बाल कुपोषण: मेलघाट से मिली सीख

मेलघाट में कुपोषण का पहला अनुभव मुझे साल 2019 में तब हुआ जब गम्भीर कुपोषण के आकलन के लिए मैंने गांव के एक बच्चे से मिली थी। मुझे उस बच्चे की मां की कोई भी बात समझ में नहीं आ रही थी और उस मां का हाल भी कुछ वैसा ही था। लेकिन मेरी बात सुनने के बाद अपनी सहमति से उसने अपना बच्चा मुझे सौंप दिया था। हमारी मुस्कुराहटों ने हमें एक दूसरे से जोड़ दिया लेकिन मैं जानती थी कि बहुत कुछ ऐसा भी था जो मुझसे छूट रहा था। मेलघाट में अपने तीन साल के प्रवास से मैंने इतना सीख लिया था कि कोरकू भाषा के एक छोटे से वाक्य “काकी, आमा जूम छुई?” (काकी, आपका नाम क्या है?) की मदद से क्या-क्या किया जा सकता है। इस एक वाक्य ने मुझे औरतों के घरों में प्रवेश दिलाया। जहां एक तरफ़ वे अब भी मुझे बाहरी समझती थीं वहीं मैं उतनी बाहरी नहीं रह गई थी।

महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में स्थित मेलघाट 75 फ़ीसदी आदिवासी समुदायों और घने जंगलों वाला इलाक़ा है। यह पूरा इलाक़ा कुला मामा (बाघ) और भुमकस (स्थानीय चिकित्सक) की कहानियों से भरा हुआ है। यूं तो मेलघाट के पास दुनिया को सिखाने के लिए बहुत कुछ है लेकिन दुर्भाग्य से कुपोषण से जुड़ी कहानियां इसकी पहचान बन गई है।

जब हम लोगों ने ज़िले में आदिवासी समुदायों के लिए विकास के मुद्दों और रणनीतियों पर काम करने वाले कार्यालय इंटेग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में इस मामले को विस्तार से समझना शुरू किया तब हमने निम्नलिखित धारणाओं के साथ काम शुरू किया था: हम जानते थे कि कुपोषण अमीर और गरीब दोनों ही तबकों को कई रूपों में प्रभावित करता है और इसलिए ही इसके सही संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण था। हम जानते थे कि इसके लिए एक मौलिक हस्तक्षेप की ज़रूरत थी और यह हमेशा से एक लम्बे समय वाला और बढ़ने वाला अनुभव होगा। हम इस तथ्य को लेकर स्पष्ट थे कि प्रत्येक हितधारक को एक साथ लाना और उन रणनीतिक क्षेत्रों की पहचान करना ज़रूरी है जिन पर ध्यान दिया जाना है। इस लेख में क्षेत्र में हमारे द्वारा किए गए कामों की अंतर्दृष्टि का कुछ हिस्सा शामिल किया गया है। यह कोविड-19 की चुनौतियों और अवसरों से तैयार हुआ है और इसका प्रयोग समान भौगोलिक या नीतिगत परिस्थितियों में किया जा सकता है।

1. कार्रवाई के लिए स्थानीय स्तर के आंकड़े का उपयोग

क्षेत्र अधिकारी के रूप में हम अक्सर आंकड़ों के उपयोगकर्ता के बदले उसके प्रेषक बन जाते हैं। ऐसा करते हुए हम अपने संदर्भ में चीजों को बदलने का अवसर खो देते हैं और सोच लेते हैं कि कोई हमारे द्वारा दिए गए इन आंकड़ों के विश्लेषण और इससे नई अंतर्दृष्टि लाने का काम कर रहा है। राज्य-स्तरीय या ज़िला-स्तरीय तुलना स्थानीय-स्तर के विश्लेषणों की जगह न तो ले सकती है और न ही इसे लेनी चाहिए। उच्च स्तर के नीति निर्माण में जहां स्थानीय आंकडें एक महत्वपूर्ण घटक है वहीं हमें स्थानीय समूहों द्वारा भी इसके उपयोग को सुनिश्चित करना होगा।

हमारे लिए देश भर में आंगनवाड़ी-स्तर के कुपोषण के आंकड़ों का लेखा-जोखा रखने वाली इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम-कॉमन एप्लिकेशन सॉफ़्टवेयर (आईसीडीएस-सीएएस) हमेशा कारगर साबित नहीं हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि आंकड़ों को अपलोड करने के लिए अच्छे इंटरनेट कनेक्शन की ज़रूरत होती है जो हमारे इलाक़े के आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के पास उपलब्ध नहीं था। अधूरे आंकड़ों और जानकारियों से हम क्षेत्र में मौजूद कुपोषण की पूरी तस्वीर नहीं बना पाए और इसलिए इसने प्रासंगिक तरीक़े से नीति निर्माण की हमारी क्षमता को भी सीमित कर दिया।

इसलिए हमने एक हल्के स्तर वाले लेकिन डेटा कलेक्शन के अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण व्यवस्था को अपनाने का फ़ैसला किया। हालांकि इसके लिए हमें कुछ क्षेत्रों में कभी-कभी मैन्यूअल, एक्सेल-आधारित तरीक़ों से काम करना पड़ा जिसका अर्थ था ‘पिछड़ापन’। हमने न्यूनतम आंकड़ों के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेतकों को चुना जो सभी आंगनवाड़ियों से हमें आवश्यक रूप से प्राप्त होने चाहिए थे। इस अभ्यास से हमें ऐसे क्षेत्रों की पहचान करने में आसानी हुई जिन पर अधिक ध्यान दिए जाने की ज़रूरत थी, जहां हम स्थिति में सुधार लाकर उदाहरण पेश कर सकते थे। इसके अलावा इससे हमें अधिक-जोखिम वाले इलाक़ों की पहचान में भी आसानी हुई जहां तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत थी। हमने अपनी सारी ऊर्जा सही सूचनाओं को हासिल करने में लगाई थी ताकि हम सही स्थानीय समस्याओं का पता लगाकर उस पर कार्रवाई कर सकें।

डेटा रिपोर्टिंग में समय, आवृति, सैंपलिंग और तरीक़ा सभी बहुत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।

इस आंकडें को एकत्रित और संग्रहित करने और इस पर काम करने के क्रम में हमें यह भी जानकारी मिली कि विभिन्न सरकारी स्त्रोतों और हमारे आंकड़ों में अंतर था। हमारे ज़िले का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (एनएफ़एचएस -5) आंकड़ा हमारे द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों से भिन्न था। अपने आंकडे की दोबारा जांच करने के लिए हमने एक स्वयंसेवी संस्था के साथ एक और सर्वे करवाया। वह अंतर अब भी था। जहां एनएफ़एचएस-5 ने हमारे ज़िले में गम्भीर कुपोषण का स्तर लगभग 12 फ़ीसदी बताया था वहीं थर्ड पार्टी सर्वे में हमारे ज़िले के लिए यह आंकड़ा 3.5 फ़ीसदी और हमारे अपने सर्वे में यह अंक लगभग 1 फ़ीसदी था। इससे हमें इस बात का अहसास हुआ कि कुपोषण, विशेष रूप से गम्भीर तीव्र कुपोषण (सीवियर एक्यूट मैलन्यूट्रिशन या एसएएम) के लिए किए जाने वाले डेटा रिपोर्टिंग में समय, आवृति, नमूनीकरण (सैंपलिंग) और तरीक़ा सभी बहुत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि ये सभी लगातार बदलते रहते हैं। सभी तीन सर्वे इन कारकों के कारण भिन्न थे: हमारा डेटा मासिक स्तर पर एकत्रित किया जाता था और इसमें सभी तरह के नमूनों को शामिल किया गया था, थर्ड पार्टी सर्वे वर्ष में दो बार किए गए थे और इसमें नमूनों का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। वहीं एनएफ़एचएस ने 3–5 वर्ष में एक बार सर्वे करवाया था और इसमें बहुत ही कम मात्रा में सैम्पल इस्तेमाल हुए थे। भौगोलिक असमानता भी महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, एनएफ़एचएस एक ज़िले के लिए डेटा एकत्रित करता है। लेकिन ऐसा संभव है कि अंतर-ज़िला स्तर पर स्थिति भिन्न हो, ख़ास कर मेलघाट जैसे इलाक़ों में जो ज़िले के कुल प्रशासनिक क्षेत्र का सातवां हिस्सा है लेकिन कुपोषण के मामले में महत्वपूर्ण है।

इस अभ्यास से हमने एक ज़रुरी बात यह सीखी कि निरंतर निगरानी महत्वपूर्ण है। स्थानीय क्षेत्र-आधारित अधिकारियों और प्रशासन के लिए साल में कम से कम एक बार सशक्त, सूक्ष्म-स्तरीय, थर्ड-पार्टी सर्वेक्षण करवाना आवश्यक है ताकि यह समझ सकें कि पहल किस दिशा में जा रही है।

2. समुदायों, सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं को साथ मिलकर काम करने की ज़रूरत है

हम लोगों ने समुदायों, यंसेवी संस्थाओं और सरकार को एक साथ लाने के लिए ट्रायलॉग मेलघाट नाम का एक मंच तैयार किया।कुपोषण एक ऐसा जटिल मुद्दा है जिसे सरकार अकेले न तो सम्भाल सकती है और न ही उसे सम्भालना चाहिए। विशेष रूप से मेलघाट जैसे मुश्किल भौगोलिक इलाक़ों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि सभी साथ मिलकर काम करें। सामुदायिक जुड़ाव इस बात का एक मजबूत संकेतक है कि कार्यक्रम कितने सफल हो सकते हैं, और नागरिक समाज संगठन संसाधनों और लोगों के विश्वास के निर्माण दोनों ही मामलों में कई तरह के तालमेल बिठाने का काम कर सकते हैं। इन संगठनों ने हमें लोगों तक व्यवहारिक संदेश पहुंचाने, समुदाय की जरूरतों को बेहतर ढंग से समझने और सूचना या शिकायत निवारण संवाद मुहैया करवाने में मदद की। महामारी के दौरान, यह अनौपचारिक नेटवर्क कई मुद्दों से निपटने के लिए मिलकर लगातार काम कर रहा है। बुनियादी ढांचे और संचार के साथ हमारी सहायता करने के अलावा यह समूह कुपोषण या मनरेगा जैसे मामलों में ज़मीनी स्तर की सूचना का एक स्त्रोत बन गया था। चूंकि संचार में किसी तरह की बाधा नहीं थी इसलिए किसी भी तरह की मुश्किल आने पर उसके समाधान के लिए हम कभी भी नागरिक समाज के प्रतिनिधियों से सम्पर्क कर सकते थे। एक साधारण से व्हाटसेप ग्रुप के माध्यम से हमें तुरंत यह जानकारी मिल जाती थी कि किसी को मनरेगा का काम नहीं मिला रहा है, कोई प्रवासी वापस लौटना चाहता है या किसी बच्चे या रोगी को तत्काल इलाज की ज़रूरत है। इस सहयोग के परिणामस्वरूप हम ज़िले के सबसे सुदूर इलाक़ों में भी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकते थे।

वजन नापने का पैमाना-कुपोषण मेलघाट
हमें कुपोषण को एक टुकड़े या किसी एक विभाग से परे जाकर देखना चाहिए। । चित्र साभार: शार्लोट एंडरसन

3. अपनी इच्छानुसार लोगों से बात करने का तरीक़ा चुनें

स्वास्थ्य का विकेंद्रीकरण एक ऐसा विचार है जिस पर हम विश्वास करते हैं और इस प्रक्रिया में लोगों को सीधे तौर पर सशक्त बनाना शामिल है। जन्म के समय बच्चे के कम वजन दर में सुधार के लिए स्तनपान बहुत महत्वपूर्ण होता है और हमें औरतों को स्तनपान के उचित तरीक़े सिखाने की ज़रूरत थी। हमारा ऐसा मानना था कि स्तनपान जैसे अंतरंग (और महत्वपूर्ण) चीजों के लिए औरतों को उनके निजी स्थान पर सहायता उपलब्ध होनी चाहिए। लेकिन जब तक हम उनकी भाषा में उनसे बात नहीं करेंगे तब तक यह कैसे सम्भव होगा?

इससे हमारी कोरकू भाषा परियोजना का जन्म हुआ। आईआईटी बॉम्बे द्वारा शुरू की गई परियोजना स्पोकेन टूटॉरीयल्स ने डबल्यूएचओ दिशानिर्देशों के अनुरूप स्तनपान तकनीक, बच्चे को पकड़ने और उन्हें बांध कर रखने जैसी क्रियाओं पर सरल और आकर्षक विडियो तैयार किए। इन सभी विडियो के स्क्रिप्ट हिंदी में उपलब्ध थे और हमने उन्हें कोरकू में बदल दिया। इसने कोरकू को पहली ऐसी स्वदेशी भाषा बना दिया जिसमें अनुवाद के बाद ये ट्यूटोरिअल्स उपलब्ध हैं—जो इससे पहले 13 राष्ट्रीय भाषाओं और चार अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में उपलब्ध था—और इसका प्रयोग क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी और माएँ करती हैं। इससे मांओं का इस विडियो से जुड़ने के तरीक़े में फर्क़ आया।

इस प्रक्रिया का एक अन्य आवश्यक आयाम हमारे फ़ील्ड कर्मचारियों को इन विडीयो के उपयोग का प्रशिक्षण देना था क्योंकि वे दिन-रात लोगों से मिलते हैं। उनके फ़ील्ड कौशल को भी निरंतर अपडेट की ज़रूरत होती है और उन्हें लगातार प्रेरित करते रहना पड़ता है। लेकिन प्रशिक्षण का ज़्यादातर हिस्सा एक जैसा एकालाप होता है। अगर किसी तरह की कोई गलती होती है तो वह प्रशिक्षुओं के हिस्से आती है जो ‘पर्याप्त रूप से शिक्षित नहीं हैं’ या ‘पर्याप्त रूप से कुशल नहीं हैं’। किसी भी तरह की गलती प्रशिक्षक या प्रशिक्षण के हिस्से नहीं आती है। हमने पाया कि इसे ठीक करने की ज़रूरत थी। इसलिए आईआईटी बॉम्बे के साथ मिलकर हमने जो प्रशिक्षण तैयार करना शुरू किया था उसमें प्रशिक्षण के पूर्व और बाद की परीक्षाएं शामिल थीं। इन परीक्षाओं में हमने पोषण से संबंधित मौलिक प्रश्न शामिल किए थे जो आगे चलकर मुश्किल सवाल में बदलते गए। प्रशिक्षण को मज़ेदार भी बनाना था इसलिए डॉक्टरों ने अपने पोषण से जुड़ी बातें की और इस तरह हम में ज़्यादातर लोगों को यह अहसास हुआ कि हमें भी प्रशिक्षण की ज़रूरत है! इसमें भाग लेने वाले लोगों में अंतर हम सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा था। प्रशिक्षण के दौरान हमारे फ़ील्ड कर्मचारी अधिक सक्रिय, जिज्ञासु और जीवंत थे।

4. अत्यावश्यक को महत्वपूर्ण से अलग करने के लिए डेटा का उपयोग करें

कुपोषण के मामले की जब बात आती है तब गम्भीर कुपोषण के शिकार बच्चे इस समस्या का ऊपरी सिरा भर हैं। इस मुद्दे से पूरी तरह से निपटने के लिए हमें प्रत्येक बच्चे के मौलिक पोषण पर काम करने की ज़रूरत है। हमें रक्त की कमी और जन्म के समय कम वजन की समस्या को केंद्र में रखकर बच्चे और मां दोनों की दैनिक फ़िटनेस को बेहतर करने की ज़रूरत है। एक बच्चे के पोषण के लिए उसका पहला 1,000 दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है। जन्म के बाद क्रमश: पहला सप्ताह, पहला माह और पहला साल बच्चे के लिए अधिक महत्वपूर्ण होता है।

इसलिए हमने चाइल्ड ट्रैकिंग प्रोजेक्ट शुरू किया जहां हमारे प्रत्येक फ़ील्ड कर्मचारी ने अपने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (प्राइमरी हेल्थ सेंटर या पीएचसी) से पांच बच्चों को ‘गोद लिया’ और सप्ताह में एक बार उन बच्चों के वजन की माप लेने लगे। एक अकेले फ़ील्ड कर्मचारी के लिए यह काम आसान था और इससे हमें उस पैमाने को तैयार करने में मदद मिली जिसके निर्माण का हम प्रयास कर रहे थे। कई फ़ील्ड कर्मचारी कोरकू समुदाय से ही थे इसलिए अनूदित विडियो से उन्हें खुद तकनीक सीखने और मांओं को समझाने में मदद मिली।

अगला कदम उन्हें छँटाई करना सिखाना था। इसमें उन्हें तत्काल सहायता की आवश्यकता वाले बच्चों को उन बच्चों से अलग करना था जिन्हें तत्काल सहायता नहीं चाहिए थी। उसके बाद उन्हें अपनी ऊर्जा प्रशिक्षण और बाद की प्रक्रियाओं में लगानी थी।

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान हमें यह अहसास हुआ कि ऐसी परियोजनाओं को स्थाई बनाने और विकसित करने के लिए निरंतर समर्पण और ऊर्जा की ज़रूरत है। कई बार हम सिर्फ़ आंकड़ों की समझ की कमी के कारण असफल हुए न कि आंकड़ों की कमी के कारण। पीएचसी स्तर पर पर्याप्त से अधिक मात्रा में आंकडें एकत्रित किए जा रहे थे। अक्सर ही फ़ील्ड कर्मचारी आंकड़े एकत्र करने और उनका रिकॉर्ड तैयार करने में इतना अधिक व्यस्त रहते हैं कि इस पूरी प्रक्रिया में इसके विश्लेषण का काम छूट जाता है।

ग़लत आंकड़े वाली स्थिति आंकड़ों की अनुपलब्धता वाली स्थिति से बदतर होती है क्योंकि यह बिना किसी ठोस लाभ के काम बढ़ाती है और अक्सर भ्रामक होती है।

कभी-कभी फ़ील्ड कर्मचारी पूरी लगन से अपना काम करते हैं लेकिन इसके बावजूद वे प्रशासनिक कामों में फंस जाते हैं। कामों के उचित वितरण के अलावा स्थानीय नेतृत्व को फ़ील्ड कर्मचारियों को बुनियादी संगठनात्मक कौशल सिखाने की ज़रूरत है। इससे फ़ील्ड कर्मचारी अपने नियमित कामों को आसानी से कर पाएँगे और उनकी शारीरिक या मानसिक परेशानी भी कम होगी।

उदाहरण के लिए सर्वे की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए डिजिटल उपकरणों की पहचान, फील्ड वर्कर द्वारा लैपटॉप के बजाय इनबिल्ट एनालिटिकल टूल के साथ मोबाइल प्लेटफॉर्म का उपयोग और एक्सेल शीट में स्वचालित रंग कोडिंग सभी ऐसे काम हैं जिसमें डिजिटल रूप से प्रशिक्षित नोडल अधिकारी मदद कर सकता है और सहायता पहुंचा सकता है। यह एक अच्छे इरादे वाले व्यवस्थापक को क्षेत्र में आंकड़ों से संचालित निर्णय लेने में मददगार साबित हो सकता है।

5. अन्य क्षेत्रों के साथ अंतर्संबंध की खोज

ज़मीन पर किए गए हमारे काम का एक अप्रत्यासित लाभ उन सवालों का जवाब मिलना है जो हम पूछ भी नहीं रहे थे। उदाहरण के लिए, हमने ध्यान दिया कि कुपोषण को ट्रैक करने वाले हमारे डेटा में मौसमी आधार पर ‘शहर से बाहरऽ वाला आंकड़ा दिखाई दे रहा था। जब हमने इससे जुड़े एसऐम आंकड़े की जांच की तब हमारी नज़र एक आकर्षक पहलू की ओर गई। हमने एसऐम के आंकड़े में एक एम-आकार का ग्राफ़ देखा जो उस समय बढ़त की ओर था जब बच्चे अपने परिवार के साथ उन अस्थाई नौकरियों के समाप्त होने पर लौटते थे जो उनके माता-पिता को दूसरे प्रखंड या ज़िले में मिली थी। ये लोग उन ज़िलों या प्रखंड में श्रमिक का काम करते थे।

जिला स्तर पर इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज (आईसीडीएस) विभाग की मासिक प्रगति रिपोर्ट (मंथली प्रोग्रेस रिपोर्ट या एमपीआर)
स्त्रोत: जिला स्तर पर इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज विभाग की मासिक प्रगति रिपोर्ट

हमने पाया कि प्रवास के दौरान कई बच्चे योजनाओं की जाल में फंस जाते हैं। टीकाकरण और स्वास्थ्य के मामले में यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।

इस समस्या के निवारण के लिए हमने दो चीजों पर ध्यान केंद्रित किया: सभी भौगोलिक क्षेत्रों में योजनाओं का एकीकरण और पलायन को रोकने के लिए मनरेगा को सशक्त करना। सबसे पहले हम लोगों ने पड़ोसी ज़िले अकोला से सम्पर्क किया जहां कई प्रवासी मज़दूर काम के लिए जा रहे थे। हमने उनसे बात करके यह सुनिश्चित किया कि वे बच्चों के स्वास्थ्य जांच और टीकाकरण करवा रहे हैं या नहीं। हमें दोनों के बीच सह-संबंध या कारण स्थापित करने के लिए अधिक शोध की ज़रूरत थी। हमने पाया कि 2021 के मार्च माह में जब श्रमिकों का परिवार मेलघाट वापस लौटा तब एसएएम के आंकड़े में किसी भी तरह की वार्षिक वृद्धि नहीं हुई थी।

इसके साथ ही, 2020-21 में, मेलघाट ने मनरेगा के तहत पिछले पांच वर्षों (या अधिक) में अपना उच्चतम व्यक्ति-दिवस दिया। सही दिशा में अपना कदम बढ़ाते हुए भी हम जानते हैं कि हम सभी को काम नहीं दे सकते हैं और संकट से जुड़ा पलायन अपरिहार्य है। इसलिए हमने एक ऐसी डिजिटल व्यवस्था का निर्माण शुरू किया जिससे प्रवासियों को उनके मूल स्थान और गंतव्य में मदद मिलेगी और लाभ के लिए वे एक दूसरे से सम्पर्क कर सकेंगे। इस प्रयोग को सरकार और व्यवस्था ने अपने हाथों में ले लिया और इसका नाम महा-एमटीएस (महाराष्ट्र मायग्रेशन ट्रैकिंग सिस्टम) पड़ा। इस योजना को 2022 में महाराष्ट्र के पांच ज़िलों में लागू किया गया है।

इन सभी प्रकार के चिकित्सीय और प्रशासनिक हस्तक्षेपों का परिणाम आने में बेशक कुछ समय लगेगा। हमारा उद्देश्य इस अभ्यास को फ़ील्ड कर्मचारियों की आदत में शुमार करना है और साथ ही हम उन्हें स्थितियों से निपटने के लिए उचित उपकरण और कौशल मुहैया करवाना चाहते हैं ताकि अंत में इन परिवर्तनों को संस्थागत रूप दिया जा सके।

जिस तरह हम पोषण के मुद्दे को देखते हैं वह टुकड़ों में खाए जाने वाले भोजन से अधिक होना चाहिए, उसका दायरा किसी एक विभाग से अधिक होना चाहिए। किसी भी बच्चे के जन्म के बाद के पहले 1,000 दिन सिर्फ़ उनके द्वारा खाए जाने वाले खाने पर निर्भर नहीं करता है। बल्कि यह उनके माता-पिता की आजीविका, उनके आसपास के स्वास्थ्य कर्मचारियों के कौशल, समुदाय में उपलब्ध सुविधाओं, दुनिया के बारे में मिलने वाली शिक्षा और ऐसे ही कई कारकों पर निर्भर होता है। गम्भीर स्तर के कुपोषण से ग्रसित इलाक़ों में इससे निपटने के लिए स्थानीय, संदर्भित और विकेंद्रीकृत उपाय बाक़ी तरीक़ों की तुलना में ज़्यादा उपयोगी साबित होंगे।

इस लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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असम में बाढ़: महिलाओं ने शौच जाने से बचने के लिए खाना छोड़ा

पच्चीस वर्ष की शाहिदा* भूख से तड़प रही है। असम के नगांव ज़िले का पखाली गाँव एक बाढ़-पीड़ित इलाका है। इस इलाक़े का मुख्य खाना चावल है लेकिन यहां की ज़्यादातर औरतों की तरह शाहिदा ने भी चावल खाना बंद कर दिया है। पखाली गांव की औरतों ने शौच जाने के डर से चावल खाना छोड़ दिया है। मई के महीने में होने वाली बेमौसम बारिश ने असम के लाखों लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है। इस बारिश से होजई, कछार, दरांग, नगांव, विश्वनाथ और दीमा हसाओ ज़िले बुरी तरह चपेट में आए हैं। हालांकि राज्य के बहुत सारे क्षेत्रों से बाढ़ का पानी अब निकलने लगा है लेकिन नगांव ज़िले का हज़ारों हेक्टेयर ज़मीन अब भी जलमग्न है। गांव के लोग, ख़ासकर औरतें शौच से निवृत होने के लिए सूखी ज़मीन की तलाश में परेशान हैं। और यदि उन्हें शौच के लिए सूखी ज़मीन मिल भी जाती है तो पानी की कमी के कारण उन्हें बाढ़ का पानी ही सफ़ाई के लिए इस्तेमाल में लाना पड़ता है। खुले में शौच करना न केवल शर्मनाक है बल्कि इससे महिलाओं को यौन हिंसा के खतरे का भी सामना करना पड़ता है।

कभी-कभी महिलाएं उन लोगों से शौचालय इस्तेमाल करने देने की मांग करती हैं जिनके घर में ही शौचालय बना है। लेकिन यह तरीक़ा भी हमेशा कारगर नहीं होता है। महिलाओं का कहना है कि शौचालय तक उनकी पहुंच की कमी और बहुत लम्बे समय तक मल को रोक कर रखने के कारण उनकी शौच की इच्छा कम हो रही है नतीजतन उन्हें कब्ज की शिकायत रहती है।

शाहिदा का कहना है कि “मेरे कमर का दर्द पहले से भी अधिक बढ़ गया है। मुझे घर के कामों और शौच के बाद के इस्तेमाल वाला पानी लाने के लिए कम से कम 1.5–2 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। हमारी प्राथमिकता यह होती है कि हम शौच का पानी भी घर के कामों के लिए बचा लें।” ऐसी ही बातें कई अन्य महिलाओं ने भी कही।

सलमा* ने हमें बताया कि “मासिक धर्म से गुजर रही महिलाओं के लिए यह स्थिति और बदतर हो जाती है। हमें इस दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले कपड़े को धोने के लिए भी पानी नहीं मिलता है। हम पूरा दिन इसे इस्तेमाल करते हैं और फिर फेंक देते हैं। एक बार इस्तेमाल किए जाने वाले पैड ख़रीदने के पैसे हमारे पास नहीं होते।”

इन औरतों का जीवन हमेशा से ही मुश्किल रहा है लेकिन आपदा और विस्थापन बुनियादी स्वास्थ्य और सफ़ाई की सुविधाओं की बदतर स्थिति को उजागर कर रहे हैं।

*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिया गया है। 

गीता लामा सेव द चिल्ड्रन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया पोर्टफ़ोलियो के प्रबंधन का काम करती है।

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अधिक जानें: जानें कि असम के बाढ़-पीड़ित इलाक़ों के किसान सड़ा हुआ अनाज क्यों खा रहे हैं।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उनका सहयोग करने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

आईडीआर इंटरव्यूज । सुषमा अयंगर

सुषमा अयंगर एक सामाजिक कार्यकर्ता और कच्छ महिला विकास संगठन (केएमवीएस) की संस्थापक हैं। केएमवीएस महिलाओं को इस तरह से सक्षम बनाने पर काम करता है कि वे अपने गांव समुदाय और क्षेत्रीय विकास से जुड़ी पहलों में पूरे आत्मविश्वास के साथ शामिल हो सकें और फ़ैसले लेने में अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकें।

बीते तीन दशकों से सुषमा देश भर में लैंगिक न्याय, लोक संस्कृति, पारंपरिक आजीविका, स्थानीय शासन और आपदा पुनर्वास के क्षेत्रों में बड़े बदलाव लाने वाले कार्यक्रमों का नेतृत्व कर रही हैं। सुषमा ने ज़मीनी स्तर पर कई तरह के अभियान चलाए और उन्हें आगे बढ़ाया है। इसमें कच्छ नव निर्माण अभियान जो कि नागरिक संगठनों का एक ज़िला-स्तरीय नेटवर्क है और शिल्पकारों के लिए बनाया गया ख़मीर नाम का मंच भी शामिल हैं। सुषमा ने पिक्चर दिस! पेंटिंग द विमेंस मूवमेंटनाम की एक किताब भी लिखी है।

आईडीआर के साथ अपनी इस खास बातचीत में उन्होंने भारत में नारीवादी आंदोलन के विकास के बारे में बात की है और बताया है कि कैसे इस आंदोलन ने उन्हें कच्छ के सूखा-ग्रस्त इलाक़ों में महिलाओं के साथ काम करने के लिए प्रेरित किया। साथ ही वे इस बात का भी जिक्र करती हैं कि महिलाओं की लैंगिक भूमिकाओं और पितृसत्ता को चुनौती देने वाली योजनाएं क्यों जरूरी हैं। इसके अलावा, वे यह भी समझाती हैं कि एसएचजी (स्व-सहायता समूह) आंदोलनों के आंकड़ा केंद्रित होने के चलते कैसे महिलाओं का सशक्तिकरण अधूरा रह गया है।

जीवन के शुरुआती दौर में आपको किन चीजों ने प्रभावित किया?

मेरा जन्म और पालन-पोषण गुजरात के बड़ौदा ज़िले में हुआ। आज़ादी के तुरंत बाद ही मेरे माता-पिता रहने के लिए शहर में आ गए। मेरे पिता एक माइक्रोबायआलॉजिस्ट थे और उन्होंने बड़ौदा में यहां के शुरूआती पेनिसिलिन संयंत्रों में से एक के साथ अपना काम शुरू कर दिया।

बेशक मेरा बचपन मेरे माता-पिता से बहुत प्रभावित रहा लेकिन इस पर बड़ौदा के सांस्कृतिक परिवेश का भी असर हुआ। ये मेरा सौभाग्य था कि बहुत कम उम्र से ही मुझे ये अनुभव मिलते रहे। मेरे पिता एक सहृदय व्यक्ति थे और उन्होंने मेरी दुनिया को ढ़ेर सारी किताबों और दिमाग़ी कसरतों से भर दिया था। उन्होंने ही मेरे अंदर जिज्ञासा और सवाल पूछने की आदत विकसित की। दूसरी तरफ़ मेरी मां थीं जो हमारे परिवार की ‘कर्ताधर्ता’ थीं। वे एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने हर काम का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया था और वो कभी भी किसी काम के लिए ना कहना नहीं जानती थीं। मेरे जीवन में आई वह पहली नारीवादी थीं लेकिन उन्होंने कभी सार्वजनिक जीवन में कदम नहीं रखा।

मां ने ही मेरा और मेरी बहनों का दाख़िला हमारे भाई के साथ लड़कों वाले स्कूल में करवाया। वे हमें मिशनरी स्कूलों वाली शिक्षा देने के ख़िलाफ़ थीं। उनका मानना था कि उन स्कूलों में लड़कियों को अधिक ‘लड़की’ होने का प्रशिक्षण दिया जाता है। पीछे मुड़कर देखने पर मुझे लगता है कि लड़कों के स्कूल में हुई पढ़ाई ने ही मुझे आगे चलकर महिलाओं और पुरुषों दोनों से जुड़े लैंगिक मुद्दों पर काम करने के लिए प्रेरित किया।

मेरे जीवन पर बड़ौदा का भी बहुत गहरा असर है। 1960 और 70 के दशक में यह विश्वविद्यालयों वाला शहर हुआ करता था। पूरे देश के छात्र, कलाकार और अकादमिक दुनिया के लोगों का यहां जमावड़ा रहता था। जब मैं बड़ी हो रही थी तब सर्दी के मौसम में लगभग हर दिन कॉन्सर्ट, कविता-पाठ और नाटक होता था।

कॉलेज में मैंने अंग्रेज़ी साहित्य चुना और उसके बाद साहित्य और अर्थशास्त्र में मैंने एमए किया। इस समय तक मैं इस साहित्य और किताबों की दुनिया में रहते हुए बेचैनी महसूस करने लगी थी। मुझे ऐसा लगता था जैसे ‘बाहर की दुनिया’ से अलग मैं किसी दूसरी दुनिया में जी रही हूं। यह 1970 और 80 के दशक का शुरुआती दौर था और भारत की राजनीति में भारी उथल-पुथल हो रही थी। आपातकाल, जयप्रकाश नारायण आंदोलन, जॉर्ज फर्नांडिस बड़ौदा डायनामाइट विस्फोटऐसा लग रहा था जैसे पूरा देश किसी न किसी मुद्दे पर उबल रहा था। युवा वर्ग कुछ नया ढूंढ रहा था और सड़कों पर उतर आया था। लगभग उसी समय भारत में नारीवादी आंदोलन भी शुरू हो चुका था जो महिलाओं के ‘कल्याण’, ‘उत्थान’ और ‘विकास’ से अलग महिलाओं की पहचान, उनके अधिकार और समाज में उनकी स्थिति और जगह की तरफ़ ध्यान देने की बात कह रहा था।

सामाजिक कार्यकर्ता और कच्छ महिला विकास संगठन की संस्थापक सुषमा अयंगर का चित्रण-महिला सशक्तिकरण
चित्रण: आदित्य कृष्णमूर्ति

मैं स्वयं भी राजनीतिक रूप से जागृत एक ऐसे इंसान में बदल रही थी जो सामाजिक गतिविधियों में सक्रियता से भाग लेने के लिए बेचैन थी। साहित्य के प्रति अपने प्रेम और मेरी बढ़ती सामाजिक-राजनीतिक रुचि के बीच की खींचातानी में मैंने पाया कि राजनीतिक पत्रकार बनकर मैं साहित्य से एक्टिविज्म की ओर बढ़ सकती हूं। इसलिए अपने जीवन के अगले ढाई वर्ष मैंने अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में बिताए और वहां डेवलपमेंट कम्यूनिकेशन विषय में मास्टर्स की पढ़ाई की।

एक बार मैं वहां पहुंच गई तो मैंने डेवलपमेंट कम्युनिकेशन की पढ़ाई के अलावा सब कुछ किया। ऐसा पहली बार हो रहा था कि मैं दुनियाभर से आए छात्रों से बात कर रही थी। इस पूरी प्रक्रिया ने मुझे अलग-अलग नज़रियों और वामपंथ समेत अन्य विचारधाराओं से अवगत कराया। इन्हीं दिनों में मुझे ब्राज़ील के शिक्षक पाओलो फ़्रेयर के सिद्धांत के बारे में पता लगा था। उस समय तक मैंने गांधी, अम्बेडकर और विनोबा भावे के कामों के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ लिया था। लेकिन यह फ्रेयर थे जिनके तरीकों ने मुझे प्रभावित किया और आने वाले समय में महिलाओं और ग्रामीण समुदायों के लिए किए जाने वाले मेरे कामों के लिए मुझे तैयार किया। 

भारत और पाकिस्तान की सीमा पर स्थित कच्छ में काम करने की प्रेरणा आपको कैसे मिली?

दरअसल अपने अमेरिका प्रवास के दिनों में ही मुझे अहसास हो गया था कि मैं भारत की ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करना चाहती हूं। पढ़ाई पूरी करके वापस लौटने के बाद मैं सोच रही थी कि अब मुझे क्या करना है और उसकी शुरूआत कैसे की जा सकती हैं। इसी दौरान मैं सेवा की संस्थापक इलाबेन (भट्ट) का इंटरव्यू लेने अहमदाबाद गई थी। इसी यात्रा में मेरी मुलाक़ात जनविकास के संस्थापकों फिरोज़ कांट्रैक्टर और गगन सेठी से हुई। जनविकास ने हाल ही में भारत के गांवों में जाकर काम करने वाले पेशेवर युवाओं की मदद करने वाले एक सुविधाजनक मंच के रूप में अपना काम शुरू किया था। फिर वे कच्छ जाने और 1989 में कच्छ महिला विकास संगठन की नींव डालने वाले सहायक बन गए। केएमवीएस ने अपना पूरा ध्यान कच्छ की शहरी और ग्रामीण महिलाओं को स्थानीय समूहों में संगठित करने पर केंद्रित किया ताकि वे अपने जीवन, समुदायों और अन्य क्षेत्रों से जुड़े मुद्दों को पहचानने और उनके समाधान में सक्षम हो सकें। 

1980 के दशक में भारत तेज़ी से बदल रहा था। दिल्ली स्थित जागोरी और सहेली जैसे महिला संगठनों ने अपने रचनात्मक अभियानों, प्रशिक्षण और संसाधनों के वितरण के ज़रिए महिलाओं को जागरुक करना शुरू कर दिया था। वहीं गुजरात में सेवा ने पहले से ही अनौपचारिक क्षेत्रों में ट्रेड यूनियनों और सहकारी समितियों के साथ मिलकर महिलाओं के साथ काम करना शुरू कर दिया था और ग्रामीण समूहों का निर्माण कर रहा था।

भारत में पहली बार राजस्थान सरकार ने डबल्यूडीपी नाम से महिलाओं के विकास के लिए एक कार्यक्रम की शुरुआत की थी। इस कार्यक्रम में ग्रामीण महिलाओं को उनसे संबंधित मुद्दों पर संगठित किया जाता था। नारीवाद और ग्रामीण सशक्तिकरण से जुड़ने का यह बहुत अच्छा समय था। हालांकि मैंने ऐसा महसूस किया कि महिलाओं से जुड़े मुद्दों का अब भी ग्रामीण विकास के गम्भीर मुद्दों में शामिल होना बाक़ी था। मैं इसी मुद्दे पर काम करना चाहती थी और इसे विस्तार से जानना और समझना चाहती थी।

1985 से 1988 तक लगातार पड़ने वाले सूखे के कारण कच्छ के लोग भारी संख्या में पलायन कर रहे थे और केवल महिलाएं पीछे छूट गई थीं। हालांकि उस समय इस इलाक़े में कई कल्याणकारी संस्थाएं अपना काम कर रही थीं लेकिन सामुदायिक सशक्तिकरण, ख़ासतौर पर महिलाओं के मामले में उनका कोई काम दिखाई नहीं दे रहा था। कच्छ ने मुझे कई तरह से इसके संकेत दिए और मैंने उन संकेतों को समझ लिया।

कच्छ में महिलाओं के साथ आपने किस तरह के काम किए?

कच्छ में सूखा पड़ते रहने के कारण आप अक्सर ही महिलाओं को सूखा राहत वाले इलाक़ों में कड़ी मेहनत करते देख सकते हैं। न्यूनतम मज़दूरी पर ये औरतें कड़ी धूप में बेकार के गड्ढे खोदती रहती हैं। इन्हीं दिनों सूखा राहत कार्यक्रम के तहत सरकारी हस्तशिल्प निगम ने कच्छ की स्थानीय शिल्प में निवेश करना और उसकी ख़रीद शुरू कर दी थी। ये सभी उत्पाद कच्छ की औरतें बनाती थीं। जहां एक तरफ़ कच्छ के इन कशीदों वाले उत्पाद की मांग और आपूर्ति की एक बड़ी ऋंखला तैयार हो गई थीं वहीं इनका नियंत्रण बिचौलियों के हाथों में आ गया था। ये सभी बिचौलिए पुरुष ही थे नतीजतन औरतों को उनके श्रम के लिए न के बराबर पैसे मिलते थे।

केएमवीएस में हमें इस बात का अहसास हुआ कि महिलाओं को जल स्त्रोतों और उनकी भूवैज्ञानिक स्थिति का गहरा ज्ञान है।

इससे भी अधिक जल संकट उनकी इस विकट स्थिति का मुख्य कारण था। सरकार द्वारा ट्यूब वेल के माध्यम से जल के मुख्य स्त्रोत से 120 किलोमीटर दूर स्थित गांवों तक पानी पहुंचाने के प्रयास के बावजूद पारम्परिक जल-स्त्रोत अस्त-व्यस्त स्थिति में थे। इस क्षेत्र के पुरुष अपने मवेशियों के साथ पलायन कर रहे थे और जीवन चलाने का बोझ अब पूरी तरह से औरतों पर आ चुका था। फिर भी समाधान के लिए कोई भी इस इलाक़े के लोगों के पास नहीं जा रहा था और महिलाओं के पास तो बिल्कुल भी नहीं। केएमवीएस में हमें जल्द ही इस बात का अहसास हो गया कि इलाक़ों की औरतों को जल स्त्रोतों और उनकी भूवैज्ञानिक स्थिति का गहरा ज्ञान है। इस समस्या का समाधान निकालने को लेकर औरतें अधिक चिंतित थीं और सरकारी अक्षमताओं और भ्रष्टाचार के विरोध को लेकर पुरुषों की तुलना में अधिक गम्भीर थीं। इस तरह पानी वह मुख्य मुद्दा बन गया जिसके इर्द-गिर्द पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों को लाया गया।

यहां पर एक बात का ज़िक्र करना बहुत ज़रूरी है कि हम लोगों ने जिन समुदायों के साथ मिलकर काम शुरू किया था, उनमें से कुछ समुदायों की औरतों को अपने घर के आंगन से बाहर निकलने तक की अनुमति नहीं थी। ऐसे में महिलाओं के लिए यह समझाना आसान था कि क्यों उन्हें कम मेहनताना मिलता है, क्यों अपने बनाए उत्पादों के लिए पहचान नहीं मिलती लेकिन अपने स्वास्थ्य, ख़ासकर प्रजनन से जुड़े मामलों में वे चुप ही रहतीं थीं। 

फिर ऐसे में कोई शुरूआत कहां से करेगा? संगठनों ख़ासकर उनकी महिला सदस्यों से हमारी बातचीत में हमने सीखा कि अपने घर-परिवार में पितृसत्ता के मुद्दों को सामने लाने के लिए पहले महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में आना होगा, मिलकर पूरे गांव को प्रभावित करने वाले मुद्दों को उठाना होगा और पुरुषों के आधिपत्य का मुक़ाबला करना होगा।

बदलाव की इस प्रक्रिया को शुरू करने से पहले एक ऐसी जगह बनानी ज़रूरी थी जहां सभी महिलाएं इकट्ठी होकर अपनी मुश्किलों और चुनौतियों पर बात कर सकें। इस तरह सामूहिक प्रयासों, सोच-विचार और खुद से पहचान के लिए एक जगह के रूप में महिला संगठन का जन्म हुआ।

पुरुषों ने महिलाओं के सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करने या उनके कोई सार्वजनिक भूमिका निभाने का विरोध किया।

कोई काम करने और फिर उस पर सोच-विचार करने की वह प्रक्रिया, जिससे हमारी समझ बनती है, ने महिलाओं को उनकी सामाजिक हैसियत का अंदाज़ा लगाने में मदद की। इससे महिलाएं यह समझने लग गईं कि उन्हें कैसे और क्यों दबाया जाता है। हालांकि साथ आने का मतलब हमेशा ही समस्याओं के हल खोजना नहीं था। महिला मंडलों और संगठनों ने औरतों को मौक़ा दिया कि वे अपने जीवन और अपनी बदलती दुनिया के बारे में एक-दूसरे से बातचीत कर सकें, एक साथ नाच-गा सकें, ठहाके लगा सकें, बहस कर सकें, आपस में लड़ सकें, अपनी असहमतियों को व्यक्त कर सकें और एक नई पहचान बना सकें। इस पूरी प्रक्रिया में हम सभी के बीच दोस्ती के कई रिश्ते बने। सबसे ज़रूरी बात कि जब मैं कच्छ की औरतों के जीवन का हिस्सा बनने की कोशिश कर रही थी तब मैंने उन्हें भी अपनी अंदरूनी दुनिया का हिस्सा बनने दिया। जब तक आप खुद नहीं खुलते हैं तब तक आप किसी समूह से खुलने और अपनी बातें साझा करने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।

मौज-मस्ती से भरे कई लंबे सत्रों के बाद औरतों ने धीरे-धीरे महिलाओं और पुरुषों और उनकी लैंगिक भूमिकाओं को एक बदल सकने वाली सामाजिक संरचना के रूप में पहचानना शुरू किया। अपनी परिस्थितियों और फैसलों पर सोच-विचार करने के दौरान हमने यह समझने की कोशिश की कि किसी स्थिति विशेष में हमने एक ख़ास तरीक़े से ही व्यवहार क्यों किया होगा। यहां पर सभी को सीखना था कि उन्हें तय सामाजिक पैमानों के मुताबिक़ न तो महसूस करना है, न ही सोचना है और न ही वैसा होना है जैसा होने की उम्मीद उनसे की जाती है।

निश्चित रूप से इसका विरोध भी हुआ। समुदाय के पुरुष सदस्यों ने महिलाओं के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने या सार्वजनिक भूमिका निभाने का विरोध किया। मुझे 1990 के दशक के शुरुआती दिन याद आ रहे हैं जब एक गांव की महिलाएं 40 वर्षों से बंद पड़े एक जल-निकाय को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही थीं। तब गांव के पुरुष नेताओं ने उन महिलाओं पर मुक़दमा दायर कर दिया और अदालत में यह दावा किया कि जल निकाय वाली ज़मीन उन में से ही एक की है। यह महिलाओं के लिए एक यादगार पल बन गया। पुरुषों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि पहले उन्हें घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी लेकिन अब इन पुरुषों के कारण वे अदालत तक पहुंच चुकी हैं। आख़िरकार अपने चैंबर में महिलाओं के एक समूह से मिलने के बाद चौंका देने वाला फ़ैसला सुनाते हुए जज ने अदालत के बाहर समझौता करने का आदेश दिया जो कि महिलाओं के पक्ष में गया।

जब से आपने काम शुरू किया था तब से लेकर आज तक महिलाओं के आंदोलन की विकास यात्रा के बारे में हमें बताइए?

जब मैंने महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया तब तक ग्रामीण मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के महिला समूहों ने आकार लेना शुरू कर दिया था। ऐसी हज़ारों-लाखों अपरिचित महिलाओं के साथ मिलकर एक नया भविष्य बनाने की साझी कोशिश का भाव अभिभूत करने वाला था।महिला समूहों के बढ़ते प्रभाव ने सरकारों, दानकर्ताओं और नागरिक संगठनों में ख़ासा जोश भर दिया था। इनके कारगर होने के चलते इन समूहों की संख्या बढ़ाना और उन्हें औपचारिक रूप देना ज़रूरी हो गया। इस तरह स्व-सहायता समूहों को तरक्की मिलना शुरू हो गई।

एसएचजी आंदोलन के साथ, लोगों का अधिक ध्यान महिलाओं को समझदार बनाने से हटकर अब आंकड़ों और ठोस आर्थिक उपलब्धियों पर जाने लगा था। कई एसएचजी इन मामलों में काफी सफल भी रहे लेकिन इन महिला आंदोलनों के केंद्र में अब कहीं न कहीं केवल आर्थिक बदलाव ही था। एसएचजी ने महिलाओं को ग़रीबी से निकालने में तो मदद की लेकिन ये सामाजिक-आर्थिक ढांचे में उनकी लैंगिक स्थिति को बदलने में उतने कारगर नहीं रहे। 1980 और 90 के दशक के महिला आंदोलनों में बदलाव की जिन प्रक्रियाओं में निवेश किया गया, महिला सशक्तिकरण के लिहाज़ से देखें तो ये सफल नहीं रहीं। इस तरह ‘महिला सशक्तिकरण’ शब्द तो प्रचलित हो गया लेकिन अब इसे एक संकीर्ण विचार की तरह देखा जाने लगा है। मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे महिलाओं के आंदोलन की आत्मा गुम हो चुकी है।

इसके अलावा, तमाम योजनाओं में महिलाओं को किसी सजावट की तरह इस्तेमाल किया जाता हैमुझे मालूम है मैं आंदोलन का मज़ाक़ सा उड़ा रही हूंलेकिन अक्सर मुझे ऐसा लगता है जैसे सशक्तिकरण का ठेका महिलाओं को ही दे दिया गया है। लैंगिक भूमिकाएं हों या सामाजिक बदलाव, पुरुष अक्सर जिम्मदारियों से मुक्त नज़र आते हैं। मैं अभी तक नहीं समझ पाई हूं कि एसएचजी जो कि आजीविका सृजन का एक साधन भर हैवह महिलाओं को संगठित कर काम करने वाला एक ख़ास सामुदायिक संस्थान कैसे बन गया? हमारे पास पुरुषों के लिए भी एसएचजी क्यों नहीं है?

मुझे जो सकारात्मक बदलाव दिखाई दे रहा है वो यह है कि स्थानीय स्वशासन को अनिवार्य करने वाले 73वें संशोधन ने पिछले दो दशकों में महिलाओं की स्थिति बदलने में मुख्य भूमिका निभाई है। स्थानीय शासन के मामले में गांव और शहर, दोनों जगह महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी उल्लेखनीय रही है।

एक बात जो मैं अक्सर खुद से और युवाओं से कहती हूं वह यह है कि हमारे सामने चाहे कितना भी अंधेरा क्यों हो, हमें बस इतना देखना है कि वह कहीं से हमारे भीतर न जाने पाए।

जैसे-जैसे और जितनी महिलाओं ने सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी जगह बनाई है, उतना ही उनके लिए समाज का विरोध तेज होता गया है। इसे समझने के लिए जगह, नस्ल, धर्म, जाति और उम्र से परे महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली यौन हिंसा के क्रूरतम होते स्वरूप को देखिए। इसका एक बड़ा उदाहरण कर्नाटक में हिजाब पर लगाया गया प्रतिबंध और इसके कारण महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा है।

पिछले दो दशकों में होने वाले महिला आंदोलनों द्वारा हासिल उपलब्धियों और उसकी प्रगति के बारे में आज जब मैं सोचती हूं तो मुझे दो बड़े बदलाव नज़र आते हैं। पहला, ज़्यादातर महिलाओं के समूह और विशेष रूप से एसएचजी केवल आर्थिक परिवर्तन का साधन भर बन चुके हैं। दूसरा, हमारे समाज में साम्प्रदायिक नफ़रत का बढ़ना, महिलाओं के आंदोलनों की उन संभावनाओं को ख़त्म कर रहा है जो उन्हें जाति, वर्ग, लिंग या धार्मिक विश्वासों से परे एक बनाती थीं।

विकास के क्षेत्र में पहले से काम कर रहे युवाओं या काम शुरू करने वाले लोगों के लिए आपका क्या संदेश है?

हर दौर की अपनी चुनौतियां होती हैं। उदाहरण के लिए आज हमारे सामने कट्टरता सबसे बड़ी चुनौती है, यह एक ऐसी चीज़ है जिसका सामना हमने इससे पहले कभी नहीं किया था। इसलिए मैं अपना कोई वास्तविक अनुभव नहीं बता सकती हूं। और, मैं अपनी कही बातों को सलाह की बजाय हमारे और हमारे समय की विवेचना की तरह देखती हूं।

हर दिन मैं खुद से और अक्सर युवाओं से भी एक ही बात कहती हूं कि हमारे सामने चाहे कितना भी अंधेरा क्यों न हो हमें बस ये देखना है कि यह हमारे भीतर ना जाने पाए। एक बार अगर ये अंधेरा हमारे भीतर घर कर ले तो सब ख़त्म हो जाता है। इससे बचने के लिए हमें अंदर से बदलते रहना होगा और लगातार अपने अनुभव, विश्वास और प्रेरणा को बनाए रखना होगा। हमारे क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादातर लोगों का ध्यान अक्सर बाहरी बदलावों पर इतना केंद्रित होता है कि हम अपने भीतर टटोलना भूल जाते हैं। यहां काम करते हुए अपना सबसे बेहतरीन काम पूरे समर्पण से करते रहने के लिए, हौसला बनाए रखने के लिए और हर तरह के दमन, दबदबे और अन्याय का विरोध करते रहने के लिए लोगों को खुद पर भरोसा रखना चाहिए। इसके लिए हर पल अपने आप के प्रति जागरुक रहने की आदत डालनी होगी।

मुझे लगता है कि हम में से हर एक को आज बढ़ रही असहिष्णुता और नफ़रत का विरोध करने और अपनी गतिविधियों और सोच में अहिंसा की भावना को दोबारा शामिल करना ज़रूरी है।

मैं जिन युवाओं से बात करती हूं, उनमें से ज्यादातर मुझे बताते हैं कि वे किस तरह के दबावों का सामना कर रहे हैं। वे कुछ बड़ा और प्रभावशाली करना चाहते हैं जिससे सोशल मीडिया पर हर दिन अपनी उपलब्धियों के बारे में बता सकें। यह भावना लगातार उनके अंदर एक बेचैनी और कमतर होने का एहसास बनाए रखती है।

इसलिए मैं यहां जो बताना चाहती हूं वो यह है: हमें छोटे-मोटे कामों को करने में झिझक नहीं महसूस करना चाहिए। छोटी चीज़ें सुंदर होती हैं। अगर हम अपने भीतर छोटी-छोटी बातों और ख़्वाहिशों को ज़िंदा रखते हैं तो हमारा दिल बड़ा होता जाता है। इससे हममें बड़प्पन आता है और हम बेहतर इंसान बनते हैं। हमें खुद को याद दिलाते रहना होगा कि बड़ा बदलाव छोटी-छोटी कोशिशों के चलते ही आता है।

लेकिन जब हम बड़ा बनने की इच्छा के दबाव में आ जाते हैं तो हम उतने सहृदय नहीं रह जाते हैं।

मुझे यह भी लगता है कि बतौर नागरिक संगठन हम इस सामूहिक जड़ता से निकलने के लिए अभी जितना काम कर रहे हैं उससे अधिक करने की ज़रूरत है। हमें पहले से हो रहे काम से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। शायद हमें कुछ कदम पीछे जाने की ज़रूरत है, नई तरह से सोचने की और उन युवा प्रतिभाओं से जुड़ने की जो गांवों, क़स्बों, शहरों की बस्तियों, विश्वविद्यालयों में हैं। अपना आगे का रास्ता बनाने के लिए हमें वंचित से लेकर सबसे संपन्न लोगों तक सबको अपने साथ लाने की ज़रूरत है।

अगर आज हम अपने समाज में मूल्यों को आगे बढ़ाने वाले नहीं बनते हैं तो भविष्य में पछताएंगे। मुझे लगता है हम सभी को आज बढ़ती असहिष्णुता औऱ नफ़रत का विरोध करना चाहिए और अपने काम करने के तरीक़े और सोच में अहिंसा के विचार को वापस लाना चाहिए। अहिंसा और कुछ नहीं बस प्रेम का होना भर हैजहां प्रेम होगा वहां हिंसा नहीं होगी। 

सभ्यताओं ने बदलाव के कई ऐसे दौर देखे हैं जब निराशा और अंधकार हावी हो गए। लेकिन शायद यह अंधेरा घिरता इसलिए है ताकि हम दरारों से आने वाली रोशनी देख सकें।

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युवाओं की ज़रूरतों को नहीं, उनकी इच्छाओं को समझना

भारत के पास दुनिया भर के कुल युवाओं का पांचवां हिस्सा है और इसके साथ ही दुनिया का सबसे बड़ा युवा कार्यबल भी है। कामकाज के लायक़ युवाओं की इतनी बड़ी संख्या को काम पर लगाने के लिए देश को बड़े स्तर पर रोज़गार के अवसर पैदा करने की जरूरत है। इससे भी अधिक ज़रूरी इस पीढ़ी की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं पर आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और स्थिति के अनुसार नज़रिया रखकर विचार करना है।

आर्थिक आत्म निर्भरता से स्वतंत्रता और स्वाभिमान आता है

आज के युवाओं के लिए धन कमाना और इससे मिलने वाली आर्थिक स्वतंत्रता एक बड़ी बात है—इससे इन्हें अपने जीवन से जुड़े फ़ैसले लेने का अधिकार और आज़ादी मिलती है। महिलाओं के लिए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि आर्थिक रूप से सक्षम होने पर वे शादी और बच्चे पैदा करने जैसे फ़ैसलों को लेकर अपने परिवार से बातचीत कर सकती हैं। इसके साथ ही व्यक्तिगत और पेशेगत स्थितियों में कुछ हद तक अपनी शक्ति और प्रभाव का इस्तेमाल कर सकती हैं।

पैसे कमाने को सम्मान और तरक्की का साधन भी माना जाता है। जब कोई युवा कमाई करने लगता है तो वह अपने आप ही परिवार के अन्य सदस्यों के सम्मान और विश्वास का पात्र बन जाता है।

आज युवा के लिए पैसे कमाना एक शुरूआत भर है। इसके अलावा तमाम ऐसी वजहें हैं जिन्हें ध्यान में रखकर युवा वर्ग कामकाज के मौक़े खोजता या करियर के विकल्प चुनता है।

युवा क्या चाहते हैं?

1. युवा अपने घर के नज़दीक उपलब्ध अवसरों का चुनाव कर रहे हैं

बड़े पैमाने पर युवाओं को यह अहसास होने लगा है कि रोज़गार के लिए किसी बड़े शहर में बसने से उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर खर्च हो जाता है। इसके कारण उनके पास बचत करने या भविष्य के लिए निवेश करने के नाम पर बहुत थोड़ा कुछ ही बच पाता है। भारत के किसी शहर में काम करते हुए यदि उनकी मासिक आय 8,000–10,000 रुपए भी होती है तब भी उन्हें लगभग दिहाड़ी मज़दूरों जैसा जीवन जीना पड़ता है।

वहीं, बड़े शहरों के विस्तार के बाद या गांव से शहर में विकसित हो रहे (पेरी-अर्बन) इलाक़ों में मिलने वाला वेतन शहरों के मुक़ाबले उतना कम भी नहीं होता है। इन क्षेत्रों में रिटेल और सर्विस सेक्टर से जुड़ी नौकरियों में लगभग बराबर ही पैसे मिलते हैं। टियर-I और टियर-III शहरों में काम करने वाले युवा महीने में 6,000–8,000 रुपए कमाते हैं, वे अपने गांव के नज़दीक रहते हैं और रहन-सहन पर कम खर्च होने के कारण अच्छी बचत कर लेते हैं। इसलिए हम युवाओं के एक बड़े तबके को पेरी-अर्बन इलाकों की ओर रुख़ करते देख रहे हैं। पेरी-अर्बन इलाक़े, न तो शहरी हैं और न ही पूरी तरह से ग्रामीण बल्कि ये वो इलाक़े हैं जहां रोज़गार के नए अवसर बढ़ रहे हैं।

हम देख रहे हैं कि पेरी-अर्बन इलाक़ों में जहां रोज़गार के मौक़े बढ़ रहे हैं, वहीं शहरी क्षेत्र अब भी पहले से मौजूद उद्यमों का मुख्य केंद्र है। उन्हीं के विस्तार का काम पेरी-अर्बन इलाक़ों में हो रहा है। कोविड-19 महामारी से पहले डोमिनोज, सबवे और पिज़्ज़ा हट जैसे वैश्विक फ़ूड चेन और रिलायंस, वेस्टसाइड और डीमार्ट जैसे रिटेल ब्रांड्स ने भी इन इलाक़ों में अपनी शाखाएं शुरू कर दीं थीं। पेरी-अर्बन इलाक़ों में उपलब्ध मौक़ों और बेहतर जीवन की चाह के चलते युवा इन इलाक़ों को तवज्जो देने लगे हैं।

ज़रूरी नहीं है कि छात्र अपने जीवन में जो करना चाहते हों वह उपलब्ध रोज़गार से जुड़ा हुआ ही हो।

महामारी ने युवाओं के चयन की जटिलता को थोड़ा और बढ़ा दिया है। परिवार के लोग सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अब अपने बच्चों को नौकरी के लिए बहुत दूर नहीं जाने देना चाहते हैं। महामारी के दिनों में तकनीक के क्षेत्र में मांग बढ़ने के कारण इलेक्ट्रॉनिक्स एसेंबली से संबंधित नौकरियों में उल्लेखनीय तेज़ी आई। इससे ख़ासकर मैन्युफ़ैक्चरिंग के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त आईटीआई छात्रों के लिए रोज़गार के बढ़िया मौके पैदा हुए हैं। हालांकि यह मौक़े उन कारख़ानों में है जो औद्योगिक केंद्र बन चुके बड़े शहरों में स्थित हैं। लेकिन उनमें काम करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ेगा जहां अब माता-पिता अपने बच्चों को भेजना नहीं चाहते हैं। इसलिए कम आमदनी के बावजूद माता-पिता उन्हें इस तरह की नौकरियां करने के लिए हतोत्साहित करते हैं। नतीजतन, एक तरह के विरोधाभास की स्थिति बनने लगी है।

2. पहली नौकरी मनचाहे करियर के लिए एक नींव भर है

ज्यादातर संगठन जो युवाओं को किसी काम में कुशल बनाने का कार्य करते हैं, वे नौकरी ढूंढने पर केंद्रित होते हैं। लेकिन ज़रूरी नहीं है कि छात्र अपने जीवन में जो करना चाहता है, वह उपलब्ध रोज़गार के मौक़ों से ही संबंधित हो।

उदाहरण के लिए, अगर सर्विस या मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में नौकरियां उपलब्ध हैं तो युवा इन नौकरियों को अपने मनचाहे करियर तक पहुंचने का आधार बना लेते हैं। अक्सर वे कहते मिल सकते हैं कि ‘मैं नर्स बनना चाहती हूं लेकिन मैं कैफ़े कॉफ़ी डे के इस आउट्लेट में नौकरी करुंगी ताकि पैसे कमा सकूं। ऐसा करते हुए मैं यह सीख सकती हूं कि लोगों से कैसे व्यवहार करना है। मैंने हेल्थकेयर प्रोफेशनल के तौर पर काम करने के लिए पढ़ाई की है और जब तक मैं वह नहीं बना जाती यह काम करती रहूंगी।’ इस तरह पहली नौकरी एक ट्रांज़िशन जॉब है। यह थोड़े पैसे कमाने की शुरूआत भर है जिससे युवा मनचाहे करियर गोल तक पहुंचने के दौरान अपना खर्च उठा सकें और अपने परिवार की मदद कर सकें।

टैबलेट के साथ डेस्क पर बैठा एक लड़का तकनीकी कार्य कर रहा है-युवा नौकरी
युवा और उनका परिवार दोनों ही उनके लिए ऐसे क्षेत्रों में रोज़गार चाहते हैं जहां उन्हें लोगों से मिलने-जुलने की बजाय मशीन और कम्प्यूटर के साथ समय बिताना पड़े। | चित्र साभार: क्वेस्ट अलाइयन्स

3. युवा भावी पीढ़ी के लिए अपना योगदान देना चाहते हैं

बहुत सारे युवाओं के लिए यह गरिमामय और आत्मसम्मान बढ़ाने वाली बात होती है जब वे अपने समुदाय और सीखने की जगहों की मदद करने में सक्षम हो पाते हैं। इसका एक उदाहरण वह छात्र है जो बेकर बन गया और उसने उसी संस्थान में वापस लौटकर सभी नए छात्रों के लिए पेस्ट्री बनाई जहां उसने पढ़ाई की थी। इससे छात्रों को ऐसा महसूस होता है कि वे अपने संस्थान को कुछ वापस लौटा रहे हैं और यह नेकी की श्रृंखला बनाने जैसा है।

वे ऐसा इंसान बनना और दिखना चाहते हैं जो केवल अपने करियर के बारे में ही नहीं बल्कि अपने समुदाय के बारे में भी सोचता है। इसलिए लोग अब ‘अपनी, अपने परिवार, अपने करियर और अपने समुदाय’ वाले विचार के बारे में बात करने लगे हैं। एक संगठन के तौर पर हमें उन पहलुओं को साथ जोड़ने के लिए काम करना चाहिए जिन्हें एक युवा आजीविका तक पहुंचने के अपने सफ़र का हिस्सा मानता है।

4. शहरी युवा अब सरकारी नौकरियों पर उतने निर्भर नहीं है

भारत के गांवों और पेरी-अर्बन क्षेत्रों का युवा सरकारी नौकरियों की परीक्षाओं में सफल होने की आशा के साथ लगभग तीस साल की उम्र तक पढ़ाई में लगा रहता है। लेकिन शहरों में ऐसा कम देखने को मिलता है क्योंकि शहर के युवाओं को ऐसे निजी क्षेत्रों में मौके दिखाई पड़ते हैं जहां पहले से उनके साथी काम कर रहे होते हैं।

इन क्षेत्रों में तरक्की का एक निश्चित क्रम है। खुद युवा और उनके परिवार, दोनों ही उनके लिए ऐसी नौकरियां चाहते हैं जहां उन्हें इंसानों के साथ काम करने के बजाय मशीनों और कम्प्यूटर पर काम करने को मिले। इन क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए कम्प्यूटर पर काम करना सम्मान का एक लगभग नया पैमाना बन चुका है। यदि आप अपने लोगों को यह बताते हैं कि आप कम्प्यूटर पर काम करते हैं तो उनकी नज़रों में आपकी उपलब्धि बड़ी होती है। अब ज़्यादातर लोग वे नौकरियां नहीं करना चाहते हैं जिसमें लोगों से मिलने-जुलने की ज़रूरत पड़े। इन नौकरियों में अधिक ऊर्जावान और बातचीत में माहिर होने की ज़रूरत होती है। यह एक ऐसी योग्यता है जो ज्यादातर लोगों में नहीं होती है।

5. तकनीक ने अपने करियर की राह खोजने के लिए एक अलग माहौल दे दिया है

क्वेस्ट अलाइयन्स में हमने युवाओं को कुछ भी सीखने के लिए तकनीक का उपयोग करते हुए देखा है। तकनीक उन्हें ऐसे कौशलों के चुनाव का विकल्प देती है जिसके बारे में उन्हें दूसरों से पूछने-जानने में हिचकिचाहट हो सकती है। साथ ही इससे वे शिक्षकों, माता-पिता और सहयोगियों से मिल सकने वाली आलोचना से भी बच जाते हैं। तकनीक से उन्हें ऐसी चीजों को सीखने और उनका अभ्यास करने में मदद मिलती है जिन्हें समझना कठिन होता है या जिसके उत्तर मुश्किल होते हैं। हम लोगों ने समय के साथ युवाओं और तकनीक के संबंधों को बदलते देखा है। पहले वे परिवार के सदस्यों के साथ साझा डिवाइस इस्तेमाल करते थे जहां निजता और निगरानी एक प्रमुख मुद्दा था। अब इन युवाओं के पास अपनी डिवाइसेज हैं जिस पर वे नॉलेज और कॉन्टेंट तैयार करते हैं। इतना ही नहीं, इसे वे और लोगों के साथ बांट रहे हैं और इन्फ़्लूएंसर्स बन रहे हैं।

तकनीक के इस्तेमाल में हुई इस बढ़त के कुछ नुक़सान भी हैं। कई क्षेत्रों में ऐसे नए रोज़गार सृजित किए जा रहे हैं जिसमें ग्राहक सम्पर्क और ग्राहक सेवा शामिल होता है। वर्चुअल दुनिया में सम्पर्क करने वाली चीजों के लिए एक कम्प्यूटर, फ़ोन या इंटरनेट नेटवर्क की ज़रूरत होती है। अब भी युवा वर्ग के एक बड़े तबके के पास डिजिटल रूप से जुड़ने का साधन उपलब्ध नहीं है जिसके कारण वे ऐसी नौकरियों तक नहीं पहुंच पाते हैं। आर्थिक और सामाजिक रूप से यह महिलाओं के लिए ख़ासतौर पर मुश्किल है। उनके पास न केवल डिवाइस नहीं होती हैं बल्कि उन्हें परिवार के अविश्वास का भी सामना करना पड़ता है। अमूमन परिवार के सदस्य यह मानते हैं कि औरतों के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करना सुरक्षित नहीं है।

6. युवा वर्ग अस्थायी या अनियमित रूप से मिलने वाला काम नहीं करना चाहता है

कोविड-19 के बाद से लॉजिस्टिक्स, ई-कॉमर्स, लास्ट-माइल डिलीवरी और डोमेस्टिक सपोर्ट जैसे कुछ उद्योगों में वृद्धि देखी गई है। लेकिन युवा अब इस तरह की नौकरियां नहीं करना चाहता है।
 दिलचस्प बात यह है कि गिग इकॉनमी (अस्थायी या फ्रीलांस कामकाज) को युवाओं के सामने ऐसे मौक़ों की तरह रखा जाता है जिससे वे छोटे स्तर के उद्यमी बन सकते हैं। वे अपना स्वयं का व्यवसाय शुरू कर सकते हैं और अगर उनमें संवाद की कला और डिजिटल दुनिया का ज्ञान है तो वे ऑनलाइन प्रतिष्ठा के साथ-साथ ठीक-ठाक पैसा भी कमा सकते हैं। इस तरह के रोज़गारों को एस्पिरेशनल जॉब्स या महत्वाकांक्षी कामकाज के रूप में पेश किया जाता है।

रोज़गार का चयन अब पूरी तरह से आर्थिक फ़ैसला नहीं रह गया है।

ज़्यादातर लोग बहुत अधिक ऊर्जा और उत्साह के साथ अपना कामकाज शुरू करते हैं। जैसे ही एलगोरिदम बनने लगता है वैसे ही उन्हें अपनी आय में कमी आते दिखने लगती है और साथ ही उनके काम पर से उनका नियंत्रण भी कम होने लगता है। उन्हें कुछ विकल्पों के चुनाव के लिए बाध्य किया जाता हैजैसे गाड़ी आदि ख़रीदने के लिए ऋण लेना, काम के घंटे बढ़ाना, अवकाश नहीं लेना क्योंकि इससे उनकी रेटिंग और आय पर असर पड़ सकता है। इन सबके वित्तीय और सामाजिक अर्थ हैं।

अधिकतर लोगों को नौकरी शुरू करते समय इन बातों का ज़रा भी अहसास नहीं होता है। उन्हें आय की बड़ी राशि दिखाकर प्रभावित कर लिया जाता है। लेकिन समय के साथ एलगोरिदम कंट्रोल के कारण उनके जीवन की गुणवत्ता और आय दोनों में कमी आने लगती है। हाल के समय में भी युवाओं ने इस तरह की समस्या को देखा-सुना है। इसके चलते इस तरह की नौकरियां अब उनका पहला चुनाव नहीं होती हैं।

हमें युवाओं की इच्छा नहीं बल्कि उनकी ज़रूरतों को समझने की ज़रूरत है

यह समझने की कोशिश करते हुए कि आज युवा किस तरह से आजीविका का चयन करता है, संस्थाओं और युवाओं के साथ काम करने वाले दानकर्ताओं के लिए यह ज़रूरी है कि वे बदलते परिदृश्य को समझें। हमारे कुछ दानकर्ता पूछते हैं कि युवा बढ़ती आय वाले विकल्पों का चयन क्यों नहीं करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अब नौकरी करना केवल एक आर्थिक निर्णय भर नहीं रह गया है। युवा जानना चाहते हैं कि यह कोई सम्मानित काम है या नहीं, काम का माहौल अच्छा है या नहीं और उनके साथी मददगार हैं या नहीं।

रोज़गार के क्षेत्र में काम करने वाली हमारे जैसी कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने पीछे मुड़कर टटोला कि किन चीजों ने सफलता दिलाई। अगर यह आय में बढ़त से कुछ ज्यादा है तो क्या हमें यह देखने की ज़रूरत है कि युवा अपने लॉन्ग-टर्म करियर गोल तक पहुंच पा रहा है या नहीं? युवाओं के मुताबिक़ उनकी तरक्की पहली नौकरी से नहीं होने वाली है, यह अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को लेकर साफ नज़रिया रखने और उन्हें पूरा करने के लिए विपरीत परिस्थितियों में काम करने से हासिल होगी।

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असम में बाढ़ का नतीजा है भीगे धान और ख़ाली पेट

असम में मई की शुरुआत से ही होने वाली मूसलाधार बारिश के कारण जहां राज्य में एक तरफ़ बाढ़ और भूस्खलन (लैंडस्लाइड) की घटनाएं हो रही हैं वहीं दूसरी तरफ़ तटबंध के टूटने और जलभराव की स्थिति भी पैदा हो गई है। दक्षिण पश्चिम से आने वाला मानसून जून या जुलाई के माह तक असम पहुँच जाता है। हालांकि इस साल मानसून के पहले ही उम्मीद से ज्यादा बारिश हुई। नतीजतन पूरा असम राज्य जलमग्न हो गया। विशेषज्ञों का कहना है कि बारिश की तीव्रता और इसके आगमन के समय में आए बदलाव का कारण जलवायु परिवर्तन है। इससे भी अधिक चिंता वाली बात यह है कि मानसून के समय होने वाली भारी बारिश का आना अब भी बचा हुआ है। 

आमतौर पर बोरो प्रजाति के चावल की पहली रबी फसल अप्रैल और जून महीने के बीच पक कर तैयार होती है। यह समय मानसून से तुरंत पहले का समय होता है। लेकिन इस बार धान की ज़्यादातर फसलों को या तो नुक़सान पहुँचा है या फिर वे पानी में बह गईं। खेतों में बाढ़ का गंदा पानी जमा हो गया और कम से कम 82,000 हेक्टेयर भूमि में खड़ी फसल बर्बाद हो गई। मिट्टी की उपजाऊ ऊपरी परत को नुक़सान पहुँचा है जिसके कारण नई पौध को अपनी जड़ें जमाने में मुश्किल होगी। खेती वाली ज़मीन में आई कमी का सीधा असर असम की आय और खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा जहां के 75 फ़ीसदी लोगों की आजीविका का साधन खेती ही है। 

मैं नगाँव जा रहा हूं जो बाढ़ से सबसे अधिक प्रभावित ज़िलों में से एक है। नगाँव को गुवाहाटी से जोड़ने वाले हाईवे के किनारे लगभग दो किलोमीटर तक सभी खेतों में कटे हुए धान रखे है। फसल अब भी भीगी हुई है और उसमें से सड़ने की बू आ रही है। हम लोग कुछेक किसान परिवारों से बात करने के लिए रुके और उनसे उनकी बर्बाद हुई मेहनत के बारे में पूछा। बचाए गए धान का ज़्यादातर हिस्सा खाने लायक़ नहीं रह गया है और इसे खाने से दस्त जैसी बीमारियां हो सकती हैं।पूछने पर एक किसान ने कहा, “हम जानते हैं कि ऐसा हो सकता है लेकिन हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इसे खाने से कम से कम हमारा पेट भरेगा। इसे बेच नहीं सकते इसलिए हमें ही इसे खाना होगा। भूख से मरने से अच्छा है बीमार होना।” पुरुष, महिलाएँ और बच्चे सभी मिलकर फसल को बचाने के काम में लगे हुए है। बाक़ी सारा काम ठप्प पड़ा हुआ है।

गीता लामा सेव द चिल्ड्रन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया पोर्टफ़ोलियो के प्रबंधन का काम करती है।

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अधिक जानें: मानसून के दौरान असम में आने वाली वार्षिक बाढ़ के बारे में अधिक जानें।

अधिक करें: इस काम के बारे में विस्तार से जानने और उनका समर्थन करने के लिए लेखक से [email protected] पर सम्पर्क करें।

2022 में FCRA: अब तक का सफ़र और उसका असर

विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफ़सीआरए) हमारे देश में स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदानों को नियंत्रित करने वाला कानून है। यह कानून तय करता है कि स्वयंसेवी संस्थाएं कहां से धन प्राप्त कर सकती है, इसका इस्तेमाल कौन कर सकता है और किस तरह के उद्देश्यों के लिए इस धन का उपयोग किया जा सकता है।

1 जनवरी 2022 को यह अधिनियम तब एक बार फिर चर्चा में आ गया जब सरकार ने लगभग 6,000 स्वयंसेवी संस्थाओं का एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिया। यानी, अब ये संस्थाएं विदेशों से आर्थिक मदद नहीं ले सकती थीं। इन संस्थाओं में मदर टेरेसाऽज मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी, ऑक्सफ़ैम इंडिया, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय शामिल हैं। इसके बाद इस फ़ैसले पर नराज़गी की खबरें मीडिया में छाई रहीं, दिग्गज राजनेताओं ने इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रियाएं दीं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसने लोगों का ध्यान खींचा। शायद इसी के चलते इनमें से कुछ संस्थाओं के लाइसेंस फिर से बहाल कर दिए गए।

हम यहां तक कैसे पहुंचे?

2010 में जब एफसीआरए में संशोधन किए गए तो उनमें से एक संशोधन संस्थाओं के लाइसेंस की वैधता से संबंधित था। इससे पहले एफसीआरए के तहत रजिस्टर्ड संस्थाएं अनिश्चित समय तक विदेशों से अनुदान लेने के लिए स्वतंत्र थीं। वहीं, 2010 के संशोधन में प्रावधान किया गया कि इन संस्थाओं को हर पांच साल में अपने लाइसेंस को रिन्यू करवाने की ज़रूरत होगी। इस बदलाव के चलते अब हर पांच साल में लगभग 20,000 संगठनों को अपना एफसीआरए लाइसेंस रिन्यू करवाना पड़ता है।

इस साल भी स्थिति कुछ अलग नहीं थी और लगभग 20,000 आवेदन रिन्यूअल के लिए आए थे। जहां तक हमारी जानकारी है (अपर्याप्त सूचना के कारण) समय सीमा समाप्त होने की वजह से लगभग 6,000 आवेदन रद्द हो गए। इसका मतलब यह हुआ कि यह सरकार नहीं थी जिसने 6,000 संगठनों के लाइसेंस रद्द किए, बल्कि ये वे संस्थाएं ही हो सकती हैं जिन्होंने खुद अपने लाइसेंस रिन्यू न करवाने का फ़ैसला लिया।

अब भी यह स्पष्ट नहीं है कि किन संगठनों के एफसीआरए लाइसेंस रद्द हुए हैं और क्यों।

सरकार द्वारा वास्तव में रद्द किए गए लाइसेंसों की संख्या 179 है। ये वे मामले हैं जिसमें इन संगठनों ने लाइसेंस रिन्यूअल के लिए आवेदन दिए पर इन्हें अनुमति नहीं मिली। एक अंदाज़े के मुताबिक़ इन 179 संस्थाओं में से 83 का लाइसेंस बाद में बहाल कर दिया गया। लेकिन न तो इन आवेदनों को अस्वीकार किए जाने का कोई कारण पता चला है और ना ही बाद में इस फ़ैसले को पलटे जाने का। (डेवलपएड पर संगठनों के एफसीआरए स्टेटस का पता लगाया जा सकता है। यहां पर ‘अप्रूव्डऽ (स्वीकृत), ‘डिनाइडऽ (अस्वीकृत) और ‘ऑन होल्डऽ (रोका गया) से लेकर ‘क्लेरिफिकेशन रिक्वायर्डऽ (स्पष्टीकरण चाहिए), ‘इन प्रोसेसऽ (प्रक्रिया जारी) और ‘अदर्सऽ (अन्य) जैसी श्रेणियों में आवेदनों को बांटा गया है।) फरवरी में लगभग 12,000 संगठन ऐसे थे जिनके आवेदन पर मंत्रालय को एफसीआरए से जुड़ी प्रक्रिया शुरू करनी थी और उनके रजिस्ट्रेशन की तिथि 31 मार्च 2022 तक बढ़ा दी गई थी। इन संगठनों के बारे में साफ किया गया था कि जब तक उन्हें उनकी स्थिति के बारे में सूचित नहीं किया जाता तब तक वे यथावत बने रहेंगे।

दुर्भाग्यवश यह रिपोर्ट लिखे जाने तक स्पष्ट नहीं था कि किन संगठनों के एफसीआरए लाइसेंस रद्द हो चुके हैं और उनके रद्द होने का कारण क्या है।

नतीजा क्या रहा?

एफसीआरए नियमों में बदलाव का तात्कालिक नतीजा यह है कि स्वयंसेवी संस्थाओं पर अनिवार्य नियमों के पालन (कंप्लायंस) का बोझ बहुत बढ़ गया है। सभी स्वयंसेवी संस्थाओं को एफसीआरए, आयकर और अन्य कई नियामक संस्थाओं के नियमों का पालन करना होता है। लेकिन अब बड़े स्तर पर काम करने और पर्याप्त संसाधन वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए भी ऐसा कर पाना और इसका लेखा-जोखा रख पाना व्यावहारिक रूप से मुश्किल हो गया है।

इसका दूसरा और अतिविकट प्रभाव पूरे सेक्टर को डांवाडोल करने वाला है। दरअसल जब किसी संगठन का एफसीआरए लाइसेंस रद्द किया जाता है तब न केवल उसके विदेशी अनुदान लेने की योग्यता समाप्त हो जाती है बल्कि सरकार इन संगठनों की एफसीआरए फंड से अर्जित सारी सम्पत्ति भी ज़ब्त कर लेती है। इतना भारी-भरकम नतीजा संस्थाओं को कुछ भी ऐसा करने से रोकता है जिससे उनकी नकारात्मक छवि बन सकती हो। इसके साथ ही ऐसा होना देश के भीतर दानदाताओं पर भी विपरीत असर डालने वाला हो सकता है और वे ऐसे संगठनों से अपने जुड़ाव को लेकर असमंजस में पड़ सकते हैं।

तीसरे परिणाम पर आएं तो एफसीआरए में बदलाव के चलते उन संगठनों (जैसे थिंक-टैंक, शोध संस्थान और एडवोकेसी ऑर्गनाइजेशन्स) का संचालन बुरी तरह प्रभावित होता है जो विदेशी अनुदानों पर ही अधिक निर्भर होते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घरेलू दानदाता सीधे सेवा पहुंचाने वाली संस्थाओं को सहायता देने को वरीयता देते हैं।

और अंत में, इन बदलावों का असर ज़मीनी-स्तर के संगठनों पर पड़ता है जो एफसीआरए-लाइसेंस प्राप्त मध्यस्थ संगठनों से मिलने वाले अनुदानों पर निर्भर होते हैं। ऐसे संगठनों का काम ठप्प पड़ जाता है क्योंकि उनके पास अंतर्राष्ट्रीय दानकर्ताओं से सीधे सम्पर्क करने का कोई साधन नहीं होता है।

ये सभी परिस्थितियां मिलकर हमारे लोकतंत्र की जड़ों को हिला देने वाली हैं। इससे एक मूक समाज तैयार होता है जो कोई जोखिम उठाकर अपनी भूमिका निभा पाने में अक्षम होता है। ऐसा समाज सरकार, व्यापारिक तबके और मीडिया को जवाबदेह नहीं ठहरा सकता है। ना तो यह हाशिए पर जी रहे लोगों के लिए आवाज़ उठा सकता है और न ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि बनाई जाने वाली नीतियां समावेशी और लोकतांत्रिक हों।

सभा में तालियां बजाती महिलाएं-एफ़सीआरए
हमारे देश में ऐसा कोई नागरिक नहीं है जो किसी प्रकार के नागरिक समाज का लाभार्थी न रहा हो। । चित्र साभार: फ़ेमिनिजम इन इंडिया

ऐसा क्यों हो रहा है?

पहला आरोप यह लगाया जाता है कि स्वयंसेवी संस्थाओं का उपयोग आतंकवाद की फंडिंग या काले धन को सफ़ेद करने के लिए आसानी से किया जा सकता है। हमें इस धारणा को बदलना चाहिए। जहां तक मैं जानती हूं पिछले 45 सालों में मात्र एक ऐसा मामला सामने आया है जब सरकार ने किसी स्वयंसेवी संस्था को इस तरह की गतिविधियों में शामिल पाया है। इसका मतलब यह भी हुआ कि यह कानून न केवल असंवैधानिक बल्कि बेअसर भी है।

दूसरा कारण सरकार द्वारा फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) का इस्तेमाल है। एफएटीएफ अंतर-सरकारी (कई देशों की सरकारों के साथ काम करने वाली) एजेंसी है जो आंतकवाद की फ़ंडिंग और मनी लॉन्डरिंग को रोकने का काम करती है। बीते सालों में सरकार ने बार-बार यह कहा है कि उनके द्वारा उठाए गए कदम एफएटीएफ की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हैं। वहीं, एफएटीएफ ने सरकारों को यह सुनिश्चित करने का सुझाव दिया है कि उनका नियमन या नियंत्रण जोखिम के अनुपात में होने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों के अनुरूप होना चाहिए। लेकिन हमारे पास ख़तरे को मापने का कोई पैमाना नहीं होने की वजह से हम यह नहीं कह सकते हैं कि लगाए गए प्रतिबंध अनुपातिक हैं या नहीं।

हमें स्वतंत्र नियामकों (जैसे माइक्रोफिनांस, टेलीकॉम आदि के लिए हैं) को लाने की ज़रूरत है। ऐसे नियामक रजिस्ट्रेशन करने और रजिस्ट्रेशन रद्द करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे नियामक स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने और नियमों के पालन को सुविधाजनक बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं। इनकी जगह आज हमारे देश में गृह मंत्रालय और कभी-कभी वित्त मंत्रालय स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए भाग्य विधाता की भूमिका निभाता है। इनमें से कोई भी वास्तव में स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुपालन के लिए सक्षम बनाने में एक रुपये का भी निवेश नहीं करता है।

लोगों को इसकी चिंता क्यों करनी चाहिए?

अगर महामारी के दौरान आप भारत में थे तब आपने देखा होगा कि स्वयंसेवी संस्थाएं इस काम में लगी रहीं थीं कि लोगों तक तमाम तरह की सेवाएं पहुंचती रहें। ख़ासतौर पर तब जब सरकार ने हमें हमारे भरोसे छोड़ दिया था।

एफसीआरए विनियमों को विनियमों के उस समूह के हिस्से के रूप में देखा जाना ज़रूरी है जिसका पालन सभी स्वयंसेवी संस्थाओं को करना अनिवार्य है। इसमें नए सीएसआर नियम और आय कर अधिनियम के तहत किए जाने वाले आवश्यक बदलाव भी शामिल हैं। जब आप सभी को एक साथ मिलाकर देखेंगे तो पाएंगे कि इसने केवल 20,000 स्वयंसेवी संस्थाओं को नहीं बल्कि देश की सभी स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रभावित किया है। यहां तक कि वे समुदाय भी इस प्रभाव से अछूते नहीं हैं जिनके लिए ये संस्थाएं काम करती हैं।

समाज और समाजसेवी संस्थाओं को अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करने की आवश्यकता है।

भारत अपने सतत विकास लक्ष्यों (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स – एसडीजी) को प्राप्त करने में पहले से ही पिछड़ रहा था; महामारी ने इसे और पीछे धकेल दिया है। बीते कुछ समय में हमने असमानता में वृद्धि, बेरोजगारी, कुपोषण और बाल विवाह के बढ़ते मामले देखे हैं। इन कमियों को दूर करने के लिए नागरिक संगठनों और समाजसेवी संस्थाओं को अपनी पूरी क्षमता से काम करने की जरूरत है।

आखिरकार हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों का सवाल है। चाहे यह अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों के लिए हो, निचली जातियों के लिए हो, महिलाओं के लिए हो या विशेष भौगोलिक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए, हम जानते हैं कि हमारा लोकतंत्र अपने आदर्श स्तर से बहुत नीचे के स्तर पर काम कर रहा है। नागरिक संगठनों द्वारा इन आवाज़ों को सशक्त किए बिना सरकार को उसकी ज़िम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम पाएंगे कि भारत के ज़्यादातर नागरिक लोकतंत्र और विकास के दायरे से बाहर छूटते जा रहे हैं।

लोग क्या कर सकते हैं?

मेरी पहली अपील नागरिक संगठनों से ही है। हमें इन मुद्दों पर दोगुना ध्यान देना होगा। बीते सालों में हुई घटनाओं के बावजूद आज भी कई ऐसे सीईओ और बोर्ड के सदस्य हैं जिन्हें या तो अपने ऑडिट की जानकारी नहीं है या फिर उन्होंने कंप्लायंस रिक्वायरमेंट को समझने या उसकी समीक्षा के लिए अपने ऑडिटर के साथ बैठकर बातचीत नहीं की है। जहां नियामकों को चुनौती देना आवश्यक है वहीं हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम अपनी पूरी योग्यता का इस्तेमाल करते हुए इसकी बारीकियों पर अपनी नज़र बनाए हुए हैं।

दूसरा, व्यवसायिक तबके और समाजसेवा से जुड़े लोगों और संस्थाओं को आवाज़ उठानी होगी। वर्तमान में इन्होंने भारत के लोकतंत्र की लड़ाई उन लोगों के ज़िम्मे डाल दी है जिनके पास लड़ने की ताक़त सबसे कम है। यह स्थिति व्याकुल और भयभीत करने वाली है। हमें चेम्बर्स ऑफ़ कामर्स और बिज़नेस एसोसिएशन द्वारा दिए जाने वाले सख़्त संदेशों की ज़रूरत है। साथ ही ऐसे लोगों के साथ की भी ज़रूरत है जिनकी सीधी पहुंच पीएमओ, गृह मंत्रालय या वित्त मंत्रालय तक हो और जो यह कह सकें कि ‘इसका नतीजा ठीक नहीं होगा।ऽ

मीडिया पहले ही इस चुनौती के लिए अपना कदम बढ़ा चुका है। बेशक यह टुकड़ों में है क्योंकि मीडिया संस्थानों ने समझ लिया है कि वे भी उतनी ही कठोर नीतियों का सामना कर रहे हैं। बहरहाल यह देखना सुखद है कि मुख्यधारा के मीडिया मंचों ने भी मानव-हित से जुड़ी कहानियों के बजाय नीति और नियामक के संदर्भ में नागरिक समाज से जुड़े मुद्दों पर बात करनी शुरू कर दी है।

अब हमें नागरिक संगठनों के क्षेत्र में अधिक समर्थन की ज़रूरत है ताकि हम सामूहिक रूप से जनता के बीच व्यापक स्तर पर योजनाओं का निर्माण कर सकें।

अंत में मैं फिर नागरिक संगठनों पर लौटूंगी। हमें इस क्षेत्र में ही सबसे अधिक साथ आने की ज़रूरत है ताकि हम मिलकर जनता में व्यापक स्तर पर दृष्टिकोण और समझ विकसित कर सकें। आम लोगों को नागरिक समाज की महत्ता को समझने की ज़रूरत है। हमारे देश में एक भी ऐसा नागरिक नहीं है जो किसी ना किसी रूप में नागरिक संगठनों का लाभार्थी न रहा हो। चाहे वह स्कूल या कॉलेज हों या फिर अस्पताल, उपभोक्ता संगठन या व्यापार संघ या मनरेगा के माध्यम से आने वाले बदलाव, यहां तक कि सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और काम का अधिकार भी इसमें शामिल हैं। हमें सभी को यह कहानी सुनाने की ज़रूरत है ताकि आम लोग लोकतंत्र में नागरिक संगठनों की भूमिका को समझ सकें।

यह आलेख इंग्रिड श्रीनाथ द्वारा आईडीआर के साथ किए गए एक इंस्टाग्राम लाइव पर आधारित है जिसे आप यहां देख सकते हैं।

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“युवाओं की आवाज़ सुनी जानी चाहिए”

मेरा नाम सौविक साहा है। मैं भारत के युवाओं, विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण बनाने के लिए काम करता हूं।

मैं झारखंड के जमशेदपुर में एक बस्ती में बड़ा हुआ हूं। मेरे पिता फ़ैक्ट्री में काम करते थे और माँ घर पर ही रहकर मेरे और मेरी बहन की देखभाल किया करती थीं। हम लोग निम्न-मध्य वर्गीय परिवार से आते थे इसलिए मेरे बातचीत का दायरा आसपास के दोस्तों और परिवार के सदस्यों तक ही सीमित था। हालांकि जब मैं अपनी आगे पढ़ाई करने कलकत्ता यूनिवर्सिटी गया तो मेरे लिए वह बिल्कुल नया अनुभव था। मुझे विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले और मुझसे बेहतर जीवन जी रहे लोगों से बातचीत करने और उनके सम्पर्क में आने का मौका मिला। मैं जिस हॉस्टल में रहता था वह छात्र राजनीति का एक मुख्य केंद्र था। इसलिए वहां रहते हुए मेरे अंदर राजनीतिक भागीदारी का एक जुनून पैदा हो गया। नतीजतन मैंने अपने कॉलेज का अधिकांश समय धरने और नुक्कड़ नाटक में बिताने लगा था।

अपनी बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने शहर के ही एक बैंक में काम करना शुरू कर दिया। लेकिन जल्दी ही 9–5 वाली इस नौकरी से ऊबने लगा और मैंने नौकरी छोड़ दी। मेरे अंदर युवाओं के लिए कुछ करने की प्रबल इच्छा थी। मेरी इसी इच्छा के कारण मैंने प्रवाह द्वारा दिए जाने वाले फ़ेलोशीप चेंजलूम के लिए आवेदन दिया और मेरा चयन हो गया। एक फ़ेलो के रूप में मेरी इस यात्रा से मुझे यह समझने में मदद मिली कि वास्तव में मैं किस प्रकार का काम करना चाहता हूं। और इसलिए 2010 में मैंने जमशेदपुर में पीपल फ़ॉर चेंज की स्थापना की। यह एक ऐसा संगठन है जो विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं को महत्वपूर्ण जीवन कौशल सिखाता है और उन्हें निजी और सार्वजनिक बदलाव लाने में सक्षम बनाता है।

मुझे संगठनों और इकोसिस्टम में भरोसा है इसलिए मैं कॉमम्यूटिनी – द यूथ कलेक्टिव और वार्तालीप कोअलिशन जैसी जगहों पर वोलन्टीयर के रूप में काम करता हूं। अपने इस विचार को बढ़ाने के लिए मैंने झारखंड के युवाओं के साथ काम कर रहे विभिन्न संगठनों से सहयोग लेकर झारखंड यूथ कलेक्टिव का आयोजन किया। मैंने जमशेदपुर क्वीर सर्कल की भी स्थापना की है। यह शहर में  क्वीर युवा और उनके साथियों के लिए एक खुला मंच है जहां उन्हें अपने लिए सुरक्षित और पूर्वाग्रह मुक्त माहौल मिलता है। यहां हम लगभग 500 ट्रांसजेंडर और 700 ऐसे क्वीर युवा का ख़्याल रखते हैं जिन्हें जमशेदपुर जैसे नगरों में अक्सर जानबूझकर दबाया जाता है या उनकी उपेक्षा की जाती है।

सुबह 5.00 बजे: मैं दिन की शुरुआत अपने छोटे से बगीचे में काम करने से करता हूं। यहाँ मैं कुछ सब्ज़ियां और फूल उगाता हूं। मुझे बाग़वानी में मज़ा आता है क्योंकि इससे मेरा मन शांत रहता है और साथ ही मुझे अपने दिन की शुरुआत किसी रचनात्मक काम से करना पसंद है। इसके बाद मैं रसोई में जाकर सबके लिए खाना तैयार करता हूं। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरी माँ लम्बे समय से बीमार हैं इसलिए घर और रसोई के काम की ज़िम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ले ली है। घर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं काम पर जाने की तैयारी करता हूं।

सुबह 7.00 बजे: दफ़्तर जाने से पहले मैं उन स्कूलों का दौरा करता हूं जिनके साथ मिलकर हम समय-समय पर कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करते हैं। मैं वहां के प्रधान अध्यापकों और मुख्य सदस्यों से मिलकर चल रहे कार्यक्रमों के बारे में बातचीत करता हूं। इन में से ही एक कार्यक्रम युवाओं के बीच अंतर-सांस्कृतिक मित्रता का भी है। उदाहरण के लिए एक बार हमनें दोस्ती के इस कार्यक्रम में एक मुस्लिम लड़के और ब्राह्मण लड़की की जोड़ी बनाई थी। इस कार्यक्रम के तहत की गई बातचीत के माध्यम से उन्होंने एक दूसरे की निजी और सांस्कृतिक समानताओं और असमानताओं के बारे में विस्तार से जाना। इससे उन्हें अलग दिखने वाले लोगों से मिलने-जुलने की सुविधा मिली। हालांकि पहले इस कार्यक्रम का विरोध किया गया था। एक स्कूल के प्रिंसिपल ने हमारी टीम को उनके स्कूल में हमारे इस कार्यक्रम को बंद करने का निर्देश दिया था। उन्हें उन अभिभावकों से शिकायतें मिल रहीं थी जिन्हें लगता था कि इस तरह के कार्यक्रम उनकी परम्परा और संस्कृति का अपमान हैं।

मुझे इस बात का एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है।

हमारे काम में समाज के ऐसे रक्षकों द्वारा किया जाने वाला विरोध मुख्य चुनौती है। हालांकि ऐसी चुनौतियां मेरे और मेरी टीम को बेहतर और अधिक कारगर उपाय ढूँढने में मददगार ही साबित हुई हैं। हमनें कई सालों तक लगातार अभिभावकों और शिक्षकों के साथ बैठकर बातचीत की। इन बैठकों में मुझे यह एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए हमारे द्वारा तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है। इसलिए अब हमारे सभी युवा कार्यक्रमों में हितधारकों से सक्रिय संवाद और उनके साथ मिलकर काम करना शामिल है।

सुबह 9.00 बजे: अपनी सुबह की मीटिंग निपटा कर मैं दफ़्तर जाता हूं। वहां मैं अपनी टीम से हमारे चल रहे कार्यक्रमों का ब्योरा लेता हूं। आज की मीटिंग का मुख्य विषय हमारे आने वाले फेलोशीप कार्यक्रम के लिए रणनीति बनाना और पाठ्यक्रम तैयार करना है। यह कार्यक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे युवा नेतृत्व को विकसित करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि पूरे झारखंड के बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध हो रही है। इस काम के लिए कार्यक्रम प्रबंधक, इंटर्न और मैंने साथ बैठकर हर उस विषय पर गहरी चर्चा की जिसे फेलोशीप के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा। 

सुबह 11.00 बजे: मैं झारखंड के एक छोटे से शहर जादूगोड़ा में हमारे द्वारा स्थापित सामुदायिक केंद्रों के दौरे के लिए जा रहा हूं जहां मेरी भेंट इस केंद्र को चलाने वाले युवा टीम से होगी। इस टीम ने इस शहर की 100 लड़कियों के साथ एक बैठक आयोजित की है जिसमें उनकी कुछ तात्कालिक समस्याओं और चिंताओं के बारे में बातचीत की जाएगी। भारत का सबसे बड़ा यूरेनियम का खान इसी छोटे से शहर में है। यहां रेडियोधर्मी कचरे के अनुचित निपटान के परिणामस्वरूप कैंसर के मामले बहुत अधिक पाए जाते हैं। हम लोगों ने जादूगोड़ा की युवा लड़कियों के लिए आजीविका के अन्य अवसरों के निर्माण के उद्देश्य को ध्यान में रखकर इन लड़कियों के साथ काम करना शुरू किया। उनके साथ काम करने की प्रक्रिया में उन्हें शिक्षित करना भी शामिल है। हम उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से अवगत करवाते हैं और उन्हें वोलन्टीयर बनने का प्रशिक्षण भी देते हैं। इससे उन्हें अपने समुदाय की सेवा करने का मौक़ा मिलता है। समुदाय के लोग ही हमें मिडिल स्कूल और आंगनवाड़ी केंद्र जैसी जगहें  उपलब्ध करवाते हैं जहां हम अपनी कक्षाएँ आयोजित करते हैं।

जादूगोड़ा मेरे दफ़्तर से काफ़ी दूर है इसलिए मैंने सार्वजनिक वाहन के बजाय अपने मोटरसाइकल से वहां जाने का फ़ैसला किया है। मुझे फ़ील्ड में अधिक समय की ज़रूरत होती है। इस तरह की मीटिंग मेरे और मेरे टीम के लिए बहुत मददगार साबित होती हैं। इन मुलाक़ातों में हम समुदाय की ज़रूरतों को समझते हैं और उन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए युवाओं की मदद करने की कोशिश करते हैं। 

सौविक साहा क्वीर युवाओं के लिए एक कार्यक्रम आयोजित करते हुए-queer ट्रांसजेंडर जमशेदपुर
मैंने पीपल फ़ॉर चेंज के मुख्यालयों की कल्पना हमेशा एक ऐसी जगह के रूप में की है जहां लोग खुद से और दूसरों से ढ़ेर सारे सवाल-जवाब और पूछताछ कर सकें। | चित्र साभार: पीपल फ़ॉर चेंज

शाम 4:00 बजे: जब मैं अपने दफ़्तर लौटता हूं तो उस समय वहां लोगों का जमावड़ा लगा होता है। यह एक आम दृश्य है क्योंकि शाम के समय ढ़ेर सारे युवा हमारे सलाहकारों से बात करने और उनसे अपनी समस्याओं पर चर्चा करने यहां आते हैं।

जब मैं छोटा था तब मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मेरी जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ावा दिया गया हो। स्कूल वह जगह थी जहां मुझे मेरे सभी सवालों के जवाब मिलने चाहिए थे लेकिन इसके बदले मुझे वहां ‘बातूनी’ या ‘परेशान करने वाला’ जैसी उपाधियां दी गई। इसलिए मैंने पीपल फ़ॉर चेंज के मुख्यालयों की कल्पना हमेशा एक ऐसी जगह के रूप में की है जहां लोग खुद से और दूसरों से ढ़ेर सारे सवाल-जवाब और पूछताछ कर सकें। यहां युवाओं का हमेशा स्वागत है और वे यहां आकर घूम-फिर सकते हैं, पढ़ाई कर सकते हैं और टीम के सदस्यों के साथ बातचीत करने जैसे काम कर सकते हैं। क्वीर और समाज के अन्य पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित स्थान मुहैया करवाने से मैं भी उन मामलों को गहराई से समझने योग्य हो चुका हूं जो उनके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए क्वीर युवाओं के लिए सबसे अधिक दबाव वाले मुद्दे स्वास्थ्य, आजीविका और रिश्ते हैं। वहीं आदिवासी युवाओं के लिए ज़मीन, जंगल और उनके अधिकार का मुद्दा महत्वपूर्ण है। इस प्रकार हमसे जुड़ा हर एक युवा किसी न किसी रूप में हमारी मदद करता है। ये युवा उनके लिए किए जाने वाले कामों और प्रयासों को बहुआयामी दृष्टिकोण से देखने में हमारी मदद करते हैं। उनसे मिलने वाली जानकारियों से हम अपने तरीक़ों को बेहतर बनाते हैं।

शाम 6:00 बजे: उस दिन का काम ख़त्म होने के बाद मैं दफ़्तर में ही थोड़ी देर आराम करता हूं। मैंने इस दफ़्तर को इस तरह बनाया है कि यहां काम करने वाले लोग यहीं आराम भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हम नियमित रूप से ओपन-माइक और रात के समय गेम का आयोजन करते हैं। हमनें कुछ बिस्तरों का इंतज़ाम किया है। इससे पहले कि हमारी टीम एक जगह इकट्ठा होकर अगले दिन के काम पर चर्चा करे मैंने इस बिस्तर पर ही थोड़ी देर आराम करने का फ़ैसला लिया है। उसके बाद हमारा आज का दिन ख़त्म हो जाएगा।

रात 8:00 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं जल्दी से रात का खाना खाता हूं और थोड़ी देर के लिए अपनी माँ के पास बैठता हूं। आमतौर पर दफ़्तर में बहुत व्यस्त रहने के बाद मैं घर पर काम नहीं करता। कभी-कभी रात के खाने पर अपने दोस्तों को घर बुला लेता हूं या जाकर सिनेमा देख लेता हूं। हालांकि सप्ताह के ज़्यादातर दिनों में मैं घर पर ही अपनी माँ के साथ या अपने कमरे में अकेला समय बिताता हूं।

रात 10:00 बजे: इन दिनों पढ़ रहे किताब के साथ मैं अपने बिस्तर की ओर जाता हूं। काम के बाद दिन के बचे इन कुछ घंटों में मैं अपने दूरगामी लक्ष्यों, उम्मीदों और अपने भविष्य निर्माण के बारे में सोचता हूं। मेरी तात्कालिक आशा ऐसी जगहों के निर्माण को आसान बनाना है जहां युवाओं और उनकी जिज्ञासाओं के लिए पर्याप्त साधन मिल सके। मैं चाहता हूं शैक्षणिक, कॉर्प्रॉट या पारिवारिक किसी भी तरह के वातावरण में युवाओं की आवाज़ को उन्हें प्रभावित करने वाले फ़ैसलों के संदर्भ में सम्मान के साथ सुना जाए। अंत में मेरा सपना युवाओं के नेतृत्व वाली एक ऐसी दुनिया है जो अधिक न्यायपूर्ण और प्यार से भरी हो।

जैसा आईडीआर को बताया गया।

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ग्रामीण महिला कारीगर और डीमैट खाता: अब केवल अंगूठे के निशान से काम नहीं चलेगा

धन्नी बाई* ने बचपन में अपनी माँ और चाची से हाथ की कढ़ाई सीखी थी। कई सालों तक वह शौक़िया तौर पर कढ़ाई का काम करती रहीं और फिर 2007 में रंगसूत्र के लिए कढ़ाई वाली चीजें बनाने लगीं। रंगसूत्र एक कारीगर द्वारा चलाई जाने वाली शिल्प कम्पनी है। मौक़ा मिलते ही वह कम्पनी की शेयरहोल्डर भी बन गई। उसका शेयर प्रमाणपत्र उसके घर की दीवार पर परिवार के फ़ोटो के बगल में टंगा हुआ है। “यही एक ऐसा कागज़ है जिस पर मेरा नाम है… हम जिस घर में रहते हैं वह मेरे पति के नाम पर है और हमारी खेती वाली ज़मीन के मालिक मेरे ससुर हैं।” शेयरधारक बन जाने से धन्नी बाई जैसे कलाकारों को नियमित काम मिलने लगता है और साथ ही कम्पनी के लाभ में उनका हिस्सा भी तय हो जाता है। नियमित आय हो जाने से धन्नी बाई जैसे कारीगरों का उनके परिवार में आर्थिक योगदान भी होता है और उन्हें अपनी पहचान मिल जाती है।

रंगसूत्र के 2,000 ग्रामीण कारीगरों में सत्तर प्रतिशत महिलाएं हैं। इनके लिए यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है विशेष रूप से जब बात अनुपालन की आती है। 2018 में पारित एक क़ानून में सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों के सभी शेयरों को डीमैटरियलाइज़ करने का प्रावधान लाया गया। सरल अर्थों में यह भौतिक शेयरों (सर्टिफिकेट) को इलेक्ट्रॉनिक शेयरों में बदलने की प्रक्रिया है। इसका सीधा मतलब यह है कि रंगसूत्र के सभी शेयरधारकों के पास डीमैट खाता होना अनिवार्य है। डीमैट खाता खुलवाने के लिए पैन और आधार कार्ड दोनों ही अनिवार्य होता हैं। धन्नी बाई जैसी ज़्यादातर गांव की औरतों के पास पैन कार्ड नहीं होता है। सीमित आय होने के कारण ये औरतें आय कर का भुगतान भी नहीं करती हैं। अधिकतर औरतें विशेष रूप से वृद्ध औरतें न तो अपना हस्ताक्षर कर सकती हैं और न ही लिख या पढ़ सकती हैं। हस्ताक्षर के बदले ये औरतें अंगूठे का निशान लगाती हैं। डीमैट खाता खुलवाने के लिए हस्ताक्षर अनिवार्य है और अंगूठे का निशान वैध नहीं होता है। इसलिए शेयर धारक के हस्ताक्षर वाला नया पैन कार्ड बनवाना ज़रूरी होता है। आधार सत्यापन प्रणाली में आवेदक के फ़ोन पर आने वाले ओटीपी (वन टाइम पासवर्ड) की ज़रूरत होती है। भारत के गांवों में अब भी ज़्यादातर औरतों के पास अपना निजी फ़ोन नहीं है। लब्बोलुआब यह है कि भारत की ग्रामीण महिला कारीगरों के लिए डीमैट खाता खुलवाना एक जटिल प्रक्रिया है। 

ज़्यादातर कारीगर निकट भविष्य में अपना शेयर नहीं बेचने वाले हैं। इसलिए कारीगरों के लिए शेयर से संबंधित किसी भी तरह का लेन-देन करने, लिक्विडिटी को सक्षम बनाने के लिए डीमैट खाता खुलवाना बहुत ज़रूरी है। इसकी जटिल प्रक्रिया को थोड़ी देर के लिए नज़रंदाज़ कर देखें तो यह भारत की कारीगर अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।

सुमिता घोष रंगसूत्र की संस्थापक और एमडी हैं। रंगसूत्र 200 मिलियन कारीगरों के साथ काम करती है और आईडीआर में #ग्राउंडअपस्टोरीज़ की कंटेंट पार्टनर संस्था है।

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अधिक जानें: जानें कि भारत को अपने कारीगर अर्थव्यवस्था को सशक्त करने की आवश्यकता क्यों है।

अधिक करें: रंगसूत्र के काम के बारे में विस्तार से जानने के लिए सुमिता घोष से [email protected] पर सम्पर्क करें।

फ़ोटो निबंध: एक कचरा प्रबंधन साइट से बढ़कर

पूर्वी दिल्ली के अंतिम छोर पर एक पहाड़ जैसी कोई आकृति दिखाई पड़ती है। थोड़ा नज़दीक जाने पर साफ़ दिखता है कि यह पहाड़ दरअसल कचरे का वही ढ़ेर है जिसे गाज़ीपुर लैंडफ़िल के नाम से जाना जाता है। कचरे के इसी विशाल ढ़ेर में सैकड़ों लोगों को अनौपचारिक रूप से रोज़गार मिलता है।

मैं पहली बार गाज़ीपुर 2017 में गया था। इतने सालों में मैंने देखा है कि हर दिन शहर के लोगों द्वारा असीमित मात्रा में पैदा किए गए कूड़े को रीसायकल करने के लिए कई तरह के उपाय और विकल्प अपनाए गए हैं। इस बदलाव का संकेत स्थानीय नगर निगम द्वारा लगाई गई बड़ी-बड़ी मशीजिन्होंने जलते हुए कचरे के ढ़ेर की जगह ले ली है। इन मशीनों का इस्तेमाल कचरे के ढ़ेर को अलग करने, रीसायकल करने, उन्हें दोबारा पैक करने और फिर अर्थव्यवस्था में वापस लौटाने के काम में किया जाता है। इसके लिये हर दिन लगभग 20 बैकहो मशीन एक्सकेवेटर और 15 वेस्ट सेपरेटर और सीव (ट्रोमेल) लगातार काम करते रहते हैं। 2017 में जब पहली बार मैं यहां गया था तो इनमें से कोई भी मशीन नहीं थी। कई तरह के ऐसे व्यवसाय हैं जो इस कचरे के विशाल ढ़ेर और उसकी रिसायकलिंग पर निर्भर हैं। इस ढ़ेर में से प्लास्टिक, मेटल, कपड़े, पॉलिथीन, काँच सहित कई ऐसी सामग्रियाँ निकलती हैं जिनका इस्तेमाल सैनिटेरी टाइल, खाद आदि बनाने में किया जाता है।

हर दिन सैकड़ों कचरा बीनने वाले कूड़े के इस पहाड़ में कड़ी मेहनत करके अपना जीवनयापन करते हैं-कचरा प्रबंधन

हर दिन सैकड़ों कचरा बीनने वाले कूड़े के इस पहाड़ में कड़ी मेहनत करके अपना जीवनयापन करते हैं।

ट्रक ने कचरा उड़ेल दिया है और चीलों का झुंड अब अपने बारी का इंतज़ार कर रहा है-कचरा प्रबंधन

ट्रक ने कचरा उड़ेल दिया है और चीलों का झुंड अब अपने बारी का इंतज़ार कर रहा है।

दूबे जी यहां के चौकीदार हैं। इनकी ज़िम्मेदारी कचरे के इस विशाल ढ़ेर की सबसे ऊँचाई पर खड़े होकर रीसायकल के काम पर निगरानी रखना है-कचरा प्रबंधन

उत्तर प्रदेश के मऊ के रहने वाले दूबे जी यहां के चौकीदार हैं। एक निजी सिक्योरिटी एजेंसी ने उन्हें काम पर रखा है जिसे लैंडफ़िल में मज़दूर मुहैया करवाने का ठेका मिला है। इनकी ज़िम्मेदारी कचरे के इस विशाल ढ़ेर की सबसे ऊँचाई पर खड़े होकर रीसायकल के काम पर निगरानी रखना है।

केबल सिंह लैंडफ़िल पर ट्रक ड्राइवर हैं-कचरा प्रबंधन

केबल सिंह लैंडफ़िल पर ट्रक ड्राइवर हैं। यहां काम करते हुए इन्हें लगभग तीस साल हो चुके हैं।

ट्रोमेल कचरे को अलग करने में मदद करता है-कचरा प्रबंधन

ट्रोमेल कचरे को अलग करने में मदद करता है—यह चलनी की तरह काम करता है और एक विशेष आकर की चीजों को अलग करता है।

मशीनें लगातार चालू रहती हैं जिसके कारण इसमें ख़ास क़िस्म की ख़राबियां आती रहती हैं। यहां नियुक्त मैकेनिक और वेल्डर समय-समय पर इन मशीनों को ठीक करते हैं-कचरा प्रबंधन

मशीनें लगातार चालू रहती हैं जिसके कारण इसमें ख़ास क़िस्म की ख़राबियां आती रहती हैं। यहां नियुक्त मैकेनिक और वेल्डर समय-समय पर इन मशीनों को ठीक करते हैं।

हवा में मौजूद धूल स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होते हैं। नए लगाए गए स्प्रिंकलर से हवा में पानी का छिड़काव किया जाता है ताकि धूल कम हो जाए-कचरा प्रबंधन

हवा में मौजूद धूल स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। नए लगाए गए स्प्रिंकलर से हवा में पानी का छिड़काव किया जाता है ताकि धूल कम हो जाए।

लैंडफ़िल पर रहने वाले मज़दूर बारी-बारी से एक दूसरे के लिए खाना पकाते हैं-कचरा प्रबंधन

लैंडफ़िल पर रहने वाले मज़दूर बारी-बारी से एक दूसरे के लिए खाना पकाते हैं।

कई मज़दूर लैंडफ़िल में ही रखे गए कंटेंनर-नुमा घरों में रहते हैं-कचरा प्रबंधन

कई मज़दूर लैंडफ़िल में ही रखे गए कंटेंनर-नुमा घरों में रहते हैं।

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एक एकड़ ज़मीन स्वास्थ्य के नाम: मराठवाड़ा की महिला किसानों ने खाद्य फसलें चुनीं

एक एकड़ खेती के मॉडल को दर्शाती एक कॉमिक_गोदावरी डांगे-खेती महिला किसान

महाराष्ट्र का मराठवाड़ा ऐतिहासिक रूप से सुख-ग्रस्त इलाक़ा है। पिछले कुछ वर्षों से इस इलाक़े के लगभग हर परिवार की पैदावार नष्ट हो जा रही है। खेती से जुड़े इस संकट के कारण महिलाओं और लड़कियों का स्वास्थ्य भी प्रभवित हुआ है और अपने निचले स्तर पर पहुंच चुका है।

2007 और 2008 के गम्भीर सूखे के बाद पारिस्थितिक रूप से कमजोर क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों के लिए काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था ने तय किया कि वे इस स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करेंगी। इस मामले में इस संस्था ने समस्या की गहराई और उसकी विस्तार को समझने के लिए प्रभावित इलाक़ों में स्वास्थ्य सर्वे करवाया। सर्वे पर काम करने वाली उस्मानाबाद की एक कृषि उद्यमी गोदावरी डांगे का कहना है कि “ऐसी भी औरतें और लड़कियां थीं जिनका हीमोग्लोबिन स्तर 5 से भी कम था।” खून की कमी, कुपोषण, निम प्रतिरोधक क्षमता जैसे मामले बहुत अधिक थे।

इस स्थिति के पीछे कई जटिल कारण थे। लेकिन ये सभी कारण इस क्षेत्र में नक़दी फसल पर निर्भरता और उनके बढ़ते वर्चस्व के नीचे दबा दिए गए थे। बढ़ते कर्ज और गिरते जल स्तर के बावजूद उच्च जाति और धनी जोत वाले किसानों ने प्रति हेक्टेयर में पानी के अधिक लागत वाली नकदी फसलों की खेती जारी रखी। नक़दी फसलों की खेती का एक दूसरा मतलब यह भी था कि खाने वाले अनाजों को खेतों में उगाने के बजाय उन्हें बाहर बाज़ार से ख़रीदना। ये खाद्य पदार्थ ना केवल ख़राब गुणवत्ता वाले थे बल्कि इनकी मात्रा भी कम होती थी। घरों में जब खाना खाने की बारी आती है तो इस क़तार में औरतें अक्सर अंत में खड़ी होती हैं। जिसका सीधा मतलब यह है कि वे बचा-खुचा खाना खा रही हैं जिसमें पोषक तत्वों की कमी होती है। चूँकि खेती के लिए किए जाने फसलों के चुनाव में महिलाओं की भूमिका नहीं होती है इसलिए उनके स्वास्थ्य को बेहतर रखने वाले आवश्यक फसलों की खेती में कमी आती गई और गन्ना और सोयाबीन जैसे फसल खेतों में भारी मात्रा में उगाए जाने लगे।

बाद के महीनों में डांगे के साथ छह महिला किसानों ने मिलकर उस्मानाबाद में वैकल्पिक खेती का एक मॉडल विकसित किया। इस नए मॉडल ने महिलाओं को मौसमी खाद्य वाली फसलें जैसे कि सब्ज़ियाँ, दाल और जौ-बाजरे जैसी फसलें उगाने में सहायता की। इस मॉडल के तहत महिलाओं को अपने पारिवारिक ज़मीन के आधे से एक एकड़ में फूलगोभी, टमाटर, जौ-बाजरा, पालक और पटसन के बीज और अन्य मौसमी सब्ज़ियों सहित ऐसे 36 विभिन्न क़िस्म के फसलों को उगाने के लिए बढ़ावा दिया गया। ये फसलें न केवल पौष्टिक थीं बल्कि इन्हें उगाने से महिलाओं को अपने परिवार के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था करने में मदद मिली। इसके अतिरिक्त इन फसलों की खेती में पानी का खर्च भी बहुत कम होता है। इस मॉडल को स्थानीय रूप से ‘एक-एकड़ मॉडल’ के रूप से लोकप्रियता मिली।  2008 में केवल छह महिलाओं द्वारा शुरू किये गए इस एक-एकड़ मॉडल को आज की तारीख़ में उस्मानाबाद, लातूर और सोलापुर ज़िले के लगभग 500 गांवों की 60,000 महिलाओं ने अपना लिया है।

इसके बाद से इन ज़िलों की महिलाओं के स्वास्थ्य में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। इस मॉडल से खेती करने वाली कई महिलाओं का कहना है कि वे अब अधिक स्वस्थ और ऊर्जावान महसूस करती हैं। डांगे ने बताया कि “इस इलाक़े में औरतें अब कम अस्पताल जाती हैं और दवाइयों पर होने वाले खर्चे में भी कमी आई है।”

मैत्री डोर मुंबई स्थित एक आर्किटेक्ट और स्वतंत्र चित्रकार हैं। रीतिका रेवती सुब्रमण्यम कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पीएचडी की छात्रा हैं।

गोएथे-इंस्टीट्यूट इंडोनेशियन के ‘मूवमेंट्स एंड मोमेंट्स’ प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में प्रकाशित कॉमिक बुक  रेनड्रॉप इन द ड्रॉट: गोदावरी डांगे के माध्यम से एक एकड़ खेती मॉडल के बारे में विस्तार से जानें।

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अधिक जानें: जानें कि महिला किसानों को कार्यभार सम्भालने के लिए स्वयंसेवी संस्थानों को एक इकोसिस्टम बनाने की ज़रूरत क्यों है।

अधिक करें: इनके काम के बारे में विस्तार से जानने और इनकी सहायता करने के लिए मैत्री डोर से [email protected] और रीतिका रेवती सुब्रमण्यम से [email protected] पर सम्पर्क करें।