अभिजात वर्ग की अनुपस्थिति में, लोकतंत्र को जनसंख्या और अंध-जनसमर्थन (डेमोग्राफी प्लस डेमोगॉगरी)1 रहने तक सीमित कर दिया गया है और राष्ट्र-निर्माण को लूट के बड़े पैमाने पर बंटवारे के साथ भ्रष्टाचारतंत्र2 में बदल दिया गया है।

इसलिए, हमारा मुख्य काम राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करना और इस खेल के नियमों को बदलना है, क्योंकि यह जीवन के हर पहलू पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस प्रक्रिया को कम से कम पांच मूलभूत तरीकों से पूरा किया जाना चाहिए:

1. राजनीतिक दल प्रणाली में सुधार

यह महत्वपूर्ण है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र इस पर निर्भर करता है। राजनीतिक दल लोकतंत्र की आधारशिला हैं, फिर भी विरोधाभासी रूप से अधिकांश राजनीतिक दल न तो आंतरिक रूप से लोकतांत्रिक ही हैं और न ही लोगों के प्रति जवाबदेह हैं। पिछले कुछ वर्षों में, चुनाव आयोग ने कई अनिवार्य घोषणाओं को जोड़ा है जो दलों को करनी होती है, लेकिन इनका केवल शब्दों में ही अनुपालन किया जा रहा है ना कि वास्तविक स्तर पर। इसके अलावा, केवल एक या दो राज्यों में सक्रिय दलों को लोकसभा चुनावों में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। केवल उसी पार्टी को ऐसा करने की अनुमति दी जानी चाहिए, जिसने कम से कम पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में न्यूनतम, मान लीजिए, 5 फीसद वोट प्राप्त किए हों। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि लोकसभा वास्तव में राष्ट्रीय और अंतरराज्यीय मुद्दों को देखती है, ना कि एक या दो राज्यों में लोकप्रिय दलों की लॉबी के रूप में काम करती है।

माथे पर भारतीय तिरंगा चिपकाये एक बुजुर्ग महिला_भारतीय राजनीतिक व्यवस्था
भारत में सामाजिक और आर्थिक असमानताएं राजनीतिक प्रक्रिया पर हावी हो गई हैं। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

2. चुनाव प्रक्रिया में सुधार

चुनावी निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए चुनाव प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिए। इसमें चुनाव पर किए गए उन खर्चों की निगरानी भी शामिल है जिसे आमतौर पर दर्ज नहीं किया जाता है। ऐसा करने से मतदान से चुनाव के पहले नकदी और शराब बांटने जैसे कदाचार में कमी आएगी। चुनावी बॉण्ड से राजनीतिक दलों को फंडिंग मिलना एक बड़ी समस्या है जिसे ठीक किया जाना चाहिए। हमें चुनावी उम्मीदवारों के लिए सार्वजनिक फंडिंग की मात्रा बढ़ाने की ज़रूरत है। इसके लिए हम एक ऐसी प्रणाली अपना सकते हैं जहां चुनाव आयोग खुदरा योगदान (जैसे, प्रति दानकर्ता अधिकतम 2,000 रुपये) का इंतज़ाम करेगा और इस प्रकार पार्टियों को कुछ धनी लोगों की बजाय बड़ी संख्या में आम लोगों से धन इकट्ठा करने के लिए प्रोत्साहित करेगा।

3. चुनाव की भौतिक यांत्रिकी में सुधार करना

खाने-पीने की चीजें ख़रीदने से लेकर वित्तीय लेनदेन तक, हमारे जीवन में सब कुछ तेजी से इलेक्ट्रॉनिक रूप से और किसी भी समय और किसी भी स्थान पर हो रहा है। हमें चुनावों में भी इस व्यवहार को अपनाने की ज़रूरत है। साथ ही, चुनाव बूथों के सामने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर एक बटन दबाने के लिए घंटों इंतजार करने वाले मतदाताओं की लंबी-लंबी क़तारों से मुक्ति पानी चाहिए। एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें हम कहीं से भी उस ईवीएम मशीन का बटन दबा सकें। इसका विरोध करने वाले कह सकते हैं कि इससे ग़लत मतदान की संभावना बढ़ जाएगी लेकिन हम एक ऐसा डिज़ाइन तैयार कर सकते हैं जो कम से कम सिक्स सिग्मा (या लाखों में एक) स्तर की सुरक्षा वाला हो। इसका मतलब यह है कि 94 करोड़ मतदाताओं में आप धोखाधड़ी के केवल 940 मामलों की उम्मीद कर सकते हैं, जो कि मौजूदा व्यवस्था की तुलना में बहुत कम है। निश्चित रूप से, अरबों से अधिक आधार कार्ड-आधारित सत्यापन किए जाने वाले और प्रति महीने अरबों रुपये के लेनदेन वाले देश में एक छेड़छाड़-प्रूफ चुनावी प्रणाली को डिजाइन और क्रियान्वित करना असंभव नहीं होगा।

4. आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुनावी प्रणाली में सुधार

विविधता वाले हमारे देश में, वर्तमान ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट’3 प्रणाली की बजाय आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर आधारित चुनावी प्रणाली होनी चाहिए। जब विधानमंडलों की सदस्यता विभिन्न सामाजिक समूहों की जनसंख्या के अनुपात में होगी तभी हम किसी राजनीतिक व्यवस्था से सामाजिक और आर्थिक न्याय पाने की उम्मीद कर सकते हैं। ये सामाजिक समूह धर्म के आधार पर हो सकते हैं, और उनके भीतर जाति और/या आर्थिक वर्ग के आधार पर भी बनाये जा सकते हैं। ऐसे लोगों की एक विशेष श्रेणी होगी, जिसके लगातार बढ़ते जाने की उम्मीद है, जो धर्म या जाति के आधार पर समूहीकृत नहीं होना चाहेंगे। वे अपना प्रतिनिधित्व स्वयं चुनेंगे, यह संख्या मत समूह के आधार के रूप में धर्म और जाति से दूर रहने वाले लोगों की संख्या के अनुपात में होगी। आनुपातिक प्रतिनिधित्व से यह बात सुनिश्चित होगी कि बहुसंख्यकों द्वारा किसी भी प्रकार का अत्याचार न किया जा रहा हो, क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय का प्रत्येक वर्ग आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग करेगा और इस प्रकार आंतरिक रूप से प्रतिस्पर्धा की स्थिति उत्पन्न होगी। आनुपातिक प्रतिनिधित्व से विधायिका में महिलाओं के लिए अनिवार्य रूप से 50 प्रतिशत सीटें होंगी, जिससे सत्ता समीकरण में महिलाओं को उचित स्थान मिलेगा।

5. निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाकर चुनाव प्रणाली में सुधार लाना

केवल चुनाव व्यवस्था को ही बेहतर करना पर्याप्त नहीं है; हमें चुने गये प्रतिनिधियों की जवाबदेही भी बढ़ाने की आवश्यकता है। इसका मतलब है कि मतदाताओं द्वारा उनके प्रदर्शन की वार्षिक समीक्षा की जाये, जो फिर से इलेक्ट्रॉनिक रूप से हो और अपेक्षाकृत कम लागत पर की जा सके। न्यूनतम अनुमोदन रेटिंग हासिल न कर पाने वाले प्रतिनिधियों को पद से हटा दिया जाना चाहिए और उनके स्थान पर किसी अन्य को चुना जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि समीक्षा सही और पर्याप्त जानकारी पर आधारित है, संसद और राज्य विधानसभाओं की कार्यवाही और उनसे संबंधित स्थायी समिति की बैठकों को टेलीविजन पर प्रसारित किया जाना चाहिए, और विधायिका में लोगों की वास्तविक उपस्थिति को बहुत प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

यह बदलावहम, भारत के लोगही लायेंगे।

तो ये बदलाव कौन लाएगा? हम राजनीतिक दलों से अपनी बुरी प्रथाओं को सुधारने की उम्मीद नहीं कर सकते। न ही हम संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था से ही इन प्रणालीगत बदलावों की आशा कर सकते हैं। इस काम को ‘हम, भारत के लोग’ ही कर सकते हैं। इन चुनौतियों की प्रतिक्रिया के रूप में, कुछ लोग क्रांति की सलाह देते हैं, भले ही इसके लिए तानाशाही तरीक़ों का इस्तेमाल क्यों न करना पड़े! मैं 360-डिग्री क्रांति का सुझाव नहीं देता हूं जो हमें वहीं वापस ले आती है जहां से हमने शुरू किया था, न ही आधी क्रांति यानी 180-डिग्री मोड़ वाले व्यवधान को ही प्रस्तावित करता हूं जहां सब कुछ विपरीत दिशा में चला जाता है। हमें वास्तव में 90-डिग्री वाले मोड़ की ज़रूरत है, यानी एक चौथाई क्रांति।

पूर्व जेएनयू समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता के वाक्यांश का उपयोग करते हुए, इस चौथाई क्रांति का नेतृत्व ‘अभिजात वर्ग‘ को करना होगा। आजादी के बाद भी, हमारे पास ऐसे ‘योग्य कुलीन’ लोग थे – चाहे वह जय प्रकाश नारायण हों, जिन्होंने आजीवन सर्वोदय कार्यकर्ता बनने के लिए नेहरू के उत्तराधिकारी बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। या फिर वर्गीज कुरियन, जिन्होंने अमूल डेयरी को आगे बढ़ाकर श्वेत क्रांति की शुरुआत की थी। इला भट्ट, जिन्होंने सेवा आंदोलन के माध्यम से महिला सशक्तिकरण को वास्तविक बनाया। या अरुणा रॉय, जिन्होंने सूचना का अधिकार आंदोलन और उसके बाद रोजगार गारंटी आंदोलन का नेतृत्व किया। या फिर, डॉ बीडी शर्मा और मेधा पाटकर जिन्होने वन में रहने वाली जनजातियों के साथ हो रहे ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ राष्ट्र को जागरूक करने का काम किया।

आज की निराशाजनक स्थिति में भी, मैं ऐसे सैकड़ों, बल्कि हजारों लोगों को जानता हूं जो सभी बाधाओं के बावजूद समाज में अपना योगदान दे रहे हैं। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता, समाजसेवी, सांस्कृतिक हस्तियां, विद्वान, वैज्ञानिक, प्रबंधक, यहां तक ​​कि व्यवसायी, प्रशासनिक अधिकारी और राजनेता भी शामिल हैं। आइये, राजनीतिक व्यवस्था में सुधार के लिए जरूरी, इस चौथाई क्रांति का नेतृत्व इन लोगों के हाथों में सौंप देते हैं। वह पीढ़ी जो अब 29 वर्ष की औसत आयु (10 वर्ष कम या अधिक) के आसपास है, यानी जिनका जन्म 1984 और 2004 के बीच हुआ है, उन्हें शुरू में अपने साथ लाना होगा और फिर नेतृत्व की बागडोर उनके हाथों में देनी होगी। उन्हें हमारी राजनीति को सुधारने के इस कार्य में शामिल करना होगा। यह आलेख ऐसे लोगों तक ही अपनी बात पहुंचाने का एक जरिया है।

फुटनोट्स:

  1. जनसांख्यिकी मानव आबादी का सांख्यिकीय अध्ययन है। डेमोगॉगरी का तात्पर्य उन राजनीतिक गतिविधि या प्रथाओं से है जो तार्किकता का उपयोग करने की बजाय आम लोगों की इच्छाओं और पूर्वाग्रहों पर आधारित अपील करके समर्थन मांगते हैं।
  2. क्लेप्टोक्रेसी सरकार के एक ऐसे रूप को संदर्भित करती है जिसमें नेता अपनी शक्ति का उपयोग उस देश से धन और संसाधन चुराने के लिए करते हैं जिस पर वे शासन करते हैं।
  3. एक ऐसी प्रणाली जहां प्रत्येक मतदाता एक ही उम्मीदवार के लिए अपना वोट डालता है, और सबसे अधिक वोट पाने वाला उम्मीदवार चुनाव जीतता है।

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जलवायु परिवर्तन से जुड़े साझा प्रयासों में जी20 की भूमिका

साल 2022 में, एशियाई क्षेत्र ने जलवायु परिवर्तन और बाढ़ से संबंधित कुल 81 आपदाओं का सामना किया। इस क्षेत्र में, इन आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले देशों में भारत तीसरे स्थान पर है जिसे बाढ़ के कारण 4.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग 34 हज़ार करोड़ रुपए) से अधिक का नुक़सान झेलना पड़ा है। इसके अलावा, अत्यधिक गर्मी और लू के कारण भारत के 90 फ़ीसद लोगों को स्वास्थ्य समस्याओं और भोजन की कमी जैसी विसंगतियों का सामना करना पड़ रहा है। तापमान के असंगत रूप से बढ़ने का प्रभाव कृषि और निर्माण जैसे सेक्टरों पर भी पड़ा है और उन्हें 159 बिलियन अमेरिकी डॉलर (13 लाख करोड़ रुपए) का नुकसान हुआ है। इसके बावजूद, घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुकूलन फंडिंग (अडाप्टेशन फंडिंग) कम ही मिल पा रही है। अनुकूलन फंडिंग, वह आर्थिक सहायता होती है जो जलवायु परिवर्तन के अपेक्षित प्रभावों जैसे अनियमित वर्षा, सूखा और औसत तापमान में परिवर्तन से होने वाले असर को कम करने से जुड़े प्रयासों के लिए दी जाती है।

ग्लोबल साउथ (दक्षिणी गोलार्ध में पड़ने वाले देश जिसमें भारत, चीन, ब्राज़ील, मैक्सिको वग़ैरह शामिल हैं) का अधिकांश हिस्सा खुद को कुछ ऐसी ही स्थिति में पाता है। जलवायु जोखिम सूचकांक के अनुसार एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देश जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हैं। इसके बावजूद अनुकूलन प्रयासों के लिए दी जाने वाली फंडिंग पर, ख़ासतौर से अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर, पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यहां तक कि विकासशील देशों को साल 2020 तक 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर का फंड उपलब्ध कराने की मंशा से स्थापित की गई संस्था ग्रीन क्लाइमेट फंड को भी साल 2019 तक कुल निर्धारित राशि का मात्र 10 फीसदी ही प्राप्त हो सका था।

इस संदर्भ में, जुलाई 2023 में जारी हार्नेसिंग फिलैंथ्रोपी फॉर क्लाइमेट एक्शन पॉलिसी ब्रीफ, ग्लोबल साउथ में अनुकूलन फंडिंग में समाजसेवियों (फिलैंथ्रोपिस्ट) की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है। यह इंगित करता है कि कैसे जी20 फोरम – जिसमें 19 देश और यूरोपीय संघ शामिल हैं – इन चुनौतियों को सामूहिक रूप से संबोधित करने के लिए सदस्य देशों के बीच सहयोग का एक अनूठा अवसर प्रदान कर सकता है। यह मंच ऐसी चर्चाओं, प्रतिबद्धताओं और सहयोगी कार्रवाइयों को सुविधाजनक बना सकता है जो विकासशील देशों की अनुकूलन आवश्यकताओं को अधिक प्रभावी ढंग से पूरा कर सकते हैं। इससे जलवायु परिवर्तन की स्थिति में सार्थक प्रगति के लिए एक मंच तैयार होता है। यहां पॉलिसी ब्रीफ की परिकल्पना के बारे में बताया गया है:

1. उत्तरदक्षिण परोपकारी साझेदारी

चूंकि अनुकूलन उपाय आमतौर पर स्थानीय स्तर पर केंद्रित होते हैं, इसलिए विकासशील देशों में जलवायु अनुकूलन रणनीतियों में निवेश के लिए उपयुक्त विकल्पों का अभाव दिखाई पड़ता है। अनुकूलन प्रयासों की अतिस्थानीय प्रवृति के कारण अंतर्राष्ट्रीय दाता भी अक्सर राज्य के प्रतिनिधियों और नीतियों को लागू करने वाले हितधारकों से अपरिचित होते हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए, जी20 के सदस्य एक निकटवर्ती ‘फिलैंथ्रोपी 20’ का निर्माण कर सकते हैं, जिसके जरिए वे वैश्विक फायनेंसर्स को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार स्थानीय स्तर पर काम करने वाले लोगों से जुड़ने में मदद कर सकते हैं। बातचीत से जलवायु कार्रवाई से जुड़ी सामान्य जरूरतों को समझा जा सकता है और फिर उसके अनुसार धन का सही उपयोग किया जा सकता है।

2. संयुक्त शोध

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जुड़े आंकड़ों का उपलब्ध न होना ग्लोबल साउथ में एक बड़ी चिंता का विषय है। ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ में, जलवायु परिवर्तन पर शोध का अनुपात 3:1 है। आंकड़ों की यह कमी ग्लोबल साउथ में जलवायु प्रयासों के लिए योजना निर्माण को बाधित करता है। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इसका असर अधिक दिखाई देता है। इस असमानता का मुख्य कारण सूक्ष्म-स्तरीय शोध के लिए वित्त और तकनीक की कमी है। हालांकि समाजसेवी प्रयास, जी20 के सदस्यों के बीच ज्ञान के पारस्परिक आदान-प्रदान पर केंद्रित सहयोगी शोध परियोजनाओं से जुड़ी आर्थिक कमियों को पूरा करने में मदद कर सकते हैं। इस शोध से प्रभावी जलवायु कार्रवाई के लिए सबसे बेहतर तरीक़े तैयार करने में मदद मिल सकती है। इस अध्ययन में नागरिक समाज संगठन और इससे जुड़े काम करने वाली सभी इकाइयों को भी शामिल किया जा सकता है ताकि स्थानीय लोगों और उनके अनुभवों पर भी गौर किया जा सके।

3. मुख्यधारा की स्थानीय शब्दावली

स्थानीय भाषा और शब्दावली के आधार पर, जलवायु संवाद तैयार करना महत्वपूर्ण है। इससे समाजसेवियों को जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रयासों के लिए स्थानीय संदर्भों को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिल सकती है। साथ ही, समुदायों के लिए अपने जीवन में दिख रहे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को पहचानना और समझना आसान हो सकता है। स्थानीय मीडिया, भारत सरीखे देशों जहां कई भाषाओं और विभिन्न संस्कृतियों वाली विविधता होती है, में स्थानीय जलवायु शब्दकोश को मुख्यधारा में लाने की ज़िम्मेदारी निभा सकता है। इसके बाद जी20 देश जलवायु परिवर्तन पर मानक वर्गीकरण तैयार करने के लिए अपनाए गये सबसे कारगर तरीक़ों (बेस्ट प्रैक्टिस) को एक-दूसरे के साथ साझा कर सकते हैं।

4. व्यापक व्यवहार परिवर्तन अभियान

संसाधनों के सजग उपयोग वाली जीवनशैली को बढ़ावा देने के क्रम में – जैसा कि भारत ने सीओपी27 के दौरान इसके लाइफ इनिशियेटिव के माध्यम से पेश किया था – जी20, व्यापक व्यवहार परिवर्तन अभियान चलाने से जुड़े प्रयासों को आगे बढ़ा सकता है। यह जीवनशैली में बदलाव जैसे कि उपयोग में ना होने पर इलेक्ट्रॉनिक्स को बंद करना, पानी का सोच-समझकर उपयोग करना और प्लास्टिक के उपयोग को प्रतिबंधित करने जैसी बातों को मुख्यधारा में शामिल कर सकता है। इन प्रस्तावों में, जो लाइफ इनिशियेटिव का हिस्सा हैं, 2030 तक वैश्विक स्तर पर 440 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बचत की क्षमता है। जी20 देशों के परोपकारी साझा उद्देश्यों को अपनाने और सामाजिक नेटवर्क की ताकत का लाभ उठाकर सस्टेनिबिलिटी के आसपास संवाद शुरू करने में मदद कर सकते हैं।

नाव खेते हुए कुछ लोग_जी20 में भारत
स्थानीय भाषाओं और शब्दावलियों के आधार पर जलवायु कथन को विकसित करना बहुत महत्वपूर्ण है | चित्र साभार: राजेश पमनानी / सीसी बीवाय

जी20 के लिए सुझाव

यहां जी20 के लिए परोपकारी वित्तपोषण को निर्देशित करने के लिए कुछ प्रमुख फोकस क्षेत्रों पर बात की गई है: 

1. क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर (सीएसए)

सीएसए कृषि में स्थायी प्रथाओं को शामिल करता है और इसका लक्ष्य इसे जलवायु के प्रति अधिक लोचदार बनाता है। उदाहरण के लिए, यह फसल की उन क़िस्मों के उपयोग की बात करता है जिनमें अत्यधिक तापमान और अनियमित वर्षा पैटर्न के लिए अधिक प्रतिरोधक क्षमता हों। यदि इसे अपनाया जाता है तो यह कृषि प्रणालियों की दक्षता बढ़ाने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और जलवायु परिवर्तन के वर्तमान और भविष्य के परिणामों के लिए तैयार करने में मदद करता है। सरकारों को जहां सीएसए को बढ़ावा देने और अपनाने के लिए संस्थागत बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की आवश्यकता है। वहीं समाजसेवी, भूमिधारकों – ख़ासतौर पर छोटे और सीमांत किसानों – को, ऋण के साथ-साथ तकनीकी सहायता तक पहुंचने में मदद करने के लिए बहुत आवश्यक सहायता प्रदान कर सकते हैं। विशेष रूप से, जी20 के लिए दिये जाने वाले सुझाव निम्नलिखित बिंदुओं पर प्रकाश डालते हैं:

अ) ग्लोबल साउथ में सीएसए को लागू करने और बढ़ाने के लिए परोपकारी पूंजी का संयोजन: जलवायु के अनुकूल स्वदेशी किस्मों के शोध और विकास पर ध्यान केंद्रित करना और ऐसी फसलों के लिए बाजार और आपूर्ति श्रृंखला के बुनियादी ढांचे का निर्माण करना।

ब) छोटे और सीमांत किसानों की ताकत का लाभ उठाने के लिए समुदाय-आधारित संगठनों का समर्थन: सीएसआर फंडिंग के साथ, परोपकारी अनुदान किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) को तकनीकी जानकारी, बाजार संपर्क स्थापित करने और व्यवसाय योजनाएं विकसित करने में मदद कर सकते हैं ताकि वे छोटे और सीमांत किसानों के लिए आय के स्थायी स्रोत बन सकें।

2. मिश्रित वित्त के माध्यम से छोटे उद्यमियों के लिए ऋण

कम आय वाले क्षेत्रों और हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिए, अनुकूलन के लिए पर्याप्त धन की उपलब्धता एक बड़ी बाधा है। लेकिन मिश्रित वित्त इसका एक समाधान पेश करता है। इसका उपयोग प्रभाव-संचालित परियोजनाओं, जैसे कि जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित परियोजनाओं का समर्थन करने के लिए विभिन्न वित्तीय उपकरणों के साथ प्रयोग करने के लिए किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, बिना क्रेडिट ट्रेल वाले सूक्ष्म-उद्यमियों को पूंजी मुहैया करवाने या ऋण देने की स्थिति में बैंकों और निजी निवेशकों के सामने आने वाली समस्याओं के जोखिम को एक हद तक कम करने के लिए परोपकारी फंड का इस्तेमाल किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए, लचीले और वापस किए जाने योग्य अनुदानों और फर्स्ट लॉस डिफ़ॉल्ट गारंटीज जैसे परोपकारी फ़ंडिंग उपकरणों का उपयोग, ऐसे जलवायु-केंद्रित सूक्ष्म व्यवसायों का समर्थन करने के लिए किया जा सकता है। निजी फाउंडेशन, प्रभावशाली निवेश को प्रोत्साहित करने और निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी करने के लिए उत्प्रेरक वित्तपोषण का भी उपयोग कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, फिलैंथ्रोपिक फंडिंग सार्वजनिक क्षेत्र में नवाचार से जुड़े जोखिम को कम करने में सहायता प्रदान कर सकती है। इससे निजी क्षेत्र द्वारा निवेश के साथ-साथ नए समाधानों के विकास को भी बढ़ावा मिलेगा।

3. जलवायु के मुताबिक ढलने वाला बुनियादी ढांचा

जलवायु-परिवर्तन-प्रेरित आपदाओं में हो रही वृद्धि के साथ, जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों के पुनर्वास और जलवायु-रिजिलियेंस वाले बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित करना महत्वपूर्ण है। इसे सामाजिक सुरक्षा उपायों और परोपकारी पूंजी (फिलैंथ्रोपिक कैपिटल) को सरकारी योजनाओं के साथ एकीकृत करके किया जा सकता है। भारत में, मनरेगा एक ऐसा ही सहयोगी मार्ग प्रदान करता है। यह योजना 2006 से भारत में ग्रामीण परिवारों को अकुशल शारीरिक श्रम के अवसर प्रदान कर रही है और सूखे जैसे संकट के समय में समुदायों के लिए राहत का एक प्रमुख स्रोत है। इसके कई पर्यावरणीय लाभ भी हैं क्योंकि योजना के तहत आने वाली कई गतिविधियां जल, भूमि और पेड़ों जैसे प्राकृतिक संसाधनों की बहाली से संबंधित हैं। समुदायों द्वारा इन परिसंपत्तियों के संरक्षण से उन्हें लंबी अवधि में अपनी आय बढ़ाने में मदद मिल सकती है। ऐसे जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखकर तैयार किए गए बुनियादी ढांचे में परोपकारी निवेश महत्वपूर्ण है और इसे सरकारों के साथ-साथ निजी क्षेत्र द्वारा अन्य इलाक़ों में भी अपनाया और दोहराया जा सकता है।

4. जोखिम के लिए तैयार डिजिटल टूलकिट

जलवायु-संबंधी किसी भी परिदृश्य के लिए बेहतर ढंग से तैयार होने के लिए जोखिमों का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम एक जलवायु टूलकिट तैयार करना महत्वपूर्ण साबित हो सकता है, विशेष रूप से ग्लोबल साउथ देशों के लिए जो इससे असंगत रूप से प्रभावित होते हैं। सदस्य इस टूलकिट के लिए एक डिजिटल डेटाबेस के विकास में अपना सहयोग दे सकते हैं जो बारीक डेटा को पकड़ने और सूक्ष्म स्तर के परिवर्तनों और किसी विशेष क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की सटीक भविष्यवाणी करने में मदद करता है। परोपकारी लोग इस शोध के लिए परियोजनाओं को फंड कर सकते हैं ताकि डेटाबेस वास्तविक समय में सूचना के आदान-प्रदान को सक्षम करने के साथ ही किसानों को नवीनतम जानकारी प्रदान कर सके। ऐसा डिजिटल टूलकिट सबसे अधिक जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों को भी सामने ला सकता है ताकि दानकर्ता इन क्षेत्रों को भी धन आवंटित कर सकें।

5. सामाजिक नवाचार हैकथॉन

सामाजिक नवाचार हैकथॉन समाजसेवकों, नागरिक समाज संगठनों, नीति निर्माताओं और अन्य हितधारकों को एक साथ आने और अपने-अपने ज्ञान साझा करने के माध्यम से अपने प्रभाव को अधिक से अधिक बढ़ाने का अवसर पैदा करते हैं। ऐसे मंच समाजसेवी संस्थाओं के लिए स्थानीय नवाचारों को आगे बढ़ाने और उन वैश्विक दानकर्ताओं से जुड़ने के लिए बेहद फायदेमंद हो सकते हैं, जिन तक उनकी पहुंच संभव नहीं होती। सोशल इनोवेशन हैकथॉन सभी जी20 देशों में, नए तरीक़े से काम करने या खोज करने वाले लोगों को मेंटरशिप प्रदान कर सकता है और जी20 स्तर पर इन नवाचारों को आगे बढ़ाने में मदद कर सकता है।

6. शहरी केन्द्रों में स्थिरता

चूंकि शहरों में गर्मी की स्थिति बदतर होती जा रही है, इसलिए उनकी अनुकूलन क्षमताओं को बढ़ाने की योजना बनाते समय स्थायी और टिकाऊ अभ्यासों को शामिल करना महत्वपूर्ण है। इसलिए, शहरी विकास योजना पहलों को प्रकृति-आधारित समाधानों जैसे कि ग्रीन एंड ब्ल्यू स्पेसेज आदि को प्राथमिकता देनी चाहिए। सरकारी-निजी इकाइयां और समाजसेवी एक साथ मिलकर शहरी केंद्रों, विशेष रूप से ऊर्जा समाधान की आवश्यकता वाले निम्न-आय वाले क्षेत्रों में ऐसे संसाधनों को विकसित कर सकते हैं।

यह लेख सुखरीत बाजवा और दीपा गोपालकृष्णन द्वारा लिखित हार्नेसिंग फ़िलैंथ्रोपी फॉर क्लाइमेट एक्शन पॉलिसी ब्रीफ पर आधारित है।

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समाजसेवी संगठन डिजिटल परिवर्तन के लिए तकनीकी क्षमता निर्माण कैसे करें? 

डिजिटल तकनीक का उपयोग दुनिया को बदल रहा है। लगभग सभी क्षेत्रों में नवाचार, परिचालन क्षमता, स्केलेबिलिटी और बेहतर ग्राहक अनुभव को बढ़ावा दिया जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में, बड़ी संख्या में समाजसेवी संस्थाओं ने, अपने विस्तार और प्रभाव जैसे लक्ष्यों को हासिल करने में डिजिटल तकनीक द्वारा निभाई जा सकने वाली महत्वपूर्ण भूमिका की संभावनाओं को देखना शुरू किया है। इससे प्राप्त आंकड़े फंडरेजिंग और डोनर के साथ संवाद में भी मददगार होते हैं। लेकिन अब भी ज्यादातर समाजसेवी संस्थाएं डिजिटाईजेशन को बढ़ावा देने को लेकर सीमित प्रयास ही करती हैं। इसकी वजह उनकी टीम के भीतर समझ और संसाधन की कमी होना है। डेवलपमेंट सेक्टर में तकनीकी क्षमता और प्रतिभा के निर्माण को लेकर लगातार चर्चा होती रहती है, लेकिन वास्तव में इसका क्या मतलब है?

पिछले सात वर्षों में हमने कोइटा फाउंडेशन में 15 से अधिक समाजसेवी संस्थाओं को तकनीकी रूप से सक्षम समाधान देने पर विस्तृत काम किया है। इसमें जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए उनके कामकाज का प्रबंधन करने वाला एप्लिकेशन बनाना, बिजनेस इंटेलिजेंस (बीआई) एनालिटिक्स विकसित करना और प्रोजेक्ट मैनेजमेंट से जुड़े उपकरणों से काम लेना शामिल है।

यहां कुछ ऐसे उपाय बताये जा रहे हैं जिससे किसी संगठन के तकनीक क्षमता निर्माण में मदद मिल सकती है।

1. अपने अनुभवी साथियों से बात करें

समान कार्य कर रहे और तकनीक को सफलतापूर्वक लागू करने वाले दूसरे संगठनों से संपर्क करें। क्षेत्र के अन्य नेताओं से बात करने से तकनीक को अपनाने की जटिलताओं और उसके फायदों को समझने में मदद मिलती है। इसके अलावा, इससे नेतृत्व को अपने संगठन के भीतर तकनीक के विचार के साथ सहज होने में भी आसानी होती है।

2. तकनीक का उपयोग करने के लिए सही फोकस क्षेत्रों का चयन करें

ज्यादातर संगठनों में ऐसी कई समस्याएं होती हैं जिनका समाधान तकनीक के इस्तेमाल से किया जा सकता है। संगठन प्रमुखों के लिए ऐसे क्षेत्रों की पहचान करना बहुत महत्वपूर्ण होता है जहां तकनीक का उपयोग सबसे अधिक कारगर साबित हो सकता हो। इतने वर्षों के अनुभव से हमने जाना कि संगठनों को ‘बैक-एंड’ प्रक्रियाओं (उदाहरण के लिए, वित्त एवं एचआर) की बजाय उनकी ‘फ्रंट-एंड’ प्रक्रियाओं (उदाहरण के लिए, संगठन अपने साथ काम करने वाले समुदायों के साथ कैसे जुड़े) के लिए तकनीकी मदद मुहैया करवाने से जुड़े प्रयास और निवेश पर अधिक उपयुक्त होते हैं। फ्रंट-एंड प्रक्रियाओं में तकनीक का इस्तेमाल समग्र परिचालन क्षमता, गुणवत्ता और स्केलेबिलिटी को बेहतर करता है। यह बदले में समुदायों, दानदाताओं और अन्य हितधारकों के साथ एक बेहतर चक्र बनाता है।

3. सुनिश्चित करें कि यह सीईओ और वरिष्ठ नेतृत्व की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर है

ऐसा करना महत्वपूर्ण है। डिजिटल होने की चाहत रखने वाले किसी संगठन के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त सीईओ और शीर्ष नेतृत्व की इस विचार के प्रति प्रतिबद्धता है। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मानदंड टीम को इसके लिए तैयार करना है। डिजिटल प्रबंधन, प्रबंधन में परिवर्तन की मांग करता है। इसके लिए दृढ़ता की आवश्यकता होती है, और यह प्रक्रिया अत्यधिक असमान और उतार-चढ़ाव से भरी हो सकती है। सीईओ और वरिष्ठ नेतृत्व के पूर्ण समर्थन और मार्गदर्शन के बिना, इस तरह के परिवर्तन के सफल होने की संभावना बहुत कम होती है।

जहां नेतृत्व के पास किसी प्रकार की तकनीकी पृष्ठभूमि या अनुभव होने की स्थिति में, डिजिटल होना आसान हो सकता है, वहीं उनके लिए प्रक्रिया में शामिल होना और तकनीक टीम या बाहरी विक्रेताओं के साथ जुड़कर इसके लिए कुछ समय देना अधिक महत्वपूर्ण है।

4. तकनीक सलाहकार से मदद लें

ज़्यादातर संगठनों को ऐसे तकनीकी सलाहकार के संपर्क में रहने से लाभ होता है जो इस यात्रा में उनका मार्गदर्शन कर सकते हैं। तकनीकी सलाहकारों की नियुक्ति प्रक्रिया में बोर्ड के सदस्य आमतौर पर तकनीक नेटवर्क का लाभ उठाने का एक बढ़िया स्रोत होते हैं।

सलाहकार, प्रमुख पहलुओं, जैसे तकनीक का उपयोग करने के लिए सही फोकस क्षेत्र की पहचान करना, व्यावसायिक आवश्यकताओं को सुव्यवस्थित करना, पूरा करने के लिए एक रोड मैप बनाना, तकनीक को खुद बनाने या ख़रीदने के विकल्पों पर सोचने और उपयुक्त तकनीकी विक्रेताओं की पहचान आदि में मददगार साबित हो सकते हैं।

यदि कोई संगठन केवल किसी वेंडर से सलाह लेता है तो उस स्थिति में उनके पास संगठन के लिए सही फोकस क्षेत्र की पहचान करने या आवश्यकताओं को तर्कसंगत बनाने की क्षमता नहीं होती है और वे केवल आपकी मांग की पूर्ति में सक्षम होते हैं। यह किसी आर्किटेक्ट से स्पष्ट डिज़ाइन प्राप्त किए बिना काम शुरू करने के लिए इमारत बनाने वाले किसी ठेकेदार को लाने जैसा है। इससे बहुत सारे काम दोबारा करने की ज़रूरत पड़ सकती है जिसमें धन और समय दोनों खर्च होते हैं।

डेस्क पर रखे कुछ डेस्कटॉप_तकनीकी क्षमता निर्माण
डिजिटलीकरण को आगे बढ़ाने के लिए समाजसेवी संस्थाएं अपनी टीम के भीतर समझ और संसाधनों की कमी के कारण सीमित हैं। | चित्र साभार: पीकपिक

5. एक कोर टीम बनाएं

नेतृत्व को राज़ी करने के अलावा, संगठनों को एक ऐसी कोर टीम का निर्माण करने की आवश्यकता होती है जो व्यापारिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेगा। इस टीम में दो या तीन लोग हो सकते हैं जिसमें उस विशेष कार्यक्रम के प्रमुख भी शामिल हैं जिसके लिए तकनीक लागू की जानी है। ज़रूरी नहीं है कि इस टीम के सदस्यों के पास तकनीक से जुड़ा अनुभव हो लेकिन वरिष्ठ नेतृत्व को ऐसे लोगों की तलाश करनी चाहिए जिनके पास समस्या-समाधान और गुणवत्ता/प्रक्रिया में सुधार के लिए आवश्यक योग्यता और रुचि हो। आवश्यक कौशल में उपयोगकर्ताओं के दृष्टिकोण से सोचने में सक्षम होना और फ़ील्ड में काम कर रही टीम को तकनीकी सहायता से काम करने के लिए राज़ी करना भी शामिल है।

6. तकनीक के सबसे अंतिम उपयोगकर्ता के साथ संपर्क बनाएं

तकनीकी क्षमता के निर्माण का एक हिस्सा उन उपयोगकर्ताओं (जैसे कि फ़ील्ड टीमों) को शामिल करना और प्रशिक्षित करना है, जिन्हें प्रौद्योगिकी उपकरणों का सही और लगातार उपयोग करने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, संगठन को टूल के रोल-आउट के दौरान प्रासंगिक तकनीकी सहायता प्रदान करनी चाहिए। हमने विप्ला फाउंडेशन के साथ काम किया था जो एक ऐसी समाजसेवी संस्था है जिसने अपने बालवाड़ी शिक्षकों को स्मार्टफोन दिलवाने के लिए डोनर और वॉलंटीयर अभियान चलाया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि शिक्षकों के पास काम करने के लिए मोबाइल फ़ोन हो और उसके बाद उन्होंने एक व्यवस्थित प्रशिक्षण योजना बनाई ताकि सभी बालवाड़ी शिक्षक कार्यक्रम के महत्व को, शिक्षकों और छात्रों के लिए इसकी समग्रता से समझ सकें। इसके अतिरिक्त उन्होंने सभी शिक्षकों को ऑफलाइन क्रियान्वयन सहित एप्लिकेशन की सभी सुविधाओं के बारे में भी बताया।

इस दृष्टिकोण से बलवाड़ी शिक्षकों की समझ विस्तृत हुई और और बाद में उन्हें इस पहल का समर्थन करने में मदद मिली, हालांकि नए तकनीकी उपकरण सीखने और उसका उपयोग करने के लिए उन्हें कुछ अतिरिक्त प्रयास करने पड़े।

इस तरह का सतत सहयोग महत्वपूर्ण है ताकि आपकी पूरी टीम -मुख्य कार्यालय से फ़ील्ड में कार्यरत सदस्य तक- तकनीक को लेकर सहज महसूस करे। साथ ही, संगठन के डिजिटलीकरण की ओर बढ़ने के कारण को लेकर स्पष्ट समझ विकसित कर सके।

7. इसे करने वाले लोगों की खोज करें

इस काम को करने के कई तरीके हैं। इसका एक उपाय अपने संगठन के भीतर ही ऐसे लोगों की तलाश करना है। हालांकि, कार्यक्रम या उत्पाद प्रबंधन पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इस डिजिटलीकरण का नेतृत्व करने के लिए उपयुक्त विकल्प होता है। लेकिन ऐसा भी संभव है कि अधिकांश समाजसेवी संगठनों के पास ऐसे लोग ना हों। ऐसा अंतरंग फाउंडेशन के साथ-साथ विप्ला फाउंडेशन में भी हुआ है, जहां तकनीकी सोच वाले परिचालन प्रबंधकों ने संपर्क बिंदु के रूप में काम किया है और समाजसेवी संस्थाओं की आवश्यकताओं को सॉफ्टवेयर डेवलपर तक पहुंचाया है।

एक दूसरा दृष्टिकोण यह है कि इस तरह की प्रतिभा को बाहर से ढूंढ कर लाया जाए। किसी भी समाजसेवी संगठन या संस्था के लिए सीटीओ की नियुक्ति करना कठिन हो सकता है, जब तक कि नेतृत्व और/या बोर्ड के सदस्यों को ऐसे लोगों के बारे में पता न हो जो विकास क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं। स्थान भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है – टियर-2 या टियर-3 नगरों की की तुलना में मुंबई और बंगलुरु जैसे बड़े शहरों में तकनीक सलाहकारों की तलाश करना आसान होता है।

जहां सीटीओ की नियुक्ति एक कठिन प्रक्रिया है, वही समाजसेवी संगठन, कार्यक्रम की टेस्टिंग और प्रबंधन जैसे तकनीकी पहलुओं के लिए जूनियर पदों पर नियुक्ति कर सकते हैं। यह जूनियर कार्यकर्ता तकनीक-साक्षर ऑपरेशन या कार्यक्रम प्रबंधक को अपनी रिपोर्ट पेश कर सकता है।

8. अंत में, इसके लिए फंड की व्यवस्था करें

तकनीक के लिए धन जुटाना कठिन है, खासकर तब जब आपके दानदाताओं की रुचि फंडिंग कार्यक्रमों में अधिक हो। यह उन समाजसेवी संस्थाओं के लिए विशेष रूप से सच है जिन्हें दानदाताओं के सामने अपने काम से आने वाले प्रभावी बदलावों की रिपोर्टिंग – जब आपके पास अपने कार्यक्रमों को बेहतर ढंग से चलाने के लिए डिजिटलीकरण की आवश्यकता को प्रमाणित करने वाले आंकड़े (जिसे प्राप्त करने में तकनीक आपकी मदद कर सकता है) उपलब्ध नहीं हैं तो आप इसके लिए धन की मांग कैसे कर सकते हैं – को लेकर संघर्षरत रहना पड़ता है।

हमने अक्सर देखा है कि एक बार सब समाजसेवी संगठन तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं, तब उससे प्राप्त आंकड़ों का उपयोग मज़बूती से अपनी बात कहने और अतिरिक्त फ़ंडिंग के लिए दानकर्ताओं को तैयार करने में किया जा सकता है।

इसलिए, स्पष्ट उद्देश्यों और एक तय मानसिकता के साथ तकनीकी पहलों की शुरूआत करना और उनकी सफलता पर ध्यान केंद्रित रखना महत्वपूर्ण होता है।

हमें तकनीक को एक रणनीतिक उपकरण के रूप में देखना शुरू करना होगा जो संगठन को मानक प्रक्रियाओं और उचित उपकरणों के माध्यम से विश्वसनीय डेटा संग्रह के आधार पर मैन्युअल, गैर-मानक संचालन से डेटा-संचालित संस्कृति में विकसित करने में मदद कर सकता है। रणनीति निर्माण की प्रक्रिया के दौरान ही नेताओं को तकनीक को इसका एक अभिन्न अंग मानकर शामिल करना चाहिए और इसे बाद के लिए नहीं छोड़ना चाहिए।

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एफआरए के तहत सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा कैसे कर सकते हैं?

वन अधिकार अधिनियम, 2006 (फ़ॉरेस्ट राइट एक्ट – एफआरए) के तहत आदिवासी और अन्य परंपरागत वन-निवासी समुदाय, वनों पर व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और अन्य वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। गांव की परंपरागत सीमा के भीतर आनेवाले आरक्षित वन, संरक्षित वन भूमि, अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यानों तथा सरकारी रेकॉर्ड में दर्ज हर किसान की वनभूमि पर एफआरए लागू होता है। एफआरए, इन क्षेत्र में आने वाले वन संसाधनों पर ग्रामसभा और गांव में रहनेवाले समुदायों का अधिकार होने की बात कहता है। इन्हें सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (कम्यूनिटी फ़ॉरेस्ट रिसोर्स राइट्स – सीएफआरआर) कहा जाता है।

एफआरए के तहत वन अधिकार हासिल करने के लिए आवेदक का 13 दिसंबर, 2005 या उससे पहले से इस वन भूमि पर काबिज होना एक मात्र शर्त है। इसके साथ ही, वन पर निर्भर अन्य परंपरागत निवासियों का वहां कम से कम तीन पीढ़ियों से रहना जरूरी है। वन अधिकार के दावों की जांच पहले ग्रामसभा, फिर उप-खंडा स्तर (सब-डिवीडनल लेवल) और जिला स्तर पर की जाती है। दावे के निरस्त होने की स्थिति में इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को इसके बारे में सूचित किया जाता है ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें। कुल मिलाकर, कई पीढ़ियों से वन भूमि पर रह रहे, खेती कर रहे और वनोपज का लाभ ले रहे लोग जो अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर है, एफआरए के तहत वन अधिकारों की मांग कर सकते हैं।

एफआरए को लेकर अभी क्या स्थिति है?

फाउंडेशन फ़ॉर इकॉलॉजिकल सेक्योरिटी (एफईएस) एक ऐसी संस्था है जो देश में जल, जंगल और चारागाह के संरक्षण से जुड़े काम करती है। इसमें आदिवासी समुदायों को उनके वन अधिकार दिलाना भी प्रमुख रूप से शामिल है। छत्तीसगढ़ में एफईएस द्वारा ग्राम सभाओं की जागरूकता के लिए चलाए गए, ‘सामुदायिक वन संसाधन अधिकार अभियान’ के दौरान देखा गया कि एफआरए आने के कई सालों बाद भी, केवल शासकीय तंत्र के लिए ग्राम सभाओं तक इसकी जानकारी पहुँचाना और उन्हें समझाना चुनौती पूर्ण रहा है। एफआरए के सही पालन के लिए तीन महत्वपूर्ण विभाग जैसे राजस्व, वन और आदिम जाति विभाग में बेहतर समन्वय और आपसी संवाद की आवश्यकता है। जमीनी स्तर पर काम करने वाली स्थानीय संस्थाएं ऐसा काम नहीं कर पा रही थीं जिससे कि बहुत अधिक फर्क लाया जा सके।

जमीनी स्तर पर काम करने वाली स्थानीय संस्थाएं ऐसा काम नहीं कर पा रही थीं जिससे फर्क लाया जा सके।

ऐसे में दो विकल्प सामने आते हैं, लोग (या समुदाय) स्वयं सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा करें या समाजसेवी संस्था इस तरह के प्रयासों में सहयोग करें। लेकिन ऐसा करते हुए पहली बाधा होती है, कठिन क़ानूनी भाषा। किसी भी क़ानून को लागू करने की बात तो तब आएगी जब लोगों इसकी जानकारी और समझ होगी। यहां पर एफईएस जैसी समाजसेवी संस्थाएं कारगर साबित होती हैं। एफईएस ने सबसे पहले क़ानून की भाषा को सरल करने और उसे आम लोगों तक पहुंचाने पर काम किया है। यह आठ चरणों में बताता है कि जन समुदाय अपने वन अधिकारों को हासिल करने के लिए क्या कर सकता है।

वन अधिकार हासिल करने की प्रक्रिया क्या है

1. दावों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए ग्राम सभा की बैठक का आयोजन करना

वन अधिकार हासिल करने के लिए ऊपर बताई गई शर्तें पूरी करने वाले लोग साथ आकर सामुदायिक वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले आपको ग्रामसभा बुलानी होगी। ग्रामसभा की इस बैठक में सामुदायिक वन संसाधन अधिकार दावे के लिए आवेदन करने और उसे स्वीकार करने से जुड़े फैसले किए जाते हैं। यानी, यह कि कौन कौनसा क्षेत्र इस दावे में आएगा और इनमे से कितना क्षेत्र व्यक्तिगत अधिकार के क्षेत्र में आते हैं जिन्हें अलग करना है। इस बैठक और उसमें शामिल विषयों की सूचना उप-खंड स्तरीय समिति (सब डिवीजनल लेवल कमेटी – एसडीएलसी) को दी जाती है। इस बैठक में वन अधिकार समिति (फ़ॉरेस्ट राइट्स कमेटी – एफआरसी) का गठन भी किया जाता है जो आवेदन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है और उसकी निगरानी करती है। इसमें ग्राम पंचायत, खास कर पंचायत सचिव समुदायों की मदद करते हैं। इसके बाद, परंपरागत सीमा के पहचान के लिए कोर समूह का गठन किया जाता है। इसके लिए, एफआरसी के अध्यक्ष और सचिव एक सूचना तैयार करते हैं जिसमें कोर समूह के सदस्यों के नाम, अगली बैठक की तारीख़, जगह और समय की जानकारी दी जाती है।

इस चरण में आनेवाली चुनौतियों की बात करें तो कई बार ऐसा होता है कि ग्रामसभा एफआरए का प्रस्ताव करने की बैठक करने जा रही होती है लेकिन पंचायत सचिव को इसकी जानकारी नहीं होती है और वो सहयोग नहीं कर पाते हैं। पंचायत सचिव उपस्थित हो भी तो जरूरी नहीं है कि उसे एफआरए या सीएफआरआर की जानकारी होगी ही। पटवारी और वन रक्षक जैसे सरकारी प्रतिनिधियों का होना भी जरूरी होता है जो कई बार कठिन क़वायद बन जाता है। चूँकि ब्लाक स्तर पर आवेदन को जमा करने की कोई एकल खिड़की का प्रावधान स्पष्ट नहीं है इसलिए अलग अलग राज्यों या जिलों ने अपने स्तर पर अलग अलग व्यवस्था बनायीं है। यह सब ग्राम सभा के लिए एक चुनौती हो जाती है। एफआरए की मांग करने वाले लोगों, समुदायों या समाजसेवी संस्थाओं को सबसे पहले इस बात की तैयारी रखनी चाहिए कि इस पूरी प्रक्रिया में आपको कई बार एक से दूसरे ब्लॉक स्तर के सरकारी दफ्तरों में जाना पड़ सकता है। इसका कारण यह है कि ज्यादातर राज्यों में इसे लेकर अभी तक कोई व्यवस्था या क्रम नहीं तय हो पाया है।

जंगल में औरतें काम करती हुई_सामुदायिक वन अधिकार
एफआरसी, कोर समूह और अपने गांव की सीमा से लगे सभी गांवों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर गांव की परंपरागत सीमाओं का निर्धारण करती है। | चित्र साभार: एफईएस

2. एफआरसी की बैठक

दूसरा चरण वन अधिकार समिति की बैठक है जिसका आयोजन दावा प्रक्रिया शुरू करने के लिए होता है। इसमें दावों की तैयारी के चरण और तरीक़ों पर बात की जाती हैं और लोगों को अलग-अलग कामों की जिम्मेदारियां बांटी जाती हैं। ये लोग एफआरसी और कोर समूह के प्रति जवाबदेह होते हैं।

अगर आप एक समाजसेवी संस्था के तौर पर एफआरए के लिए काम कर रहे हैं तो आपको ध्यान रखना होगा कि इन प्रयासों पर काम करने वाले वॉलंटीयर उसी समुदाय के हों जिनके साथ काम किया जा रहा है। जमीन पर काम करने वाले जानकार अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि अब तक पेशेवर लोग इसमें सफल नहीं हो सके हैं। सिर्फ भाषा का ही उदाहरण लें तो बहुत सारे शब्द (टर्म) अलग-अलग इलाक़ों में बदल जाते हैं। ऐसे में क्षेत्रीय भाषा, प्रतीक और परंपरा को ध्यान में रखते हुए प्रक्रिया को अपनाना और लोगों को जिम्मेदारियां देना, बेहतर नतीजे देने वाला साबित हो सकता है।

3. गांव की सीमाओं का नजरी नक्शा

आम तौर पर गांव में रहने वाले लोग यह जानते हैं कि उनके गांव की सीमा कहां तक जाती है या इसके लिए उनके अपने चिन्ह होते हैं जिन्हें देखकर गांव की सीमा का अंदाज़ा लगाया जाता है। इसलिए इसे नजरी नक्शा कहा जाता है।

अगले चरण में एफआरसी, कोर समूह और अपने गांव की सीमा से लगे सभी गांवों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर गांव की परंपरागत सीमाओं का निर्धारण करती है। ऐसा करने वालों में गांव के बुजुर्ग, महिलाएं और परंपरागत ज्ञान रखने वाले लोग होते हैं। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में बात करें तो इसमें वैद्य, सिरहा, चरवाहे वगैरह को शामिल किया जाता है। इसके लिए एफआरसी, जंगल विभाग के बीटगार्ड, पटवारी और पंचायत सचिव को भी बुलाती है। इसके लिए उन्हें सूचना (सरकार द्वारा तय प्रारूप 5 सी में) दी जाती है। इन सबकी मौजूदगी में पारंपरिक सीमाओं का नजरी नक्शा तैयार किया जाता है। इस के साथ ही, वन संसाधनों की सूची और दावा पत्र तैयार किया जाता है। इन दावों की जानकारी रखने के लिए एक रजिस्टर, जिसे दावा पंजी कहा जाता है, में इनका विवरण लिखा जाता है।

सुदूर जंगली इलाक़ों में स्मार्टफ़ोन की उपलब्धता भी सहज नहीं है।

इस चरण में आनेवाली चुनौतियों की बात करें तो जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि एफआरए पर काम करते हुए उस इलाक़े, वहां रहने वाले लोगों और उनकी परंपराओं की समझ होना जरूरी है। अगर नजरी नक्शा बनवाने के उदाहरण को लें तो बस्तर में अगर इसे किसी मंदिर को परंपरागत सीमा माना जाएगा तो हो सकता है जसपुर में यह कुछ और हो। हर गांव की परंपरा या मान्यता, अगले गांव से अलग हो सकती है जिसका ध्यान समुदायों और समाज सेवी संस्थाओं दोनों को ही रखना चाहिए। ऐसा न किए जाने पर कई बार सीमा विवाद खड़े हो जाते हैं। यहां पर आपके लिए यह जानना जरूरी है कि इस तरह के विवाद होने पर उन्हें उपविभाग स्तरीय समिति (एसडीएलसी) सुलझाती है।

4. अनापत्ति प्रमाण पत्र

उपविभाग स्तर की समिति को भेजे जाने वाले दावों का सत्यापन करने से पहले पारंपरिक सीमा के मुताबिक मानचित्र तैयार किए जाते हैं। इसके लिए जीपीएस मशीन की मदद ली जाती है जो जंगल विभाग के पास होती है। इस चरण में कई बार यह समस्या आती है कि जीपीएस मशीन उपलब्ध नहीं हो पाती है। ऐसी परिस्थितियों में मोबाइल फ़ोन एक विकल्प हो सकता है लेकिन इसका इस्तेमाल करने की सलाह नहीं दी जाती है क्यों कि सरकारी विभाग इससे मिली जानकारी को मान्यता नहीं देते हैं। इसकी दूसरी वजह यह भी है कि सुदूर जंगली इलाक़ों में स्मार्टफ़ोन की उपलब्धता भी सहज नहीं है।

इस चरण में मानचित्र के साथ, अन्य प्रमाण जैसे पड़ोसी गांवों के बुजुर्गों के कथन और उन गांवों की वन अधिकार समितियों से अनापत्ति प्रमाण पत्र भी हासिल किए जाते हैं कि सीमा का निर्धारण सही किया गया है और उन्हें इसपर आपत्ति नहीं है। सीमा का निर्धारण होने के बाद वन अधिकार समिति के द्वारा उप- खंड स्तरीय समिति को सूचना भेजी जाती है कि वो सत्यापन के लिए प्रतिनिधि भेजें। इसके अलावा, निस्तार पत्रक यानी समुदाय द्वारा वन भूमि का इस्तेमाल करने की पुष्टि करने वाले दस्तावेज भी इकट्ठा किए जाते हैं।

5. सत्यापन समूह

अगले चरण में उपविभाग स्तर की समिति, दावों और दस्तावेज़ों के सत्यापन के लिए एक समूह को भेजती है। समूह के सदस्य, सामुदायिक वन अधिकार से जुड़े सभी प्रमाणों की जांच करते हैं और सत्यापन प्रतिवेदन को समिति के सामने रखते हैं। इन्हें ग्राम पंचायत के सामने रखने का ज़िम्मा एफआरसी का होता है।

6. ग्राम सभा में तैयार दावों की प्रस्तुति 

अगला चरण ग्रामसभा में दावे प्रस्तुत किए जाने का है। इस दौरान ग्राम सभा के सभी फ़ैसलों और सहमति का ब्यौरा एक प्रस्ताव रजिस्टर बनाकर उसमें दर्ज किया जाता है। इस पर सभी के हस्ताक्षर लेकर इसकी एक कॉपी, वन अधिकार दावा पंजी में रखी जाती है। इसे उपविभाग स्तर की समिति को सरकार द्वारा निर्धारित फ़ॉर्मेट में, सभी ज़रूरी दस्तावेज़ों के साथ भेजा जाता है।

7. उप-खंड स्तरीय समिति

उप-खंड स्तर की समिति, दावों की प्राप्ति के बाद संबंधित ग्रामसभा को तारीख़ समेत पावती देती है। इसके बाद यह अपने स्तर पर दावों की जांच करती हैं और सही पाए जाने पर इन्हें जिला स्तरीय समिति को भेज देती है।

8. जिला स्तरीय समिति

आख़िरी चरण में, जिला स्तरीय समिति, वन अधिकारों के दावे सही पाए जाने पर उन्हें मान्यता देने के लिए अधिकार पत्र देती है और अंतिम रूप देने के बाद उन्हें प्रकाशित करती है।

अगर आप एक समाज सेवी संस्था हैं तो आपको क्या ध्यान रखना है?

ओडिशा, झारखंड और तेलंगाना में सीएफआरआर अभियानों का नेतृत्व करने वालों का अनुभव रहा है कि वन अधिकार हासिल करने में, बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि किसी राज्य की सरकारी मशीनरी किस तरह से काम करती है। अपनी कोशिशों के दौरान संस्थाओं को सबसे पहले यह ध्यान रखना होता है कि यह एक केंद्रीय क़ानून है यानी देशभर में यह एक समान है। इसका मतलब है कि कोई भी राज्य इसके प्रावधानों में या इसे लागू करने के तरीके में अपने हिसाब से बदलाव नहीं कर सकता है। अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि पंचायत, सचिव वगैरह जैसे स्टेक होल्डर यह नहीं जानते थे कि इस क़ानून को कैसे लागू करना है। आप जिस किसी भी इलाक़े में काम कर रहे हों वहां आपको सरकारी विभागों के साथ किसी न किसी तरह का सहयोग कर के काम करना होता है। और, यह ध्यान में रखते हुए करना होता है कि सरकार के पास मैदानी अमले कम है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए की ट्राइबल, फ़ॉरेस्ट और रेवन्यू डिपार्टमेंट जैसे तमाम विभागों का आपस में संवाद और तालमेल बढ़े और पालन को बल मिले।

प्रयासों की शुरूआत ज़िला स्तर पर रिसोर्स पर्सन बनाने, उन्हें प्रशिक्षण देने और फिर समुदायों के साथ उन्हें जोड़ने का काम किया जा सकता है। समाजसेवी संस्थाओं और रिसोर्स पर्सन को सरकारी विभागों के साथ साझेदारी बनाने और क़ानून को लागू करने के लिए उनके साथ मिलकर एक व्यवस्था बनाने की तैयारी रखनी चाहिए। इसके बाद वे उस चरण में पहुंच सकते हैं जहां लोगों को बता पाएं कि वे किस प्रक्रिया का पालन कर अपने वन अधिकार हासिल कर सकते हैं।

प्रक्रिया के चरण यहां से लिए गए हैं।

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एक सफल रेडियो अभियान के लिए क्या चाहिए?

वैश्विक स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग बढ़ गया है लेकिन इन गैजेट्स का अपना जीवन चक्र कम हो गया है। नतीजतन, इससे पैदा होने वाले ई-वेस्ट की मात्रा अब तक के सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गई है। विश्व स्तर पर,  भारत ई-वेस्ट उत्पादन में तीसरे स्थान पर आता है, और स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों ही पर इसका बहुत गंभीर प्रभाव पड़ा है। एक अध्ययन के अनुसार, जहां ई-वेस्ट इकट्ठा किया जाता है या उनका निपटान किया जाता है, उन इलाक़ों के आसपास रहने वाले लोग अलग-अलग समस्याओं का सामना करते हैं। इनमें हार्मोन-स्तर में होने वाले परिवर्तन, डीएनए क्षति, वैक्सीन की प्रतिक्रिया में आने वाली बाधा और खराब रोग-प्रतिरोधक क्षमता मुख्यरूप से शामिल हैं।

इस समस्या का हल निकालने के लिए 2011 ई-वेस्ट नियम तय करते हुए, विस्तृत उत्पादन ज़िम्मेदारी (एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी) की अवधारणा पेश की गई। इसके मुताबिक, उत्पादकों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके उत्पाद के कारण पैदा होने वाले कचरे को औपचारिक रूप से एकत्रित और रिसायकल किया जाए। हालांकि अब भी अनौपचारिक क्षेत्र यानी घरों, दुकानों और छोटे व्यापारियों जैसे ग़ैर-थोक उत्पादकों से ई-वेस्ट इकट्ठा करना कम लागत वाला होता है। अनौपचारिक रूप से यह काम करने वाले लोग ई-वेस्ट को बेचकर अपनी आमदनी को बढ़ाना चाहते हैं। 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि कुल ई-वेस्ट का केवल पांच फ़ीसद कचरा ही आधिकारिक रिसायक्लरों द्वारा रिसायकल किया गया है।

इलेक्ट्रॉनिक सामानों का एक बड़ा हिस्सा ग़ैर-थोक उत्पादकों द्वारा उत्पादित किया जाता है – देश में उत्पन्न अनुमानित ई-कचरे का लगभग 82 फ़ीसद स्मार्टफोन और लैपटॉप जैसे व्यक्तिगत गैजेट के रूप में होता है। सही तरह के नियम लागू करना जहां एक बात है, वहीं छोटे स्तर के इन लाखों उत्पादकों के व्यवहार पर निगरानी रखना लगभग असंभव है।

खुदरा उत्पादक नियमों का पालन करें, इसके लिए रिसाइक्लिंग के दुष्प्रभावों के बारे में जागरुकता पैदा करना एक तरीका हो सकता है। साथ ही, उन्हें यह बताना भी ज़रूरी है कि कैसे ई-कचरे को बेचने से इसे औपचारिक रूप से संसाधित करना अव्यवहारिक हो जाता है। इस मामले को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए किए जा रहे प्रचार अभियान यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं कि लोग समझें कि ई-कचरे का जिम्मेदारीपूर्वक निपटान क्यों महत्वपूर्ण है और वे इसमें कैसे योगदान दे सकते हैं। इस मुद्दे से निपटने के लिए चलाए गए अभियानों को लंबी अवधि तक व्यापक दर्शकों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए। यहीं पर प्रिंट, टेलीविजन और रेडियो जैसे जनसंचार माध्यमों के पारंपरिक तरीके काम आते हैं।

कचरा प्रबंधन पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन के रूप में साहस ने ई-कचरे के निपटान के बारे में अधिक जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो कैम्पेन और सामुदायिक सहभागिता के अन्य तरीकों को अपनाया। यह लेख दिसंबर 2021 से मई 2022 तक दो रेडियो अभियानों को चलाने के हमारे अनुभव से प्राप्त समझ को दिखाता है।

रेडियो ही क्यों?

कई सरकारी एवं निजी इकाइयां, सामाजिक अभियानों और संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए रेडियो को ही अपना माध्यम बनाती आई हैं। उदाहरण के लिए, भारत सरकार अपने ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान को देशभर के लोगों तक पहुंचाने के लिए रेडियो पर चलाती है। लैंसेट के एक अध्ययन ने बुर्किना फासो के ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो के इस्तेमाल का मूल्यांकन किया और पाया कि प्रभावी ढंग से उपयोग में लाये जाने पर यह व्यवहार परिवर्तन के लिए एक सशक्त उपकरण हो सकता है। इसके अलावा, प्रसारण के माध्यम के रूप में, हमारे अभियानों के लिए रेडियो के कुछ अन्य फायदे भी हैं:

रेडियो के सामने बैठी हुई कुछ महिलाओं के हाथ_रेडियो अभियान
प्रसारण माध्यम के रूप में रेडियो प्रिंट और टेलीविजन की तुलना में सस्ता है। | चित्र साभार: यूके डिपारमेंट ऑफ इंटरनैशनल डेवलेपमेंट / सीसी बीवाय

दो अभियान, एक संदेश

हमारी टीम ने रेडियो सिटी चैनल को एक तय क्षेत्र में इसके व्यापक श्रोता आधार और इसके कुछ उद्घोषकों (आरजे) की लोकप्रियता के कारण चुना था। पहले अभियान में स्वयंसेवकों, स्कूली बच्चों, शिक्षकों और निवासी कल्याण संघों (आरडब्ल्यूए) के सदस्यों द्वारा 25-सेकंड के टेस्टीमोनियल शामिल थे जिसमें बताया गया था कि उन्होंने अपना ई-कचरा साहस संस्था को क्यों दिया। सभी संदेशों में स्पष्ट कार्रवाई के लिए कहा गया था जहां श्रोताओं को एक हेल्पलाइन नंबर के बारे में बताया गया, जिस पर वे अपना ई-कचरा दान करने के लिए संपर्क कर सकते थे। दूसरा अभियान अधिक रचनात्मक था, जिसमें मानवरूपी इलेक्ट्रॉनिक्स और उनके मालिकों के बीच की बातचीत को दर्शाया गया था। दोनों अभियानों के बीच का मुख्य अंतर यह था कि बाद की सामग्री श्रोताओं की भावनाओं को आकर्षित करने और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए डिजाइन की गई थी।

हम लोगों ने आरजे मेंशन जैसे स्थानों को चुना, जहां आरजे हमारे द्वारा दिए गए बातचीत के बिंदुओं के आधार पर मुद्दे पर बात करेंगे।

हम लोगों ने दूसरे अभियान को चलाने के लिए संदर्भ के अनुसार प्रासंगिक दिवसों जैसे स्वास्थ्य दिवस, पृथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस को चुना। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, हमने अभियान की लंबाई कम कर दी और कुल रेडियो स्पॉट्स या प्रचारों की संख्या को बढ़ा दिया। हालांकि दूसरे अभियान की कुल समयावधि कम थी, प्रत्येक स्लॉट को लंबा रखा गया था और सप्ताहांतों पर स्लॉटों की संख्या बढ़ा दी गई थी।

पहले अभियान के परिणामस्वरूप साझा किए गए नंबर पर लगभग 21 कॉल्स आईं। कॉल करने वालों का कहना था कि उन्होंने रेडियो पर हमारे बारे में सुना था। पहला कॉल, पहला प्रोमो ऑन एयर होने के अगले दिन ही आया। कॉल में ई-कचरा संग्रहण और जागरूकता सत्र आयोजित करने के बारे में पूछताछ की गई थी। दूसरे अभियान के परिणामस्वरूप हमें 34 कॉल्स प्राप्त हुईं। अभियान शुरू होने के दो दिन बाद से ही हमें ये कॉल्स आने लगीं। दोनों अभियानों के बीच एकत्रित ई-कचरे की मात्रा और गुणवत्ता में काफी बदलाव आया। पहले अभियान के दौरान लगभग 266 किलोग्राम ई-कचरा संग्रह किया गया था जबकि दूसरे अभियान में 1,370 किलोग्राम ई-कचरा इकट्ठा हुआ।

हालांकि, पहले अभियान के दौरान इकट्ठा किए गये कचरे में मुख्य रूप से कम-मूल्य वाला ई-कचरा जैसे कि तार आदि अधिक मात्रा में थे, वहीं दूसरे अभियान के परिणामस्वरूप एकत्रित किए गये ई-कचरे में कम-मूल्य वाले कचरे के साथ सूचना, प्रौद्योगिकी और संचार (आईटीईडब्ल्यू) से जुड़ी वस्तुएं शामिल थीं। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उपभोक्ताओं की नजर में आईटीईडब्ल्यू वस्तुओं का मूल्य अधिक होता है और वे आमतौर पर इसे मुफ्त में नहीं देते हैं, यह व्यवहार में आया एक बड़ा बदलाव था। हालांकि, इस बात पर गौर करना होगा कि दूसरा अभियान चाही गई प्रतिक्रिया प्राप्त करने के मामले में अधिक प्रभावी था, लेकिन इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि पहले अभियान ने दूसरे अभियान के बेहतर संग्रह के लिए गति बनाने में मदद की हो।

हमने जो सीखा

1. सही संदेश देना

हमारा मानना था कि किसी ऐसे अभियान के लिए रेडियो एक प्रभावी माध्यम हो सकता है जो किसी विशेष स्थान पर केंद्रित हो और जहां जनसांख्यिकी से परे, दिये जा रहे संदेश में एकरूपता हो। हमने एनसीआर के लिए अपने अभियानों को डिज़ाइन करके और यह सुनिश्चित करके इस परिकल्पना का परीक्षण किया कि कॉल टू एक्शन, उम्र या लिंग से परे, सभी प्रकर के श्रोताओं के लिए समान था। पहले अभियान ने ई-कचरा निपटान के लिए स्कूलों और आरडब्ल्यूए को साइन अप करने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया था, जबकि दूसरे में उपयोगकर्ताओं को ई-कचरा निपटान को एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया गया। दूसरे अभियान में प्राप्त उल्लेखनीय रूप से बेहतर प्रतिक्रिया ने हमारी प्रारंभिक परिकल्पना की पुष्टि की। साथ ही, यह भी संकेत दिया कि व्यक्तिगत जिम्मेदारी की भावना पैदा करने वाली कॉल टू एक्शन रेडियो मैसेजिंग के लिए अधिक अनुकूल है। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि किसी सामाजिक या पर्यावरणीय मुद्दे के लिए अभियान चलाते समय, मुद्दे को गंभीर नहीं दिखना चाहिए। ऐसी स्थिति में लोग यह सोच सकते हैं कि इस मामले को लेकर उनके द्वारा उठाये गये कदम निरर्थक साबित होंगे। यह इस तथ्य से प्रदर्शित होता है कि हल्के-फुल्के प्रोमो की तुलना में प्रशंसापत्रों को मिलने वाली प्रतिक्रियाओं की संख्या कम थी।

2. फॉर्मेट का चुनाव अपने अभियान के लक्ष्य के अनुकूल ही करें

रेडियो पर लंबी और छोटी अवधि, दोनों तरह के स्पॉट इस्तेमाल किए जा सकते हैं। लंबी अवधि के संदेश उन विषयों के लिए बेहतर काम करते हैं, जहां दर्शकों को व्यापक स्तर पर आकर्षित करने की तुलना में गंभीर दर्शकों को आकर्षित करना अधिक महत्वपूर्ण होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लंबे स्पॉट को इतनी बार नहीं चलाया जा सकता है। परिणामस्वरूप इस प्रकार के अभियानों के सीमित दर्शकों तक ही पहुंचने की संभावना अधिक होती है। जहां हमने पहले अभियान में एक इंटरव्यू को भी शामिल किया था, वहीं दूसरे अभियान को अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाने के लिए हमने इसे लंबी अवधि का नहीं बनाया।

आरजे के पास अपनी एक फैन फॉलोइंग होती है जिससे वे व्यक्तिगत संदेश के माध्यम से सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।

हमने विभिन्न प्रकार के स्पॉट भी इस्तेमाल किए। उदाहरण के लिए, हमने आरजे मेंशन का उपयोग किया जहां आरजे अपनी ऑन-एयर बातचीत में मुद्दे पर चर्चा करते हैं। किसी प्रोमो के समय श्रोताओं के शांत होने की संभावना अधिक होती है, इसलिए आरजे मेंशन, जागरूक दर्शकों के सामने किसी मुद्दे पर चर्चा करने के एक तरीके के रूप में कारगर साबित हो सकता है। आरजे के पास एक समर्पित प्रशंसक भी है जो व्यक्तिगत संदेश के जरिए सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। हमने पूरे दिन चलने वाले छोटे प्रोमो भी शुरू किए जो अपने रिकॉल वैल्यू और बड़े दर्शकों तक पहुंचने की क्षमता के कारण उपयोगी थे।

3. गंभीर बातों को हल्के-फुल्के और रचनात्मक तरीक़ों से बताना

पहले अभियान के लिए हमारा उद्देश्य अनौपचारिक रीसाइक्लिंग के खतरों के बारे में जागरूकता पैदा करना था। इसे हासिल करने के लिए, हमने लोगों को ई-कचरे को जिम्मेदारी से संभालने के लिए प्रेरित करने के लिए स्कूली शिक्षकों, आरडब्ल्यूए के सदस्यों और रिसाइक्लर्स सहित विभिन्न हितधारकों के टेस्टीमोनियल प्रस्तुत किए। पहले अभियान की प्रतिक्रियाओं से हमने समझा कि अधिक रचनात्मक दृष्टिकोण से ही हम श्रोताओं को शिक्षित और जागरूक बना सकते हैं। इसलिए हमने अपने अभियान को उपदेशात्मक होने से बचाने के लिए अधिक उदार दृष्टिकोण अपनाया। अपने इस लक्ष्य को पाने के लिए हमने अपने दूसरे अभियानों को अनूठे संदेशों के साथ तैयार किया, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भावनाओं के साथ जीवित प्राणियों के रूप में चित्रित किये जाने वाले प्रोमो का इस्तेमाल किया गया।

संदेशों को सामयिक बनाने से भी मदद मिली। उदाहरण के लिए, हम लोगों का वैलेंटाइन डे वाला प्रोमो – जिसमें ‘प्रेमहीनता’ को उजागर किया जिसके साथ इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को त्याग दिया जाता है- ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया था। इसी तरह के सामयिक प्रोमो हमने पर्यावरण दिवस और स्वास्थ्य दिवस पर चलाये थे।

हमारे अनुभवों के आधार पर हम कह सकते हैं कि बड़े स्तर पर लोगों तक पहुंचाये जाने वाले सामाजिक संदेशों के प्रसार के लिए टेलीविजन और प्रिंट माध्यम की तुलना में रेडियो अधिक प्रभावी साबित होता है। हालांकि, हमारा लक्ष्य एक समान संदेश को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना था, वहीं आपके अभियान की जरूरतें भिन्न हो सकती हैं। इसलिए अपने अभियान के लिए अनुकूल और उचित प्लेटफॉर्म और माध्यम का चुनाव करते समय आपको सबसे पहले अभियान के उद्देश्य को उसके अपेक्षित प्रभाव के संबंध में परिभाषित करना चाहिए। इससे आपको सही माध्यम और मंच चुनने में मदद मिलेगी, और ऐसा संदेश तैयार करने में मदद मिलेगी जो आपके दर्शकों के लिए आकर्षक और प्रासंगिक, दोनों हो।

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