March 27, 2023

चार जनजातियां, चार व्यंजन और परंपरागत खानपान पर ज्ञान की चार बातें

चार जनजातियों के रसोइये अपने व्यंजनों के साथ अपनी खाद्य संस्कृति पर आए खतरों पर चर्चा कर रहे हैं क्योंकि जंगलों के खत्म होने के साथ उनके समुदाय आजीविका के लिए संघर्ष करते हुए शहरों का रुख करने लगे हैं।
8 मिनट लंबा लेख

भारत के तमाम समुदायों में, लगभग 6,000 क़िस्मों के चावल, 500 से अधिक तरह के अनाज और सैकड़ों प्रकार की सब्ज़ियां और जड़ी-बूटियां उगाई और खपत की जाती हैं। इतना ही नहीं। देसी खाने के स्वाद में लगातार हो रही यह बढ़त यहां के लोगों की विविध और समय के साथ बदल रही खाने पकाने की तकनीकों से भी आती है।

भारतीय भोजन में सब्ज़ियों के डंठल, तनों और छिलकों का इस्तेमाल मुख्यधारा के मीडिया द्वारा लाई गई ज़ीरो-वेस्ट कुकिंग मुहिम के बहुत पहले से कर रहे हैं। जहां खाने पकाने के कुछ तरीके सामाजिक नियमों से निकले हैं, वहीं कुछ के पीछे स्थानीय जैवविविधता और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां हैं।

आईडीआर के साथ इस बातचीत में भारत की चार अलग-अलग जनजातियों के चार शेफ़ (रसोइये) अपनी पसंदीदा रेसिपी (व्यंजन) के बारे में बता रहे हैं। यहां वे बता रहे हैं कि देसी व्यंजनों और उन्हें तैयार करने के परंपरागत तरीकों को बचाए रखना क्यों जरूरी है और उन्हें क्यों डर है कि इस खानपान को बनाए रखने के लिए जरूरी संसाधन और ज्ञान खो सकता है।

सोडेम क्रांतिकिरण डोरा, कोया जनजाति, आंध्र प्रदेश

मैं आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के चिन्नाजेडीपुडी गांव का एक घरेलू रसोइया और किसान हूं। मैं ह्यूमन्स ऑफ़ गोंडवाना प्रोजेक्ट में एक कम्यूनिटी आउटरीच पर्सन के रूप में भी काम करता हूं। बीते कुछ सालों से मैं आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना और अन्य राज्यों में रहने वाली विभिन्न जनजातियों के पारंपरिक भोजन का दस्तावेजीकरण कर रहा हूं।

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मैं जिस कोया जनजाति से आता हूं, उसका पौष्टिक भोजन खाने का समृद्ध इतिहास रहा है। हमारा अधिकांश भोजन जंगलों से आता था। हम सब्जियां, जड़ी-बूटियां और फूल, जिसमें महुआ का फूल भी शामिल है, वगैरह खाते थे। महुआ के बारे में बहुत से लोग जानते तो हैं लेकिन वे इसे केवल शराब से जोड़कर देखते हैं। हालांकि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड और महाराष्ट्र में रहने वाली कोया और अन्य जनजातियां महुआ के फूलों का उपयोग खीर, जैम, बिस्कुट और लड्डू आदि बनाने के लिए करती हैं। बल्कि, हमारे समुदाय की गर्भवती महिलाएं अब भी महुआ लड्डू का सेवन करती हैं क्योंकि यह हीमोग्लोबिन बढ़ाता है और उनके लिए आयरन सप्लीमेंट का काम करता है।

महुआ लड्डू रेसिपी-आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: सोडेम क्रांतिकिरण डोरा

कभी पश्चिम गोदावरी जिले में महुआ और तेंभुरनी सरीखी देसी चीजें प्रचुर मात्रा में हुआ करती थीं। लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है। अब इन्हें हम अपने पड़ोसी जिले पूर्वी गोदावरी से खरीदते हैं। हमारे जिले में चल रही झूम खेती के कारण, वन क्षेत्र का वह बहुत बड़ा ऐसा हिस्सा हमने खो दिया जहां हम महुआ उगाते थे। उसके बाद और विकास परियोजनाएं आईं जिनके कारण अब जंगल तक हमारी पहुंच लगभग समाप्त हो गई है। अब हम कानूनी रूप से अपने जंगलों से संसाधन इकट्ठा नहीं कर सकते हैं।

कई छोटे-छोटे स्वयं सहायता समूह हैं जो हमारे भोजन को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं और लोगों को महुआ उत्पादों को पैक करने और बाज़ार में बेचने का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। इन समूहों का दूरगामी प्रभाव पड़ा है। इसी तरह के समूहों के प्रयासों ने तेलंगाना में, एक आईएएस अधिकारी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। उस अधिकारी ने फिर महुआ को मिनी आंगनबाड़ियों में ले जाने का काम किया, जहां अब यह नई मांओं के लिए पोषण का स्रोत बन रहा है। लेकिन टिकने के लिए इन समूहों को सरकार से वित्तीय सहायता की आवश्यकता है। यदि समाजसेवी संस्थाएं भी बेहतर बाजार संपर्क बनाने में इन स्वयं सहायता समूहों का समर्थन करने पर ध्यान दे सकें तो यह बहुत अच्छी पहल होगी।

कल्पना बालू अटकरी, वारली जनजाति, महाराष्ट्र

मैं महाराष्ट्र के पालघर जिले के मूल निवासी वारली समुदाय से आती हूं। आम दिनों में इस समुदाय के लोग अपने दिन की शुरुआत नारियल या चावल भाखरी (फ्लैटब्रेड) के नाश्ते के साथ करते हैं। इसके बाद मोरिंगा, अन्य पौष्टिक सब्जियों और पत्तियों के साथ पकाई गई तूर (अरहर) दाल खाई जाती है। इसमें सूरन (याम) करी और तूर फली के उबले गोले भी शामिल हो सकते हैं। हमारे खान-पान की आदतें मौसम और उस मौसम में हमारे गांवों में उगाए जाने वाले अनाजों और सब्ज़ियों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए फ़रवरी में जब सूर्य निकलने लगता है तब हम लोग रागी अंबिल (रागी से बना शीतल पेय पदार्थ) पीते हैं।

समय बदलने के साथ हमारा खानपान भी बहुत बदल गया है। हमारी दादी-नानियां चूल्हे (मिट्टी से बने) पर खाना पकाती थीं। लेकिन अब हम लोग गैस के चूल्हों का उपयोग करते हैं और इसलिए खाने के स्वाद में भी अंतर आ गया है। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारी युवा पीढ़ी अब पारम्परिक भोजन नहीं खाना चाहती है। वह मुंबई जैसे बड़े शहरों में खाए जाने वाली चीजें खाना चाहती है। उन्हें यह सब बताने का कोई फ़ायदा नहीं है कि खाने में स्वादिष्ट लगने वाला फ़ास्ट फ़ूड स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। इसलिए उन्हें पोषक खाना खिलाने के लिए हमने अपने खाने के साथ ही प्रयोग करना शुरू कर दिया। बच्चों को उनकी दाल में मोरिंगा के पत्ते पसंद नहीं होते हैं इसलिए हम उन पत्तों को सुखाकर उसे पीस लेते हैं और उस पीसे गए पाउडर को दाल में मिला देते हैं। बच्चों को इसका पता भी नहीं चलता है! और, हमारी पातबड़ी (पकौड़े) उनके बीच बहुत लोकप्रिय हैं। हम इसे आलू और केले के पत्ते से बनाते हैं ताकि बच्चों को आवश्यक पोषक तत्व मिल सके।

पातबड़ी रेसिपी_आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: कल्पना बालू अटकरी

मेरे पिता हिरण, खरगोश और मोर का शिकार करते थे और हम उनका मांस खाते थे। जंगलों के जाने के साथ ये जानवर भी हमारे जीवन से चले गए। हम बांस के पौधे के कई हिस्सों को खाया करते थे लेकिन अब बांस दुर्लभ चीज़ हो गई है। मैं एक स्वयं-सहायता समूह के साथ काम करती हूं। वहां मैं महिलाओं को पैसे की बचत के बारे में प्रशिक्षण देने के साथ-साथ वारली खाने के फ़ायदे और उसे पकाने की विधियों की जानकारी भी देती हूं। ये महिलाएं खेती और अन्य तरह की मेहनत-मज़दूरी का काम करती हैं और मेरे इन सत्रों में शामिल होने के लिए समय निकालती हैं। हम जिन चीज़ों का इस्तेमाल कर खाना बनाते हैं, ये महिलाएं स्वयं ही वे चीज़ें खोज कर लाती हैं। जिसका अर्थ है कि उनके दिन का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा खाने के काम में जाता है। उनके लिए समय की बर्बादी का मतलब है पैसे का नुक़सान। मैं चाहती हूं कि सरकार इन महिलाओं को आर्थिक रूप से समर्थन देने का कोई तरीका अपनाए जो अपनी जनजाति के भोजन को सीखना और संरक्षित करना चाहती हैं।

द्विपनिता राभा, राभा जनजाति, मेघालय

मैं मेघालय के उत्तर गारो हिल्स जिले के एक गांव में रहती हूं। मैं जिस राभा समुदाय से आती हूं, वहां बिना तेल के खाना बनता है। मुझे लगता है कि इसकी वजह यह है कि हम सुबह से शाम तक के अपने भोजन में मांस का इस्तेमाल करते हैं। हमारा आहार मौसमी जड़ी-बूटियों और मांस से तैयार होता है। भारत के दूसरे हिस्सों के विपरीत, हाल तक दाल हमारे खाने का हिस्सा नहीं थी। लोग अक्सर हम लोगों से कहते रहते हैं कि बहुत अधिक फ़ैट (वसा) होने के कारण बहुत अधिक मांस का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हालांकि, वे इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि बिना तेल के मांस पका कर हम खाने में तेल की मात्रा का संतुलन बरक़रार रखते हैं।

राभा समुदाय के लोग अपने खाना पकाने में जिन सामग्रियों का उपयोग करते हैं, वे पूर्वोत्तर भारत के अन्य समुदायों द्वारा उपयोग की जाने वाली सामग्री के समान हैं। असमिया लोगों की तरह, हम कोल खार (केले की राख से निकले क्षारीय अर्क) का उपयोग करते हैं। गारों समुदाय के लोगों की तरह ही हम भी कप्पा (एक तीखी मांस की करी) खाते हैं, लेकिन हम मांस को भूनने की बजाय उबालते हैं और मसालों का उपयोग नहीं करते हैं। हालांकि, जब खार के साथ खाना पकाने या कप्पा खाने की बात आती है, तो लोग तुरंत राभा भोजन के बारे में नहीं सोच पाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उतना लोकप्रिय नहीं है और वे इसके बारे में नहीं जानते हैं। मुझे खाना पकाना बहुत पसंद है।

कोविड-19 के दौरान मैंने एक फ़ेसबुक पेज और एक इंस्टाग्राम पेज शुरू किया था जिसपर मैं अपने घर में पकाए जाने वाले खाने के बारे में लोगों को बताती हूं। मैं लोगों की उत्सुकता को देखकर हैरान थी। मैंने बाक पुकचुंग खिसर्काय (सूअर की अंतड़ियों और खून से पकाई गई पोर्क करी) और अन्य व्यंजन जैसे बाक काका तुपे रायप्राम (हरी या काली दाल, केले के तने, कोल खार, और चावल के आटे के साथ पकाया गया सूअर का मांस) और काका तुपे की तस्वीरें लगाई थीं। मैंने बामची (हरी या काली दाल और कोल खार के साथ पका हुआ चिकन) की तस्वीरें भी डाली थीं जो उन्होंने कभी नहीं देखा था। मुझे इन व्यंजनों से जुड़े सवाल संदेश में मिलने लगे। कई लोग चाहते थे कि मैं उनके घर तक खाना डिलिवर करवाऊं जो कि मैंने अपने गांव के आसपास के लोगों के लिए किया भी।

बाक पुकचुंग खिसर्काय रेसिपी-आदिवासी खाना
चित्र और रेसिपी साभार: द्विपनिता राभा

एक धारणा है कि भोजन एक निश्चित तरीके से दिखना चाहिए। हमारे समुदाय के युवाओं को शर्मिंदगी होती है कि उनका खाना स्वादिष्ट नहीं दिखता है। बल्कि इसी शर्मिंदगी के कारण शादी-विवाह जैसे मौक़ों पर से कई व्यंजन ग़ायब होने लगे हैं। इस धारणा को तोड़ने के लिए मैं उत्तरपूर्वी राज्यों में जाती हूं और विभिन्न मेलों में राभा जनजाति के खानों की प्रदर्शनी लगाती हूं। ऐसी जगहें राभा व्यंजनों को लोगों तक पहुंचने में मददगार साबित होती हैं और उनसे मिलने वाली सराहना से हमारे युवाओं में गर्व और आत्मविश्वास का भाव पैदा होता है। मैं हमारे भोजन को उसके सभी प्रामाणिक रूपों में दर्ज करना चाहती हूं ताकि आने वाली पीढ़ी इसे पकाना जारी रखे। मैं राभा भोजन पर एक किताब भी लिखना चाहती हूं लेकिन इसके लिए मुझे समाजसेवी संस्थाओं और सरकार से वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी।

शांति बड़ाइक, चिक बड़ाइक जनजाति, ओडिशा

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में, मेरा चिक बड़ाइक समुदाय अक्टूबर-नवंबर में अपने द्वारा उगाए गए अनाज की कटाई करने के बाद नवाखाना (नया भोजन) उत्सव मनाता है। यह कई रस्मों और कई तरह के व्यंजनों वाला एक बड़ा पर्व है। हम पोहा बनाने के लिए चावल को चपटा करते हैं और सभी साग (पत्तेदार सब्जियों) को एक साथ मिलाकर पकाते हैं। इसमें सरसों के पत्ते, तुरई के पत्ते और वे सारी सब्जियां होती हैं जो हम अपने घरों के पिछले हिस्से में उगाते हैं। पकाने से पहले हम साग को उबालते हैं। यह ओड़िशा के अन्य समुदायों के खानपान के तरीक़े से अलग तरीक़ा है। हमारे नवाखाना की रस्म में मुर्ग़ों की बलि भी चढ़ाई जाती है। हम दो-तीन मुर्ग़े ख़रीदते हैं और इनकी बलि चढ़ाने से पहले अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। उसके बाद हम मुर्ग़ों के सभी हिस्सों का सेवन करते हैं। हम मुर्ग़ा चावल भूंजा (भूने चावल के साथ मुर्ग़े का मांस) खाते हैं जो बच्चों में बहुत लोकप्रिय है। उसके बाद हम मुर्ग़े के सिर वाले हिस्से से पीठा (पैनकेक) भी बनाते हैं।

मुर्ग़ा पीठा रेसिपी_आदिवासी खाना
चित्र साभार: इंद्रजीत लाहिरी | रेसिपी साभार: शांति बड़ाइक

पिछले चार-पांच साल से मैं शांति स्वयं सहायता समूह को चला रही हूं। इस समूह में 10 महिलाएं हैं और हम आसपास के गांवों की महिलाओं को बचत के तरीक़े और उसके लाभ के बारे में प्रशिक्षित करने के अलावा खाना पकाने पर भी ध्यान देते हैं। हमारे समूह की कुछ सदस्य राउरकेला जैसे शहरों में ऐसे लोगों के घरों में खाना पकाने का काम करती हैं जिनके पास अपने लिए खाना पकाने का समय नहीं होता है।

कुकिंग टीचर बनने के लिए हमने स्किल इंडिया प्रोग्राम के साथ एक ट्रेनिंग कोर्स किया। अब हम गांव-गांव जाकर लड़कियों को विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने की विधि सिखाते हैं। इन लड़कियों में ज़्यादातर वे लड़कियां होती हैं जिनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई है। हम ऐसा इसलिए करते हैं ताकि वे लड़कियां अपनी शादी का इंतज़ार करने की बजाय आजीविका के जरिए खोज सकें। हम उन्हें रागी मंचुरियन जैसे नए व्यंजन बनाना सिखाते हैं। हम भी उनसे खाना पकाने की उनकी विधियां सीखते हैं।

प्रशिक्षण पूरा करने के बाद उन्हें स्किल इंडिया प्रोग्राम से सर्टिफिकेट मिलता है। इसका इस्तेमाल वे कुटीर उद्योग शुरू करने के लिए ऋण लेने में कर सकती हैं। समस्या यह है कि सभी लड़कियों के पास ऋण लेकर अपना व्यवसाय शुरू करने की हिम्मत नहीं होती है। सरकार और समाजसेवी संस्थाओं को कार्यक्रम पूरा होने के बाद इन लड़कियों को सहायता प्रदान करनी चाहिए। वे इन महिलाओं के लिए एक केंद्र की स्थापना कर सकते हैं जहां ये मिलकर खाना पका सकें और अपने लिए कुछ पैसे कमा सकें। अन्यथा, इन कार्यक्रमों से वास्तव में आय सृजन नहीं होगा।

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लेखक के बारे में
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देबोजीत दत्ता

देबोजीत दत्ता आईडीआर में संपादकीय सहायक हैं और लेखों के लिखने, संपादन, सोर्सिंग और प्रकाशन के जिम्मेदार हैं। इसके पहले उन्होने सहपीडिया, द क्विंट और द संडे गार्जियन के साथ संपादकीय भूमिकाओं में काम किया है, और एक साहित्यिक वेबज़ीन, एंटीसेरियस, के संस्थापक संपादक हैं। देबोजीत के लेख हिमल साउथेशियन, स्क्रॉल और वायर जैसे प्रकाशनों से प्रकाशित हैं।

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