ज़्यादातर किशोर लड़कियों के लिए करियर के रूप में राजनीति सोच में भी नहीं होता है। कुछ लोगों की रुचि इसमें है भी लेकिन उन्हें भारत में राजनीति में करियर बनाना असम्भव लगता है। ऐसा ही एक उदाहरण चेन्नई की 15 साल की उस छात्रा का है जिसने कहा था कि वह बड़े होने के बाद न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री बनना चाहती है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उस लड़की की तरह ही कई ऐसी लड़कियाँ होंगी जो अपने देश की राजनीति में हिस्सा ना लेकर किसी दूसरे देश की प्रधानमंत्री बनना चाहती होंगी।
भारत को गणराज्य बने 73 साल हो चुके हैं लेकिन हम आज भी समान प्रतिनिधित्व को हासिल करने और युवा लड़कियों के लिए राजनीति को करियर का एक विकल्प बनाने से बहुत दूर खड़े हैं। वर्तमान में हमारे देश में 78 (कुल 543 में) महिला सांसद हैं। 14.3 प्रतिशत की दर वाला यह आँकड़ा 1947 से अब तक का सबसे बड़ा आँकड़ा है। राज्य-स्तर पर यह आँकड़ा और भी कम है—विभिन्न राज्यों की विधान सभाओं में महिला प्रतिनिधित्व का आँकड़ा औसतन 9 प्रतिशत है। भारत में छः राज्य ऐसे है जिसमें एक भी महिला मंत्री नहीं है।
एक देश के रूप में हमने काफ़ी प्रगति की है। भारत के पुरुष और महिलाएँ अब बराबर संख्या में मतदान करते हैं। लेकिन मतदान से परे महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी का मामला अब भी एक अछूता विषय है और इस क्षेत्र में महिलाओं को बहुत अधिक सक्रिय होने की ज़रूरत है। इसमें उम्मीदवारों के लिए प्रचार-प्रसार करना, पद के लिए भागदौड़ करना और राजनीतिक पद हासिल करना शामिल है। थोड़ी और छानबीन करने पर हमनें पाया कि 2019 के चुनावों में महिला उम्मीदवारों की संख्या 10 प्रतिशत से कम थी। राज्य स्तर पर भी हमें ऐसे ही आँकड़े देखने को मिले जहां 1980 और 2007 के बीच में राज्य विधान सभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 5.5 प्रतिशत था लेकिन महिला उम्मीदवारों का कुल प्रतिशत 4.4 था।
2019 में उत्तर प्रदेश में किए गए एक अध्ययन से यह बात सामने आई कि महिलाएँ राजनीतिक भागीदारी के कई निर्धारकों जैसे राजनीतिक संस्थानों के काम करने के तरीक़ों और अपने ख़ुद के नेतृत्व की योग्यताओं में विश्वास में पिछड़ी हुई हैं। महिलाओं के लिए ज्ञान, आत्मविश्वास, आवाज़ और आज़ादी राजनीति में उनकी भागीदारी पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। यह काम युवा लड़कियों के लिए जल्दी किए जाने की ज़रूरत है ताकि वे गम्भीर रूप से सोचने की क्षमता विकसित कर सकें और भारत के भविष्य को आकार देने में अपनी भूमिका निभा सकें।
वर्तमान में हमारे देश में 78 (कुल 543 में) महिला सांसद हैं।
युवा लड़कियों में राजनीतिक भागीदारी और नेतृत्व के निर्माण के लिए काम करने वाली संस्था कुविरा की स्थापना के समय हमने यह पाया कि समाज के ध्रुवीकरण को देखते हुए ज़्यादातर विद्यालय (कुछ प्रगतिशील और वैकल्पिक लोगों को छोड़ कर) और अभिभावक छात्रों से राजनीति के बारे में बात करने से कतराते हैं। इसके कारण युवाओं को मिलने वाली ज़्यादातर राजनीतिक खबरें असत्यापित स्त्रोतों और सोशल मीडिया के माध्यम से होती हैं जिससे हमारे युवाओं में एक क़िस्म की निराशा पैदा हो गई है।
2021 के अक्टूबर में हम लोगों ने 13 साल की उम्र वाले बच्चों के एक समूह के साथ कार्यशाला आयोजित की थी। इसमें हम लोगों ने उनसे भारत के राजनेताओं को लेकर उनकी धारणा व्यक्त करने के लिए कहा। हमनें दो चीजें देखीं:
भारत भर में राजनीति को लेकर युवाओं ख़ासकर युवा लड़कियों की सोच को विस्तार से समझने के लिए हम लोगों ने 24 राज्यों के 11 से 24 वर्ष की उम्र वाले 400 बच्चों और व्यस्कों का आँकड़ा एकत्रित किया। हमें इन आँकड़ों में एक समानता दिखाई दी जिसमें इन लोगों ने भारत की राजनीति के लिए ‘भ्रष्ट’, ‘भ्रमित/जटिल’ और ‘गंदे’ जैसे विशेषणों का प्रयोग किया था।
हमने यह भी पाया कि भले ही लड़के और लड़कियों ने समान रूप से इस बात का जवाब दिया कि वे मतदान करेंगे (जब वे योग्य हो जाएँगे) लेकिन उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं में एक महत्वपूर्ण अंतर था। 32 प्रतिशत पुरुष उत्तरदाताओं ने कहा कि वे भविष्य में राजनीति में हिस्सा लेना चाहेंगे वहीं केवल 19.7 प्रतिशत महिला उत्तरदाताओं ने ऐसी इच्छा जाहिर की। पुरुष उत्तरदाताओं की तुलना में महिला उत्तरदाताओं को राजनीतिक प्रक्रियाओं और उनके चुने गए स्थानीय प्रतिनिधियों के बारे में कम जानकारी थी। इसके अतिरिक्त, उनमें अपने दोस्तों और परिवार से राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा करने की सम्भावना कम पाई गई।
2019 के चुनावों में महिला उम्मीदवारों की संख्या 10 प्रतिशत से कम थी।
हालाँकि हमारे वर्तमान राजनीतिक नेताओं के प्रति हमारे युवाओं में विश्वास का स्तर बहुत कम है। लेकिन आँकड़ों के अनुसार लड़कियों की तुलना में दोगुनी संख्या में लड़कों का ऐसा मानना है कि हमारे वर्तमान राजनीतिक नेता प्रभावशाली है (16.4 प्रतिशत बनाम 8.9 प्रतिशत)।
हमारे अध्ययन से यह भी बात स्पष्ट होती है कि छोटी उम्र (11–17 साल) की लड़कियाँ लड़कों की तुलना में राजनीति में अधिक रुचि दिखाती हैं लेकिन जब वे मतदान के उम्र में पहुँचती है तब लड़कों की रुचि का प्रतिशत लड़कियों पर हावी हो जाता है (इस तथ्य के बावजूद कि उम्र के साथ दोनों ही समूह में रुचि का स्तर बढ़ता है)।
ऐसी ही स्थिति हाल ही में अमेरिकन पोलिटिकल साइयन्स रिव्यू में प्रकाशित एक अमेरिकी अध्ययन में भी पायी गई। इस अध्ययन से यह बात सामने आई कि बच्चे न केवल राजनीति को पुरुष-प्रधान क्षेत्र मानते हैं बल्कि बढ़ती उम्र के साथ लड़कियों की यह सोच पुख़्ता होती जाती है कि राजनीतिक नेतृत्व ‘पुरुषों की दुनिया’ है। शोध में यह भी कहा गया कि इसके फलस्वरूप लड़कों की तुलना में लड़कियों की रुचि और महत्वाकांक्षा निम्न स्तर की होती है।
न्यूज़ीलैंड की प्रधान मंत्री बनने की इच्छा ज़ाहिर करने वाली उस छोटी सी बच्ची के उदाहरण से हमें भारतीय लड़कियों के लिए संबंधित आदर्श को सामने लाने की महत्ता को समझने में मदद मिली है। दुनिया भर की मीडिया ने प्रधानमंत्री जैसिंडा आर्डेन की प्रशंसा का बहुत अच्छा काम किया है ख़ासकर महामारी पर उनकी शुरुआती कुछ प्रतिक्रियाओं के बाद। इस काम ने दुनिया भर में लड़कियों के लिए उन्हें अपना आदर्श मानने में अपना योगदान दिया है। अमेरिका में किए गए शोध से यह पता चलता है कि समय के साथ समाचार पत्रों में महिला राजनेताओं पर अधिक खबरें प्रकाशित करने से युवा लड़कियों में राजनीतिक रूप से सक्रिय होने की सम्भावना प्रबल होती है।
हमारे सर्वेक्षण से यह बात भी स्पष्ट हुई कि अपने स्कूल या कॉलेज की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में हिस्सा लेकर और किसी राजनेता को व्यक्तिगत रूप से जानने वाले युवा उन लोगों की तुलना में राजनीति में अधिक रुचि लेते हैं जिनके पास ऐसा कोई अनुभव नहीं होता है।
राजनीति को करियर का एक विकल्प बनाने के लिए हमें युवा लड़कियों और राजनीतिक शक्तियों से जुड़ी सोच को बदलने की ज़रूरत है। पश्चिमी देशों में हमने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं जिसमें टीच ए गर्ल टू लीड और इग्नाईट नेशनल जैसे नागरिक समाज संगठन अगली पीढ़ी की ऐसी महिला मतदाताओं को तैयार करने का काम करते हैं जो आगे चलकर राजनीतिक नेता बनना चाहती हैं और अपने आसपास की राजनीति में सक्रिय होना चाहती हैं। कुविरा का उद्देश्य स्कूलों और स्वयंसेवी संस्थानों के साथ काम करके भारत में इस खाई को कम करना है ताकि युवा लड़कियों के लिए राजनीति को फिर से बनाया जा सके। इसके अलावा हम महिला राजनेताओं को आदर्श के रूप में स्थापित करके राजनीति के लिए सकारात्मक कहानियाँ बनाने और युवा लड़कियों को उनसे जुड़ने के अवसर प्रदान करने का काम भी करते हैं जिनसे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा प्रज्वलित होंगी।
चूँकि 2022 में पाँच राज्यों में और 2024 में आम चुनाव होने वाले हैं इसलिए शिक्षकों, नागरिक समाजों और लोकोपकारों के लिए यह ज़रूरी है कि वे एक साथ आकर युवा लड़कियों के लिए एक ऐसे वातावरण का निर्माण करें जिससे राजनीतिक प्रक्रियाओं में उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित हो सके। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि बिना समान प्रतिनिधित्व के कार्यात्मक लोकतंत्र नहीं हो सकता है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
असम के सरकारी स्कूलों में न्यूट्रीशन गार्डेन कई सालों से लोकप्रिय हैं। छात्रों को स्कूल परिसर में ही ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा दिया जाता है जहां उन्हें जड़ी-बूटी और सब्ज़ियों की जैविक खेती करना सिखाया जाता है। इनमें से कुछ क़िस्म जैसे वेदई लता, मणि मुनि और ढेकिया हाक राज्य में विलुप्त होने की कगार पर पहुँच चुके हैं। इन सब्ज़ियों को बाद में स्कूल द्वारा दिए जाने वाले मध्याह्न भोजन (मिडडे मील) में शामिल कर लिया जाता है। असम के गोलाघाट ज़िले के एक सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली अनुष्का समप्रीति बोरा कहती हैं, “चूँकि अब हम बाज़ार से लाई गई सब्ज़ियों के बदले घरों में उगाई गई सब्ज़ियाँ खाने लगे हैं इसलिए हमारा स्वास्थ्य बेहतर हो गया है। अब मैं पहले से कम बीमार होती हूँ। मुझे देख कर और भी लोगों ने किचन गार्डनिंग शुरू कर दिया है।”
बच्चों को पोषक तत्व देने के अलावा ये बगीचे समुदाय के लोगों को विद्यालय के वातावरण और माहौल का हिस्सा बनने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं। यह काम कई तरीक़ों से हुआ है। 2011 में जब कृषि उद्यम के क्षेत्र में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था फार्म2फ़ूड ने न्यूट्रीशन गार्डेन कार्यक्रम शुरू किया था तब उनकी सबसे बड़ी चुनौती इन फसलों के लिए अच्छे बीज के स्त्रोत खोजना थी। हालाँकि बहुत जल्द इस समस्या का समाधान कुछ उत्साही छात्रों द्वारा कर दिया गया जिनका कहना था कि बीज इकट्ठा करने के लिए वे गाँव में घर-घर घूमेंगे। उन बच्चों के प्रति समुदाय के लोगों के प्रेम के कारण बच्चों को बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले बीज मिल गए। इसके अलावा ये लोग अक्सर उसी विद्यालय में पढ़ने वाले दूसरे बच्चों को जानते थे जिससे बीज के दान ने एक तरह से निजी निवेश का रूप ले लिया।
समुदाय के लोग अपनी आँखों से विद्यालय के इन बगीचों को विकसित होता देख सकते थे जिससे उन्हें इस परियोजना और स्कूल दोनों से एक तरह का लगाव हो गया। फार्म2फ़ूड के सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा का कहना है कि, “जब बच्चे नहीं होते हैं तब समुदाय के बड़े बुज़ुर्ग इन बगीचों की देखभाल करते हैं।” अभिभावक-शिक्षक बैठकों को डरावनी चीज़ मानने वाले माता-पिता अब स्कूल को जवाबदेह ठहराते हैं। वे अब पूछ सकते हैं कि, “हमनें इतनी बीजें दी थीं; उनका क्या हुआ? हम लोगों ने आपके बगीचे में पैदा होने वाली कई सब्ज़ियाँ देखी थीं; क्या आप मध्याह्न भोजन में हमारे बच्चों को वही सब्ज़ियाँ खिला रहे हैं?”
कोविड-19 के कारण जब कई विद्यालय अस्थाई रूप से बंद हो गए थे तब अभिभावकों ने अपने बच्चों के लिए घर में ही किचन गार्डनिंग शुरू कर दिया था। उन्होंने अपने बच्चों के इस उद्यम में न केवल अपना श्रम योगदान किया बल्कि उन्हें खेती के देसी तरीक़ों के बारे में भी सिखाया।
बोरा कहती है कि, “पहले हम लोग वर्मीकम्पोस्ट के लिए केंचुआ ख़रीदने बाज़ार जाते थे। लेकिन अब हम जानते हैं कि हमें गाँव के केले के पेड़ों के नीचे ये केंचुए मिल जाएँगे। इससे हमारा पैसा भी बचता है।”
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
अनुष्का समप्रिति बोरा असम के गोलघाट ज़िले में एक स्कूल की छात्रा हैं और दीप ज्योति सोनू ब्रह्मा फार्म2फ़ूड के सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक हैं।
लोचदार आजीविका निर्माण पर सबक और दृष्टि को उजागर करने वाली 14-भाग वाली शृंखला में यह आठवाँ लेख है। लाईवलीहूड्स फॉर ऑल, आईकेईए फ़ाउंडेशन के साथ साझेदारी में दक्षिण एशिया में अशोक के लिए रणनीतिक केंद्र बिन्दु वाले क्षेत्रों में से एक है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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अधिक जानें: जानें कि ओड़िशा में काम करने वाली एक कृषि मित्र कैसे किसानों को जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करती है।
मेरा नाम निरुपमा जना है। मैं ओड़िशा के बालासोर ज़िले में पड़ने वाले बलियापल गाँव की रहने वाली हूँ। मेरे माता-पिता भी शिल्पकार ही थे। उन्होंने स्थानीय हस्तशिल्प और शिल्पकारों को सहायता देने वाले एक सामाजिक उद्यम कदम हाट से प्रशिक्षण लिया था और उनके लिए टोकरियाँ बनाते थे। मैं और मेरा भाई अक्सर अपने माता-पिता के ऑर्डर पूरा करने के लिए उनके काम में मदद किया करते थे। इसलिए हम दोनों ने बहुत छोटी उम्र में ही तरह-तरह के डिज़ाइन वाली टोकरियाँ बनाना सीख लिया था।
मैंने बालासोर में एफ़एम विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए की पढ़ाई पूरी की है। मैं वकील बनाना चाहती थी और बीकॉम की पढ़ाई करना चाहती थी लेकिन मेरे पिता के पास मेरी शिक्षा के लिए उतने पैसे नहीं थे। एमए पूरा करने के कुछ ही दिनों बाद मेरी शादी हो गई। मैंने 2017 में केवल 20 शिल्पकारों के साथ मिलकर कदम के लिए काम करना शुरू किया था। आज कुल 180 महिला शिल्पकार मुझसे जुड़ी हैं जो आसपास के कई गाँवों में मेरे लिए काम करती हैं। हम झोले, रोटी रखने वाले डब्बे, गमले और बहुत कुछ बनाते हैं। हम अपने उत्पाद प्राकृतिक कच्चा माल जैसे बांस और सबाई घास से तैयार करते हैं।
सुबह 4.00 बजे: मैं अपना दिन घर के कामों से शुरू करती हूँ। मेरे साथ मेरी माँ और दो बहनें रहती हैं। मेरी दोनों बहनें स्कूल जाती हैं। मेरी माँ को डायबिटीज़ है इसलिए मैं सुबह सबसे पहले उन्हें कुछ खाने के लिए देती हूँ ताकि वह समय पर अपनी दवाईयाँ ले सकें। उसके बाद मैं घर की सफ़ाई और दोपहर के खाने का इंतज़ाम करती हूँ। मुझे आज करंज और सुरुदिया गाँव जाना है और मैं खाने के समय तक वापस नहीं लौट पाऊँगी।
सुबह 7.00 बजे: घर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं सुई और सबाई घास लेकर बैठती हूँ। मुझे झोलों का बचा हुआ काम पूरा करना है। प्रोडक्शन टीम के लोग कुछ दिनों बाद इन झोलों को लेने आने वाले हैं। बहुत छोटी उम्र से ही मैं सुईयों के साथ काम करती आ रही हूँ। मैंने सातवीं कक्षा से ही अपने माता-पिता की उनके काम में मदद करनी शुरू कर दी थी। जब दूसरे बच्चे बाहर खेलते थे तब मैं अपनी माँ से छुपकर उन झोलों या टोकरियों पर काम करने लग जाती जिन्हें वह बाहर छोड़ गई थीं। मेरे माता-पिता, मेरे भाई और मुझे बांस और सबाई घास से तरह तरह की कुर्सियाँ और मचियाँ बनाना अच्छा लगता है। एक शिल्पकार के रुप में मेरी यात्रा यहीं से शुरू हुई थी।
शादी के बाद मैंने अपनी पति की छोटी सी दुकान में ही बिना पैसों के काम करना शुरू कर दिया था। मेरी दूसरी बेटी के पैदा होने के बाद मेरे पति ने दूसरी शादी कर ली। जब मेरी माँ ने मेरी समस्या देखी और पाया कि मैं घंटो तक बिना पैसे के काम करती हूँ तब उन्होंने पायल मैडम (कदम की सह-संस्थापक) से मुझे कुछ काम देने के लिए कहा। इस तरह 2016 में मुझे मेरा पहला ऑर्डर मिला था। अपने पहले ऑर्डर में मुझे लगभग 30 दिनों में 1,000 टोकरियाँ बनानी थीं। उन दिनों मेरे पास केवल 20 ही शिल्पकार थीं जो सुरुदिया गाँव की रहने वाली थीं। उन लोगों ने मेरे पिता के साथ काम किया था और जब मैंने उन्हें अपने साथ काम करने के लिए कहा तब वे खुश हो गई। दुर्भाग्य से हम लोग समय पर अपना काम पूरा नहीं कर पाए लेकिन उसके बाद से मेरी टीम ने वापस पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सुबह 9.00 बजे: जब मैं अपनी बेटी को स्कूल के लिए तैयार होते देखती हूँ तब मुझे एहसास होता है कि मैं पिछले दो घंटे से लगातार काम कर रही हूँ। मेरी बड़ी बेटी इस बात को समझती है कि मैं पूरे दिन बहुत ज़्यादा मेहनत करती हूँ इसलिए वह मुझे परेशान नहीं करती है। वह अपना और अपनी बहन दोनों के लिए टिफ़िन का डब्बा तैयार करती है और वे दोनों स्कूल चले जाते हैं। मुझे अपनी बेटियों पर बहुत ज़्यादा गर्व है और मैं चाहती हूँ कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करें।
सुबह 10.00 बजे: मुझे करंज और सुरुदिया जाने के लिए तैयार होना है। दोनों गाँव एक दूसरे के पास ही है लेकिन मेरे घर से वहाँ जाने में एक घंटा लगता है। एक समूह के प्रधान के रूप में मैं आसपास के सात गाँवों के शिल्पकारों के साथ काम करती हूँ। मुझे हर दिन बाहर नहीं जाना पड़ता है लेकिन सप्ताह में एक बार मैं हर गाँव का दौरा कर लेती हूँ ताकि काम का निरीक्षण कर सकूँ और समय पर काम ख़त्म हो सके। चूँकि ये गाँव मेरे घर से दूर हैं इसलिए मैं अपनी स्कूटी से जाऊँगी। मैंने ऋण लेकर अपनी ये स्कूटी ख़रीदी थी जिसका लगभग ज़्यादा हिस्सा मैंने चुका दिया है।
आजकल हम लोग झोलों के एक बड़े निर्यात के ऑर्डर पर काम कर रहे हैं। इन झोलों को बनाने के लिए हम सबई घास को प्राकृतिक रंगों से रंगते हैं जो केवल बरसात के मौसम में ही मिलता है। आमतौर पर मैं बालासोर के नज़दीक वाले गाँव में साल में एक बार लगने वाले हाट (बाज़ार) से एक साथ ही सारा घास ख़रीद लेती हूँ। उसके बाद मैं ज़रूरत के हिसाब से विभिन्न गाँवों के शिल्पकारों को घास पहुँचाती हूँ। बचा हुआ घास पूरे साल किसी एक शिल्पकार के घर पर अच्छे से रखा जाता है।
हालाँकि इस साल बारिश बहुत कम हुई थी और घास के रंग पर इसका असर पड़ा था। ताजी काटी गई घास की क़ीमत कम होती है लेकिन इस साल हमें घास ख़रीदने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना पड़ा था और यह महँगा भी था।
सुबह 11:00 बजे: मैं सुरुदिया पहुँच गई हूँ। मुझे आता देख बाहर खेल रहे बच्चें चिल्लाने लगते हैं: ‘निरू दीदी आ गई’। मुझे शिल्पकारों से मिलना है। विभिन्न गाँवों में शिल्पकारों के समूहों के लिए मैंने एक नेता चुना है। ज़्यादातर शिल्पकार अपने घर से ही काम करते हैं इसलिए मैं उनके नेता को अपने आने की सूचना पहले ही दे देती हूँ। इससे मेरे आने तक सभी शिल्पकार अपने उत्पादों के साथ एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं।
इस निर्यात ऑर्डर को पूरा करने के लिए 120 से अधिक शिल्पकार काम कर रहे हैं। हालाँकि सभी के कौशल का स्तर एक जैसा नहीं है और कुछ लोग तेज काम करते हैं वहीं कुछ के काम करने की गति धीमी है। और कभी-कभी तो रंग ख़राब हो जाते हैं। सबई घास का रंग एक समस्या हो सकती है—सभी उत्पादों में एक सा रंग बनाए रखना हमारे लिए मुश्किल है। इस ऑर्डर को लेकर मैं थोड़ी परेशान हूँ क्योंकि सभी शिल्पकारों को रंगीन झोले ही तैयार करने हैं।
दोपहर 1:00 बजे: हम लोग थोड़ी देर आराम करते हैं और फिर दोपहर का खाना साथ में खाते हैं। इनमें से ज़्यादातर शिल्पकार मुझे तब से जानते हैं जब मैं बच्ची थी। वे सभी मुझे अपने परिवार का सदस्य मानते हैं और मुझे भी उनके साथ बहुत अच्छा लगता है। किसी भी तरह की समस्या आने पर ये शिल्पकार आमतौर पर मेरे पास आते हैं और मुझे अपनी बात बताते हैं। कभी कभी इन्हें शादी या परिवार के किसी सदस्य के श्राध के लिए पैसों की ज़रूरत होती है।
जब लोगों ने देखा कि मेरे साथ काम करने वाली शिल्पकारों को हमेशा काम मिलता है और उनके पैसे भी समय पर आ जाते हैं तब उन्होंने कहा कि वे भी अपने परिवार और दोस्तों सहित मुझसे जुड़ना चाहते हैं।
मैं ख़ुद उन्हें पैसे उधार नहीं दे सकती हूँ लेकिन मैं गाँव में बहुत सारे दुकानदारों को जानती हूँ; कभी-कभी मैं उनसे आग्रह करती हूँ कि वे इन शिल्पकारों को पैसे या सामान उधार दे दें। जब इन शिल्पकारों को बैंक से ऋण लेने की ज़रूरत होती है तब मैं उनके साथ बैंक भी जाती हूँ। जब मैंने काम शुरू किया था तब मेरे पास केवल 20 शिल्पकारों की टीम थी। जब लोगों ने देखा कि मेरे साथ काम करने वाली शिल्पकारों को हमेशा काम मिलता है और उनके पैसे भी समय पर आ जाते हैं तब उन्होंने कहा कि वे भी अपने परिवार और दोस्तों सहित मुझसे जुड़ना चाहते हैं। जब कोई नया हमारी टीम में शामिल होता है तब मैं उसे घास की चोटी बनाने का काम देती हूँ। अगली बार जाने पर जब उस टीम की मुखिया मुझसे कहती है कि उस नए शिल्पकार का काम अच्छा है तब हम उसे झोलों या टोकरियों पर काम करने के लिए कहते हैं। संतोषजनक काम न होने की स्थिति में हम उसे कुछ और दिनों तक अभ्यास करने के लिए कहते हैं।
दोपहर 3.00 बजे: मैं करंज गाँव में भी शिल्पकारों द्वारा तैयार किए जा रहे उत्पादों के निरीक्षण के लिए ही आई हूँ। झोले अच्छे दिख रहे हैं और इनकी गुणवत्ता दिए गए मानकों के अनुरूप है। इसलिए मैंने उत्पादन टीम से कहा है कि वे गुणवत्ता जाँच के लिए कोलकाता दफ़्तर से अपने कर्मचारी को भेज दें। जब उनके निरीक्षण में हमारा उत्पाद सफल हो जाएगा तब पैकेजिंग और निर्यात के लिए उन्हें गोदाम ले ज़ाया जाएगा।
शाम 6.00 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं जल्दी से सब के लिए रात का खाना तैयार करती हूँ। हम साथ बैठकर खाना खाते हैं और अपने-अपने दिन के बारे में बातें करते हैं। मुझे यह समय सबसे अच्छा लगता है क्योंकि इस वक्त मैं अपनी माँ और बेटियों के साथ होती हूँ। अपनी बेटियों को सुलाकर मैं वापस झोले का काम पूरा करने बैठ जाती हूँ। मैं तब तक काम करती हूँ जब तक मुझे थकान महसूस नहीं होती है। कभी-कभी काम करते करते रात के दस या बारह बज जाते हैं। सुई हाथ में लेने के बाद मैं तब तक नहीं उठती जब तक काम पूरा न हो जाए। मुझे यह काम करने में मज़ा आता है; यह मेरा जुनून है। इस काम ने कठिन समय से निकलने में ही मेरी मदद नहीं की है बल्कि इससे मेरे परिवार और दोस्तों का दायरा भी बहुत बड़ा हो गया है। यह एक समुदाय बन चुका है।
इस काम के कारण मैं दूसरी अन्य महिलाओं से भी मिलती हूँ जिनके जीवन में ऐसी ही कठिनाइयाँ है। मुझे पहले लगता था मैं अकेली हूँ जिसे ये कठिनाई है। लेकिन अब मुझे उस बात का एहसास है कि ऐसी बहुत सारी औरतें हैं जो परेशानी से गुजर रही हैं और उन्हें इस काम से समर्थन मिल रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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मेरा नाम किसनी काले है। मैं 29 साल की हूँ और मेरा घर मंगराली है जो महाराष्ट्र के भंडारा ज़िले में एक छोटा सा गाँव है। मैं पेंच में ग्रीन ऑलिव रिसॉर्ट के हॉस्पिटैलिटी विभाग में काम करती हूँ।तीन महिने पहले मुझे इस विभाग का कप्तान नियुक्त किया गया है। हॉस्पिटैलिटी की दुनिया में मेरी यात्रा 2017 में शुरू हुई थी जब मैंने पेंच में प्रथम के हॉस्पिटैलिटी कार्यक्रम में हिस्सा लिया था। उस साल प्रथम टीम में काम करने वाली भारती मैडम इस कार्यक्रम और नौकरी के बारे में उन लोगों से बात करने हमारे गाँव आई थीं जो काम के लिए गाँव से बाहर जाना चाहते थे। मैंने एक सत्र में हिस्सा लिया था जिसमें हमें इस काम की जानकारी और प्रशिक्षण के बारे में बताया गया और मुझे इस काम में रुचि थी। अपने प्रशिक्षण से पहले मैं अपने परिवार के खेत में काम करने के साथ साथ थोड़ा बहुत सिलाई का काम भी करती थी।
मैं दिन में 12–13 घंटे काम करती थी लेकिन मुझे बुरा नहीं लगता था क्योंकि मैं कुछ सीख कर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी।
प्रथम में अपने दो महीने के प्रशिक्षण के दौरान मैंने मेहमानों से सहजता और आत्मविश्वास के साथ बात करना सीखा। इसके अलावा मैंने उनके सामने अपनी बात रखने और हॉस्पिटैलिटी के विभिन्न पहलू जैसे टेबल सर्विस और कमरे के साफ़-सफ़ाई के बारे में भी जाना। मेरे साथ 20 लोगों ने प्रशिक्षण लिया था। प्रशिक्षण ख़त्म होने के बाद मैंने चंद्रपूर के एनडी होटल में एक प्रशिक्षु सहायक के रूप में काम शुरू कर दिया। उस होटल में छः महीनों के दौरान मैंने खाना और पानी परोसने, मेहमानों से बात करने के अलावा और भी कई तरह के काम किए। चूँकि मैं इस काम में नई थी इसलिए मुझे मेहमानों से खाने का ऑर्डर लेने का काम नहीं मिला था। मैं दिन में 12–13 घंटे काम करती थी लेकिन मुझे बुरा नहीं लगता था क्योंकि मैं कुछ सीख कर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी। दरअसल होटल उद्योग में एक कहावत है: आने का समय है लेकिन जाने का समय नहीं है।
एनडी होटल के बाद वाली नौकरियों में मैंने बैंक्वेट संभालना और रूम सर्विस का काम सीखा। जल्द ही मुझे सीनियर कप्तान बना दिया गया था। सीनियर कप्तान के नाते मैं खाने का ऑर्डर लेती थी, कर्मचारियों के प्रबंधन का काम करती थी और ग्राहकों से बातचीत करती थी। इस तरह के कौशल होने के कारण ही 2020 में मुझे ग्रीन ऑलिव रिज़ॉर्ट में कप्तान की नौकरी मिल गई।
सुबह 7.00 बजे: चूँकि महामारी का प्रकोप अब भी है इसलिए हर सुबह मेरा काम कर्मचारियों के शरीर का तापमान, मास्क और सेनीटाइज़र की जाँच करना होता है। इसके बाद ही हमारा दिन शुरू होता है। एक कप्तान के रूप में मेरी ज़िम्मेदारी अपने 12–13 सहकर्मियों को उस दिन का काम समझाने की होती है। मैं सूची में आरक्षण के आधार पर उस दिन सुबह नाश्ते, दोपहर के खाने और रात के खाने में आने वाले मेहमानों की संख्या देखती हूँ। इसके बाद रसोई और सफ़ाई कर्मचारियों द्वारा किए जाने वाले कामों की स्थिति का जायज़ा लेना और उस दिन पहले से तय कार्यक्रमों की ज़िम्मेदारी लेना भी मेरे काम का हिस्सा होता है। टीम के सभी सदस्यों के इकट्ठा हो जाने के बाद मैं उन में से हर एक को उनका काम सौंपती हूँ।
सुबह होने वाली हमारी बैठक के बाद हम नाश्ते की तैयारी में लग जाते हैं। मैं रिसेप्शन जाकर उस दिन चेक-इन और चेक-आउट करने वाले मेहमानों की संख्या का पता लगाती हूँ। इस आधार पर हम लोग नाश्ते के लिए आने वाले लोगों की संख्या का अनुमान लगाते हैं। एक अनुमानित संख्या मिल जाने के बाद हम खाने वाले हॉल की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू होता है और रसोई में काम कर रहे लोगों को इसकी जानकारी दी जाती है।
सुबह 11.30 बजे: नाश्ते की भीड़ छँट जाने के बाद हम दोपहर के खाने की तैयारी में लग जाते हैं। दोपहर के खाने के लिए मेनू नहीं होता है (खाना बफे शैली में परोसा जाता है), और होटल के मेहमान सीधे बैंक्वेट हॉल में आकर खाना खाते हैं। इसलिए मैं खाना खाने वाले मेहमानों की संख्या और उनके ठहरने वाले कमरे की जानकारी वाली एक सूची तैयार करती हूँ। मेहमानों की गिनती करने के दौरान मैं अपने सहकर्मियों और रसोई में कर्मचारियों के कामों पर भी ध्यान रखती हूँ ताकि सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चलता रहे।
बैंक्वेट में दोपहर के खाने के दौरान ही हमें रूम सर्विस वाले कर्मचारियों को काम पर लगाना पड़ता है। उनका काम यह देखना है कि अपने कमरे में ही खाना मँगवा कर खाने वाले मेहमानों को समय पर सारी सुविधाएँ मिल रही हैं या नहीं। सहकर्मियों का एक दूसरा समूह मेहमानों को होटल द्वारा दिए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पैकेज की जानकारी देना और उनके सवालों का जवाब देने के काम में लगा रहता है। मैं इन दोनों ही प्रकार के सहकर्मियों के कामों का निरीक्षण करती हूँ।
दोपहर 1.00 बजे: मेहमान के दोपहर का खाना खाने या बाहर जाने के दौरान हम लोग कमरे की सफ़ाई से जुड़ा सारा काम निबटाते हैं। इसमें कमरे और बाथरूम की सफ़ाई, चादर और तकिए के खोल को बदलना और कमरे में मौजूद चाय-कॉफ़ी और खाने की चीजों को फिर से रखने का काम शामिल होता है। कोविड-19 के कारण हाउसकिपींग और सेनेटाईजेशन का काम और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। हम कोविड-19 से जुड़े सभी सरकारी निर्देशों का पालन करते हैं जिसमें काम के समय सभी कर्मचारियों का दस्ताने पहनना, सेनेटाईजर का इस्तेमाल, और उचित दूरी शामिल है।
दोपहर 3.00 बजे: हर दिन दोपहर 3 बजे से 7 बजे तक का समय हमारे आराम का समय होता है। इस दौरान मैं अपने दोपहर का खाना खाती हूँ और अपने कमरे में जाकर आराम करती हूँ। इससे भी ज़्यादा ज़रूरी मेरे लिए इस समय अपनी बेटी नव्या को फ़ोन करना होता है। मैं हर दिन शाम 4 बजे उसे फ़ोन करती हूँ। वह पिछले आठ सालों से गाँव में मेरे माँ-पिता के साथ रह रही है और हर दिन दोपहर इस समय बेसब्री से मेरे फ़ोन का इंतज़ार करती है। लगभग एक घंटे तक हम दोनों हर चीज़ के बारे में बात करते हैं—जैसे कि हम दोनों ने उस दिन क्या किया, हमने क्या खाया या ऐसी कोई भी नई बात जो हमें एक दूसरे को बतानी होती है। मैं अपने काम से जुड़ी हर बात उसे बताती हूँ। वह हॉस्पिटैलिटी की दुनिया में होने वाले कामों के बारे में सब कुछ जानती है और अब तो वह बड़ी होकर होटल प्रबंधन के क्षेत्र में काम भी करना चाहती है!
शाम 7.00 बजे: हम रात के खाने की तैयारी के लिए होटल वापस जाते हैं। इस समय का काम दोपहर के खाने के समय किए जाने वाले काम के जैसा ही होता है। यह हमारे उस दिन का अंतिम सत्र होता है जो शाम से शुरू होकर देर रात तक चलता है। यह समय दरअसल इस पर निर्भर करता है कि उस शाम होटल ने क्या-क्या कार्यक्रम आयोजित किए हैं। आमतौर पर हमारा काम रात के 11-11.30 तक ख़त्म हो जाता है।
रात 11.30 बजे: मैं होटल के उस कमरे में जाती हूँ जहां मेरे अलावा कुछ और लोग भी रहते हैं। काम पर हम आपस में पेशेवर रिश्ता रखते हैं लेकिन इस कमरे में हम एक दूसरे के दोस्त बन जाते हैं। एक कप्तान के रूप में मैंने इस रिश्ते की गरिमा बनाए रखी है ताकि मेरी टीम के लोग मेरा सम्मान करें। अगर कोई ढंग से काम नहीं करता है तब मैं उसे प्यार से समझाती हूँ। मैं कभी इन लोगों पर चिल्लाती नहीं हूँ।
मैं होटल में आने वाले मेहमानों को यह बताना चाहती हूँ कि उन्हें होटलों में काम करने वाले लोगों का सम्मान करना चाहिए
जब मैं होटल उद्योग में अपने काम के बारे में सोचती हूँ तब मुझे गर्व महसूस होता है। मैं पहले बहुत शर्मीले स्वभाव की इंसान थी लेकिन अब मैं हर दिन नए लोगों से मिलती और बात करती हूँ। मैं बिना किसी दूसरे पर निर्भर हुए अपने परिवार का ख़्याल रख सकती हूँ और अपनी बेटी के लिए आदर्श बन सकती हूँ। दरअसल मेरे गाँव में लोग अब यह मानने लगे हैं कि मेरा काम अच्छा काम है। लॉकडाउन में सभी होटल बंद हो गए थे इसलिए मुझे अपने गाँव वापस लौटना पड़ गया था। उन दिनों मैं अपने परिवार के खेतों में दोबारा काम करने लगी थी। इसके अलावा आर्थिक रूप से मुश्किल में फँसे लोगों की मदद करने के लिए मैंने मुफ़्त में ही उनके कपड़े भी सिले थे। उन लोगों से बातें करते समय मैं उन्हें अपने होटल की तस्वीरें दिखाती थी और उन्हें अपने काम के बारे में बताया करती थी। जब वे मेरा काम समझ गए तब उन्हें यह कम्पनी के काम और सरकारी नौकरी से बेहतर लगने लगा!
आज मैं जानती हूँ कि मुझे अपना जीवन हॉस्पिटैलिटी उद्योग में ही बनाना है। मैं अपना ख़ुद का रेस्तराँ भी खोलना चाहती हूँ ताकि मैं इस उद्योग में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को रोज़गार दे सकूँ जैसे मुझे मिला है। मैं होटल में आने वाले मेहमानों को यह बताना चाहती हूँ कि उन्हें होटलों में काम करने वाले लोगों का सम्मान करना चाहिए—हम भी शहर में रहने वाले लड़के और लड़कियों जैसे ही हैं—और हम लोगों से भी उसी तरह बात की जानी चाहिए।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
20 साल पहले एक राज्य के रूप में स्थापित उत्तराखंड के निवासी आज भी बुनियादी परिवहन ढांचे की कमी के कारण संघर्ष कर रहे हैं। दुमक, कलगोथ, किमाना, पल्ला, जखोला, लंजी पोखनी, द्विजिंग और ऐसे ही विभिन्न तमाम गांवों में परिवहन की सुविधा की कमी है। इन गांवों में लगभग 500 परिवार रहते हैं जिन्हें अपनी आजीविका के लिए मीलों की दूरी तय करनी पड़ती है। बारिश और बर्फ के मौसम में सड़कों पर चलना भी असंभव हो जाता है। इससे आगे, 2013 में आई बाढ़ों के कारण इन गांवों को जोड़ने वाली पगडंडियाँ और पल टूट गए थे और इनकी मरम्मत अब भी नहीं हुई है।
इन क्षेत्रों में राजमा, रामदाना और आलू जैसे फसलों की खेती होती है। लेकिन परिवहन के उचित साधन के बिना ये चीजें बाजार तक नहीं पहुँच पाती हैं। देहरादून जैसी मंडियों तक समान पहुँचाने का खर्च कई गुना बढ़ गया है।
दुमक गाँव में सड़क अभियान के अग्रणी और एक समाज सेवक के रूप में काम करने वाले प्रेम सिंह संवाल कहते हैं कि “आज भी इन गांवों के लोग अपने फसल को मंडी तक ले जाने और बेचने के लिए घोड़ों और खच्चरों का उपयोग करते हैं। इसके कारण किसानों को बहुत अधिक नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि सामानों की ढुलाई में बहुत अधिक पैसे लगते हैं।” गाँव के एक किसान का कहना है कि “गोपेश्वर या जोशी मठ शहर तक जाने के लिए किराए पर एक घोड़ा या खच्चर लेने पर पाँच क्विंटल राजमा देना पड़ता है और मुझे एक पैसे का फायदा नहीं होता है।”
दुमक गाँव के जीत सिंह संवाल और पूरन सिंह का कहना है कि “सीमावर्ती गांवों में से एक गाँव होने के बावजूद मौलिक समस्याएँ यूं ही बनी हुई हैं। सड़क तक पहुँचने के लिए गाँव वालों को 18 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।” आगे वे कहते हैं कि “यह समस्या तब और ज्यादा गंभीर हो जाती है जब गाँव में कोई बीमार हो जाता है।” ऐसी स्थिति में लोग डोली की मदद से बीमार आदमी को लेकर जाते हैं। कभी-कभी वह बीमार आदमी रास्ते में ही मर जाता है। बारिश और बर्फ पड़ने के दौरान रोगी को अस्पताल तक ले जाना भी संभव नहीं होता है।”
गाँव वालों द्वारा लगातार किए गए दोषारोपण के बाद सरकार ने प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत धिंघारण-स्युन-वेमरु-दुमक कलगोथ सड़कों के साथ ही विभिन्न अन्य इलाकों में भी सड़कों के निर्माण की अनुमति की घोषणा की है। लेकिन निर्माण कंपनियों की मनमानी के कारण पिछले 17 सालों से काम या तो रुका हुआ है या अब भी पूरा नहीं हुआ है।
महानन्द सिंह बिष्ट एक पत्रकार हैं और इन्हें समाज सेवा के कामों में 20 वर्षों का अनुभव है। मूल लेख चरखा फीचर्स द्वारा प्रकाशित की गई थी।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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अधिक जानें: पढ़ें कि भारत को लिंग-संवेदनशील परिवहन व्यवस्था की ज़रूरत क्यों है।
मेरा नाम ललिथा तरम है। मैं महाराष्ट्र के गोंडिया ज़िले के जब्बरखेड़ा गाँव की रहने वाली हूँ। मैं पाओनी प्रोड़्यूसर कलेक्टिव में जनरल मैनेजर के पद पर काम करती हूँ। यह एक किसान उत्पादक कम्पनी (फ़ार्मर प्रोड़्यूसर कम्पनी या एफ़पीसी) है जिसके कुल सदस्यों की संख्या 5,000 है। इसकी सभी सदस्य महिलाएँ हैं जो क्षेत्र के 125 गाँवों की निवासी हैं। गोंडिया एक आदिवासी इलाक़ा है और यहाँ के ज़्यादातर लोग खेती और इससे जुड़े काम करते हैं। हम धान, चना, दाल, मिर्च और महुआ उगाते हैं। जब महिलाएँ एफ़पीसी की सदस्य बन जाती हैं तो इससे उन्हें अपनी आय बढ़ाने और बचत का मौक़ा मिलता है। हमारी एफ़पीसी अपने सदस्यों को कई तरह की सुविधाएँ देती है। उदाहरण के लिए इन सुविधाओं में कम ब्याज दर पर मिलने वाला ऋण, फसलों को बेचने के लिए बाज़ार के सम्पर्क सूत्र मुहैया करवाना और खेती संबंधी चीजें जैसे कि कम क़ीमत पर मिलने वाले बीज और खाद आदि शामिल हैं।
मैंने 2014 में पाओनी प्रोड़्यूसर कलेक्टिव की सदस्यता ली थी। कुछ सालों बाद मैंने आसपास के 5-6 गाँवों के लिए क्षेत्रीय समन्वयक (एरिया कोर्डिनेटर) के रूप में काम करना शुरू कर दिया। यहाँ मेरी ज़िम्मेदारी क्षेत्र की महिलाओं को सदस्य बनाना था। इस दौरान कम्पनी कुछ नए व्यापार भी शुरू कर रही थी। मैंने इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उन गाँवों में मुर्गी पालन और खाद के व्यापार का प्रबंधन अपने हाथों में ले लिया जहां मैं पहले से काम कर रही थी। मई 2020 में मुझे जनरल मैनेजर बना दिया गया। इस पद पर रहकर मुझे पाओनी प्रोड्यूसर कलेक्टिव में टीम प्रबंधन, नियुक्ति, प्रशासन, बोर्ड प्रबंधन और ऐसे कई कामों की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है।
सुबह 4.00 बजे: मैं सुबह जागने के बाद योग से अपना दिन शुरू करती हूँ। मुझे योग करने में सचमुच बहुत मज़ा आता है! इससे मुझे दिन भर खड़े होकर काम करने में मदद मिलती है। मेरा दिन बहुत ही भागदौड़ वाला होता है और मुझे अक्सर एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है। योग ख़त्म करने के बाद मैं कुछ घंटे घर के कामों में लगाती हूँ।
सुबह 9.30 बजे: मैं अपने दफ़्तर के लिए निकलती हूँ। मेरा दफ़्तर मेरे घर से दो किलोमीटर की दूरी पर है। आमतौर पर मैं दफ़्तर जाने के लिए स्कूटी (दोपहिया वाहन) का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन आजकल यह ख़राब है। इसलिए आज मुझे पैदल ही जाना पड़ता है। दफ़्तर पहुँचने के बाद सबसे पहले मैं उस दिन के कामों का ब्योरा लेती हूँ।
सुबह 10.30 बजे: कम्पनी हर महिने अपने बोर्ड की बैठक बुलाती है। इन बैठकों में बोर्ड के सदस्यों द्वारा कम्पनी से जुड़े कई तरह के फ़ैसले लिए जाते हैं। अगले सप्ताह हमारी बोर्ड मीटिंग होने वाली है और मेरा काम उस बैठक से पहले सारी चीजों को व्यवस्थित करना है। इसमें एक ऐसी तारीख़ तय करने का काम होता है जिस दिन बोर्ड के अधिक से अधिक सदस्य उपस्थित हों। इसके अलावा एजेंडा तय करना (साथ ही टीम के अन्य सदस्यों और बोर्ड के सदस्यों के सुझाव लेना) और बोर्ड के सदस्यों को बैठक के दौरान लिए जाने वाले फ़ैसलों की जानकारी देना भी शामिल है।
उदाहरण के लिए पिछले कुछ महीनों से हमारी सदस्यों ने तूर और मसूर दाल की खेती शुरू की है। और हम उनकी मदद करेंगे ताकि वे बाज़ार में अपनी फसल को अच्छी क़ीमत पर बेच सकें। इसके लिए हमें विभिन्न विक्रेताओं से उनकी क़ीमत पूछनी होगी और उनके साथ मोलभाव करना पड़ेगा। एक तरफ़ बोर्ड इस बात का फ़ैसला करता है कि किस विक्रेता को और कितनी क़ीमत पर फसल बेची जाएगी। वहीं दूसरी तरफ़ मैं अपना समय ज़रूरी जानकारियाँ जैसे बिक्री के लिए उपलब्ध दाल की कुल मात्रा, विभिन्न विक्रेताओं से मिलने वाली क़ीमतों की सूची आदि इकट्ठा करने में लगी रहती हूँ।
कभी-कभी मुझे बोर्ड के बैठक में लिए गए फ़ैसलों की जानकारी टीम के अन्य सदस्यों और हितधारकों तक पहुँचाने का काम भी करना पड़ता है। पिछले साल हमें कई कड़े फ़ैसले लेने पड़े थे। कोविड-19 के कारण व्यापार मंदा था इसलिए हमें कुछ कर्मचारियों को काम से निकालना पड़ा। जनरल मैनेजर की हैसियत से उन कर्मचारियों से बात करने की ज़िम्मेदारी मेरी थी जिन्हें हम निकालने वाले थे। उनमें से कुछ ने मुझ पर बहुत अधिक दबाव बनाया क्योंकि वे दुखी थे। मैंने उन्हें समझाया कि यह फ़ैसला उनके काम की समीक्षा के बाद लिया गया है। और इस आधार पर वे एफ़पीसी में अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं।
दोपहर 12.00 बजे: बोर्ड की बैठक में कई विषय के साथ ही मुर्गी पालन व्यापार के बारे में भी बात होगी। कुछ महीने पहले हुए वार्षिक आम सभा में हमें बताया गया कि मुर्गी पालन का हमारा व्यापार घाटे में चल रहा है। इस व्यापार में हम अपने सदस्यों को चूज़े मुहैया करवाते हैं जिन्हें वे पालने के बाद बाज़ार में बेचते हैं। हालाँकि हमारे द्वारा बेची जाने वाली नस्ल कावेरी की माँग में कमी आई है। मुर्गियों को तीन महीनों के अंदर बेच देना चाहिए, लेकिन इन्हें बेचने में चार से पाँच महीने का समय लगने से सदस्यों को नुक़सान हो रहा था। इसलिए हम लोगों ने अधिक माँग वाली नई नस्लों सोनाली और असिल बेचने का फ़ैसला किया। हमारे मुर्गी पालन व्यवसाय का प्रबंधक आज दफ़्तर आया है और हम लोग साथ मिलकर बोर्ड मीटिंग की तैयारी करेंगे। हम बोर्ड के सदस्यों को इन नस्लों के बारे में निम्न जानकारियाँ देंगे: चूज़ों का ख़रीद मूल्य, पालन का खर्च और निवेश से मिलने वाला अनुमानित लाभ।
दोपहर 2.30 बजे: मैं आमतौर पर अपना सुबह का समय दफ़्तर में बिताती हूँ। दोपहर में मुझे अक्सर बाहर निकलकर अपने फ़ील्ड के कर्मचारियों या हितधारकों से मिलकर उनकी समस्याओं के बारे में बातचीत करनी होती है।
जब सदस्य दुखी हो जाते हैं या उन्हें ग़ुस्सा आता है तब मैं शांत रहने की पूरी कोशिश करती हूँ और उनके ग़ुस्से का जवाब नहीं देती हूँ।
मुझे पास के गाँव में रहने वाली एक हितधारक से मिलने के लिए दफ़्तर से निकलना पड़ा है। वह दुखी है क्योंकि इस साल हम उसे ऋण नहीं दे सकते हैं। कोविड-19 के कारण एफ़पीसी उस मात्रा में अपने हितधारकों को ऋण नहीं दे पा रहा है क्योंकि हमें विभिन्न वित्तीय संस्थाओं से उस मात्रा में धन नहीं मिल पा रहा है। मैंने इन बाधाओं के बारे में उसे बताने की पूरी कोशिश की। लेकिन वह अब भी दुखी है और उसने मुझसे काफ़ी ग़ुस्से में बात की। जब सदस्य दुखी हो जाते हैं या उन्हें ग़ुस्सा आता है तब मैं शांत रहने की पूरी कोशिश करती हूँ और उनके ग़ुस्से का जवाब नहीं देती हूँ। वे कम्पनी के सदस्य हैं और उनका सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। लेकिन मुझे यह स्पष्ट करना पड़ता है कि मुझे कम्पनी द्वारा तय किए गए नियमों और शर्तों का पालन करना पड़ता है।
शाम 4.00 बजे: मैं ऐसे सदस्यों से मिलती हूँ जिन्होंने अपने ऋण अभी तक नहीं चुकाए हैं। इस साल सभी लोगों के जीवन में कई तरह की चुनौतियाँ आई हैं इसलिए हम लोग अपने सदस्यों पर ऋण चुकाने के लिए बहुत अधिक दबाव नहीं डाल रहे हैं। लेकिन हम उधार चुकाने की समय सीमा को लगातार बढ़ाते नहीं रह सकते हैं इसलिए हमने उन सदस्यों को चेतावनी पत्र भेजने शुरू कर दिए हैं जिन्होंने हमसे उधार लिए हैं।
बैठक काफ़ी विवादास्पद हो गया है। कई लोगों ने अपनी आवाज़ें ऊँची कर ली है और उनमें से कई लोगों ने कम्पनी छोड़ने की धमकी भी दी है। लेकिन कभी-कभी आगे बढ़ने से पहले आपको लोगों की बेईज्जती सहनी पड़ती है। अब मुझे यह काम करते हुए कई साल हो गए हैं। इसलिए अपने अनुभव के आधार पर मैं उनके सवालों का जवाब देने में और कम्पनी की स्थिति स्पष्ट करने में सक्षम हूँ। मैं उस प्रशिक्षण का लाभ भी उठाती हूँ जो मुझे वीमेन बिज़नेस लीडर्स प्रोग्राम नाम के मिनी-एमबीए कार्यक्रम के दौरान मिला था। इस कार्यक्रम का आयोजन एएलसी इंडिया द्वारा किया गया था।
शाम 6.00 बजे: मैं अपने परिवार के लिए रात का खाना तैयार करने घर वापस लौटती हूँ। मेरे परिवार में मेरा किशोर बेटा और बेटी, मेरे पति और सास-ससुर हैं। खाना बनाते समय ही मैं अपने बच्चों से भी बातचीत करती हूँ। पिछले एक साल से वे ऑनलाइन ही पढ़ाई कर रहे हैं। यह उनके लिए बहुत बड़ा बदलाव है।
कभी-कभी मैं अपना व्यापार शुरू करने के बारे में सोचती हूँ ताकि मैं पैसा कमाकर अपने बच्चों को पढ़ा सकूँ।
इस साल हम सभी को कई तरह के बदलावों का सामना करना पड़ा है। हमारे एफ़पीसी में हमें अपने कार्यकर्ताओं को वेतन देने में भी मुश्किल हुई है क्योंकि व्यापार मंदा है। जब मैं जनरल मैनेजर बनी थी तब मेरा वेतन बढ़कर प्रति माह 5,000 रुपए हो गया था। लेकिन इतना पैसा मेरे परिवार के लिए काफ़ी नहीं है। मुझे अपना काम बहुत अच्छा लगता है। लेकिन मैं इस बात को भी नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकती हूँ कि इतने कम पैसों में मेरी और मेरे परिवार की ज़रूरतें पूरी नहीं होती हैं। कभी-कभी मैं अपना व्यापार शुरू करने के बारे में सोचती हूँ ताकि मैं पैसा कमाकर अपने बच्चों को पढ़ा सकूँ। मैंने बकरियों के इलाज के लिए पारा-वेट (अर्धन्यायिक-पशु चिकित्सक) का प्रशिक्षण लिया है। और चूँकि मेरे पास व्यापार योजना के विषय में भी प्रशिक्षण है इसलिए मैं उद्यम की दुनिया में ऐसे अवसर तलाशती रहती हूँ जिससे मैं बिना किसी मुश्किल के अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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भारत में लगभग 60 करोड़ लोगों की उम्र 25 वर्ष से कम है जो हमारी कुल आबादी का लगभग आधे से भी ज्यादा हिस्सा है। इस जनसंख्या की क्षमता की काफी प्रशंसा की जाती है पर फिर भी युवाओं (15–25 वर्ष की उम्र) को कभी-कभार ही उन्हें प्रभावित करने वाले फैसलों की बैठक में शामिल किया जाता है।
पिछले कुछ सालों में किए गए शोधों से यह बात और अधिक रूप से स्पष्ट हुई है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में युवाओं को शामिल करने और उनके अंदर नेतृत्व कौशल का विकास करने से उन पर और उनके समुदाय दोनों पर सकारात्मक असर पड़ता है।
इस बात के भी पुख्ता सबूत हैं कि शासन और कार्यान्वयन प्रक्रियाओं में युवाओं की भागीदारी होने से प्रासंगिक, असरदार और टिकाऊ समाधान निकलते हैं।
युवाओं से पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिए हमें सिर्फ इतना देखने की जरूरत है कि इन युवाओं ने किस तरह कोविड-19 के संकट के दौरान आगे आकर आपदा से निबटने का नेतृत्व संभाला था। वायरस के बारे में जागरूकता फैलाने के काम से लेकर बेहतर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में बात करने और सेवा वितरण में सहायता तक में इन्होनें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। इतना ही नहीं, युवाओं ने यह भी सुनिश्चित किया कि समुदाय के सभी लोगों तक सेवाएँ और सही जानकारियाँ पहुँचें।
यह बात साफ है कि युवा उन सभी चुनौतियों को अच्छे से समझते हैं जिनका वे सामना करते हैं और उनके पास ही इन चुनौतियों से निबटने के रचनात्मक और शक्तिशाली विचार भी होते हैं। हालांकि, नागरिक समाज संगठनों और वित्तदाताओं से लेकर समुदाय के सदस्यों और सरकार तक—पारिस्थितिकी तंत्र के सभी हितधारकों की भूमिका यह सुनिश्चित करने में बहुत महत्वपूर्ण है कि वे समाधान के विकास कार्य में शामिल हैं।
आज, कई नागरिक समाज संगठन, सरकारें और अन्य व्यक्ति युवाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए एक मंच बनाने के ठोस प्रयास शुरू कर रहे हैं। हालांकि अब भी यह सवाल बना हुआ है कि व्यवहार में इसे लाने के लिए सबसे प्रभावशाली तरीके कौन से हैं। इस सवाल का जवाब ढूँढने में मदद करने के लिए 10to19: दसरा एडोलसेंट्स कोलैबोरेटिव ने 11 नागरिक समाज संगठनों से युवाओं की भागीदारी को लेकर उनकी समझ और इसे सुनिश्चित करने के उनके वर्तमान तरीकों के बारे में बात की। उनके जवाब इस प्रकार हैं।
हमने भागीदारों से अपेक्षाओं के अनुरूप पारदर्शी संरचनाओं और प्रक्रियाओं के निर्माण की आवश्यकता के बारे में सुना। इसका अर्थ यह है कि ऑनबोर्डिंग और इनडक्शन से पहले युवाओं और संगठनों की अपेक्षाओं के बीच स्पष्ट और एकरेखीय सोच होनी चाहिए।
उदाहरण के लिए, जब अंतरंग फाउंडेशन ने अपने युवा सलाहकार बोर्ड के लिए सदस्यों का चयन करना शुरू किया, तो इसने अपने पूर्व छात्रों के नेटवर्क के साथ अपने भर्ती प्रयास शुरू किए। उनका उद्देश्य इस बात को सुनिश्चित करना था कि नियुक्त किए जाने वाले उम्मीदवारों को न केवल संगठन के दृष्टिकोण, उद्देश्यों और लक्ष्यों की जानकारी हो बल्कि उन्हें कार्यक्रमों के प्राथमिक स्तर का अनुभव हासिल हो और वे इसकी चुनौतियों, फ़ायदों और संभावनाओं को भी समझते हों। इसके अलावा, चयन के समय एक ऑनबोर्डिंग और इनडक्शन के सत्र का आयोजन किया गया। इन सत्रों में सभी सदस्यों से कार्यक्रमों और उनकी भूमिकाओं से उनकी उम्मीदों के बारे में पूछा गया और साथ ही यह भी बताया गया कि संगठन की उनसे क्या उम्मीदें हैं। सभी सदस्यों से सहभागिता की नियमितता और तालमेल, उनके रूचि वाले क्षेत्रों, कौशल को विकसित करने और इस बोर्ड के लिए उनके लक्ष्य के बारे में भी जानकारी मांगी गई। अंत में, लोकतान्त्रिक कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए बोर्ड ने यह फैसला किया कि दूसरे हितधारकों के सामने इसका प्रतिनिधित्व दो प्रतिनिधियों द्वारा किया जाएगा जो निश्चित समय अंतराल पर बदलते रहेंगे।
2. नियमित प्रतिक्रिया के रास्ते और पहले से तय कैडेन्स (तालबद्ध कदम) का निर्माण
कार्यक्रमों को मजबूत बनाने के लिए युवाओं से नियमित मिलने वाले सुझाव की जगह को सुनिश्चित करने के लिए उन्हें सलाह देने और इसमें हिस्सा लेने के लिए बुलाया जाता है। इसके लिए सहयोगियों ने उनकी भागीदारी में एक नियमित तालमेल की जरूरत पर ज़ोर दिया जिसके माध्यम से प्रत्यक्ष प्रतिक्रियाएँ हासिल की जा सकती हैं। उन्होनें मिलने वाली प्रतिक्रियाओं और सुझावों पर तेजी से काम करने के महत्व को भी रेखांकित किया।
उदाहरण के लिए, गर्ल इफ़ेक्ट्स टेक्नालजी एनेबल्ड गर्ल एंबेसडर्स (टीईजीए) प्रणाली का निर्माण लड़कियों और 18–24 साल की उम्र वाली किशोर महिलाओं के साथ मिलकर किया गया था। ‘ऑडियोविजुअल सेलफ़ी सर्वेज’ और ‘डाइरैक्ट मैसेजिंग’ जैसी विशेषताओं के माध्यम से इस तकनीक का इस्तेमाल बहुत आसान है और इसकी उपलब्धता भी सहज है। साथ ही यह अपने उपयोगकर्ताओं को ध्यान में रखकर काम करता है। इसके अलावा, यह गर्ल इफेक्ट टीम और टीईजीए में नामांकित लड़कियों दोनों को नियमित और सुरक्षित दोतरफा संचार करने और प्रतिक्रिया देने का माध्यम उपलब्ध करवाता है। इससे कार्यक्रम में भाग लेने वाले प्रतिभागी की प्रतिबद्धता का स्तर समझने में सभी को आसानी होती है और साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि इतने लंबे समय तक उनके जुड़े रहने के पीछे कौन सी प्रेरणा काम कर रही है।
3. युवाओं की बात सुनने के लिए संगठनात्मक क्षमताओं को मजबूत बनाएँ
हमारे काम और हमारी बातचीत के दौरान एक सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य हमारे सामने आया जिसमें हमें एक ऐसी सुरक्षित जगह बनाने की जरूरत थी जहां युवा अपनी बात साझा कर सकें, सीख सकें और कार्यक्रम में सार्थक रूप से हिस्सा ले सकें।
इन जगहों को असरदार बनाने के लिए प्रवाह इस दिशानिर्देश का पालन करता है कि संगठनों को खुद ही एक निश्चित मात्रा में क्षमता निर्माण और संवेदीकरण की प्रक्रिया से गुजरना होगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्णयकर्ता युवाओं की बातों को वास्तव में सुन रहे हैं। वे टीम के सदस्यों और युवाओं के साथ काम करने वाले कर्मचारियों के लिए क्षमता निर्माण में विश्वास करते हैं जिनमें युवा विकास सिद्धांतों का शिक्षण/समझ, प्रणाली की सोच आधारित प्रशिक्षण और मुक्त और युवा-केन्द्रित स्थानों की डिज़ाइन के तरीक़े शामिल होते हैं।
युवाओं को सामने लाने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि दी गई जानकारी उनके रुचि के अनुरूप हो।
वे दस्तावेजों को अनुरूप बनाकर और रणनीतियों को प्रासंगिक, मजेदार और युवाओं के लिए पढ़ने में आसान बनाकर संगठनों की मदद भी करते हैं। युवाओं को भागीदार बनाने के लिए यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि दी जाने वाली जानकारी उनकी जरूरत के हिसाब से हो। ऐसा करने के लिए उनसे साझा किए गए किसी या सभी प्रकार के दस्तावेजों या संसाधनों में शब्दजाल का उपयोग नहीं होना चाहिए और वे दस्तावेज़ उनकी वास्तविकता के संदर्भ में होने चाहिए।
4. युवाओं का क्षमता निर्माण
सहयोगी युवाओं के लिए क्षमता निर्माण को शामिल करने की जरूरत पर भी बहुत अधिक ज़ोर देते हैं। जब युवाओं को रणनीति पर उनके विचार या सुझाव देने के लिए बुलाया जाता है तब उन्हें रणनीतिक सोच, महत्वपूर्ण सोच और संघर्ष समाधान जैसे कौशल मुहैया करवाए जाने चाहिए ताकि वे भाग लेने, शामिल होने और साझा करने लायक हो सकें। युवाओं के लिए ये कौशल भविष्य में जुडने वाले अन्य संगठनों में भी उपयोगी साबित हो सकते हैं। दरअसल, सफलतापूर्वक युवाओं के साथ नियमित और सार्थक भागीदारी को सुनिचित करने वाले कई युवा-केन्द्रित संगठनों ने यह प्रस्तावित किया है कि युवाओं द्वारा कार्यक्रमों में निवेश किया गया समय कार्यक्रम के हस्तक्षेप से परे उनके लिए सार्थक होना चाहिए।
उदाहरण के लिए, मिलान फ़ाउंडेशन का गर्ल आइकॉन कार्यक्रम 15 से 17 साल की लड़कियों के साथ काम करता है। हालांकि उनके पास गर्ल आइकॉन के अपने पुराने छात्रों का एक मजबूत नेटवर्क है जिसका इस्तेमाल वे संसाधनों की आपूर्ति, रोजगार अवसरों की जानकारी और छात्रवृति और मैंटरशिप की सहायता के लिए करते हैं ताकि उनकी निजीगत शिक्षा और नेतृत्व की यात्रा जारी रहे। एक तय टीम उन पूर्व छात्रों के साथ हर महीने फोन कॉल करके, हर चार महीने में मिलकर और तय किए गए सत्रों के माध्यम से संपर्क में रहता है। इस तरह की कार्यविधियों के माध्यम से संगठन ने यह सीखा कि कार्यक्रम के दौरान उन लड़कियों को मात्र स्मार्टफोन जैसी चीज मुहैया करवा देने से कार्यक्रम के बाद भी उन्हें इसका फायदा मिल सकता है।
5. प्रामाणिक जुड़ाव का प्रयास करें
और अंत में, सबसे महत्वपूर्ण बात यह सुनिश्चित करना था कि हम युवाओं को एक अखंड समूह के रूप में न देखें और विभिन्न प्रकार के विचारों और सुझावों को सुनने के प्रति जागरूक रहें।
अपनी संस्थागत ढांचे के भीतर युवा बोर्ड सदस्यों को दो चक्रों तक रखने वाले रीप बेनिफ़िट नाम की एक संगठन ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि अगर किसी संगठन के नेतृत्व और टीम के अंदर विविधता नहीं होगी तब यह अपने युवाओं वाले नेटवर्क के भीतर विविधता को प्राथमिकता नहीं देगा। युवा बोर्ड के अपने दोहराव के माध्यम से रीप बेनिफ़िट लिंग, क्षेत्र, शैक्षणिक क्षमता, भाषा और सामाजिक-आर्थिक समूहों के आधार पर विविधता पर ध्यान केन्द्रित करता है। जबकि विविधता अपने साथ कई नए दृष्टिकोण लाती है वहीं यह संचार के एक आम माध्यम को चुनने, विभिन्न किस्म की वास्तविकताओं के बावजूद समूह के बीच आम सहमति बनाने और सामान्य लक्ष्यों पर संरेखित करने जैसी तार्किक चुनौतियाँ भी लेकर आती हैं। इसके लिए रीप बेनिफ़िट का यह सुझाव है कि संगठनों को नियमों और समूह के लिए काम करने के तरीकों के आसपास एक बुनियादी संरचना और रूपरेखा बनाकर काम करना चाहिए, जिसके आधार पर समूह अपनी प्रतिक्रिया दे सकता है और बदलावों के लिए सुझाव मुहैया करवा सकता है।
जब हम प्रतिनिधित्व और भागीदारी के बारे में सोचते हैं तब इस बारे में सोचना भी महत्वपूर्ण है कि युवाओं द्वारा निवेश किए गए समय और उनके प्रयासों का भुगतान किस रूप में किया जा रहा है। जैसा कि पहले बताया गया है यह कौशल निर्माण के रूप में किया जा सकता है लेकिन अवसर और इंटर्नशिप उप्लबद्ध करवाकर, प्रमाणपत्र या मान्यता देकर या कुछ निश्चित राशि या प्रतिपूर्ति के रूप में भी किया जा सकता है।
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2008 में मैं सलीधना गाँव में था। यह मध्य प्रदेश के खांडवा जिले के खलवा प्रखण्ड में है। इस गाँव में कई स्वदेशी समुदाएँ बसती हैं।
गाँव के लोग मुझे बरसाती नदी (बारिश के पानी से बनने वाली नदी) लेकर गए जो उनके गाँव से कई मीटर नीचे थी। मुझे बताया गया कि नदी से बर्तनों में पानी भर कर ऊपर लाते समय कई औरतें फिसलने की वजह से घायल हो जाती हैं। इस समस्या को सुलझाने के लिए हम लोगों ने सलीधना में क्लौथ फॉर वर्क कार्यक्रम शुरू किया। इसके तहत हमनें नदी तक आसानी से पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनाने का फैसला किया। यह एक अच्छी योजना लग रही थी।
नदी से वापस गाँव आने के दौरान मैंने एक बुजुर्ग से पूछा कि ऐसी कौन सी समस्या है जिसका समाधान तुरंत होना चाहिए। उनका जवाब था, “हम एक कुआं चाहते हैं।” मैं उनका जवाब सुनकर चौंक गया था और इसलिए मैंने उनसे फिर पूछा “एक कुआं क्यों? यह एक छोटा सा गाँव है। सीढ़ियाँ बन जाने के बाद आपलोग नदी किनारे लगाए गए हैंडपंप तक आसानी से जा सकेंगे। नदी का इलाका पानी सोखने वाला है इसलिए हैंडपंप के सूखने की संभावना नहीं के बराबर है।”
उन्होनें मेरी बात ध्यान से सुनी और फिर मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, आप जो कह रहे हैं वह सही है। लेकिन मॉनसून में नदी का पानी बहुत ऊपर तक आ जाता है इसलिए हम उस समय हैंडपंप तक नहीं जा पाएंगे।” औपचारिक शिक्षा से मिले मेरे सभी सिद्धान्त उसी समय ध्वस्त हो गए। पानी वाले उस इलाके में पहले से ही एक पंप लगा था और हम लोग सीढ़ियाँ बनाने के बारे में सोच रहे थे। लेकिन वस्तुस्थिति यह थी कि उनकी पानी की समस्या को ख़त्म करने के लिए यह कदम पर्याप्त नहीं था।
सिद्धांतो और अपने कई अनुभवों के आधार पर हम लोग यह सोच लेते हैं कि उच्च जल स्तर वाले इलाके में पंप के होने से पानी की समस्या नहीं होगी। लेकिन ऐसा हमेशा ही हो जरूरी नहीं है। कई मामलों और इलाकों में पंप होने के बावजूद लोगों को पानी नहीं मिल पाता है। अंतत: हमने गाँव के लोगों के निर्देश के अनुसार वहाँ एक कुआँ खुदवाया। क्योंकि उनकी बातों को सुनने और समझने के बाद हमें एहसास हो गया कि उन्हें सच में कुएँ की जरूरत है और यही उस समस्या का समाधान भी था। जैसा कि गाँव वालों ने हमें बताया था खुदाई करने पर हम लोगों को जमीन से 18 फीट नीचे ही पानी का स्तर मिल गया था।
अंशु गुप्ता सामुदायिक विकास के क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था गूंज के संस्थापक-निदेशक हैं।
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धीराराम कपाया वन उत्थान संस्थान चलाते हैं। यह समितियों का एक ऐसा संघ है जो जमीन से जुड़े संसाधनों की सुरक्षा करता है। कपाया राजस्थान के उदयपुर जिले के भील जनजाति से आए हैं। उदयपुर जिले में जंगलों और चारागाहों की सुरक्षा के लिए कई दशक लंबे आंदोलन चले और अब इस इलाके के लोग इसे सामुदायिक संसाधन के रूप में देखते हैं। धीराराम एक कार्यकर्ता और कलाकार दोनों हैं। यह सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने के लिए लोकगीत लिखते हैं और उन गीतों को गाते हैं। इनकी गीतों का विषय विविध है और इसमें कुपोषण से लेकर पर्यावरण जैसे विषय शामिल हैं।
इस गीत को सुनिए जो इन्होनें पानी और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के बारे में और अपने समुदाय के लोगों को जागरूक करने के लिए बनाया है।
धीराराम कपाया एक कार्यकर्ता और कलाकार हैं और सेवा मंदिर द्वारा स्थापित वन उत्थान संस्थान चलाते हैं।
स्नेहा फिलिप आईडीआर में कंटेंट डेवलपमेंट और क्यूरेशन का काम देखती हैं।
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किशोरावस्था में शादी युवा महिलाओं और लड़कियों को उनके हक़ से वंचित करता है क्योंकि इसका संबंध कम उम्र में गर्भधारण, मातृ एवं बाल मृत्यु, घरेलू हिंसा और पीढ़ी दर पीढ़ी रहने वाली गरीबी से है। भारत में पिछले 20 वर्षों में बाल विवाह के स्तर में सुधार आया है। राजस्थान, छतीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इसके बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं। हालांकि, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और विशेष रूप से बिहार जैसे राज्यों में लैंगिक असमानता के कारण बाल विवाह को रोकने में बाधाओं का सामना करना पड़ा है। इन राज्यों में अब भी पाँच में से दो से अधिक लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती है।
2015–16 से 2019-20 तक बिहार के 37 जिलों में से 10 जिलों में लड़कियों के बाल विवाह में वृद्धि देखी गई है। इनमें से सात जिलों में यह वृद्धि 5 प्रतिशत से अधिक है। इसके विपरीत, 11 जिलों में कम उम्र में विवाह के प्रचलन में 5 प्रतिशत से अधिक की कमी दर्ज की गई है।1 इस आंकड़े को देखते हुए सेंटर फॉर कैटालाइजिंग चेंज की सक्षम पहल ने बिहार में कम उम्र में विवाह की गतिशीलता और कारकों का मिश्रित-विधि अध्ययन2 किया। इस संस्था ने माता-पिता और युवाओं के दृष्टिकोण, शिक्षा के कथित मूल्य, और युवाओं की लैंगिकता और पसंद को लेकर स्थापित नियमों की छानबीन की।
यहाँ सर्वेक्षण से प्राप्त कुछ ऐसे कारकों के बारे में बताया गया है जिनके कारण अब भी बिहार में जल्दी विवाह की परंपरा को प्रोत्साहन मिलता है, साथ ही कुछ ऐसे कारकों की जानकारी भी दी गई है जो इसे रोकने के लिए काम करते हैं।
1. बिहार में अब भी स्कूली शिक्षा के रूप में 10 साल से कम समय की शिक्षा हासिल करने की परंपरा है। लड़कियों (7.8 वर्ष) और लड़कों (8.3 वर्ष) दोनों के लिए ही औसत शिक्षा का स्तर बहुत कम है। हालांकि लड़कों (54 प्रतिशत) की तुलना में अधिक लड़कियां (73 प्रतिशत) अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए दोबारा स्कूल जाना चाहती हैं।
2. बढ़ती उम्र के साथ स्कूली शिक्षा में लैंगिक अंतर बढ़ता जाता है। माध्यमिक शिक्षा पूरी करके आगे भी पढ़ाई जारी रखने वाले 57 प्रतिशत लड़कों की तुलना में सिर्फ 32 प्रतिशत लड़कियां ही माध्यमिक स्तर से आगे की पढ़ाई कर पा रही हैं।
3. हर तीन में से एक लड़की को स्कूल छोड़ना पड़ता है क्योंकि उन्हें इस पढ़ाई का कोई फायदा नहीं दिखाई देता है। महिलाओं के लिए आर्थिक अवसरों की कमी और लड़कियों को शिक्षित करने के प्रति ससुराल वालों/माता-पिता का विरोध और आर्थिक भागीदारी की अनुमति लड़कियों को शिक्षा हासिल करने से रोकती है। इसके विपरीत लड़के पैसे कमाने के लिए बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं और विभिन्न तरह के कामों में लग जाते हैं।
4. अपने बच्चों के प्रति माता-पिता की आकांक्षाएँ बच्चों के लिंग पर निर्भर करती हैं। लगभग 55-57 प्रतिशत अभिभावक (माँ और पिता दोनों) अपनी बेटियों को उच्च माध्यमिक स्तर तक पढ़ाना चाहते हैं। जबकि वहीं 51-56 प्रतिशत माता-पिता चाहते हैं कि उनके बेटे एम.ए. तक की पढ़ाई पूरी करें।
5. कानूनी उम्र से कम उम्र में शादी लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए आम है। लड़कियों के विवाह की औसत आयु 17 (+/-2) और लड़कों के लिए यह आयु 20.8 (+/–2) है।
6. लड़कियों की शिक्षा का स्तर अधिक होने पर विवाह के प्रस्ताव में कमी आने की संभावना होती है लेकिन लड़कों के लिए शिक्षा के बढ़ते स्तर के साथ विवाह प्रस्तावों की संख्या में काफी तेजी आ जाती है।
1. समुदाय के रक्षकों जैसे पंचायत के लोग, फ्रंटलाइन में काम करने वाले कार्यकर्ता, पुरुष और लड़के अपनी पितृसत्तात्मक सोच जल्दी शादी करने की प्रथा के वाहक होते हैं। शादी के बाजार में दहेज को लड़कों की योग्यता के सूचक के रूप में देखा जाने लगा है। इसलिए ऐसे माता-पिता को अपनी कम उम्र की लड़कियों के लिए दूल्हे खोजने में आसानी होती है जो ऐसे मामलों में गर्व के साथ ‘मोलभाव’ करने की क्षमता रखते हैं।
2. समुदाय के रक्षकों में शिक्षा की उपयोगिता की समझ बहुत कम (100 के आंकड़ें में 40.2) है। समाज माता-पिता पर उसकी लड़की को पढ़ाने से ज्यादा उसकी शादी करवाने का दबाव बनाता है। इन रक्षकों का ऐसा मानना है कि लड़कियों की शिक्षा का कोई महत्व नहीं है और यह एक तरह का बोझ है।
3. लड़कियों को आगे बढ़ाने, उनके अधिकार और जीवन से जुड़े चुनाव को लेकर इन लोगों का व्यवहार भेदभाव से भरा हुआ है। पितृसत्तात्मक मानदंडों का पालन शादीशुदा जवान लड़कों (52.3/100) और अविवाहित लड़कियों और जवान औरतों में सबसे कम (43.8/100) है। अविवाहित लड़कों में लड़कियों की लैंगिकता और उनके चुनावों पर नियंत्रण रखने की प्रवृति भी सबसे अधिक (52.6/100) दिखती है।
4. शादी के मामले में फैसला करने वाला आदमी मुख्य रूप से पिता होता है। तीन चौथाई से अधिक विवाहित जवान औरतों और दो तिहाई से ज्यादा विवाहित जवान पुरुषों का कहना है कि उनके पिता ने ही उनकी शादी जल्दी कारवाई है।
1. बिहार के सात निश्चय (या 7 शपथ) कार्यक्रम को 2015 में लागू किया गया था। इसकी प्राथमिकता ग्रामीण इलाकों में सड़कों का विकास, बिजली और जल-आपूर्ति थी। इसके अलावा इस योजना के तहत युवा शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार और महिला सशक्तिकरण पर ध्यान देने की बात भी शामिल है। इस तरह के ग्रामीण विकास लिंग संबंधी इच्छाओं और मानदंडों को निम्नलिखित तरीकों से प्रभावित कर सकते हैं:
2. मीडिया की अधिक उपलब्धता (उत्तरदाताओं का अखबारों, पत्रिकाओं, टेलिविजन, रेडियो, मोबाइल फोन, इन्टरनेट और फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्म आदि से जुड़ाव) का माँओं के मन में शिक्षा के इस्तेमाल का सकारात्मक असर पड़ता है और साथ ही उनकी अपनी लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति में भी कमी आती है।
3. बिहार में लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाली ढेरों योजनाएँ हैं। इन योजनाओं में गतिशीलता की सुविधा बढ़ाने के लिए साईकिल देने का प्रावधान, स्कूल के यूनीफॉर्म खरीदने के लिए स्टाईपेंड या स्कूल की पढ़ाई पूरा करने के बाद भुगतान की गारंटी देने वाली सशर्त नकद ट्रांसफर आदि शामिल हैं।
2006 में शुरू की गई बिहार रुरल लाईवलीहुड प्रमोशन सोसायटी (या जीविका) एसजीएच के रूप में महिला सामुदायिक संस्थानों को बनाने का काम करती है। 1.06 लाख एसजीएच के अपने नेटवर्क के माध्यम से इसने बिहार के ग्रामीण इलाकों में औरतों की वित्तीय स्थिति को मजबूत बनाया है। इससे भी ज्यादा, चूंकि महिलाओं ने अब सार्वजनिक रूप से अपनी जगह बनाई है और राजनीतिक, वित्तीय और नागरिक प्रक्रियाओं में भाग लेना शुरू किया है इसलिए अब पितृसत्तात्मक और नियामक प्रतिबंधों को चुनौती देने की उनकी क्षमता भी बढ़ी है।
1. जीविका के सदस्यों में लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति सबसे कम होती है जो इस तरफ इशारा करती हैं कि ऐसे समूहों द्वारा लिंग मानदंड में ऐसे छोटे-छोटे बदलाव लाये जा सकते हैं।
2. ऐसी माएँ जो जीविका की सदस्य हैं, वे अपने बेटों और बेटियों को एक समान शिक्षा दिलवाने की इच्छा रखती है और उनमें शिक्षा की उपयोगिता से जुड़ी समझ का स्तर ऊंचा है।
3. जीविका के सदस्यों के रूप में काम करने वाली विवाहित महिलाएँ और माएँ शादी की न्यूनतम उम्र को लेकर प्रगतिशील सोच रखती हैं।
बाल विवाह को खत्म करने के लिए ऐसे ऐसे बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है जो शिक्षा और सामाजिक और आर्थिक रूप से औरतों के सशक्तिकरण को बढ़ावा दे। इस समस्या से निबटने के लिए नीचे कुछ सुझाव दिये गए हैं।
1. गरीबी को दूर करना और पूर्ण विकास को बढ़ावा देना
अध्ययन से यह बात सामने आई है कि बाल विवाह के सबसे ज्यादा मामले सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर जी रहे लोगों और उन गांवों में देखे जाते हैं जो विकास के सूचकांक पर नीचे स्थित है। आजीविका के अवसर बनाना और बहुत गरीब परिवारों को स्वास्थ्य, शिक्षा और गतिशीलता जैसी जरूरी अधिकारों तक उनकी पहुँच बढ़ाकर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि माता-पिता अपने नाबालिग बच्चों की शादी के लिए मजबूर नहीं होंगे।
2. शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार और स्कूली शिक्षा को पूरा करने को प्राथमिकता देना
शिक्षा को उपयोगी बनाने के लिए उसकी गुणवत्ता में सुधार लाना, पढ़ाने के नए तरीकों को शामिल करना और शिक्षकों को लैंगिक समानता पर संवेदनशील बनाना जरूरी है। स्कूली शिक्षा पूरा करने के लिए प्रोत्साहन देना और शिक्षा को कौशल के अवसरों से जोड़ना भी महत्वपूर्ण है।
3. महिलाओं के आर्थिक अवसर को सुनिश्चित करना
कम उम्र की महिलाओं और लड़कियों को महिलाओं की आर्थिक भागीदारी को बढ़ाने वाली सरकारी नौकरियों में 35 प्रतिशत आरक्षण जैसी योजनाओं के बारे में शिक्षित करना आवश्यक है। महिलाओं की आर्थिक मजबूती के लिए शुरू की गई योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करने के अलावा उनके लिए पैसा कमाने के अवसर बनाकर महिलाओं को स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए तैयार किया जा सकता है। साथ ही इससे बाल-विवाह पर भी रोक लगाई जा सकती है।
4. मुख्य योजनाओं और अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाना
जहां एक तरफ लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए लागू की गई कई योजनाओं से लड़कियों की भागीदारी में बहुत अधिक उछाल आया है वहीं 57 प्रतिशत लड़कियों को मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना (देरी से शादी और स्कूल शिक्षा को पूरा करने के उद्देश्य को बढ़ावा देने के लिए सशर्त नकद हस्तानंतरण कार्यक्रम) जैसी योजनाओं के बारे में पता नहीं था। लैंगिक प्रशिक्षण को जोड़कर जीविका के साथियों की क्षमता को मजबूत करने की प्रक्रिया बाल विवाह को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
5. पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने के लिए जीविका को मजबूत बनाना
जीविका धीरे-धीरे बाल विवाह से जुड़े प्रचलित पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने का काम कर रहा है।
6. युवा लड़कों और लड़कियों को संवेदनशील बनाना
अविवाहित लड़कों में लड़कियों की लैंगिकता को नियंत्रित करने की प्रवृति सबसे अधिक पाई गई है। कम उम्र में उन्हें लैंगिक नियमों, अनुमति के बारे में संवेदनशील बनाने और सकारात्मक पुरुषत्व को बढ़ावा देने की दिशा में काम करना चाहिए।
7. समुदाय के संरक्षकों का मंच तैयार करना
माता-पिता और समुदाय के नेताओं दोनों ही प्रकार के संरक्षकों पर पड़ने वाला सामाजिक दबाव बाल विवाह को रोकने के रास्ते में बाधा पहुंचाता है। इस समस्या का समाधान गाँव के प्रभावी बुजुर्गों, धार्मिक नेताओं, शादी करवाने वाले बिचौलियों, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं, शिक्षकों, जीविका एसजीएच के सदस्यों और पंचायत के सदस्यों को लड़कियों की शिक्षा, कार्यबल में औरतों की भागीदारी और औरतों के लिए हिंसा-मुक्त वातावरण के निर्माण के मामले में संवेदनशील बनाकर किया जा सकता है।
यह शोध यह दिखाता है कि इस क्षेत्र में अब भी बहुत अधिक काम करने की जरूरत है लेकिन बाल विवाह को लेकर लोगों की, खासकर युवा महिलाओं की सोच धीरे-धीरे बदल रही है। चूंकि बिहार और पूरे भारत में बहुत सारी लड़कियों की शादी अब भी 21 से कम उम्र में हो रही है इसलिए लड़कियों के लिए शादी की कानूनी उम्र सीमा 18 से बढ़ाकर 21 करने की प्रस्तावना में इसे ख़त्म करने वाले प्रयासों को मजबूत करने की जरूरत है।
फुटनोट:
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