समाजसेवी संस्थाओं में नेतृत्व परिवर्तन के दौरान क्या ग़लतियां हो सकती हैं?

सफ़ीना हुसैन एजुकेट गर्ल्स की संस्थापक और महर्षि वैष्णव इसके सीईओ हैं। एजुकेट गर्ल्स एक समाजसेवी संस्था है जिसकी स्थापना साल 2007 में हुई थी। यह संस्था भारत के शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा के लिए समुदायों को एकजुट करने का काम करती है।

2022 में, संगठन ने नेतृत्व में बदलाव देखा – सफ़ीना ने सीईओ के पद से इस्तीफ़ा दिया और महर्षि ने उनकी जगह ज़िम्मेदारी संभाली। महर्षि एक दशक से एजुकेट गर्ल्स से जुड़े थे और इससे पहले संस्था के सीओओ और स्टाफ प्रमुख के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके थे।

आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में सफ़ीना और महर्षि हमें बता रहे हैं कि एजुकेट गर्ल्स में नेतृत्व परिवर्तन का समय क्यों आ गया था और परिवर्तन की इस पूरी प्रक्रिया का स्वरूप कैसा था। साथ ही, इन दोनों ने इस प्रक्रिया के दौरान आने वाली चुनौतियों के बारे में भी बात की है। इस बातचीत में इन्होंने उन संगठनों के लिए कुछ सुझाव भी दिए जो नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। 

महर्षि वैष्णव (बाएं) और सफ़ीना हुसैन (दाएं)_एनजीओ लीडर
महर्षि वैष्णव (बाएं) और सफ़ीना हुसैन (दाएं)। | चित्र साभार: एजुकेट गर्ल्स 
हमें बताएं कि उस समय इस नेतृत्व परिवर्तन की आवश्यकता क्यों थी? 

सफ़ीना: मैंने इस बदलाव के बारे में बहुत पहले ही सोचना शुरू कर दिया था। और आखिरकार हमने इसे 2017 में अपनी पांच साल की रणनीति में शामिल कर लिया। यदि आप इसे संगठनात्मक यात्राओं के संदर्भ में देखें तो आप पाएंगे कि यह नेतृत्व परिवर्तन अपेक्षाकृत बहुत ही जल्दी हो गया। दरअसल, मेरा मानना है कि एक संस्थापक कभी-कभी संगठन के विकास या उसके द्वारा किए जाने वाले कामों से होने वाले प्रभाव के लिए सबसे बड़ी बाधा भी बन सकता है। संस्थापक संगठनों को शुरू करते हैं और उसके बाद वे उन्हें उस स्थिति में पहुंचाते हैं, जहां से वे तेजी से आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन ऐसा ज़रूरी नहीं है कि संस्थापक के पास वे कौशल हों जिनकी उस समय संगठन को जरूरत है। एजुकेट गर्ल्स का आकार हर 18 महीने में दोगुना हो रहा था, और मुझे पता था कि इसे अब मुझसे अलग एक नए तरह के नेतृत्व की आवश्यकता है।  

संस्थापक एक बारीक समस्या खोजने और उसके लिए एक समाधान तैयार करने में अच्छे होते हैं। उनके पास जोखिम को सहने और नई चीजों को आजमाने की जबरदस्त क्षमता होती है। मैं एक बड़ी मशीनरी चलाने के बजाय उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थी जिसके लिए मेरे पास कौशल नहीं था। नेतृत्व परिवर्तन की चाह रखने के पीछे की वास्तविक सोच यही थी। 

नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू करने के लिए आपने कौन से अन्य कदम उठाए? 

सफ़ीना: एक बार जब हमने परिवर्तन की योजना बनानी शुरू की तब महर्षि की यात्रा बहुत तेज़ी से बदलने लगी। फंडरेंजिंग लीडर से चीफ ऑफ स्टाफ की भूमिका में चले गए, फिर सीओओ बन गए, और अंत में सीईओ की भूमिका में आ गए। 

महर्षि: मुझे इस बात की बिल्कुल जानकारी नहीं थी कि उत्तराधिकार की यह योजना 2017 में बन गई थी या फिर सफ़ीना इस पर सक्रियता से काम कर रही थीं। लेकिन सफ़ीना ने धीरे-धीरे मेरे कंधों पर बड़ी जिम्मेदारियां देकर मेरी परीक्षा लेनी शुरू कर दी थी। इसलिए फंडरेजिंग से संचार और सरकारी संबंधों तक, इस तरह के काम मेरी जिम्मेदारी बन गए। और, ये सभी काम बहिर्मुख पहलू वाले काम थे। उसके बाद सफ़ीना ने मेरे सामने यह विचार रखा कि “मुझे चीफ़ ऑफ स्टाफ की तलाश है, क्या आपको इसमें रुचि होगी?” मैंने उनसे इसका मतलब पूछा और यह भी पूछा कि मुझे क्या करना होगा। उन्होंने कहा “मेरे हर रोज़ के काम में तुम्हें मेरी मदद करनी होगी।” तो यह न केवल कामकाजी जिम्मेदारियां थीं बल्कि एक पूरे संगठन के लिए सपोर्ट सिस्टम था। मैंने कहा कि मैंने इससे पहले ऐसा कुछ नहीं किया है लेकिन मैं कोशिश करना चाहता हूं। इस भूमिका में आने के बाद संगठन में चल रही चीजों के बारे में मैंने जाना। एचआर, विस्तार, योजना, संचालन और वित्त पर प्रभाव और बजट सभी क्षेत्रों के बारे में जानकारियां हासिल हुईं। कर्मचारियों के प्रमुख के रूप में बिताए वे तीन साल मेरे लिए अनमोल रहे क्योंकि उन तीन सालों ने मुझे संगठन को एक इकाई के रूप में देखने के योग्य बनाया। 

जब हमारे पूर्व ऑपरेशन प्रमुख ने अपना पद छोड़ा था तब सफ़ीना ने मुझे पूरी तरह से ऑपरेशन्स का भार सम्भालने का सुझाव दिया। समय-समय पर इन छोटे बदलावों ने आख़िरकार मुझे सीईओ बनने के लिए तैयार कर दिया।

यह सीधे तौर पर हुआ परिवर्तन नहीं था। मुझसे कहा गया था कि “आप अस्थाई रूप से काम करेंगे और आपको बाहरी विशेषज्ञों की सहायता मिलेगी जो बोर्ड के साथ मिलकर संगठन के अगले सीईओ को ढूंढने का काम करेंगे। लेकिन इसमें आपका ही नुक़सान है।” उस समय तक मुझे एजुकेट गर्ल्स के साथ काम करते हुए लगभग आठ साल हो चुके थे।

सफ़ीना: एजुकेट गर्ल्स से परे अपने भविष्य के बारे में सोचने और जानने के लिए मैंने एक कोच की मदद ली। मुझे इस बात पर पूरा भरोसा था कि यदि मैंने अपने लिए एक नया भविष्य नहीं देखा तो मैं शायद इस नौकरी को कभी नहीं छोड़ पाऊंगी। हमने आंतरिक रूप से भी प्रतिभा का विकास किया। महर्षि को तैयार करने के अलावा, हमने ऐसा रास्ता बनाया जिस पर चलकर एक टीम विकसित हो सकती है। बाद में, हमने बोर्ड उपसमिति के साथ परिवर्तन की एक औपचारिक प्रक्रिया के निर्माण के लिए लीडरशिप एडवाइजरी फ़र्म, एगॉन जेंडर को शामिल किया।

किसी थर्ड पार्टी को शामिल करना आम बात नहीं है। उन्होंने किस प्रकार मदद की और ऐसा करने से किस तरह के फ़ायदे हुए?

सफ़ीना: एक संस्थापक के रूप में आप यह तय कर सकते हैं कि आप कुछ करना चाहते हैं और फिर सीधे उस काम को कर सकते हैं। हालांकि, किसी बाहरी पक्ष द्वारा परिवर्तन की इस प्रक्रिया को शुरू करने से मुझे बहुत अधिक मदद मिली। इससे मेरी जिम्मेदारियां कम हुईं और मेरे साथ संगठन के बाक़ी लोग भी शामिल हुए, विशेष रूप से बोर्ड और टीम के सदस्य। यदि मैंने इस परिवर्तन को सीधे तौर पर लागू कर दिया होता तो इससे महर्षि के सामने मुश्किलों का एक पहाड़ खड़ा हो जाता और उनके असफल होने की सम्भावना बहुत अधिक होती। लेकिन चूंकि हमने इस तरीक़े को अपनाया, इसलिए सभी के पास परिवर्तन की इस प्रक्रिया को समझने, हर प्रकार की सम्भावनाओं के बारे में जानने और हमारे द्वारा लिए गए निर्णय के प्रति आश्वस्त होने का समय था। इस तरह, इस प्रक्रिया ने वास्तव में सभी को साथ लाने में मेरी मदद की।

दूसरा, मुझे लगा था कि एगॉन जेंडर महर्षि को उनके भविष्य के काम के लिए तैयार कर रहे हैं लेकिन वास्तव में वे मुझे मेरी भूमिका से निकलने के लिए तैयार कर रहे थे। इस तैयारी के बिना मैं सब गड़बड़ कर देती। और चूंकि संगठन में महर्षि की भूमिका कई बार बदली इसलिए टीम बड़ी ही सहजता से इसे स्वीकार करती गई। 

एक हाथ से दूसरे हाथ में बैटन_एनजीओ लीडर
एक संस्थापक कभी-कभी किसी संगठन के विकास या उसके प्रभाव के लिए सबसे बड़ी बाधा बन सकता है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स
महर्षि, आप परिवर्तन प्रबंधन प्रक्रिया के बारे में क्या सोचते हैं?

महर्षि: जब परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई तब तक मुझे एजुकेट गर्ल्स से जुड़े कई साल हो चुके थे। मुझे संगठन को जानने या हमारे ऑपरेशन के विस्तार को जानने के लिए अलग से समय नहीं लगाना पड़ा। मैं सीधे काम शुरू कर सकता था। हालांकि मुझे सफ़ीना की जग़ह भी लेनी थी। इसलिए किसी सुखद एहसास की बजाय लगातार यह वास्तविकता पता चल रही थी कि मैं संस्थापक से पदभार ग्रहण कर रहा हूं। 

परिवर्तन की प्रक्रिया में सफीना द्वारा अपना नियंत्रण छोड़ना और मुझे इसे हासिल करना था। और, यह कई तरीक़ों से हुआ। हमारे स्टेट ऑपरेशन्स टीम के साथ पहली मुलाक़ात में सफ़ीना ने खुद को मुक्त कर लिया। उनके ऐसा करते ही मैं समझ गया कि मुझे पहले सीओओ की भूमिका वाले आक्रामक नज़रिए को छोड़कर अब सीईओ के रूप में एक अधिक परिपक्व, शांति स्थापित करने वाले संस्थापक की भूमिका निभानी थी। 

हमारे सहयोगी और फ़ंडर मेरी योजनाओं और संगठनात्मक इरादों को लेकर उत्सुक थे। इसलिए मुझे उन्हें आश्वस्त करने के लिए बिज़नेस कंटीन्यूटी प्लान्स को लाने पड़े ताकि उन्हें यह विश्वास हो जाए कि हम सही राह पर हैं। 

एगॉन जेंडर के मेरे मेंटॉर – गोविंद अय्यर और नमृता झंगियानी – ने मुझे सीईओ के रूप में पदभार लेने को तैयार करने के लिए 12 महीने का एक कठोर कार्यक्रम बनाया। पहला छह महीना मेरी ग़लतियों पर केंद्रित था। उसके बाद अगले छह महीने में मैंने यह सीखा कि एक सीईओ के रूप में मैं किसी काम को कैसे अलग तरीक़े से कर सकता हूं।

अगर मुझे गोविन्द और नमृता, और हमारे बोर्ड के अध्यक्ष सफीना और उज्जवल ठाकर से मिले कोर मैसेज पर काम करना होता तो यह बहुत आसान था। वे इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट थे कि मेरी कार्यशैली, नेतृत्व, डेलिगेशन, कल्चर सेटिंग वगैरह, सफीना से अलग होना ही था। इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि मैं टीम को अपने तरीके से अभ्यस्त होने के लिए पर्याप्त समय दूं।

मूल बातों पर टिके रहें और शुरुआत में ही कुछ भी अपमानजनक करने से बचें।

मुझसे यह भी कहा गया कि शुरुआत में मूल बातों पर ही ध्यान दूं और कुछ भी आक्रामक करने का प्रयास न करूं। पहले कुछ महीनों के महत्व को कम नहीं समझना चाहिए। हालांकि मैं एक अंदर वाला ही हूं फिर भी संदर्भ समझना हमेशा ही जरूरी होता है। इसलिए मुझे सभी संबंधित आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार के हितधारकों को समझने के लिए समय लेने की ज़रूरत थी। मेरे पुराने सहयोगी अब मुझे रिपोर्ट करते थे इसलिए मुझे सब के साथ पेशेवर संबंध को बरक़रार रखना था।

ऐसा लगता है कि यह एक सहज परिवर्तन था लेकिन किसी भी प्रकार का परिवर्तन बिना चुनौतियों के सम्भव नहीं है। क्या आप परिवर्तन के समय की अपनी चुनौतियों के बारे में हमें कुछ बताना चाहेंगे? और, सफ़ीना, अपने हाथ से बागडोर छोड़ना आपके लिए कैसा था?

सफ़ीना: महर्षि के सीईओ बनने के बाद उनके साथ की गई पहली बोर्ड मीटिंग में उज्जवल ने मुझे एक कोने में ले जाकर बड़े ही आराम से कहा कि “अब आपको ये सब और नहीं करना है। आगे से आपको ये सब कहने की कोई ज़रूरत नहीं है।” और मैंने कहा “मैं समझी नहीं। आप मुझसे क्या चाहते हैं? मैं यहां बोर्ड मीटिंग में क्यों आई हूं?” और उन्होंने मुझे जवाब देते हुए कहा “मैं चाहता हूं कि आप बोर्ड मीटिंग में शामिल हों लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप कुछ कहें या करें।” तब मुझे समझ में आया कि दरअसल बोर्ड के सदस्य मुझसे कहना चाह रहे हैं कि अब आपके लिए एक नया कोना है और आप वहां चुपचाप बैठी रहें।” शायद मैं यह भूलती रहूंगी और लोगों को मुझे सही समय पर याद दिलाकर पीछे करते रहना होगा। 

आखिर में, मुझे खुद को याद दिलाते रहना है कि मैंने ऐसा किसी कारण से किया है। और, अब मैं वह करने के लिए स्वतंत्र हूं जो मैं करना चाहती थी। पिछड़ी युवा लड़कियों के लिए दूसरा-अवसर बनाने के लिए एक कार्यक्रम तैयार करने का काम। महर्षि के पदभार सम्भालने के बाद मेरे पास गांवों में जाकर लड़कियों के साथ बैठने और ज़मीनी-स्तर से चीजों को देखने का समय था। मुझे उम्मीद है कि इस बार मैं उन ग़लतियों को नहीं दोहराऊंगी जो मैंने 15 साल पहले एजुकेट गर्ल्स की स्थापना और उसके निर्माण के दौरान की थी। नेतृत्व परिवर्तन के बाद से मैंने अपना 50 फ़ीसद समय फ़ील्ड में बिताया है। मैंने लोगों से बातें की है, उनसे सीखा है और कॉर्पोरेट ऑफ़िस की इमारत से बाहर निकलकर अपना समय मस्ती से बिताया है जो मेरे लिए बड़ी बात है। मैं महर्षि की आभारी हूं।

महर्षि: यह मेरे लिए लगातार चलने वाले गहरे अहसासों की तरह रहा। एजुकेट गर्ल्स का मूल उद्देश्य सबसे पिछड़ी लड़कियों को वापस स्कूल जाने में उनकी मदद करना है। इसमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता है। लेकिन कर्मचारियों के प्रमुख और सीओओ के रूप में मेरी पिछली भूमिका में मेरी सोच अलग थी। सफ़ीना हमेशा मुझे बचाने के लिए खड़ी थीं। लेकिन अब मैं ही हर बात के लिए ज़िम्मेदार था और यह समय वह था, जब जल्दी से सब ठीक करने की बजाय कोशिश और ग़लतियां की जाएं। इसका संबंध हमेशा ही मुख्य उद्देश्य के बारे में सोचने से होता है। मैंने पाया कि मैं ख़ुद से ही प्लान बी, सी या डी के बारे में पूछ रहा था।

चलिए, मान लेते हैं कि राजस्थान में हम ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया। लेकिन उस सरकार का क्या जो अब भी चाहती है कि हम उसके राज्य में काम करें? हमारी स्थानीय टीम और उस समुदाय का क्या होता है जिसके साथ वे काम करते हैं? इसलिए मेरा नज़रिया बदल गया। 

और, जहां तक चुनौतियों की बात है तो ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब मैं ख़ुद को यह याद नहीं दिलाता हूं कि हमारे पास 2,700 से अधिक कर्मचारी और 17,000 से ज़्यादा टीम सदस्य हैं। उन्होंने अपना जीवन और करियर हमें दे दिया ताकि हम अपना मिशन पूरा कर सकें। हम एक ऐसे संगठन का निर्माण कैसे कर सकते हैं जो मूल्यों से प्रेरित और लक्ष्य पर केंद्रित हो, और जिसके केंद्र में लड़कियां हैं। राजस्थान, यूपी, एमपी और बिहार सभी सरकारें, फंडर्स आदि के साथ काम करने की अपनी चुनौतियां होती हैं। तो, यह एक ऐसी झोली है जिसमें सब कुछ है।

नेतृत्व परिवर्तन की इसी प्रक्रिया से गुजरने की इच्छा रखने वाले अन्य भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?

सफ़ीना: मैं उनसे कहूंगी कि इसके लिए एक डिज़ाइन तैयार करें और इस प्रक्रिया को सोच-समझ कर शुरू करें। इसके लिए पर्याप्त समय दें क्योंकि इस तरह की कोई प्रक्रिया रातों-रात नहीं हो सकती हैं। इसे करने के पीछे का कारण उचित होना चाहिए। ख़ुद से यह सवाल करें कि आप वास्तव में ऐसा क्यों करना चाहते हैं। यदि इसके पीछे का कारण सही नहीं होगा तो यह पूरी प्रक्रिया आपके और इस भूमिका में आने वाले नए व्यक्ति, दोनों के लिए परेशानी खड़ी करने वाली होगी। दूसरी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है संवाद। हमने नेतृत्व परिवर्तन की घोषणा के लिए तैयार किए गए ई-मेल के प्रत्येक शब्द पर विचार-विमर्श किया था। मैंने हमारे सभी फंडर्स से बात की और उन्हें इसके बारे में बताया। इस स्थिति में ज़्यादा बातचीत करना सही होता है। और सबको साथ लेकर चलना भी जरूरी है।

महर्षि: सबसे पहली चीज़ यह है कि इसके लिए आप तैयार हो जाएं। आप रातों-रात किसी संस्थापक की भूमिका में नहीं जा सकते हैं। जब सफ़ीना और उज्जवल ने मुझे इसकी घोषणा की तारीख़ के बारे में बताया और मुझसे कहा कि वे फ़ंडर्स को पहले ही इस बारे में सूचित करने वाले हैं और टीम को एकजुट करने वाले हैं, फ़ील्ड में काम कर रहे टीम के लिए एक वीडियो संदेश शूट करने वाले हैं तो ये सब सुनकर मैं कांप गया था।

संस्थापक एक अलग व्यक्ति है और आपको उनकी नकल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

संस्थापक एक अलग व्यक्ति है और आपको उनकी नक़ल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उनके बेस्ट प्रैक्टिस को अपनाना ठीक है लेकिन उस व्यक्ति की तरह बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने व्यक्तित्व को बनाए रखना चाहिए। जब तक आप स्वयं को संगठन की सोच और उसके लक्ष्य से जोड़कर रखेंगे तब तक आप उस सोच को सच करने की कोशिश करते रहेंगे जो संस्थापक ने संगठन के लिए तय किया था। 

गोविंद मुझसे लगातार पूछते रहते थे कि “यह सफ़ीना का संगठन है आप इसे अपना संगठन कैसे बनाएंगे?” मैं कहता था “मैं इसे अपने तरीक़े से चलाकर अपना संगठन बनाउंगा।” लेकिन 2025 तक 15.6 लाख लड़कियों के नामांकन को सुगम बनाने का अंतिम लक्ष्य बदलने वाला नहीं है। शायद, इसका रास्ता मेरा हो सकता है और यह मेरी टीम हो सकती है जो योजना को लागू कर रही हो, लेकिन कुछ और नहीं बदला है।

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जन आधार कार्ड: महिलाओं की शिक्षा में नई बाधा?

साड़ी से सिर ढकी महिला कागज के एक टुकड़े पर लिख रही है_जन आधार
राजस्थान राज्य मुक्त विद्यालय को कक्षा 10 की परीक्षा के लिए पंजीकरण के लिए जन आधार कार्ड की आवश्यकता है। | चित्र साभार: एजुकेट गर्ल्स

राजस्थान के पाली जिले के ओडो की ढाणी गांव की रहने वाली नीलम* की उम्र 23 साल है। उनकी शादी 17 साल की उम्र में हो गई थी। अपनी शादी में छह साल तक शोषण झेलने के बाद 2022 में उन्होंने अपने पति को तलाक दे दिया। तब से, नीलम अपनी चार साल की बेटी को लेकर अपने माता-पिता के साथ रह रही हैं।

नीलम आगे पढ़ना चाहती हैं और आर्थिक रूप से सुरक्षित होना चाहती हैं। उनका कहना है कि “मैं 10वीं और 12वीं क्लास की परीक्षा पास करना चाहती हूं। मैंने केवल 8वीं कक्षा तक की ही पढ़ाई की है क्योंकि मेरे गांव के स्कूल में उससे आगे की पढ़ाई नहीं होती है। माध्यमिक प्रमाणपत्र होने पर मैं आंगनवाड़ी कर्मचारी या नरेगा साथी (सुपरवाइज़र) जैसी नौकरियों के लिए आवेदन दे सकती हूं। यहां तक कि किसी स्वयं-सहायता समूह में ख़ज़ांची बनने के लिए भी 10वीं कक्षा के प्रमाणपत्र की ज़रूरत होती है।”

नीलम वर्तमान में एक लर्निंग कैम्प में पढ़ रही हैं और 10वीं की बोर्ड परीक्षा देने के लिए तैयार हैं। हालांकि परीक्षा के लिए पंजीकरण करने की प्रक्रिया एक अलग ही चुनौती – जन आधार कार्ड के साथ आई है।

2019 में राजस्थान सरकार ने जन आधार कार्ड को राज्य द्वारा संचालित जन कल्याणकारी योजनाओं के वितरण को सुव्यवस्थित और एकीकृत करने के उद्देश्य के साथ लॉन्च किया था। परिवार की महिला मुखिया के नाम पर पंजीकृत, जन आधार कार्ड परिवार और एक व्यक्ति के लिए एक पहचान दस्तावेज के रूप में भी कार्य करता है। 2022 से, राजस्थान राज्य ओपन स्कूल द्वारा प्रशासित 10वीं कक्षा की परीक्षा सहित राज्य सरकार की कई योजनाओं से लाभान्वित होने और कई पंजीकरण प्रक्रियाओं के लिए कार्ड को अनिवार्य बना दिया गया है। हालांकि यह कई लोगों के लिए शिक्षा पाने में बाधा भी बन रहा है, विशेषकर नीलम जैसी तलाकशुदा महिलाओं के लिए जो स्कूल में दोबारा नामांकन करवाकर पढ़ने की कोशिश कर रही हैं। 

शादी हो जाने के बाद परिवार के जन आधार से महिलाओं का नाम हटा दिया जाता है और उनके ससुराल के कार्ड में जोड़ दिया जाता है। तलाक के बाद, उन्हें अपने परिवार के जन आधार पर अपना नाम फिर से दर्ज कराना होगा, जो एक अलग काम है और इसके लिए दर-दर भटकना पड़ता है।

फरज़ाना, लड़कियों को उनकी माध्यमिक शिक्षा पूरी करने में मदद करने वाली समाजसेवी संगठन एजुकेट गर्ल्स के साथ काम करती हैं। उनका कहना है कि “मैं नीलम के साथ कई बार ग्रामीण स्थानीय सरकारी इकाई यानी कि पंचायत समिति और सब-डिविज़नल मजिस्ट्रेट ऑफिस गई। हमने कई अधिकारियों से उसकी स्थिति के बारे में बातचीत की। हमने सरपंच और पंचायत सचिव से एक-एक आवेदन पत्र भी लिखवाए और उन्हें लेकर तहसीलदार के दफ़्तर गए। तहसीलदार से सत्यापित करवाने के बाद आवेदन दोबारा पंचायत सचिव के पास गया। हमें एक एफ़िडेविट जमा करवाना था जिस पर यह लिखा होना था कि नीलम की शादी के बाद उसका नाम परिवार के जन आधार कार्ड से हटवा दिया गया था लेकिन चूंकि अब वह अपने माता-पिता के साथ ही रहती है तो उसका नाम दोबारा जोड़ा जाए।”

एक महीने तक तमाम सरकारी दफ़्तरों में जाने और कर्मचारियों से मिलने के बाद हम आखिरकार नीलम का नाम उसके परिवार के जन आधार कार्ड में जुड़वाने में सफल हुए। लेकिन तब तक राजस्थान राज्य मुक्त विद्यालय में पंजीकरण की समयसीमा वर्तमान सत्र के लिए खत्म हो चुकी थी और अब यह 2023 के जून महीने में दोबारा खुलेगी। इसका मतलब यह है कि नीलम अपनी परीक्षा 2024 के अप्रैल में ही दे पाएगी।

*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिया गया है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

फरज़ाना एजुकेट गर्ल्स के साथ मिलकर महिलाओं की शिक्षा के लिए काम करती हैं; नीलम एजुकेट गर्ल्स द्वारा आयोजित लर्निंग कैंप में पढ़ रही हैं।

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अधिक जानें: जानें कि जिन लोगों के पास राशन कार्ड नहीं थे, उन्हें महामारी के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान बिना भोजन के कैसे रहना पड़ा।

अधिक करें: फरज़ाना के काम के बारे में विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

 

एक एनजीओ के लिए ट्रू कॉस्ट फंडिंग कैसे हासिल करें?

ट्रू कॉस्ट फंडिंग कैसे हासिल करें, इस पर चर्चा करने से पहले हमें यह जानना जरूरी है कि ट्रू कॉस्ट फंडिंग क्या होती है? किसी भी समाजसेवी संस्था (एनजीओ) को संचालित करने में कई ऐसे खर्च शामिल होते हैं जो किसी प्रोजेक्ट के तहत नहीं आते हैं। इसके अलावा संस्था को खड़ा करने में निवेश करना और उसे चलाने के लिए कुछ धनराशि सुरक्षित (रिज़र्व्स) रखना, एनजीओ के लिए जरूरी होता है। फंडिग एजेंसियां आमतौर पर प्रोजेक्ट के लिए बजट प्रदान करती हैं। संस्था के कामकाज के लिए बजट का प्रावधान नहीं होने से संस्था को चलाने में दिक्कत होती है। अक्सर यह देखा जाता है कि संस्था से जुड़े कामकाज की फंडिग के ​लिए एनजीओ और फंडर्स में सहमति नहीं बन पाती है। ऐसे में, समस्या को फंडर्स के नजरिए से देखकर इसका हल निकाला जा सकता है।

भारत में एनजीओ को मिलने वाली आर्थिक सहायता के पर्याप्त होने के मसले पर संस्थाओं और फंडर्स में गंभीर मतभेद हैं। इस मामले की जड़ है – एनजीओ के संस्थागत विकास (ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट – ओडी) के लिए धन की ज़रूरत। जहां फंडर्स का कहना है कि वे दोनों (प्रोजेक्ट और ओडी) के लिए धन प्रदान करते हैं, वहीं एनजीओ का अनुभव इससे अलग है। उनके अनुसार ओडी के लिए धन न मिल पाने से उन्हें संस्था को विकसित करने में दिक्कत होती है तथा वे प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता भी नहीं विकसित कर पाते हैं।

हमारे शोध से पता चलता है कि जो एनजीओ, ओडी में साल-दर-साल निवेश करते हैं, उनकी वृद्धि दर (ग्रोथ रेट) बाकियों की तुलना में दोगुनी होती है। एनजीओ के विकास के लिए ज़रूरी विभागों और क्षमताओं (जैसे मानव संसाधन, नेतृत्व क्षमता, फंडरेज़िंग, कामकाज के आकलन और उससे सीखने की क्षमता – एमएलई आदि) का विकास करना, एक नींव बनाने की तरह है। इसके बूते पर वे सामाजिक बदलाव कार्यक्रमों को बेहतर ढंग से संचालित कर सकते हैं। इसके साथ ही प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए पर्याप्त मात्रा में रिज़र्व फंड बनाना भी एनजीओ के लिए जरूरी है। इनके सहारे ही एनजीओ अपने प्रोजेक्ट्स को और प्रभावी बना सकते हैं और व्यापक सामाजिक प्रगति में और अधिक योगदान दे सकते हैं। इसलिए फंडर्स और एनजीओ के बीच इस गतिरोध को तोड़ना बहुत ज़रूरी है।

फंडर्स और एनजीओ के बीच विश्वास बनाने के लिए फंडर्स की सोच और नज़रिये को समझना ज़रूरी है।

हमारे नए शोध में हमने पाया कि फंडर्स और एनजीओ के बीच विश्वास बनाने और इन प्रथाओं को बदलने के लिए, फंडर्स की सोच और नज़रिये को समझना ज़रूरी है। यह शोध पे-वाट-इट-टेक्स (पीडब्ल्यूआईटी) इंडिया इनिशिएटिव [Pay-What-It-Takes (PWIT) India Initiative] का हिस्सा है, जो द ब्रिजस्पैन ग्रुप और एटीई चन्द्रा फाउंडेशन (एटीईसीएफ), चिल्ड्रन्स इन्वेस्टमेंट फंड फाउंडेशन (सीआईएफएफ), एडेलगिव फाउंडेशन और फोर्ड फाउंडेशन का संयुक्त प्रयास है। इसका मकसद भारत के सोशल सेक्टर को मजबूत करना है। 

फंडर्स की सोच को समझने के लिए हमने 77 फंडर्स का सर्वे किया। इस सर्वे के नतीजों की तुलना हमने पिछले साल 388 एनजीओ के साथ किये सर्वे से की। हमने सर्वे से निकलने वाले निष्कर्षों को और गहराई से समझने के लिए 53 साक्षात्कार किए और अतिरिक्त इनपुट इकट्ठा करने के लिए फंडर राउंडटेबल्स और वर्कशॉप्स में भाग लिया। 

इस शोध के नतीजे दिखाते हैं कि फंडर्स का नजरिया, एनजीओ लीडर्स से बहुत अलग है। इसके साथ ही, ये फंडर्स एवं एनजीओ के बीच बेहतर संवाद और आपसी विश्वास को बढ़ाने की ज़रूरत की तरफ भी इशारा करते हैं।

हमारे हालिया सर्वे में, 75 प्रतिशत फंडर्स ने कहा कि वे जिन संस्थाओं को अनुदान देते हैं, उनके संस्थागत विकास और लंबे समय तक उन्हें चलाए रखने के लिए जरूरी चीजों में भी निवेश करते हैं। इसके विपरीत, पिछले साल 388 एनजीओ के सर्वे में 70 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि अधिकांश फंडर्स संस्था की जरूरतों के लिए अनुदान नहीं देते हैं। 68 प्रतिशत फंडर्स का मानना है कि उनकी नीतियां एनजीओ की ज़रूरत के मुताबिक प्रशासनिक लागत एवं अन्य महत्वपूर्ण गतिविधियों के ख़र्चों (गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या अप्रत्यक्ष लागत) को वहन करने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता देती हैं। इससे उलट, 83 प्रतिशत एनजीओ का कहना है कि यह फंड हासिल करना उनके लिए एक संघर्ष है। 

दलित, बहुजन और आदिवासी समुदाय के नेतृत्व वाले संगठन, भारत के अन्य एनजीओ की तुलना में वित्तीय रूप से बदतर हालात में हैं।

सर्वे में यह भी पाया गया कि बहुत कम फंडर्स (77 उत्तरदाताओं में से केवल सात) ही एनजीओ को रिज़र्व फंड बनाने में मदद करते हैं। ऐसे रिज़र्व के अभाव में फंड्स में होने वाली किसी अप्रत्याशित कमी की स्थिति में एनजीओ न सिर्फ वेतन भुगतान या अन्य मदों के खर्चे करने में असमर्थ हो जाते हैं बल्कि उनके लिए शोध और नए उपायों को अपनाने (इनोवेशन) जैसे ज़रूरी कार्यों में निवेश करना भी मुश्किल हो जाता है। इसके साथ ही, पिछले साल के शोध में हमने पाया कि दलित, बहुजन और आदिवासी समुदाय के नेतृत्व वाले संगठन, भारत के अन्य एनजीओ की तुलना में वित्तीय रूप से बदतर हालात में हैं। परिणामस्वरूप, भारत में हाशिये पर रहने वाले समुदायों की सेवा में लगे हुए संगठन स्वयं अक्सर आर्थिक रूप से हाशिये पर होते हैं।

एक एनजीओ के संचालन की वास्तविक लागत में ग़ैर-प्रोजेक्ट खर्चे (अप्रत्यक्ष लागत) जैसे कि संस्था के विकास में निवेश और रिजर्व्स बनाना भी शामिल है। फिर भी अधिकांश फंडर्स का लक्ष्य प्रोजेक्ट को फंड करना होता है। इसे लेकर फंडर्स का कहना है कि एनजीओ अपनी लागत और संस्थागत विकास की ज़रूरतों को ठीक से नहीं समझाते हैं। फंडर्स सर्वे में आधे लोगों का यह भी कहना था कि संस्थाएं ऐसा करते हुए पारदर्शिता नहीं बरतती हैं और खुद भी इस पर उचित ध्यान नहीं देती हैं।

रोहिणी निलेकनी फिलैन्थ्रॉपी की प्रमुख रोहिणी निलेकनी कहती हैं कि ‘एनजीओ को और अधिक होमवर्क करने की आवश्यकता है। कभी-कभी, शुरुआत में, वो अपनी जरूरतों को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं।’ लेकिन फिर भी फंडर्स का दायित्व है के वो आगे बढ़कर एनजीओ की इस विषय में मदद करें। वे आगे जोड़ती हैं कि ‘हमें एनजीओ के ओडी में निवेश की आवश्यकता के बारे में बात करने में मदद करनी चाहिए। कैसे वे फंडर्स की सहृदयता पर निर्भर न रहकर रणनीति (स्ट्रेटेजी) और तर्क के आधार पर अपनी बात रख सकते हैं।’

एनजीओ अपनी तरफ से ऊपर ज़िक्र की गई बातों में फंडर्स की मदद का स्वागत करेंगे। एनजीओ लीडर्स के अनुसार धन की कमी, फंडर्स के इन सवालों का संतोषजनक जवाब दे सकने की सीमित क्षमता का मूल कारण है। वे ‘पहले मुर्गी आई या अंडा’ वाली विरोधाभासी स्थिति को जी रहे हैं – ओडी फंडिंग के अभाव के चलते वे इस प्रकार की फंडिंग जुटाने के लिए ज़रूरी स्टाफ, संसाधन और क्षमता नहीं जुटा पाते हैं और यह चक्र चलता रहता है।

दो रेलवे ट्रैक एक दूसरे के बगल में_ट्रू कॉस्ट फंडिंग
फंडर्स का नजरिया, एनजीओ लीडर्स से बहुत अलग है। फंडर्स एवं एनजीओ के बीच बेहतर संवाद और आपसी विश्वास को बढ़ाने की ज़रूरत हैं। | चित्र साभार: फ़्लिकर

फंडर्स को अपनी ट्रू कॉस्ट फंडिंग ज़रूरतें कैसे पिच करें?

जहां फंडर्स को यह संवाद शुरू करना चाहिए वहीं संस्थाओं के लिए जरूरी है कि वे अपनी फंडिंग पिच और फंडर्स के साथ अपने संवाद को, फंडर्स की मानसिकता और नजरिए के मुताबिक ढालें। सर्वे में मिले जवाबों के विश्लेषण से पता चलता है कि फंडर्स को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। इनसे हमें उन अड़चनों को समझने में मदद मिलेगी जो फंडर्स के सामने ट्रू कॉस्ट फंडिंग को अपनाते हुए आ सकती हैं।

फंडर्स की मानसिकता को समझ कर संस्थाएं यह समझ सकती हैं कि किस फंडर से किस उद्देश्य के लिए और किस प्रकार से धन की मांग की जा सकती है। इस शोध के दौरान हमने ऐसे संवाद कर सकने में सफल रहे फंडर्स और एनजीओ से भी बात की। इस बातचीत से हमें ट्रू कॉस्ट फंडिंग जुटाने के गुर सीखने को मिले।  

1. प्रोग्राम पैरोकार (प्रोग्राम प्रोपोनेंट) के लिए पिच

इस प्रकार के फंडर्स का मानना होता है कि किसी प्रोग्राम या प्रोजेक्ट की फंडिंग उनके सीमित संसाधनों का सबसे अच्छा उपयोग है। वर्तमान में, ऐसे फंडर्स गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या अप्रत्यक्ष लागत के लिए अपने कुल अनुदान में एक ऊपरी सीमा या एक दर निश्चित करके रखते हैं। कई बार 5 से 15 प्रतिशत के बीच निश्चित यह दर एनजीओ की वास्तविक ज़रूरत की आधी भी नहीं होती है।

एनजीओ मुख्य रूप से कार्यक्रम को सहयोग देने के लिए इन फंडर्स से संपर्क कर सकती हैं। साथ ही, गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या अप्रत्यक्ष लागत और ओडी निवेश की ज़रूरत को स्पष्ट कर उनके लिए धन की मांग कर सकती हैं, जो फंडर को स्वीकार्य होती हैं। समय के साथ, जैसे-जैसे फंडर और संस्था का रिश्ता बेहतर होता है, एनजीओ अपनी ज़रूरतों को मज़बूती से फंडर के समक्ष रखें, और समझाएं कि प्रोग्राम की सफलता के लिए इन खर्चों का वहन और निवेश कितना जरूरी है। साथ ही, अपना ट्रू कॉस्ट बजट भी तैयार रखें। उदाहरण के लिए, एनजीओ यह बता सकते हैं कि ऑर्गेनाइजेशन कल्चर (संगठनात्मक संस्कृति) और प्रबंधन में निवेश करने से एनजीओ के कर्मचारी ज़्यादा लम्बे समय तक संगठन के साथ जुड़े रहते हैं जिससे प्रोग्राम में भी बेहतर सफलता हासिल होती है; या कैसे टेक्नोलॉजी में निवेश प्रोग्राम को और अधिक लोगों तक ज्यादा बेहतर ढंग से पहुंचा सकता है। एनजीओ ये भी बता सकते हैं कि इससे पहले दूसरे फंडर्स द्वारा गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने या ओडी में निवेश करने से प्रोग्राम में कैसे और कितने बेहतर परिणाम प्राप्त हुए थे।

2. परिस्थिति के अनुरूप नीतियों को ढ़ाल लेने वाले फंडर्स (अडैप्टिव फंडर्स) के लिए पिच

सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं के बीच सबसे बड़ा समूह, अडैप्टिव फंडर्स, गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान दरों को कुल अनुदान का 15 प्रतिशत से 25 प्रतिशत के बीच निर्धारित करता है, लेकिन अपनी ग्रांट मेकिंग में परिस्थिति के अनुरूप लचीलापन दर्शाता है। अडैप्टिव फंडर्स एनजीओ के साथ बातचीत के आधार पर गैर-प्रोजेक्ट खर्चे की दर निश्चित करते हैं या विशेष परिस्तिथियों या एनजीओ के साथ उनके संबंधों के आधार पर ओडी में निवेश करते हैं। इन फंडर्स से गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने के लिए या प्रोग्राम की सफलता और संस्था द्वारा लाये जा रहे सामाजिक बदलाव से सीधे जुड़ी ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट ज़रूरतों में निवेश के लिए संपर्क कर सकते हैं।

एनजीओ को चाहिए कि गैर-प्रोजेक्ट खर्चे या ओडी की ज़रूरतों का आकलन करते हुए फंडर्स को समझाएं कि अभी वे किस स्थिति में हैं और कैसे उन मदों के लिए ग्रांट देने से प्रोग्राम और संस्था के द्वारा लाये जाने वाले सामाजिक बदलाव पर एक सकारात्मक असर पड़ सकता है।

इन फंडर्स से सहायता प्राप्त करने के लिए संस्थाएं इस प्रकार के अनुदान और निवेश से होने वाले सकारात्मक प्रभावों की भी बात कर सकते हैं। जैसे – कमर्चारियों के मनोबल में वृद्धि या इन निवेशों से संस्था के वार्षिक बजट, रिजर्व फंड या सामाजिक बदलाव के स्तर (ज्यादा लोगों की सेवा कर पाना, या समुदाय की सेवा बेहतर ढंग से कर पाना) में बढ़ोतरी की बात की जा सकती है।

एक अन्य विकल्प टार्गेटेड फंड्स (targeted funds) को ढूंढ़कर उनसे संपर्क करना हो सकता है जिसमें टेक्नोलॉजी, रिसर्च एवं नॉलेज, या सस्टेनेबिलिटी जैसे विशिष्ट उद्देश्यों की फंडिंग की जाती है। ऐसे में ओडी ज़रूरतें अलग से प्रोग्राम फंडिंग के रूप में पिच की जा सकती हैं।

अडैप्टिव फंडर्स से बात करते समय, फंडर्स और एनजीओ की भागीदारी और उस से हासिल होने वाले बेहतर परिणामों के पूर्व उदाहरण देना जरूरी है। इन उदाहरणों से गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने या ओडी में निवेश से सामाजिक बदलाव के स्तर पर होने वाले सकारात्मक असर को दर्शाया जा सकता है। 

3. संगठन निर्माताओं (ऑर्गेनाइजेशन बिल्डर्स) के लिए पिच

संगठन निर्माता, प्रोग्राम फंडिंग के साथसाथ ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट में निवेश और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता के विकास का भी महत्त्व समझते हैं। ऐसे फंडर्स गैरप्रोजेक्ट खर्चे की दरें आमतौर पर एनजीओ लीडर्स के साथ बात करके निर्धारित करते हैं और यह दर 25 प्रतिशत से अधिक भी हो सकती हैं। वे एनजीओ की प्राथमिकताओं के आधार पर ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट फंडिंग भी प्रदान करते हैं। लेकिन इस श्रेणी से भी बहुत कम फंडर्स ही लगातार रिजर्व फंड का निर्माण करने में मदद करते हैं।

एनजीओ इस प्रकार के संगठन निर्माता फंडर्स को ट्रू कॉस्ट फंडिंग (वास्तविक लागत – प्रोग्राम फंडिंग, गैर-प्रोजेक्ट खर्चे के लिए अनुदान देने, ऑर्गेनाइजेशनल डेवलपमेंट में निवेश या रिजर्व फंड) के लिए पिच कर सकती हैं, ताकि वह एनजीओ को और अधिक प्रभावी, मजबूत, एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम बना सकें। अप्रतिबंधित अनुदान (अनरेस्ट्रिक्टेड फंडिंग) और आवश्यकतानुसार टार्गेटेड फंड्स के लिए भी पिच कर सकते हैं। एनजीओ निम्न सुझावों को भी अमल में ला सकते हैं:

संक्षेप में कहा जाए तो एनजीओ के लिए ऐसे फंडर्स को अपना भागीदार समझकर उनके साथ मिलकर काम करना जरूरी है क्योंकि इस तरह से मिली सफलता से भविष्य में अन्य फंडर्स को भी प्रेरित किया जा सकता है। 

ऊपर ज़िक्र किए गए सुझाव कोई पत्थर की लकीर नहीं हैं और संस्थाओं को चाहिए कि वे इन सुझावों को अपने संदर्भ और जरूरतों के मुताबिक समझ कर अमल में लाएं। फिर भी, ये सुझाव फंडर्स की श्रेणियों की समझ, आपसी संवाद को बेहतर करने और एक ऐसी बुनियाद खड़ी करने में मददगार हो सकते हैं जिनके ऊपर आपसी विश्वास, एक-दूसरे की परिस्थितियों की समझ, सकारात्मक सहयोग और आख़िरकार ट्रू कॉस्ट फंडिंग की इमारत की रचना की जा सकती है। सामाजिक बदलाव को लाने के रास्ते में सच्चे साझेदारों की तरह काम करके ही फंडर्स और एनजीओ एक मजबूत सोशल सेक्टर का निर्माण कर सकते हैं।

मूल लेख यहां पढ़ें। हिंदी अनुवाद और संपादन: उर्मिला गुप्ता, अलीना मुसन्ना, रोहन अग्रवाल और शशांक रस्तोगी। टिपणियों एवं सुझावों के लिए आशिफ़ शेख़ (जन साहस) को विशेष धन्यवाद।

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फ़ोटो निबंध: पश्चिम बंगाल के मछुआरे खेती को अपना नया पेशा क्यों बना रहे हैं?

पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के कई तटीय गांवों में मछुआरे बसे हुए हैं। अब इन मछुआरे समुदायों की आजीविका पर संकट मंडरा रहा है। इसका कारण जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला कटाव और दीघा, ताजपुर, शंकरपुर और मन्दारमनी में समुद्री तटों को जोड़ने जा रही तटीय सड़क वाली सरकार की विकास परियोजनाएं हैं।

बाईं ओर समुद्र और दाईं ओर एक बसा हुआ गाँव-मछुआरा समुदाय आजीविका
ताजपुर, पुरबा मेदिनीपुर के पास मौजूदा सड़कों को कटाव ने क्षतिग्रस्त कर दिया है।

बावन वर्षीय कबिता प्रधान पूर्वी मिदनापुर के एक तटीय गांव बागुरान जलपाई में रहने वाली एक मछुआरिन हैं। अक्टूबर 2022 में, उष्णकटिबंधीय चक्रवात सितरंग के बंगाल के तट से टकराने की भविष्यवाणी की गई थी। इस कारण कबिता का छ: सदस्यीय परिवार अपनी मछली पकड़ने की अस्थायी झोपड़ी को खाली कर निकटतम चक्रवात आश्रय में चला गया। हालांकि सितरंग बंगाल के तट से नहीं टकराया और कबिता के परिवार का घर सुरक्षित रह गया। लेकिन कटाव और तटीय बाढ़ के कारण पिछले कई दशकों में कबिता के परिवार को कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ा। कबिता का कहना है कि “हम हमेशा तूफान, बाढ़ और नुकसान का सामना करने की चिंता के साथ जीते हैं। 2021 में जब चक्रवात यास 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से हवा के साथ तट से टकराया तो हमने सब कुछ खो दिया। एक ओर, मछलियों की संख्या में कमी आ गई है, और दूसरी ओर, जलवायु परिस्थितियां हमें असुरक्षित बना रही हैं।”

बागुरन जलपाई की एक मछुआरा, कबिता प्रधान की प्रोफ़ाइल-मछुआरा समुदाय आजीविका
बागुरन जलपाई में रहने वाली मछुआरिन कबिता प्रधान।

मछलियों की संख्या में रही कमी से आजीविका का संकट पैदा हो रहा है

मछली पकड़ने के काम में आर्थिक नुक़सान हो रहा है। इस नुकसान की भरपाई के लिए बागुरान जलपाई के एक अन्य मछुआरे देवव्रत खुटिया ने अपनी जमीन पर खेती शुरू कर दी है। खुटिया का कहना है कि “पहले हम अपनी नांवों में काम करने के लिए मज़दूर रखते थे लेकिन अब लाभ कमाने के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में मछली पकड़ने के काम में बहुत फायदा नहीं रह गया है इसलिए हम आजीविका के लिए खेती करने लगे हैं।” राज्य में अपनी आजीविका के लिए तटीय मछली पकड़ने और इससे संबंधित गतिविधियों पर निर्भर लोगों की संख्या लगभग 4,00,000 है। वे आगे बताते हैं कि इनमें से 90 फ़ीसद लोगों ने या तो खेती से जुड़ा काम शुरू कर दिया है या फिर बेहतर अवसर के लिए दूसरे राज्यों में चले गए हैं।

बागुरन जलपाई के एक पारंपरिक मछुआरे देवव्रत खुटिया की प्रोफ़ाइल, जो अपने खेत में काम कर रहे हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
बागुरन जलपाई के पारंपरिक मछुआरे देवव्रत खुटिया अपने खेत में काम करते हुए।

देवव्रत और अन्य छोटे मछुआरों का कहना है कि मछली पकड़ने के लिए ट्रॉलरों को मिलने वाले लायसेंस, समुद्र में मछलियों की संख्या में आने वाली गिरावट का ज़िम्मेदार हैं। गंगा के मुहाने से लेकर बंगाल की खाड़ी की गहराई तक, लगभग 15,000 ट्रॉलर मंडरा रहे हैं और ये हमारा रास्ता रोक रहे हैं। समुद्र तट से बारह समुद्री मील के दायरे में गहराई में जाकर मछली पकड़ने (बॉटम ट्रॉलिंग) पर प्रतिबंध लगा हुआ है। लेकिन पूर्वी मिदनापुर में छोटे स्तर के मछुआरों का कहना है कि ये ट्रॉलर समुद्री तट से एक मील की दूरी पर ही गहराई में उतरकर मछली पकड़ने लगते हैं। इससे पारंपरिक छोटे मछुआरों पर आजीविका का संकट मंडराने लगा है।

ताजपुर के पास जलदा मत्स्य खोटी (एक फिश लैंडिंग सेंटर जिसे मछुआरा समुदाय द्वारा प्रबंधित किया जाता है) में एक छोटे पैमाने के मछुआरे संतोष बार ने बताया कि ट्रॉलर समुंद्र में गहरे उतरकर मछली पकड़ते हैं लेकिन वहीं पारंपरिक और टिकाऊ तरीक़ों से मछली पकड़ने वाले मछुआरों की अपनी सीमाएं हैं। संतोष का कहना है कि “हमारी परंपरा के अनुसार हम समुद्र तट से 3–5 समुद्री मील से आगे नहीं जा सकते हैं। हम अपनी नाव को एक खूंटे से बांध देते हैं और आवंटित क्षेत्र में अपना जाल बिछाते हैं। लेकिन ट्रॉलर ऐसे किसी भी नियम को नहीं मानते। वे जहां और जितना चाहें उतनी गहराई में उतरकर मछली पकड़ते हैं।”

एक पारंपरिक मछली लैंडिंग केंद्र, जिसमें एक के बाद एक बैरिकेड्स और झोपड़ियाँ हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
ताजपुर में जलदा मत्स्य खोटी (पारंपरिक मछली लैंडिंग केंद्र), लगभग 4,000 मछुआरे परिवारों का घर है।

दक्षिण बंगाल मत्स्यजीवी फोरम (डीएमएफ), दक्षिण बंगाल में एक छोटे पैमाने पर मछुआरा संघ है जो तटीय मछुआरों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करता है। इसके अध्यक्ष देबाशीष श्यामल कहते हैं कि “हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल में समुद्री मत्स्य पालन में उत्पादन दर में काफ़ी गिरावट आई है। मत्स्य पालन विभाग के आंकड़ो के अनुसार 2017–18 में राज्य का मछली उत्पादन 1.85 लाख टन था। 2018–19 और 2019–20 में उत्पादन की यह मात्रा घटकर 1.63 लाख टन हो गई।”

लकड़ी के डंडे पर लटके जाल में मछलियां ले जा रहे दो किसान-मछुआरा समुदाय आजीविका
दादनपत्रबार में ताज़ी मछलियां ले जाते मछुआरे।

देबाशीष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और अनियोजित विकास परियोजनाओं ने इस क्षेत्र के छोटे स्तर के मछुआरों की आजीविका को प्रभावित किया है। वे जोड़ते हैं कि “वार्षिक मछली मारने का समय अंतराल (सितम्बर से मार्च) अक्सर ही आने वाले साइक्लोन के कारण कम हो गया है। इसके अलावा, दीघा, शंकरपुर, मन्दारमनी और ताजपुर की तटीय विकास परियोजनाओं के कारण ऐसी भूमि कम होती जा रही है जहां मछुआरे मछली सुखाने का काम करते थे।”

यास चक्रवात के बाद समुद्र और समुद्र तट पर हर जगह मलबा-मछुआरा समुदाय आजीविका
चक्रवात यास के बाद ताजपुर में तबाही के संकेत।

मरीन ड्राइव परियोजना से समुदाय को और अधिक खतरा है

दीघा, ताजपुर, शंकरपुर और मन्दारमनी में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 2018 में शुरू हुई मरीन ड्राइव विकास परियोजना में 173 करोड़ रुपये का निवेश किया गया था। स्थानीय लोगों का दावा है कि 29.5 किमी लंबी तटीय सड़क से हजारों मछुआरों के जीवन और आजीविका के साथ-साथ क्षेत्र की नाजुक तटीय पारिस्थितिकी पर भी ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं।

रात में रोशनी से जगमगाता पुल-मछुआरा समुदाय आजीविका
सौला पुल, हाल ही में निर्मित मरीन ड्राइव का हिस्सा है।

ताजपुर के पास नवनिर्मित सड़क मई 2021 में चक्रवात यास के कारण बह गई थी। ताजपुर के एक स्थानीय दुकान मालिक सुरंजन बराई ने बताया कि “समुद्र अपनी वर्तमान स्थिति से लगभग 2 किमी दूर था। पहले पर्यटक नियमित रूप से आते थे और ताजपुर समुद्र तट पर लगभग सौ स्टॉल थे, लेकिन कटाव के कारण अब यहां कुछ भी नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में तट का विस्तार भी कम हो चुका है।” 2018 में जारी नेशनल सेंटर फॉर कोस्टल रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक 63 प्रतिशत क्षरण दर्ज किया गया है, इसके बाद पुडुचेरी में 57 प्रतिशत, केरल में 45 प्रतिशत और तमिलनाडु में 41 प्रतिशत का क्षरण दर्ज किया गया है।

समुद्र के किनारे निर्माण कार्य-मछुआरा समुदाय आजीविका
ताजपुर में निर्माण कार्य प्रगति पर है। मई 2021 में चक्रवात यास के तट से टकराने पर तट का यह हिस्सा बह गया था।

दादनपत्रबार मत्स्य खोटी के एक पारंपरिक मछुआरे श्रीकांत दास ने कहा कि मरीन ड्राइव परियोजना छोटे स्तर के मछुआरों से परामर्श किए बिना ही शुरू कर दी गई। ये मछुआरे यहां के महत्वपूर्ण स्थानीय हितधारक हैं। श्रीकांत का दावा है कि सरकारी विभाग के पास न तो योजना है और न ही नक्शे। वे बताते हैं कि “2018 की शुरुआत में, हमने सुना कि तट के साथ एक डबल-लेन सड़क का निर्माण किया जाएगा। तब से हमने सरकारी विभागों से उनकी योजनाओं के बारे में पूछना शुरू किया क्योंकि हम (छोटे मछुआरे) तटों पर रहते हैं और इसका इस्तेमाल छह महीने तक मछलियों को सुखाने के लिए करते हैं।” उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा “हमने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन किया था जिसमें हमने परियोजना के विस्तार और वास्तविक नक़्शे के बारे में जानने की मांग की थी। लेकिन अधिकारियों से हमें इस आवेदन को लेकर कोई जवाब नहीं आया। इस परियोजना को तटीय विनियमन क्षेत्र की मंजूरी नहीं मिली है।”

बाईं ओर एक झोपड़ी। झोंपड़ी के बगल में लकड़ी के खंभों पर और झोपड़ी के सामने फर्श पर मछलियां लटकी हुई हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
दादनपत्रबार मत्स्य खोटी में एक पारंपरिक झोपड़ी।

जब उनके मछली सुखाने वाले क्षेत्र के बीच में सड़कें बनने लगीं तो श्रीकांत जैसे छोटे मछुआरों ने विरोध किया और दादनपत्रबार में निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। सरस्वती दास नाम की एक मछुआरिन ने कहा कि लगभग 4,000 परिवार दादनपत्रबार खोटी में रहते हैं। उन्हें इस बारे में नहीं बताया गया था कि इस सड़क के निर्माण से वे बेघर हो जाएंगे। उन्हें अभी तक मछली पकड़ने और मछली सुखाने का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं कराया गया है। सरस्वती का यह भी दावा है कि यदि सरकार मरीन ड्राइव परियोजना के लिए सड़कों का निर्माण शुरू कर देती है तो इसके अलावा 10 अन्य खोटियां विस्थापित हो जाएंगी। वर्तमान में नयाखली, जलदा और सौला में तीन पुलों के निर्माण का काम पूरा हो चुका है। दादनपत्रबार खोटी के पास दक्षिण पुरोसोत्तमपुर गांव में मछुआरों के विरोध के कारण काम ठप है।

एक मछुआरे सरस्वती दास की प्रोफाइल, जो जमीन पर बैठकर मछली छांट रही हैं-मछुआरा समुदाय आजीविका
दादनपत्रबार में मछलियों की छंटाई का काम कर रही एक मछुआरिन सरस्वती दास।

दक्षिण पुरोसोत्तमपुर के ग्रामीण ज्यादातर मौसमी मछली पकड़ने के साथ-साथ कृषि करते हैं। उनका दावा है कि मरीन ड्राइव परियोजना के लिए 27 ग्रामीणों की लगभग 25 बीघा (1 बीघा = 27,000 वर्ग फुट) कृषि भूमि का अधिग्रहण किया गया है। दक्षिण पुरोसोत्तमपुर के एक ग्रामीण बिरेन जाना ने बताया कि “मेरी 6 दशमलव ज़मीन चली गई (1 दशमलव 435.6 वर्ग फुट है); गांव के एक दूसरे आदमी की 3 बीघा ज़मीन सड़क में चली गई। हमने अपने नुकसान की भरपाई के लिए सरकारी विभाग से गुहार लगाई है, लेकिन कुछ नहीं हुआ।” जाना ने आगे बताया कि वे विकास के लिए अपनी जमीन देने को राज़ी हुए थे, लेकिन उचित मुआवजे के साथ।

खेत में फसल काटते हुए पूर्ण चंद्र सासमल की प्रोफाइल-मछुआरा समुदाय आजीविका
अपनी 8 कट्ठा (1 कट्ठा 720 वर्ग फुट) ज़मीन खोने वाले पूर्ण चंद्र सास्मल दक्षिण पुरोसोत्तमपुर में अपनी खेत में काम करते हुए।

विधान सभा के एक स्थानीय सदस्य अखिल गिरी ने कहा कि सरकार इन मुद्दों से अवगत है। उन्होंने आगे दावा किया कि मछुआरा समुदाय के लाभ के लिए सड़क का निर्माण किया गया था। वे कहते हैं “समुदायों के साथ झगड़ा-झंझट और विवाद से बचने के लिए कुछ स्थानों पर सड़क को मोड़ दिया गया है। बिना सहमति के सरकार किसी की जमीन का अधिग्रहण नहीं करेगी। सरकार जिनकी भी ज़मीन लेगी उन्हें मुआवजा मिलेगा; प्रक्रिया जारी है।” वे कहते हैं कि “अब वे अपनी खोटी से बड़ी आसानी से सूखी मछलियों का आयात-निर्यात कर सकते हैं।

देबाशीष ने कहा कि सरकार हमेशा समुद्र के किनारे पर्यावरण की दृष्टि से विनाशकारी परियोजनाओं की योजना बनाती रही है, लेकिन स्थानीय मछुआरा समुदाय को कभी शामिल नहीं करती है, जिनका जीवन समुद्र पर निर्भर करता है। “इससे पहले हमने हरिपुर में परमाणु हथियार लॉन्च-पैड परियोजना देखी है और हाल ही में ताजपुर में गहरे-समुद्री बंदरगाह के निर्माण को मंजूरी दी गई है। यहां तक ​​कि राज्य सरकार द्वारा पर्यटन विकास के आधार पर कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा देने के लिए मरीन ड्राइव परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारा मानना ​​है कि ये परियोजनाएं हमें कभी भी उचित रोजगार नहीं देंगी और छोटे पैमाने के और कारीगर मछुआरों के लिए वैकल्पिक आजीविका के रूप में कारगर नहीं हो सकती हैं।”

सभी चित्र तन्मय भादुड़ी से साभार लिए गए हैं। यह फ़ोटो-निबंध दिल्ली फोरम द्वारा समर्थित यूथ फॉर द कोस्ट फेलोशिप के हिस्से के रूप में तैयार किया गया है।

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क्यों बाल-विवाह पर असम के मुख्यमंत्री की कार्रवाई पर रोक लगनी चाहिए?

23 जनवरी को, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने घोषणा की कि राज्य सरकार बाल-विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (पीसीएमए) और पोक्सो (पीओसीएसओ) अधिनियम के तहत बाल-विवाह के खिलाफ एक राज्यव्यापी अभियान शुरू करेगी। इसकी वजह बताते हुए उनका कहना था कि “नाबालिग लड़की से विवाह करना न केवल कानून के खिलाफ है, बल्कि यह लड़की के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और उसके स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक भी है।” फरवरी की शुरुआत में, इस क़ानून को लागू किया गया और लागू होने के दूसरे सप्ताह तक ही राज्य में 3,015 गिरफ्तारियां हो गईं। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि पुलिस पिछले सात वर्षों में बाल-विवाह में शामिल लोगों को पूर्वव्यापी प्रभाव से गिरफ्तार करेगी। नतीजतन ऐसे पुरुष भी गिरफ़्तार हुए हैं जिनका विवाह वर्षों पहले हुआ था। उनकी पत्नियां अब वयस्क हो चुकी हैं और कुछ मामलों में तो उनकी, कम से कम एक, संतानें भी है। यदि पति उपलब्ध नहीं है तो परिवार के अन्य सदस्य (भाई, मां, और/या पिता) की गिरफ़्तारी हुई है।

इस कार्रवाई के व्यापक नतीजे दर्ज किए जा रहे हैं। कई परिवार अलग हो गए हैं और/या आर्थिक सहायता का अपना मुख्य स्रोत यानी कमाऊ सदस्य खो चुके हैं। कई युवतियों ने पुलिस थानों के बाहर खड़े होकर विरोध जताया और कहा कि उनकी शादी उनकी मर्ज़ी से हुई थी और वे इसे तोड़ना नहीं चाहती हैं। लेकिन इन सब का कोई फ़ायदा नहीं हुआ है। स्वास्थ्य के पहलू पर भी अपनी इच्छा से गर्भवती हुई महिलाओं ने गर्भपात वाली गोलियां खाकर, ना चाहते हुए भी गर्भपात करवाया। इनमें अक्सर ग़लत तरीक़े से इन गोलियों के सेवन और गर्भपात के लिए असुरक्षित तरीक़े अपनाए जाने के मामले सामने आए हैं। कई गर्भवती लड़कियों ने जानबूझकर प्रसव के पहले होने वाली अपनी स्वास्थ्य जांचें ना करवाने का विकल्प चुना तो वहीं कई लड़कियों ने घर पर प्रसव करवाने का फ़ैसला कर कई तरह के जोखिम उठाए। पिछले दिनों एक दुखद मामला सामने आया था जिसमें एक किशोरी लड़की की प्रसव के दौरान ही मृत्यु हो गई थी। यह सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उसका परिवार किसी अस्पताल में जाकर प्रसव करवाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। परिवार को लड़की के पति की गिरफ़्तारी का डर था। जहां एक तरफ़ बाल-विवाह पर रोक लगाने की मुख्यमंत्री के ये इरादे सराहनीय हैं, वहीं दूसरी तरफ़ लड़कियों और उनके परिवारों की भलाई को नज़रअन्दाज़ करते हुए ऐसे कठोर कदम उठाना ग़ैरजिम्मेदाराना भी है। इस फैसले ने गर्भावस्था से संबंधित देखभाल से जुड़े उन लाभों को उलट कर रख दिया है जो बीते कई सालों में अथक कोशिशों से हासिल किए गए थे। साथ ही, यह कदम लड़कियों और युवतियों के अपनी पसंद से चुनाव करने के अधिकार का भी हनन कर रहा है।  इसके अलावा, इस दृष्टिकोण में उन कारकों पर ज़ोर देना शामिल नहीं हैं जो बाल-विवाह को बढ़ावा देते हैं और रणनीति के स्तर पर भी ये तरीक़े बाल-विवाह की रोकथाम पर खरे नहीं उतरते हैं।

असम में बाल-विवाह की स्थिति

बिहार, झारखंड, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल के साथ असम उन राज्यों में शामिल है जहां बाल-विवाह की दर सबसे अधिक है। 2019–21 में, असम में 20-24 वर्ष की उम्र की 32 फ़ीसद लड़कियों का विवाह 18 वर्ष से पहले कर दिया गया था, वहीं साल 2005-06 (31 फ़ीसद) में भी यह आंकड़ा लगभग समान ही था। ज़्यादातर शादियां बचपन के अंतिम पड़ाव में होती हैं और 15-19 वर्ष के आयु वर्ग की केवल 2.1 फ़ीसद लड़कियों का विवाह 15 साल की उम्र से पहले हुआ था। किशोरावस्था (उम्र 15-19) में गर्भधारण की उम्र 18–19 वर्ष की उम्र के बीच है। यह दर 17 वर्ष की आयु वालों के लिए 5.3 फ़ीसद (और 16 वर्ष की आयु के लिए 2.2 फ़ीसद) से क्रमशः 18.3 फ़ीसद और 33.4 फ़ीसद 18 और 19 वर्ष की आयु वालों के लिए है।

बाल-विवाह क्यों होते हैं?

भारत में बाल-विवाह की लगातार बनी हुई स्थिति के पीछे चार मुख्य कारकों को देखा जाता है। ये कारक हैं: पारिवारिक ग़रीबी, पितृसत्तात्मक संरचना और लैंगिक असमानता, मानवीय संकट या संघर्ष और व्यवस्था-स्तर की कमियां। गरीबी इसकी एक प्रमुख वजह है। कई अध्ययनों ने इस बात की पुष्टि की है कि अधिक शिक्षित महिलाएं, आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार से आने वाली महिलाएं, शहरी क्षेत्रों की महिलाएं और कम वंचित सामाजिक समूहों से आने वाली महिलाओं को अन्य तबकों की महिलाओं की तुलना में बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का सामना कम करना पड़ता है। गरीबी, परिवार के आर्थिक विकल्पों को सीमित करती है, और विवाह से परिवार अपनी बेटियों के आर्थिक बोझ को पति के परिवार पर स्थानांतरित कर देते हैं। चूंकि दुल्हन का पिता विवाह का खर्च उठाता है इसलिए गरीब परिवार अक्सर अपनी बेटियों की शादियां एक साथ और कम उम्र में कर देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में शादी के ख़र्चों को कम करने के लिए अक्सर ही लड़कियों की उम्र का ख़्याल नहीं रखा जाता है।

भारत के अधिकांश हिस्सों में अब भी पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था क़ायम है। इस व्यवस्था में गहराई तक गुंथे लैंगिक मानदंडों को बनाए रखने की प्रथा अब भी है। साथ ही, बच्चों की शादी का समय और उनके लिए जीवनसाथी के चुनाव का निर्णय भी पितृसत्ता पर ही निर्भर करता है। इन नियमों के पालन का दबाव होता है। माता-पिता से बार-बार उनकी बेटी के अविवाहित होने के कारण पूछना और उनके लिए उपयुक्त पति ढूंढ़ने की पेशकश करना, बेटियों के बारे में अफ़वाहें और परिवार के अन्य सदस्यों को लेकर भद्दी टिप्पणियों आदि के कारण, अपनी लड़कियों की शादियों में होने वाली देरी को लेकर मानसिक रूप से तटस्थ परिवार भी विचलित हो जाता है। एक पिता ने हमें बताया कि “सब जानते हैं कि कम उम्र में शादी करना ग़लत है। लेकिन इसके बावजूद सभी ऐसा करते हैं… लोगों को इस प्रथा को तोड़ने में डर लगता है…गांव के 90 फ़ीसद लोग मानते हैं कि बाल-विवाह एक सामाजिक प्रथा है। अगर कोई इसके उल्लंघन का प्रयास करता है तो उसे समुदाय से बाहर कर दिया जाता है।” इसके अलावा कौमार्य का महत्व और इस बात का डर कि उम्र बढ़ने पर लड़कियों का लड़कों के साथ घुलने मिलने और यौन संबंध बनाने या फिर माता-पिता की अनुमति के बिना शादी कर लेने और इससे उनके परिवार की इज़्ज़त (प्रतिष्ठा) पर आंच आने जैसी बातें भी बाल-विवाह जैसी प्रथा को बनाए रखने में अपनी भूमिका निभाती हैं।

लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों में बाल-विवाह में वृद्धि देखी गई थी।

राजनीतिक संकटों जैसे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और ऐसे ही क़ानूनों के कारण उपजी अनिश्चितता के कारण, बाढ़ या महामारी जैसे मानवीय संकट के समय में गरीब परिवारों को लैंगिक रूप से असमान मानदंडों के पालन की ओर धकेला जा सकता है। वे बाल-विवाह को आर्थिक तंगी से निपटने और लड़कियों को हिंसा से ‘सुरक्षित’ रखने या कम संसाधनों से निपटने के साधन के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए लॉकडाउन के दौरान कई राज्यों में बाल-विवाह में वृद्धि देखी गई थी।

व्यवस्था-स्तर की कमियां भी एक बड़ी बाधा है। भारत में बाल-विवाह की बड़ी संख्या के बावजूद  पीसीएमए के तहत आपराधिक रिकॉर्ड में शायद ही कोई उल्लंघन दिखाई देता है। 2021 में केवल 1,050 मामले ही दर्ज हुए थे। मुख्यमंत्री ने न केवल हाल में हुई शादियों को ही निशाने पर लिया था बल्कि इनमें सात साल पहले हुई शादियां भी शामिल थीं। बावजूद इसके इतने कम मामले का दर्ज होना अधिनियम के कार्यान्वयन के प्रति कानून लागू करवाने वाले अधिकारियों की गम्भीरता और सीमित कार्रवाई को दर्शाता है और उनके अंतर्निहित इरादों पर सवालिया निशान लगाता है।

क्या दंडात्मक उपाय काम करते हैं?

सबूत बताते हैं कि दंडात्मक उपाय अपनाने और अपराधीकरण करने से बाल-विवाह को छुपाने और जानबूझ कर दुल्हनों की ग़लत उम्र बताकर गुप्त बाल-विवाह के मामलों को बढ़ावा मिलता है। इन कठोर उपायों की बजाय नरम दृष्टिकोण अपनाने वाली पहलें, दंडात्मक कार्रवाइयों और अपराधीकरण करने की बजाय क़ानूनी ताकत का उपयोग करने को, बाल-विवाह को रोकने के उपाय के रूप में अपनाने से अधिक नतीजे मिलने की संभावना होती है। इससे परिवार और समुदाय में इसकी स्वीकार्यता का स्तर बढ़ेगा। उदाहरण के लिए, कई संगठनों ने कानून का उपयोग माता-पिता के अलावा कई तरह के उन लोगों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए किया है, जिन्हें बाल-विवाह में भाग लेने के लिए दंडित किया जा सकता है। दूसरों ने यह सुनिश्चित किया है कि माता-पिता विवाह योग्य उम्र तक पहुंचने से पहले अपनी बेटी की शादी नहीं करने का वादा करते हुए एक शपथ पर हस्ताक्षर करें। बाल-विवाह को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयासों में पुलिस और अन्य प्रशासनिक अधिकारों को शामिल कर क़ानूनी रूप से बाल-विवाह आयोजनों को रोकने की कोशिश भी शामिल है। कई संगठन पर्चे भी वितरित करते हैं जिन पर प्रमुखता से स्थानीय हेल्पलाइन नंबर लिखा होता है। इनसे समुदाय के सदस्यों को बाल-विवाह की रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हालांकि, वे भी कानून के तहत मामला दर्ज करने और किसी की गिरफ्तारी से बचते हैं, और इसकी बजाय चेतावनी या परामर्श के माध्यम से बाल-विवाह को रोकने के लिए क़ानूनी ताकत का इस्तेमाल करते हैं।

काली चप्पल पहने पुरुष और नीली साड़ी में महिला-बाल विवाह असम
सबूत बताते हैं कि दंडात्मक कार्रवाई और अपराधीकरण केवल बाल-विवाह को भूमिगत करते हैं। | चित्र साभार: इंविजिबल लेंस फ़ोटोग्राफ़ी / सीसी बीवाई

बाल-विवाह को कम करने के कारगर उपाय क्या हैं?

इस बात का कोई सबूत नहीं है कि दंडात्मक कार्रवाई के सकारात्मक परिणाम मिले हैं या लड़कियों को सशक्त बनाने में सफलता मिली है। कानूनों का कार्यान्वयन बाल-विवाह को हतोत्साहित करने या उसके उन्मूलन या लड़कियों के समझपूर्ण विकल्प और समान अवसरों के मौलिक अधिकारों का सम्मान करने में महत्वपूर्ण योगदान नहीं देता है।

लड़कियों के विवाह में देरी, उन्हें सशक्त बनाने और उनके अधिकारों का सम्मान करने के लिए शिक्षा अब तक की सबसे प्रभावी रणनीति है।

सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे होता है और मुख्यमंत्री को यह समझना चाहिए कि किसी भी प्रकार का सुधार तुरंत नहीं किया जा सकता हैं। इसकी बजाय वे साक्ष्य-आधारित रणनीतियों पर विचार कर सकते हैं जिनके जरिए लड़कियों को सशक्त बनाया गया हो और बाल-विवाह जैसे मामलों में कमी आई हो। शादी में देरी करने, लड़कियों को सशक्त बनाने और उनके अधिकारों का सम्मान करने की अब तक की सबसे प्रभावी रणनीति है लड़कियों को स्कूल में रखना और यह सुनिश्चित करना कि वे माध्यमिक शिक्षा पूरी करें। स्कूल में लड़कियों (और लड़कों) को बनाए रखने के लिए सबसे आशाजनक मॉडल पश्चिम बंगाल में चल रहा मॉडल है जिसमें नियमित स्कूल उपस्थिति के लिए सशर्त नकद अनुदान का प्रावधान रखा गया है। साथ ही, ऐसे कार्यक्रम भी उम्मीद जगाते हैं जिनमें ज़रूरतमंद के लिए सप्लिमेंट्री कोचिंग प्रदान की जाती है, और बिहार में शुरू की गई साइकिलों के प्रावधान वगैरह ने गरीब माता-पिता को स्कूली शिक्षा का खर्च वहन करने में सक्षम बनाया है।

बड़ी उम्र की लड़कियों को सफलता के साथ स्कूल से नौकरी करने वाली स्थिति तक पहुंचाने के प्रयासों में, शैक्षिक प्रणाली के भीतर या बाहर से दिए जाने वाले, आजीविका प्रशिक्षण और रोज़गार कौशल के प्रावधान भी शामिल हैं। शिक्षा प्राप्त करने की तरह ही यह बाल-विवाह का विकल्प बन सकता है और साथ ही उन माता-पिता से उनकी बेटी के विवाह न करने को लेकर पूछे जाने वाले सामान्य प्रश्न का उत्तर भी बन सकता है। आजीविका का उचित कौशल प्रशिक्षण और संबंधित कमाई के अवसरों तक पहुंचने के लिए लड़कियों को सलाह देना और उनका मार्गदर्शन करना दर्शाता है कि वे भी अपने भाइयों की तरह अपने परिवार की आर्थिक सम्पत्ति बन सकती हैं। ये लड़कियों के सीमित महत्व की धारणा को भी कमजोर करता है।

ओडिशा में, राज्य सहित कई स्तरों पर लड़कियों में अभिव्यक्ति और चुनाव की क्षमता को मज़बूत करने से जुड़ी पहलें भी उम्मीद जगाने वाली रही हैं। लैंगिक मानकों और असंतुलन को बदलने वाले जीवन कौशलों को सिखाने वाले ये कार्यक्रम लड़कियों को एकजुट होने, उन्हें नए विचारों और कौशलों से परिचित कराने और उनके अधिकारों और समर्थन के स्रोतों के बारे में परिचित कराने के लिए एक सुरक्षित स्थान प्रदान करते हैं। वे विवाह में देरी के महत्व और उन रणनीतियों के बारे में भी बताते हैं जिससे वे इस प्रथा को रोक सकते हैं। 

माता-पिता और प्रभावी सामुदायिक नेताओं से अवश्य सम्पर्क किया जाना चाहिए। पारंपरिक लैंगिक मानदंडों को बदलने के उद्देश्य वाले समुदाय-आधारित कार्यक्रमों की आवश्यकता है और साथ ही, लड़कियों को अधिक नियंत्रण और क्षमता प्रदान करने वाले कानूनों और अधिकारों की बेहतर समझ प्रदान की जानी चाहिए। इसके अलावा, कानून को बनाए रखने, दृष्टिकोण बदलने, और/या लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए – पुलिस, शिक्षकों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और यहां तक ​​कि राजनेताओं को भी – अधिक सक्षम बनाना चाहिए।  प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की जानकारी देने की ज़रूरत है कि क्या कारगर है और क्या नहीं, और प्रथाओं को अधिक संवेदनशील और कम दंडात्मक तरीके से कैसे बदला जाए। 

परिवारों को तोड़ना, युवा महिलाओं से उनका सहारा, उनके पति को दूर करना; नवजातों से उनके पिता को अलग करना; और महिलाओं को उनके वांछित गर्भाधारण या गर्भावस्था-संबंधित देखभाल के अधिकार से वंचित करना और यहां तक कि अपने पति को बचाने के लिए मौत के मुंह में जाने जैसे जोखिम में डालने वाले उपाय शायद ही उनके अधिकारों को मान्यता देते हैं। और न ही यह बाल-विवाह को रोक सकते हैं।

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फ़ोटो निबंध: भारत की आदिवासी महिला नेता क्या अलग कर रही हैं?

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल आबादी का लगभग 8.6 फ़ीसद आबादी आदिवासी है। संविधान आदिवासी समुदायों को कुछ विशेष कानूनी प्रावधान प्रदान करता है। लेकिन फिर भी कई समुदाय शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और भूमि जैसे बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आदिवासी समुदायों का, इन अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए आंदोलनों और विरोधों का, एक लंबा इतिहास रहा है, और महिलाओं ने इन संघर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन महिलाओं को अपने समुदाय के प्रतिरोध जैसी बाधाओं का भी सामना करना पड़ा है। इस फ़ोटो निबंध में हमने उन चार आदिवासी महिलाओं की उम्मीदों और सपनों के बारे में बताने का प्रयास किया है जो अपने-अपने समुदायों की मांगों और आवाज़ को बुलंद करने के लिए अथक प्रयास कर रही हैं।

आमना ख़ातून

बरगद के पेड़ के सामने खड़ी महिला-आदिवासी महिला नेता

आमना ख़ातून उत्तराखंड राज्य की एक खानाबदोश जनजाति वन्न गुज्जर समुदाय से आती हैं। वे अपने समुदाय की लड़कियों एवं महिलाओं की सशक्तिकरण के लिए काम करती हैं। उनका सपना एक ऐसे भविष्य का है जहां लड़कियां और महिलाएं अपने फ़ैसले खुद ले सकें और मर्दों द्वारा तय की गई परिभाषा से अलग हटकर अपना जीवन जी सकें। आमना महिलाओं के दृष्टिकोण से विभिन्न पारंपरिक प्रथाओं का दस्तावेजीकरण कर वन्न गुज्जर समुदाय की संस्कृति के संरक्षण में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी काम कर रही हैं। उनके अनुसार, रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों में वन्न गुज्जर महिलाओं की भूमिका का दस्तावेज़ीकरण नहीं हुआ है और न ही इस विषय पर किसी तरह की चर्चा होती है कि सदियों-पुरानी इन रीति-रिवाजों का उन पर कैसा प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, उनके गांव में उनके अपने समुदाय में कुड़ी के बट्टे कुड़ी (लड़की के बदले लड़की) जैसी प्रथा है। इस प्रथा के अनुसार शादी के दौरान दो परिवारों में दुल्हनों की अदला-बदली होती है। अगर एक परिवार ने एक बेटी की शादी दूसरे से कर दी, तो वे भी अपने एक बेटे की शादी दुल्हन के परिवार की लड़की से करेंगे। लेकिन इसने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहां दुल्हनों की किस्मत एक-दूसरे पर निर्भर थी। अगर एक दुल्हन के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता तो दूसरी दुलहन के ससुराल वाले भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करती, लेकिन अगर बात बिगड़ी तो दोनों लड़कियों को भुगतना पड़ता था। अब यह प्रथा समाप्त हो चुकी है लेकिन साथ ही इनसे जुड़ी कहानियां भी भुला दी गई हैं। आमना ऐसी परंपराओं से उभरती कहानियों को इकट्ठा करने का प्रयास कर रही हैं, जिससे कि प्रभावित महिलाओं को अपने अनुभव के बारे में बात करने का मौका मिल सके। वे चाहती हैं उनके काम का प्रभाव तीन स्तरों पर दिखे। पहला, इससे उन्हें वन्न गुज्जर समुदाय से जुड़ी विभिन्न प्रथाओं को दर्ज करने में मदद मिलेगी। दूसरा, महिलाओं की कहानियां महिलाओं की ज़ुबानी ही सामने आएंगी। और तीसरा, इससे समुदाय को इन प्रथाओं की भेदभावपूर्ण प्रकृति को सामने लाने और उन्हें बदलने या समाप्त करने में मदद मिलेगी।

जुलियाना पेड्रो फर्नांडीज सिद्दी

लाल पोशाक में एक महिला एक पेड़ के सामने खड़ी है-आदिवासी महिला नेता

जुलियाना पेड्रो फर्नांडीज सिद्दी, कर्नाटक के कारवार जिले में, जंगलों से घिरे और शहर से कटे गादगेरा नाम के एक गांव में रहती हैं। उनका संबंध सिद्दी समुदाय से है जिनके वंशज़ अफ्रीका के थे। भारत में, वे कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में बसे हुए हैं। कारवार जिले में जहां जुलियाना रहती है, 30-40 सिद्दी लोग एक बड़े समुदाय के रूप में रहते हैं। वे वही खाते हैं जो जंगल में उपलब्ध होता है या फिर खेती कर उगाते हैं। उनके गांव में ना तो बिजली है और ना ही शहर तक जाने के लिए कोई सड़क। इस समुदाय के लोगों के पास शिक्षा एवं राजनीतिक भागीदारी जैसे मौलिक अधिकार भी न के बराबर ही हैं। जुलियाना का कहना है कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी का कारण लोगों के पास पहचान संबंधी दस्तावेज़ों का ना होना है। वे याद करते हुए बताती हैं कि जब वे 19 साल की थीं तब उनके गांव के सिद्दी लोगों ने उन्हें तालुक़ पंचायत का सदस्य बनने के लिए चुनाव में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन समुदाय के ज़्यादातर लोगों के पास पहचान से जुड़े दस्तावेज नहीं थे। नतीजतन उन्हें मतदान नहीं करने दिया गया और वे तीन मतों से हार गईं। जुलियाना का मानना है कि आईडी न होने के कारण भी सिद्दियों को सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभ और अन्य अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। राजनीतिक भागीदारी की महत्ता को समझते हुए जुलियाना अपने समुदाय की आवाज़ को बुलंद करने के लिए काम कर रही हैं। वे न सिर्फ़ समुदाय के लोगों को पहचान पत्र प्राप्त करने में उनकी मदद कर रही हैं बल्कि उनमें कई लोगों को स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों के लिए चुनाव लड़ने के लिए भी प्रोत्साहित करती हैं। वे अपने समुदाय के लोगों को एकजुट करने के लिए पारम्परिक सिद्दी गीतों और नृत्यों का प्रयोग करती हैं। जुलियाना उन गीतों और नृत्यों का उपयोग अपने समुदाय, उनकी कहानियों और बड़े मंचों पर उनकी चुनौतियों पर ध्यान आकर्षित करने के साधन के रूप में भी कर रही है। उनका मानना है कि इससे उनके समुदाय के लोगों को ऐसे मंचों तक पहुंचने में आसानी होगी जहां तक पहुंचना उनके लिए दुर्लभ है और साथ ही इससे उनकी आवाज़ बुलंद होने में भी मदद मिलेगी।

आलिया जान

एक पेड़ के सामने टोपी, शर्ट और नीली जींस पहने एक महिला खड़ी है-आदिवासी महिला नेता

आलिया जान, कश्मीर के अनंतनाग जिले में भाजपा महिला मोर्चा की जिला अध्यक्ष हैं। वे अपने क्षेत्र और अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत आने वाले गुर्जर समुदाय, जिससे वे संबंधित हैं, के समग्र विकास पर काम कर रही हैं। हालांकि उनका प्राथमिक ध्यान शिक्षा, विशेष रूप से लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा पर है। इलाक़े में कॉलेज न होने के कारण बच्चों को पढ़ाई के लिए दूर शहर जाना पड़ता है और आमतौर पर लड़कियां पीछे छूट जाती हैं। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि ज़्यादातर माता-पिता आर्थिक रुप से उतने सशक्त नहीं होते कि अपने बच्चों को आगे पढ़ने के लिए शहर भेज सकें- उनके पास अक्सर ऑटो या बस के किराए, यूनिफ़ॉर्म और किताबों के लिए पैसे नहीं होते हैं। माता-पिता को अपनी लड़कियों को उतनी दूर भेजने में थोड़ा डर भी लगता है। इसके अलावा मौसम एक अलग बाधा है- बर्फ़बारी और कम तापमान से लम्बी यात्रा करना मुश्किल हो जाता है। आलिया की इच्छा है कि वे अपने ज़िले में ही एक कॉलेज बनवा सकें जहां बहुत कम शुल्क पर उनके ज़िले की लड़कियों को उच्च शिक्षा मिल सके। उनका मानना है कि समुदाय में अगली पीढ़ी की महिलाओं की बेहतरी के लिए शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि एक शिक्षित महिला न केवल अपने अधिकारों को लेकर जागरूक होती है बल्कि यह भी सुनिश्चित करती है कि उसकी बेटियां भी सशक्त बनें।

कल्पना चौधरी

लंबे बालों और चश्मे वाली महिला बगीचे में खड़ी है-आदिवासी महिला नेता

कल्पना चौधरी गुजरात के सूरत जिले की महुवा तहसील के कच्छल गांव में समरस ग्राम पंचायत की सरपंच हैं। इस पंचायत की सभी सदस्य महिलाएं हैं। जैसा कि इस तरह की पंचायतों में होता है, उन्हें चुनाव के बदले पंचायत सदस्यों ने निर्विरोध रूप से चुना है। कल्पना अपने गांव में सार्वजनिक विद्यालयों की स्थिति में सुधार लाने और शिक्षा को बेहतर करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही हैं।

इसके अलावा, वे अपने गांव की 30 महिलाओं के साथ मिलकर प्रकृति केटरिंग सर्विस नाम की एक केटरिंग सर्विस भी चलाती हैं। कल्पना का कहना है कि महिलाएं रोज़ खाना पकाती हैं। और वे इस रोज़ किए जाने वाले काम को माध्यम बनाकर महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने, एक दूसरे से बातचीत करने और पैसे कमाने का अवसर प्रदान करना चाहती थीं। प्रकृति के सदस्य के रूप में, महिलाएं शादियों और जन्मदिन की पार्टियों में खाना बनाती हैं, होम डिलीवरी करती हैं, और कभी-कभी कार्यक्रमों में अपना खुद का स्टॉल भी लगाती हैं। वे मुख्य रूप से पारंपरिक आदिवासी भोजन जैसे कि देखरा (हरी अरहर की पैटीज़), चोखा ना रोटला (चावल की रोटी) और पनेला (केले के पत्तों में कद्दू का पेस्ट लगाकर भाप से पकाई जाने वाली चीज़) पकाती हैं। वे प्रकृति से जो भी पैसा कमाती हैं, उसके दो हिस्से करती हैं – एक हिस्सा सभी महिलाओं में बांट दिया जाता है, बाकी आधा एक आपातकालीन कोष के रूप में अलग रखा जाता है। यदि किसी सदस्य को बहुत कम समय में पैसों की ज़रूरत पड़ती है तो वह इस कोष से पैसे ले सकता है या फिर अपने हिस्से के बदले बहुत कम ब्याज दर पर उधार ले सकता है। कल्पना ने बताया कि कैसे प्रकृति एक ऐसी सुरक्षित जगह बन गया है जहां महिलाएं एकजुट होती हैं और एक दूसरे से सीखती हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि अपने घरों से बाहर निकलकर काम करने और अपने पैसे कमाने से इन महिलाओं में आत्मविश्वास का स्तर बढ़ा है।

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समाजसेवी संस्थाओं में नेतृत्व बदलने की प्रक्रिया क्या और कैसी होनी चाहिए?

साल 1999 में मल्लिका दत्त ने ब्रेकथ्रू की अवधारणा बनाई और इसकी स्थापना की। इसके लिए सत्रह साल बाद हम स्कोल अवार्ड जीते और उसी साल मल्लिका ने संगठन के सीईओ पद से इस्तीफ़ा देने का फ़ैसला भी किया।

जब मल्लिका ने यह फ़ैसला लिया तब हम न्यूयॉर्क और दिल्ली दो जगहों पर काम कर रहे थे। एक नया सीईओ खोजने के लिए ब्रेकथ्रू के बोर्ड के सदस्यों और वरिष्ठ प्रबंधन की एक टीम गठित की गई। प्रक्रिया में हमारा मार्गदर्शन करने के लिए एक बाहरी फैसिलिटेटर को काम पर रखा गया था। हालांकि, तमाम चर्चाओं और प्रक्रियाओं के बावजूद, हम नहीं जानते थे कि नेतृत्व परिवर्तन क्या होता है और ना ही हम इससे जुड़ी अराजक स्थिति के लिए तैयार थे।

ब्रेकथ्रू की नेतृत्व संरचना में भारत और अमेरिका, दोनों ही देशों में एक-एक निदेशक होने के साथ एक अध्यक्ष और एक सीईओ भी होता है। मैं 2010 से ब्रेकथ्रू के साथ थी। पहले एक सलाहकार के रूप में और फिर 2014 से एक स्थायी कर्मचारी के तौर पर संसाधन जुटाने की इकाई स्थापित करने के लिए काम कर रही थी। इसलिए मैं संगठन की गतिशीलता और कार्यप्रणाली से परिचित थी। चूंकि दोनों ही देशों के तत्कालीन निदेशकों को सीईओ बनने में रूचि नहीं थी, इसलिए मैंने पद के लिए आवेदन करने का फैसला किया। पूरी प्रक्रिया में लगभग एक साल लग गया, और जब तक मुझे यह ज़िम्मेदारी दी गई, तब तक मल्लिका का ट्रांजिशन पीरियड खत्म हो चुका था और वे पूरी तरह से पद छोड़ चुकी थीं। हालांकि वे सवालों के जवाब देने के लिए उपलब्ध थीं, लेकिन आख़िर में मुझे इस परिवर्तन को अपने दम पर ही झेलना था।

करो या मरो वाली स्थिति थी

पदभार ग्रहण करने के बाद मुझे पता चला कि पिछले साल हमारे अमेरिकी कार्यक्रम का प्रदर्शन कुछ अच्छा नहीं था, और हम इसका विस्तार करने में सक्षम नहीं थे। इस बीच, भारत विकास के एक जरूरी मोड़ पर था। जब मैं इस स्थिति से निपटने की कोशिश में ही लगी थी कि तभी दोनों देशों के निदेशकों ने इस्तीफ़ा दे दिया। इसका सीधा अर्थ था कि मुझे एक ही समय में तीनों के काम का भार सम्भालना था। काम और संगठन की अधिक से अधिक जानकारी और अनुभव के बाद भी मैं दो स्थानों और तीन पदों को संभालने की जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हो सकी। मैं लम्बे समय तक इम्पोस्टर सिंड्रोम की शिकार रही और कई बार इस्तीफ़ा देने के बारे में भी सोचा।

हर नेता अपने कार्यकाल में एक मिसाल कायम करता है—उनकी अपनी एक आवाज होती है और काम करने का एक तरीका होता है जिससे संगठन परिचित होता है। ब्रेकथ्रू इंडिया की पिछली कंट्री डायरेक्टर 13 साल से कंपनी के साथ जुड़ी थीं। मैं व्यवस्था में अंदर आकर उनका बनाया सब कुछ नष्ट नहीं कर सकती थी। इसलिए यह स्वाभाविक था कि मुझे ब्रेकथ्रू को अलग तरीके से सफलतापूर्वक चलाने की अपनी क्षमता पर संदेह था।

इसके अलावा, मेरा सबसे बड़ा डर भारत में वरिष्ठ प्रबंधन टीम में मेरे दोस्तों और साथियों का होना था जिनकी अब मैं बॉस बन चुकी थी। सौभाग्य से, इन सबको लेकर मुझे लंबे समय तक चिंता नहीं करनी पड़ी, क्योंकि उन सभी ने पूरे मन से मुझे अपने लीडर के रूप में स्वीकार कर लिया था। साझा नेतृत्व में मेरे विश्वास के साथ उनके रवैये ने मुझे भारत में एक सहज पदक्रम बनाने में मदद की, जिससे यह परिवर्तन कम तनावपूर्ण हो गया।

हालांकि, अमेरिका की कहानी एकदम अलग थी। वहां की कार्य संस्कृति, धन की आवश्यकताएं और बोर्ड की व्यस्तता सबकुछ पूरी तरह भारत से अलग था। भारत में फंडर्स को फंडिंग देने के लिए प्रस्तावों, रिपोर्टों और परिणामों की आवश्यकता होती है। लेकिन अमेरिका में यह अलग तरह से किया जाता है। फोन कॉल पर प्रस्तावों को फिर से नया किया जाता है और यह प्रक्रिया भारत के लिए बिल्कुल नई है। अमेरिका में बोर्ड भी बहुत गहरा शामिल था और निर्देशात्मक भूमिका निभा रहा था। यह भारतीय इकाई में बोर्ड के स्वतंत्र संबंध से बिल्कुल अलग था।

मैंने अमेरिकी कार्यक्रम के बारे में विस्तार से जानने के लिए कई महीने का समय लगाया। मैंने रिलेशनशिप बिल्डिंग, संस्कृति को समझकर काम करने और बोर्ड की इच्छाओं के बारे में जाना। दरअसल शुरू में मैंने अमेरिकी कार्यक्रम को बंद करने और इसे भारत के लिए फंडरेजिंग कार्यालय में बदलने पर विचार किया था। लेकिन बोर्ड की सोच मेरी सोच से भिन्न थी और इसलिए मैंने उनके नजरिए को समझने में समय लगाया।

पीले बोर्ड पर पिन और प्लास्टिक चिप्स-लीडरशिप एनजीओ
नेतृत्व परिवर्तन कभी सीधा या सरल नहीं होता। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल्स

परिवर्तन को सफल बनाना

नेतृत्व परिवर्तन कभी सीधा या सरल नहीं होता। ब्रेकथ्रू में कार्यभार संभालने की प्रक्रिया से मिले अनुभव ने मुझे कुछ मूल्यवान सबक सिखाए।

1. अपने साथियों के साथ और संगठन में विश्वास बनाएं

मल्लिका साझा नेतृत्व, एक दृष्टिकोण और आचार-व्यवहार में विश्वास करती थीं और मैं भी इन चीजों को जारी रखना चाहती थी। साझा नेतृत्व संगठन में अन्य नेताओं को विशेषज्ञता के अपने क्षेत्रों में काम करने की स्वतंत्रता देकर, उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराते हुए विश्वास की नींव रखने पर जोर देता है। यह मुश्किल हो सकता है, खासकर वरिष्ठ लोगों के लिए जो लंबे समय से संगठन के साथ हैं और जिनकी अपनी व्यक्तिगत शैली और तरीके हैं। लेकिन हमने कर दिखाया। एक-दूसरे में विश्वास पैदा करने और अपने कार्य क्षेत्रों में विश्वसनीय सहयोगियों के रूप में देखे जाने के लिए हमें सचेत प्रयास करना पड़ा जिसमें बहुत अधिक मेहनत और समय दोनों ही लगा।

अपनी तरफ से मैंने प्रत्येक वरिष्ठ सहयोगी के साथ अलग-अलग तरह से संवाद किया और उनके साथ व्यक्तिगत संबंध विकसित किया। हमने खुली संस्कृति को प्रोत्साहित करने का काम किया जहां टीम, ईमानदार प्रतिक्रिया देने में सहज महसूस करे, भले ही वह नकारात्मक ही क्यों न हो। हमने ‘दि फाइव फेल्यर्स ऑफ ए डिसफंक्शनल टीम’ नाम की एक गतिविधि भी शुरू की। साथ में, हमने अपनी मौजूदा कमियों को ढूंढा और विकास की सम्भावनाओं की पहचान की। इसमें भरोसे की कमी और जवाबदेही की पहचान मुख्य मुद्दे के रूप में सामने आए जिन्हें हमने हल करने का काम किया। मुझे सबसे पहले अपनी कमजोरियों के प्रति ईमानदार होना था, अपनी कमियों को स्वीकार करना था और सुधार के क्षेत्रों पर प्रतिक्रिया मांगनी थी ताकि मेरी टीम को मुझ पर विश्वास हो सके। इसके लिए मैंने टीम के भीतर ही एक समीक्षा व्यवस्था बना दी जहां टीम के सदस्य अपनी प्रतिक्रियाएं दे सकते थे जो सीधा बोर्ड के पास जाती थी और उसके बाद मेरे पास पहुंचती थी। इससे उन में इस बात का विश्वास पैदा हुआ कि मैं आलोचना सुनना चाहती हूं और अपनी कमियों पर काम करना चाहती हूं।

2. अपनी ताक़त और कमियों को स्वीकार करें

अपने पूर्ववर्ती से अपनी तुलना करना स्वाभाविक है। सिर्फ आप ही नहीं, पूरी संस्था और बाहरी लोग भी ऐसा करते हैं। इसलिए ऐसे समय में अपनी ताकत और कमजोरियों को पहचानना जरूरी है। मुझे पता था कि एक नेता और संस्थापक के रूप में मल्लिका ने क्या किया था। वे एक दूरदर्शी और मानव अधिकारों के लिए लड़ने वाली नेता होने के साथ ही एक बेहतरीन सार्वजनिक वक्ता भी थीं। मेरे पास विकास सेक्टर का 25 वर्षों से अधिक का अनुभव था लेकिन इस स्तर पर पहुंचने के बाद, अनुभव और विशेषज्ञता का कुछ ख़ास महत्व नहीं रह जाता है। स्थिति कुछ भी हो तुलना होती ही है। इसलिए आपसे पहले जो नेता था उसकी नक़ल करने की बजाय अपनी ताक़तों को पहचानना चाहिए और उससे काम लेना चाहिए। उदाहरण के लिए, मेरे पास सार्वजनिक तौर पर बोलने का बहुत अधिक अनुभव नहीं था, लेकिन मैं एक टीम को बेहतर तरीक़े से चला सकती हूं और अपने साथ काम कर रहे उस टीम के सदस्यों से सर्वश्रेष्ठ काम करवा सकती हूं। इससे मुझे उन क्षेत्रों की भरपाई करने में मदद मिली जिनमें मैं कमजोर थी – मैंने ऐसे लोगों को नियुक्त किया जिनसे मैं सीख सकती थी और जो उन कामों को सम्भाल सकते थे जिनके बारे में मुझे ज्ञान नहीं था।

इसी प्रकार, तकनीकी पहलू पर, मुझे रिसर्च, मॉनिटरिंग और मूल्यांकन की बहुत अच्छी समझ नहीं थी और न ही मैं संस्कृति परिवर्तन के लिए मीडिया के बारे में कुछ ख़ास जानती थी। इसके लिए भी मैंने इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को नियुक्त किया और उनसे सीखा। इससे पूरे संगठन को उस प्रकार का ज्ञान हासिल करने में मदद मिली जिसकी कमी थी।

यदि आपको अपनी कमियों को स्वीकार करने में डर लगता है तब आप बाहरी सहायता नहीं लेंगे जो कि आगे चलकर बहुत काम आता है। इसका संबंध आपके पास पहले से मौजूद ज्ञान और उन चीजों के बीच की कमी को पाटने से भी है जिनके बारे में आप नहीं जानते हैं। उदाहरण के लिए, एक सीईओ के रूप में फंडरेजिंग मेरी मुख्य ज़िम्मेदारी है। मेरे पास संस्थागत फंड इकट्ठा करने का अनुभव था लेकिन खुदरा और सीएसआर फंडरेजिंग के बारे में मैं जरा भी नहीं जानती थी। हमने ऐसे कामों के लिए भी विशेषज्ञों की मदद ली जिन्हें करने में मैं सक्षम थी। ऐसा करने से हमने उनसे बहुत कुछ नया सीखा और नई जानकारियां हासिल कीं।

3. पहचानें कि कब कदम पीछे हटाना है

मेरी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक ब्रेकथ्रू के यूएस और भारत संचालन को एक साथ संतुलित करना था। इनके टाइम ज़ोन्स, लोकेशन्स और संस्कृति बिल्कुल विपरीत थे। दुनिया के विपरीत किनारों पर दो पूर्णकालिक नौकरियों को संभालना, और लगातार यात्रा के साथ घर और परिवार से दूर रहना आसान नहीं है और मैं किसी और को ऐसा करने की सलाह भी नहीं देती हूं।

पीछे देखने से अब समझ में आता है कि यह सब कुछ सम्भालना कितना मुश्किल था और मैं नेतृत्व परिवर्तन का प्रयास कर रहे किसी व्यक्ति को सलाह दूंगी कि अपनी सीमाएं बनाए और कामकाज और व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करते रहें। एक बार में ही बहुत काम करने से मौजूदा संदेह और बढ़ जाते हैं।

हालांकि हम अमेरिकी कार्यक्रम के लिए कुछ अनुदान जुटाने और इसे लागू करने में कामयाब रहे। लेकिन हमें भारत में एफसीआरए कानूनों में संशोधन के रूप में और अमेरिका में कामकाज का प्रबंधन करने के लिए सही तरह के नेतृत्व को चुनने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अगस्त 2019 में जिस व्यक्ति को हमने कार्यक्रम का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया था उसने एक दूसरे संगठन से प्रस्ताव मिलने के कारण हमें छोड़ दिया। उस समय प्रबंधन की प्रगति कुछ समय के लिए धीमी पड़ गई। समय की कमी होने के कारण मैं अधीर होने लगी। नतीजतन मेरा ध्यान न तो अमेरिका में लग पा रहा था और न ही भारत में। इन सबके कारण मेरे अंदर अपने और अपने काम के प्रति असंतोष की भावना लगातार बढ़ रही थी। आखिरकार मैंने अमेरिका के कंट्री डायरेक्टर के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इस फ़ैसले के पीछे एक जुड़ा हुआ दूसरा कारण यह भी था कि कोविड-19 के कारण मैं अब अमेरिका की यात्रा नहीं कर सकती थी।

4. आवश्यकता पड़ने पर सहायता मांगे

परिवर्तन के दौरान मुझे विभिन्न स्रोतों से सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। इनमें से प्रमुख तीन इस प्रकार हैं:

इस यात्रा को शुरू करने वाले लोगों को सलाह

एक सफल नेतृत्व परिवर्तन के पांच वर्षों में मैंने इस प्रक्रिया को बेहतर और सहज करने के लिए यह सीखा।

1. अपने पूर्ववर्ती को अपना मेंटॉर बनाए

पिछले नेता को कम से कम एक वर्ष तक नए नेता के लिए एक आधिकारिक और नियोजित सलाहकार के रूप में काम करना चाहिए। यह दर्शाता है कि दोनों नेताओं के पास संगठन के लिए एक समान दृष्टि और महत्वाकांक्षा है, और यह पूरे संगठन के लिए नए नेता को स्वीकार करना आसान बनाता है। इसके अलावा, इससे टीम को समायोजित होने का समय मिलता है और नेतृत्व परिवर्तन फंडर्स और अन्य बाहरी हितधारकों के सामने एक अचानक हुए परिवर्तन के रूप में सामने नहीं आता है। यह नए नेता को संगठन के तरीकों से प्रशिक्षित करने के लिए बोर्ड पर पड़ने वाले बोझ को भी कम करता है।

2. भविष्य के नेताओं को प्रशिक्षित करने की संस्कृति का निर्माण करें

यदि आप सबसे पहले संगठन के भीतर ही भावी नेता को ढूंढने का प्रयास करते हैं तो नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया सहज हो जाती है। उत्तराधिकारी को बनाने और तैयार करने की ज़िम्मेदारी हर वरिष्ठ नेता के काम का हिस्सा होना चाहिए। संगठन के भीतर ही दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार करना बहुत ही आवश्यक है और एक आदमी के चले जाने की स्थिति में काम रुकना नहीं चाहिए।

ब्रेकथ्रू में इस काम को करने के लिए 2018 में हमने उभरते हुए नेतृत्व टीम के रूप में 40 सीनियर लीडर्स का एक समूह बनाया। 40 में से हमने 10 लोगों का एक मुख्य समूह बनाया जिन्हें संगठन के लक्ष्य और दृष्टि को पाने के लिए बारी-बारी से इस पद की ज़िम्मेदारी निभानी थी। दो साल बाद 10 लोगों के एक दूसरे समूह ने इस ज़िम्मेदारी को उठाया। इस तरह हमारे पास वरिष्ठ सदस्यों का एक समूह था जो भविष्य में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के लिए तैयार था।

3. सुपरिभाषित लक्ष्य बनाएं

संगठन के लिए स्पष्ट लक्ष्य, एक संरचना और योजना बनाएं। हम एक साल के लिए अपने संगठनात्मक मील के पत्थर को गतिविधियों के एक सेट के माध्यम से परिभाषित करते हैं। इनमें से 80 प्रतिशत निश्चित और तय होते हैं और 20 प्रतिशत लचीले। यह अच्छी तरह से परिभाषित संरचना और लक्ष्य नए नेता की भी मदद कर सकते हैं। इससे उन्हें शुरुआत से शुरू नहीं करना पड़ता है और उन्हें मालूम होता है कि किस रास्ते पर आगे बढ़ना है।

4. अपने लिए समय निकालें

अंत में, एक ऐसे नेता के रूप में जिसने जिम्मेदारियों को जोड़ा है और जिसे बदलाव की अराजकता से जूझते हुए उम्मीदों पर खरा उतरना है, हर समय काम करने के लिए तैयार रहें। लेकिन अपने लिए भी समय निकालें। गैर-कामकाजी समय में भी ई-मेल की जांच करना और कॉल का जवाब देना हमारे सोच में शामिल है। हालांकि, यह समझना जरूरी है कि काम और जिम्मेदारियां कभी खत्म नहीं होती हैं। काम की मात्रा को पहचानने के बाद अपनी सेहत पर भी ध्यान देने की योजना बनाएं। पूरी तरह से ऊर्जाहीन हो जाने और मानसिक थकान की स्थिति भी होती है और ये कभी भी उत्पादक नहीं हो सकती।

अपने-आप को बेहतर बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित करने से आपको अपनी भूमिका को लंबे समय तक बनाए रखने में मदद मिलेगी। मेरी ही तरह की यात्रा पर जाने वाले साथियों को यही कहना है कि अपने परिवार और अपने दोस्तों से जुड़ाव रखें। इस तरह की भूमिकाओं को निभाने के लिए अपने परिवार का साथ होना बहुत आवश्यक है। ताकि वे कई-कई घंटे काम करने और छुट्टियों, पर्व-त्योहार, उत्सवों में उपस्थित न होने के कारण को समझ सकें। स्वयं को सामने आने वाले संकट, आपदा और बुरे समय के लिए ताक़त से भर लें। और अपने आत्म-विश्वास को बढ़ाए रखें क्योंकि निश्चित रूप से ऐसे मौके भी आएंगे जब आपको अपने ऊपर संदेह होगा।

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जैसलमेर में बारिश होना अच्छी ख़बर क्यों नहीं है

बीते कई सालों से राजस्थान की बारिश अप्रत्याशित हो गई है। पहले चार महीने की (जिसे चौमासा कहा जाता है) लगातार बारिश होती थी। यह बारिश जून के अंतिम सप्ताह में शुरू होकर सितम्बर तक होती थी। अब मानसून देरी से आता है और जब आता है तो बाढ़ आ जाती है। एक तरफ़, सर्दी का मानसून—जिसमें सर्दियों में 15 से 20 दिनों तक बारिश होती है—अब समाप्त हो चुका है। दूसरी तरफ़, थार के रेगिस्तानी इलाके में अक्सर ही बाढ़ आने लगी है और जैसलमेर जैसे ज़िलों में हरियाली आ गई है जहां पहले रेगिस्तान था। इस तरह के बदलावों ने समुदायों की फसल और खानपान के तरीके को भी बदल दिया है।

परंपरागत रूप से, जैसलमेर जिले में रहने वाले समुदाय सर्दियों के मौसम में खादिन (कृषि के लिए सतही जल संचयन के लिए बनाई गई एक स्वदेशी प्रणाली) में चना उगाया करते है। चने की फसल सर्दियों के मानसून के दौरान कम बारिश पर निर्भर करती है, और अत्यधिक वर्षा इसके विकास के लिए हानिकारक होती है। इसलिए, जैसलमेर की जलवायु में बदलाव और सिंचाई नहरों की स्थापना के साथ, चने की लोकप्रियता में कमी आ रही है और गेहूं सर्दियों की पसंद की फसल के रूप में उभरा है क्योंकि यह चने की तुलना में अधिक पानी की मांग करता है। आजकल, जैसलमेर में, भूजल की कमी जैसे दीर्घकालिक प्रभावों के बावजूद लोग गेहूं के खेतों की सिंचाई के लिए बोरवेल और नलकूपों का उपयोग कर रहे हैं। वास्तव में, 600 से 1,200 फीट की गहराई तक खोदे गए बोरवेल को देखना कोई असामान्य बात नहीं है।

गेहूं के अलावा, समुदायों ने उन नकदी फसलों की ओर रुख किया है जो इन क्षेत्रों में लगभग अनुपस्थित थीं। आज जैसलमेर में किसानों के बाजार मूंगफली और प्याज जैसी फसलों से भरे हुए हैं। गेहूं, प्याज और कपास ने बाजार पर कब्जा कर लिया है और पारंपरिक खाद्य फसलों जैसे बाजरा (मोती बाजरा) वगैरह गायब हो चुके हैं। अप्रत्याशित बारिश के पैटर्न के कारण भी खाने की कुछ किस्में थाली से ग़ायब हो चुकी हैं। ओरान (पवित्र उपवन) सेवन और तुम्बा जैसी जंगली घासों से भरे होते थे जो मानसून के दौरान उगते थे। यहां बसने वाले समुदाय के लोग सेवन घास के दानों का उपयोग रोटी बनाने के लिए करते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है क्योंकि घास को उगने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है।

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अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

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अधिक करें: अमन के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

यहां पर्यावरण प्रदूषण के सबक बच्चों से सीखिए

हाथ से बनाया गया एक्यूआई मॉनिटर-जलवायु परिवर्तन
बच्चे पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने का माध्यम बन गए हैं। | चित्र साभार: समीर

निज़ामुद्दीन, दिल्ली के एक निम्न आय वाले इलाक़े में स्थित चिंतन लर्निंग सेंटर में बच्चों को ‘हवा हवाई’ शीर्षक वाली एक कॉमिक बुक से जलवायु परिवर्तन के बारे में सिखाया जाता है। किताब में छह साल की छात्रा चमकी और हवा का प्रतिनिधित्व करने वाली हवा हवाई को दिखाया गया है। बच्चे जानते हैं कि हवा की गुणवत्ता में ख़राबी आने से हवा हवाई दुखी हो जाती है। दरअसल गुणवत्ता में कमी आने से उसे सांस लेने में तकलीफ़ होती है। वे हवा हवाई की इस स्थिति से खुद को जोड़ पाते हैं क्योंकि दिल्ली के प्रदूषित वातावरण में बाहर निकल कर खेलने पर उनकी हालत भी कुछ ऐसी ही हो जाती है।

10 साल के समीर और नौ साल की आनंदी के लिए हवा एक स्थान घेरने वाली वास्तविक चीज है जिसका अपना वजन भी है। वे इसका प्रदर्शन गुब्बारे वाले प्रयोग से करते हैं। वे समझते हैं कि हवा एक नेमत है जिसकी अपनी चुनौतियां भी हैं – वे इससे जीवित रहने के लिए सांस ले सकते हैं, अपने कपड़े सुखा सकते हैं और इसके कारण ही अपनी पतंग उड़ा सकते हैं। लेकिन, जब यह प्रदूषित हो जाती है तब इससे उनकी आंखें जलने लगती हैं। चमकी के चाचा साइकल से काम पर जाते हैं और हवा प्रदूषण के स्तर को कम करने में उनकी मदद करते हैं। चमकी के चाचा से प्रभावित होकर स्कूल से वापस लौटने के बाद ये बच्चे अपने माता-पिता को हवा की गुणवत्ता में सुधार लाने के उपाय बताते हैं।

इस इलाक़े में बच्चे पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने का माध्यम बन रहे हैं। बच्चों के विकास पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था, सेसमी वर्कशॉप इंडिया की इस पर्यावरण शिक्षा पहल के तहत ये बच्चे बहुत कुछ सीख रहे हैं और वापस लौटकर अपनी मांओं को बता रहे हैं। उनकी माएं उनके द्वारा दी जाने वाली जानकारियों को सुनती भी हैं। फिर, ये महिलाएं अपने पतियों को घर चलाने में छोटे-मोटे बदलाव लाने के लिए मना लेती हैं।

रानी इस इलाक़े में परचून की दुकान चलाती हैं। उनका बेटा अर्शन भी इन कक्षाओं में जाता है। वे बताती हैं कि ‘मैं पहले चूल्हे पर पानी गर्म करती थी लेकिन बच्चों ने मुझे ऐसा करने से रोका क्योंकि यह पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। हम जानते थे कि इससे भविष्य में हमारे आंखों की रौशनी प्रभावित हो सकती है। गैस बहुत महंगा होने के कारण हम लोग तब भी चूल्हा ही इस्तेमाल करते थे। पर फिर बच्चे कहने लगे तो मैंने सोचा, छोड़ो! एलपीजी अब भी बहुत महंगा है लेकिन हम अपने बच्चों को ना कैसे कह सकते हैं।’

इसी इलाक़े में रहने वाली शहाना बताती हैं कि ‘बच्चे जो भी अपनी क्लास में सीखते हैं उसके बारे में हमें बताते हैं – हम जो कूड़ा जलाते हैं उससे बीमारियां फैलती हैं और हम इससे निकलने वाला धुएं को अपने सांस के रूप में लेते हैं। हमें इन सब के बारे में कुछ नहीं पता था। जो हमें नहीं पता वह बच्चों को पता होता है, बच्चे हमें आके बताते हैं। चूल्हा जला लिया, कूड़ा जला दिया, उससे प्रदूषण तो फैल ही रहा है। पता चला तो हमने बंद कर दिया।’

वे आगे जोड़ती हैं ‘अब सुधार दिख रहा है, बीमारी भी दूर हो गई है इससे। ज़्यादा सफ़ाई रखते हैं, सब बदला है। जैसे बच्चों में आया है बदलाव वैसे हम में भी बदलाव गया है।’

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। रानी परवीन निज़ामुद्दीन में परचून की एक दुकान चलाती हैं। शहाना निज़ामुद्दीन में रहने वाली एक घरेलू महिला है।

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पुरुषों से महिलाओं के साथ हिंसा न करने की मांग करना भर काफी नहीं है

2016 में, वाईपी फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक के तौर पर काम करते हुए मैंने लखनऊ के एक कॉलेज में पुरुषत्व (मस्कुलिनिटी/मर्दानगी) पर एक संवाद कार्यक्रम आयोजित किया था। हमारे कार्यक्रम के पब्लिसिटी पोस्टर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ‘मर्दानगी क्या है?’; हम चाहते थे कि उस कॉलेज के लड़के इस सवाल का जवाब ढूंढने में हमारी मदद करें। दूसरी तरफ, लड़कों को उम्मीद थी कि हम उन्हें इसका जवाब देंगे। फ़िल्म स्क्रीनिंग और मर्दानगी और लैंगिकता पर बातचीत के बाद उन लड़कों ने कहा ‘लेकिन आपने हमें बताया नहीं कि मर्दानगी होती क्या है। फिर हम इसका प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं?’ मैं चाहता था कि वे लड़के सोचें, सवाल करें और लिंग की धारणा को दोबारा जांचें; लेकिन वे चाहते थे कि मैं उन्हें बताऊं कि इसका बेहतर प्रदर्शन कैसे किया जाता है। यही वह चुनौती है जो भारत में पुरुषों के साथ काम कर रहे लैंगिक कार्यक्रमों के सामने आती है। 

भारत में लैंगिक कार्यक्रम एक लंबे समय से महिलाओं के खिलाफ हिंसा को कम करने के लिए पुरुषों को शामिल करते रहे हैं। इन कार्यक्रमों का दायरा ‘लैंगिक जागरुकता’ से ‘लैंगिक रूप से जवाबदेह’ बनाने तक और अब ‘लैंगिक बदलाव लाने वाला’ भी हो गया है। इन कार्यक्रमों में पुरुषों को ताकतवर और महिलाओं के साथ की जाने वाली हिंसा के अपराधियों के रूप में संबोधित किया जाता रहा है। वहीं, बाद के कार्यक्रमों में इन्हें सकारात्मक पुरुषत्व का ढांचा तैयार करने के लिए महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से लड़ने वाले भागीदारों और सहयोगियों के रूप में देखा जाने लगा है।

यह भी है कि लैंगिक समानता से जुड़े कार्यक्रमों में शामिल होने वाले पुरुषों को इसमें किसी भी प्रकार की रुचि नहीं होती है। पुरुषों को ‘बेहतर लैंगिक व्यवहार’ सिखाने पर आधारित कार्यक्रम उबाऊ और उपदेशात्मक होते हैं और इनसे सही मायने में पुरुषों के सवालों का जवाब नहीं मिलता है। अब समय आ गया है कि पुरुषों को बदलने में लगायी जाने वाली ऊर्जा का कुछ हिस्सा, उनके लिए बनाए जाने वाले कार्यक्रमों को बदलने में लगाई जाए। लेकिन इस बदलाव के लिए यह ज़रूरी है कि लैंगिकता से जुड़े कार्यक्रमों का डिज़ाइन तैयार करने वाले लोगों में इसकी बेहतर समझ हो कि इसमें शामिल होने वाले लोग कौन हैं और उनके मुद्दे क्या हैं।

पुरुषों एवं लड़कों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है? 

कई सालों तक पुरुषों के साथ काम करने के बाद उनकी समस्या के बारे में मैंने यह समझा है:

1. लड़कों को सिखाया जाता है कि ‘हिंसा’ मर्दानगी है

अक्सर अपने परिवार, मूल्यों, समुदाय, जाति, धर्म, राष्ट्र और ऐसी ही कई चीजों की रक्षा एवं नियंत्रण के लिए पुरुषों से कहा जाता है कि ‘मर्द बन’। इसका सीधा संबंध हिंसात्मक रवैए से होता है। पुरुषों के आसपास की हर चीज़ आक्रामकता और ‘हर बात में जीतना ही है’ वाले मर्दवाद जैसी धारणाओं से प्रेरित होती है। शिक्षा, रोज़गार और कामकाज से जुड़ी प्रतिस्पर्धी व्यवस्थाएं, इस मर्दानगी को जल्द से जल्द सीखने और अपनाने पर ज़ोर देती हैं। इन कार्यक्रमों को चलाने वालों के तौर पर हम सहयोग, समुदाय और वैकल्पिक पुरुषत्व की जरूरत की बात तो करते हैं लेकिन अल्फ़ा मेल या कहें मर्द होने के कई वास्तविक फ़ायदे होते हैं। अपनी सामाजिक और सेक्शुअल मांग बनाए रखने, और इस तरह के अधिक मौके हासिल करने के लिए लकीर के फ़क़ीर की तरह व्यवहार करना, उस व्यक्तिगत संतुष्टि की तुलना में अधिक आकर्षक है जो अपने विशेषाधिकारों को छोड़ने वाला समानतावादी पुरुष बनने पर होती है। जब हम अपने कार्यक्रमों को बनाते हैं तो यह बात ध्यान में रखना बहुत जरूरी है।

2. मर्दवादी दुनिया में संवेदनशीलता के लिए जगह नहीं है

वाईपी फाउंडेशन द्वारा चलाए जा रहे एक साल के कार्यक्रम में 13 लोगों के एक छोटे से समूह में गहन अनुभव प्रक्रियाएं अपनाई गईं। लेकिन इसके बावजूद पुरुषों के लिए अपने डर और संदेह पर बातचीत करना आसान नहीं था। किसी के कुछ साझा करने की स्थिति में समूह के दूसरे लोग या तो उसका मजाक बना देते थे या फिर उससे ज़्यादा अच्छी कहानी सुना देते थे। उस कमरे में मर्दानगी की भावना इतनी प्रबल थी कि हमारी ज़्यादातर ऊर्जा उससे निपटने में ही लगी रह जाती थी और इसे परे करने में लंबा समय लगा। मर्दाना होने और मर्दानगी दिखाने पर अत्यधिक ध्यान देने के कारण लिंग और यौनिकता के दोहरे दृष्टिकोण से बाहर पहचान या इच्छाओं को समझने की प्रक्रिया के लिए बहुत कम जगह बच जाती है।

3. लैंगिक हिंसा अन्य प्रकार की हिंसा के साथ-साथ चलती है

हिंसा के संबंध पुरुष और पुरुष, पुरुष और सरकार, और पुरुष और जाति, वर्ग, या लिंग जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच देखने को मिलते हैं। वाईपी फ़ाउंडेशन द्वारा किए गए एक अध्ययन में भाग लेने वाले लोगों ने बताया कि कैसे बोर्डिंग स्कूल के अच्छे दोस्त, कॉलेज में आने पर जाति और समुदाय आधारित समूहों में बंट गए। इनमें से ज्यादातर ने जाति आधारित व्हाट्सएप ग्रुप में जोड़े जाने की बात कही।

जाति एक व्यक्ति के कामकाज, उसके एक से दूसरी जगह बसने, शारीरिक छवि, कामुकता और रोमांस को प्रभावित करती है। यह दबावपूर्ण और हिंसक होती है। ख़ासकर पुरुषों के लिए क्योंकि इस दमनकारी व्यवस्था में उन्हें संरक्षक के रूप में भी अपनी भूमिकाएं निभानी होती हैं। हिंसा से भरी इन विशाल व्यवस्थाओं को खत्म किए बग़ैर पुरुषों को महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा रोकने के लिए कहने भर से चाहे गए नतीजे नहीं मिल सकते हैं। असल में, यह व्यवस्था महिलाओं और अन्य लिंगों को किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिंसा से सुरक्षित बनाने में सहयोग किए बिना ही ‘अपनी मां और बहन की रक्षा’ वाली भावना को तुष्ट करती है।

4. पुरुषों की यौन जिज्ञासा को अक्सर गलत नज़र से जाता है

यौन शिक्षा और अन्य लिंग के लोगों से संवाद न होने, और उनसे जुड़ी गलत सूचनाओं और मिथकों के प्रसार के कारण लड़कों के मन में कई सारे ऐसे सवाल होते हैं जिन्हें पूछने में उन्हें शर्म आती है। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य होता है कि लड़के सुरक्षित, जिम्मेदारी पूर्वक और दोतरफ़ा सहमति के साथ यौन संबंध बनाएं। लड़के भी अच्छा, आनंददायक यौन अनुभव चाहते हैं। वाईपी फाउंडेशन में, यौन शिक्षा कार्यक्रमों में शामिल होने वाले ग्रामीण एवं शहरी युवा अक्सर यह पूछते हैं, ‘मुझे कैसे पता चलेगा कि मेरे साथी को अच्छा लग रहा है?’ यह लड़कों के पूछने के लिए बहुत अच्छा प्रश्न है लेकिन पुरुषों को शामिल किए जाने वाले ज़्यादातार कार्यक्रमों में इस सवाल के जवाब में केवल इतना ही बताया जाता है कि ‘नहीं का मतलब नहीं होता है।’ यौन जिज्ञासाओं को स्वीकार करने और उन्हें इनके बारे में बताने के बजाय सहमति के एक संकीर्ण विचार को सिखाना एक स्वस्थ, पूर्ण और सुखी यौनिकता की सोच का अपमान है।

एक आदमी पीछे से दूसरे आदमी के कंधे पर हाथ रख रहा है-महिला हिंसा
भावनाओं और अस्वीकृति के अनुभवों पर चर्चा को प्रोत्साहित करने से पुरुषों को हिंसा का सहारा लिए बिना इन पर विचार करने का मौका मिल सकता है। | चित्र साभार: जेकब जंग / सीसी बीवाई

युवा पुरुषों की इन वास्तविकताओं को लेकर लिंग संबंधी कार्यक्रम क्या कर सकते हैं?

पुरुषों के साथ कई मुद्दों पर एक साथ काम करने का मतलब उन दबावों के बारे में बात करना है जिनका वे सामना करते हैं और साथ ही उन्हें मिले विशेषाधिकारों पर भी चर्चा करना होता है। यह पुरुषों को केवल महिलाओं के ही संबंध में नहीं बल्कि एक सम्पूर्ण, कई चीजों को साथ लेकर चलने वाले मनुष्य के रूप में देखकर उनके साथ काम करने पर जोर देता है। इस संदर्भ में, हमें अपने-आप से यह ज़रूर पूछना चाहिए कि क्या हमारे कार्यक्रम संवादात्मक हैं और उन पुरुषों की बातों को शामिल कर रहे हैं जिनके लिए उन्हें डिजाइन किया गया है। इसके लिए, कार्यक्रमों को वास्तविक दुनिया की उन स्थितियों की जानकारी रखनी होगी और उन पर बात करनी होगी जिनसे आगे चलकर पुरुषों एवं लड़कों को निपटना है। लेकिन यह साफ है कि इनमें से कुछ उन क्षेत्रों से बाहर होंगे जिनके लिए विकास सेक्टर में फंडिंग हासिल करना और जिन्हें करना प्रमुख माना जाता है। पुरुषों और लड़कों के साथ लिंग या किसी अन्य मुद्दे पर आधारित कार्यक्रम बनाते और लागू करते समय कुछ संबंधित पहलुओं को ध्यान रखा जाना चाहिए:

1. किशोरों में विश्लेषण और तार्किक विचार क्षमता का विकास करना

मीडिया और सूचना के इस दौर में जरूरी है कि हम युवाओं (विशेष रूप से लड़कों और पुरुषों के लिए) को प्रचार, गलत सूचना और नकली सूचनाओं के ढेर से प्रामाणिक और तथ्यात्मक जानकारी को अलग करना सिखाएं। गलत सूचनाओं का प्रसार हमारे दैनिक जीवन के लगभग हर पहलू को प्रभावित करता है। भारत में कोविड-19 के बारे में लगातार गलत सूचनाओं की भरमार रही है, लेकिन यह कोई अपवाद नहीं है। किसी खास समूह के लिए गलत सूचनाओं और संदेशों के ऐसे कई पैटर्न रहे हैं जो लोगों के बीच लिंगवादी, जातिवादी और सांप्रदायिक विचारों को फैलाते हैं।

ख़बर एवं ग़लत सूचना के बीच की रेखा अक्सर बहुत पतली और धुंधली होती है।

युवक अक्सर जानकार होने पर गौरव महसूस करते हैं। असली खबर एवं ग़लत जानकारी के बीच की रेखा अक्सर बहुत ही पतली और धुंधली होती है। सभी सामाजिक बदलाव कार्यक्रमों के लिए मुख्य काम लोगों में तार्किक सोच और विश्लेषण क्षमता विकसित करना होना चाहिए ताकि वे सभी पहलुओं पर गौर करने और झूठ को सच से अलग करने में सक्षम हो सकें। ‘व्यावसायिक प्रशिक्षण’ और ‘रोजगार’ के युग में, हम शिक्षा के इस महत्वपूर्ण उद्देश्य को भूल जाते हैं या इसे प्राथमिकता सूची से हटा देते हैं।

2. विविधता के साथ जुड़ाव को प्रोत्साहित करें

दुनिया के साथ समग्र और विचारशील जुड़ाव के लिए विविधता (डायवर्सिटी) की वास्तविक और अनुभव संबंधी विवेचना करना जरूरी है। मुझे एक विश्वविद्यालय परिसर की घटना याद आ रही है जहां हम युवा छात्रों के साथ काम कर रहे थे। वहां एक राजनीतिक रैली हो रही थी और हमारे कार्यक्रम में दो विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से संबंध रखने वाले प्रतिभागी थे। पुरुष प्रतिभागियों में से एक ने खुद को दो महिला सह-प्रतिभागियों से राजनीतिक स्पेक्ट्रम के विपरीत छोर पर पाया। हमने पाया कि इस प्रतिभागी ने जब अपने साथियों को महिलाओं को लैंगिक गालियां देते देखा तब उसने महिलाओं के सार्वजनिक जीवन पर लिंग के असर के बारे में सोचना शुरू कर दिया। राजनीतिक दल के अपने साथियों द्वारा बहस के दौरान बार-बार लैंगिक अपशब्दों के प्रयोग ने उसे अपने राजनीतिक जुड़ाव पर भी सवाल करने को मजबूर कर दिया। यह पहली बार था जब उसकी दोस्ती महिलाओं या किसी अन्य धार्मिक पृष्ठभूमि या राजनीतिक विचारधारा के लोगों से हुई थी। उसके अनुभव एवं वास्तविक जीवन में नए जुड़ाव से उसकी सोच बदल गई और इससे दुनिया को देखने के उसके नज़रिए का विस्तार हुआ। अक्सर इस तरह के बदलाव लाने वाले अनुभवों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है क्योंकि लिंग संबंधी गतिविधियों से इनका सीधा जुड़ाव नहीं होता है।

ज़्यादातर पुरुष विभिन्न लिंगों, जातियों और समुदायों के लोगों के साथ दोस्ती नहीं रखते हैं। खासतौर पर ऐसे पुरुष जो विशेषाधिकार प्राप्त जातियों और समुदायों के परिवारों में पले-बढ़े होते हैं। हालांकि शहरी समृद्ध परिवारों में विविध लिंग, जाति और साम्प्रदायिकता से संबंध रखने वाले लोगों के साथ दोस्ती की अनुमति होती है। लेकिन वहां भी इसकी कमी है। हमें राजनीतिक विचारों, जातियों और अन्य सामाजिक पहचानों पर सीधे तौर पर बात शुरू करने की ज़रूरत है। फिर भले ही वे हमारे संकेतकों और परिणाम रूपरेखाओं के दायरे में फिट होते हों या नहीं।

3. पुरुषों के लिंग, कामुकता और इच्छाओं को उचित ठहराएं

कामुकता और इच्छाओं के क्षेत्र में सबसे पहली जरूरत गलत जानकारी से आए अपराधबोध, अयोग्यता और भ्रम की स्थिति पर बात करने की है। किशोर लड़के और युवक आत्म-संदेह और जिज्ञासाओं से ग्रस्त होते हैं। ‘अगर वह मना करती है तो मैं बिना डरे या चिढ़े उसे कितनी बार प्रोपोज कर सकता हूं?’, ‘क्या लड़कियों को भी सेक्स में मज़ा आता है?’, ‘उसने पूछा कि क्या मैं ब्लू फ़िल्में देखता हूं। अगर मैंने हां कहा तो क्या वह मुझे एक बुरा आदमी समझेगी लेकिन अगर मैंने ना कहा तो शायद उसे लगेगा कि मैं कूल नहीं हूं।’ कार्यक्रमों को युवा पुरुषों और लड़कों को परेशान करने वाले इन वास्तविक प्रश्नों पर बात करने की आवश्यकता है।

कामुकता और रिश्तों के प्रति एक अतिसाधारण ‘नहीं का मतलब नहीं’ वाला नजरिया अपनाना, सेक्शुअल पार्टनरों के बीच एक सुरक्षित, खुश और दोनों तरफ से साफ ‘हां’ की गुंजाइश खत्म कर देता है। भावनाओं और अस्वीकृति के अनुभवों पर चर्चा को प्रोत्साहित करने से पुरुषों को हिंसा का सहारा लिए बिना इन पर विचार करने की जगह मिल सकती है। लैंगिक कार्यक्रमों को लोगों में यह कौशल विकसित करना चाहिए कि वे अपने यौन साथियों के साथ सेक्स और अपनी इच्छाओं के बारे में बिना किसी भय के बातचीत कर सकें। यह युवाओं और विशेष रूप से युवा पुरुषों के जीवन के सकारात्मक और आवश्यक पहलू के रूप में कामुकता को स्वीकार करने वाले कार्यक्रमों से शुरू होता है। इसके अलावा, इसके लिए एक सुरक्षित स्थान की आवश्यकता होती है जहां एक समानुभूति वाली मानसिकता बनाना और सीखना हमेशा सही बात कहने से अधिक जरूरी होता है।

4. विशेषाधिकार प्राप्त पुरुषों के साथ काम करें

विकास कार्यक्रम हाशिए पर और उत्पीड़ित समुदायों पर केंद्रित होते हैं। लेकिन, मर्दानगी पर काम करने के लिए प्रमुख और विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों और पृष्ठभूमि वाले पुरुषों को शामिल करना आवश्यक है। अधिकांश संस्थान इन समुदायों और पृष्ठभूमि के लड़कों में शक्ति और अधिकार की भावना को मजबूत करना जारी रखते हैं, लेकिन विशेषाधिकार छोड़ने के काम में उन लोगों को शामिल करना चाहिए जो इसका सबसे अधिक लाभ उठाते हैं। इसी बिंदु पर विकास के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों को पुरुषों द्वारा सामना किए जाने वाले दबावों की स्वीकार्यता और उनके द्वारा की जाने वाली हिंसा की जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए। यह कई मुद्दों को संबोधित करने वाला काम है और इसके लिए पुरुषत्व और लिंग संबंधी कार्यक्रमों को स्वयं प्रतिबद्ध होना चाहिए। यह किसी भी तरह से विचारों का एक विस्तृत समूह नहीं है। यह मेरे अनुभव और पुरुषों और लड़कों के साथ जुड़ाव और लैंगिक कार्यक्रमों पर आधारित शुरुआत है। मुझे उम्मीद है कि यह पुरुषों के साथ कार्यक्रम के बारे में सोचने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए एक शुरुआती बिंदु हो सकता है, विशेष रूप से उनके लिए जो मर्दानगी और लिंग संबंधी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

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