एक नागरिक के तौर पर, सरकार से जुड़ने के लिए हमारे पास उपलब्ध तरीक़ों में से एक – नए क़ानूनों को आकार देने में हमारी भूमिका भी है जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। फ़रवरी 2014, में क़ानून बनाए जाने की प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता और वैधता लाने की मांग पर गौर करते हुए, कानून और न्याय मंत्रालय ने भारत की पूर्व-विधान परामर्श नीति (प्री-लेजिस्लेशन कंसल्टेशन पॉलिसी – पीएलसीपी) का मसौदा तैयार किया।
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के लिए यह नीति बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि कई विकास परियोजनाओं और पर्यावरण कानूनों को कुछ अनिवार्य परामर्शों से गुजरना पड़ता है।
सुधार के अन्य उपायों के अलावा, यह नीति बताती है:
- केंद्रीय या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित किसी भी नए क़ानून के नियम या संशोधन के मसौदे को अनिवार्य परामर्श अवधि से गुजरना होगा।
- इस अवधि के दौरान (जो आम तौर पर 30 दिनों का होता है) क़ानून के मसौदे को सार्वजनिक करना होगा ताकि इससे जुड़े हितधारकों से उनकी प्रतिक्रिया ली जा सके।
- क़ानून के इस मसौदे को हाशिये पर मौजूद समुदायों और हितधारकों के बीच अधिक व्यापक रूप से प्रसारित करने और लोगों से प्रतिक्रिया आमंत्रित करने की जिम्मेदारी भी सरकार की ही होती है।
- सरकार को उस निश्चित अवधि में प्राप्त टिप्पणियों और उन पर अपनी प्रतिक्रियाओं को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करनी होगी।
हालांकि लोगों की राय को किस हद तक माना जाता है, यह सोचने वाली बात है। लेकिन यह जान कर ख़ुशी होती है कि 2014 से सिविस (क़ानून बनाने में मदद करने वाली एक समाजसेवी संस्था) ने सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं के लिए खोले गए परामर्शों की संख्या में 805 फ़ीसद बढ़ोतरी देखी है – पर्यावरण क़ानूनों की पहुंच पर सिविस के आंकड़े यहां देखे जा सकते हैं।
इसके साथ ही, अदालतें हाशिए पर मौजूद समुदायों के अधिकारों की अधिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए लोगों के प्रभावी परामर्श का फायदा उठा रही हैं। गोवा में एक खनन परियोजना को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी के खिलाफ अपील के दौरान, उत्कर्ष मंडल बनाम भारत संघ के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सार्वजनिक परामर्श की कानूनी आवश्यकता को बरकरार रखा। इसमें कहा गया है कि नागरिकों को ऐसी परियोजना के विवरण और निहितार्थों के बारे में जानकारी देने वाली सामग्री के प्रकाशन के बीच और सार्वजनिक सुनवाई की तारीख के बीच 30 दिन की अवधि अनिवार्य है। एक ही दिन में हुई कई सुनवाइयों के मुद्दे पर अदालत ने कहा कि परामर्श प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों को पर्याप्त अवसर दिए जाने की आवश्यकता है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि अक्सर हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लोग किसी भी तरह की सुनवाई में भाग लेने में सक्षम नहीं होते हैं, क्योंकि इसके कारण उन्हें अपने काम से अनुपस्थित रहना होगा। उसी प्रकार, नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने ओसिस फर्नांडीस & ओआरएस बनाम पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय पर अपने फ़ैसले में प्रभावी सार्वजनिक परामर्श की सुविधा के लिए सार्वजनिक सुनवाई के दौरान राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकने, हर आवाज को सुनने और रिकॉर्ड करने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करने की बात कही है। साथ ही, इसने प्रासंगिक तकनीकी और वैज्ञानिक डेटा प्रस्तुत करने जैसी शर्तों का सुझाव भी दिया है।
जहां न्यायपालिका जैसे हितधारक अपने काम में पीएलसीपी दिशानिर्देशों को शामिल करते रह सकते हैं, वहीं हाशिए पर रहने वाले समुदायों के साथ मिलकर काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं लोगों की भागीदारी को सुविधाजनक बनाने में कैसे मदद कर सकती हैं?
समाजसेवी संगठनों की भूमिका
विशिष्ट डोमेन वाले क्षेत्रों में काम करने वाले संगठन के रूप में हमारा काम और हमारी विशेषज्ञता सार्वजनिक नीति निर्माण से जुड़ जाती है। जहां कुछ संगठन – उदाहरण के लिए, वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टिट्यूट (जिसने मुंबई की जलवायु क्रियान्वयन योजना को तैयार करने में महाराष्ट्र सरकार की सहायता की थी) – सीधे ही नीति निर्माण के स्तर पर काम करता है। दूसरी तरफ सुझाव प्रक्रिया में शामिल होने वाले ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले और समुदाय-आधारित संगठनों की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
नागरिक समाज संगठनों (सीएसओ) के लिए, नीति निर्धारण प्रक्रिया से जुड़े रहने के कुछ तरीके यहां दिए गए हैं:
1. जागरूकता बढ़ाएं
बुनियादी स्तर पर, जमीनी स्तर के संगठन और मीडिया किसी भी नए कानून या नीति के बारे में हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं जो उनके जीवन और आजीविका को प्रभावित कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए, 2019 में, बृहन्मुंबई नगर निगम ने मुंबई की आरे कॉलोनी में 2,238 पेड़ों की कटाई के मुद्दे पर सार्वजनिक टिप्पणियां आमंत्रित करने के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन दिये थे। एक स्थानीय सामुदायिक संगठन, लेट इंडिया ब्रीद ने व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया मंचों के जरिए इस परामर्श में भाग लेने के महत्व से जुड़ी जानकारियों का प्रचार-प्रसार किया था। उन लोगों ने ई-मेल के माध्यम से प्रतिक्रिया रखने पर विस्तृत निर्देश प्रदान किए, जिसके परिणामस्वरूप भागीदारी में वृद्धि हुई।
कानून का मसौदा तैयार करने के चरण में इस तरह की जागरूकता फैलाने से सामुदायिक संगठनों को प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिलता है। इससे भी जरूरी यह है कि यह उन समुदायों की मदद करता है जिनके साथ वे काम करते हैं, उन्हें उद्योग के उतार-चढ़ाव और अन्य कारकों को समझने में मदद मिलती है जो आने वाले वर्षों में उनकी आजीविका को प्रभावित कर सकते हैं।
2. अपने समुदायों को बदलाव में शामिल करें
संगठनों के रूप में, हम अक्सर ज़मीन पर अपने स्वतंत्र अनुभव के आधार पर नीतिगत निर्णयों पर मजबूत सिफारिशें कर सकते हैं। हालांकि, किए गए प्रतिनिधित्व में हमारे समुदायों को शामिल करना एक महत्वपूर्ण काम है।
2020 में, सामाजिक न्याय मंत्रालय ट्रांसजेंडर लोगों के लिए बनाए जा रहे नियमों के मसौदे पर प्रतिक्रिया मांग रहा था, जिसमें उस प्रक्रिया को निर्दिष्ट किया गया था जिसके द्वारा ट्रांसजेंडर व्यक्ति पहचान पत्र के लिए आवेदन कर सकते थे। साझा की गई अन्य प्रतिक्रियाओं में, ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों – जिनमें से कई ने पहली बार सीएसओ के जरिए नियमों के बारे में सुना – ने विशिष्ट और कार्रवाई योग्य सुझाव दिए।
सुझावों में आवेदन पत्र में अंतिम नाम की अनिवार्यता को हटाने जैसे इनपुट शामिल थे – एक सरल उपाय जिसने सदस्यों के लिए कार्ड का आवेदन करना आसान बना दिया। कानून में स्पष्टता प्रदान करने और विवादों के सभी सम्भावित क्षेत्रों को शामिल करने की इच्छा रखने के कारण सरकारी अधिकारी अक्सर ऐसी सभी सूक्ष्म जानकारियों पर ध्यान देते हैं।
संख्या बल हमेशा किसी कानून के तैयार किए जा रहे मसौदे पर उत्पन्न होने वाले तर्क की गंभीरता को व्यक्त करने में मदद करता है।
आख़िर में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संख्या बल हमेशा किसी कानून के तैयार किए जा रहे मसौदे पर उत्पन्न होने वाले तर्क की गंभीरता को व्यक्त करने में मदद करता है। उदाहरण के तौर पर, समाजसेवी संगठनों के लिए सीएसआर अधिनियम में 2020 में प्रकाशित सुधारों पर विचार किया जा सकता है। इस संसोधन में प्रस्ताव दिया गया है कि सेक्शन 8 कम्पनियों के अलावा कोई भी ट्रस्ट, सोसायटी आदि सीएसआर फ़ंडिंग प्राप्त नहीं कर सकेगा। सिविस के मंच पर परामर्श का जवाब देने वालों के बीच एकमत राय यह थी कि ट्रस्ट और सोसायटी के पास भी सीएसआर फंडिंग प्राप्त करने की पात्रता होनी चाहिए। इसके तुरंत बाद, इस प्रतिक्रिया को शामिल कर लिया गया और अब सभी प्रकार के सीएसओ सीएसआर फंडिंग के लिए आवेदन कर सकते हैं।
3. प्रतिक्रिया को सुव्यवस्थित करें
हालांकि नीति निर्माण में समुदायों को शामिल करना एक कठिन और अव्यवस्थित काम हो सकता है। लेकिन हितधारकों के साथ लगातार बातचीत, समुदाय के बीच विश्वास और अपने इलाक़ों में उनकी गहरी पहुंच के कारण जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन सर्वसम्मति बनाने के लिए विशिष्ट रूप से तैयार होते हैं। समुदाय के समीकरणों और नजरिए के बारे में उनकी समझ, साथ ही सुविधा की अनोखी पद्धतियां (जैसे समुदायों की मैपिंग या समूह चर्चाएं) इस प्रक्रिया को रचनात्मक और आकर्षक बनाती हैं।
हालांकि, समुदाय-आधारित संगठनों की अपनी चुनौतियां हैं। जमीनी स्तर पर काम करने वाले केवल थोड़े से संगठनों के पास वकीलों की अपनी टीम या नीति संसाधन हैं जो इस तरह के परामर्शों पर नज़र रख सकते हैं और उनसे जुड़ सकते हैं।
लेकिन इनमें से कुछ बाधाओं को निम्नलिखित टूल और विधियों की मदद से दूर किया जा सकता है:
- ओपन–सोर्स संसाधन: ऐसे ओपन-सोर्स संसाधन जो विशिष्ट विषयगत क्षेत्रों में परामर्शों पर नज़र बनाए रखते हैं उनका इस्तेमाल काफी आसानी से किया जा सकता है। वेबसायट (टीमलीज़, सिविस, और Our Gov.in) और टेलीग्राम समूह सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं के लिए उपलब्ध नए क़ानूनों को साझा करने में मददगार साबित होते हैं। उनके पास उस क़ानून का सार भी उपलब्ध होता है जो कुछ मामलों में दोबारा उपयोग में लाए जाने के लिए स्वतंत्र होते हैं।
- आईवीआर और व्हाट्सएप: हितधारकों के साथ जुड़ने के लिए, इंटरएक्टिव वॉयस रिस्पॉन्स (आईवीआर) और व्हाट्सएप जैसे टूल – जो ग्राम वाणी और ग्लिफ़िक जैसी सामाजिक तकनीकी कंपनियां, समाजसेवी संस्थाओं के लिए प्रदान करती हैं – का लाभ उठाया जा सकता है। राजस्थान में मज़दूर किसान शक्ति संगठन (श्रमिकों के अधिकारों पर केंद्रित एक समाजसेवी संस्था) और ग्राम वाणी सहित छह संगठनों का एक गठबंधन – एक सामाजिक जवाबदेही अभियान में – राजस्थान सरकार के परामर्श पर प्रतिक्रिया भेजने के लिए एक साथ आए। चूंकि इससे प्रभावित ज़्यादातर लोग राज्य के ग्रामीण इलाक़ों से आने वाले थे, 1992 नागरिकों से सार्वजनिक प्रतिक्रिया एकत्र करने के लिए व्हाट्सएप और आईवीआर का उपयोग किया गया था। तकनीक के प्रयोग के अलावा, लोगों को संगठित करने में संगठनों के संयुक्त प्रयासों ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे जमीनी स्तर के समाजसेवी संस्थाओं के बीच गठबंधन प्रत्येक भागीदार की अद्वितीय शक्तियों का लाभ उठाने की अनुमति देता है।
यदि पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक परामर्श की बढ़ती संख्या को संकेत के रूप में देखा जाए तो कानूनी प्रणाली को वास्तव में समावेशी बनाने के लिए परामर्श का क्षेत्र हमें अनेक अवसर प्रदान कर सकता है। आखिरकार, समावेशी कानून और नीतियां पहले से ही जमीन पर कार्यरत रीति-रिवाजों और बेस्ट प्रैक्टिस के प्रभाव को बढ़ा सकते हैं। परामर्श की प्रक्रिया उन तरीकों में से एक है जिससे नागरिक समाज बड़े पैमाने पर बदलाव ला सकता है।
जलवायु नीति के क्षेत्र में भागीदारी की प्रेरणा का स्तर बढ़ सकता है क्योंकि स्वदेशी तरीक़े समग्र रूप से हमारे पारिस्थितिक तंत्र के लिए एक स्थायी दृष्टिकोण प्रदान कर सकते हैं। लेकिन, इन प्रथाओं को अपने उस रास्ते की तलाश की आवश्यकता है जिस पर चलकर वे सही समय पर नीति-निर्माताओं तक पहुंच सकें।
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अधिक जानें
- इस लेख को पढ़ें और जानें कि कानून बनाने में नागरिकों से परामर्श की आवश्यकता क्यों होती है।
- इस लेख को पढ़ें और जानें कि भारत की कानूनी प्रणाली पर्यावरणीय निर्णय लेने में लोगों की भागीदारी कैसे सुनिश्चित कर सकती है।
- यह समझने के लिए इस लेख को पढ़ें कि भारत को एक उचित विधान-पूर्व परामर्श नीति की आवश्यकता क्यों है।
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- यदि आप एक नागरिक समाज या जमीनी स्तर के संगठन हैं और पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन क्षेत्र में परामर्श की यात्रा शुरू करना चाहते हैं, तो कृपया क्लाइमेट वॉयस हैंडबुक पढ़ें।
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