May 12, 2025

विकलांगता पर संवेदनशील पत्रकारिता: एक मार्गदर्शिका

विकलांगता के विषय पर होने वाली रिपोर्टिंग की भाषा में संवेदनशीलता की जरूरत है।
7 मिनट लंबा लेख

भारत में विकलांगता से जुड़े मुद्दों को मीडिया में अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। सीमित संसाधन, समाचार संस्थाओं की कमी और पर्याप्त संपादकीय सलाह की कमी के चलते यह विषय मुख्यधारा की खबरों में शायद ही कभी जगह बना पाता है। लेकिन भारत में करोड़ों विकलांग व्यक्तियों के लिए निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग, सामाजिक बहिष्कार और समावेशन के बीच का फर्क तय कर सकती है।

विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीआरपीडी) का अनुच्छेद 8 मीडिया की सभी इकाइयों से अपेक्षा करता है कि वे विकलांग व्यक्तियों को इस तरह प्रस्तुत करें, जिससे उनके मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं के संरक्षण, प्रोत्साहन और उन्हें सुनिश्चित करने का उद्देश्य पूरा हो। इसी तरह, भारत के दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 (आरपीडब्ल्यूडी) की धारा 25 (एच) के तहत सरकार को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह टेलीविजन, रेडियो और अन्य जनसंचार माध्यमों के जरिए समाज में विकलांगता के कारणों और रोकथाम के उपायों के विषय में जागरूकता का प्रसार करे।

फिर भी, अधिकतर समाचार संस्थानों में विकलांगता पर रिपोर्टिंग के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश मौजूद नहीं हैं। नतीजतन, आमतौर पर विकलांग व्यक्तियों से जुड़ी खबरों में अनियमित या असंवेदनशील भाषा और प्रस्तुतिकरण की समस्या साफ झलकती है। डिसएबिलिटी एडवोकेसी रिसोर्स यूनिट के अनुसार, विकलांगता को अब भी अक्सर ‘चैरिटी मॉडल’ की नजर से देखा जाता है। यानी एक ऐसी धारणा, जो विकलांग व्यक्तियों को मदद का मोहताज और अन्य लोगों पर निर्भर मानती है। भले ही यह सोच सहानुभूति पर आधारित हो, लेकिन इससे विकलांग व्यक्तियों की गरिमा, अधिकारों और स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

हमें इस चैरिटी मॉडल से आगे बढ़ते हुए सामाजिक मॉडल अपनाने की जरूरत है। इसमें उन बाधाओं को दूर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जो विकलांग व्यक्तियों के रोजमर्रा के जीवन में रुकावट पैदा करती हैं। यह दृष्टिकोण विकलांगता को देखने और रिपोर्ट करने के तरीके में बदलाव लाकर उन्हें सशक्त बनाता है।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

इसी जरूरत को पूरा करने के लिए, नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट फॉर डिसएबल्ड पीपल (एनसीपीईडीपी) ने जिंदल स्कूल ऑफ जर्नलिज्म एंड कम्युनिकेशन (जेएसजेसी), ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर और ईएक्सएल के सहयोग से भारतीय मीडिया के लिए एक समग्र ‘डिसएबिलिटी रिपोर्टिंग टूलकिट’ तैयार की है। यह टूलकिट पत्रकारों को विकलांगता से जुड़े मुद्दों को कवर करने के दिशा-निर्देश प्रदान करती है, जिससे वे अपने काम में सम्मानजनक भाषा, नैतिकता और रणनीतियां अपना सकें। इसका उद्देश्य है कि मीडिया में अधिकांश रूप से उपेक्षित इस विषय को सटीक और संवेदनशील रूप से प्रस्तुत किया जा सके।

भाषा से क्या फर्क पड़ता है? 

विकलांग व्यक्तियों से बात करते समय या उनके बारे में चर्चा करते हुए उपयुक्त भाषा का प्रयोग करना बेहद जरूरी है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हमारी बातें या शब्दावली एबलिज्म पर आधारित न हों। अंग्रेजी में विकलांगता से जुड़े विमर्श में एबलिज्म एक अहम शब्द है। एब्लिज़्म वह सोच या धारणा है, जिसमें विकलांग व्यक्तियों को कमतर समझते हुए उनके साथ नीतियों, नियमों और व्यवहार के स्तर पर भेदभाव किया जाता है। चूंकि भाषा समाज का नजरिया गढ़ती है, इसलिए यह जरूरी है कि हम ऐसी भाषा का प्रयोग न करें जो शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों को कमतर या भेदभावपूर्ण रूप में प्रस्तुत करे, या उन्हें ‘ठीक’ किए जाने पर जोर दे।

टेबल पर अखबार का एक ढेर रखा है_संवेदनशील पत्रकारिता
भारतीय मीडिया में विकलांगता की कवरेज अब भी पुराने और एबलिस्ट दृष्टिकोण से प्रभावित है। ऐसे में यह टूलकिट एक नया रास्ता दिखाती है। | चित्र साभार: पिक्सेल्स

अध्ययन दर्शाते हैं कि एबलिस्ट भाषा (एबलिज्म से प्रेरित) से समाज में विकलांग व्यक्तियों के प्रति नकारात्मक धारणा बढ़ती है और उनके प्रति सहनशीलता कम होती है। इससे सीधे तौर पर बहिष्कार और शर्म की भावना को बढ़ावा मिलता है। इसलिए भाषा के साथ समय के अनुरूप बदलना आवश्यक है। कई ऐसे शब्द जो कभी सामान्य माने जाते थे, अब अस्वीकार्य हो चुके हैं।

विकलांगता पर रिपोर्टिंग करते समय हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

1. पीपल-फर्स्ट, यानी व्यक्ति-संबोधन भाषा को अपनायें

‘विकलांगता’ महज एक सूचक शब्द है, न कि व्यक्तियों के एक समूह का पहचान चिन्ह। ‘पीपल-फर्स्ट’ भाषा शैली में व्यक्ति को उसकी विकलांगता से पहले संबोधित किया जाता है, जिससे ध्यान विकलांगता से हटकर व्यक्ति पर केंद्रित होता है। यह विकलांग व्यक्तियों का उल्लेख करने का सबसे व्यापक रूप से स्वीकार्य तरीका है और इसका उपयोग विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में भी किया गया है। उदाहरण के लिए, ‘बच्चे, जिन्हें अल्बिनिज़्म है’, ‘छात्र, जिन्हें डिस्लेक्सिया है’, ‘महिलायें, जिन्हें बौद्धिक विकलांगता है’ और ‘व्यक्ति, जिन्हें विकलांगता है’ आदि सभी उपयुक्त और सम्मानजनक शब्द हैं।

हालांकि, यह हमेशा बेहतर होता है कि किसी व्यक्ति या समुदाय से पूछा जाए कि वे स्वयं को किस प्रकार संबोधित किया जाना पसंद करते हैं। विकलांग कोई एकरूप समूह नहीं हैं। उनकी पहचान और अनुभव विविध हो सकते हैं। इन पहचानों का सम्मान करना और उन्हें मान्यता देना अत्यंत आवश्यक है।

2. लेबल चस्पा करने और और पूर्वाग्रह से बचें 

विकलांगता को सनसनीखेज या नाटकीय रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। विकलांग व्यक्तियों को ‘प्रेरणास्रोत’ कहना यह संकेत दे सकता है कि उनके लिए एक सफल और संतोषजनक जीवन जीना कोई असाधारण बात है। इसी तरह, उन्हें हमेशा ‘बहादुर’, ‘विकलांगता को हराने वाले’ या ‘सर्वाइवर’ बुलाना भी उन्हें दया के पात्र की तरह दर्शा सकता है, जो उचित नहीं है।

उद्देश्य यह होना चाहिए कि बिना दया भाव या अतिशयोक्ति के, समझ और प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जाए।

विकलांग व्यक्तियों को स्वाभाविक रूप से कमजोर मानना भी उचित नहीं है। किसी भी व्यक्ति की संवेदनशीलता उस स्थिति से पैदा होती है, जब वह कई प्रकार के सामाजिक भेदभाव का सामना एक साथ करते हैं। उदाहरण के लिए, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में विकलांग महिलाओं के लिए लैंगिक हिंसा का खतरा कहीं अधिक होता है।

विकलांग व्यक्तियों के योगदान को केवल उनकी विकलांगता तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। टोकनिज्म, यानी केवल प्रतीकात्मक रूप से काम करने से भी बचना जरूरी है। इसका मतलब है कि किसी कहानी में विकलांगता का उल्लेख तभी किया जाना चाहिए, जब वह उस संदर्भ में प्रासंगिक हो। अनावश्यक उल्लेख से पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों को बल मिल सकता है या मुख्य संदेश से ध्यान भटक सकता है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि विकलांगता से जुड़ी समस्याओं की अनदेखी की जाए। इसके विपरीत, इन मुद्दों को खुलकर, सटीक और सम्मानजनक ढंग से उठाना चाहिए, ताकि विकलांग व्यक्तियों के लिए समावेशन, पहुंच और समान अवसरों पर ध्यान दिया जा सके। हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि बिना दया भाव या अतिशयोक्ति के, समझ और प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जाए।

3. तिरस्कारपूर्ण उपाधियों का उपयोग न करें

‘विशेष जरूरतें’ या ‘विशेष सहायता’ जैसे शब्द अक्सर अपमानजनक और तिरस्कारपूर्ण माने जाते हैं, क्योंकि ये लोगों की भिन्नताओं को नकारात्मक तरीके से दर्शाते हैं। इसके बजाय, ‘अनुकूलित सहायता’ जैसे सपाट या सकारात्मक शब्दों का उपयोग अधिक उपयुक्त है। यहां तक कि ‘स्पेशल एजुकेशन’ यानी ‘विशेष शिक्षा’ जैसे शब्द भी कई बार नकारात्मक धारणा को बढ़ावा दे सकते हैं, क्योंकि यह एक विशेष शिक्षा व्यवस्था का सूचक है। इसलिए जहां भी संभव हो, केवल समावेशी भाषा का ही प्रयोग करें।

4. विकलांगता को बीमारी की तरह न दर्शाएं

‘बीमारी’ या ‘विकलांगता का शिकार’ जैसे शब्द विकलांगता को एक ऐसी स्थिति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसे ‘ठीक’ किए जाने की आवश्यकता है। विकलांग व्यक्तियों को ‘रोगी’ (पेशेंट) कहना केवल तभी उपयुक्त है, जब उनका इलाज चल रहा हो। उनके बारे में बात करते समय ‘पीड़ित है’, ग्रस्त है’ या ‘प्रभावित है’ जैसे वाक्यांशों से बचना चाहिए, क्योंकि ये निरंतर पीड़ा या असहायता का आभास कराते हैं। इसके बजाय, कहें कि ‘किसी को विकलांगता है’ या वे ‘नेत्रहीन (ब्लाइंड)/ बधिर (डेफ)/ बधिर-नेत्रहीन (डेफब्लाइंड) हैं’।

इसी तरह, ‘पैरालाइज्ड शरीर में कैद व्यक्ति’ या ‘उसने अपनी विकलांगता को पीछे छोड़ दिया’ जैसे वाक्य भी एबलिस्ट माने जाते हैं, क्योंकि इनसे यह संदेश जाता है कि व्यक्ति का शरीर या मस्तिष्क उसकी पहचान से अलग है।

जब मीडिया के पास विकलांगता पर सटीक और सम्मानजनक रूप से रिपोर्टिंग करने के लिए आवश्यक संसाधन होते हैं, तो वह ऐसी भाषा को बढ़ावा देता है जो अधिकारों और क्षमताओं पर ध्यान देती है, न कि सिर्फ विकलांगता से जुड़ी व्यक्तिगत चुनौतियों पर। यह टूलकिट भारत में विकलांगता अधिकारों को नियंत्रित करने वाले सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी ढांचे, जैसे आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम और यूएनसीआरपीडी, को समझने के लिए भी एक संसाधन के रूप में काम करती है।

इन तौर-तरीकों को अपनाने से मीडिया में एक सकारात्मक बदलाव आएगा और विकलांग व्यक्तियों को पीड़ित या नायक के रूप में नहीं, बल्कि समान अधिकारों, आकांक्षाओं और योगदान देने वाले व्यक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। विकलांगता के विषय पर गरिमा के साथ रिपोर्टिंग करने से रूढ़ियां टूट सकती हैं, जिससे हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर पायेंगे जो विविधता का सम्मान करता है।

इस लेख में मोक्ष धंद, मुस्कान कौर, शेखा मरियम सैम, श्रेया सक्सेना और उद्दंतिका कश्या ने योगदान दिया है।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें

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लेखक के बारे में
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शिवानी जाधव

शिवानी जाधव, नेशनल सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट फॉर डिसएबल्ड पीपल (एनसीपीईडीपी) में असिस्टेंट प्रोग्राम मैनेजर और एडवोकेसी टीम की सह-प्रमुख हैं। वे गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की डॉक्टोरल स्कॉलर भी हैं। उन्होंने महिला एवं बाल अधिकारों के क्षेत्र में, भारत सरकार और राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा वित्तपोषित अनुसंधान परियोजनाओं पर कार्य किया है। शिवानी ने विकलांगता अध्ययन, क्वीयर अधिकार, नारीवादी विधिशास्त्र, श्रम कानून और पर्यावरण कानून जैसे विषयों पर काम किया है।

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