भारतीय संविधान के बनने की कहानी क्या है?

यह शॉर्ट फ़िल्म भारतीय संविधान के बनने का सफ़र बताती है। यह संविधान निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, संविधान सभा, संविधान पर हुई चर्चाओं और इससे जुड़े कुछ दिलचस्प तथ्यों पर बात करती है। फैसिलिटेटर्स और शिक्षकों के लिए यह वीडियो नागरिक शास्त्र/सामाजिक विज्ञान और राजनीतिक व्यक्तित्वों से जुड़ी जानकारी देने के लिए उपयोगी हो सकता है।

यह वीडियो मूल रूप से वी, द पीपल अभियान में प्रकाशित हुआ है।

सामाजिक उद्यमी कैसे बनें?

सामाजिक उद्यमिता को कई बार समाजसेवा भर से जोड़कर देखा जाता है लेकिन यह इतने तक ही सीमित नहीं है। इसकी आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक़, किसी सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर विकास, फंडिंग, ज़मीनी समाधान को लेकर काम करना सामाजिक उद्यमिता कहलाता है। सरल शब्दों में, सामाजिक उद्यमिता से मतलब, उस उपक्रम से है जो आर्थिक लाभ की बजाय किसी सामाजिक भलाई को हासिल करने के उद्देश्य से किया जाता है। उदाहरणों से समझने के लिए विकास सेक्टर में ग़रीबी, बेरोज़गारी, लैंगिक असमानता और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर हो रहे कामकाज पर गौर किया जा सकता है। ये मुद्दे आमतौर पर किशोरों और युवाओं को अधिक प्रभावित करते हैं, इसलिए इनसे जुड़ी परियोजनाओं का प्रभाव (इम्पैक्ट) अनंत संभावनाओं वाला होता है।

सामाजिक उद्यमिता की ज़रूरत पर गौर करें तो बात यहां से शुरू की जा सकती है कि आज के समय में भारतीय युवा कई तरह के अलगाव झेलता है। मुख्यधारा से यह अलगाव आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर हो सकता है। इसके अलावा, बढ़ती बेरोज़गारी ने पहले से ही हाशिये पर खड़े तबकों के युवा को और अधिक दरकिनार कर दिए जाते हैं। नीति निर्माता भी युवाओं को उपभोक्ता या कामगार की सीमित आर्थिक भूमिकाओं में ही देखते रहे हैं। ऐसे में सामाजिक उद्यमिता के जरिए, न केवल भारतीय युवाओं को देश और दुनिया के विकास का हिस्सा बनाया जा सकता है बल्कि एक नागरिक के तौर पर भी उनमें अधिक आत्मविश्वास पैदा किया जा सकता है।

लेकिन, अगर कोई आम युवा सामाजिक उद्यमी बनना चाहे तो इसके लिए उसे कुछ कुशलताओं, समझ और साधनों की जरूरत पड़ती है। इसी विषय पर वार्तालीप कोअलिशन का काम रहा है। वार्तालीप, अलग-अलग सेक्टर में काम करने वाले संगठनों का एक समूह है जो कि युवा केंद्रित  विकास पर काम करता है। इसके द्वारा संचालित कार्यक्रम चेंजलूम्स, अनगिनत युवा मंचों की एक ऐसी साझी पहल है जो सामाजिक उद्यमियों का सहयोग करने और उद्यमिता से जुड़ा एक तंत्र विकसित करने पर काम कर रही है।

कुछ साल पहले आई, वर्ल्ड इकनॉमिक फ़ोरम की एक रिपोर्ट के मुताबिक 38.3% सामाजिक उद्यम एक साल से कम समय में, लगभग आधे यानी 45.2% सामाजिक उद्यम एक से तीन साल में और 8.7% उद्यम चार से छह साल में बंद हो जाते हैं। केवल 5.2% उद्यम 10 साल से अधिक समय तक, बतौर एक संस्था अपना अस्तित्व बनाए रख पाते हैं। सामाजिक उद्यमियों की असफलताओं का कारण गिनवाते हुए मुख्य रूप से जो चार बातें कही जाती हैं, वे हैं –  उद्देश्य का स्पष्ट न होना, ज़रूरी कुशलताओं का अभाव, बदलते समाज और बाज़ार की समझ न होना और सही मूल्यांकन और बेहतरी के प्रयासों का अभाव।

अगर आप एक नए सामाजिक उद्यमी हैं और इन नतीजों से बचना चाहते हैं, या फिर, अगर आप एक युवा हैं और करियर के तौर पर सामाजिक उद्यमिता में रुचि रखते हैं तो नीचे दी गई बातों पर गौर कर सकते हैं –

सामाजिक उद्यमिता के लिए जरूरी कौशल

1. किसी उद्देश्य के लिए लगातार प्रेरणा हासिल कर पाना

सामाजिक उद्यमी बनने के लिए युवाओं में सबसे जरूरी चीज उनके अंदर अपने उद्देश्य के लिए जुनून का होना है। उनमें बदलाव लाने की ज़िद होनी चाहिए। हमने देखा है जब कोई युवा इसकी शुरूआत करता है तो शुरू में तो वह बहुत जोश के साथ काम करता है। लेकिन समय के साथ यह जोश कम होता है जाता है। शुरूआती दौर में संस्था से जुड़ने वालों के साथ भी ऐसा हो सकता है। इंदौर में हद-अनहद संस्था की शुरूआत में हमने यह अनुभव किया संस्था से जुड़े वॉलंटीयर, जिन्हें हम सेकंड लाइन ऑफ लीडरशिप की तरह भी देख रहे थे, धीरे-धीरे अपनी रुचि खोने लगे। ऐसे में आप अपनी प्रेरणा बनाए रख सकें यह भी लीडर्स के लिए एक जरूरी कुशलता बन जाती है।

बतौर सामाजिक उद्यमी हममें एक ऐसी जगह बनाने का हुनर होना चाहिए जहां पर युवा कुछ सीख सके। इस मंच पर हमें उनके लिए इस तरह के मौके तैयार करने की ज़रूरत होती है जहां वे प्रयोग कर सकें और असफल भी हो सकें। इसके साथ ही, इस पूरी प्रक्रिया के दौरान उन्हें लगातार समर्थन देने की क्षमता भी हममें होनी चाहिए। यह प्रक्रिया तय करना और इसे बड़े पैमाने पर कर पाना बहुत ज़रूरी है।

किसी बिज़नेस आइडिया की तरह मुद्दों की पहचान करने और उन पर काम किए जाने की जरूरत है। | चित्र साभार: शिल्पा झवर

2. समस्या को गहराई से समझना और उसके नए हल निकालना

आप जिस भी मुद्दे को लेकर काम करना चाह रहे हैं, उसके बारे में गहराई से जानना जरूरी है। हमें समस्या की जड़ों और उसे बनाए रखने वाले कारकों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत होती है।

किसी संस्था के सफल संचालन के लिए इसे पहली शर्त माना जाना चाहिए। इसके लिए लोगों या समुदाय के साथ लगातार संवाद करने की कुशलता होना बहुत काम आता है। आपके उद्देश्यों का स्पष्ट होना और इस पर लगातार बात होते रहना, आपको नए समाधानों की दिशा में ले जाता है। कई बार व्यक्तिगत या सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन की वजह, हमारे उन प्रयासों से एकदम अलग हो सकती है जिन्हें हम एकमात्र समाधान मानकर कर रहे होते हैं।

असम में फार्म टू फ़ूड फाउंडेशन के सह-संस्थापक दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा का कामकाज इसका एक उदाहरण है। दीपज्योति बताते हैं कि ‘जब तक युवा समस्या को ठीक तरह नहीं समझता है, वह उसके हल का हिस्सा नहीं बनता है। बदलाव की ज़िम्मेदारी में भागीदार नहीं बनता है। ऐसा होने तक उनमें किसी तरह का मानसिक बदलाव लाना संभव नहीं है। अपने फाउंडेशन में हम बच्चों के साथ काम करते हैं। बच्चे अपने स्कूल में न्यूट्रीशन गार्डन बनाते हैं। पढ़ाई में जहां वे इसे साइंस-मैथ्स लैब की तरह इस्तेमाल करते हैं। वहीं जलवायु परिवर्तन, आर्थिक गतिविधियों की समझ और उनका आत्मविश्वास बढ़ाने का काम भी इससे हुआ है। अब ये बच्चे कहीं भी रहेंगे, हमेशा खेती से जुड़े रहेंगे।’

दीप ज्योति आगे जोड़ते हैं कि ‘इसका एक दिलचस्प नतीजा यह रहा कि बच्चों में ओनरशिप का भाव आया। एक बच्ची सिर्फ इसलिए करेला खाने लगी क्योंकि वह उसे उगा रही थी। समस्या को पूरी तरह से समझने पर ही, सही और नई तरह के समाधान निकल पाते हैं।’

3. आपसी सहयोग

एक सामाजिक उद्यमी के तौर पर आपको लोगों को साथ लाने की ज़रूरत होती है। यह प्रयास दो स्तरों पर किया जा सकता है, एक समुदाय के स्तर पर और दूसरा संस्थाओं के स्तर पर। समुदाय के स्तर पर बात करें तो ज़्यादातर लोग, ख़ासकर युवा अपने एक सीमित दायरे में रहते हैं और उनका विमर्श भी उसी में सीमित होता है। लोगों को उनके वर्ग, समुदाय, आर्थिक-शैक्षणिक स्तर से परे एक ऐसे मंच पर लाने की ज़रूरत होती है जहां वे खुलकर बात कर सकें। सामाजिक उद्यमियों का काम यह मंच तैयार करना है।

समुदाय के स्तर पर आपसी सहयोग का एक उदाहरण यह हो सकता है कि विशेष समुदाय के बच्चों का, किसी यूनिवर्सिटी-कॉलेज के छात्रों के साथ संवाद संभव करवाना। यह दो दुनियाओं को एक साथ लाने जैसा हो सकता है। ऐसा करते हुए, हमारे लीडर्स इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि कार्यक्रम के दौरान वे आपस में कितना सीख रहे हैं। यानी, अपने साथियों को देखकर सीखने की प्रक्रिया (पीयर लर्निंग) चल रही है या नहीं। बतौर लीडर आपको सुनिश्चित करना होगा कि यह सीखना-सिखाना दो लोगों और दो संस्थाओं दोनों के स्तर पर चलते रहना चाहिए।

जानकारी युवाओं के पास है, उन्हें उस जानकारी के सही इस्तेमाल के बारे में बताना है।

सोशल मीडिया पर हर किसी ने अपने इकोचैंबर बना लिए हैं। आज युवाओं को गाइड की जरूरत है, और तकनीक को इस्तेमाल करते हुए आपको उन्हें रास्ता दिखाना है। जानकारी उनके पास है, उन्हें उस जानकारी के सही इस्तेमाल के बारे में बताना है। यही सहयोग युवा को चाहिए। एक सामाजिक उद्यमी के तौर पर आप खुद को बेहतर बनाने के लिए कौन सी जानकारी हासिल कर रहे हैं, वह कितनी विश्वसनीय है और उसका स्रोत क्या है, इस पर भी आपका ध्यान हमेशा होना चाहिए। इसके लिए अपने जैसी अन्य संस्थाओं से जुड़ना और चर्चा करना, आपसी सहयोग का बेहतरीन तरीक़ा है।

4. अनिश्चितता से निपटना

अनिश्चितताओं से निपटने की क्षमता किसी भी तरह के उद्यमी की सबसे बड़ी खूबी होती है। स्वाभाविक है कि यह सामाजिक उद्यम की शुरूआत में हासिल की जाने वाली कुशलता नहीं हो सकती है और समय के साथ आपको इसे विकसित करना होगा। कई सर्वे बताते हैं कि लीडरशिप की क्षमता का आकलन पहले जहां रणनीति बनाने, योजना तैयार करने और उसे लागू करने को लेकर होता था, अब इसकी जगह लचीलेपन ने ली है। यानी बदलती हुई परिस्थितियों में कैसे तत्काल फैसले लेकर अधिकतम परिणाम हासिल किए जा सकते हैं, इससे लीडर की क्षमता तय होती है। फिर चाहे वह कोविड-19 महामारी, वैश्विक मंदी के चलते आया बदलाव हो या सरकारी नीतियों के बदल जाने से उपजी परिस्थितियां।

5. शक्ति असंतुलन पर काम करना

बतौर एक युवा लीडर आपको शक्ति असंतुलन की समझ होनी चाहिए। यह असंतुलन शिक्षा, लिंग, जाति-समुदाय, गांव-शहर किसी भी स्तर पर हो सकता है। इस असंतुलन के होने की जानकारी होना या समुदाय तक पहुंचाना, इसे कम करने की दिशा में पहला कदम हो सकता है। लखनऊ में यह एक सोच फाउंडेशन के फ़ाउंडर और कन्वीनर मोहम्मद ज़ीशान अंसतुलन को समझने और उसकी वजहों को स्वीकार करने पर जोर देते हैं। वे कहते हैं कि ‘हमारे कार्यक्रम के चार हिस्से हैं। सोच, समझ, संवाद और समावेश। युवाओं की सोच को जानना, उसे समझने की कोशिश करना, उनसे लगातार संवाद करना और उन्हें स्वीकार करना। हम यूथ अड्डा करते हैं लोगों से तमाम विषयों पर चर्चा करते हैं। ऐसी जगहों पर ही हमें पिछड़े समुदायों के युवा लीडर्स मिलते हैं जो समय के साथ अपने समुदाय के पॉइंट पर्सन बन जाते हैं। आगे चलकर वे किसी खास मुद्दे को लेकर काम करते हैं और सशक्तीकरण करते हैं। ऐसे लोगों को ताकतवर बनाकर, उनका हाथ थामे रहकर हम शक्ति असंतुलन को कम कर सकते हैं।’

सामाजिक उद्यमियों के सामने आने वाले चुनौतियां

1. इकोसिस्टम का न होना

सिनर्जी संस्थान के सह-संस्थापक अजय पंडित बताते हैं कि ‘युवा उद्यमियों के सामने पहली चुनौती अपनी संभावनाओं को पहचानना होता है। इस के बाद उन्हें अपने परिजनों को भी इसके लिए राज़ी करना पड़ता है। ग्रामीण इलाक़ों में युवाओं के साथ यह कर पाना खासतौर पर मुश्किल होता है। परिवार के विरोध के अलावा, खुद अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर आना उनके लिए बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। यहीं पर हमें सामाजिक उद्यमिता से जुड़े इकोसिस्टम की जरूरत होती है। संस्थाएं जो अपने आप में मज़बूत हों और युवाओं को भी मज़बूत बनाएं।’ इस तरह युवा सामाजिक उद्यमियों को इकोसिस्टम की अनुपस्थिति से उपजी असुविधाओं को झेलते हुए, यह इकोसिस्टम बनाने की दिशा में बढ़ना होता है।

नीति निर्माताओं से आपको जहां पर सबसे अधिक सहयोग की जरूरत है, वह यही मोर्चा है। हमें युवा नेतृत्व और भागीदारी को सुनिश्चित करने के एक देशव्यापी इकोसिस्टम बनाने की जरूरत है। इसमें सरकारें युवाओं को ज़मीनी शिक्षा और संसाधनों तक पहुंच मुहैया करवा सकें तो कमाल हो सकता है।

2. सामाजिक धारणा

मोहम्मद ज़ीशान कहते हैं कि ‘सामाजिक उद्यमिता को किसी स्वयंसेवी कार्यक्रम की तरह देखा जाता है। यह कुछ हद तक सही होने के बाद भी बहुत अलग है। किसी बिज़नेस आइडिया की तरह मुद्दों की पहचान करने और उन पर काम किए जाने की जरूरत है। फिर उस पर अभियान बनाने और चलाने की प्रक्रियाओं बात होनी चाहिए। हमें यह समझने-समझाने की जरूरत है कि यह सिर्फ एनजीओ का काम नहीं है।’ समाजिक उद्यमिता को समाजसेवा या परोपकार के काम से अलग करके देखे जाने की जरूरत है। इसके लिए नीतिगत सहयोग और सामाजिक जागरुकता दोनों की जरूरत है।

3. अकेलापन

सामाजिक उद्यमियों के सामने आने वाली एक व्यक्तिगत चुनौती है, अकेलापन। किसी भी अन्य क्षेत्र के लीडर की तरह सामाजिक उद्यमियों को भी लगातार मानसिक दबाव, शारीरिक थकान और असंतुलित जीवनशैली का सामना करना पड़ता है। एक आंकड़े के मुताबिक 70 प्रतिशत से अधिक सामाजिक लीडर यह महसूस करते हैं कि उन्हें उनके काम का पर्याप्त भुगतान नहीं मिल रहा है। आपको ऐसा मंच और माहौल तैयार करने की भी जरूरत होगी जहां आप अपनी तरह के अन्य लोग जो इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं, उनके साथ मिलकर एक समुदाय बनाएं। अपनी चुनौतियां, सीख, नवाचार उनसे साझा करके समाधान निकालने की कोशिश करें।

इस आलेख को तैयार करने में वार्तालीप कोअलिशन के सदस्यों – अजय पंडित, दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा और मोहम्मद ज़ीशान ने सहयोग दिया है।

अधिक जानें

डिजिटल तकनीक से सीमित संसाधनों में पढ़ाई कैसे संभव है

कहा जाता है कि एक बच्चे को पालने में पूरा गांव लगता है। यह कथन बच्चे के सामाजिक और भावनात्मक विकास में समुदाय और रोल मॉडल के महत्व को दिखाता है। हमने कोविड-19 महामारी के दौरान, तब इस बात को सच होते देखा, जब घर बच्चों की अस्थायी कक्षा में बदल गये, और बच्चे के डिजिटल शिक्षा हासिल करने के दौरान माता-पिता और शिक्षकों को कहीं स्पष्ट भूमिकाएं निभानी पड़ीं। लेकिन यह बदलाव आसान नहीं था। सीखने के स्तर और जगहों से परे, शिक्षकों ने ऑनलाइन कक्षा के दौरान छात्रों के दुर्व्यवहार और ढिलाई की शिकायत की है।

कमजोर इंटरनेट कनेक्टिविटी, बाधित बिजली आपूर्ति, पुराने उपकरण और तकनीकी साक्षरता की कमी और ऐसे ही तमाम मुद्दों का सामना शिक्षकों ने अपने सीमित वित्तीय संसाधनों और भौगोलिक स्थिति के कारण किया। ऐसी स्थितियां ज़्यादातर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में स्थित स्कूलों या शहरों के सरकारी स्कूलों में देखने को मिलीं। 2020 में छह भारतीय राज्यों में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 36 फीसद शिक्षकों ने स्कूलों में तकनीकी बुनियादी ढांचे की कमी को दूरस्थ शिक्षा में बाधा बताया है।

दूरस्थ शिक्षा को मजबूत करने की चर्चा काफी हद तक छात्रों के अनुभवों पर केंद्रित रही है, लेकिन शिक्षकों को भी इस प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। एडटेक (शैक्षिक तकनीक) समाधानों में बड़े पैमाने पर गुणवत्ता प्रदान करने और एक लचीली शिक्षा प्रणाली में योगदान करने की अपार क्षमता और संभावना है। हालांकि, इस क्षमता को केवल शिक्षकों की सक्रिय भागीदारी से ही पूरी तरह से साकार किया जा सकता है। एडटेक उत्पादों को यूज़र फ़्रेंडली, किफ़ायती और आकर्षक बनाने की प्रक्रिया में निवेश ज़रूरत है ताकि शिक्षकों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।

पहुंच को व्यापक बनाने का समाधान मिल गया है, अब इसके बाद क्या?

महामारी के शुरुआती महीनों में, शिक्षकों और स्कूलों के सामने मुख्य चुनौती प्रशिक्षण और संसाधनों को लेकर थी। भारत के शहरी एवं ग्रामीण, दोनों ही क्षेत्रों के सरकारी स्कूल फंड, उपकरणों और तैयारी की कमी के कारण दूरस्थ शिक्षा के इस अचानक आये बदलाव के लिए तैयार नहीं थे। महामारी के दौरान, लगभग 50 फीसद शिक्षक स्कूल के बंद होने की तुलना में शिक्षण सामग्रियों पर अधिक पैसा खर्च कर रहे थे। जहां उपकरण उपलब्ध थे, वहां भी कनेक्टिविटी की समस्या थी।

सरकार और निजी क्षेत्र तेज़ी से कार्रवाई कर रहे थे। 2020 से 2022 तक एडटेक उत्पादों का बाज़ार 0.75 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2.8 अरब अमेरिकी डॉलर का हो गया। 2025 तक यह आंकड़ा चार अरब अमेरिकी डॉलर तक बढ़ने का अनुमान है। दीक्षा और राष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी तक मुफ्त पहुंच जैसी सार्वजनिक पहलों से अत्यावश्यक प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। लॉकडाउन के दौरान शिक्षा से संबंधित फ़ोन ऐप्स पर बिताए गए स्क्रीन समय में 30 फीसद की वृद्धि हुई। इसके अलावा, एडटेक के लिए यूज़र बेस में वृद्धि हुई, विशेष रूप से के-12 खंड (प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा) के लिए, जो इस दौरान 4.5 करोड़ से बढ़कर नौ करोड़ हो गया।

बांस की झोपड़ी में बच्चों को पढ़ा रहा एक आदमी_एडटेक से शिक्षा
संस्थाएं एक राज्य या जिले में काम कर गए हस्तक्षेप टेम्प्लेट को दूसरे राज्य या जिले में कॉपी-पेस्ट नहीं कर सकते हैं। | चित्र साभार : यूरोपीय सिविल सुरक्षा और मानवीय सहायता / सीसी बाय

व्यापक स्तर पर पहुंच हासिल करने के बाद एडटेक प्रदाताओं को अब अपने समाधानों की गुणवत्ता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। इसमें स्थानीय संदर्भों को समझना, राज्य पाठ्यक्रम के साथ तालमेल बिठाना और बच्चों के मुताबिक पाठ योजनाएं बनाना शामिल है। उत्पादों को उपयोगकर्ता-केंद्रित नज़रिए को अपनाना चाहिए ताकि इसके उपयोग की संभावना में वृद्धि हो सके। हमारा अनुभव कहता है कि चार प्रक्रियाओं को व्यवस्थित ढंग से अपनाने से शिक्षकों के बीच एडटेक समाधानों की पहुंच को अधिकतम किया जा सकता है।

1. बदलाव एजेंट की पहचान करना

स्थानीय समुदाय के साथ अपने मौजूदा संबंध के कारण समुदाय में शामिल हितधारक जैसे स्वयं सहायता समूह या आंगनवाड़ी कार्यकर्ता (एडब्ल्यूडब्ल्यू) अधिकतम प्रभाव डाल सकते हैं। यह विशेष रूप से ग्रामीण या कम-साक्षरता वाले वातावरण में सच है, जहां बाहरी संगठनों या गैर-लाभकारी संस्थाओं पर संदेह किया जा सकता है। भारत में 13.9 लाख आंगनवाड़ी केंद्र हैं, जो आबादी के एक बड़े हिस्से की जरूरतों को पूरा करते हैं और बच्चों के शुरुआती दिनों की देखभाल और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिहाज़ से जरूरी हैं। हमारा अपना अनुभव बताता है कि एडब्ल्यूडब्ल्यू कार्यकर्ता जिज्ञासु और साधन संपन्न होती हैं और समुदाय के लोगों के साथ उनके संबंध बहुत हद तक आत्मीय होते हैं, जिनके कारण वे परिवर्तन के लिए एक आदर्श एजेंट हो सकती हैं।

हालांकि, हस्तक्षेप कार्यक्रम तैयार करने और उनका क्रियान्वयन करने में उन्हें शामिल करना ही पर्याप्त नहीं है; संगठनों को बड़े स्तर पर समुदाय का मत हासिल करने के लिए उन कार्यकर्ताओं का विश्वास भी जीतना होगा। उदाहरण के लिए, कई शिक्षक सहकर्मी समूह का संचालन करने वाले रॉकेट लर्निंग फ़ेसिलिटेटर सीखने की दैनिक गतिविधियों को साझा करते हैं और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उन कार्यों को करने वाले छात्रों के वीडियो रूप में जवाब देते हैं। खेल-आधारित शिक्षा आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की सक्रियता और सहभागिता को प्रोत्साहित करती है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की आकांक्षाओं और प्रेरणाओं का लाभ उठाना भी उनकी पूर्ण भागीदारी का रास्ता है। इनमें से कई लोग उन संसाधनों से सशक्त होना चाहते हैं जो उन्हें बुनियादी शिक्षा प्रदान करने और शिक्षकों के रूप में गंभीरता से लेने की अनुमति देते हैं। कार्यक्रम के डिज़ाइन में ज़मीन पर काम कर रहे श्रमिकों और ज़मीनी कार्यान्वयन करने वालों के लिए कौशल बढ़ाने के अवसरों को शामिल करना और इस प्रक्रिया में श्रमिकों के व्यक्तिगत विकास को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।

2. शिक्षकों को सही आचरण की ओर प्रेरित करना

व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर शिक्षकों को प्रोत्साहित करने की प्रक्रिया कक्षाओं के भीतर होने वाली गतिविधियों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसमें व्यक्तिगत मूल्यांकन रिपोर्ट से लेकर प्रदर्शन को ट्रैक करने वाले डिजिटल बैज या प्रमाणपत्र तक शामिल हो सकते हैं जो भागीदारी को पुरस्कृत करते हैं। ये तंत्र एडटेक उत्पादों में एक ‘मानवीय’ तत्व जोड़ते हैं और इच्छित व्यवहार को सुदृढ़ करते हैं।

संख्यात्मक आंकड़ों से केवल जानकारी को डिज़ाइन करने में बल्कि उन्हें सही तरह से इस्तेमाल करने के लिए पैटर्न तैयार करने में भी मदद मिल सकती है।

एक प्रभावी प्रेरणा प्रक्रिया तैयार करने के लिए गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरह के ठोस आंकड़ों की आवश्यकता होती है। मानव-केंद्रित सर्वेक्षण और गुणात्मक अनुसंधान स्थानीय संदर्भों में मूल हस्तक्षेप में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षकों की दैनिक, साप्ताहिक और मासिक गतिविधियों, प्राथमिकताओं और जरूरतों पर नज़र रखने से संगठनों को दोगुना करने के लिए बिंदुओं (टचप्वाइंट) की पहचान करने में मदद मिल सकती है।

इस बीच, मात्रात्मक आंकड़ों से न केवल जानकारी को डिज़ाइन करने में बल्कि उन्हें सही तरह से इस्तेमाल करने के लिए पैटर्न तैयार करने में भी मदद मिल सकती है। आंकड़े एडटेक प्रदाताओं को सबसे पसंदीदा संचार चैनलों (यूट्यूब, व्हाट्सएप, आदि), फॉरमैट (आवाज, शब्द, या मल्टीमीडिया), या दिन के विभिन्न समय पर ध्यान केंद्रित करने और अधिकतम प्रभाव के लिए इन प्राथमिकताओं का लाभ उठाने की अनुमति दे सकता है। निगरानी और मूल्यांकन बदलते पैटर्न समझने में मदद करते हैं और समय के साथ इन्हें अपडेट और दुरुस्त करते हैं। यह शिक्षकों और अभिभावकों को बच्चों के साथ विभिन्न गतिविधियां संचालित करने, पूरा होने का प्रमाण साझा करने और लक्ष्य प्राप्त करने पर ‘पुरस्कार’ या ‘प्रमाणपत्र’ प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

3. समग्र डिजिटल समुदाय का निर्माण

सीखने की प्रक्रिया शिक्षक-छात्र के बीच मौन संबंध या सीमित बातचीत में संभव नहीं हो सकती है। शिक्षकों और अभिभावकों के लिए यह आवश्यक है कि वे छात्रों के सीखने की प्रक्रिया और उपलब्धियों के साथ तालमेल बिठाएं, विशेष रूप से सुदूर और दूरस्थ इलाक़ों वाली परिस्थितियों में जहां घर और कक्षा के बीच की सीमाएं लगभग मिट गई हैं।

आधे से अधिक छात्रों और 89 फ़ीसद शिक्षकों द्वारा उपयोग किया जाने वाला व्हाट्सएप संचार के सबसे लोकप्रिय चैनल के रूप में सामने आया है।

डिजिटल समुदायों की स्थापना करते समय, मौजूदा ढांचे का उपयोग करने के लिए कम क्षमता वाली सेटिंग्स ही आदर्श होती हैं। उदाहरण के लिए, आधे से अधिक छात्रों और 89 फ़ीसद शिक्षकों द्वारा उपयोग किया जाने वाला व्हाट्सएप संचार के सबसे लोकप्रिय चैनल के रूप में सामने आया है। इन पैटर्नों के आधार पर सरल समाधान डिज़ाइन करना कम लागत वाला होता है और भागीदारी की संभावना को बढ़ाता है। यह उन माता-पिता के लिए भी विशेष रूप से फायदेमंद है जो दैनिक मजदूरी पर निर्भर हैं और अपने काम की प्रकृति के कारण भौतिक रूप से होने वाली बैठकों में शामिल नहीं हो सकते हैं।

शिक्षकों और अभिभावकों के बीच एक निरंतर प्रतिक्रिया प्रणाली (फीडबैक लूप) बनाना सकारात्मक अभिभावक-शिक्षक, शिक्षक-पर्यवेक्षक और शिक्षक-छात्र संबंध स्थापित करने में प्रभावी रूप से मददगार साबित होता है। इससे एक सहायक समुदाय का निर्माण भी होता है जिसमें माता-पिता और शिक्षक बच्चे की सीखने की यात्रा के बारे में अपनी चिंताओं और दृष्टिकोण को साझा कर सकते हैं।

4. विभिन्न सरकारों के साथ प्रभावी ढंग से काम करना

बड़े पैमाने पर प्रभाव डालने के लिए सरकारों के साथ काम करना सबसे अच्छा तरीका है। बाज़ार-संचालित एमटेक समाधान उन उपयोगकर्ताओं को प्राथमिकता देते हैं जो उनके उत्पादों के लिए भुगतान कर सकते हैं। इस बीच, हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सेवाएं देने की इच्छा रखने वाली संस्थाओं को अक्सर सीमित संसाधन जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सरकारी समर्थन, इरादे और प्रभाव के बीच के इस अंतर को पाट सकता है, जिससे छात्र उपयोग, सीखने की गतिविधियों और शिक्षक प्रशिक्षण के मामले में निष्पक्षता सुनिश्चित हो सकती है। इसके बावजूद ऐसे कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने के लिए राज्य की इच्छा और क्षमता सुनिश्चित करने में समय लग सकता है। इसके अलावा, सरकारी स्कूलों में समाधान लागू करने की चाहत रखने वाले एडटेक संस्थाओं को विभिन्न राज्यों में अलग-अलग प्रकार के औपचारिक नियमों और अनौपचारिक प्रथाओं से जूझना पड़ता है। हार्डवेयर, उत्पाद और पाठ योजनाओं को मौजूदा पब्लिक स्कूल इकोसिस्टम में शामिल करने के लिए अक्सर कई स्तरों पर अनुमतियों और बातचीत की आवश्यकता होती है।

इन क्षेत्रों में काम करने वाले संगठनों और सरकारों को शिक्षकों को हस्तक्षेप के प्रतिनिधि के रूप में पेश करना चाहिए।

राज्य की प्राथमिकताओं के साथ तालमेल बिठाना और शासन के पदानुक्रम में – आंगनवाड़ी शिक्षक और उनके पर्यवेक्षक से लेकर परियोजना, जिला और राज्य स्तर के अधिकारियों तक को ध्यान में रखकर हस्तक्षेप डिजाइन करना – व्यवस्था को शामिल रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, संगठन एक राज्य या जिले में काम करने वाले हस्तक्षेप के तरीक़ों (टेम्पलेट्स) को दूसरे राज्य में  उसी रूप में लागू नहीं कर सकते हैं। किसी भी प्रकार का दृष्टिकोण तैयार करने से पहले प्रत्येक प्रशासन की इच्छाओं और प्राथमिकताओं का आकलन करना आवश्यक है। योजना को तैयार करने के लिए राज्य की विशिष्ट आवश्यकताओं और कामकाज के वातावरण को पहचानना एक महत्वपूर्ण कदम है जिससे कि सार्थक सहभागिता सुनिश्चित की जा सकती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में बिना अनुभव या तकनीकी ग्रहणशीलता वाले शिक्षकों के बीच एडटेक की पहुंच सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण लेकिन आवश्यक है।

ग्रामीण क्षेत्रों में बिना अनुभव या तकनीकी ग्रहणशीलता वाले शिक्षकों के बीच एडटेक की पहुंच सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण लेकिन आवश्यक है। विश्व बैंक का एडटेक रेडीनेस इंडेक्स इसे मान्यता देता है, और शिक्षकों को नीति और अनुप्रयोग में बेस्ट प्रैक्टिसेज के लिए मजबूत किए जाने वाले छह स्तंभों में से एक के रूप में सूचीबद्ध करता है। शिक्षकों की प्रेरणाओं और दृष्टिकोणों को प्राथमिकता देना और व्यापक मानसिकता में बदलाव पर जोर दिया जाना चाहिए। इस तरह की पहलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।

सबसे महत्वपूर्ण बात, तकनीक से जुड़े डर और शंका को दूर करना आवश्यक है। एडटेक सेवाओं को शिक्षकों के प्रतिस्थापन के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि उन्हें एक ऐसे संसाधन के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए जो शिक्षकों के कार्यभार को कम और उनके काम को बेहतर करेगा। इस क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों और सरकारों को जितना संभव हो सके शिक्षकों को हस्तक्षेप के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करना चाहिए। हम केवल शिक्षकों की भागीदारी और सहभागिता के माध्यम से ही एडटेक की पूरी शक्ति का उपयोग छात्रों के जीवन को बदलने और एक लचीले एजुकेशन इकोसिस्टम तैयार करने की दिशा में काम करने के लिए कर सकते हैं।

शिक्षकों की सहभागिता को बनाने और बनाए रखने के लिए, तकनीक और एडटेक को ऐसे उपकरण के रूप में स्थापित करना अनिवार्य है जो शिक्षक क्षमता का निर्माण कर सके और उसे आगे बढ़ा सके। हमें शिक्षक व्यवहार के संदर्भ में सकारात्मक लूप बनाने और एडटेक समाधानों की डिजाइन-से-कार्यान्वयन यात्रा के लिए क्षेत्र-विशिष्ट बारीकियों से अवगत होने के लिए ऐसे समाधानों से आंकड़े का लाभ उठाने की आवश्यकता है।

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चित्र साभार: श्रुति रॉय

महिला भूमि अधिकारों को लेकर दानदाताओं को कौन-सी बातें ध्यान रखनी चाहिए?

द वुमैनिटी फाउंडेशन अपने डब्ल्यूएलआर कार्यक्रम के तहत भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहे कई ऐसे समुदाय-आधारित संगठनों के साथ काम कर रहा है जो महिलाओं के भूमि अधिकार से जुड़े हुए हैं। फाउंडेशन इन संगठनों के साथ काम करने के अलावा इन्हें फंड भी दे रहा है। हालांकि कई समुदाय-आधारित संगठन भूमि और अन्य महिला मुद्दों पर एक साथ काम करते हैं, ऐसे कार्यक्रमों के लिए फ़ंडिंग एक समस्या है। इस तरह के हस्तक्षेप कार्यक्रमों के लिए धन आम तौर पर उन बड़े कार्यक्रमों के लिए आवंटित बजट से लिए जाता है जो विशेष रूप से महिलाओं के भूमि अधिकारों (डब्ल्यूएलआर) के लिए नहीं होते हैं।

महिला भूमि अधिकारों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता से हमें यह समझने में मदद मिली कि भारत में इसके लिए एक अपेक्षाकृत मजबूत फंडिंग इकोसिस्टम की आवश्यकता है। इसके परिणाम स्वरूप हमने उन चुनौतियों को समझने का प्रयास किया जिनके कारण फंडर इस इस क्षेत्र में प्रवेश करने से झिझकते हैं। हमारे कुछ अनुभव इस प्रकार हैं:

1. हस्तक्षेप के स्थापित मॉडलों की कमी

डब्लूएलआर के लिए फंडिंग इकोसिस्टम की इतनी कमी है कि ऐसे अनुकरणीय मॉडल और दृष्टिकोण मिल ही नहीं पाते हैं जिसे एक संभावित फ़ंडर अपना सकता हो। डब्लूएलआर को लेकर समाजसेवी संगठनों द्वारा ढांचागत हस्तक्षेप कार्यक्रमों में कमी के कारण प्रासंगिक कार्यक्रमों से होने वाले सकारात्मक प्रभाव के सीमित प्रमाण मिलते हैं। इस प्रकार फंडर्स को इस बात का भरोसा नहीं हो पाता है कि देशभर में भूमि और समुदायों की तमाम विविधताओं को देखते हुए उनके फंड का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाएगा – जिसके परिणामस्वरूप डब्ल्यूएलआर के साथ जुड़ने को लेकर आशंका बढ़ जाती है।

2. संभावित सामाजिकराजनीतिक प्रतिक्रिया

भारत में भूमि तक पहुंच और नियंत्रण पर सामाजिक मानदंडों का गहरा प्रभाव पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में अपने काम के दौरान, हमने देखा है कि सबसे आम भूमि विवादों में हाशिये पर जीने वाले समुदायों की महिलाएं (और पुरुष) शामिल होती हैं। यदि लोगों को ऐसा लगे कि किए जा रहे काम के कारण मौजूदा सामाजिक ताना-बाना और क्रमिक व्यवस्था (हेरार्की) प्रभावित या बाधित हो रही है तो समुदाय के अपेक्षाकृत सशक्त लोगों का ग़ुस्सा भड़क सकता है। जिसके चलते अलग तरह की चुनौतियां सामने आ सकती हैं। नतीजतन, फंडर्स के मन में डब्ल्यूएलआर पर काम करने वाले संगठन पर हो सकने वाली संभावित प्रतिक्रिया को लेकर एक प्रकार की आशंका होती है।

3. जटिल मानने की धारणा

यह एक आम धारणा है कि भूमि से जुड़े सभी प्रकार के हस्तक्षेप कार्यक्रम ‘जटिल’ एवं ‘लंबा समय लेने’ वाले होते हैं। इसके साथ-साथ महिलाओं के भूमि स्वामित्व पर लिंग आधारित डेटा की कमी के कारण समस्या की गंभीरता और इसके ज़मीनी स्वरूप को लेकर अलग-अलग तरह की ग़लतफ़हमियां हैं।

डब्लूएलआर के लिए रिपोर्टिंग पैरामीटर विभिन्न डेटाबेस में अलग-अलग होते हैं। ऐसा लगता है कि राज्यों में लिंग आधारित डेटा को रिकॉर्ड करने के लिए अलग-अलग तंत्र हैं, जिनमें से कुछ राज्यों में उनके भूमि रिकॉर्ड में लिंग वाला कॉलम शामिल नहीं है। उदाहरण के लिए, पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने महिलाओं की भूमि स्वामित्व 22.7 फ़ीसद होने का संकेत दिया, जबकि भूमि प्रशासन केंद्र द्वारा निर्मित महिला भूमि अधिकार सूचकांक ने राष्ट्रीय औसत 12.9 फ़ीसद होने का अनुमान लगाया है। समस्या की सीमा बताने में विफल रहने के अलावा, डेटा की कमी भी फंडर्स को भूमि को तकनीकी रूप से जटिल मुद्दा मानने पर मजबूर कर देती है। फंडर्स इसे एक ऐसे विषय के रूप में देखते हैं जिसके लिए विभिन्न प्रकार के कानूनों के व्यापक ज्ञान की आवश्यकता होती है और इसलिए वे इससे दूर रहते हैं। नतीजतन, वे उन कार्यों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, या आजीविका को फंड करने का विकल्प चुनते हैं जिनसे वे अधिक परिचित हैं। 

इस धारणा में शासन की मौजूदा प्रणाली के विरोध में अधिकार-आधारित हस्तक्षेप के लिए भी जगह है। कई मौजूदा हस्तक्षेप कार्यक्रमों का उद्देश्य मुख्य रूप से सिस्टम में पूरी तरह से बदलाव लाने की बजाय कार्यान्वयन की कमियों को दूर करना है।

भूमि-संबंधी हस्तक्षेप कार्यक्रम अक्सर ऐसी परियोजनाएं होती हैं जिनमें बहुत लंबा समय लगता है। उदाहरण के लिए, विरासत में मिली या खेती वाली ज़मीन से संबंधित हस्तक्षेपों का दो या तीन वर्षों में महत्वपूर्ण प्रभाव देखने को नहीं मिल सकता है। यह उन फंडर्स के लिए एक बचाव के रूप में काम करता है जो अपेक्षाकृत कम समय सीमा के भीतर अच्छे एवं अनुकूल परिणाम हासिल करने के उद्देश्य से हस्तक्षेप करना चाहते हैं।

सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में होने वाली प्रगति में ज़मीन की भूमिका को कम करने नहीं आंका जा सकता है।

और अंत में, डब्ल्यूएलआर पर काम के लिए मौजूदा तंत्र कई खंडों में विभाजित है, क्योंकि जमीन पर बहुत सारे प्रयास ऐसे समुदाय-आधारित महिला अधिकार संगठनों द्वारा किए जाते हैं जिनका प्राथमिक फोकस भूमि तक पहुंच बनाना नहीं है। जब उनसे जुड़ी महिलाएं भूमि-संबंधित मामलों में उलझती हैं तो उन्हें अक्सर ही डब्ल्यूएलआर के दायरे में खींच लिया जाता है। एक मजबूत और विकसित इकोसिस्टम की अनुपस्थिति यह सुनिश्चित करती है कि समुदाय-आधारित संगठनों और अन्य हितधारकों (जैसे सरकारी पदाधिकारी) की प्रभावी सहायता प्रदान करने की क्षमता सीमित बनी हुई है।

ऐसा कहकर कि स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को प्राप्त करने की दिशा में भूमि की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है। महिलाओं के लिए भूमि का बहुआयामी प्रभाव हो सकता है, यह एक अंतर्निहित वित्तीय संपत्ति और आजीविका पैदा करने के साधन के रूप में काम कर सकती है। महिलाओं के लिए भूमि अधिकार सुनिश्चित करना एसडीजी 5 के व्यापक दायरे के तहत 13 एसडीजी में योगदान देता है: लैंगिक समानता और एसडीजी 2 के साथ इसके अंतर्संबंध: जीरो हंगर, एसडीजी08: अच्छा काम और आर्थिक विकास, एसडीजी 13: जलवायु गतिविधि, और एसडीजी 17: साझेदारी। 

इसलिए, हम सभी के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हमारे द्वारा किए जा रहे कामों का मूल्यांकन भूमि तक महिलाओं की पहुंच और स्वामित्व के नजरिए से किया जाए।

ग्रामीण महिलाएं-महिला भूमि अधिकार
भारत में भूमि तक पहुंच और नियंत्रण पर सामाजिक मानदंडों का गहरा प्रभाव पड़ता है। | चित्र साभार: ईयू / सीसी बीवाय

फ़ंडर अपने काम में महिला भूमि अधिकार को कैसे शामिल कर सकते हैं?

1. अपनी भूमिका समझें

डब्लूएलआर पर अपना काम शुरू करने के बाद भारत में भूमि की विविधता, इससे जुड़े मुद्दे और विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों में महिलाओं पर लागू होने वाले नियमों और मानदंडों जैसी समस्याओं के कारण इसे समझने में हमें छह महीने का समय लग गया। इसलिए, हम इच्छुक फ़ंडर्स को इस बात के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि वे अपनी पहले से फंड की जा रही परियोजनों को देखें और इस बात का मूल्यांकन करें कि क्या वे अपने कार्यक्रम का दायरा इस प्रकार बढ़ा सकते हैं जिसमें एक या दो भूमि संबंधित मामले भी शामिल हों।

यह विशेषरूप से उन फ़ंडर्स के लिए सहायक है जो पहले से ही ग्रामीण महिलाओं के साथ काम कर रहे हैं, और जो जानते हैं कि इन महिलाओं का जीवन और आजीविका दोनों ही जमीन के साथ मज़बूती से जुड़ी हुई है। इसी तरह, आम तौर पर वित्त पोषित विभिन्न मुद्दे – जैविक खेती, प्रकृति-आधारित आजीविका, प्रवासन और जलवायु – भूमि से जुड़े हुए हैं। 

हितधारकों के मौजूदा इकोसिस्टम की खंडित प्रकृति एक वास्तविक समस्या है, क्योंकि डब्ल्यूएलआर पर काम करने वाले कई संगठनों और फंडर्स के बीच संचार का स्तर न्यूनतम है। यही कारण है कि हम परिदृश्य के बारे में अधिक जानने में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति से फोन पर बात करके हमेशा खुश होते हैं, क्योंकि हमारा मानना ​​है कि इस क्षेत्र में अपने अनुभवों के माध्यम से हमने जो ज्ञान और विशेषज्ञता प्राप्त की है, उसे साझा करने से सकारात्मक योगदान मिल सकता है।

2. संकेतक बनाएं

हम इस बात को समझते और स्वीकार करते हैं कि ऐसे पर्याप्त साक्ष्य-आधारित मॉडल नहीं हैं जिनका पालन किया जा सके। इसलिए, हम कृषि, पारिस्थितिकी बहाली, खाद्य सुरक्षा और आवास संबंधित कार्यों को फंड देने वालों से हम पूछते हैं कि, ‘क्या आप महिलाओं के भूमि स्वामित्व या पहुंच या नियंत्रण पर आधारभूत डेटा के संग्रह को अपने किसी मौजूदा कार्यक्रम में शामिल कर सकते हैं?’ 

इस डेटा संग्रह को बड़े डब्ल्यूएलआर हस्तक्षेप का हिस्सा या अग्रदूत होने की ज़रूरत नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि आपका संगठन स्वयं-सहायता समूहों (एसएचजी) के साथ काम कर रहा है और उनकी आजीविकाओं को बढ़ावा देने के बारे में उसके सदस्यों से बातचीत कर रहा है तो आप उनसे भूमि स्वामित्व से जुड़े सवाल पूछ सकते हैं, क्योंकि भूमि उन संपत्तियों का एक महत्वपूर्ण तत्व है जो उनके पास हो भी सकती है और नहीं भी। इस बातचीत से प्राप्त जानकारी प्रमुख संकेतकों के रूप में काम कर सकती हैं जो आपके संगठन या दूसरे संगठनों को डब्ल्यूएलआर पर अपेक्षाकृत अधिक संरचित कार्यक्रम के लिए प्रेरित कर सकती है। और इतना ना भी करे तो यह कम से कम भारत में महिलाओं के भूमि स्वामित्व की स्थिति से जुड़ी जानकारियों में महत्वपूर्ण कमी को दूर करने में भूमिका निभा सकती है।

3. संभावित चुनौतियों को किनारे करना

भारत में भूमि से जुड़े अधिकांश क़ानून कागज पर तो लैंगिक समानता को दर्शाते हैं लेकिन इनके कार्यान्वयन में अक्सर ही कमी रह जाती है। प्रभावी कार्यान्वयन को सक्षम करने वाले कार्यक्रमों को डिज़ाइन करना या उनमें शामिल होना शासन के विरोध में नहीं है। पहली नज़र में इसमें किसी को भी समस्या नहीं होनी चाहिए। कार्यक्रमों से समुदाय के समीकरणों पर असर पड़ने के चलते विरोध कभी भी उभर सकता है।

किसी क्षेत्र विशेष में मजबूत सामुदायिक उपस्थिति रखने वाले फंडिंग संगठन भी उनके समर्थन का लाभ उठा सकते हैं। वे प्रासंगिक हितधारकों की मैपिंग करके हस्तक्षेप के एक ऐसे प्रभावी मॉडल की पहचान कर सकते हैं जिससे न्यूनतम विरोध का सामना करना पड़े। 

फंडर्स राज्य सरकारों द्वारा प्रचारित भूमि-संबंधित पहलों का समर्थन करने के तरीकों पर भी विचार कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, ओडिशा सरकार 2024 तक वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन को पूरा करना चाहती है। यह फंडिंग संगठनों के लिए कदम बढ़ाने और सहायता प्रदान करने के लिए एक आदर्श अवसर के रूप में कार्य करता है, जैसे कि क्षेत्र में आदिवासी समुदायों की महिलाओं को उनके समुदायों को वन अधिकार के दावे दायर करने में मदद करने के लिए प्रशिक्षण देना।

4. भूमि से जुड़े अन्य विकल्पों पर विचार करें

ऐतिहासिक रूप से, भूमि पर नियंत्रण एवं पहुंच दोनों की शक्ति और क्षमता एक समान है और यह बात अब भी सच है। इसलिए, वुमैनिटी फ़ाउंडेशन में, हम भूमि को सामाजिक और आर्थिक दोनों ही रूपों में महिला सशक्तिकरण के एक मार्ग के रूप में देखते हैं। यदि महिलाओं को सशक्त बनाना उन पहलों का एक प्रमुख उद्देश्य है जिन्हें आप वित्तपोषित करना चाहते हैं, तो हमारी सलाह यह है कि आप इसे प्राप्त करने के लिए भूमि को एक साधन के रूप दे देखें। वास्तव में, इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए भूमि सबसे टिकाऊ तरीका है क्योंकि यह एक ऐसी संपत्ति है जो महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा, आश्रय, सामाजिक स्थिति, आय और आजीविका के अवसर प्रदान करती है। इसलिए, महिला सशक्तिकरण पर अपने काम की दीर्घकालिक स्थिरता का लक्ष्य रखने वाले फंडर्स को डब्ल्यूएलआर में निवेश करने पर दृढ़ता से विचार करना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है कि कार्यक्रम या परियोजना के समाप्त होने के बहुत समय बाद तक भी महिलाओं की एजेंसी बरकरार बनी रहेगी।

भूमि को सिर्फ़ पैसा कमाने में मदद करने वाली संपत्ति के रूप में देखने का संकीर्ण नज़रिया खतरनाक हो सकता है।

जब हमने पहली बार डब्ल्यूएलआर को वित्तपोषित करना शुरू किया, तो हमने अपने प्राथमिक लक्ष्य के रूप में महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण पर जोर दिया। लेकिन हम जल्द ही इस बात को समझ गये कि पैसे बनाने वाली संपत्ति के रूप में भूमि को देखने का अदूरदर्शी दृष्टिकोण खतरनाक हो सकता है। साथ काम करने वाली महिलाओं के साथ होने वाली बातचीत से हमने यह महसूस किया कि भूमि द्वारा दी गई सामाजिक सुरक्षा अक्सर उनकी नज़र में कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है, और यह एक ऐसी चीज है जिसे सभी फंडर्स को ध्यान में रखना चाहिए।

हालांकि, फ़ंडर्स की मानसिकता में बदलाव आना एक बड़ी बात है, उनके द्वारा उठाये जाने वाले कदम अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी हो सकते हैं। इस मुद्दे पर काम करने वाले संस्थानों और संगठनों के साथ सम्मेलनों और सभाओं में शामिल होने से भी यह तय करने में मदद मिलती है कि इसे एजेंडा में जोड़ना उपयोगी है या नहीं।

अंत में, इस क्षेत्र में नवाचार के लिए बहुत अधिक जगह है। यह जलवायु और वैकल्पिक फंडिंग उपकरणों से संबंधित नवाचारों पर सोचने वाले फंडर्स के लिए अनुकूल है। यह देखते हुए कि भूमि और उसके अर्थशास्त्र पर कई परिणामों को मापा और सत्यापित किया जा सकता है, हमारा मानना है कि कड़े मूल्यांकन अध्ययनों के साथ विकास बॉड के रूप में यह निवेश का मामला है। इससे न केवल विश्वसनीय सबूत तैयार होंगे, बल्कि संसाधन-संकट से जूझ रहे इस मुद्दे के लिए संभावित रूप से वैकल्पिक फंडिंग विकल्प भी सामने आ सकते हैं।

इसलिए हम सभी को इस बात के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि वे एक कदम पीछे हटें और इस बात को समझें कि भूमि का महिलाओं, उनके परिवारों, उनके समुदायों और साथ ही, ग्रह पर क्या स्थायी प्रभाव पड़ सकता है।

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प्राथमिक चिकित्सा का मतलब डॉक्टर और दवाखाना नहीं है

हमारे दिमाग में यह धारणा बैठी हुई है कि गांव में अगर डॉक्टर आ गए और एक दवाखाना खुल गया तो प्राथमिक चिकित्सा तक हमारी पहुंच हो गई। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की वास्तविक ज़िम्मेदारी है, सभी को स्वस्थ रखना। लेकिन जब तक हम किसी जानलेवा बीमारी से ग्रसित नहीं हो जाते हैं, तब तक हमें यही लगता है कि हम पूरी तरह से स्वस्थ हैं। बीमारी की चपेट में आने से पहले डॉक्टर से मिलना तो दूर, हमें अपने आसपास के किसी दवाखाने की जानकारी से भी परहेज़ होता है। अगर हम अतीत में जाएं तो अपनी सी प्रवृत्ति के मूल के बारे में जान सकते हैं। यदि व्यक्ति अपनी मृत्यु और स्वास्थ्य को लेकर अत्यधिक सजग होता तो भयभीत हो कर हम सब गुफा में छुप कर ही बैठे रहते और जंगल का खतरा मोल लेने से इनकार कर देते। इस तरह पूरी मानव जाति का विकास नहीं हो पता और यह प्रजाति विलुप्त हो जाती।

प्राथमिक चिकित्सा के अभाव का असर

इस आदिम प्रवृति के फलस्वरूप, आज अपेक्षाकृत बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं वाले केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी डायबिटीज़ से पीड़ित ऐसे लोगों का अनुपात पिछले पांच वर्षों में दोगुना हो गया है। लेकिन इसके लिए उचित उपचार सुविधाएं उस दर से नहीं बढ़ पाई हैं। 2015-16 में ऐसे लोगों का अनुपात 6-7 फीसद था जो 2019-21 में बढ़कर 12-14 फ़ीसद तक पहुंच गया और इसमें लगातार वृद्धि ही आ रही है। केरल के तिरुवनंतपुरम और पथनमथिट्टा जिलों में यह 20 फ़ीसद के आंकड़े को पार कर चुका है। अगर इस स्थिति को जल्दी ही नियंत्रित नहीं किया गया तो इन जिलों में अंग विच्छेदन (लिंब ऍम्प्पुटेशन) और आघात (स्ट्रोक) एक महामारी का रूप ले  सकता है।

उत्तर भारत में जहां आज भी ग़रीबी का स्तर बहुत ऊंचा है, लोगों की इसी प्रवृति के कारण सरकार के कई वर्षों के प्रयत्न के बावजूद से 60 फ़ीसद से अधिक महिलाएं और बच्चे एनीमिया (खून में आयरन जैसे तत्वों की कमी) से पीड़ित हैं।

जमुई (बिहार), दक्षिण दिनाजपुर (पश्चिम बंगाल), और छोटा उदेपुर (गुजरात) जिलों में इस बीमारी का अनुपात 75 फ़ीसद से भी ज्यादा है। यह स्थिति काफ़ी चिंताजनक है। खून में आयरन की कमी से वजन के कम होने, हमेशा बहुत थकान महसूस होने जैसी समस्याएं रहती हैं और बच्चों के मानसिक विकास पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

प्राथमिक चिकित्सा के कारगर समाधानों की शुरूआत

सौभाग्य से इन गंभीर बीमारियों के बारे में हमारी जानकारी अब बहुत बढ़ गयी है और पहले की तुलना में इनका निदान और उपचार आसान हो गया है। अब हर मरीज का व्यक्तिगत रुप से डॉक्टर से परीक्षण करवाना जरूरी नहीं रह गया है। अब एक प्रशिक्षित स्वास्थ्य सेविका स्वयं डॉक्टर न होकर भी इस काम को पूरे कौशल के साथ कर सकती है। फ़ोन के जरिये डॉक्टर दवाई का प्रिस्क्रिप्शन भी दे सकते हैं। कौन सी बीमारी है, कौन सी दवा देनी है, इन सवालों के जवाब अब काफी आसानी से प्राप्त हो सकते हैं। घर जा-जा कर लोगों को समझाना, उन्होंने दवाई ली की नहीं ली इस पर निगरानी रखना, और पूरी तरह से उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखने जैसे काम कठिन होते हैं। एक संवेदनशील स्वास्थ्य सेविका इन कामों में डॉक्टरों से भी ज्यादा माहिर हो सकती है।

अस्पताल के आपातकाल द्वार का दृश्य_प्राथमिक चिकित्सा
केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी डायबिटीज़ से पीड़ित ऐसे लोगों का अनुपात पिछले पांच वर्षों में दोगुना हो गया है, लेकिन उचित उपचार सुविधाएं उस दर से नहीं बढ़ पाई हैं। | चित्र स्रोत: फ्लिकर

इन कारणों और तथ्यों को समझते हुए ईरान और अमेरिका के अलास्का प्रदेश ने, पिछले 50 सालों में, अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली को पूरी तरह से बदल दिया है। इन देशों में डॉक्टरों की बजाय स्वास्थ्य सेविकाओं को मुख्य भूमिका दी गई है और डॉक्टरों को कहा गया है कि वे दूर बैठ कर, उनकी सहायता करें। भारत की तरह ही इन देशों के डॉक्टर भी सुदूर इलाक़ों में रहकर काम करने के प्रति बहुत अधिक उत्सुक नहीं होते हैं। स्वास्थ्य सेविकाओं की भूमिकाओं को बढ़ाने जैसी पहलों से उन्हें डॉक्टरों का अभाव महसूस नहीं हुआ और उनकी स्वास्थ्य सेवाओं में भी सुधार आया।

ईरान में इन स्वास्थ्य सेविकाओं को बेहवार्ज़ (फ़ारसी में बेहवार्ज़ का मतलब है, एक अच्छे कौशल वाली महिला) कहा जाता है। प्रत्येक गांव के लोग अपने-अपने बेहवार्ज़ का चुनाव करते हैं। चुने गये प्रत्याशी को सरकार दो साल का प्रशिक्षण देने के बाद, पूरे वेतन पर एक सरकारी कर्मी बनाकर, वापस उसी गांव भेज देती है। इन बेहवार्ज़ों की सहायता से ईरान ने मधुमेह और ब्लड प्रेशर जैसी गंभीर बीमारियों पर नियंत्रण पा लिया है। अलास्का में इन्हें कम्युनिटी हेल्थ ऐड के नाम से पुकारा जाता और उन्हें चार भागों में विभाजित चार हफ़्तों के एक प्रशिक्षण सत्र से गुजरना पड़ता है। इन्हें भी पूरा वेतन मिलता है और ये एक कम्युनिटी हेल्थ ऐड मैन्युअल के भरोसे काम करतीं है। उन्हें इस मैन्युअल को पूरी तरह से समझ के उसका सख़्ती से पालन करना पड़ता है। अलास्का के छोटे से छोटे गांवों में, चाहे वहां साल के ग्यारह महीने बर्फ ही क्यों ना पड़ती हो, इस तरीके को अपनाकर गांव वालों को एक समग्र प्राथमिक सेवा उपलब्ध करावाई गई है।

ये स्वास्थ्य सेविकाएं इन परिवारों के प्रत्येक सदस्य और गांव की पूरी आबादी का ध्यान रखती हैं – सिर्फ उनका नहीं जो खुद चल कर दवाखाना पहुंच जाते हैं।

जिन परिवारों के स्वास्थ्य सेवाओं की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी जाती हैं, कम्युनिटी हेल्थ ऐड की सदस्य उन परिवारों के साथ व्यक्तिगत रूप से जान-पहचान बढ़ाती हैं और उन्हें तथा उनकी प्रवृतियों को समझने का प्रयास करती हैं। ऐसा करके वह उनकी स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने का अपना दायित्व निभाती हैं। ये स्वास्थ्य सेविकाएं इन परिवारों के प्रत्येक सदस्य और गांव की पूरी आबादी का ध्यान रखती हैं – सिर्फ उनका नहीं जो खुद चल कर दवाखाना पहुंच जाते हैं। अधिक गंभीर मरीज़ों से ये स्वास्थ्य सेविकाएं बार-बार मिलती हैं। फिर उन्हें बहलाकर, फुसलाकर, जरूरत पड़ी तो डांटकर, उनके स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए आवश्यक निर्णय लेती हैं।

भारत में संभावनाएं

भारत में भी कुछ ऐसी संस्थाएं हैं जो इस तरह का काम कर रहीं हैं। उदाहरण के लिए द्वार हेल्थ नामक एक संस्था जिला सातारा (महाराष्ट्र) में काम कर रही है। इन्होंने उसी जिले के गांवों से अपनी स्वास्थ्य सेविकाओं का चयन किया है और उन्हें सखी नाम दिया है। इनकी सखियों ने देखा कि इनके गांवों में करीबन 35 फ़ीसद लोगों का रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) सामान्य से काफी ज्यादा है। ढाई फ़ीसद लोगों का ब्लड प्रेशर इतना ज्यादा है कि उन्हें कभी भी दिल का दौरा पड़ सकता है – इसे हाइपरटेन्सिव क्राइसिस कहते हैं। सखियों ने तुरंत ही सब लोगों का इलाज शुरू करवाया और जहां जरूरत पड़ी, वहां अपने सुपरवायज़री डॉक्टर की सहायता और विशेषज्ञों से सलाह ली। इन सभी लोगों का उपचार अब भी चल रहा है लेकिन चार महीनों के बाद उच्च रक्तचाप की शिकायत वाले लोगों में से 45 फ़ीसद और हाइपरटेन्सिव क्राइसिस की समस्या वाले लोगों में से 70 फ़ीसद की स्थिति में अब काफी सुधार है।

धीरे-धीरे यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि डॉक्टर-प्लस-क्लिनिक मॉडल, जो बाह्य रोगी सेवाएं प्रदान करने वाले एक छोटे आकार के अस्पताल के अलावा और कुछ नहीं है, को अब प्राथमिक चिकित्सा सेवा नहीं माना जा सकता है। इसे हम केवल एक अस्पताल का छोटा स्वरूप समझ सकते हैं। एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित स्वास्थ्य सेविका (या सेवक) ही लोगों को उच्च स्तरीय प्राथमिक चिकित्सा प्रदान कर सकती है। ये सेविकाएं (सेवक), जो न सिर्फ निदान के आधुनिक तरीकों से अवगत हैं और उससे जुड़े हुए तंत्रों के उपयोग में माहिर है, बल्कि उन्हें घर-घर जा कर, संवेदनशीलता से, परिवार के हर सदस्य को अपने स्वास्थ्य को अच्छा रखने के लिए जागरूक करना भी आता है।

भारत में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुके ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो लोगों की सेवा करना चाहते हैं।

यह दृष्टिकोण अनीमिया से पीड़ित उस महिला के लिए भी उतना ही आवश्यक है जिसे आयरन की गोली खाने से मितली आती है, जितना कि उस व्यक्ति के लिए जिसे मधुमेह है लेकिन वह न तो मेटफोर्मिन लेता है और न ही रोज 30मिनट के सैर की तकलीफ उठाना चाहता है क्योंकि उसे लगता ही नहीं है कि वह बीमार है। इसके अलावा, यह दृष्टिकोण 40 की उम्र पार कर चुकी उन महिलाओं के लिए भी समान रूप से आवश्यक है जो कैंसर की संभावना के डर से अपने स्तनों की जांच करवाने से बचती हैं।

ऊपर बताये गये प्रत्येक मामले में यह निर्धारित करना आसान है कि चिकित्सीय रूप से क्या करने की ज़रूरत है। लेकिन मुश्किल है लोगों तक पहुंचना और उन्हें मेडिकल सलाह मानने के लिए तैयार करना।

भारत में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर चुके ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो लोगों की सेवा करना चाहते हैं। यहां तक कि आदिवासी समाज में भी ऐसे युवाओं की संख्या बहुत है। ओडिशा के कालाहांडी में आदिवासियों के साथ काम करने वाली स्वास्थ्य स्वराज नाम की संस्था उन्हीं क्षेत्रों से चुनी गई युवतियों को दो साल का प्रशिक्षण देती है। प्रशिक्षण पूरा होने के बाद ओडिशा की सेंचूरियन यूनिवर्सिटी से उन्हें कम्युनिटी हेल्थ प्रैक्टिशनर (सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मी) का डिप्लोमा मिलता है। प्रशिक्षण के बाद ये स्वास्थ्य सेविकाएं प्राथमिक चिकित्सा से जुड़े सभी काम कर सकती हैं। इच्छा होने पर आगे चलकर ये सेविकाएं उच्चतर स्तर की नर्सिंग ट्रेनिंग मेडिकल प्रशिक्षण भी प्राप्त कर सकती हैं। भारत में यदि युवाओं को इस प्रकार के प्रशिक्षण देने के बाद उन्हें रोज़गार दिया जाए तो इन्हें अच्छा काम भी मिलेगा, जिसकी इन्हें सख्त जरूरत है, और साथ ही साथ ये सामाजिक सुधार के एक शक्तिशाली औजार बन जाएंगे।

यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में डक्कन हेराल्ड में प्रकाशित हुआ है।

नचिकेत मोर द बैनियन एकेडमी ऑफ लीडरशिप इन मेंटल हेल्थ, चेन्नई में विजिटिंग साइंटिस्ट हैं। (सिंडिकेट द बिलियन प्रेस )

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चित्र साभार: श्रुति रॉय

राजस्थान में आज भी महिलाओं को डायन बताने की कुप्रथा क्यों क़ायम है?

केस-1 नवंबर, 2014 में राजस्थान के राजसमंद जिले की एक महिला को भरे समाज के सामने डायन बताकर वस्त्र-विहीन कर दिया गया। फिर उसे उसी अवस्था में पूरे गांव में घुमाया गया। बाद में उसे ज़िंदा जलाने का प्रयास भी किया गया। 

केस-2 जुलाई, 2023 में राजस्थान के भीलवाड़ा जिले की एक महिला के साथ उसके ससुराल वालों ने डायन बताकर मारपीट करना शुरू कर दिया। लोहे की गर्म सलाखों से उसके हाथ-पैर और चेहरे को जलाया गया, यहां तक कि उसके सिर के बाल भी काट दिए। इसके बाद उसे ज़िंदा दफ़नाने की कोशिश की गई।

ये दो उदाहरण बताते हैं कि बीते दशकों से डायन प्रथा के संदर्भ में देश में कोई बदलाव नहीं आया है और सदियों पुरानी यह कुरीति अपनी पूरी बर्बरता के साथ अपना अस्तित्व बनाए हुए है। यही वजह है कि ऐसी महिलाओं की एक लंबी लिस्ट बनाई जा सकती है जो बीते कुछ महीनों या सालों में डायन करार दे दी गई हैं और तमाम तरह की बर्बरता का शिकार बनी हैं।

भारत के अधिकांश राज्यों में डायन करार दिए जाने की कुप्रथा व्याप्त है। देश का सबसे बड़ा राज्य राजस्थान भी इससे अछूता नहीं है, खासकर प्रदेश का दक्षिणी आदिवासी इलाका इससे बुरी तरह ग्रसित है। इस विषय पर इलाक़े में सक्रिय समाजिक संस्थाओं से बात करने पर पता चलता है कि यह प्रथा कितनी भयावह है और इसके पीछे, अंधविश्वास के अलावा और कौन सी वजहें काम करती हैं।

महिलाओं को डायन बताए जाने के कारण

महिला मंच संस्था, राजस्थान के राजसमंद जिले में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम करती है। इसके काम में डायन प्रथा को लेकर लोगों को जागरूक करना प्रमुख रूप से शामिल है। संस्था की संयोजक शकुंतला पामेचा इसकी वजहों पर बात करते हुए कहती हैं कि ‘ज़्यादातर बार अकेली, बूढ़ी, ज़्यादा सम्पत्ति वाली या होशियार महिलाओं को डायन घोषित कर दिया जाता है। कभी-कभी आपसी दुश्मनी के कारण भी महिला को परिवार के लोग डायन कहकर प्रताड़ित करते हैं। जहां महिला थोड़ी समझदार हो या फिर पति भोला हो, तो उसकी अपने घर में अधिक भागीदारी को लेकर ईर्ष्या या फिर संपत्ति हड़पने के लालच और में जानबूझकर लोग महिला को डायन करार दे देते हैं। राजसमंद जिले में डायन प्रथा का चलन बहुत है, यहां परिजन पीड़िता के शरीर से डायन निकलवाने के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं चूकते हैं।’

किसी को डायन करार देने के लिए कई बार छोटी से छोटी घटना भी काफ़ी हो सकती है। जैसे – गाय का दूध देना बंद करना, कुएं में पानी सूख जाना, किसी बच्चे की मौत होना वग़ैरह। ऐसी घटनाओं का फायदा उठा कर अंधविश्वास फैलाया जाता है, और महिलाओं को इसका जिम्मेदार बताकर डायन करार दे दिया जाता है।

शकुंतला आगे जोड़ती हैं कि ‘कोई ओझा, भोपा या तांत्रिक किसी महिला को कभी भी डायन घोषित कर सकता है। कई बार लोग अपनी साधारण समस्याओं के लिए भोपा के पास जाते हैं और वह इन समस्याओं का जिम्मेदार महिला रूपी डायन को बता देता है। वे कुछ इस तरह के इशारे बताते हैं जैसे डायन का घर पूर्व मुखी है, उसके आंगन में आम का पेड़ है। ऐसे संकेतों से जुड़ी सामान्य महिला भी फिर लोगों की नजर में डायन नामजद हो जाती है।’

उदयपुर के दक्षिण-पूर्व में स्थित कोटड़ा आदिवासी संस्थान के डायरेक्टर सरफ़राज शेख ने भी इस इलाके में डायन प्रथा से जुड़े कई मामले देखे हैं। वे अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं किज़्यादातर उन महिलाओं को टारगेट किया जाता है जो विधवा, परित्यक्ता, वृद्ध हों अथवा जिनके परिवार का संबल लेने वाला कोई मजबूत व्यक्ति न हो। ताकि उनकी जमीन को हड़पा जा सके। अधिकतर मामलों में परिवार एवं पड़ोसियों की भोपाओं/तांत्रिकों के साथ मिलीभगत होने की बात भी सामने निकल कर आती है।’

बैलगाड़ी पर सवार एक महिला_डायन प्रथा
किसी को डायन करार देने के लिए कई बार छोटी से छोटी घटना भी काफ़ी हो सकती है। | चित्र साभार: पेक्सल्स

कानून क्या कहते हैं? 

अलग-अलग राज्यों ने डायन प्रथा को लेकर कानून बनाए गए हैं, मसलन झारखंड ने डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 2001 , बिहार का बिहार डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 1999, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि। राजस्थान ने भी राजस्थान डायन-प्रताड़ना निवारण अधिनियम, 2015 कानून लागू किया है जो इन सब के बाद आया कानून है। इसके मुताबिक़ – 

इस बात की लगातार आवश्यकता बताई जा रही है कि केंद्र स्तर पर भी डायन प्रथा रोकने से जुड़ा मज़बूत क़ानून लाया जाए ताकि भारत भर एक मजबूत नज़ीर बन सके। हालांकि इस संबंध में 2010 में एक बिल लोकसभा में लाया तो गया था लेकिन अभी तक इस पर कानून नहीं बन सका है।

क़ानून का कितना असर?

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2001 और 2021 के बीच भारत में लगभग 3,093 महिलाओं की हत्या की गई, जिसकी वजह जादू-टोना रहा था। कानूनन दर्ज मामलों को देखने से भले ही ऐसे लगता है कि पिछले कुछ सालों में महिलाओं को डायन बताकर, उनके साथ दुराचार करने के मामले अब कम हो रहे हैं। लेकिन जमीनी हकीकत इससे बहुत अलग है। यह प्रथा सामाजिक रूप से आज भी कायम है। इस पर कोटड़ा आदिवासी संस्थान के कार्यकर्ता राजेंद्र कुमार कहते हैं कियह एक क्रूर सामाजिक समस्या है। भले ही कानून के डर से लोग सामने आकार किसी को डायन न कहें, लेकिन मेरे ही गांव में आपको लोग अंगुलियों पर गिना देंगे कि हमारे गांव में कौन-कौन डायन है। गांव के लोग में उनसे रिश्ता रखने तक से परहेज करते हैं। ऐसे में समाज में उनका एवं उनके परिवार का भविष्य दांव पर लग जाता है।’

शकुंतला एक दूसरा पहलू रखते हुए कहती हैं कि ‘कानून तो आ गया लेकिन पुलिस को भी इसके प्रावधानों के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं होती है। हमने पुलिस की ट्रेनिंग की और लोगों को जन सुनवाई में कानून के बारे में बताया। डायन करार होने पर महिला एफआईआर दर्ज कर सकती है, और पुलिस को रिपोर्ट दर्ज करनी ही होगी—ऐसा उन्हें कई बार मालूम ही नहीं होता।’ वे आगे कहती हैं कि ‘इसमें दिक्कत ये भी है कि जिन पुलिसकर्मियों या सरकारी अधिकारियों के साथ हम ट्रेनिंग करते है, उनका कुछ समय बाद ट्रांसफर हो जाता है। इसलिए हमें उनके साथ लगातार ट्रेनिंग और काम करते रहने की ज़रूरत होती है।”

सशक्त सामूहिक प्रयासों की जरूरत

सामाजिक कुरीतियों का अकेले सरकारों के कानून बनाने भर से खत्म कर पाना मुश्किल होता है। इसके लिए कानूनों को सही तरीक़े से लागू किये जाने और नागरिक जिम्मेदारी की भी ठोस अहमियत होती है। ज़मीनी स्तर पर काम करने वाली सामाजिक संस्थाओं का अनुभव रहा है कि किसी एक पहलू के सब कुछ करने से सब ठीक नहीं हो सकता है। डायन प्रथा के खिलाफ लड़ाई में समाज, सरकार और सामाजिक संगठनों को साथ मिलकर काम करने की और महिलाओं के अधिकारों को लेकर पूरा समर्थन देने की आवश्यकता है।

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फोन सर्वेक्षण करने के सबसे कारगर तरीके क्या हैं?

कोविड-19 के बाद से विकास सेक्टर में आंकड़ों के संग्रहण (डेटा कलेक्शन) के लिए फोन सर्वेक्षण करने का चलन बढ़ गया है। स्वास्थ्य और सुरक्षा जोखिमों को कम करने के अलावा फ़ोन सर्वेक्षण के कई लाभ हैं, जिनमें कम लागत आना और विस्तार की अधिक संभावनाएं होना भी शामिल है। हालांकि फोन सर्वेक्षण करते हुए आने वाली की मुख्य चुनौती उच्च-गुणवत्ता वाले सार्थक आंकड़ों को संग्रहित करना और उत्तरदाताओं की गरिमा और विश्वास को बनाये रखना है।

फोन सर्वेक्षण तकनीकों की बेस्ट प्रैक्टिस के अनुसार उत्तरदाताओं के साथ मजबूत संबंध स्थापित करना और इस विश्वास-निर्माण प्रक्रिया में उत्तरदाताओं के नाम का उपयोग करने से मदद मिलती है। इसलिए हाल में जब हम एक ऐसी स्थिति में फंस गये थे जिसमें हमारे पास उन लोगों के नाम उपलब्ध नहीं थे जिन्हें हम फोन कर रहे थे, हमें इस बात की चिंता थी कि इससे उच्च-गुणवत्ता वाले आंकड़े प्राप्त करने और उत्तरदाताओं के साथ सकारात्मक संबंध बनाये रखने की हमारी योग्यता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

हालांकि, हमने पाया कि विस्तृत, व्यक्तिगत फोन सर्वेक्षणों के लिए उत्तरदाताओं के नाम नहीं होने से किसी तरह की बाधा उत्पन्न नहीं होती है। बेशक, सर्वेक्षण की ऐसी कई तकनीकें हैं जिनमें उत्तरदाताओं के नाम की जरूरत नहीं पड़ती है। उदाहरण के लिए, रैंडम डिजिट डायलिंग (जिसमें लोगों या परिवारों को बिना किसी चयन प्रक्रिया के कॉल कर लिया जाता है) और कई बड़े-पैमाने के सर्वेक्षण तकनीकों में उत्तरदाताओं के नाम सहित अन्य विवरण शामिल नहीं होते हैं। इस सर्वेक्षण के लिए हम विस्तृत सर्वेक्षण (लॉन्ग-फॉर्म सर्वे) कर रहे थे जिसमें ऊर्जा की खपत और घरेलू विशेषताओं से जुड़ी व्यक्तिगत जानकारियां मांगी गई थी।

हमारे सर्वेक्षण की पृष्ठभूमि

पिछले वर्ष हमने बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में घरों एवं व्यापारिक संस्थाओं के साथ 1,700 से अधिक फोन-सर्वेक्षण पूरे किए। हमारे सभी उत्तरदाता ऐसे लोग थे जिन्हें विभिन्न ऊर्जा सेवा कंपनियों (ईएससीओ) से वितरित नवीकरणीय ऊर्जा (डीआरई) प्राप्त हुई थी और हम उनकी ऊर्जा के उपयोग, ऊर्जा प्राथमिकताओं और घरेलू निर्णयों के बारे में विस्तार से जानना चाहते थे। इस सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़े का उपयोग लंबी-अवधि वाली निगरानी प्रणाली (मॉनिटरिंग सिस्टम) का आधार बनाने के लिए किया गया था।

सर्वेक्षण को पूरा करने के लिए, विभिन्न ईएसससीओ कंपनियों ने हमारे साथ उनके ग्राहकों कि सूची साझा की थी, जिनमें ग्राहकों के प्रकार और उनके फोन नंबर थे लेकिन उनके नाम नहीं थे। कुछ उचित कारणों से ही ये निजी कंपनियां अपने ग्राहकों की गोपनीयता सुनिश्चित करना चाहती थीं। इसलिए हमने एक ऐसा सर्वेक्षण दृष्टिकोण बनाया जिसका लक्ष्य ग्राहकों के नाम ना होने के बावजूद उनके साथ एक संबंध स्थापित करना था। 

इस प्रक्रिया में हमारी दो परिकल्पनाएं थीं:

  1. सही उत्तरदाताओं की पहचान करना अपेक्षाकृत अधिक कठिन होगा; और
  2. सर्वे करने वालों (प्रगणकों) और उत्तरदाताओं के बीच विश्वास और तालमेल की कमी के कारण सर्वेक्षण से इनकार की दर में वृद्धि होगी।

इन परिकल्पनाओं की जांच करने और भविष्य में होने वाले सर्वेक्षण का सबसे कारगर तरीका विकसित करने के लिए हमने प्रगणकों और उत्तरदाताओं दोनों से आंकड़े प्राप्त किए।1

परिकल्पना 1: सही उत्तरदाताओं की पहचान करना अपेक्षाकृत अधिक कठिन होगा

उत्तरदाताओं के नाम के बिना उनके साथ सर्वेक्षण करने की सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करने की होती है कि हम सही व्यक्ति से संपर्क कर पा रहे हैं या नहीं। इस बात की पूरी संभावना थी कि ईएसससीओ से हमें जो फोन नंबर मिले थे वे या तो बदल गये हों, या फिर फोन पर बात करने वाला व्यक्ति हमारा उत्तरदाता ना हो।

इस चुनौती से निपटने के प्रयास के रूप में हमने चार-चरणों वाली एक त्रिकोणीय प्रक्रिया (सर्वेक्षण के सन्दर्भ में, ट्रायंगुलेशन प्रोसेस किसी बिन्दु की स्थिति ज्ञात करने की वह विधि है जिसमें एक आधार-रेखा के दोनों सिरों से उस बिन्दु की दिशा में बनने वाले दो कोणों से जानकारी का सत्यापन किया जाता है) विकसित की जिसका उपयोग प्रत्येक सर्वेक्षण में किया गया।

फोन सर्वे में उत्तरदाताओं की पहचान करना - फोन सर्वेक्षण
स्रोत: मिरो

सर्वेक्षण के परिणाम

सबक एवं सुझाव

परिकल्पना 2: प्रगणकों और उत्तरदाताओं के बीच विश्वास और तालमेल की कमी के कारण सर्वेक्षण से इनकार की दर में वृद्धि होगी

उत्तरदाताओं के नाम के बिना सर्वेक्षण करने का एक और संभावित मुद्दा उनका विश्वास हासिल करना है। उत्तरदाताओं को यह बात अजीब लग सकती है कि एक व्यक्ति उन्हें फोन करके उनसे व्यक्तिगत जानकारियां मांग रहा है लेकिन जिस व्यक्ति से वह बात करना चाहता है, उसका नाम तक नहीं जानता है।

लेकिन हमें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि यह समस्या हमारी उम्मीद से कम थी! हमें सहमति मिलने के बाद 95% से अधिक उत्तरदाताओं ने स्वेच्छा से हमारे कॉल की शुरुआत में ही अपना नाम बता दिया।

उत्तरदाताओं का सर्वेक्षण में शामिल होने से इनकार करना - फोन सर्वेक्षण
स्रोत: आईडीइनसाइट 

हमने यह भी पाया कि नाम लेने में हिचक दिखाने वाले 45 उत्तरदाताओं में से, 12 (या 26 फीसद) उत्तरदाताओं ने या तो कुछ प्रश्नों के बाद सर्वेक्षण को जारी रखने से मना कर दिया या फिर बिना किसी तरह का कारण दिये कॉल काट दिया। दूसरी तरफ, अपना नाम आसानी से साझा करने वाले 1058 उत्तरदाताओं में से, 154 (या 14.5 फीसद) ने कुछ सवालों के बाद सर्वेक्षण को जारी रखने से इंकार कर दिया।

सबक एवं सुझाव

हमारे अनुभव ने विस्तृत फ़ोन सर्वेक्षण करने के लिए पीआईआई की आवश्यकता पर एक नजरिया प्रदान किया है। कुल मिलाकर, बिना नाम वाले उत्तरदाताओं के साथ सर्वेक्षण करते समय कुछ खास तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इनमें इच्छित उत्तरदाता की गलत पहचान का जोखिम, उत्तरदाताओं के साथ विश्वास स्थापित करने में कठिनाई और उत्तरदाताओं द्वारा सर्वेक्षण पूरा करने से इनकार करना शामिल है। हालांकि, अन्य उपलब्ध जानकारियों का उपयोग करके, ज्ञात एवं अज्ञात उत्तरदाताओं से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं की तुलना करके, फ़ील्ड पदाधिकारियों की मदद से उत्तरदाताओं तक सर्वे की पूर्व जानकारी पहुंचाकर और सहमति के लिए एक मज़बूत स्क्रिप्ट तैयार करके इन चुनौतियों को एक हद तक कम करने का प्रयास किया जा सकता है।

फुटनोट्स:

  1. यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि हम इस बारे में कोई कारण संबंधी बयान देने में असमर्थ हैं कि हमारी प्रक्रियाओं के कारण कुछ निश्चित परिणाम कैसे प्राप्त हुए होंगे। हमारे पास कोई प्रतितथ्यात्मक स्थिति नहीं है, इसलिए हमारे अनुभव की प्रकृति वर्णनात्मक और गुणात्मक है।
  2. हालांकि, साझेदार संगठन की फील्ड टीम को प्रश्नावली से जुड़ी ऐसी कोई भी जानकारी नहीं होनी चाहिए, जिसका उपयोग वे उत्तरदाताओं के उत्तरों को पूर्वाग्रहित करने के लिए कर सकते हैं। हमारे मामले में, उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि हमने इस सर्वेक्षण में किन विषयों को शामिल करने की योजना बनाई है।

यह लेख मूलरूप से आईडीइनसाइट पर प्रकाशित हुआ था

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