गया की महिला किसान जैविक खेती को क्यों चुन रही हैं?

Location Iconगया जिला, बिहार
चावल के खेत में गुलाबी साड़ी में एक महिला किसान-महिला किसान
गांवों में महिलाएं जब पैसे कमाने लगती हैं तो उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर होने लगती है। उनके अपने परिवार और गांव में उनकी राय का महत्व बढ़ जाता है। | चित्र साभार: प्राण

8 जून, 2007 को अनिल वर्मा जो कि उस समय आजीविका हासिल करने में सहयोग करने वाली ग़ैर-लाभकारी संस्था ‘प्रदान’ के सदस्य थे, बिहार के गया जिले में पड़ने वाले शेखवारा गांव में जैविक खेती पर बातचीत करने के लिए पहुंचे। वहां उन्होंने चावल, गेहूं, सरसों और मक्का वगैरह उगाने के लिए रूट इंटेन्सिफिकेशन प्रणाली (एसआरआई) और उसके फायदों पर विस्तार से बात की। बिना किसी कैमिकल के, कम पानी और थोड़ी मेहनत वाले इस तरीके को खाने की कमी से जूझ रहे और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े इस इलाक़े के लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समुदाय का एक भी सदस्य इस प्रयोग में शामिल नहीं होना चाहता था। उन्हें इस बात का डर था कि यह किसी तरह का घोटाला है। अनिल वहां से निकलने ही वाले थे कि कुंती देवी नाम की एक दलित महिला ने उन्हें रोक लिया।

कुंती ने कहा, “मैं खेती की आपकी इस तकनीक का इस्तेमाल अपने खेत में करुंगी।” कुंती देवी का फ़ैसला सुनकर गांव के लोग बहुत निराश हुए। इनमें से कई लोगों का मानना था कि कुंती देवी की असफल होना तय है। उन्होंने कहा, “अगर तुम्हारे खेत में धान नहीं उगा तो तुम अपने बच्चों को खिलाओगी क्या?” यहां तक कि कुंती के पति भी उनके इस फ़ैसले से सहमत नहीं थे।

बाद में, जुताई के कुछ ही दिनों के बाद जब धान के नन्हे-नन्हे पौधे दिखने लगे तो उसने जाकर गांव में सबको अपनी सफलता की कहानी सुनाई। कुंती देवी का फ़ैसला सही साबित हुआ था। नतीजतन, उस गांव और आसपास के कई गांवों की ढ़ेर सारी महिलाओं ने जैविक खेती करनी शुरू कर दी। अनिल ने आगे चलकर गया में ही एसआरआई तकनीक के माध्यम से जैविक खेती करने वाली महिलाओं के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्था प्राण (पीआरएएन) की स्थापना की। अनिल का कहना है कि “अपने अनुभव में मैंने महिला किसानों को अपनी सोच में अधिक समावेशी पाया है।” उन्हें अपनी आय के अलावा अपने परिवार के स्वास्थ्य और उनके पोषण की भी उतनी ही चिंता रहती है।

इसके और भी फ़ायदे हैं। जब ग्रामीण भारत की महिलाएं पैसे कमाना शुरू कर देती हैं तो उनकी सामाजिक स्थिति भी बेहतर हो जाती है। परिवार और गांव के मामलों में उनकी राय का भी महत्व बढ़ जाता है। अनिल का कहना है कि उन्होंने महिला किसानों को पंचायत स्तर के नेतृत्व तक पहुंचते भी देखा है। इसके अलावा, उन्होंने मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में प्रवेश न करने जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने में भी अपना योगदान दिया है।

गया के बरसोना गांव की महिला किसान रीना देवी का कहना है कि “मुझे लोगों के बीच बोलने में पहले डर लगता था लेकिन अब मैं किसी भी सभा में जाकर लोगों के सामने अपने मन की बात रख सकती हूं। महिला सभाओं की बैठकों में अब मैं खुल कर अपनी बात कहती हूं।”

रीना ने अन्य महिला किसानों को जैविक खेती के तरीके सिखाने के लिए उत्तर प्रदेश में प्रयागराज से बाराबंकी तक की यात्रा की है। वे कहती हैं, “मुझे वहां 20-25 दिनों के काम के लिए 42,500 रुपये मिले। उन पैसों से मैं अपने परिवार के सदस्यों को इलाज के लिए पटना ले गई। मुझे खुशी है कि इसके लिए मुझे अपनी जमीन नहीं बेचनी पड़ी।”

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

रीना देवी एक किसान होने के साथसाथ गया, बिहार के श्री विधि महिला समूह की सदस्य भी हैं। अनिल वर्मा, प्राण (पीआरएएन) के इग्ज़ेक्युटिव निदेशक हैं।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे कुछ शक्तिशाली समुदाय के सदस्य छत्तीसगढ़ में महिलाओं के भूमि स्वामित्व में बाधा बन रहे हैं।

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