January 22, 2024

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए ज्वार-बाजरा को आम लोगों तक पहुंचाना

भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली मोटे अनाजों (ज्वार, बाजरा, रागी वग़ैरह) को आम लोगों तक पहुंचाने में कैसे मददगार हो सकती है और इस राह की चुनौतियां क्या हैं?
8 मिनट लंबा लेख

सितंबर 2022 में, भारत के खाद्य मंत्रालय ने अपनी कैंटीनों में मोटे अनाजों (मिलेट्स) से बने उत्पाद उपलब्ध कराए जाने अपने निर्णय की घोषणा की। इंटरनेशनल इयर ऑफ द मिलेट्स 2023 के मौक़े पर मंत्रालय अब बैठकों में स्वास्थ्य के लिहाज़ से फायदेमंद स्नैक्स जैसे रागी बिस्कुट, लड्डू और बाजरे के चिप्स वग़ैरह परोसने की तैयारी कर रहा है। अब कैंटीन में बनने वाले डोसा, इडली और वड़ा के लिए भी मुख्य अनाज के रूप में बाजरे का उपयोग होने लगा है।

पिछले कुछ वर्षों से, इस उद्देश्य के साथ कई पहलें काम कर रही हैं कि मोटे अनाज को हमारे खानपान में वापस लाना है, और इसलिए, इसकी खेती पूरे जोरों पर है। मिलेट्स को अब निम्न स्तर के मोटे अनाज के रूप में ना देख कर हमारी धरती के लिए अनुकूल और पौष्टिक अनाज माना जाने लगा है। हाल में सरकार का पूरा ध्यान शहरी ग्राहकों के व्यवहार में बदलाव पर रहा है जो इन उत्पादों को खरीदने की क्षमता रखते हैं। लेकिन बाकी का देश मिलेट्स का उपभोग कैसे करेगा, विशेष रूप से इसकी वर्तमान कीमत और उपलब्धता को देखते हुए?

यहीं पर, भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), अपने विस्तार और खाद्यान्न वितरकों के विशाल नेटवर्क के साथ, मोटे अनाजों को जन-जन तक पहुंचाने में भूमिका निभा सकती है। अनाज और दालों जैसे आवश्यक उत्पादों की खरीद-क्षमता को नियंत्रित करके, पीडीएस लोगों के खाने के तरीकों और खाने के उनके चुनाव को प्रभावित करता है। मोटे अनाजों की पोषकता और इसके उत्पादकों को समर्थन देने के महत्व को पहचानते हुए, भारत सरकार ने सार्वजनिक प्रणालियों के माध्यम से बाजरा के उत्पादन और वितरण को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है।

ओडिशा में, वाससन (वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क), राज्य सरकार के साथ साझेदारी में, पीडीएस और मिड-डे मील योजना जैसी पहले से उपलब्ध सार्वजनिक संरचनाओं के माध्यम से लोगों के आहार में मोटे अनाजों को दोबारा शामिल करने पर काम कर रहा है।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

वाससन की पूर्व प्रोग्राम मैनेजर अशिमा चौधरी का कहना है कि, ‘केवल शहरी उपभोक्ताओं के लिए वैल्यऐडेड उत्पादों से मिलेट्स की मांग को पैदा नहीं किया जा सकता है। यह बड़ी आबादी द्वारा किए जाने वाले भारी मात्रा के उपभोग से संभव हो सकता है।’

अशिमा का मानना है कि बाजरा अनाज की थोक खपत को और अधिक सक्रिय रूप से बिलकुल उसी प्रकार प्रोत्साहित करना होगा जैसा कि अतीत में चावल और गेहूं के लिए किया गया था।

फिलहाल सरकार केवल रागी, ज्वार और बाजरा ही ख़रीदती है और उसे पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध करवाती है। छोटे अनाजों जैसी बाजरा की किस्मों को ओडिशा और मध्य प्रदेश के साथ-साथ तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में पीडीएस में शामिल करने पर विचार किया जा रहा है। हालांकि, छोटी किस्मों को शामिल करने की पहल स्थानीय समाजसेवी संगठनों द्वारा प्रयोग के तौर पर की जा रही है, और अभी तक इसे राज्य की नीति में शामिल नहीं किया गया है।

सार्वजनिक वितरण में, छोटे मोटे अनाजों को शामिल करने की बातचीत सामने आने से पहले, कर्नाटक, ओडिशा, तेलंगाना और मेघालय जैसे राज्यों ने प्रायोगिक तौर पर पीडीएस दुकानों पर सिंगल-कोटेड मोटे अनाजों -ज्यादातर रागी- का वितरण शुरू कर दिया था। तमिलनाडु ने हाल ही में राज्य मिलेट मिशन में रुचि दिखाना शुरू कर दिया है; धर्मपुरी और नीलगिरी के चुनिंदा जिलों में रागी पायलट प्रोजेक्ट के रूप में उचित मूल्य की दुकानों में उपलब्ध करवाया गया है।

आमतौर पर राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में रागी और ज्वार की खपत को देखते हुए कर्नाटक सरकार ने पीडीएस के माध्यम से मोटे अनाज की विभिन्न किस्मों को सुलभ बनाने का प्रयास कर रही है। हालांकि, विधायक कृष्णा बायरेगौड़ा के नेतृत्व में राज्य के मिलेट मिशन से इसे क्रियान्वित करने की वास्तविकताएं कहीं अधिक जटिल रही हैं।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए सरकारी राशन की दुकान (पीडीएस)_मोटे अनाज
भारत का पीडीएस, अपने विस्तार और खाद्य वितरकों के विशाल नेटवर्क के साथ, मोटे अनाजों को जन-जन तक पहुंचाने में भूमिका निभा सकता है। | चित्र साभार: नंदिनी भगत

सब्सिडी के बावजूद मोटा अनाज अभी भी बहुत महंगा है

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 (एनएफएसए) इस बात पर जोर देता है कि इस योजना के दायरे में आने वाले परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलोग्राम अनाज मिलना चाहिए जिसमें चावल तीन रुपये प्रति किलोग्राम, गेहूं दो रुपये प्रति किलोग्राम, और मोटा अनाज एक रुपया प्रति किलोग्राम के दर से मिलना चाहिए; बाजरे को मोटे अनाज की श्रेणी में रखा गया है। बाज़ार – मुख्य रूप से रागी – अचानक मुख्य धारा का अनाज बन गया और एनएफएसए के जरिए उसे चावल से सस्ता किया जा रहा था।

साल 2019 में, ओडिशा सरकार ने अपने सात जिलों (गजपति, कालाहांडी, कंधमाल, कोरापुट, नुआपाड़ा, मल्कानगिरी और रायगड़ा) में रियायती दर पर रागी उपलब्ध कराना शुरू किया। इनमें से छह जिलों में, कार्डधारक प्रति माह एक रुपये प्रति किलो की दर से रागी खरीद सकते हैं। केवल मल्कानगिरी जिले में अधिक खपत के कारण सरकार ने दो किलोग्राम रागी एक रुपये में देने का फैसला किया। चौधरी बताते हैं कि आज भी ओडिशा में इन्हीं दरों पर ये अनाज उपलब्ध हैं। उचित मूल्य वाली दुकानों के जरिए रागी को व्यापक स्तर पर उपलब्ध बनाकर और सबकी पहुंच में लाकर ओडिशा सरकार ने प्रभावी तरीके से पीडीएस के लाभार्थियों को चावल और गेहूं से परे अन्य अनाजों से जोड़ना शुरू कर दिया है।

हालांकि, नीति में रागी जैसे मोटे अनाजों पर जोर दिया गया है, लेकिन इसका कार्यान्वयन एक अलग वास्तविकता दिखाता है। जहां बाजरे की क़ीमत को कम करके उसे पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध बनाया गया वहीं आज भी ज़्यादातर राज्यों में चावल अधिक सस्ता है।

नीलगिरी जीवमंडल में स्वदेशी समुदायों के साथ काम करने वाली कीस्टोन फाउंडेशन के लक्ष्मी नारायण ने तमिलनाडु में नीलगिरी जिले के पिल्लूर क्षेत्र में अपने फील्डवर्क के दौरान एक समान पैटर्न देखा। वे कहते हैं कि, ‘हालांकि उचित मूल्य की दुकानों पर रागी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत 3-5 रुपये प्रति किलोग्राम मिलने चावल से अधिक है और जो जनजातीय समुदायों के मुफ़्त है।’

नारायण यह भी बताते हैं कि, कोविड-19 महामारी से पहले, नीलगिरी के ग़ैर-शहरी क्षेत्रों के परिवार चावल के साथ खाने के लिए खुद रागी की खेती करते थे। हालांकि, महामारी के दिनों में रागी के बीज ना ख़रीद पाने के कारण लाभार्थियों का परिवार पूरी तरह से पीडीएस में मिलने वाले चावल पर निर्भर हो गया।

पिछले पांच सालों में नीलगिरी के क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों का सामान्य स्वास्थ्य स्तर ख़राब हुआ है और वे इसका कारण चावल की अत्यधिक खपत को बताते हैं।

प्रदान करती हैं। क्षेत्र के अन्य मूल अनाज जैसे कंबू (पर्ल मिलेट), सोलम (ज्वार), और थिनाई (फॉक्सटेल) की किस्में, जो परंपरागत रूप से नीलगिरी में रहने वाली इरुला नाम की जनजातीय समुदाय के खानपान में व्यापक रूप से शामिल थे, अब उनकी थाली से पूरी तरह ग़ायब हो चुके हैं। त्योहारों और विशेष अवसरों पर वे केवल रागी ही खाते हैं।

नारायणन आगे कहते हैं कि, ‘पिछले पांच सालों में नीलगिरी के क्षेत्रों में जनजातीय समुदायों का सामान्य स्वास्थ्य स्तर ख़राब हुआ है और वे इसका कारण चावल की अत्यधिक खपत को बताते हैं।’

मोटे अनाजों का प्रसंस्करण, एक बड़ी चुनौती

पीडीएस के माध्यम से रागी, बाज़ार और ज्वार का वितरण अपेक्षाकृत आसान है क्योंकि ये साबुत अनाज होते हैं इसलिए इन्हें प्रसंस्करण की जरूरत नहीं होती है। उदाहरण के लिए, रागी को बहुत आसानी से पीसा जा सकता है, और घर-परिवार के लोग अक्सर रागी का आटा बनाने के लिए पारंपरिक पिसाई विधियों का उपयोग करते हैं, जिसे पकाना और खाना आसान होता है। हालांकि रागी का प्रसंस्करण अपेक्षाकृत आसान होता है, लेकिन प्रसंस्करण की ज़रूरत ही इसके उपभोग में बाधा पैदा करती है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में, जहां रागी को पारंपरिक रूप से हाथ से पीस कर आटा बनाया जाता था। हालांकि, अब यह परंपरा बची नहीं रह गई है और लोग पुल्वराइज़र से लेकर ग्राइंडर जैसी मशीनों पर निर्भर होने लगे हैं।

एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) के निदेशक डॉ इज़राइल ओलिवर किंग, मिलेट प्रसंस्करण की चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। कई लोगों ने सिंगल-कोट रागी को साफ करने और पीसकर आटा बनाने के लिए अनौपचारिक तरीक़ों का सहारा लिया है, छोटे अनाजों (मिलेट्स की छोटी क़िस्मों) को संसाधित करना और भी कठिन होता है। डॉ किंग बताते हैं कि छोटे अनाजों- जिनके बीज पर कई परतें होती हैं- को पकाने योग्य बनाने के लिए डीहुलर जैसी विशिष्ट मशीनरी की आवश्यकता होती है। डीहुलर जैसी मशीनें बहुत महंगी होने के साथ ही आसानी से उपलब्ध नहीं होती हैं, इसलिए राज्य मुख्य रूप से आसानी से संसाधित होने वाले अनाजों पर ध्यान केंद्रित करता है।

हालांकि नीलगिरी में सुदूर इलाक़ों में, नारायणन ने देखा कि लोगों के आसपास साधारण मशीनें भी नहीं थीं और रागी को संसाधित करने के लिए उन्हें लंबी दूरी की यात्रा कर मैदानी इलाक़ों में जाना पड़ता है।

यह समझा जा सकता है कि इस यात्रा में होने वाले धन और समय के खर्च को देखते हुए लोग मोटे अनाजों ख़रीदने से बचते हैं। उनके लिए चावल एक आसान विकल्प है।

पीडीएस और उचित मूल्य की दुकानों के ज़रिए मिलेट्स की शुरूआत को निकटवर्ती मिलिंग प्रणालियों द्वारा समर्थित करने की आवश्यकता है।

चौधरी बताते हैं कि, ओडिशा में, मिलेट्स खाने से जुड़ी सामूहिक यादें अभी भी अपेक्षाकृत ताजा हैं। इसलिए, 2019 में, जब पीडीएस के जरिए रागी को लोगों तक पहुंचाया गया तब वे इसे अपने खानपान में शामिल करने की संभावना को लेकर ग्रहणशील थे। लेकिन, नई पीढ़ी के पास बाजरे के अनाज के उपयोग को लेकर जानकारी की कमी है।

पीडीएस और उचित मूल्य की दुकानों के जरिए मिलेट्स की शुरूआत को निकटवर्ती मिलिंग प्रणालियों द्वारा समर्थित करने की आवश्यकता है – स्थानीय चावल मिलों और आटा चक्कियों के समान – जहां मिलेट्स आसानी से, कम लागत पर और घर के नजदीक संसाधित किया जा सकता है।

इसके अलावा, चावल और गेहूं के विपरीत प्रसंस्कृत मोटे अनाजों की शेल्फ लाइफ कम होती है और इसे केवल प्रसंस्करण और वितरण की एक कुशल स्थानीय प्रणाली से ही संभव बनाए रखा जा सकता है। इस संबंध में, ओडिशा सरकार ने ओडिशा मिलेट मिशन के माध्यम से स्थानीय उत्पादन, प्रसंस्करण और वितरण को सफलतापूर्वक बढ़ावा दिया है, जिससे इस कीमती अनाज का केवल थोड़ा सा हिस्सा ही खराब होता है।

मोटे अनाज की मांग की पुनर्कल्पना

ओडिशा में, वाससन ने देखा है कि लोग अनाज ग्रेड के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों की समृद्धि के मामले में उच्च गुणवत्ता वाले अनाज का उपभोग करना चाहते हैं, और अपने आहार में विविधता की इच्छा भी रखते हैं। यह पुरानी पीढ़ियों के लिए विशेष रूप से सच है, जिन्हें मोटे अनाज की विभिन्न क़िस्मों का स्वाद स्पष्ट रूप से याद है।

हालांकि, जैसे-जैसे स्वाद बदलता है, इन अनाजों का प्रचार भी बदलना होगा। चौधरी को लगता है कि युवा पीढ़ी को जौर -चावल और रागी के आटे से बना किण्वित दलिया- जैसे पारंपरिक व्यंजनों में कोई दिलचस्पी नहीं है। स्कूलों और आंगनबाड़ियों में अभियानों के माध्यम से शीघ्र जागरूकता पैदा करने से बाजरा को एक पसंदीदा और स्वादिष्ट अनाज के रूप में चित्रित करने में मदद मिल सकती है।

ओडिशा मिलेट मिशन के सहारे, राज्य बच्चों को बाज़ार उपलब्ध करवाने और उनके बीच इसे प्रोत्साहित करने की दिशा में काम कर रहा है। इसमें एकीकृत बाल विकास सेवाओं के तहत आंगनबाड़ियों में बच्चों के लिए सुबह के नाश्ते के रूप में रागी के लड्डू और बच्चों के स्वाद के लिए बाजरे के व्यंजनों के प्रचार कार्यक्रम शामिल हैं।

लेकिन रोवन विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के सहायक प्रोफेसर लक्ष्मण कलासापुडी को लगता है कि स्वाद एक पेचीदा विषय हो सकता है। 2010 में दक्षिण एशिया में छोटे अनाजों को पुनर्जीवित करने की परियोजना के तहत उत्तरी आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में अपने शोध में, कलापसुदी ने देखा कि कई लोग मोटे अनाजों को सकारात्मक रूप से देखते हैं।

गांव के निवासियों का मानना ​​था कि मोटे अनाज -मुख्य रूप से रागी- स्वस्थ, मजबूत, उगाने में आसान और ‘कोटा चावल’ या पीडीएस के माध्यम से उपलब्ध कराए जाने वाले चावल की तुलना में अधिक स्वादिष्ट है। कलापसुदी की परिकल्पना है कि बाजरा के लिए स्थानीय सरकार के दबाव, जिसे वाससन जैसे समाजसेवी समूहों ने समर्थन दिया, ने बाजरा को लोगों के आहार में शामिल करने के लिए एक योग्य अन्न के रूप में बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

साथ ही, बाजरा भी गरीबों द्वारा खाए जाने वाले भोजन के रूप में कमी, अकाल और भुखमरी के क्षणों से जुड़ा था। कलापसुदी कहते हैं, “[उत्तरदाताओं] ने बाजरा को खाने की इच्छा के बजाय विकल्प की कमी के कारण खाए जाने वाले भोजन के रूप में बताया। मोटे अनाजों को स्वादिष्ट और पोषक तत्वों का एक स्रोत होने के साथ ही मजबूरी के भोजन के रूप देखे जाने के कारण कई विरोधी विचार भी जुड़ जाते हैं – वहीं मोटे अनाज को ग़रीबों के अनाज के रूप में देखे जाने की धारणा का पता 1980 के दशक में चावल को इच्छित अनाज के रूप लागू किए जाने की प्रक्रिया से लगाया जा सकता है। बाजरे की पुनर्कल्पना एक इच्छित अनाज के रूप में करना 2010 के दशक की एक हालिया घटना है। 

अपने फील्डवर्क के बारे में सोचते हुए, कलापसुदी ने बताया कि गांव के लोग मोटे अनाजों को एक गीत की लय की तरह याद करते थे। ‘फिंगर बाजरा, फॉक्सटेल, बार्नयार्ड, मोती बाजरा, ज्वार, और छोटे बाजरा के बारे में एक ही सांस में एक साथ बताते थे।’ हालांकि, वर्तमान में, श्रीकाकुलम जिले में अधिकांश मोटे अनाज की किस्मों को शायद ही कभी खाया जाता है, लेकिन रागी का अभी भी रागी अम्बाली – छाछ के साथ रागी माल्ट के रूप में बड़े पैमाने पर सेवन किया जाता है।

पीडीएस में बाजरा लाने में अग्रणी कर्नाटक भी इस जटिलता को दर्शाता है। डॉ किंग बताते हैं, ‘परंपरागत रूप से एक बाजरा खाने वाला राज्य, जहां उत्तरी जिले को ज्वार बेल्ट और दक्षिणी जिले को रागी बेल्ट के रूप में जाना जाता है, पीडीएस के माध्यम से आने वाली बाजरा की व्यापकता आश्चर्यजनक रूप से कम थी।’ इस पर किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि कम स्वीकार्यता को कुछ हद तक लोगों के खेतों और थालियों में बाजरा की मौजूदा प्रचुरता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

वे आगे कहते हैं, ‘चूंकि राज्य के किसान पहले से ही बाजरे की खेती कर रहे हैं, उनके पास अपने खाने और बेचने के लिए पर्याप्त मात्रा उपलब्ध है।’ पीडीएस में बाजरा की स्वीकार्यता को समझने की कोशिश करते समय, ये जटिलताएं और विरोधाभासी धारणाएं ही हैं जो सबसे अधिक, इकलौती, स्पष्ट रही हैं। चूंकि मोटे अनाज मुख्यधारा में है, इसलिए इस बात को नजरअंदाज करना मुश्किल है कि मोटे अनाज के साथ मौजूदा रिश्ते कितने कमजोर हैं। या, अतीत में इसका क्या मतलब था। हमारे खान-पान और खरीददारी के व्यवहार को देख कर लगता है कि यह यात्रा उथल-पुथल से भरी रही है, जिसमें अनाज को चावल से कमतर मानने की सांस्कृतिक कल्पना और सुपर-अनाज के रूप में उनके हालिया पुनरुत्थान के बीच गहरी असंगति है।

क्या पीडीएस में बाजरा को शामिल करना सफल रहा है? ऐसी व्यवस्था, जिसमें ऐतिहासिक रूप से दरकिनार किए गए अनाज को चावल और गेहूं के मुकाबले खड़ा किया जाता है, हम ऐसा सवाल पूछने के लिए भी तैयार नहीं हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

यह लेख मूल रूप से रेनमैटर फाउंडेशन के साथ साझेदारी में दलोकावोर वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया था।

लेखक के बारे में
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अनन्या व्हावले

अनन्या व्हावले बेंगलुरु स्थित एक विकास पेशेवर हैं। वे स्थायी खाद्य प्रणालियों और शहरी जलवायु लचीलेपन को लेकर चिंतित रहती हैं।

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ओइशिका रॉय

ओइशिका रॉय द लोकावोर में सहायक संपादक हैं।

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