महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एमएसआरटीसी) की बसें राज्य के भीतर यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए जीवन रेखा की तरह हैं। बावजूद इसके, महाराष्ट्र के ज्यादातर बस डिपो परिसरों में शौचालय नहीं हैं। अगर कहीं हैं भी तो बहुत खराब स्थिति में हैं। इस बात का पता तब चला जब हमने ठाणे, मुंबई (शहर और उपनगरीय) और पनवेल जिलों में 18 एमएसआरटीसी बस डिपो में जाकर शौचालयों का ऑडिट किया।
यह ऑडिट गट्स फ़ेलोशिप के 28 फ़ेलो ने अनुभूति की देख-रेख में की है। फ़ेलो में खानाबदोश और विमुक्त जनजातियों (एनटी-डीएनटी) के साथ-साथ दलित और बहुजन समुदायों के युवा और महिलाएं शामिल हुए। एक फ़ेलो ने हमें बताया, “एक बस डिपो में, शौचालय की दीवारें इतनी नीची थीं कि कोई भी आसानी से उन पर चढ़कर अंदर जा सकता था। इस वजह से, महिलाएं शौचालय का उपयोग करते समय असुरक्षित महसूस करती हैं। अंदर कोई रोशनी भी नहीं है जिससे यह रात में अनुपयोगी और असुरक्षित हो जाता है।”
एक और फेलो साथी ने बताया कि “ठाणे जिले में एक बस डिपो के शौचालय में जाने से हमें डर लगता था। यह पूरी तरह से खंडहर हो चुका था। करीब 2,500 लोग रोजाना उस डिपो का इस्तेमाल करते हैं। आस-पास कोई दूसरी सुविधा नहीं है, इसलिए कोई विकल्प भी नहीं है। जब बस अगले डिपो पर पहुंचती है तो शौचालय की स्थिति वैसी ही या उससे भी बदतर होती है। यह चिंता का विषय है।”
ठाणे जिले में स्थित दूसरे बस डिपो से बड़ी संख्या में ग्रामीण और आदिवासी आबादी आती-जाती है। वहां से एक महिला यात्री ने बताया कि, “डिपो के अंदर होने वाला शौचालय असल में झाड़ियों में है, जहां पुरुष नशा करते हैं। डिपो से यात्रा करने वाले आदिवासियों सहित कई युवतियों को शौचालय असुरक्षित लगता है। इसलिए हम खुले में जाने के लिए मजबूर हैं, जो अशोभनीय होने के साथ साथ खतरनाक भी है।”
ठाणे के भिवंडी में डिपो में एक अटेंडेंट बताते हैं कि उन्हें एसिड अटैक का निशाना बनाया गया क्योंकि उन्होंने शौचालय परिसर में महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों के उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई थी।
बस डिपो और उनके परिसर में शौचालयों का उपयोग बहुत से लोग करते हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं, बच्चे और हाशिए के समुदायों के युवा हैं। ऐसे में शौचालयों को सुरक्षित स्थान बनाने के लिए एक प्रणाली और प्रक्रिया की जरूरत है। बस डिपो को यौन उत्पीड़न रोकथाम (पॉश) अधिनियम, 2013 के तहत कार्यस्थलों के रूप में बांटा जा सकता है। इस अधिनियम के अनुसार ‘कार्यस्थल’ को मोटे तौर पर “रोजगार स्थल या फिर काम करने के लिए कर्मचारी जहां जाता है, उस स्थान के तौर पर परिभाषित किया गया है। इसमें नियोक्ता की ओर से प्रदान किया गया परिवहन भी शामिल है।” “जो माल उत्पादन, बिक्री या सेवाएं प्रदान करने में लगे हुए हैं, और “व्यक्तियों या फिर श्रमिकों—कर्मचारियों के स्वामित्व वाली कोई भी जगह शामिल हो सकती है।” बस डिपो काम पर जाने वाले यात्रियों, व्यवसाय करने वाले विक्रेताओं, बस ड्राइवरों, कंडक्टरों, परिचारकों और क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से भरे हुए हैं। हालांकि, हमने जिन बस डिपो का ऑडिट किया, उनमें से किसी में भी पॉश अधिनियम की व्याख्या करने वाला बोर्ड नहीं लगा था। यह बोर्ड अधिनियम की जानकारी देता है। साथ ही इसमें आंतरिक समिति के सदस्यों के बारे में जानकारी होती है— जो यौन उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों को सुनती है और उनका निवारण करती है। इस समिति को नियोक्ता की ओर से गठित किया जाना चाहिए। साथ ही बोर्ड पर यौन उत्पीड़न के परिणामों के बारे में भी जानकारी होती है। हालांकि डिपो में और उसके आस-पास के किसी भी यात्री या कर्मचारी को इसकी जानकारी नहीं थी।
यदि बस डिपो में पॉश अधिनियम को सही तरीके से लागू किया जाए तो एनटी-डीएनटी, अनौपचारिक कर्मचारियों के साथ प्रवासी आबादी को बहुत राहत मिलेगी। चूंकि यह यौन उत्पीड़न के लिए निगरानी और शिकायत निवारण जैसी व्यवस्था को सही ढंग से पेश कर सकता है।
दीपा पवार एक एनटी-डीएनटी कार्यकर्ता हैं और अनुभूति की संस्थापक हैं जो एक जाति-विरोधी और नारीवादी संगठन है।
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