August 23, 2023

डोरमैट बनाकर उद्यमिता का उदाहरण खड़ा करती उत्तर प्रदेश की महिला

उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव में डोरमैट बनाने का काम शुरू करने वाली महिला उद्यमी रौशनी बेगम अन्य महिलाओं को रोजगार और आजीविका दे रही हैं।
3 मिनट लंबा लेख

रौशनी बेगम उत्तरप्रदेश, भदोही ज़िले के मोहम्मदपुर गांव में रहती हैं। महज़ 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई थी लेकिन अपने पति के प्रोत्साहन से वे 12वीं कक्षा तक पढ़ाई कर सकीं। परिवार में सबसे बड़ा होने के कारण घर और पांच भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी उनके पति पर आ गई जिसे रौशनी बेगम ने भी बांटा। उनके घर में बुनाई से बनने वाले कारपेट और डोरमैट (पायदान) बनाने का काम होता है। बुनाई से बनने वाली चीजों में समय लगता है और इसका कच्चा माल महंगा और बिक्री कठिन होती है। इस कारण उनके परिवार का काम भी कम हो गया। घर में लोगों की संख्या ज़्यादा होने और आर्थिक समस्याएं बढ़ने पर रौशनी को काम करना ज़रूरी लगा। साथ ही, उनका बचपन से अपना व्यवसाय करने का भी सपना था और यह काम उस सपने के तरफ पहला कदम था।

रौशनी बेगम के गांव के पास माधोपुर घुसिया नाम की एक जगह है जो अपने कारपेट बाज़ार के लिए मशहूर है। 2010-12 में उन्हें पता चला कि माधोपुर घुसिया में कपड़ों के टुकड़े जोड़कर डोरमैट बनाने का काम होता है। उन्होंने यह काम लिया और शुरूआत में डोरमैट में पाइपिंग (गोटा) लगाने का काम करने लगीं। इस काम के लिए उन्हें प्रति डोरमैट एक रुपया मिलता था। लेकिन इस काम में सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि उन्हें काम लेने और पूरा किए गए काम को पहुंचाने के लिए अपने गांव से माधोपुर घुसिया जाना पड़ता था और इसमें पैसे भी खर्च होते थे। कुल मिलाकर, इससे होने वाली आमदनी न के बराबर रह जाती थी।

बाज़ार में बिकने वाले फ्रेम से बने डोरमैट की तुलना में कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है।

हालांकि, इसके बावजूद रौशनी बेगम ने पाइपिंग लगाने का काम छोड़ा नहीं। बाज़ार में बिकने वाले फ्रेम से बने डोरमैट की तुलना में इनकी क़ीमत कम होती है। अपने पति का कारपेट का काम होने के कारण रौशनी बेगम के पास फ्रेम भी था जो डोरमैट बनाने में भी इस्तेमाल हो जाता है। लेकिन इससे बनने वाले डोरमैट की लागत ज़्यादा होती है, जिसके कारण यह महंगे होते है और इनकी बिक्री कम होती है। इसके मुक़ाबले कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है। इसकी कम कीमत के कारण रौशनी बेगम को इस काम के बढ़ने की संभावना दिखी।

उन्होंने विभिन्न लोगों (जिनसे वे माल लेती थीं) से चर्चा करके डोरमैट के व्यवसाय में अपनी जानकारी और समझ बढ़ाना शुरू किया कि कच्चा माल और ऑर्डर्स कैसे मिल सकते हैं।

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डोरमैट की सिलाई करती हुई रौशनी बेगम_महिला उद्यमिता
कतरन से बने डोरमैट सस्ते होते है। | चित्र साभार: शुभा खड़के

रौशनी बेगम बताती हैं कि किसी भी व्यवसाय को शुरू करने में पूंजी एक बड़ी समस्या होती है क्योंकि कच्चा-माल और अन्य ज़रूरत की चीजों के लिए नक़द पैसे देने पड़ते हैं। डोरमैट व्यवसाय में भी कच्चा माल ख़रीदने, कटिंग करने, महिलाओं को मेहनताना देने, माल की लोडिंग-अनलोडिंग, गाड़ी का भाड़ा, धागे आदि का पैसा पहले ही देना पड़ता है। कई बार उत्पाद तैयार होने के बाद भी महीनों तक पड़ा रहता है। व्यापारी से पैसे सबसे आख़िर में मिलते हैं।

2018-19 में उन्हें डेवलपमेंट अल्टरनेटिव के वर्क-4-प्रोग्रेस कार्यक्रम के तहत कैपेसिटी बिल्डिंग का सहयोग मिला, जिससे वे सूक्ष्म वित्तीय संस्थाएं (एमएफआई) से छोटा सा ऋण ले पाई। जब उन्हें और पैसे की ज़रूरत महसूस हुई तब 2019 में उन्होंने बैंक से 13 प्रतिशत ब्याज़ पर एक लाख रुपये का मुद्रा ऋण लिया।

पूंजी की समस्या का समाधान होते ही रौशनी बेगम ने अपने इस काम में नज़दीकी गांव माधोपुर घुसिया में सिलाई करने वाली कुछ महिलाओं को अपने साथ जोड़ा। इस काम के लिए कच्चा माल पानीपत, रूद्रपुर जैसी जगहों से आता है। व्यापारी कारपेट, क़ालीन और वेलवेट के कतरनों को थोक भाव से ख़रीदने के बाद यहां आकर बेचते हैं। इस कच्चे माल की क़ीमत 25 रुपये प्रति किलो से लेकर अधिकतम 40 रुपये प्रति किलो तक होती है। एक किलो कपड़े में 3-5 डोरमैट बनते हैं। रौशनी बेगम ने इन्हीं व्यापारियों से कच्चा माल ख़रीदने के बाद, माधोपुर घुसिया से जुड़ने वाली 20 महिलाओं के साथ डोरमैट बनाने का काम शुरू किया। आज धीरे-धीरे बाज़ार में अपने संपर्क बढ़ाने के कारण उन्हें औसतन 400 से 5000 पीस के बीच का ऑर्डर मिल जाता है।

डोरमैट बनाने का काम आसान नहीं है, इसे बहुत ही बारीकी से करना पड़ता है।

रौशनी बेगम कहती हैं कि डोरमैट बनाने का काम आसान नहीं है, इसे बहुत ही बारीकी से करना पड़ता है। कच्चा माल खरीदने के बाद उसे व्यवस्थित रूप से काटा जाता है। इसके बाद, उन टुकड़ों को डोरमैट के आकार और डिज़ाइन के हिसाब से क्रम में रख, इंटरलॉक या सिलाई करके जोड़ते हैं। फिर दो डोरमैट को चिपकाया जाता है और अंत में पाइपिंग लगाई जाती है। रोशनी बेगम के पास इस समय काम के लिए दो सिलाई मशीन, एक इंटरलॉक मशीन, एक कटर मशीन और चार कैंचियां हैं।

पाइपिंग लगाने के लिए ही महिलाओं को जॉब वर्क दिया जाता है और सारा सामान, जैसे कपड़े/कारपेट के टुकड़े, पाइपिंग का कपडा, धागे और चिपकाने का सोल्युशन वगैहर उनके घर पहुंचाया जाता है। इस काम के प्रति पीस एक रुपये दिए जाते हैं। लेकिन कुछ महिलाएं को दो टुकड़ों को जोड़कर सोल्यूशन लगाने के बाद पाइपिन लगाती हैं तो उन्हें इसी काम के प्रति पीस 2-3 रुपये मिल जाते हैं। डोरमैट पूरा होने तक इकट्ठा किए गए पीस महिलाओं के घर पर रखे जाते है। तैयार हो चुका माल रोशनी बेगम के घर वापस भेज दिया जाता है। जब व्यापारी आता है तो उसको एक साथ पूरा माल दे दिया जाता है।

डोरमैट की मांग ठण्ड और बारिश में ज्यादा होती है। हालांकि इसे बनाने का काम गर्मी में करना ज्यादा बेहतर होता है क्योंकि कतरन गर्मी में जल्दी और आसानी से चिपक जाती है।

रौशनी बेगम के अनुसार डोरमैट के इस धंधे में सीजन में जहां 40 हजार रुपये प्रति माह का मुनाफ़ा होता है वहीं बाज़ार में मंदी के दिनों में यह रक़म घटकर 20 हजार रुपये प्रति माह रह जाती है। कोविड के दौरान उनका काम ना के बराबर हो गया था लेकिन उन्होंने काम को पूरी तरह से बंद नहीं होने दिया।

रौशनी बेगम का अपना ख़ुद का बचत खाता और उद्योग आधार भी है। वे चाहती हैं कि आने वाले सालों में वो 50-100 लोगो को रोजगार दे सकें और व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए माधोपुर घुसिया में ही अपना गोदाम खोल लें।

यह आलेख साथी वेंचर्स द्वारा आयोजित और सिडबी द्वारा सहयोग प्राप्त, उद्यमी साथी चैलेंज का हिस्सा है।

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लेखक के बारे में
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शुभा खड़के

शुभा खड़के एक विकास व्यवसायी हैं। इनके पास उद्यम विकास सहित कृषि और गैर-कृषि-आधारित आजीविका पर आधारित विभिन्न विकास कार्यक्रमों के रणनीतिक डिजाइन, कार्यान्वयन और सशक्तिकरण का 20 वर्षों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने विभिन्न विकास संगठनों के साथ काम किया और वर्तमान में एक फ्रीलांसर के रूप में काम करती हैं। वह विकास विकल्पों के वर्क 4 प्रोग्रेस कार्यक्रम के प्रभाव आकलन के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट आनंद (आईआरएमए) से जुड़ी हुई हैं। शुभा लीड (LEAD) और जीपी बिरला फेलो भी हैं।

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