कल्पना करिए कि मध्य भारत के एक छोटे से गांव में, रामू किसान को अपना खेत जोतते हुए कुछ पुराने और कीमती सिक्के मिलते हैं। खुश होकर, वह इन सिक्कों को 1500 रुपए की मामूली सी कीमत पर बेच देता है। लेकिन ये खुशी थोड़ी ही देर की है क्योंकि उसे पता चलता है कि जिला अधिकारियों को खजाना मिलने की खबर न देने के कारण अब उस पर इंडियन ट्रेजर ट्रोव एक्ट, 1878 के तहत मुक़दमा चलेगा। अब रामू को एक साल के लिए जेल जाना पड़ सकता है।
यह अस्पष्ट और गुजरे जमाने का कानून, उन कई कानूनों में से एक है जो एक आम नागरिक को अपराधी में बदल सकते हैं। असल में, भारतीय कानून में 6000 से अधिक ऐसे अपराध हैं जो किसी के भी लिए जेल जाने का खतरा पैदा कर सकते हैं। आपराधिक कानूनों पर यह अतिनिर्भरता, अक्सर सामाजिक व्यवस्था और नैतिकता की अपनी धारणाओं से निकलती है और छोटी गलतियों का अपराधीकरण एक बड़े मुद्दे की ओर इशारा करता है। यह मुद्दा है – आपराधिक कानूनों को कब और कैसे लागू किया जाना चाहिए, यह बताने वाली किसी स्पष्ट नीति का ना होना।
आपराधिक कानूनों को लेकर स्पष्टता की कमी इसका राजनीतिकरण होने देती है। यह सरकार की चुनौतियों (जैसे शासन-व्यवस्था बनाए रखने) से निपटने में एक सहज और लगभग स्वीकार्य प्रतिक्रिया बन गई है, जबकि इसके लिए अन्य प्रकार की नागरिक कार्रवाइयां (जैसे जुर्माना लगाना) भी अपनाई जा सकती हैं। आपराधिक कानूनों पर हमेशा बनी रहने वाली यह निर्भरता, इस आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत के स्वतंत्रता, न्याय और उदारता जैसे संवैधानिक मूल्यों के साथ संगत नहीं है।
अपराध रोकने से शासन व्यवस्था बनाए रखने तक
लोगों को उनके जीवन और स्वतंत्रता से वंचित रखने की क्षमता को देखें तो आपराधिक कानून सरकार का एक शक्तिशाली साधन बन जाते हैं। खासतौर पर जब बात सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने की आती है। परंपरागत रूप से, आपराधिक कानून जीवन, स्वतंत्रता, शासन व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा के लिए होते हैं और इन्हें नुकसान पहुंचाने वाले आचरणों को रोकते और दंडित करते हैं। आजादी के बाद बनाए गए कई विशेष कानूनों के साथ भारतीय दंड संहिता, 1860 भी इस नजरिए के अनुरूप थी। बीते दशकों में, नए कानूनों के बनने के बाद भी आपराधिक कानून के इस्तेमाल को निर्देशित करने वाली धारणाएं जस की तस बनी हुई हैं।1 इन सिद्धांतों में समाज और राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए जरूरी मूल्यों की रक्षा करना और यह तय करना शामिल है कि संवैधानिक अधिकारों का अपराधीकरण ना होने पाए। साथ ही,2 इन मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए एक तार्किक और उचित दंड व्यवस्था बनाना भी शामिल है।
हालांकि, अपवाद हमेशा से ही रहे हैं। उपनिवेश काल से राजद्रोह और मानहानि जैसे अपराध कानूनों का इस्तेमाल अक्सर असहमति को दबाने, और स्वतंत्रता आंदोलन समेत तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को कुचलने के लिए किया जाता रहा है। इसी तरह विक्टोरियन नैतिकता भी भारतीयों पर थोपी गई और समलैंगिक संबंध व विवाहेतर संबंधों को अपराध घोषित कर दिया गया, जिसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया है। भीख मांगने और नशा करने को अपराध बताना भी सामाजिक मुद्दों से निपटने में अपराध कानूनों पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता को दिखाते हैं। यह बताता है कि सरकारी प्रतिक्रियाओं में अक्सर बारीकियों का ध्यान रखे जाने और गहन विचार-विमर्श की कमी दिखाई देती है।
रोजमर्रा के प्रशासन को संभालना
ऊपर जिक्र किए उदाहरण समस्या का एक सिरा भर हैं। बीते कुछ समय से, कई तरह की नागरिक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए अपराध कानूनों का इस्तेमाल करने का चलन बढ़ रहा है। यहां तक कि जब यह प्रक्रियाएं सामाजिक व्यवस्था, जीवन, संपत्ति या राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं होती हैं, तब भी ऐसा किया जाता है? असल में अपराध कानून भारत में रोजाना के शासन-प्रशासन के केंद्र में आ गए हैं।
उदाहरण के लिए, साधारण नियमों का पालन न करना जैसे पंजीकरण की औपचारिकताओं को पूरा ना करना, आर्थिक दस्तावेजों का ठीक से प्रबंधन ना करना या समय पर सरकारी विभाग तक उसकी जानकारी ना पहुंचाना, पालतू जानवरों से ठीक से व्यवहार ना करना, किसी सरकारी अधिकारी की प्रशासनिक शक्तियों के प्रयोग में बाधा डालना या सड़क पर लाल बत्ती पार करना आदि जैसी गतिविधियां, किसी को जेल पहुंचा सकती हैं। गौर करने वाली बात है कि अगर कोई अपने आर्थिक दस्तावेजों का एकदम सही प्रबंधन नहीं करता है तो ऐसे 14 कानून हैं जो इसे अपराध बताते हैं और इसके लिए उसे दो साल तक की सजा भी हो सकती है। इसी तरह, 20 कानून हैं जो बताते हैं कि सरकारी अधिकारी के काम (शक्ति के प्रयोग) में बाधा डालना अपराध है जिसके लिए जेल और जुर्माना हो सकता है। लेकिन इन कानूनों में बाधा डाले जाने को स्पष्टता से नहीं बताया गया है।
मामूली उल्लंघनों के लिए अपराध कानूनों पर निर्भर होना एक ऐसी प्रणाली को मजबूती देता है जो न केवल बहुत सख्त है बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से भी उपयुक्त नहीं है।
भले ही, ऐसा नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करने के लिए किया गया हो, लेकिन मूलभूत सवाल यह उठता है कि क्या अपराध कानून इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त साधन हैं? क्या हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में न्याय करने के लिए बनाए कानूनों का इस्तेमाल इसके लिए भी हो सकता है कि किसी ने अपने दस्तावेज सही समय पर नहीं जमा किए, या सफाई कर्मचारी ने समुचित औपचारिकता के बगैर छुट्टी ली, या फिर कोई बिना इंश्योरेंस की गाड़ी चला रहा था? गंभीर अपराधों और छिटपुट उल्लंघनों के बीच स्पष्ट सीमारेखा ना होने से, न केवल अपराध कानून और इन्हें लागू करने वालों की भूमिका का विस्तार होता है बल्कि, इससे न्याय व्यवस्था का मूल उद्देश्य भी समाप्त हो जाता है। अपराध कानून केवल उन गंभीर अपराधों के लिए होने चाहिए जिनसे मानव जीवन, संपत्ति या सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को खतरा हो। छोटे-मोटे उल्लंघनों के लिए भी उतना ही सख्त रवैया अपनाया जाना और दोनों के बीच के अंतर को ना समझना, अपराध क़ानूनों के मूल उद्देश्य को कमजोर करता है।
इसके अलावा, यह नजरिया एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देता है जहां दंड और अवरोध को कानूनों को लागू करने का एकमात्र तरीका माना जाता है। मामूली उल्लंघनों के लिए अपराध कानूनों पर निर्भर होना एक ऐसी प्रणाली को मजबूती देता है जो न केवल बहुत सख्त है बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से भी उपयुक्त नहीं है, जहां दंडात्मक उपायों को सुधार उपायों से बदला जा रहा है। यह नजरिया वर्तमान नागरिक-सरकार संबंधों के साथ भी मेल नहीं खाता है क्योंकि अब इस संबंध को शिक्षा, प्रोत्साहन और सामाजिक जुड़ाव के जरिए मज़बूत किए जाने पर जोर दिया जाता है।
सजा के उद्देश्य और औचित्य को ना समझना
अपराध कानूनों का मनमाना उपयोग अत्यधिक अपराधीकरण पर जाकर नहीं रुकता है। सजा तय करने में असंगतता और अतार्किकता इसे और उलझन भरा बना देती हैं। रामू के उदाहरण पर वापस जाएं तो खजाना मिलने की जानकारी न देने के कारण उसे एक साल तक की कैद का सामना करना पड़ सकता है। विडंबना यह है इतनी ही सजा तब भी दी जा सकती है जब कोई किसी को आपत्तिजनक बात कहकर उसका यौन उत्पीड़न करता है या किसी से उसकी इच्छा के खिलाफ काम करवाता है।
भारत के आपराधिक कानून का परिदृश्य ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां अलग-अलग अपराधों के लिए समान रूप से सजा दी जाती है। या फिर इसके उलट, समान अपराधों के लिए अलग-अलग तरह से सजा दी जाती है। उदाहरण के लिए, मानहानि के लिए दो साल तक की कैद की सजा का प्रावधान है और यही सजा तब भी दी जाती है जब कोई किसी बच्चे के जन्म को छुपाने के लिए, उसकी लाश को छुपाता है। इसी तरह, अदालत में झूठा बयान देने और किसी महिला के साथ क्रूरता करने, दोनों अपराधों के लिए के लिए तीन साल की सजा है। दूसरी तरफ देखें तो सरकारी अधिकारी के काम में दखल देने के लिए मर्चेंट शिपिंग एक्ट, 1958 के तहत 200 रुपए का जुर्माना है, ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के तहत यह सजा तीन साल तक की जेल है और फूड सेक्योरिटी एंड स्टैंडर्ड एक्ट, 2006 के तहत महज तीन महीने की सजा काफी है।
हालांकि कारावास की अवधि अपराध की गंभीरता को दिखाती है – अपराध जितना अधिक गंभीर, सजा उतनी ही कठोर – लेकिन इसमें विसंगतियां साफ दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए, जहां गंभीर उकसावे के बगैर हमला करने या आपराधिक बल प्रयोग करने पर तीन महीने तक की कैद की सजा हो सकती है, वहीं बाड़े से मवेशियों को छुड़ाने पर छह महीने तक की कैद की सजा हो सकती है।
एक ऐसा देश जहां रोजमर्रा के प्रशासनिक मामलों के लिए अपराध कानून पर इतनी अधिक निर्भरता है, वहां यह तय करने में स्पष्टता नहीं है कि कौन से अपराध के लिए क्या सजा दी जानी चाहिए। इस असंगति की जड़ शायद उस समझ की कमी है कि सज़ा किस उद्देश्य से तय की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, खजाना मिलने की खबर ना देने वाले को एक साल की सजा देने का क्या तुक है? इसी तरह संपत्ति कर देने में देरी और महिला के साथ क्रूरता किए जाने में क्या तुलना है कि दोनों के लिए तीन साल तक सजा देने का प्रावधान है? ये अपराध अपनी प्रवृत्ति में एकदम अलग हैं, फिर भी कानून उनके साथ एक जैसा व्यवहार करता है। सजा प्रभावी होने के साथ सुधार लाने वाली होनी चाहिए, न कि केवल हतोत्साहित करने वाली। सरकार को अलग-अलग तरह के अपराध के दोषियों के लिए अलग-अलग नजरिया अपनाना चाहिए।
बदलाव के हालिया प्रयास
बीते दो सालों में, इन मुद्दों को हल करने और शासन में अपराध कानूनों की भूमिका का दोबारा आकलन करने के उद्देश्य से कुछ नीतिगत बदलाव होते दिखे हैं। भारतीय न्याय संहिता (बीएमएस), 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए), 2023, का उद्देश्य आपराधिक न्याय व्यवस्था को आधुनिक बनाना और उपनिवेशवाद की छाया से मुक्त करना है। इसके लिए इन नई किताबों में नागरिक केंद्रित प्रक्रियाओं, तेजी से निराकरण के लिए समयसीमा, फ़ॉरेंसिंक और तकनीक का इस्तेमाल, पीड़ित केंद्रित न्याय व्यवस्था और सजा के ऊपर न्याय को वरीयता देने पर जोर दिया गया है। इसी तरह, जन विश्वास (अमेंडमेंट ऑफ प्रोविज़न) एक्ट, 2023 में भारत में व्यापार से जुड़ी प्रक्रियाओं को आसान बनाने के इरादे के साथ अपराधों के लिए सजा का गैर-अपराधिकरण करने और उन्हें तर्कसंगत बनाने की मांग की गई है।
भारत का विधायी (लेजिस्लेटिव) परिदृश्य आपराधिक प्रावधानों और ऐसे दंडों से भरा है जो कि अपराध के अनुरूप नहीं हैं।
भले ही ये सुधार मौजूदा व्यवस्था के भीतर समस्याओं को स्वीकार करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम हैं, लेकिन वे यथास्थिति को बदल पाने में असफल ही रहे हैं। उदाहरण के लिए, बीएनएस मनमाने ढंग से दंड देना जारी रखता है। मानहानि, राजद्रोह और धर्म के खिलाफ अपराध जैसे अपराध पुराने मापदंडों के साथ किताब में बने हुए हैं। ध्यान खींचने वाला एक मात्र जुड़ाव, अतिरिक्त सजा के तौर पर सामुदायिक सेवा की शुरूआत है, लेकिन यह प्रावधान केवल छह अपराधों पर लागू होता है जिससे इसका प्रभाव सीमित हो जाता है।
संक्षेप में, भारत का विधायी (लेजिस्लेटिव) परिदृश्य आपराधिक प्रावधानों और ऐसे दंडों से भरा है जो कि अपराध के अनुरूप नहीं हैं, साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था भी अपराधीकरण पर जरुरत से ज्यादा निर्भर है।
भारत में अपराध और सजा पर दोबारा विचार करना
आपराधिक कानून उन मामलों तक सीमित होना चाहिए जो लोगों, सार्वजनिक व्यवस्था, सुरक्षा, या संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं या उससे संबंधित होते हैं। उदाहरण के लिए, क्रोएशिया और स्लोवेनिया जैसे देशों में दंड संहिताएं हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकारों पर खतरा होने या उनका उल्लंघन करने वाले कृत्यों के लिए आपराधिक प्रतिबंधों पर ही बात करती हैं।
इससे परे के मुद्दों के लिए, जिनके लिए अभी भी विनियमन की आवश्यकता है, सरकार को सजा के विकल्प या कम से कम सजा के वैकल्पिक रूपों पर विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया में कई विकल्प होते हैं, जैसे गहन सुधार आदेश, ड्रग्स और शराब उपचार आदेश, और गैर-दोषी आदेश – जो अदालत को अपराध के अनुरूप सजा देने के लिए उचित विकल्प प्रदान करते हैं।
हालांकि, आपराधिक कानूनों की नई कल्पना करने के लिए कुछ जरूरी सवालों पर विचार करने की जरूरत होगी: आधुनिक भारत के लिए आपराधिक कानून का असली उद्देश्य क्या है? लोगों को सजा देने से कौन से उद्देश्य पूरे होते हैं? क्या इन उद्देश्यों को पाने के लिए और अधिक प्रभावी विकल्प हैं? और आखिर में, क्या हम आचरण को अपराध बनाकर या केवल नई समस्याएं पैदाकर किसी समस्या का समाधान कर रहे हैं?
आपराधिक कानून-निर्माण पर एक ठोस नीति – जिसमें अपराधीकरण के मानदंड, कानून के मसौदे पर लोगों की राय का आकलन और सजा के स्वरूप और मात्रा निर्धारित करने के नियम शामिल हैं, गैर-जरूरी और मनमाने अपराधीकरण को खत्म करने में मदद कर सकती है। इसी तरह, सजा निर्धारित करने की एक रूपरेखा, जेल की शर्तों और जुर्माने के उपयोग की अधिक उपयुक्त और स्थिर व्यवस्था तय कर पाएगी। न्यायाधीशों के लिए स्पष्ट रूप से सजा के लिए निर्धारित दिशानिर्देशों की गैरमौजूदगी में, इस तरह की रूपरेखा यह तय करने में महत्वपूर्ण बदलाव ला पाएगी कि दंड अपराध के अनुरूप हो।
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फुटनोट:
- हमने इन मूल्यों की पहचान करने के लिए स्वतंत्रता के बाद के 25 कानूनों का विश्लेषण किया जिन्हें भारत के विधि आयोग ने अपनी 248वीं रिपोर्ट में आपराधिक न्याय से संबंधित कानूनों के रूप में वर्गीकृत किया है।
- अदालतों ने भीख मांगने, समलैंगिकता, आत्महत्या के प्रयास और व्यभिचार को अपराध मानने वाले प्रावधानों को रद्द कर दिया है। इन मामलों में, अदालतों ने एक सामान्य मार्गदर्शक सिद्धांत निर्धारित किया है जो ऐसे अपराधीकरण को हतोत्साहित करता है, अगर वह मौलिक अधिकारों या व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन करता है, या भेदभावपूर्ण होता है।
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