मैं महाराष्ट्र के पुणे जिले में ‘इंडिया लेबर लाइन’ के केंद्र में काम करता हूं। यह देश के नौ राज्यों में सक्रिय, मजदूरों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर और मदद केंद्र है। इस पर संपर्क करने वाले लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता दी जाती है।
हम पुणे शहर के उन लेबर नाकों पर भी जाते हैं जहां असंगठित मजदूर इकट्ठा होते हैं। यहां से ठेकेदार या मालिक जिन्हें मजदूरों की जरूरत होती है, वे उनसे मजदूरी तय करते हैं और काम की जगह पर ले जाते हैं। इन नाकों पर कई बार बंधुआ मजदूर भी होते हैं जिनसे हम उनकी कहानी सुनते हैं। हम इन लोगों के बीच श्रम कानून के बारे में जागरुकता बढ़ाने का काम करते हैं।
नाकों पर हम ऐसे कई बंधुआ मजदूरों से मिले है जिनके मामले कभी दर्ज ही नहीं हुए। सुरेश*, एक बंधुआ मजदूर बताते हैं, “हम जिस जगह काम करने गए थे, वहां से वापस जाने की बात करने पर या अपना फोन मांगने पर हमें मारा जाता था। हम वहां से रात में खेतों से होते हुए भागकर आए हैं।”
इस घटना को लेकर वे केस दर्ज नहीं करना चाहते हैं। उन्हें यह मालूम ही नहीं था कि इस पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।
ऐसा ही एक केस लेबर लाइन के ज़रिए अमित पटेल* का आया। गुजरात के बड़ौदा शहर के निवासी अमित पिछले 22 सालों से महाराष्ट्र के पुणे जिले में एक रसोइए के तौर पर अलग-अलग जगहों पर काम कर रहे थे।
लगातार काम ना मिलने के कारण गरीबी से तंग आकर उन्होंने पुणे स्टेशन के पास लेबर नाके पर जाकर एक ठेकेदार से काम के लिए मदद मांगी। ठेकेदार ने उन्हें 1000 रुपये प्रति दिन की नौकरी देने का वादा किया और पुणे से 70 किमी दूर स्थित एक रेस्टोरेंट में नौकरी दिला दी।
लेकिन वहां भी समय पर वेतन नहीं मिला। आवाज़ उठाने पर मालिक ने अमित का मोबाइल जब्त कर लिया गया और उन्हें बहुत अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया।
अमित का खाना बंद कर दिया गया और उन पर निगरानी रखे जाने लगी जिसके चलते डर के कारण वे वहां से बाहर निकलने में असहाय महसूस करने लगे। उन्होंने मालिक से साफ कह दिया कि वे वहां काम नहीं करना चाहते हैं और जल्द से जल्द उन्हें मुक्त करने की मांग की। लेकिन मालिक ने उन्हें मुक्त करने से मना कर दिया। वहां दिनभर लोगों से काम करवाने के बाद रात में उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता था।
कुछ समय बाद मोबाइल वापस मिलने पर अमित ने अपने एक दोस्त से बात की जिसने उन्हें आजीविका ब्यूरो की इंडिया लेबर लाइन के बारे में बताया और मदद केंद्र का नंबर दिया।
बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए हम जिला मजिस्ट्रेट, उप-विभागीय मजिस्ट्रेट, तहसीलदार या पुलिस स्टेशन की भी मदद ले सकते हैं। बचाए गए बंधुआ मज़दूरों को जिला मजिस्ट्रेट या उप-विभागीय मजिस्ट्रेट द्वारा बंधुआ मजदूर मुक्ति प्रमाणपत्र जारी किया जाता है। यह अपेक्षा की जाती है कि इस प्रमाणपत्र से उन्हें अपना जीवन फिर से शुरू करने के लिए आजीविका और नौकरी की सुरक्षा हासिल करने में केंद्र सरकार की योजनाओं से मदद मिलेगी।
यह जानकारी मिलने के बाद हम पुलिस अधिकारी को लेकर अमित के होटल पहुंचे, तब भी मालिक ने अमित को छोड़ने से मना कर दिया। लेकिन कानूनी धाराओं और पुलिस की चेतावनी के बाद, उसने 1000 रुपये दिन की बजाय 400 रुपये दिन की दर से भुगतान किया और उन्हें मुक्त कर दिया।
भारत में बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 में लागू हुआ था, तब से बंधुआ मजदूरी अवैध है। फिर भी देश में बहुत सारे मजदूरों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनकी शिकायतें कहीं दर्ज तक नहीं होती हैं।
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
आकाश तनपुरे आजीविका ब्यूरो के साथ काम करते हैं।
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