September 6, 2023

एफआरए के तहत सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा कैसे कर सकते हैं?

विभिन्न राज्यों में एफआरए पर काम कर रहे दो जानकारों से जानिए कि आदिवासी समुदायों तक उनके वन अधिकार पहुंचाने की प्रक्रिया और चुनौतियां क्या हैं।
7 मिनट लंबा लेख

वन अधिकार अधिनियम, 2006 (फ़ॉरेस्ट राइट एक्ट – एफआरए) के तहत आदिवासी और अन्य परंपरागत वन-निवासी समुदाय, वनों पर व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और अन्य वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। गांव की परंपरागत सीमा के भीतर आनेवाले आरक्षित वन, संरक्षित वन भूमि, अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यानों तथा सरकारी रेकॉर्ड में दर्ज हर किसान की वनभूमि पर एफआरए लागू होता है। एफआरए, इन क्षेत्र में आने वाले वन संसाधनों पर ग्रामसभा और गांव में रहनेवाले समुदायों का अधिकार होने की बात कहता है। इन्हें सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (कम्यूनिटी फ़ॉरेस्ट रिसोर्स राइट्स – सीएफआरआर) कहा जाता है।

एफआरए के तहत वन अधिकार हासिल करने के लिए आवेदक का 13 दिसंबर, 2005 या उससे पहले से इस वन भूमि पर काबिज होना एक मात्र शर्त है। इसके साथ ही, वन पर निर्भर अन्य परंपरागत निवासियों का वहां कम से कम तीन पीढ़ियों से रहना जरूरी है। वन अधिकार के दावों की जांच पहले ग्रामसभा, फिर उप-खंडा स्तर (सब-डिवीडनल लेवल) और जिला स्तर पर की जाती है। दावे के निरस्त होने की स्थिति में इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को इसके बारे में सूचित किया जाता है ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें। कुल मिलाकर, कई पीढ़ियों से वन भूमि पर रह रहे, खेती कर रहे और वनोपज का लाभ ले रहे लोग जो अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर है, एफआरए के तहत वन अधिकारों की मांग कर सकते हैं।

एफआरए को लेकर अभी क्या स्थिति है?

फाउंडेशन फ़ॉर इकॉलॉजिकल सेक्योरिटी (एफईएस) एक ऐसी संस्था है जो देश में जल, जंगल और चारागाह के संरक्षण से जुड़े काम करती है। इसमें आदिवासी समुदायों को उनके वन अधिकार दिलाना भी प्रमुख रूप से शामिल है। छत्तीसगढ़ में एफईएस द्वारा ग्राम सभाओं की जागरूकता के लिए चलाए गए, ‘सामुदायिक वन संसाधन अधिकार अभियान’ के दौरान देखा गया कि एफआरए आने के कई सालों बाद भी, केवल शासकीय तंत्र के लिए ग्राम सभाओं तक इसकी जानकारी पहुँचाना और उन्हें समझाना चुनौती पूर्ण रहा है। एफआरए के सही पालन के लिए तीन महत्वपूर्ण विभाग जैसे राजस्व, वन और आदिम जाति विभाग में बेहतर समन्वय और आपसी संवाद की आवश्यकता है। जमीनी स्तर पर काम करने वाली स्थानीय संस्थाएं ऐसा काम नहीं कर पा रही थीं जिससे कि बहुत अधिक फर्क लाया जा सके।

जमीनी स्तर पर काम करने वाली स्थानीय संस्थाएं ऐसा काम नहीं कर पा रही थीं जिससे फर्क लाया जा सके।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

ऐसे में दो विकल्प सामने आते हैं, लोग (या समुदाय) स्वयं सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा करें या समाजसेवी संस्था इस तरह के प्रयासों में सहयोग करें। लेकिन ऐसा करते हुए पहली बाधा होती है, कठिन क़ानूनी भाषा। किसी भी क़ानून को लागू करने की बात तो तब आएगी जब लोगों इसकी जानकारी और समझ होगी। यहां पर एफईएस जैसी समाजसेवी संस्थाएं कारगर साबित होती हैं। एफईएस ने सबसे पहले क़ानून की भाषा को सरल करने और उसे आम लोगों तक पहुंचाने पर काम किया है। यह आठ चरणों में बताता है कि जन समुदाय अपने वन अधिकारों को हासिल करने के लिए क्या कर सकता है।

वन अधिकार हासिल करने की प्रक्रिया क्या है

1. दावों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए ग्राम सभा की बैठक का आयोजन करना

वन अधिकार हासिल करने के लिए ऊपर बताई गई शर्तें पूरी करने वाले लोग साथ आकर सामुदायिक वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले आपको ग्रामसभा बुलानी होगी। ग्रामसभा की इस बैठक में सामुदायिक वन संसाधन अधिकार दावे के लिए आवेदन करने और उसे स्वीकार करने से जुड़े फैसले किए जाते हैं। यानी, यह कि कौन कौनसा क्षेत्र इस दावे में आएगा और इनमे से कितना क्षेत्र व्यक्तिगत अधिकार के क्षेत्र में आते हैं जिन्हें अलग करना है। इस बैठक और उसमें शामिल विषयों की सूचना उप-खंड स्तरीय समिति (सब डिवीजनल लेवल कमेटी – एसडीएलसी) को दी जाती है। इस बैठक में वन अधिकार समिति (फ़ॉरेस्ट राइट्स कमेटी – एफआरसी) का गठन भी किया जाता है जो आवेदन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है और उसकी निगरानी करती है। इसमें ग्राम पंचायत, खास कर पंचायत सचिव समुदायों की मदद करते हैं। इसके बाद, परंपरागत सीमा के पहचान के लिए कोर समूह का गठन किया जाता है। इसके लिए, एफआरसी के अध्यक्ष और सचिव एक सूचना तैयार करते हैं जिसमें कोर समूह के सदस्यों के नाम, अगली बैठक की तारीख़, जगह और समय की जानकारी दी जाती है।

इस चरण में आनेवाली चुनौतियों की बात करें तो कई बार ऐसा होता है कि ग्रामसभा एफआरए का प्रस्ताव करने की बैठक करने जा रही होती है लेकिन पंचायत सचिव को इसकी जानकारी नहीं होती है और वो सहयोग नहीं कर पाते हैं। पंचायत सचिव उपस्थित हो भी तो जरूरी नहीं है कि उसे एफआरए या सीएफआरआर की जानकारी होगी ही। पटवारी और वन रक्षक जैसे सरकारी प्रतिनिधियों का होना भी जरूरी होता है जो कई बार कठिन क़वायद बन जाता है। चूँकि ब्लाक स्तर पर आवेदन को जमा करने की कोई एकल खिड़की का प्रावधान स्पष्ट नहीं है इसलिए अलग अलग राज्यों या जिलों ने अपने स्तर पर अलग अलग व्यवस्था बनायीं है। यह सब ग्राम सभा के लिए एक चुनौती हो जाती है। एफआरए की मांग करने वाले लोगों, समुदायों या समाजसेवी संस्थाओं को सबसे पहले इस बात की तैयारी रखनी चाहिए कि इस पूरी प्रक्रिया में आपको कई बार एक से दूसरे ब्लॉक स्तर के सरकारी दफ्तरों में जाना पड़ सकता है। इसका कारण यह है कि ज्यादातर राज्यों में इसे लेकर अभी तक कोई व्यवस्था या क्रम नहीं तय हो पाया है।

जंगल में औरतें काम करती हुई_सामुदायिक वन अधिकार
एफआरसी, कोर समूह और अपने गांव की सीमा से लगे सभी गांवों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर गांव की परंपरागत सीमाओं का निर्धारण करती है। | चित्र साभार: एफईएस

2. एफआरसी की बैठक

दूसरा चरण वन अधिकार समिति की बैठक है जिसका आयोजन दावा प्रक्रिया शुरू करने के लिए होता है। इसमें दावों की तैयारी के चरण और तरीक़ों पर बात की जाती हैं और लोगों को अलग-अलग कामों की जिम्मेदारियां बांटी जाती हैं। ये लोग एफआरसी और कोर समूह के प्रति जवाबदेह होते हैं।

अगर आप एक समाजसेवी संस्था के तौर पर एफआरए के लिए काम कर रहे हैं तो आपको ध्यान रखना होगा कि इन प्रयासों पर काम करने वाले वॉलंटीयर उसी समुदाय के हों जिनके साथ काम किया जा रहा है। जमीन पर काम करने वाले जानकार अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि अब तक पेशेवर लोग इसमें सफल नहीं हो सके हैं। सिर्फ भाषा का ही उदाहरण लें तो बहुत सारे शब्द (टर्म) अलग-अलग इलाक़ों में बदल जाते हैं। ऐसे में क्षेत्रीय भाषा, प्रतीक और परंपरा को ध्यान में रखते हुए प्रक्रिया को अपनाना और लोगों को जिम्मेदारियां देना, बेहतर नतीजे देने वाला साबित हो सकता है।

3. गांव की सीमाओं का नजरी नक्शा

आम तौर पर गांव में रहने वाले लोग यह जानते हैं कि उनके गांव की सीमा कहां तक जाती है या इसके लिए उनके अपने चिन्ह होते हैं जिन्हें देखकर गांव की सीमा का अंदाज़ा लगाया जाता है। इसलिए इसे नजरी नक्शा कहा जाता है।

अगले चरण में एफआरसी, कोर समूह और अपने गांव की सीमा से लगे सभी गांवों के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर गांव की परंपरागत सीमाओं का निर्धारण करती है। ऐसा करने वालों में गांव के बुजुर्ग, महिलाएं और परंपरागत ज्ञान रखने वाले लोग होते हैं। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में बात करें तो इसमें वैद्य, सिरहा, चरवाहे वगैरह को शामिल किया जाता है। इसके लिए एफआरसी, जंगल विभाग के बीटगार्ड, पटवारी और पंचायत सचिव को भी बुलाती है। इसके लिए उन्हें सूचना (सरकार द्वारा तय प्रारूप 5 सी में) दी जाती है। इन सबकी मौजूदगी में पारंपरिक सीमाओं का नजरी नक्शा तैयार किया जाता है। इस के साथ ही, वन संसाधनों की सूची और दावा पत्र तैयार किया जाता है। इन दावों की जानकारी रखने के लिए एक रजिस्टर, जिसे दावा पंजी कहा जाता है, में इनका विवरण लिखा जाता है।

सुदूर जंगली इलाक़ों में स्मार्टफ़ोन की उपलब्धता भी सहज नहीं है।

इस चरण में आनेवाली चुनौतियों की बात करें तो जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि एफआरए पर काम करते हुए उस इलाक़े, वहां रहने वाले लोगों और उनकी परंपराओं की समझ होना जरूरी है। अगर नजरी नक्शा बनवाने के उदाहरण को लें तो बस्तर में अगर इसे किसी मंदिर को परंपरागत सीमा माना जाएगा तो हो सकता है जसपुर में यह कुछ और हो। हर गांव की परंपरा या मान्यता, अगले गांव से अलग हो सकती है जिसका ध्यान समुदायों और समाज सेवी संस्थाओं दोनों को ही रखना चाहिए। ऐसा न किए जाने पर कई बार सीमा विवाद खड़े हो जाते हैं। यहां पर आपके लिए यह जानना जरूरी है कि इस तरह के विवाद होने पर उन्हें उपविभाग स्तरीय समिति (एसडीएलसी) सुलझाती है।

4. अनापत्ति प्रमाण पत्र

उपविभाग स्तर की समिति को भेजे जाने वाले दावों का सत्यापन करने से पहले पारंपरिक सीमा के मुताबिक मानचित्र तैयार किए जाते हैं। इसके लिए जीपीएस मशीन की मदद ली जाती है जो जंगल विभाग के पास होती है। इस चरण में कई बार यह समस्या आती है कि जीपीएस मशीन उपलब्ध नहीं हो पाती है। ऐसी परिस्थितियों में मोबाइल फ़ोन एक विकल्प हो सकता है लेकिन इसका इस्तेमाल करने की सलाह नहीं दी जाती है क्यों कि सरकारी विभाग इससे मिली जानकारी को मान्यता नहीं देते हैं। इसकी दूसरी वजह यह भी है कि सुदूर जंगली इलाक़ों में स्मार्टफ़ोन की उपलब्धता भी सहज नहीं है।

इस चरण में मानचित्र के साथ, अन्य प्रमाण जैसे पड़ोसी गांवों के बुजुर्गों के कथन और उन गांवों की वन अधिकार समितियों से अनापत्ति प्रमाण पत्र भी हासिल किए जाते हैं कि सीमा का निर्धारण सही किया गया है और उन्हें इसपर आपत्ति नहीं है। सीमा का निर्धारण होने के बाद वन अधिकार समिति के द्वारा उप- खंड स्तरीय समिति को सूचना भेजी जाती है कि वो सत्यापन के लिए प्रतिनिधि भेजें। इसके अलावा, निस्तार पत्रक यानी समुदाय द्वारा वन भूमि का इस्तेमाल करने की पुष्टि करने वाले दस्तावेज भी इकट्ठा किए जाते हैं।

5. सत्यापन समूह

अगले चरण में उपविभाग स्तर की समिति, दावों और दस्तावेज़ों के सत्यापन के लिए एक समूह को भेजती है। समूह के सदस्य, सामुदायिक वन अधिकार से जुड़े सभी प्रमाणों की जांच करते हैं और सत्यापन प्रतिवेदन को समिति के सामने रखते हैं। इन्हें ग्राम पंचायत के सामने रखने का ज़िम्मा एफआरसी का होता है।

6. ग्राम सभा में तैयार दावों की प्रस्तुति 

अगला चरण ग्रामसभा में दावे प्रस्तुत किए जाने का है। इस दौरान ग्राम सभा के सभी फ़ैसलों और सहमति का ब्यौरा एक प्रस्ताव रजिस्टर बनाकर उसमें दर्ज किया जाता है। इस पर सभी के हस्ताक्षर लेकर इसकी एक कॉपी, वन अधिकार दावा पंजी में रखी जाती है। इसे उपविभाग स्तर की समिति को सरकार द्वारा निर्धारित फ़ॉर्मेट में, सभी ज़रूरी दस्तावेज़ों के साथ भेजा जाता है।

7. उप-खंड स्तरीय समिति

उप-खंड स्तर की समिति, दावों की प्राप्ति के बाद संबंधित ग्रामसभा को तारीख़ समेत पावती देती है। इसके बाद यह अपने स्तर पर दावों की जांच करती हैं और सही पाए जाने पर इन्हें जिला स्तरीय समिति को भेज देती है।

8. जिला स्तरीय समिति

आख़िरी चरण में, जिला स्तरीय समिति, वन अधिकारों के दावे सही पाए जाने पर उन्हें मान्यता देने के लिए अधिकार पत्र देती है और अंतिम रूप देने के बाद उन्हें प्रकाशित करती है।

अगर आप एक समाज सेवी संस्था हैं तो आपको क्या ध्यान रखना है?

ओडिशा, झारखंड और तेलंगाना में सीएफआरआर अभियानों का नेतृत्व करने वालों का अनुभव रहा है कि वन अधिकार हासिल करने में, बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि किसी राज्य की सरकारी मशीनरी किस तरह से काम करती है। अपनी कोशिशों के दौरान संस्थाओं को सबसे पहले यह ध्यान रखना होता है कि यह एक केंद्रीय क़ानून है यानी देशभर में यह एक समान है। इसका मतलब है कि कोई भी राज्य इसके प्रावधानों में या इसे लागू करने के तरीके में अपने हिसाब से बदलाव नहीं कर सकता है। अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि पंचायत, सचिव वगैरह जैसे स्टेक होल्डर यह नहीं जानते थे कि इस क़ानून को कैसे लागू करना है। आप जिस किसी भी इलाक़े में काम कर रहे हों वहां आपको सरकारी विभागों के साथ किसी न किसी तरह का सहयोग कर के काम करना होता है। और, यह ध्यान में रखते हुए करना होता है कि सरकार के पास मैदानी अमले कम है। हमारा प्रयास यह होना चाहिए की ट्राइबल, फ़ॉरेस्ट और रेवन्यू डिपार्टमेंट जैसे तमाम विभागों का आपस में संवाद और तालमेल बढ़े और पालन को बल मिले।

प्रयासों की शुरूआत ज़िला स्तर पर रिसोर्स पर्सन बनाने, उन्हें प्रशिक्षण देने और फिर समुदायों के साथ उन्हें जोड़ने का काम किया जा सकता है। समाजसेवी संस्थाओं और रिसोर्स पर्सन को सरकारी विभागों के साथ साझेदारी बनाने और क़ानून को लागू करने के लिए उनके साथ मिलकर एक व्यवस्था बनाने की तैयारी रखनी चाहिए। इसके बाद वे उस चरण में पहुंच सकते हैं जहां लोगों को बता पाएं कि वे किस प्रक्रिया का पालन कर अपने वन अधिकार हासिल कर सकते हैं।

प्रक्रिया के चरण यहां से लिए गए हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़े

अधिक जानें

  • जानें कि मध्य प्रदेश में आदिवासियों को उनके वन अधिकार क्यों नहीं मिल पा रहे हैं। 
  • जानें कि वनाधिकार अधिनियम, वनवासियों के कितने काम आ रहा है। 

लेखक के बारे में
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मंजीत बाल

मंजीत बाल डेवलपमेंट सेक्टर में 20 से अधिक वर्षों का अनुभव रखती हैं। वे ग्रामीण विकास, पर्यारण संरक्षण, प्रशिक्षण और आजीविका कार्यक्रम से संबंधित काम करती रही हैं। वर्तमान में वे फॉउंडेशन फॉर इकॉलॉजिकल सेक्योरिटी के साथ छत्तीसगढ़ में प्रॉमिस ऑफ कॉमन्स पहल पर काम कर रही हैं।

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बर्ण बैभब पंडा

बर्ण बैभब पंडा, 27 वर्षों से अधिक का अनुभव रखने वाले डेवलपमेंट प्रोफेशनल हैं। उन्होंने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, ग्रामीण स्थानीय स्वशासन और ग्रामीण आजीविका के क्षेत्र में विस्तृत काम किया है। पांडा, पूर्व और मध्य भारत के राज्यों में अनगिनत कार्यान्वयन और शोध कार्यक्रमों का प्रबंधन करते रहे हैं। बीते दस सालों से वे नीति निर्माण से जुड़े काम भी कर रहे हैं। पांडा का काम कई जगहों पर प्रकाशित हो चुका है। इसमें उत्तर-पूर्व के वन निवासियों की आजीविका के अवसरों की पहचान पर सेंटर ऑफ इकनॉमिक एंड सोशल स्टडीज़, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित मोनोग्राफ भी शामिल है।

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