June 29, 2023

आत्मदाह और एसिड हमले के पीड़ितों को मुख्यधारा में कैसे लाया जाए?

एसिड हमले और आत्मदाह के पीड़ितों को ऐसे पुनर्वास कार्यक्रमों की जरूरत है जिनमें समाज और वे खुद भी उन्हें उनके बदले स्वरूप में स्वीकार कर सकें।
6 मिनट लंबा लेख

भारत में प्रत्येक वर्ष लोगों के जलकर घायल होने के 70 लाख मामले घटित होते हैं। इनमें एसिड अटैक और आत्मदाह के मामले भी शामिल हैं। इन घटनाओं के पीड़ितों में 91,000 महिलाएं हैं जिनमें से ज्यादातर निम्न-आयवर्ग वाले घरों से आती हैं। इन पीड़ितों का इलाज लम्बे समय तक चलता है इसलिए अक्सर इन्हें और इनके परिवार वालों को इसके चलते आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है। इस तरह के मामलों में सरकार से मिलने वाली मदद उपलब्ध होने के बावजूद ऐसे लोगों तक नहीं पहुंच पाती है। 

एसिड अटैक के शिकार लोगों के पुनर्वास के लिए काम करने वाली संस्था, ब्रेव सोल्स फाउंडेशन की संस्थापक शाहीन मलिक कहती हैं, “जहां हर्ज़ाने में मिलने वाली राशि बहुत छोटी है, वहीं इसके लिए लंबी और थकाऊ सरकारी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जो इस तक पहुंचना और कठिन बना देता है। इसके लिए न केंद्र की कोई पुनर्वास योजना है और न राज्यों में कोई पेंशन योजना। यहां तक ​​कि [कई राज्यों में] विकलांग पेंशन भी बमुश्किल 500-600 रुपये है।” शाहीन इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि सरकार द्वारा दी जाने वाली मदद को आमतौर पर पहली सर्जरी पर खर्च किया जाता है, जो अधिकतम 2 लाख रुपये तक हो सकती है। इसके बाद पीड़ित की सहायता के लिए किसी भी प्रकार का पुनर्वास या वित्तीय मदद प्रदान नहीं किए जाते हैं।

आत्मदाह के मामलों में तो सरकार द्वारा किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं दिया जाता है। बर्न-सर्वाइवर्स की मदद करने वाले चेन्नई-स्थित संगठन इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन फ़ॉर क्राइम प्रिवेन्शन एंड विक्टिम केयर (पीसीवीसी) से जुड़ी स्वेता शंकर बताती हैं कि इन मामलों को अक्सर ही आत्महत्या के प्रयास के मामलों के रूप में दर्ज किया जाता है। घर के भीतर होने वाली घरेलू हिंसा को न तो रेखांकित किया जाता है और ना ही आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप ही दर्ज किए जाते हैं। 

दैनिक वेतन पर काम करने वाले परिवारों के लिए, अस्पताल में जीवित बचे लोगों के साथ रहने का मतलब है, अपनी आय को खोना। इन परिवारों की बचत के पैसे बहुत जल्द ख़त्म हो जाते हैं और ये कर्ज के बोझ तले दबने लगते हैं। स्वेता कहती हैं कि “ऐसी परिस्थिति आने पर परिवार के लोग पीड़ित को अस्पताल से छुट्टी दिलवाकर घर ले जाने पर जोर देने लगते हैं जो उनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है।” ऐसा होने से रोकने के लिए देखभाल करने वालों को सहायता प्रदान करना आवश्यक हो जाता है। यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि पीड़ितों के परिवारों को भर पेट खाना मिल रहा है और उनके पास अपने बच्चों की शिक्षा के लिए पर्याप्त धन है।

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रोज़गार के लिए मार्गदर्शन करना

शाहीन बताती हैं कि अस्पताल से घर वापस जाने के बाद भी पीड़ितों को आमदनी के स्त्रोतों की ज़रूरत होती है ताकि वे अपना आगे का इलाज करवा सकें। लेकिन यह मुश्किल हो जाता है क्योंकि उनके घाव के कारण उनकी आजीविका के विकल्प प्रभावित होते हैं। वे बताती हैं कि “बहुत हद तक लोगों के करियर बदल जाते हैं [और कइयों को तो फिर से शुरुआत करने की ज़रूरत होती है]। हमारे पास एक ऐसी सर्वाइवर हैं जिन्होंने एमबीए किया है लेकिन अब उनकी आंखों की रौशनी चली गई है। अब उन्हें ब्रेल लिपि सीखनी होगी और सब कुछ शुरू से शुरू करना होगा।”

ज़्यादातर पीड़ित युवा हैं और उनके पास उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के अवसर नहीं थे। ऐसी स्थिति में कौशल निर्माण उनके पुनर्वास का एक महत्वपूर्ण घटक बन जाता है। शाहीन कहती हैं कि “अंग्रेज़ी और कम्प्यूटर सीखना रोज़गार के प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है क्योंकि ये कौशल नौकरी के लिए अवसरों का दरवाज़ा खोलते हैं। कम्पनियों से रोज़गार के लिए बातचीत करने के अतिरिक्त हम भाषा, योग, कम्प्यूटर की कक्षाओं के साथ-साथ पीड़ितों के लिए क़ानूनी जागरूकता के शिविर भी आयोजित करते हैं।

मनोसामाजिक सहयोग आर्थिक सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि जलने के बाद पीड़ित अपने आप को दूसरी तरह से देखते हैं।

मनोसामाजिक सहयोग आर्थिक सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि जलने के बाद पीड़ित खुद को दूसरी तरह से देखने लगते हैं। वे अब चोट के कारण आए अपने शारीरिक बदलावों और अपनी सार्वजनिक छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। स्वेता कहती हैं कि “सामाजिक मेलजोल, पुनर्वास प्रक्रिया का हिस्सा होता है। इस तरह के मेलजोल का उद्देश्य सार्वजनिक जगहों पर उन्हें सहज महसूस करवाना होता है। इससे वे अपने जलने को लेकर, लोगों द्वारा किए जाने वाले उन सवालों से निपटना भी सीखते हैं जो उन्हें परेशान करते हैं।” इस प्रकार सार्वजनिक जगहों के संपर्क में आना समाज का हिस्सा बनने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम बन जाता है।

अपने मनोसामाजिक परामर्श प्रक्रिया का उपयोग करते हुए, पीसीवीसी इस पर भी विचार करता है कि किसी एक सर्वाइवर के लिए किस प्रकार का रोज़गार उपयुक्त होगा। स्वेता बताती हैं कि इसे विस्तार से समझने के लिए वे सर्वाइवर के साथ बहुत लम्बी बातचीत करते हैं। वे आगे बताती हैं कि “कभी-कभी वे बताती हैं कि उनका गणित अच्छा है या फिर वे अपने घर के बजट के प्रबंधन में अच्छी थीं। हम उन्हें ऐसे प्रशिक्षण प्रदान करते हैं जो उनकी इन योग्यताओं को रोज़गार अवसर में बदलने में मददगार साबित होते हैं।” 

हालांकि, उचित रोजगार के अवसरों के बिना कौशल प्रशिक्षण व्यर्थ होते हैं। कई समाजसेवी संस्थाएं और सीएसआर पहलें सौंदर्य उद्योग में काम करने के लिए सर्वाइवर्स को प्रशिक्षित करने में निवेश कर रही हैं। लेकिन शाहीन कहती हैं कि “सर्वाइवर्स में अक्सर [आंशिक] अंधापन जैसी अक्षमताएं आ जाती हैं, जिससे उनके लिए ब्यूटीशियन या दर्जी के रूप में काम करना मुश्किल हो जाता है।” वे कहती हैं कि “इन रोज़गारों से अच्छे पैसे भी नहीं मिलते हैं लेकिन बेहतर अवसरों की कमी के कारण ये लोकप्रिय विकल्प बन गए हैं।”

एक समूह में खड़ी महिलाएं_एसिड अटैक रोज़गार
आम जनता के बीच संवेदनशीलता की कमी और सरकार से मिलने वाले अपर्याप्त समर्थन के कारण पीड़ित का जीवन लगातार ख़तरे में होता है। | चित्र साभार: ब्रेव सोल्स फ़ाउंडेशन

कार्य स्थल पर मार्गदर्शन करना

पीड़ितों के लिए रोज़गार प्राप्त करना ही अपने-आप में एक चुनौतीपूर्ण काम होता है लेकिन नौकरी मिलने के बाद उन्हें कई अलग प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पीड़ितों के रूप-रंग को लेकर कई तरह की गलत धारणाओं जुड़ी होती हैं और ऐसा संभव है कि उनके सहकर्मी कई बार गलत तरीके से, उन्हें असहज बनाने वाले, अनुचित सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल करें। स्वेता बताती हैं कि “ कई पीड़िताएं अपनी साथियों से इस बारे में सीखती हैं कि उनकी निजता में दख़ल देने वाले प्रश्नों को किस प्रकार विनम्रता से टाला जा सकता है।” पीसीवीसी के पुनर्वास केंद्र में हमने कई आइने लगाए हैं ताकि ये पीड़ित अपने रूप-रंग और छवि को लेकर सहज हो सकें।

हालांकि सीमाएं बनाना सीखना और सार्वजनिक रूप से सहज महसूस करना महत्वपूर्ण है, लेकिन नियोक्ताओं और सहकर्मियों के लिए संवेदनशीलता प्रशिक्षण से गुजरना भी उतना ही जरूरी है। कभी-कभी सहकर्मियों द्वारा यह भेदभाव कुछ ‘विशेषाधिकारों’ जैसे कि नियोक्ताओं द्वारा चिकित्सीय कारणों या उपचार और क़ानूनी सुनवाई के लिए पीड़ितों को दी जाने वाली अतिरिक्त छुट्टियों आदि के कारण उपजी चिढ़न की वजह भी बन जाता है। स्वेता कहती हैं कि “पीड़ितों को कभी भी उनकी नौकरी के लिए एहसानमंद नहीं महसूस करवाना चाहिए। यदि कार्यस्थल पर उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है तो पीसीवीसी जैसी समाजसेवी संस्थाएं मैनेजरों के साथ मिलकर इन मुद्दों को सुलझाने में मदद कर सकती हैं जो इन समस्याओं के समाधान के लिए उचित कदम उठा सकते हैं। हालांकि यदि यह उपाय कारगर नहीं होता है तो वैसी परिस्थिति में समाजसेवी संस्थाओं को उनके लिए रोज़गार के अन्य अवसरों की तलाश में मदद करनी चाहिए।”

नीतिगत कमी

अपने समावेशी अभियान के अंतर्गत कई संगठन आत्मदाह और एसिड हमले के पीड़ितों को अपने यहां काम पर रखने की इच्छा जताते हैं। हालांकि आम लोगों में संवेदनशीलता की कमी और सरकार से मिलने वाले अपर्याप्त सहयोग के कारण इन पीड़ितों का जीवन लगातार ख़तरे में होता है। यहां तक कि इन्हें विकलांग प्रमाणपत्र हासिल करने में भी कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। शाहीन का कहना है कि “अपने काम के दौरान मैंने यह महसूस किया है कि लोग इसके बारे में जानते तो हैं लेकिन वे पीड़ितों द्वारा झेली जा रही समस्याओं के प्रति वास्तव में संवेदनशील नहीं होते हैं।” न्यूनतम मुआवजे के अलावा सरकार से अन्य किसी भी प्रकार की मदद मुहैया नहीं करवाई जाती है। रोज़गार को लेकर सरकार की ओर से न तो किसी प्रकार का समर्थन दिया जाता है और न ही किसी तरह की सब्सिडी मिलती है। शाहीन आगे बताती हैं कि “हम सरकारों के साथ मीटिंग करते हैं लेकिन कई महीने बीतने के बाद भी कुछ नहीं होता है। हमें नीतिगत-स्तर पर बदलावों की ज़रूरत है।”

आत्मदाह से बचने वाले लोगों को किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं मिलता है, इसलिए उन्हें सहयोग हासिल करने के लिए बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है। स्वेता का मानना है कि जलने के मामलों, जिनमें आत्मदाह भी शामिल है, के लिए एक केंद्रीकृत नीति पूरी प्रक्रिया को यादगार रूप से कारगर बनाएगी। वे कहती हैं कि “हम सामाजिक कल्याण विभाग और उनके विभाग की योजनाओं और पहलों के साथ मिलकर काम करने में सक्षम हो सकेंगे।”

यह महत्वपूर्ण है कि रोकथाम कार्यक्रमों में घरेलू हिंसा के खिलाफ उपाय शामिल हों जो इस मुद्दे की जड़ है।

एसिड हमलों और आत्मदाह के मामलों को ख़त्म करने के लिए घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाना एक महत्वपूर्ण उपाय है। स्वेता कहती हैं कि “हमारे द्वारा देखे जा रहे मामलों में नब्बे फ़ीसद मामले घरेलू हिंसा से जुड़े होते हैं।” यह महत्वपूर्ण है कि रोकथाम कार्यक्रमों में घरेलू हिंसा के खिलाफ उपाय शामिल हों, जो इस मुद्दे की जड़ है। तेजाब, मिट्टी के तेल और खुले पेट्रोल की बिक्री पर प्रतिबंध भी जलने से बचाव पर बातचीत का अहम हिस्सा बन गया है। “भारत ने खुले पेट्रोल की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन हमें अभी भी घरेलू हिंसा को समाप्त करने की आवश्यकता है जो इस समस्या का मूल कारण है।” कैरोसीन तेल की बिक्री पर प्रतिबंध की अपनी चुनौतियां हैं क्योंकि सब्सिडी के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति एलपीजी की ख़रीद में सक्षम नहीं है।

यह महत्वपूर्ण है कि एसिड हमलों और आत्मदाह के मामलों को लैंगिक हिंसा के रूप में देखा जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि नीतियों में इनकी स्वीकार्यता हो। साथ ही, पुनर्वास प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करना भी आवश्यक है। स्वेता आगे कहती हैं कि “जब तक हम सही संदेश नहीं देंगे तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है।”

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लेखक के बारे में
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देबोजीत दत्ता

देबोजीत दत्ता आईडीआर में संपादकीय सहायक हैं और लेखों के लिखने, संपादन, सोर्सिंग और प्रकाशन के जिम्मेदार हैं। इसके पहले उन्होने सहपीडिया, द क्विंट और द संडे गार्जियन के साथ संपादकीय भूमिकाओं में काम किया है, और एक साहित्यिक वेबज़ीन, एंटीसेरियस, के संस्थापक संपादक हैं। देबोजीत के लेख हिमल साउथेशियन, स्क्रॉल और वायर जैसे प्रकाशनों से प्रकाशित हैं।

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हलीमा अंसारी

हलीमा अंसारी आईडीआर में सम्पादकीय विश्लेषक के रूप में कार्यरत हैं जहां वे आलेखों के लेखन, सम्पादन और प्रकाशन की जिम्मेदारी सम्भालती हैं। वे टेक्नोलॉजी में लिंग और नैतिकता जैसे विषय में रूचि रखती हैं और उन्होंने फ़ेमिनिज़म इन इंडिया और एमपी-आईडीएसए के लिए इस विषय पर लेख भी लिखे हैं। हलीमा ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पॉलिटिक्स एवं एरिया स्टडीज़ में एमए किया है और लेडी श्रीराम कॉलेज फ़ॉर वीमेन से इतिहास में बीए की पढ़ाई पूरी की है।

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