September 2, 2024

भारत में जनसंख्या वृद्धि से जुड़े मिथकों से मुक़ाबला कैसे करें?

हाल ही में भारत दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन गया। इसने एक व्यापक और गलत धारणा को जन्म दिया है कि भारत की आबादी, संसाधनों की कमी से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर वैश्विक मुद्दों की जड़ है।
15 मिनट लंबा लेख

भारत की जनसंख्या लंबे समय से मिथकों और गलत सूचनाओं से परेशान रही है, सीमित संसाधनों को बढ़ती जनसंख्या से जोड़कर देखने वाला वैश्विक दृष्टिकोण अक्सर इसे और बढ़ा देता है। हाल ही में दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश के रूप में, भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया। इससे प्रेरित दृष्टिकोण ने एक व्यापक धारणा को जन्म दिया है कि भारत की बढ़ती आबादी, संसाधनों की कमी से लेकर जलवायु परिवर्तन जैसे कई गंभीर वैश्विक मुद्दों की जड़ है। इन गलतफहमियों ने डर को बढ़ाया है और नीतिगत चर्चाओं को नतीजे हासिल ना हो पाने वाली दिशाओं की ओर मोड़ दिया है, जैसे- जनसंख्या नियंत्रण के सख्त उपायों की मांग।

इन वैश्विक मिथकों के अलावा, कम आबादी वाले समुदायों की बढ़ती संख्या को लेकर डर भी फैलाया जा रहा है। जनसंख्या नियंत्रण उपायों से जुड़ी भारत के राजनीतिक नेताओं की मांग ने इस चिंताजनक स्थिति को और भी मुश्किल बना दिया है। इस तरह की झूठी धारणाएं, रूढ़िवादी विचारों को बनाए रखती हैं और नीतिगत निर्णयों पर बुरा प्रभाव डालती हैं। जरूरी मुद्दे जिन पर बात किए जाने की ज़रूरत है, उनसे ध्यान भटकाकर यह सिविल सोसाइटी के काम में बड़ी बाधा डाल सकती हैं। इसी को लेकर, पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने मीडिया की व्यापक सहभागिता के जरिये साक्ष्य-आधारित चर्चाओं को बढ़ावा देकर इस नजरिए को नया आकार देने की कोशिश की है। हमने जिन मिथकों को दूर करने की कोशिशें की है, यह लेख उन पर रौशनी डालता है। साथ ही, यह हमारी रणनीति, प्रयास और चुनौतियों पर भी प्रकाश डालता है।

जनसंख्या संबंधी मिथकों का विरोध करना क्यों जरूरी है?

आज कई भारतीय राज्यों में परिवार नियोजन को बढ़ावा देने वाले पुरुष और महिला नसबंदी जैसे उपाय मौजूद हैं। इसके अलावा कई निजी सदस्य विधेयक (प्राइवेट मेम्बर बिल) संसद में पेश किए गए हैं, जो जनसंख्या नियंत्रण के कड़े उपायों का प्रस्ताव करते हैं, जैसे कि जोड़ों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने से हतोत्साहित करना। असम, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने दो बच्चों की नीति से जुड़ा कानून भी लागू किया है – जहां दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों को सरकारी लाभ से वंचित कर दिया जाता है या पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाता है। जुलाई 2021 में, उत्तर प्रदेश का विधि आयोग उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक लेकर आया जिसमें राज्य की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिए निर्देश प्रस्तावित किए गए।

हालांकि इमर्जेंसी (1976-78) के दौरान हुई जबरन नसबंदी जैसे जनसंख्या नियंत्रण के तरीकों की तुलना में ये कदम मामूली लगते हैं, फिर भी ये भारत की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 की अधिकार-आधारित भावना के अनुरूप नहीं हैं।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐतिहासिक रूप से भारत में जनसंख्या नियंत्रण का मुख्य तरीका नसबंदी रहा है जिसका बोझ महिलाओं पर ज्यादा पड़ा है। ऐसे समय में जब भारत की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रजनन आयु वर्ग (15-49 वर्ष) में आता है, गर्भनिरोधन के अस्थायी तरीके जैसे कंडोम आज के समय की मांग हैं, न कि नसबंदी। हालांकि, जनसंख्या चर्चा में गर्भनिरोधक बहुत प्रमुखता से शामिल नहीं है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, भारत में प्रजनन आयु की लगभग 9.4% महिलाओं – यानी लगभग 2.1 करोड़ महिलाओं – के पास गर्भ निरोधकों तक पहुंच या उनका उपयोग करने की एजेंसी नहीं है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाओं को यह निर्णय लेने की आजादी हो कि वे बच्चे पैदा करना चाहती हैं या नहीं, कब चाहती हैं और किस अंतराल पर करना चाहती हैं। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसके लिए उठाए गए कदम, कठोर जनसंख्या नियंत्रण नीतियों का सहारा लिए बिना असरदायक साबित हुए हैं।

यह बताना मुश्किल है कि बढ़ती आबादी पर चर्चा का वैश्विक नीतियों, खासतौर पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित नीतियों पर क्या प्रभाव पड़ा है। हालांकि, भारत की बढ़ती जनसंख्या और जलवायु परिवर्तन के बीच अनुमानित संबंध पर मुख्यधारा की मीडिया रिपोर्टों के कई उदाहरण मौजूद हैं। यह समस्या को बहुत ही गलत तरीके से दिखाता है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बीच संबंध को नजरअंदाज करता है। यह एक तरह से दुनियाभर के सबसे धनी 1% को दोषमुक्त कर देना है जिसका कार्बन उत्सर्जन वैश्विक आबादी के आधे से ज्यादा सबसे गरीब लोगों से भी अधिक है।

ये वजहें, जनसंख्या से जुड़े मिथकों के उभरते ही, उनकी पहचान करने और मिटाए जाने को जरूरी बना देती हैं। हमारे अनुभव के आधार पर, भारत की आबादी के बारे में बार-बार उठ कर आने वाले कुछ मिथक इस प्रकार हैं –

मिथक 1: भारत में जनसंख्या विस्फोट हो रहा है

अप्रैल 2023 में, संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक, भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया, इस खबर ने दुनियाभर का ध्यान खींचा। इस आंकड़े को अनियंत्रित जनसंख्या विस्फोट के सबूत के रूप में गलत तरह से समझा गया जबकि वास्तव में भारत ने अपनी जनसंख्या वृद्धि में मंदी देखी है। एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल प्रजनन दर (टीएफआर), जो एक महिला द्वारा उसके जीवनकाल में पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या है, 1992-93 में 3.4 से घटकर 2019-21 में 2.0 हो गई है। साल 2020 में द लैंसेट में प्रकाशित इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारत की जनसंख्या 2048 तक 1.6 अरब तक पहुंच सकती है और वर्ष 2100 में यह लगभग 1.1 अरब हो जाएगी। ये रुझान इशारा करते हैं कि भारत, जनसंख्या वृद्धि में ठहराव लाने की सही राह पर बढ़ रहा है।

मिथक 2: भारत की जनसंख्या जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है

एक और आम मिथक है कि भारत की जनसंख्या जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारक है। यह गलत धारणा उपभोग के पैटर्न की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज करती है। वैश्विक साक्ष्य बताते हैं कि खासतौर पर विकसित देशों में, जलवायु परिवर्तन जनसंख्या की बजाय उपभोग के पैटर्न से अधिक संबंधित है। ऊंची आय वाले देश जिनकी आबादी कई विकासशील देशों की तुलना में कम है लेकिन वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में इनकी हिस्सेदारी ज्यादा है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) की जनसंख्या दुनियाभर की केवल 4% है, लेकिन वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी लगभग 15% है। इसके विपरीत, वैश्विक आबादी के लगभग 17% के साथ भारत, वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में लगभग 7% का योगदान देता है।

आंकड़ों से परे सतत विकास और जिम्मेदार उपभोग पर ध्यान केंद्रित करके, जलवायु परिवर्तन के वास्तविक कारकों पर बात करने वाले नज़रिये को फिर से तैयार किया जा सकता है।

मिथक 3: भारत के भारत के अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों से आगे निकलने की साजिश कर रहे हैं

अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमानों की आबादी में बढ़त को लेकर फैलाए जाने वाले डर ने भारत में विभाजनकारी बयानबाजी को बढ़ावा दिया है। इन दावों के उलट, आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में सभी धार्मिक समूहों ने दशकीय विकास दर में गिरावट का अनुभव किया है, पिछले तीस सालों में हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की आबादी में गिरावट अधिक स्पष्ट है। 2001 और 2011 के बीच, दशकीय वृद्धि दर में हिंदुओं के लिए 3.1% की तुलना में मुसलमानों के लिए 4.7% की गिरावट आई है। साथ ही, मुसलमानों में टीएफआर 1992-93 में 4.4 से घटकर 2019-21 में 2.4 हो गई।

जनसंख्या वृद्धि और प्रजनन दर पर धर्म से ज़्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक कारकों में निवेश के स्तर का प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, बिहार में हिंदू आबादी की टीएफआर (2.88) केरल में मुसलमानों की टीएफआर (2.25) से काफी अधिक है। ये आंकड़े अल्पसंख्यकों द्वारा जानबूझकर चली गई चाल के मिथक को खारिज करते हैं और आबादी से जुड़े मुद्दों के लिए डेटा-संचालित नजरिये की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

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जनसंख्या वृद्धि और प्रजनन दर पर धर्म से ज़्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक कारकों में निवेश के स्तर का प्रभाव पड़ता है। | चित्र साभार: मिच ऑल्टमैन / सीसी बीवाय 

शोध-आधारित (रिसर्च-बेस्ड) सूचना प्रसार कार्य करना

पिछले कुछ दशकों में, इन मिथकों को समय-समय पर मुख्यधारा के मीडिया, राजनेताओं और यहां तक ​​कि सिविल सोसाइटी द्वारा भी दोहराया गया है। इसलिए हमारे काम का मुख्य उद्देश्य, सही समय पर व्यापक शोध और डेटा आधारित खंडन जारी करना है, जिसे हमने वैश्विक और घरेलू दोनों मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रकाशित किया है।

हमारी शोध-आधारित मीडिया सहभागिता रणनीति के कुछ प्रमुख घटक इस तरह से हैं-

1. अंदरूनी सहयोग को सुविधाजनक बनाना: हमारी ज्ञान-प्रबंधन टीम, अप टू डेट रिसर्च तैयार करने और उन्हें एकत्र करने का काम करती है। हमारी संचार और मीडिया टीम, इसे हमारे मीडिया नेटवर्क के जरिए डिजाइन करने और फैलाने का काम करती है। तुरंत कार्रवाई से यह तय किया जाता है कि गलत सूचना को शुरुआत में ही दबा दिया जाए और अन्य झूठी कहानियों को पैदा होने से रोका जाए। हम आंकड़ों का विश्लेषण, कंटेंट बनाने और उसके प्रसार के लिए भी तकनीक का लाभ उठाते हैं, जिससे हमारी दक्षता और पहुंच में सुधार हुआ है।

2. जटिल शब्दावली और तकनीकी अवधारणाओं को सरल बनाना: हम भाषा को सरल बनाने, जटिल शब्दों को कम करने और अकादमिक अवधारणाओं को तोड़ने का काम करते हैं। इससे हमें संचार को बेहतर बनाने और कंटेंट के व्यापक उपभोग को बढ़ावा देने में मदद मिली है। भारत की जनसंख्या को लेकर फैली आशंकाओं का मुकाबला करने के लिए, हमने प्रतिस्थापन-स्तर की प्रजनन क्षमता (रिप्लेसमेंट लेवल फर्टिलिटी), विभिन्न विकास दरों और जनसंख्या अनुमानों के लिए मौजूदा सांख्यिकीय (स्टेटिस्टिकल) मॉडल जैसी अवधारणाओं को समझाया है। इसके अलावा, हम जनसंख्या गतिशीलता और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य पर हो रहे वैश्विक शोध पर भी लगातार नजर रखते हैं। हम प्रजनन क्षमता को प्रेरित करने वाली चीज़ों की बेहतर समझ बनाने के लिए जनगणना और एनएफएचएस जैसे सर्वेक्षणों में विभिन्न डेटा संकेतकों (इंडिकेटर्स) के बीच संबंध भी बनाते हैं।

अपने लेखों के माध्यम से, हम इस बात पर जोर देते हैं कि जनसंख्या को अक्सर ‘संख्या’ की समस्या के रूप में देखा जाता है, लेकिन असल में यह लोगों से संबंधित है। मानव विकास-विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा, सशक्तिकरण और सामाजिक-आर्थिक संदर्भ-अक्सर आंकड़ों के पीछे की प्रेरक शक्ति है। इन सब के साथ-साथ, फैसले गलतफहमियों के बजाय तथ्यों पर आधारित हों, का नज़रिया लोगों और नीति निर्माताओं दोनों को शिक्षित करने में सहायक रहा है ।

3. मीडिया के लिए संसाधन बनाना: हमारे दृष्टिकोण को हमारे मीडिया-केंद्रित प्रोजेक्ट और बेहतर बनाते हैं, जिसमें परिवार नियोजन संसाधन बैंक जैसी पहल शामिल है। यह परिवार नियोजन, जनसंख्या, और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य जैसे मुद्दों की दिशा में नई से नई प्रगति, जानकारी और रिसर्च को मीडिया के साथ साझा करने की एक कोशिश है। मौजूदा समय में हम प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिक डेटा और जेनरेटिव एआई तकनीक को शामिल करके संसाधन बैंक की सामग्री और डिज़ाइन को अपग्रेड करने पर काम कर रहे हैं।

हमने 50 ऑन-ग्राउंड रिपोर्टों के माध्यम से पूरे भारत में वंचित महिलाओं की आवाज़ का दस्तावेजीकरण करने के लिए पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (पीएआरआई/परी) के साथ भी साझेदारी की है।

4. नीति निर्माताओं और सरकार के साथ काम करना: हम परिवार नियोजन के लिए अधिकार-आधारित, विकल्प-केंद्रित दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए चुने हुए प्रतिनिधियों, विशेषज्ञों और प्रभावशाली लोगों के साथ जुड़ते हैं। इसके लिए, हम उन्हें अच्छी तरह से रिसर्च किए हुए साक्ष्य-आधारित लेख, रिपोर्ट और नीति विवरण (पॉलिसी ब्रीफ) उपलब्ध कराते हैं। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की, ‘रॉब्ड ऑफ चॉइस एंड डिग्निटी: सिचुएशनल असेसमेंट ऑफ स्टिरलाईजेशन कैम्प्स इन बिलासपुर’ के नाम की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट ने नसबंदी सेवाओं के कैंप मोड को बंद करने और परिवार नियोजन में देखभाल के स्तर में सुधार करने के सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नसबंदी सेवाओं के कैंप मोड को बंद करने और परिवार नियोजन में देखभाल के स्तर में सुधार करने के सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सामाजिक और विकास क्षेत्र की अन्य संस्थाओं और संगठनों के साथ हमारे रणनीतिक जुड़ाव ने सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में गर्भनिरोध के विकल्पों को बढ़ाने में योगदान दिया है। इसमें इंजेक्शन और प्रत्यारोपण (इंप्लांट) की शुरूआत भी शामिल है। इसे स्वास्थ्य अधिकारियों और नीति निर्माताओं के साथ लगातार बातचीत और जुड़ाव से हासिल किया गया है। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने नीति आयोग और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ मिलकर कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों और नीतियों में भी योगदान दिया है। ये प्रयास तय करते हैं कि हमारी रिसर्च और सिफारिशों को राष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों में शामिल किया जाए, जिससे उनका असर का दायरा बढ़ सके।

मीडिया सहभागिता में चुनौतियां

साक्ष्य-आधारित काम करने के बावजूद, हमें जनसंख्या से जुड़ी गलत सूचनाओं को सही करने के लिए मीडिया और अन्य सहयोगियों तक पहुंचने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों में शामिल हैं:

1. पहले से मौजूद पूर्वाग्रह और गलत धारणाएं: जनसंख्या के मुद्दे से जुड़े कई लोगों के मन में जनसंख्या के लगातार बदलते पहलुओं को लेकर गहरे पूर्वाग्रह या गलत धारणाएं हैं, जिन्हें स्पष्ट सबूत के साथ भी बदलना मुश्किल है। सनसनीखेज मीडिया कवरेज और राजनीतिक बयानबाजी से इसे अक्सर बढ़ावा ही मिलता है। इसके समाधान की दिशा में बढ़ने के लिए हमारा नजरिया लोगों के साथ जल्दी और लगातार जुड़ने का रहा है। हमारा प्रयास, विश्वास पर आधारित रिश्ते बनाने, वेबिनार, कॉल और आपसी चर्चाओं के जरिये निरंतर शिक्षा प्रदान करने का रहता है। दर्शकों की खास चिंताओं और रुचियों को पूरा करने वाले संदेश तैयार करने से भी इन पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद मिलती है।

2. मीडिया में सनसनीखेज कहानियों को प्राथमिकता: मीडिया आउटलेट अक्सर सनसनीखेज कहानियों को प्राथमिकता देते हैं जो साक्ष्य-आधारित रिपोर्टिंग के बजाय मिथक और गलत सूचनाएं फैलाती हैं। इसलिए, हम पत्रकारों और मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर काम करने का प्रयास करते हैं ताकि उन्हें उपयोग के लिए तैयार, तथ्य-आधारित कंटेंट मुहैया कराया जा सके जो आकर्षक और खबरों में आने योग्य हो। विशेष कहानियों, इन्फोग्राफिक्स और विशेषज्ञों के इंटरव्यू उपलब्ध कराने से तथ्य आधारित रिपोर्टिंग के साथ मीडिया संस्थाओं के हितों को साथ लेकर चलने में मदद मिल सकती है।

3. डेटा की जटिलता: सांख्यिकीय (स्टेटिस्टिकल) डेटा और जनसंख्या मॉडल की जटिलता आम लोगों के लिए बाधा बन सकती है, जिससे गलत सूचना के लिए जड़ें जमाना आसान हो जाता है। हम, पत्रकारों को डेटा सरल भाषा में समझाकर और स्पष्ट चित्रों और इन्फोग्राफिक्स से दर्शाकर, अवधारणाओं को आसान बनाने की कोशिश करते हैं।

4. राजनीतिक और वैचारिक विरोध: कुछ राजनीतिक और वैचारिक समूह उनके एजेंडे के खिलाफ जाने वाले, खासतौर से जनसंख्या नियंत्रण और अल्पसंख्यक विकास दर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण का विरोध कर सकते हैं। इसलिए, हम आर्थिक विकास और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे सामान्य लक्ष्यों की बात रखते हुए डेटा को गैर-टकरावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

हमारा लक्ष्य खास रणनीतियों के साथ इन चुनौतियों को हल करके, अपने असर को बढ़ाना और यह तय करना है कि सटीक और साक्ष्य-आधारित जानकारी भारत में जनसंख्या से जुड़े मुद्दों पर चर्चा को आकार दे। गलत सूचना और प्रचार के इस दौर में, मिथकों का मुकाबला करने के साथ-साथ जटिल जनसंख्या मुद्दों पर स्पष्टता और सही जानकारी को सामने लाने, और जनता के बीच एक सूचित दृष्टि बनाने वाली जानकारी के प्रसार में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें:

  • पढ़िये जनसंख्या पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की पड़ताल करता यह लेख।
  • भारत में गरीबी, रोजगार और उद्यमिता के संबंध को समझिए इस लेख में।

लेखक के बारे में
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पूनम मुत्तरेजा

पूनम मुत्तरेजा पॉप्युलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (पीएफ़आई) की इग्ज़ेक्युटिव डायरेक्टर हैं। पीएफ़आई एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था है जो परिवार नियोजन को लेकर जागरूकता लाने और महिलाओं और किशोरों के स्वास्थ्य, लैंगिकता और कल्याण से जुड़े काम करती है। पूनम ने 35 से अधिक वर्षों तक सामाजिक-विकास क्षेत्र में काम किया है। पीएफ़आई में काम करने से पहले वह भारत में मैकआर्थर फ़ाउंडेशन की प्रमुख थीं। पूनम सामाजिक न्याय (एसआरयूटीआई), कला (दस्तकार) और लीडरशिप प्रोग्राम्स (अशोका फ़ाउंडेशन, भारत) से जुड़ी कई संस्थाओं की सह-संस्थापक हैं। पूनम ने हॉर्वर्ड केनेडी स्कूल ऑफ़ गवर्न्मेंट से एमपीए किया है और ऐमर्स्ट में न्यू हैम्प्शर कॉलेज और इंडियाना के रिच्मंड में अर्लहैम कॉलेज में विज़िटिंग फ़ैकल्टी भी रह चुकी हैं।

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मार्तंड कौशिक

मार्तंड कौशिक पॉप्युलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया में मीडिया और संचार के विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने द कारवाँ और द टाइम्स ऑफ़ इंडिया में सम्पादकीय भूमिकाओं में भी काम किया है।

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संघमित्रा सिंह

संघमित्रा सिंह, पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया में कार्यक्रमों की प्रमुख हैं। एक प्रशिक्षित स्वास्थ्य वैज्ञानिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्यरत, संघमित्रा को अनुसंधान, कार्यक्रम नेतृत्व और प्रबंधन में एक दशक से अधिक का अनुभव है। उन्होंने ने जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी से बायोलॉजिकल साइंसेस में पीएचडी की है और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ, फेडरल ड्रग एडमिसिस्ट्रेशन (एफडीए) और अजीनोमोटो कॉर्पोरेशन, टोक्यो से जुड़ी रही हैं।

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