February 7, 2024

समुदाय अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए सत्याग्रह कैसे करें?

छत्तीसगढ़ में बीते 12 सालों से चल रहा कोयला सत्याग्रह कुछ सीखें देता है जिनकी मदद से पर्यावरण की रक्षा के लिए एक मज़बूत जन-आंदोलन खड़ा किया जा सकता है।
8 मिनट लंबा लेख

जनचेतना, एक समुदाय आधारित संगठन है जो बीते 12 वर्षों से छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में, कई गांवों के लोगों को साथ लाकर कोयला सत्याग्रह कर रहा है। इस सत्याग्रह का बीज 5 जनवरी, 2008 को पड़ा जब खमरिया और आसपास के कई अन्य गांवों के लोग रायगढ़ ज़िले में एक सार्वजनिक सुनवाई के लिए इकट्ठा हुए थे। यह सुनवाई जिंदल स्टील के गारे IV/6 माइनिंग प्रोजेक्ट से संबंधित थी जिसे कई पर्यावरण नियमों को अनदेखा करते हुए मंज़ूरी दी गई थी। इसके अलावा, पंचायतों को समय पर सूचित किए बग़ैर ही आनन-फ़ानन में इस सुनवाई का आयोजन कर दिया गया था। ऐसा करना इसलिए अनुचित था क्योंकि तमनार ब्लॉक में आने वाले ये गांव पांचवीं अनुसूची में आते हैं और पंचायत एक्सटेंशन टू द शेड्यूल एरिया एक्ट (पेसा) 1996 के तहत संरक्षित हैं। पेसा क़ानून इस तरह की सुनवाइयों से पहले ग्राम पंचायत को सूचित करना अनिवार्य बनाता है।

स्वाभाविक था कि लोगों ने इस मंज़ूरी का विरोध किया। यह विरोध प्रदर्शन पुलिस के साथ हिंसक झड़प में बदल गया जिसमें कम से कम 50 गांववाले घायल हो गए और कइयों को गिरफ्तार कर लिया गया। आसपास के गांवों तक जब प्रशासन के इस दमन की ख़बर पहुंची तो प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ लोगों की भावनाएं पहले से अधिक मज़बूत हो गईं। अगले दो सालों तक हमने कई सरकारी विभागों, अधिकारियों और मंत्रालयों को शिकायतें लिखकर भेजीं जिसका कोई ख़ास नतीजा नहीं निकल सका।

साल 2008 में हुई हिंसक घटना के बाद, गांववालों ने फ़ैसला किया कि हमारे आंदोलन को अहिंसक रखने की ज़रूरत है। अगर हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अलावा किसी दूसरे रास्ते को चुनते हैं तो प्रशासन को हमारी नकारात्मक छवि बनाने और आंदोलन को कुचलने का मौक़ा मिल जाएगा। इसलिए हमने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह वाले रास्ते को चुनकर कोयला सत्याग्रह करने का फ़ैसला किया। इसके लिए 2011 में हमने 2 अक्टूबर यानी गांधी की जन्म-तारीख़ चुनी। उस दिन हम लोगो ने गारे गांव से केलो नदी तक, 1.5 किलोमीटर लंबा प्रदर्शन किया और लगभग तीन टन कोयला खनन किया। इतना ही नहीं, इस कोयले को हमने बोली लगाकर स्थानीय ईंट-भट्ठे और ढाबे वालों को बेचने का काम भी किया। लेकिन, कोयला व्यवसाय स्थापित करना, हमारे कोयला सत्याग्रह का एक पहलू भर है। एक सामुदायिक संगठन के तौर पर हम शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और भूमि अधिकार से जुड़े मुद्दों पर भी संवाद करते हैं। लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हम मीडिया और सोशल मीडिया माध्यमों की अपनी एक व्यवस्था बना चुके हैं। साल 2023 में हमारे कोयला सत्याग्रह को 12 साल पूरे हो गए हैं। इतने समय में, हमने कई ऐसे सबक़ सीखे हैं जो कॉर्पोरेट हितों का साधने वाली नीतियों का विरोध करने में ग्रामीण भारत के काम आ सकते हैं। हमें यक़ीन है कि ये देश के हर कोने में, उन समुदायों के लिए उपयोगी हैं जो अपने प्राकृतिक संसाधनों को कॉर्पोरेट के शिकंजों से बचाना चाहते हैं। चलिए, जानते हैं कि एक सफल सत्याग्रह के लिए हम लोगों को कैसे तैयार करते हैं। इसके लिए हम उन्हें –

शिक्षित करते हैं

1. लोगों से सीखें और उनकी ज़रूरतों को समझें

किसी आंदोलन का उद्देश्य कितना भी बड़ा हो, लोग तब तक आपके साथ नहीं आएंगे जब तक कि उनके दैनिक जीवन की समस्याओं का हल उन्हें नहीं मिलता है। शुरुआत में हम अपना ध्यान भोजन और पेंशन के अधिकार पर केंद्रित रख रहे थे। एक बैठक के दौरान हमारे एक सदस्य ने पूछा कि ‘हमारे पास ज़मीन नहीं है, हमें खाने और पेंशन से क्या लेना-देना है।’ इसके बाद, हमने भूमि अधिकारों पर गौर करना शुरू किया। हमारे ज़्यादातर सदस्य भूमिहीन आदिवासी थे तो हमने उनके साथ काम करना और उन्हें सामुदायिक वन अधिकार के दावे करने में मदद करना शुरू किया। कोयला खदान के संदर्भ में बात करें तो, ज़मीन गंवाने वाले किसानों को कोल इंडिया, पांच लाख रुपए प्रति एकड़ का मुआवज़ा और एक छोटा प्लॉट देती है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा था। समुदाय के नेताओं की मदद से हमने ऐसे लोगों की शिकायतें इकट्ठा करनी शुरू की और ज़रूरत पड़ने पर अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया।

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सत्याग्रह के दौरान कोयला खनन के लिए जाते लोग_कोयला सत्याग्रह
सत्याग्रह के दौरान कोयला खनन के लिए जाते लोग। | चित्र साभार: राजेश कुमार त्रिपाठी

ऐसा करते हुए हमें समझ आया कि प्रत्येक परिवार की समस्याओं का हल मुआवज़ा नहीं हो सकता है। हमारे गांव में कई विधवा महिलाएं और युवा थे जिन्होंने अपने परिवार के कमाने वाले सदस्यों को खो दिया था। ऐसे में मुआवज़ा उन्हें केवल थोड़े समय के लिए राहत दे सकता था। हालांकि कोल इंडिया ने मुआवज़े की बजाय नौकरी का विकल्प भी रखा था लेकिन आदिवासी जन नौकरी को बहुत महत्व नहीं देते हैं। हमें उन्हें समझाना पड़ा कि पांच लाख नक़द की बजाय 45-50 हज़ार की नौकरी उनके लिए कहीं बेहतर विकल्प है। हम उन्हें नौकरी के लिए आवेदन करने में मदद करते थे। ज़रूरत पड़ने पर निजी ठेकेदारों की मदद से भी उन्हें नौकरी दिलवाते थे। वहीं, भूमिहीन लोगों को लेकर हमने कोल इंडिया से बात की और उन्हें छोटे व्यवसाय या दुकानें शुरू करने में मदद करवाई। लोगों से स्थाई जुड़ाव बनाने के लिए उनकी ज़रूरतों को समझना बहुत महत्वपूर्ण होता है और इसके लिए नई तरह के समाधानों को खोजने की ज़रूरत पड़ सकती है।

2. लोगों तक जानकारी पहुंचाएं

पढ़ाई-लिखाई से इतर, आज का युवा तकनीक, जैसे स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करने में सक्षम है। हमने इसे एक मौक़े की तरह देखा और अपना एक मीडिया इकोसिस्टम तैयार किया। शुरूआत में हमारे साथ यह हो चुका था कि हम मुख्यधारा के मीडिया को कोई ख़बर देते थे लेकिन वे कुछ और ही छाप देते थे। अगर हमने बताया है कि ‘दो सौ लोग खनन के विरोध में प्रदर्शन करने पहुंचे’ तो ख़बर आई कि ‘दो सौ लोग खनन के समर्थन में प्रदर्शन करने पहुंचे’। इससे निपटने के लिए हमने अपने लोगों को बतौर पत्रकार तैयार करने का सोचा और इसके लिए वीडियो वॉलंटीयर संगठन की मदद ली। शुरुआत में हमने चार लोगों – दो लड़के और दो लड़कियों – को प्रशिक्षण हासिल करने के लिए भेजा जहां उन्होंने कहानियां पहचानना, वीडियो शूट करना और प्रभावी तरीक़े से बात रखने के तरीक़े सीखे।

प्रशिक्षण के बाद, दो-तीन महीने का समय लगाकर उन्होंने खनन क्षेत्र की चुनौतियों जैसे सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं वग़ैरह पर काम किया और दो-तीन मिनट लंबी कई डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। इन फ़िल्मों को हम सभी सोशल मीडिया चैनल्स जैसे इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर पर लगाते हैं ताकि लोगों तक जानकारी पहुंच सके और वे इनसे प्रेरणा ले सकें। हम लोकल अख़बारों और डिजिटल मीडिया मंचों को भी ये वीडियो भेजते हैं। अगर वे इनसे जुड़ा कुछ प्रकाशित करते हैं तो हमें न्यूज़पेपर की कटिंग या तस्वीरें भेजते हैं जिससे समुदाय के सदस्यों का हौसला बढ़ता है।

संगठित करते हैं

1. ग्राम सभा का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें

अगर आप एक आदिवासी इलाके में काम कर रहे हैं तो आपको सबसे पहले यह जानना चाहिए कि पेसा एक्ट ग्राम सभा को अनुसूचित क्षेत्रों में स्व-शासन की ताक़त देता है। यह प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के अधिकार को मान्यता देने के साथ उन्हें किसी विकास परियोजना को अस्वीकृत करने का अधिकार देता है। इस तरह, ग्राम सभा वह मंच बन जाती है जहां पर समुदाय अपने विचार रख सकते हैं और बदलाव ला सकते हैं।

अपने क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत कर आप समुदाय की आवाज़ को अधिक बुलंद बना सकते हैं।

यह जान-समझकर हमने गांव-गांव जाकर महिला नेताओं को प्रशिक्षित किया और उन्हें पंचायत चुनावों में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया। इस समय, हमारे साथ काम करने वाली 15-16 महिलाएं और आदिवासी जनपद पंचायत का हिस्सा हैं जो ग्राम और जिला पंचायत के बीच कड़ी का काम करते हैं। वे डिस्ट्रिक्ट मिनरल फ़ाउंडेशन और कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के धन का उचित उपयोग करने से जुड़ी मांग करने में मदद करते हैं। उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाले गड़बड़ियों को 77 से 2 प्रतिशत तक पहुंचाने में भी मदद की है। इस तरह, क्षेत्रीय नेतृत्व को मज़बूत कर आप उनकी आवाज़ को अधिक बुलंद बना सकते हैं।

2. विकास के विकल्प सुझाएं

साल 2011 में, जब हमने प्रशासन को यह दिखा दिया कि हम ख़ुद कोयला खनन और बिक्री कर सकते हैं तो उनका कहना था कि हमारा ऐसा करना एक ग़ैरक़ानूनी गतिविधि है और केवल रजिस्टर्ड कंपनियां ही खनन कर सकती है। हमने इससे जुड़े कई सवाल-जवाब उनसे किए। इससे हमें पता चला कि जब सरकार हमारी ज़मीन लेकर प्राइवेट कंपनियों को दे देती है तो वे उसे गिरवी रखकर बैंक से क़र्ज़ लेते हैं और कोयला खदान शुरू करते हैं। हमने उनसे कहा अगर आप उन्हें 40 लाख दे सकते हैं तो हमें केवल 10 लाख रुपए दीजिए, हम आपको दिखाएंगे कि इसे कैसे किया जाता है।

इस तरह, साल 2013 में गारे ताप उपक्रम प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड एक फॉर्मर प्रोड्यूसर कंपनी के तौर पर रजिस्टर हुई। हमने लोगों से पैसा इकट्ठा किया और एक एकड़ ज़मीन पर एक साल तक कोयला खनन किया ताकि हम यह दिखा सकें कि किसी बाहरी मदद के बग़ैर भी हम ऐसा कर सकते हैं। समय के साथ, लोग अपनी कंपनी के लिए ज़मीन देने की इच्छा जताने लगे। उन्होंने खनन के लिए हमें अपनी ज़मीन के काग़ज़ात और अनापत्ति प्रमाण पत्र भी दिए। अब हमारे पास लोगों द्वारा दी गई 700 एकड़ ज़मीन है। इसके बाद, हम सुनिश्चित करते हैं कि इस कंपनी से मिलने वाली धनराशि का इस्तेमाल सामुदायिक विकास में हो सके और लोगों की छोटी-बड़ी समस्याएं हल हो सकें। ऐसा करना आंदोलन को लंबे समय तक चलाए रखने में भी मददगार होता है।

आंदोलित करते हैं

1. अदालत का दरवाज़ा खटखटाएं

लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताएं ताकि ज़रूरत पड़ने पर वे क़ानूनी लड़ाई के लिए तैयार रहें। हमें बार-बार यह करते रहना पड़ा है। उदाहरण के लिए, माइन एक्ट, 1952 महिलाओं को कोयला खदान में नौकरी पाने से रोकता है। हमारी समुदाय की सदस्य रत्थो बाई जिन्होंने अपने पिता और भाई को माइनिंग एक्सीडेंट में खोया था और दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई की थी। अगर वे महिला नहीं होतीं तो कोल इंडिया उन्हें नौकरी दे देता। हम इसके लिए कोल इंडिया को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट तक लेकर गए और कहा कि अगर संविधान लैंगिक भेदभाव नहीं करता है तो माइन एक्ट कैसे कर सकता है? और, अदालत के फ़ैसले के बाद उन्हें नौकरी मिली।

मूल अधिकारों को जानना और सूचना के अधिकार के ज़रिए सवाल पूछना, आंदोलन को बनाए रखने के मज़बूत साधन बन सकते हैं।

ऐसा ही मामला रथकुमार का भी था जिनके पति को कोयला खदान में काम करते हुए हार्ट अटैक आया और उनकी मौत हो गई। हमने जब उन्हें नौकरी दिलवाने का प्रयास किया तो कंपनी का कहना था कि उनके पति के नाम वाला कोई भी शख़्स वहां नौकरी नहीं करता था। हमने राइट टू इंफ़ॉरमेशन के तहत जानकारी मांगी और अदालत में यह साबित किया कि वे झूठ बोल रहे थे। इस तरह हमने कई महिलाओं को खदान में नौकरी दिलवाने का काम किया। हम लोगों को क़ानून की जानकारी देने का महत्व समझते हैं। इसलिए हमने अपने संगठन के प्रशिक्षण कार्यक्रम में क़ानूनी शिक्षा को भी अनिवार्यता से शामिल किया। अपने मूल अधिकारों को जानना और सूचना के अधिकार के ज़रिए सवाल पूछना, आंदोलन को बनाए रखने के बहुत मज़बूत साधन बन सकते हैं।

2. अपने आसपास से सीखें और मदद लें

हमारा सत्याग्रह, विरोध प्रदर्शन करने से शुरू हुआ था और यह आज भी आंदोलन को मज़बूती देता है। यह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। साल 2012 में हमने आसपास के गांवों के सदस्यों और प्रतिनिधियों से मिलना शुरू किया। फिर हमने राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं को भी आमंत्रित किया, 16 राज्यों से लोगों ने इसमें भाग लिया। इसमें से कोई बाक्साइट खनन से परेशान था तो कहीं लौह अयस्क का खनन किया जा रहा था। हमने उन्हें बताया कि हम कोयला सत्याग्रह कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास कोयला है लेकिन आप हमारा यह अहिंसक तरीक़ा अपना सकते हैं. हम लोगों को दूसरे गांवों और राज्यों में भी लेकर जाते थे ताकि वे उनसे कुछ सीख सकें।

हमारे संसाधन सीमित हैं लेकिन लोग लगातार सहयोग करते हैं। हम गांव के हर घर से एक मुट्ठी चावल इकट्ठा करते हैं। जो ज़्यादा दे सकते हैं, वे ज़्यादा भी देते हैं और कुछ लोग आंदोलन को चलाए रखने के लिए धन भी देते हैं। 2024 के लिए, हमने सामुदायिक दान का एक नियम बनाया है कि जो एक एकड़ ज़मीन के मालिक हैं, वे 100 रुपए देंगे और जो दस एकड़ ज़मीन के मालिक हैं, वे 1000 रुपए दान करेंगे। इस तरह, हम 8.5 लाख रुपए और 40 क्विंटल चावल इकट्ठा करने में सफल हो पाए हैं। जब भी रैली, ट्रैफ़िक जाम, धरना जैसे प्रदर्शन होते हैं, यह पैसा और चावल हमारे काम आता है। इसके साथ ही, हमने प्रोजेक्टर, म्यूज़िक सिस्टम, लैपटॉप और प्रिंटर भी ख़रीदा है। हमारे कुछ सदस्य सरकारी संस्थाओं में भी पढ़ाते हैं, समाजसेवी संस्थाओं से सलाह लेते हैं और अपनी कमाई का एक हिस्सा आंदोलन के लिए देते हैं। हम आर्थिक रूप से पूरी पारदर्शिता रखते हैं, हर किसी को पता होता है कि कितना धन इकट्ठा हुआ और उसकी जवाबदेही किस पर है।

आंदोलन के दौरान हम यह भी सुनिश्चित करते हैं कि लोगों का कामकाज, उनकी आजीविका इससे प्रभावित ना हो। हर गांव को एक दिन धरना करने की ज़िम्मेदारी मिलती है। उदाहरण के लिए, अगर आज मेरे गांव से 500 लोग जा रहे हैं तो कल आपके गांव से जाएंगे। इस तरह ज़िम्मेदारी बांटने से बहुत मदद मिलती है। साल 2023 में 15-20,000 लोग हमसे जुड़े हैं। कंपनियों द्वारा खदान शुरू करने की कई हालिया कोशिशों के बाद भी रायगढ़ और उसके आसपास के गांवों ने इसे संभव नहीं होने दिया है। वे हमारे संसाधनों के लिए आएंगे तो हम हमेशा अपनी रक्षा में खड़े मिलेंगे। हमें कोयला खदानें नहीं चाहिए लेकिन अगर सरकार केवल इसे ही विकास समझती है तो हमें भी इसमें हमारा हिस्सा चाहिए।

अधिक जानें

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  • लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

लेखक के बारे में
राजेश कुमार त्रिपाठी-Image
राजेश कुमार त्रिपाठी

राजेश कुमार त्रिपाठी बीते दो दशकों से जनचेतना रायगढ़ नाम का एक जन-संगठन चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में सक्रिय यह संगठन पर्यावरण सुरक्षा, विस्थापन और पुनर्वास, खाद्य सुरक्षा, पेसा क़ानून और वन अधिकार क़ानून से जुड़े मुद्दों पर काम करता है। राजेश कुमार का कामकाज मुख्यरूप से खनन और उद्योग के प्रभावों पर केंद्रित रहा है। वे इस आदिवासी बहुल इलाक़े के तीन ब्लॉकों में पड़ने वाली 100 ग्राम पंचायतों में सक्रिय हैं।

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