July 19, 2023

विमुक्त जनजातियों पर पुलिसिया पहरे के पीछे जातिवाद है

अंग्रेज़ी राज में बनी आपराधिक न्याय प्रणाली आज भी पुलिस के लिए विमुक्त जनजातियों और पिछड़े समुदायों के उत्पीड़न का हथियार बन रही है।
7 मिनट लंबा लेख

साल 1871 में, अंग्रेज सरकार ने भारत में आपराधिक जनजाति अधिनियम लागू किया था। यह एक ऐसा कदम था जिसने सैकड़ों खानाबदोश जनजातियों को ‘जन्म से ही अपराधी’ घोषित कर दिया। हालांकि, 1952 में भारत सरकार ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया लेकिन ये अपराधी जनजातियां – जिन्हें अधिसूचित जनजातियां (डिनोटिफाइड ट्राइब्स – डीएनटी) या विमुक्त समुदायों के नाम से जाना जाता है – आज तक हाशिए पर जीवन जीने को मजबूर हैं। 

उदाहरण के लिए, भोपाल में बसने वाले पारधी नाम के विमुक्त समुदाय की बात करते हैं। यदि किसी पारधी परिवार में शादी-ब्याह जैसा कोई आयोजन होता है तो इन्हें इसके लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन से अनुमति लेनी पड़ती है। साथ ही, शादी में शामिल होने वाले अतिथियों की सूची के साथ एक आवेदन जमा करना पड़ता है। यदि वे इस नियम का पालन नहीं करते हैं तो यह मान लिया जाता है कि पारधी समुदाय के लोग किसी तरह का अपराधिक षड्यंत्र करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। इसके बाद वहां की स्थानीय पुलिस कभी भी उन्हें उठाकर ले जा सकती है। 

आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा विमुक्त समुदाय के साथ, व्यवस्था के स्तर पर किए जाने वाले उत्पीड़न को न तो लोग समझ पाते हैं और ना ही इस पर किसी तरह के सवाल ही उठाए जाते हैं।

अपराधीकरण की जातिरहित समझ

और परम्परा के स्तर पर एक दूसरे से अलग होते हुए भी उत्पीड़न के साझा इतिहास से एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। व्यवस्था के स्तर पर हिंसा और उत्पीड़न की, बेढंगी और स्वाभाविक रूप से जाति-रहित, समझ के आधार पर उनके जीवन और आजीविका को पीढ़ियों से अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इनकी आपराधिकता को वंशानुगत माना जाता है – एक ऐसी अवधारणा जो सीधे तौर पर भारत की जाति व्यवस्था पर आधारित है जिसमें व्यवसाय को जन्म से जोड़कर देखा जाता है। इसलिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपराधी घोषित किए जाने के कारण यह सोच जाति की संस्था द्वारा पोषित होती आ रही है। आज भी यथास्थिति और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जातिवाद को ही उपयोग में लाया जाता है। 

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जब भारत सरकार ने आपराधिक जनजाति अधिनियम को निरस्त कर दिया, तब कई राज्यों ने बडी तेज़ी से एक नई व्यवस्था बना दी जिसे आदतन अपराधी शासन कहा गया। कई अन्य कानूनों के साथ मिलकर यह व्यवस्था विमुक्त समुदायों के जीवन और आजीविका का अपराधीकरण जारी रखती है।

जंगलों में रहने वाली जनजातियों और आदिवासी समुदायों पर वन्यजीव संरक्षण कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जाता है।

उदाहरण के लिए, जिन समुदायों की संस्कृति में शराब के सेवन की परम्परा है। उन्हें शराब के आयात, निर्यात, बिक्री और ख़रीद को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए उत्पाद शुल्क क़ानूनों (एक्साइज़ लॉ) के तहत लगातार और गलत तरीके से अपराधीकरण का शिकार होना पड़ता है। हमने यह भी पाया कि जंगल में रहने वाले और आदिवासी समुदायों पर सूखी लकड़ी या मशरूम जैसी वन उपज इकट्ठा करने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है जबकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत ऐसी सभी गतिविधियां उनके अधिकारों के अंतर्गत आती हैं। 

इन समुदायों के असंगत अपराधीकरण के पीछे दिया जा सकने वाला तर्क जाति व्यवस्था है और पुलिस इस जातिवादी औपनिवेशिक विरासत को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पुलिस का काम विवेक के इर्द-गिर्द केंद्रित होता है, जो पुलिस अधिकारियों को यह स्वतंत्रता देता है कि वे यह तय कर सकें कि किसे संदिग्ध माना जाए या कौन सार्वजनिक सुरक्षा के लिए ख़तरा बन सकता है। किसी को भी आदतन अपराधी की श्रेणी में शामिल कर देना और उस श्रेणी को परिभाषित करना, दोनों ही अधिकार पुलिस के पास होते हैं। लेकिन, जिन अंतर्निहित धारणाओं के आधार पर पुलिस ये आकलन करती है, उन पर कभी सवाल नहीं उठाया जाता है।

पुलिस बैरिकेड_विमुक्त जनजातियां पुलिस
रोजाना की पुलिस कार्रवाई में छोटे-मोटे अपराधों को लक्ष्य बनाया जाता है और इनसे उत्पीड़ित जाति समुदायों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपराधिक करार दे दिया जाता है। | चित्र साभार: ट्रैविस वाइज़ / सीसी बीवाय

क़ैद बनी जीवनशैली का हिस्सा

अपराधीकरण पर की जाने वाली चर्चाएं कारावास पर बातचीत तक ही सीमित होती हैं। इससे यह गलतफहमी पैदा होती है कि किसी व्यक्ति को अपराधी ठहराए जाने से होने वाला एकमात्र नुकसान उसका जेल जाना है – यह एक ऐसा नजरिया है जो विमुक्त समुदायों के जीवन की वास्तविकताओं से बहुत दूर है।

सच तो यह है कि उनके लिए, कारावास को जबरन उनके जीवन का ऐसा हिस्सा बना दिया गया है जिसका विस्तार जेल की चारदीवारी से आगे भी है। पारधी समुदाय की तरह, अन्य विमुक्त समुदायों के सदस्य भी कड़ी निगरानी में अपना जीवन बिताते हैं। कइयों को स्थानीय बाज़ारों में जाने से भी डर लगता है या फिर एक निश्चित समय के बाद वे घर में ही रहते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उन पर कड़ी निगरानी रखी जा रही है और उन्हें आशंका होती है कि पुलिस किसी भी बात के लिए उन्हें सड़क से ही उठा सकती है। इसलिए वे एक आत्म-नियंत्रित और अनुशासित जीवन जीते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनके कामों की जांच की जाएगी। आपराधिक अस्तित्व एक अर्थ यह भी है कि इन समुदायों के बच्चे बदनामी और तिरस्कार के कारण बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। जेल में होने जैसा जीवन जीना ही इनके पास उपलब्ध विकल्प है जो इन समुदायों के हर पहलू पर अपना असर छोड़ता है।

वास्तविक अनुभवों का सामने लाने के लिए जागरुकता लाना

जब मैंने अधिसूचित जनजातियों से आने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वकील के तौर पर  काम करना शुरू किया तो सबसे पहले आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में गहराई से जानना शुरू किया। मैं जल्दी ही समझ गई थी कि उत्पीड़न से जुड़ी व्यक्तिगत घटनाओं पर प्रतिक्रिया देना उपयोगी तो है लेकिन पर्याप्त नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों को उनकी सामुदायिक पहचान के कारण निशाना बनाया जा रहा था।

हमारे काम में, नियमित रूप से ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं जिनमें दो लोग सड़क किनारे बैठ कर पत्ते खेल रहे थे तो उन्हें सार्वजनिक रूप से जुआ खेलने के इलज़ाम में उठा लिया गया तो किसी को बिना लाइसेंस के चाकू रखने के कारण आर्म्स एक्ट 1959 के तहत हिरासत में ले लिया गया। ये सभी छोटे-मोटे अपराध हैं, फिर भी रोजाना की पुलिस कार्रवाई में ऐसी गिरफ्तारियां बहुतायत में देखी जाती हैं। आदतन अपराधी शासन  – जो न्यायिक निरीक्षण के अधीन नहीं आता है – से पुलिस की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। जिन लोगों को इस शासन के तहत अपराधी बनाया गया था, वे बहुत लंबे समय से इस वास्तविकता को जी रहे हैं। हालांकि जिस प्रणालीगत भेदभाव का उन्हें सामना करना पड़ता है, उसकी पुष्टि करने के लिए कोई ऐस साक्ष्य नहीं होता जिसे वे दिखा सकें। 

मैंने 2020 में कुछ लोगों के साथ सीपीए प्रोजेक्ट, एक आपराधिक न्याय अनुसंधान और अभियोग कार्यक्रम की स्थापना की। हमारा लक्ष्य आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अनुचित तरीके से निशाना बनाने की इस प्रक्रिया को समाप्त करना है। इस काम के लिए हम कई तरीक़ों का इस्तेमाल करते हैं। उनमें से एक, व्यवस्थित रूप से एफआईआर और गिरफ्तारी रिकॉर्ड का अध्ययन करना है ताकि हम पुलिस द्वारा अपनी ताकत इस्तेमाल करने के जातिवादी तरीक़ों को सामने ला सकें और उन्हें चुनौती दे सकें।

मध्य प्रदेश में किए गए शोध अध्ययनों से हमें कुछ तथ्य पता चलते हैं: 

  • साल 2018 और 2020 के बीच 20 जिलों में हुई कुल गिरफ्तारियों का 1/6 हिस्सा एक्साइज़-संबंधित था। गिरफ्तार किए गए लोगों में से आधे से अधिक लोग उत्पीड़ित जातियों से थे। हमने मध्य प्रदेश के तीन जिलों से बेतरतीब ढंग से चुनी गई 540 एफआईआर का अध्ययन किया और पाया कि 18 प्रतिशत से अधिक मामलों में उस धारा/धाराओं का कोई विवरण नहीं दिया गया है जिसके तहत लोगों को फंसाया गया था। नतीजतन, लोगों को पुलिस विवेक की अनियमितताओं से जूझना पड़ा है। हमने यह भी पाया कि ज्यादातर मामलों में, एक्साइज पुलिस का संबंध छोटी मात्रा में शराब से था। इन आरोपियों को पांच लीटर से कम मात्रा और एक हजार रुपये से कम मूल्य की शराब के लिए पकड़ा गया था। हमारे विश्लेषण में विमुक्त समुदायों की महिलाओं पर अत्याचार करने का एक पैटर्न भी सामने आया है।
  • वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 जैसा क़ानून भी साल 2011 और 2020 के बीच इन जातियों के उत्पीड़न के लिए इस्तेमाल किया गया। मध्य प्रदेश के वन विभाग द्वारा दर्ज किए गए अपराधों में, लगभग 78 प्रतिशत आरोपी उत्पीड़ित जातियों से थे। हमारे शोध से पता चला कि वन विभाग मछली पकड़ने या वन उपज एकत्र करने के लिए वनवासियों को अपराधी घोषित करता है। जंगली सूअर जैसे जानवर अक्सर मानव बस्तियों में घूमते रहते हैं, जिससे मानव जीवन, पशुधन और कृषि को नुकसान होता है। जंगल में रहने वाले इन लोगों को उनके नुकसान के लिए पर्याप्त मुआवजा नहीं दिया जाता है और आत्मरक्षा के लिए उठाए गए किसी भी कदम या किए गए किसी भी काम को अपराध घोषित कर दिया जाता है।

हमारे द्वारा तैयार किया गया आंकड़ा रोजमर्रा की पुलिसिंग के पैटर्न को सामने लाता है और जो हमें बताता है कि किसे अपराधी बनाया जा रहा है और किस अपराध के लिए। यह आंकड़ा उस लोकप्रिय धारणा को चुनौती देता है कि पुलिस यौन हिंसा जैसे जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों के पीछे पड़कर अपराध को नियंत्रित करती है। हमारा शोध सामने लाता है कि प्रतिदिन की पुलिसिंग छोटे-मोटे अपराधों को कुछ ज्यादा ही निशाना बनाती है और इस प्रकार उत्पीड़ित जाति समुदायों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपराधीकृत कर देती है। इसका उनके समग्र उत्पीड़न में भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।

प्राप्त किये गए आंकड़े और साक्ष्य कानूनी समुदाय को विभिन्न कानूनों के तहत रणनीतिक मुकदमेबाजी करने में सक्षम बनाते हैं।

हम अपने शोध का उपयोग उत्पीड़ित जातियों के अपराधीकरण को रोकने के लिए करते हैं। प्राप्त किये गए आंकड़े और साक्ष्य कानूनी समुदाय को विभिन्न कानूनों के तहत रणनीतिक मुकदमेबाजी करने में सक्षम बनाते हैं। इसमें कानून द्वारा मान्यता प्राप्त कुछ अधिकारों की मान्यता की वकालत करना शामिल है, जैसे वन अधिकार जो वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 द्वारा अपराधीकृत हैं। इसके अतिरिक्त, इसमें कुछ छोटे-मोटे अपराधों को अपराध-मुक्त करने की वकालत करना भी शामिल है। हम आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर उनके वन अधिकारों के उल्लंघन पर सवाल उठाने के लिए इस डेटा तक पहुंचने और उसका लाभ उठाने में मदद करने के लिए भी काम करते हैं।

उत्पीड़ित समाज की आवाज़ को केंद्र में लाना

ज्ञान और समझ बनाने को लेकर एक काली-सफ़ेद सी बात चलती है जिसमें कुछ खास समुदायों को हमेशा ही शोध का विषय बना लिया जाता है। वहीं, कुछ अन्य समुदाय उनके जीवन का अध्ययन और विश्लेषण करते हैं। और, उनकी कहानी बाहर लाते हैं। 

सीपीए प्रोजेक्ट की संकल्पना एक ऐसे प्रयास के रूप में की गई है जो विभिन्न उत्पीड़ित जाति समुदायों के लोगों द्वारा बनाया और चलाया जाता है। उनकी भागीदारी अनुसंधान को विकसित करने और तैयार करने के साथ-साथ यह तय करने में भी होती है कि इन शोध निष्कर्षों का उपयोग कैसे किया जाना चाहिए। हम उन लोगों के साथ काम करते हैं जिन्हें अपराधी घोषित कर दिया गया है। इसके अलावा, हम समुदाय के कार्यकर्ताओं और वकीलों के साथ मिलकर यह निर्धारित करते हैं कि वे हासिल किए गए आंकड़ों का क्या इस्तेमाल करना चाहते हैं।

विभिन्न स्त्रोतों से ली गई जानकारी उन बातों की पुष्टि करती है जो उत्पीड़ित समुदायों के लोग पहले से जानते हैं। लेकिन यह उनकी आवाज़ों को केंद्रित करने का माध्यम भी बनती है और साथ ही, पीढ़ियों से चले आ रहे अपराधीकरण से लड़ने का एक हथियार भी। जातिवादी यथास्थिति को चुनौती देने वाले आंकड़े और सबूत तैयार करना और उनका दस्तावेजीकरण, और कुछ नहीं बल्कि अपनी कहानियों पर अपना अधिकार हासिल करना और उन्हें लोगों के सामने लाने की कोशिश है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

  • पढ़ें कि पुलिस की जवाबदेही क्यों बढ़ाई जानी चाहिए।
  • इस पॉडकास्ट को सुनें और जानें कि वन्यजीव संरक्षण किस प्रकार आदिवासियों को दंडित करता है।
  • जानें कि इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 हमें भारत की न्याय प्रणाली में विविधता के बारे में क्या बताती है।

लेखक के बारे में
निकिता सोनवने-Image
निकिता सोनवने

निकिता सोनवने एक वकील होने के साथ ही क्रिमिनल जस्टिस एंड पुलिस अकाउंटबिलिटी प्रोजेक्ट (सीपीए प्रोजेक्ट) की सह-संस्थापक हैं।

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