मेरा नाम छाया कुशवाहा है और मैं रायपुर, छत्तीसगढ़ में रहती हूं। मैं दूधाधारी बजरंग महिला महाविद्यालय में बीए फाइनल ईयर की छात्रा हूं। मैं नेत्रहीन हूं और पढ़ाई के लिए रायपुर की ‘नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड – प्रेरणा’ संस्था से जुड़ी हूं। यहां मेरे जैसी 124 और लड़कियां भी पढ़ाई करती हैं। वैसे तो इस संस्था से पढ़ने के बाद कई छात्राएं रेलवे, बैंकिंग, शिक्षा और संगीत के क्षेत्र में काम कर आत्मनिर्भर बन चुकी हैं लेकिन यह सफर हमारे लिए बहुत मुश्किल रहा है। जितनी नेत्रहीन लड़कियां अब आत्मनिर्भर हैं उससे कहीं ज्यादा हो सकती हैं लेकिन परीक्षा के दौरान अच्छा सहायक लेखक ना मिलना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है।
हम ब्लाइंड छात्राएं खुद से नहीं लिख सकतीं, इसलिए परीक्षा में एक सहायक लेखक होता है, जो हमारे बताए उत्तर लिखता है। लेकिन यह उतना आसान नहीं, जितना सुनने में लगता है। सहायक लेखक चुनने के सख्त नियम हैं—जैसे सहायक लेखक परीक्षार्थी से उम्र और कक्षा में छोटा होना चाहिए। यानी अगर मैं 10वीं की परीक्षा दे रही हूं तो मेरा सहायक लेखक 8वीं या 9वीं पास होना चाहिए। 11वीं या 12वीं कक्षा के विद्यार्थी सहायक लेखक नहीं बन सकते हैं। ऐसा इसलिए है ताकि परीक्षा ईमानदारी से दी जा सके। सबसे बड़ी समस्या यह है कि ब्लाइंड लड़कियों के लिए केवल लड़कियां ही सहायक लेखक बन सकती हैं, जिससे तलाश और भी मुश्किल हो जाती है। कई बार हमें अपनी जेब से 200-500 रुपये तक देने पड़ते हैं, ताकि कोई हमारी मदद करने को तैयार हो।
सहायक लेखक मिलना एक बात है, लेकिन बेहतर लेखक मिलना दूसरी। उनकी लेखन शैली, उनकी समझ—सब कुछ हमारे अंकों को प्रभावित करता है। हम ब्रेल लिपि में पढ़ते हैं, जबकि वे सामान्य हिंदी या अंग्रेजी में लिखते हैं। कई बार तो हमें यह भी नहीं पता चलता कि उन्होंने हमारे उत्तर सही लिखे हैं या नहीं। मेरी पिछली परीक्षा में, मैंने अपने सहायक लेखक को हर उत्तर साफ-साफ बताया, लेकिन जब रिजल्ट आया तो पता चला कि मेरे संगीत विषय के पेपर में कुछ लिखा ही नहीं गया था! इससे मेरा रिजल्ट प्रभावित हुआ।
इसके अलावा समय की भी एक समस्या है। नियम के मुताबिक हमें एक अतिरिक्त घंटा मिलना चाहिए, लेकिन कई शिक्षक इस नियम से अनजान होते हैं और हमें पूरा समय नहीं देते। बड़े सवालों को समझने और लिखवाने में काफी समय लग जाता है, जिससे कई बार मेरे कुछ सवाल छूट जाते हैं।
मेरी दोस्त कमलेश्वरी वर्मा जब सहायक लेखक ढूंढने एक कॉलेज गईं, तो वहां के प्रिंसिपल को इस नियम की जानकारी ही नहीं थी। उन्होंने मदद से साफ मना कर दिया। मेरी एक और परिचित दुर्गेश्वरी वर्मा, जो 11वीं में पढ़ती हैं, उन्हें 10वीं की परीक्षा देने के लिए 7वीं कक्षा की एक सहायक लेखक मिली। उसका लेखन इतना धीमा और अस्पष्ट था कि दुर्गेश्वरी को 85% की तैयारी के बावजूद सिर्फ 75% ही अंक मिले। सबसे बुरी स्थिति तब होती है, जब राइटर ऐन मौके पर नहीं आ पाता। तब हमें जल्दी से किसी और को ढूंढना पड़ता है, और कभी-कभी ज्यादा पैसे भी देने पड़ते हैं। लेकिन परीक्षा नियमों के कारण, एक बार अगर हमने किसी को राइटर चुन लिया तो हम उसे बदल भी नहीं सकते हैं।
हमारे कॉलेज की प्राचार्य किरण गजपाल ने हमारे लिए एक राहत देने वाला कदम उठाया है—उन्होंने कहा है कि कोई भी कक्षा का विद्यार्थी ब्लाइंड लड़कियों का राइटर बन सकता है। लेकिन यह पहल अभी सभी शिक्षकों ने स्वीकार नहीं की है। मेरी बस एक ही मांग है—हमें भी अपनी परीक्षा खुद देने का हक मिले। अगर हमें ब्रेल लिपि में परीक्षा देने की अनुमति मिल जाए, तो हम अपने उत्तर खुद समझकर सही तरीके से लिख सकते हैं। इससे हमें राइटर पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।
हमारी संस्था की वंदना पवार दीदी कहती हैं कि इस समस्या के कारण कई लड़कियां इतना तनाव ले लेती हैं, यहां तक कि वे खाना तक छोड़ देती हैं। और, यह सच भी है—जब आपकी मेहनत किसी और की वजह से बेकार चली जाए तो मन ही टूट जाता है। इसलिए, यह जरूरी है कि शिक्षण संस्थान इस समस्या को गंभीरता से लें। हमें सिर्फ पढ़ाई का अधिकार नहीं चाहिए, बल्कि परीक्षा देने की स्वतंत्रता भी चाहिए—बिना किसी बाधा के, बिना किसी चिंता के। ताकि हम भी अपने सपनों को पूरे आत्मविश्वास के साथ जी सकें।
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