January 30, 2024

युवाओं को संवैधानिक मूल्यों से जोड़ना हमेशा चलने वाली एक यात्रा है

भले ही भारत का संविधान विश्व स्तर पर सबसे उदार और प्रगतिशील संविधानों में से एक माना जाता है, लेकिन देश का युवा इसके बारे में कम ही जानता है।
10 मिनट लंबा लेख

भारत के संविधान का जन्म जन-आंदोलनों, संघर्षों और वैचारिक-राजनीतिक संवाद से हुआ है। इसमें न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व और समानता के मूल्यों में भरोसा रखने वाले एक राष्ट्र की कल्पना की गई है। इसके साथ ही, हमारा संविधान सरकार की संरचना, शक्तियों, जिम्मेदारियों और नागरिकों के साथ उसके संबंधों को परिभाषित करता है और उन्हें मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है।

संविधान सभा के सदस्यों ने इन अधिकारों को गरीबी, अशिक्षा या फिर जाति, वर्ग, लिंग और धार्मिक आधार पर व्यवस्था के स्तर पर होने वाले सामाजिक भेदभाव को ख़त्म करने के लिहाज़ से ज़रूरी माना था। जब ये मूल्य, अधिकार और कर्तव्य देश के नागरिकों और संस्थानों द्वारा व्यवहार में लाए जाते हैं तो इनसे हमारे धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य को बनाए रखने में मददमिलती है। इसलिए सभी नागरिकों और संगठनों, विशेषकर नागरिक अधिकारों के उल्लंघन और भेदभाव के खिलाफ काम करने वालों के लिए संविधान को बारीकी से समझना महत्वपूर्ण है।

यह एक ज़रूरी सवाल है कि हमारे संविधान के प्रगतिशील और दूरदर्शी होने के बावजूद, हमने इसे कितना आत्मसात किया है और किस हद तक उसे जीवन में अपना सके हैं? यहां पर दो समाजसेवी संगठन और एक सरकारी संस्थान इसी पर बात करते हुए बता रहे हैं कि वे लोगों और समुदायों के साथ काम करते हुए संविधान पर कैसे बात करते हैं। ये संस्थान उन विभिन्न तरीकों के बारे में बात कर रहे हैं जिनसे वे सामुदायिक चेतना में संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करते हैं और लोगों में वैचारिक बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते हुए वे सुनिश्चित करते हैं कि अधिकारों और कानूनों को जमीनी हकीकत से जोड़ा जाए ताकि समाज के सभी वर्ग अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए संवैधानिक उपचारों की मदद लेने में सक्षम बन सकें।

संविधान को समझना हमेशा चलने वाली एक यात्रा है

मध्य प्रदेश में जमीनी स्तर पर काम करने वाला संगठन, सिविक-एक्ट फाउंडेशन इस बात पर ज़ोर देता है कि संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझना एक लगातार चलने वाली यात्रा है। यह केवल एक बार होने वाली कोई घटना या आयोजन नहीं है। यह एक धीरे-धीरे और लगातार चलने वाली प्रक्रिया है जो महीनों या सालों तक चलती है। भाईचारे, समानता और स्वतंत्रता का अनुभव करने और इस तरह के विचारों और सिद्धांतों पर चर्चा के लिए की जगह बनाना बदलाव को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण है। आमतौर पर लोगों की धारणा होती है कि संविधान से उनका कुछ ख़ास लेना-देना नहीं है या इसका संबंध केवल आरक्षण से है। इस तरह की विचारधारा और विश्वासों को बदलने और उन पर चर्चा करने के लिए एक जगह बनाना ज़रूरी है। सिविक-एक्ट इसके लिए कई महीनों तक चलने वाली कार्यशालाएं आयोजित करता है। इसमें विभिन्न जाति, लिंग और वर्ग से आने वाले लोगों के बीच सामूहिक चर्चा होती है। इसके लिए शुरूआती कार्यशालाओं में हिस्सा लेने वालों को कुछ इस तरह के सवालों का जवाब देना होता है जैसे – ‘क्या कुछ मामलों में हिंसा किया जाना उचित है?’ या फिर, ‘आप समलैंगिक विवाह के बारे में क्या सोचते हैं?’ आगे की कार्यशालाओं में, लोगों को उनके अनुभवों और ज़मीनी हक़ीक़तों के सहारे समानता, न्याय, बंधुत्व, स्वतंत्रता आदि की बारीकियां बताई जाती हैं।

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संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों को समझना एक लगातार चलने वाली यात्रा है।

कर्नाटक में सक्रिय संगठन, संवाद युवा अधिकारों और सशक्तिकरण के लिए काम करता है। सिविक-एक्ट की तरह, संवाद भी अपने साथ काम करने वाले युवाओं के साथ एक स्थायी जुड़ाव बनाए रखता है। तीन साल की अवधि वाले कार्यक्रमों में शामिल होने वाले कई युवा उसके बाद भी लंबे समय तक बदलाव के लिए सक्रिय रूप से काम करना जारी रखते हैं। उदाहरण के लिए वे अपने कॉलेज में यौन उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम, 2013 के तहत आंतरिक शिकायत समितियां बनाने की मांग करते हैं या फिर अपने समुदाय से जुड़े किसी मुद्दे की जांच-पड़ताल करके उसका समाधान करने के प्रयास करते हैं। लेकिन यहां तक पहुंचने में काफी समय और प्रयास लगते हैं।

युवाओं के साथ जुड़ाव के पहले चरण में, संवाद प्रतिभागियों को जाति, लिंग, वर्ग, धर्म और असमानता और, इनके आपसी संबंधों के बारे में जानकारी देता है और इन्हें लेकर संवेदनशीलता विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करता है। यह तरीक़ा उन्हें संविधान से जोड़ने से पहले वास्तविक जीवन में हो रहे भेदभाव को पहचानने और समझने का मौक़ा देता है। दूसरे चरण में, वे कार्यशालाएं आयोजित कर संविधान से जुड़े विषयों जैसे प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और कर्तव्य पर बात करते हैं और युवाओं के अनुभवों के सहारे उन्हें जीवन में उतारने का तरीक़ा समझते हैं। तीसरे चरण में, पहले दो चरणों में हासिल की हुई सीखों से समुदाय से जुड़े मुद्दों को हल करने के प्रयास करते हैं.

परंपराओं और मान्यताओं के साथ संविधान का संतुलन

भारत में, कई परंपराएं और मान्यताएं अक्सर हमारे संवैधानिक सिद्धांतों और अधिकारों से उलट जाती दिखती हैं। इस तरह के विरोधाभास के उदाहरणों पर गौर करें तो करवा चौथ का ज़िक्र किया जा सकता है, जहां केवल महिलाएं अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं, या उन नियमों का जिनमें महिलाओं को कुछ मस्जिदों में जाने की मनाही है। संवैधानिक मूल्यों पर बात करते हुए इस तरह के सामाजिक मानदंडों और धार्मिक विश्वासों से लोगों के गहरे जुड़ाव को ध्यान में रखना ज़रूरी है।

सिविक-एक्ट के राम नारायण सियाग बताते हैं कि मान्यताओं को लेकर बदलाव की शुरूआत कैसे परिवार के भीतर से शुरू हो सकती है। वे अनुसूचित जाति से आने वाली एक युवती रेखा* के अनुभव पर बात करते हैं जिसने जयपुर ज़िले में पड़ने वाले अपने गांव में पीढ़ियों पुरानी जातिवादी प्रथाओं को चुनौती दी थी। रेखा के गांव में, पहले अगर कोई ‘उच्च जाति’ से आने वाला व्यक्ति किसी दलित के घर जाता था तो दलित व्यक्ति उसके साथ बराबरी से कुर्सी पर न बैठकर, नीचे ज़मीन पर बैठता था। इस परंपरा के भेदभाव भरे स्वरूप को पहचान कर उसने इसे लेकर परिवार से बात की और ऐसा करना बंद कर दिया। लेकिन ऐसा नहीं है कि इस बदलाव की शुरूआत करते हुए उसके सामने किसी तरह की चुनौती नहीं आई। रेखा के परिजन पहले इसे लेकर तैयार नहीं थे और उन्हें इस बात के लिए राज़ी करने में कई महीनों का वक़्त लग गया। रेखा ने इस परंपरा से छुटकारा पाने की ज़रूरत के बारे में समझाने से पहले, अपने दादा और पिता की चिंताओं को सुना और उनके नज़रिए और डर या बहिष्कार की आशंकाओं को समझने की कोशिश की।

अपनी स्थानीय सांस्कृतिक परंपरा का उपयोग करना और इसे प्रस्तावना में मूल्यों से जोड़ना समुदायों में संविधान के प्रति स्वीकृति हासिल करने और जागरूकता फैलाने का एक और तरीका है। संवाद के फैसिलिटेटर्स को एक समय इस दावे से जूझना पड़ा था कि बीआर अंबेडकर और अन्य संविधान निर्माताओं ने पश्चिम की नक़ल कर भारतीय संविधान तैयार किया है। इससे निपटने के लिए उन्होंने संविधान के आदर्शों को स्थानीय समाज सुधारकों की शिक्षाओं से जोड़ने का एक तरीका खोज निकाला। उदाहरण के लिए, वे भक्ति आंदोलन काल के कवियों और समाज सुधारकों, बसावा और कबीर की शिक्षाओं को लाते हैं और बताते हैं कि दोनों ने लिंग और सामाजिक भेदभाव को खारिज किया था, या वे ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले का ज़िक्र करते हैं जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में लड़कियों और दलित जातियों को शिक्षा तक पहुंच देने के लिए सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाइयां लड़ी थीं।

संविधान को लेकर जन-जागरुकता बढ़ाने के लिए, केरल इंस्टीट्यूट ऑफ लोकल एडमिनिस्ट्रेशन (क़िला – केआईएलए) ने फरवरी 2022 में ‘द सिटीजन‘ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया था। किला द्वारा संवैधानिक साक्षरता कार्यक्रम शुरू करने की एक वजह केरल में बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध प्रदर्शन थे। ये प्रदर्शन सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ हो रहे थे, जिसने महिला भक्तों के लिए मंदिर खोल दिए थे। धीरे-धीरे, विरोध प्रदर्शन का हिस्सा रहे कई राजनेताओं और महिलाओं ने इस मुद्दे पर अपना विचार बदल दिया। उनका कहना था कि उन्हें संविधान में अधिकारों और सिद्धांतों के बारे में पता नहीं था, और न ही इस बात की जानकारी थी कि ये उन पर किस तरह लागू होते हैं।

लोगों को संगठित करने के लिए सिस्टम बनाना

भले ही भारत का संविधान विश्व स्तर पर सबसे उदार और प्रगतिशील संविधानों में से एक माना जाता है, लेकिन देश में ज़्यादातर लोग इसके बारे में कम ही जानते हैं। आज़ादी के बाद आने वाली सरकारों ने इसे लेकर जागरुकता बढ़ाने को प्राथमिकता नहीं दी। नतीजतन, इस पर काम करने वाले संगठनों को संवैधानिक सिद्धांतों और अधिकारों पर बात करने के नए और रचनात्मक तरीके अपनाने पड़े हैं।

स्कूल भवन के बाहर शिक्षक और बच्चे_संवैधानिक मूल्य
अपनी स्थानीय सांस्कृतिक परंपरा का उपयोग करना और इसे प्रस्तावना में मूल्यों से जोड़ना समुदायों में संविधान के प्रति स्वीकृति हासिल करने और जागरूकता फैलाने का एक और तरीका है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

क़िला ने कोल्लम जिले में नागरिक अभियान शुरू करने से पहले, ग्राम पंचायतों, नौकरशाहों और राजनीतिक दलों के साथ मिलकर इसके लिए ज़मीन और माहौल तैयार किया। इस प्रयास में राज्यभर में इस बात पर जागरुकता लाने की कोशिश की कि क्यों नागरिकों को संविधान के बारे में जानना चाहिए। क़िला के सीनियर फ़ैकल्टी वी सुदेसन के अनुसार, केरल के इतिहास – उच्च साक्षरता और शासन में लोगों की भागीदारी – के कारण कोई भी नागरिकों को संविधान के बारे में बताने के खिलाफ नहीं था। योजना को लेकर कई तरह के लोगों से चर्चा की गई जिसमें मुख्य रूप से छात्र-शिक्षक, युवा संगठन और यहां तक ​​कि धार्मिक संगठन भी शामिल थे। इन्होंने लोगों को संवैधानिक साक्षरता से जुड़ी कक्षाओं और कार्यशालाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संवाद ने महसूस किया कि स्थायी परिवर्तन लाने के लिए युवाओं की ज़रूरतों से जुड़े संवाद और संबंधों को लगातार बनाए रखना ज़रूरी है।

साथ ही, इसके लिए ग्राम पंचायतों ने लगभग 4000 वॉलंटीयर्स का चयन किया, जिन्हें ‘सीनेटर’ कहा गया और इन्हें प्रति माह 1000 रुपये का मानदेय दिया जाता था। किला ने इन सीनेटरों को संविधान और दैनिक जीवन में इसकी प्रासंगिकता से जुड़े प्रशिक्षण दिये। ये सीनेटर समुदायों, स्कूलों, परिवारों, स्थानीय सार्वजनिक कार्यालयों और धार्मिक संस्थानों से जुड़े रहे। किला ने जानबूझकर शिक्षकों की बजाय समुदाय से आने वाले युवाओं को प्रशिक्षित किया, जिसमें 80 फ़ीसदी से अधिक लड़कियां थीं, ताकि ये सिखाने के परंपरागत तरीक़ों की तरफ़ न जा सकें। कोल्लम भारत का पहला जिला है जो शत-प्रतिशत संवैधानिक साक्षर है। इस दौरान केरल सरकार के सामने आने वाली चुनौतियों में से एक यह थी कि सामान्य लोग-मनरेगा कार्यकर्ता, महिलाएं, ग्रामीण और हाशिए की पृष्ठभूमि के छात्र और यहां तक ​​कि धार्मिक संस्थानों के कुछ प्रमुख-इस प्रक्रिया को लेकर खुली सोच रखते थे। लेकिन शिक्षित, उच्च वर्ग के लोग विरोध कर रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि वे संविधान के बारे में जानते हैं और यह उनके समय की बर्बादी होगी।

संवाद ने महसूस किया कि स्थायी परिवर्तन लाने के लिए युवाओं की ज़रूरतों से जुड़े संवाद और संबंधों को लगातार बनाए रखना ज़रूरी है। इसीलिए संस्था ने बदुकु केंद्र की स्थापना की जहां पर युवा नेतृत्व विकास और सामाजिक असमानताओं से जुड़े विषयों के बारे में जानते हैं। इसमें भेदभाव, संवैधानिक मूल्यों और अधिकारों की पृष्ठभूमि समझना भी शामिल है। संवाद के साथ बतौर प्रोग्राम कन्वीनर काम करने वाली पूर्णिमा बताती हैं कि ‘छह से नौ महीने के व्यापक पाठ्यक्रमों के जरिए हम युवाओं में वे व्यावसायिक क्षमताएं विकसित करने पर काम करते हैं जो समाजिक बदलाव में मददगार साबित हो सकें। जैसे कि पत्रकारिता, इस तरह के पेशों में आज हम वंचित समुदायों जैसे दलित, मुस्लिम और महिलाओं के प्रतिनिधित्व का अभाव देखते हैं।’ इस तरह की भूमिकाओं में, ज़्यादातर ऊंची जाति और उच्च-वर्ग से आने वाले लोगों का ही क़ब्ज़ा दिखाई देता है। इस तरह के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर युवाओं को सार्थक व्यावसायिक प्रशिक्षण देना महत्वपूर्ण है।

संगठनों से सीखना/संविधान को रोज़मर्रा से जोड़ना

अपने काम के दौरान क़िला, संवाद और सिविक-एक्ट फ़ाउंडेशन द्वारा हासिल किए गए कुछ प्रमुख सबके इस तरह हैं

1. संविधान आपका है, युवाओं में यह भावना पैदा करना

तीनों संगठनों के प्रयासों से पता चलता है कि युवाओं, वंचित वर्गों और महिलाओं को सशक्त बनाना और नेतृत्व भूमिकाओं के लिए प्रोत्साहित करना हमेशा संवैधानिक मूल्यों, अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरूकता फैलाने और कार्रवाई करने में मददगार साबित होता है। यह नज़रिया लोगों में संविधान के प्रति स्वामित्व की भावना पैदा करता है। साथ ही, वास्तविक जीवन में होने वाले अन्याय या अधिकारों के उल्लंघन और संबंधित संवैधानिक उपचारों के बीच संबंध स्थापित करना संविधान को अधिक वास्तविक बनाता है।

2. रचनात्मक तरीकों का प्रयोग करें

क़िला ने यूट्यूब और अन्य सोशल मीडिया मंचों के जरिए संवैधानिक साक्षरता का प्रसार किया। स्कूलों, कॉलेजों और सार्वजनिक स्थानों पर संविधान की प्रस्तावना के पोस्टर लगाना भी कहीं अधिक प्रभावी और सरल तरीक़ा है। कर्नाटक सरकार, साथ ही सिविक-एक्ट फाउंडेशन जैसे कई संगठनों ने सामुदायिक मुद्दों और मूल्यों पर नियमित चर्चा के लिए युवा क्लबों के साथ पुस्तकालयों की स्थापना की। अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ सार्वजनिक रूप से चर्चा करना, एक-दूसरे के जीवन के अनुभवों से सीखने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा करना उन्हें किसी और के साथ हो रहे अन्याय के प्रति भी संवेदनशील बनाता है। अक्सर थिएटर, संगीत और खेलों के जरिए स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के सकारात्मक पहलुओं को शामिल करना भी महत्वपूर्ण है।

3. संविधान को अन्य कार्यक्रमों से जोड़ें

संवाद अपने हर कार्यक्रम में संविधान को शामिल रखता है। यह लिंग और जाति जैसे मुख्य विषयों का संवैधानिक सिद्धांतों के साथ संबंध (इंटरसेक्शनैलिटी) सुनिश्चित करता है। इस तरह, संगठन उन अलग-अलग मुद्दों को भी संविधान के चश्मे से देख सकते हैं जिन पर वे काम करते हैं। सामाजिक मुद्दों, व्यक्तिगत अनुभवों और संवैधानिक सिद्धांतों के बीच अंतर को पाटकर, संगठन सामाजिक चुनौतियों से निपटने में संविधान की प्रासंगिकता की समझ और महत्व में योगदान दे सकते हैं।

इसके अलावा नागरिक आंदोलन, नागरिक संगठन और समाजसेवी संस्थाएं जो समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भाईचारे के मूल्यों को बढ़ावा देने, और/या जो अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े विषयों पर काम कर रहे हैं, उन्हें एक साथ आना चाहिए। इन सबको आपस में विचारों और तरीकों को साझा करना चाहिए। भारत को संविधान साक्षर बनाने का यही एक तरीक़ा है।

*पहचान छुपाने के लिए परिवर्तित नाम।

इस आलेख को तैयार करने में बिपिन कुमार, राम नारायण सियाग, वी सुदेसन, पूर्णिमा कुमार और रमक्का आर ने विशेष सहयोग दिया।

सिविक-एक्ट फ़ाउंडेशन और क़िला, हर दिल में संविधान अभियान का हिस्सा हैं जो संवैधानिक मूल्यों को लेकर जागरुकता लाने का काम करता है। 

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

  • समझिए देश में स्थानीय सरकारें कैसे काम करती हैं?
  • संविधान की प्रस्तावना और उसकी उपयोगिता के बारे में जानिए

लेखक के बारे में
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हलीमा अंसारी

हलीमा अंसारी आईडीआर में सम्पादकीय विश्लेषक के रूप में कार्यरत हैं जहां वे आलेखों के लेखन, सम्पादन और प्रकाशन की जिम्मेदारी सम्भालती हैं। वे टेक्नोलॉजी में लिंग और नैतिकता जैसे विषय में रूचि रखती हैं और उन्होंने फ़ेमिनिज़म इन इंडिया और एमपी-आईडीएसए के लिए इस विषय पर लेख भी लिखे हैं। हलीमा ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पॉलिटिक्स एवं एरिया स्टडीज़ में एमए किया है और लेडी श्रीराम कॉलेज फ़ॉर वीमेन से इतिहास में बीए की पढ़ाई पूरी की है।

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सबा कोहली दवे

सबा कोहली दवे आईडीआर में सह-संपादकीय भूमिका में हैं, यहाँ उन्हें लेखन, संपादन, स्रोत तैयार करने, और प्रकाशन की जिम्मेदारी है। उनके पास मानव विज्ञान की डिग्री है और वे विकास और शिक्षा के प्रति एक जमीनी दृष्टिकोण में रुचि रखते है। उन्होंने सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर, बेयरफुट कॉलेज और स्कूल फॉर डेमोक्रेसी के साथ काम किया है। सबा का अनुभव ग्रामीण समुदाय पुस्तकालय के मॉडल बनाने और लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों पर पाठ्यक्रम बनाने में शामिल रहा है।

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