विकास सेक्टर के ईमानदार विचार 

  1. आज हमने अपने कार्यकर्ताओं को दस रिपोर्ट बनाने को दी हैं लेकिन हमने उन्हें यह नहीं बताया कि उसमें क्या भरना या क्या बताना है।
  2. हमने अपने सभी ज़मीनी कार्यकर्ताओं को सर्वे करना सिखाया मगर उस डेटा का क्या करना है, ये हमें किसी ने नहीं बताया। 
  3. असल में हमारी रणनीति यह है कि हम इस पर बात नहीं करते हैं कि हमारी कौन सी रणनीति काम करती है। 
  4. इस बार हमने अपनी सालाना कॉन्फ्रेंस का समय सुबह के 9 बजे से अगली सुबह के 4 बजे तक ही रखा है ताकि इसमें शामिल होने वाले लोग एक साथ उगता हुआ सूरज देख सकें। 
  5. हम मोटी तनख्वाह देने में नहीं, बल्कि बड़े लक्ष्य देने में यकीन रखते हैं। 
  6. हम कॉर्पोरेट संस्कृति से दूरी रखते हैं। हमारे कामकाज का समय (ऑफिस ऑवर्स) केवल कहने के लिए 9-5 है।
  7. हम अपने कर्मचारियों को छुट्टी लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं लेकिन छुट्टी मंज़ूर तभी करते हैं जब वो अपना और अपने सीनियर्स का काम निपटा देते हैं। 
  8. हमारी छोटी सी बातचीत भी 57 मिनट की होती है… जस्ट अ क्विक कॉल!
  9. यह पोस्ट @nonprofitssay से प्रेरित है।

कोयला खदानों से होने वाले प्रदूषण और पशुपालन में क्या संबंध है?

मिट्टी के घर की दीवार से लगकर खड़ी एक बकरी_पशुपालन
गाय और बकरियों से होने वाला दूध उत्पादन अब कम होता जा रहा है। | चित्र साभार: देबोजीत दत्ता

मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में पड़ने वाले पेल्मा गांव का निवासी हूं। मैं एक किसान हूं और पशुपालन भी करता हूं। पिछले कुछ दशकों में हमारे आसपास के कई गांवों में कोयला खनन का काम बहुत ही तेज़ी से हो रहा है। कोयला खनन करने के लिए कंपनियों ने ज़मीनों का अधिग्रहण कर लिया। नतीजतन, लोगों के पास खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं रह गई है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर खनन होने के कारण आसपास का पर्यावरण भी बहुत अधिक प्रदूषित हो गया है। इस प्रदूषण का हानिकारक प्रभाव ना केवल यहां रहने वाले इंसानों पर पड़ रहा है बल्कि इलाक़े के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी इसके प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं।

हमारा गांव उन कुछ गांवों में से एक है जहां के लोगों ने जन आंदोलन, अदालती सुनवाइयों और धरना-प्रदर्शन आदि के ज़रिए कोयला खनन पर रोक लगाने में सफलता हासिल की है। कंपनियों का दावा है कि वे हमें रोज़गार मुहैया करवाएंगी, लेकिन हमें इसमें किसी तरह का फ़ायदा नहीं दिखता है। वे एक परिवार से केवल एक व्यक्ति को रोज़गार देने की बात करते हैं, लेकिन हमारे गांव में खेती के काम में परिवार के प्रत्येक सदस्य की भागीदारी होती है।

हालांकि, यह सच है कि हमें खदानों के आसपास रहने का भारी ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हमारे आसपास की हरियाली खत्म हो चुकी है। जब हमारे मवेशी घास और वनोपज चरते हैं तो उनके शरीर में कोयला खनन से निकलने वाले हानिकारक और ज़हरीले पदार्थ भी प्रवेश कर जाते हैं।

मवेशियों के स्वास्थ्य पर इन हानिकारक पदार्थों के सेवन का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और वे कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इन बीमारियों के कारण गायों और बकरियों से होने वाले दूध के उत्पादन में भारी कमी आने लगी है। नतीजतन, मुझ जैसे पशुपालक के भरोसे अपनी आजीविका चलाने वाले लोगों की आमदनी में भारी कमी आई है।

इस के कारण हमारे सामने आजीविका का एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अब खेती में आई कमी के कारण खेतिहर मज़दूरों के पास काम की कमी हो गई है और उनके पास कुछ नया काम सीखने का ना तो विकल्प है और ना ही पर्याप्त साधन हैं। इसके अलावा, आसपास के गांवों में खनन के लिए किए जाने वाले भारी विस्फोटों के कारण हमारे घरों की दीवारों पर भी दरारें पड़ने लगी हैं।

महाशय राठिया जन चेतना, रायगढ़ नाम की एक समाजसेवी संस्था के सदस्य हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव में स्थित एक सामुदायिक संगठन है। महाशय पेशे से एक पशुपालक हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि छत्तीसगढ़ में अब महुआ बुजुर्गों की आय का साधन क्यों नहीं रह गया है।

दिल्ली के बेघर लोगों को सड़क पर भी नींद क्यों नहीं मिल पा रही है

46 साल के बाबुल* को यमुना पुश्ता (नदी किनारे का जलभराव क्षेत्र) के पास रहते हुए क़रीब एक दशक से अधिक हो गया है। मध्य प्रदेश से दिल्ली आने के बाद बाढ़-प्रभावित यह मैदान ही उसका एक मात्र ठिकाना है। बाबुल शादियों और विभिन्न आयोजनों में वेटर का काम करते हैं। अपने काम से वे इतना नहीं कमा पाते हैं कि शहर में एक घर लेकर रह सकें। सड़क पर रहने के कारण उनका जीवन पूरी तरह से असुरक्षित है।

बाबुल का कहना है कि ‘दिनभर चिलचिलाती धूप के कारण ज़मीन बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती है और रात तक गर्म ही रहती है। इसके कारण रात में सोना मुश्किल हो जाता है। दिन की चिलचिलाती धूप और गर्मी हम जैसे लोगों (बेघरों) को सुबह जल्दी जागने के लिए मजबूर कर देती है, और फिर दिन भर किसी तरह की राहत नहीं मिलती।’

बाबुल ने अत्यधिक गर्मी से निपटने के लिए दवाओं और नशे पर बढ़ती अपनी निर्भरता की ओर भी इशारा करते हैं। बाबुल क़हते हैं कि ‘शराब पीने से मुझे थोड़ी शांति मिलती है और इससे उमस भरी गर्मी सहने में भी आसानी होती है। एक बार इसका नशा चढ़ जाने के बाद मुझे आसपास की चीजों का पता नहीं चलता है।’

चिराग़ दिल्ली के फ़्लाइओवर के पास रहने वाले मुरली कहते हैं कि ‘सिर को ढंकने के लिए त्रिपाल शीट का इस्तेमाल करना भी हमारे लिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि बहुत अधिक गर्मी में यह फट और टूट जाता है।’

चूंकि दिल्ली में हर साल गर्मियों में उच्च तापमान के नए रिकॉर्ड बन रहे हैं, ऐसे में बाबुल को होने वाला अनुभव अनोखा नहीं है। मैं जिस समाजसेवी संस्था हाउसिंग लैंड राइट्स नेटवर्क के साथ काम करता हूं, उसके द्वारा हाल ही में किए गये एक अध्ययन के अनुसार, दिल्ली में रहने वाले बेघर लोगों में लगभग 99 फ़ीसद लोग अत्यधिक गर्मी के कारण रातों में सो नहीं पाते हैं।

दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड (डीयूएसआईबी) द्वारा बेघरों को दिये गये आश्रय गृह भी मददगार साबित नहीं हो रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये आश्रय गृह टीन की चादरों से बने होते हैं जो दिन के समय तेज धूप के कारण बहुत अधिक गर्म हो जाते हैं और जिससे कमरे का तापमान बढ़ जाता है। इसके अलावा, तापमान को कम करने और कमरे को ठंडा करने वाले तरीक़ों और साधनों का ना होना या अक्षम होना पहले से ही चुनौतीपूर्ण स्थितियों में इजाफ़ा ही करती है। यमुना बाज़ार हनुमान मंदिर आश्रय गृह में रहने वाले 50 साल के मूलचंद कहते हैं कि ‘आश्रय गृह में लगे पंखों से गर्म हवा निकलती है। कमरे में भीषण गर्मी के कारण हम लोग रात भर नहीं सो पाते हैं।’

अनिद्रा, अत्यधिक गर्मी के कारण बेघरों पर पड़ने वाले प्रभावों में से एक है। उन्होंने ने सांस लेने में कठिनाई, मतली, चक्कर आना, निर्जलीकरण और भूख न लगना जैसी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में भी बताया है।

एक बेघर आदमी की औसत मासिक आमदनी लगभग 8 हज़ार रुपये होती है, जिसके कारण वे पंखों और कूलर का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। उचित आश्रय, भोजन, पानी और दवाओं का खर्च उठाने की अक्षमता और सरकार से पर्याप्त मदद ना मिलने जैसे कारकों ने इस मामले को और भी बदतर बना दिया है। जैसा कि निज़ामुद्दीन की सड़कों पर रहने वाली सुधा* कहती हैं ‘गर्मी के कारण हम बार-बार बीमार पड़ते हैं, लेकिन दवाओं की बढ़ती क़ीमत के कारण हमारे लिए पूरी खुराक लेना मुश्किल होता है।’

पूर्वी दिल्ली के चांद सिनेमा के पास रहने वाले ललित* बताते हैं कि ‘चक्कर आना शुरू हो जाता है और प्यास असहनीय हो जाती है। कभी-कभी मतली आती है, बुखार बढ़ता है, शरीर में दर्द होता है और बेचैनी बढ़ जाती है।’

*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।

अनुज बहल एक शहरी रिसर्चर और स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि ओडिशा के हाडागरी गांव के लोगों ने अपने घरों में रहना क्यों छोड़ दिया है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

क्या ‘एक देश एक चुनाव’ सचमुच अनेक समस्याओं का हल बन सकता है?

बीते मार्च में केंद्र सरकार द्वारा बिठाई गयी उच्च स्तरीय समिति ने भारत में समकालिक चुनाव पर अपनी रिपोर्ट पेश की है। इससे पता चलता है कि सरकार ‘एक देश एक चुनाव’ को लेकर काफ़ी संजीदा है। समिति ने रिपोर्ट में इसी से जुड़े कुछ सुझाव दिए हैं, वे क्या हैं? क्या इनसे आम चुनाव से जुड़ी समस्याएं सुलझेंगी या और उलझेंगी?

यह पॉडकास्ट मूलरूप से पुलियाबाज़ी.इन पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां सुन सकते हैं।

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स्पीति अपनी परंपरागत वास्तुकला को क्यों छोड़ रहा है?

मेरा नाम अंगदुई फुंटसोक है। मैं हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले में पड़ने वाले किब्बर गांव का का रहने वाला हूं। मैं एक शिल्पकार होने के साथ बढ़ई का काम भी करता हूं। बचपन में, मैं परिवार की मदद करने के लिए हमारे गांव के चरागाहों में मवेशियों (भेड़, बकरी, गाय, याक और डज़ोमो) को चराने और जौ के खेतों की जुताई का काम करता था। बीस साल की उम्र से ही मैंने लकड़ी का काम करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे मैं खिड़कियां, दरवाज़ों के फ़्रेम और कावा (लकड़ी के पाये) बनाने लगा जो पारंपरिक मिट्टी के घरों में इस्तेमाल होते हैं। मैंने स्पीति में मिट्टी के घरों को बनाने वाले कारीगरों और कलाकारों के साथ काम करते हुए सीखा है। ये लोग पत्थर की चिनाई के काम के कुशल कारीगर थे और मैंने घरों के मिस्त्री (मुख्य कारीगर) के रूप में अपने काम में इस ज्ञान का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।

स्पीति में पारंपरिक घर बनाने और बढ़ई का काम करते हुए मुझे लगभग 27 साल हो चुके हैं। मैं अपनी गर्मियां मिट्टी के घरों को बनाने, उससे जुड़ी सलाह देने और स्थानीय लोगों की मदद करने में बिताता हूं। साथ ही, उनके लिए मरम्मत का काम करता हूं। सर्दियों में मैं पूरी तरह से केवल लकड़ी का काम करता हूं।

एक बढ़ई अपना काम करता हुआ_वास्तुकला
अपना काम करते हुए अंगदुई फुंटसोक | चित्र साभार: अंगदुई फुंटसोक

जब मैंने पहली बार काम शुरू किया था तब से लेकर आजतक स्पीति में घर बनने के तरीकों और वास्तुकला में बहुत अधिक बदलाव आ गया है। इस बदलाव का एक मुख्य कारण जीवनशैली का बदलना है। खेती स्पीति के लोगों की आमदनी का मुख्य स्रोत है। बीते कुछ सालों में यहां के किसानों ने अनाज वाली फसलों के बदले हरी मटर जैसी नक़दी फसलों की उपज को अपना लिया है। साथ ही, पर्यटन भी आजीविका का एक मुख्य स्रोत बन गया है। यह फ़ोटो निबंध इस बदलाव के इतिहास और कारणों की पड़ताल करता है और बताता है कि कैसे यह स्पीति की संस्कृति और वास्तुकला को प्रभावित कर रहा है।

स्पीति में छोटी-छोटी खिड़कियों वाला एक पारंपरिक घर_वास्तुकला
छोटी-छोटी खिड़कियों वाला एक पारंपरिक घर | चित्र साभार: पेमा खांडो

पारंपरिक रूप से स्पीति की वास्तुकला में लकड़ी, मिट्टी और पत्थरों का इस्तेमाल प्रमुखता से होता रहा है। कच्चे माल का चुनाव उसकी स्थानीय उपलब्धता और जलवायु की स्थिति पर भी निर्भर करता है। इसके अलावा, क्षेत्रीय विविधता के कारण, कुछ निश्चित क्षेत्रों में कुछ चीजें बिलकुल ना के बराबर उपलब्ध होती हैं। उदाहरण के लिए, ऊपरी स्पीति के टोढ़ घाटी क्षेत्र में लकड़ी, अच्छी गुणवत्ता वाली मिट्टी, पत्थर और लोहे जैसे कच्चा माल हासिल करना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए, आप देखेंगे कि इस क्षेत्र में बने घर की संरचना और डिज़ाइन अधिकतर मिट्टी पर आधारित थी जिसमें उन संसाधनों का न्यूनतम उपयोग किया गया था जो स्थानीय रूप से अनुपलब्ध हैं। निचले स्पीति के शाम घाटी जैसे क्षेत्रों में निर्माण के लिए कच्चे माल की उपलब्धता सहज है। इसका सीधा अर्थ यह है कि इस क्षेत्र में घरों की दीवार और छत के निर्माण में मिट्टी का इस्तेमाल प्रमुखता से किया जाता था और इमारत की स्थिरता को बढ़ाने के लिए इसके आधार में पत्थर लगाये जाते थे।

बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला पत्थर से बना एक घर_वास्तुकला
बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला पत्थर से बना एक घर | चित्र साभार: दीपशिखा शर्मा

पहले स्पीति के लोग मुख्य रूप से खेती और पशुपालन पर निर्भर थे। इमारतों का निर्माण परिवार और समुदाय की खेती-पशुपालन से जुड़ी ज़रूरतों को ध्यान में रखकर किया जाता था। मवेशियों और पशुओं के बाड़े, अनाज और औज़ार रखने के लिए भंडार के साथ-साथ उपलों और गोबर रखने के लिए शौचालयों जैसे ढांचे, खुले बरामदे बनाए जाते थे। एक खेतिहर समाज के लिए समतल छत उनके घरों का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी।

समुदायों को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध ऐसे संसाधनों और वस्तुओं की जानकारी थी जिनका इस्तेमाल निर्माण के लिए किया जाता था। इसके अलावा साधारण वास्तुकला निर्माण के तरीक़ों का सीधा अर्थ यह था कि पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का हस्तांतरण आसानी से हो सके। घर बनाना एक सामुदायिक काम हुआ करता था; समुदाय के सदस्य जौ, सब्ज़ियों और अन्य उत्पादों के बदले किसी के घर की छत बनाने के लिए एक साथ इकट्ठा होते थे।

मवेशियों के बाड़े वाला एक पारंपरिक घर_वास्तुकला
पशुओं के बाड़े वाला एक पारंपरिक घर | चित्र साभार: नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन इंडिया

हालांकि 1990 के दशक से चीजें उस समय बदलनी शुरू गईं जब एक नक़दी फसल एक रूप में हरे मटर की खेती के लिए सरकार के प्रोत्साहन अभियान के कारण लोग समृद्धि होने लगे और उन्हें इसके लाभ दिखने शुरू हो गए। मटर उपजाने वाले किसान, पंजाब में चंडीगढ़ जैसी जगहों पर जाकर अपनी फसलें बेचने लगे। वापसी में वही किसान अपने साथ लकड़ी के मोटे टुकड़ों जैसा कच्चा माल लाने लगे जिसके कारण स्पीति में जुनिपर, विलो और चिनार जैसी पतली किस्मों की जगह इनका इस्तेमाल होने लगा। क़स्बे के लोगों में बड़े शहरों जैसा जीवन जीने की इच्छा जागने लगी जिसमें उनके द्वारा देखी गईं कंक्रीट (आरसीसी) से बनी इमारतें भी शामिल थी जिसमें स्टील, कांच और सीमेंट जैसे कच्चे माल का इस्तेमाल होता था। अब जब उनके पास इसे हासिल करने के साधन थे, तो स्पीति शहर की वास्तुकला ने खुद को ग्रामीण कला से दूर करना शुरू कर दिया है।

कंक्रीट से बने आधुनिक घर_वास्तुकला
स्पीति में बना कंक्रीट का एक आधुनिक घर | चित्र साभार: केसांग चुनिए

कंक्रीट से बनी पक्की सड़कों का निर्माण किया गया जिससे एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र से जोड़ा गया। स्पीति में रहने वाले लोगों ने अन्य जिलों के लोगों से बातचीत करनी शुरू कर दी और धीरे-धीरे उनकी वास्तुकला को भी अपनाना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, मेरे जैसे मिस्त्री कुल्लू में बने होटलों में जाकर वास्तुकला को सीखा। हमने देखा कि वहां हर कमरे में अलग से एक शौचालय बनाया गया था और उनकी छतों में टाइल्स का इस्तेमाल किया गया था जो कि हमारी छतों में नहीं होता है। इस समय तक इंटरनेट नहीं आया था इसलिए हम शौचालयों और कमरों की माप लेते थे और उनके निर्माण के तरीक़ों और तकनीकों से जुड़ी जानकारी को कागज पर दर्ज कर लेते थे। इसके बाद वापस लौटकर इस ज्ञान को हम अपने काम में लागू करते थे।

एक कतार में कई घर_वास्तुकला
स्पीति संस्कृति का एक समकालीन गांव | चित्र साभार: चेमी ल्हामो

धीरे-धीरे स्पीति के काजा, ताबो, रांग्रिक, लोसर, खुरीक, शेगो और लारा जैसे गांवों ने पर्यटकों को अपनी तरफ़ खींचना शुरू कर दिया जिसके कारण इन इलाक़ों में होमस्टे और होटलों की भरमार हो गई। आर्थिक उछाल का मतलब था कि समुदाय का युवा वर्ग अब पढ़ाई के लिए स्कूलों और कॉलेजों में जाने लगा था, और उद्यमिता और नौकरियां वास्तविक करियर विकल्प बन गईं।

एक निर्माणाधीन जगह_वास्तुकला
एक होमस्टे के नज़दीक निर्माणाधीन इमारत | चित्र साभार: तन्वी दत्ता

जहां एक तरफ़ निर्माण की ज़रूरत बढ़ रही थी वहीं दूसरी तरफ़ सामुदायिक श्रम की उपलब्धता में कमी आ रही थी और मांग की आपूर्ति को पूरा कर पाना असंभव हो रहा था। स्पीति को कारीगरों की ज़रूरत थी और उसकी यह ज़रूरत निचले हिमाचली ज़िलों जैसे कि मंडी, कांगड़ा, और शिमला के अलावा राजस्थान, बिहार, ओडिशा, झारखंड और महाराष्ट्र से आने वाले प्रवासी मज़दूरों से पूरी होने लगी। इमारत बनाने वालों के लिए यह फ़ायदे का सौदा था क्योंकि अप्रैल-मई माह के अनुकूल मौसम में काम करने वाले स्थानीय श्रमिकों के उलट ये प्रवासी मज़दूर पूरे साल काम करने के लिए तैयार थे। हमारे पूर्वजों ने बारिश के डर से जून-जुलाई में घरों का निर्माण ना करने की सलाह दी थी, लेकिन अब मानसून के दिनों में भी तिरपाल के नीचे निर्माण का काम जारी रहता है।

एक निर्माणाधीन इमारत_वास्तुकला
काजा में निर्माण कार्य | चित्र साभार: नोनी

मेरे जैसे मिस्त्रियों की अब भी ज़रूरत है क्योंकि हम श्रमिकों को स्वदेशी तकनीकों जैसे घरों के निर्माण में पत्थरों के इस्तेमाल आदि के बारे में बताते हैं। लेकिन धीरे-धीरे हमारा यह सामुदायिक ज्ञान हमसे छूटता जा रहा है। स्पीति संस्कृति के एक घर का निर्माण समुदायों के लिए एक सहज प्रक्रिया थी क्योंकि वे पहले से ही मूल बातें जानते थे। इसमें कार्यान्वयन के लिए अनावश्यक रूप से जटिल तरीके और उपकरण शामिल नहीं थे। हमें सिखाने के लिए हमारे पास ग्यांगों-दा (एक मिट्टी-मिस्त्री), पिटी डोर-सी (राजमिस्त्री), और पिटी शिंगजो-वा (लकड़ी का कारीगर/बढ़ई) थे, लेकिन अधिकांश युवाओं को अपने आप ही छत, फ़र्श और मवेशियों के लिए बाड़ा बनाने का काम सीखना पड़ा। गैर-पारंपरिक, औद्योगिक कच्चे माल को अपनाने का यह बदलाव, अब तेजी से स्थानीय लोगों को उनकी अपनी भूमि, संसाधनों और स्वदेशी ज्ञान से दूर कर रहा है जिसे वे पिछली कई पीढ़ियों से बचाते आ रहे थे।

यह आलेख मूल रूप से हिमकथा में प्रकाशित हुआ था।

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एक रिसर्चर को कैसे पहचानें?

हल्का-फुल्का का यह अंक मज़दूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक शंकर सिंह द्वारा आईडीआर को सुनाए गए एक किस्से पर आधारित है।

जब रिसर्च करने वाले ज़मीन पर पहुंचते हैं –

एक रिसर्चर और एक भेड़ चराने वाले व्यक्ति के बीच हो रही बातचीत वाला एक रेखाचित्र_रिसर्चर
एक रिसर्चर और एक भेड़ चराने वाले व्यक्ति के बीच हो रही बातचीत वाला एक रेखाचित्र_रिसर्चर
एक रिसर्चर और एक भेड़ चराने वाले व्यक्ति के बीच हो रही बातचीत वाला एक रेखाचित्र_रिसर्चर

चित्र साभार: ईश्वर सिंह

सरल-कोश: इंटरनल कम्युनिकेशन

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

आज का शब्द है – इंटरनल कम्युनिकेशन।

इंटरनल कम्युनिकेशन या आंतरिक संचार, किसी एक संस्था में काम करने वाले लोगों के बीच होने वाली आपसी बातचीत को कहते हैं।

विकास सेक्टर में अक्सर ही संस्थाओं को इंटरनल कम्युनिकेशन से जुड़ी चुनौतियों का सामना करते देखा जा सकता है। किसी भी संस्था का कमजोर इंटरनल कम्युनिकेशन उसके काम पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

एक बेहतर इंटरनल कम्युनिकेशन प्रणाली को विकसित करके संस्थाएं अपनी टीम के रोज़मर्रा के कामों को लेकर उनसे सीधा संवाद कर सकती हैं। यह संस्था के लक्ष्यों, रणनीतियों, चुनौतियों और परिणामों को साझा करने और टीम को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने के लिए भी एक बेहतरीन टूल है। इससे न केवल टीम के सदस्यों के बीच पारदर्शिता बढ़ती है बल्कि इसकी मदद से लोग अपने प्रदर्शन के स्तर में भी सुधार ला सकते हैं।

इंटरनल कम्युनिकेशन के उदाहरणों में व्हाट्सएप, स्लैक, टेलीग्राम जैसे कुछ ऐसे माध्यम हैं, जिनका इस्तेमाल संस्थायें अपने रोजमर्रा के कामों को प्रभावी और आसान बनाने के लिए करती हैं। इसके साथ ही संस्था से जुड़े महत्वपूर्ण फैसलों के लिए आमतौर पर ई-मेल के आदान-प्रदान को वरीयता दी जाती है।

टीम के सदस्य चाहे ऑफिस से काम करें या रिमोटली, दोनों ही लिहाज़ से इंटरनल कम्यूनिकेशन का अपना एक खास महत्व होता है। इसलिए मजबूत कम्युनिकेशन किसी भी संस्था की कार्य-संस्कृति को बेहतर बनाने के अलावा जल्दी और सही निर्णय लेने की क्षमता और उत्पादकता को भी बढ़ाने में मददगार साबित होता है।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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व्यापक यौनिकता शिक्षा – मनोरंजन और मीडिया एक पूरक है, विकल्प नहीं

व्यापक यौनिकता शिक्षा किशोरावस्था के विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो दृष्टिकोण, व्यवहार, और समग्र विकास को प्रभावित करती है। समाज में बदलाव के साथ युवाओं के लिए यौनिकता शिक्षा का परिदृश्य भी बदल रहा है। परम्परागत रूप से यौनिकता के बारे में ज्ञान प्रदान करने की प्राथमिक विधि के रूप में औपचारिक स्कूली शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, डिजिटल युग के आगमन के साथ मनोरंजन और मीडिया युवाओं की धारणाओं और दृष्टिकोण को आकार देने में एक शक्तिशाली और प्रभावशाली साधन के रूप में उभरा है।

बदलाव को नकारा नहीं जा सकता है – युवा यौनिकता के बारे में अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए तेज़ी से ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, टीवी शो, फ़िल्मों, और सोशल मीडिया की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं। इस प्रतिमान बदलाव को पहचानते हुए व्यापक यौनिकता शिक्षा और संवेदनशीलता प्रदान करने के साधन के रूप में मनोरंजन और मीडिया का उपयोग करने की क्षमता का पता लगाना अनिवार्य हो जाता है।

मनोरंजन और मीडिया का आकर्षण जानकारी को ऐसे तरीक़े से प्रस्तुत करने की क्षमता में निहित है जो न केवल सुलभ हो बल्कि युवा दर्शकों के लिए प्रासंगिक भी हो। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत, जो सामाजिक वर्जनाओं या संस्थागत सीमाओं से बाधित हो सकती है, मनोरंजन और मीडिया में यौनिकता को उसकी सभी जटिलताओं में संबोधित करने,और रिश्तों और अनुभवों की गहरी समझ को बढ़ावा देने की स्वतंत्रता है। मनोरंजन और मीडिया ऐसा साधन बन जाता है जहां कथाएं सामने आ सकती हैं, बातचीत शुरू हो सकती है, और जानकारी को इस तरह से प्रसारित किया जा सकता है ताकि उन दर्शकों का ध्यान आकर्षित हो सके जो सक्रिय रूप से ऐसी सामग्री की तलाश करते हैं जो उनके जीवन के अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हो।

यह बदलाव चुनौतियों से रहित नहीं है। ज्ञान की तलाश में किशोरों को अनजाने में अविश्वसनीय स्रोतों से ग़लत सूचना का सामना करना पड़ सकता है, ख़ासकर इंटरनेट के विशाल विस्तार में। इससे उनकी मान्यताओं, उनके व्यवहारों और समग्र कल्याण पर ऐसी ग़लत सूचना के संभावित प्रभाव के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं। नतीजतन, यौनिकता शिक्षा में शोधकर्ताओं को इन स्रोतों से उत्पन्न होने वाली ग़लत सूचना के नुकसान से निपटने के साथ-साथ मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का दोहन करने की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ता है।

इस लेख में हम व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने की जटिल गतिशीलता, इसके द्वारा प्रस्तुत अवसरों और समवर्ती चुनौतियों की जांच करेंगे, जो युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा की समग्र और सटीक समझ सुनिश्चित करने के लिए रणनीतिक हस्तक्षेप की मांग करते हैं।

मनोरंजन और मीडियाएक दोहरी धार वाली तलवार

युवा सक्रिय रूप से मनोरंजन-मीडिया की तलाश करते हैं क्योंकि यह आकर्षक तरीके से जानकारी प्रदान करता है। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत मनोरंजन और मीडिया में वर्जित विषयों को संबोधित करने, कहानी के माध्यम से ध्यान खींचने, और जानकारी को इस तरह से प्रस्तुत करने की क्षमता है जो उसके दर्शकों के साथ जुड़ती है। स्कूलों में औपचारिक यौनिकता शिक्षा से जुड़ी सीमाओं और चुनौतियों को देखते हुए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।

युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया पर बढ़ती निर्भरता कई चुनौतियाँ सामने लाती है। एक प्राथमिक चिंता ग़लत सूचना एवं रिश्तों और यौनिकता के अवास्तविक चित्रण की संभावना है। इंटरनेट, विशेष रूप से, सामग्री के एक विशाल भंडार के रूप में कार्य करता है जो गुणवत्ता, सटीकता और उपयुक्तता में व्यापक रूप से भिन्न होता है। युवा खोज करने और सीखने की उत्सुकता में भ्रामक जानकारी पर ठोकर खा सकते हैं, और सहमति, सुरक्षित यौन प्रथाओं, और रिश्तों की जटिलताओं जैसे विषयों के बारे में मिथकों को क़ायम रख सकते हैं।

हमारे अनुभव में भारत-नेपाल सीमा के पास बसे बहराइच जनपद के एक ग्रामीण समुदाय मिहींपुरवा की किशोरी सोनी (काल्पनिक नाम) के साथ सत्र के दौरान हमको यह पता चला कि कैसे किशोरियां यौनिकता के बारे में जानकारी के लिए इंटरनेट स्रोतों पर भरोसा करती हैं। हालांकि आगे के सत्रों में यह देखा गया कि कुछ ऑनलाइन सामग्री में ग़लत सूचना और अवास्तविक चित्रण ने सहमति, सुरक्षित यौन सम्बन्ध, और रिश्तों में संचार के महत्व के बारे में ग़लत धारणाओं को बढ़ावा दे दिया है। यह मनोरंजन और मीडिया में प्रस्तुत जानकारी का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

स्कूल की कक्षा में बैठे कुछ बच्चे_यौन शिक्षा
समाज में बदलाव के साथ युवाओं के लिए यौनिकता शिक्षा का परिदृश्य भी बदल रहा है। | चित्र साभार: अनस्प्लैश

इसके अलावा, इन ऑनलाइन मंचो के इस्तेमाल करने में मार्गदर्शन की कमी हानिकारक रूढ़िवादिता और अवास्तविक अपेक्षाओं को सुदृढ़ करने में योगदान कर रही है। युवा अनजाने में ग़लत मंचो से अपनी समझ विकसित करते हैं, जिससे उनके आत्म-सम्मान, शरीर की छवि, और एक स्वस्थ रिश्ते का गठन करने वाली धारणाओं पर असर पड़ सकता है। अनुचित सामग्री के संपर्क में आने का जोखिम चुनौतियों को और बढ़ा देता है, जिससे संभावित रूप से यौनिकता की ग़लत समझ विकसित हो सकती है।

व्यापक यौनिकता शिक्षा को ट्रैक पर रखने के लिए क्या किया जा सकता है?

इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें शोधकर्ताओं, मनोरंजन निर्माता, सहकर्मी शिक्षकों, और समुदायों का सहयोग शामिल हो। एक महत्वपूर्ण क़दम सहकर्मी शिक्षकों और मनोरंजन निर्माताओं के बीच साझेदारी की स्थापना भी है। एक साथ काम करके, ये हितधारक के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर सकते हैं जो न केवल आकर्षक हो बल्कि सटीक, ज़िम्मेदार, और किशोरों के अनुभवों की विविध वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने वाली हो। किशोरों की यौनिकता की समझ पर मनोरंजन मीडिया के प्रभाव को समझते हुए समुदायों के साथ काम कर रहे सहकर्मी शिक्षक मनोरंजन निर्माताओं को एक गहन और सही दृष्टिकोण भी प्रदान कर सकते हैं।

युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

हमें मीडिया साक्षरता कार्यक्रम भी लागू करना चाहिए जो समाधान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलु है। किशोरों में भ्रामक स्रोतों और विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने के लिए कौशल विकसित करने की आवश्यकता है। ये कार्यक्रम युवाओं को उनके सामने आने वाली सामग्री पर सवाल उठाने, उसकी विश्वसनीयता का मूल्यांकन करने, और यौनिकता की उनकी समझ में शामिल जानकारी के बारे में सूचित निर्णय लेने के लिए सशक्त बना सकते हैं।

संभावित रूप से भ्रामक जानकारी के संपर्क में आने से युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये शिक्षक खुली चर्चा के लिए सुरक्षित स्थान बना सकते हैं, मिथकों को दूर कर सकते हैं, और सटीक जानकारी प्रदान कर सकते हैं।

उन समुदायों में, जहां औपचारिक यौनिकता शिक्षा तक पहुंच सीमित हो, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यौनिकता शिक्षा की शैक्षिक सामग्रियों में स्थानीय रीति-रिवाज़ों और मूल्यों का एकीकरण शामिल हो सकता है। इसके अलावा, युवाओं की सोच और कौशल को सशक्त बनाने के लिए मंच, कार्यशालाएं, और सत्र आयोजित किए जा सकते हैं, जिससे वे भ्रामक स्रोतों से विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने में सक्षम हो सकें।

व्यापक यौनिकता के बारे में जानकारी देने लिए समुदायों के विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों का इस्तेमाल कर के शैक्षिक पाठ्यक्रम को तैयार करना चाहिए, जो मनोरंजक होने के साथ यह भी सुनिश्चित करता हो की वह स्थानीय आबादी के साथ मेल खाती है, और अधिक समावेशी और प्रभावी शिक्षण अनुभव को बढ़ावा देती है।

अंततः स्कूली शिक्षा के भीतर व्यापक यौनिकता शिक्षा को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है। जबकि मनोरंजन और मीडिया एक मूल्यवान पूरक हो सकता है, औपचारिक शिक्षा शारीरिक रचना, सहमति, संचार, और रिश्तों सहित यौनिकता के विभिन्न पहलुओं को व्यवस्थित रूप से संबोधित करने के लिए एक संरचित मंच प्रदान करती है। व्यापक यौनिकता शिक्षा को पाठ्यक्रम में एकीकृत करके, स्कूल सटीक जानकारी को सुदृढ़ कर, प्रदान कर सकते हैं।

मनोरंजन और मीडिया एक पूरक है, विकल्प नहीं

निष्कर्ष में हम यह देखते हैं कि व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया का उपयोग युवाओं तक प्रभावी ढंग से पहुंचने का एक आशाजनक अवसर प्रदान करता है। हालांकि यह चुनौतियों के साथ आता है और उन्हें सटीक सूचना प्रसार सुनिश्चित करने के लिए संबोधित किया जाना चाहिए। व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने में चुनौतियाँ मौजूद हैं पर रणनीतिक सहयोग, मीडिया साक्षरता पहल, और समुदाय-केंद्रित शिक्षा प्रयास इन चुनौतियों को सकारात्मक प्रभाव के अवसरों में बदल सकते हैं।

यह दृष्टिकोण जागरूक और सशक्त पीढ़ी के निर्माण में योगदान दे सकता है जो अपने रिश्तों और यौन जीवन में जिम्मेदार विकल्प चुनने में सक्षम होंगे। विचारशील हस्तक्षेपों के साथ डिजिटल युग की जटिलताओं को दूर करके, हम युवाओ को सटीक जानकारी के साथ सशक्त बनाने के लिए मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का उपयोग कर सकते हैं, और यौनिकता के बारे में समावेशी और ज़िम्मेदार ज्ञान पंहुचा सकते हैं।

यह आलेख मूलरूप से इनप्लेनस्पीक पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं। 

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मनरेगा शुरू कराने के लिए महिलाओं का लोकगीतों वाला धरना-प्रदर्शन

मेरा नाम बालू लाल है, राजस्थान के राजसमंद जिले के भीम का में निवासी हूँ। मैं यहीं पर ही मजदूरी एवं किसानी दोनों करता हूं। करीबन 30 वर्षों से मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़ा हूं तथा राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन (आरएएमयू) के सचिव के रूप में कार्यरत हूँ। हाल ही में हमारे भीम ब्लॉक को ग्रामीण क्षेत्र से नगरपालिका क्षेत्र तबदील किया गया। इसके बाद से यहाँ मनरेगा का काम बंद हो गया जिसके चलते स्थानीय लोग खासे परेशान थे।

प्रशासनिक भवनों के कई चक्कर लगा देने के बावजूद मनरेगा का काम न शुरू होने की दशा में यहाँ की मजदूर यूनियन की महिला श्रमिकों ने धरना-प्रदर्शन करके काम फिर से शुरू करवाने की ठानी। इनका धरना-प्रदर्शन करने का अंदाज इतना अलग था कि न केवल राह चलते लोग बल्कि सरकारी अधिकारी भी इनके मुद्दों को सुनने बैठ जाते।

दरअसल कुछ समय पूर्व ही राजसमंद के भीम ब्लॉक को ग्रामीण से शहरी क्षेत्र में तब्दील किया गया था। जिसके चलते यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाली मनरेगा योजना बंद हो गई और लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलना बंद हो गया। इस योजना के बंद होने से उन महिला मजदूरों के जीवन में खासी परेशानी हुई है, जो स्थानीय स्तर पर प्राप्त हो रहे रोजगार से अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ-साथ अपना घर भी चला रही थी। इनमें से कुछ महिलाएं जो राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन से जुड़ी थी। उन्हें पता चला कि राजस्थान की पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लाए कानून के अनुसार शहरी इलाकों में भी मनरेगा के अंतर्गत रोजगार उपलब्ध करवाने का प्रावधान है। अतः इस मामले में उन्होंने कई बार प्रशासन को शहरी रोजगार गारंटी कानून के अंतर्गत रोजगार देने की गुहार की, पर बात बनी नहीं।

अंततः इन महिलाओं ने धरना- प्रदर्शन के जरिए प्रशासन पर दबाव बनाने की ठानी। महिलाएं धरना स्थल पर लोकगीतों को माध्यम बनाकर प्रशासनिक लोगों को व्यंग्य सुनाती। जिन्हें सुनने के लिए राह चलते लोग भी तहसील प्रशासनिक भवन के आगे इकट्ठे हो जाते। कई बार लोगों का जमावड़ा अनायास ही प्रशासन पर दबाव महसूस करा जाता।

अक्सर महिलाएं धरना-स्थल पर शंकर सिंह को अपने कठपुतली (पपेट) नाटक के लिए भी आमंत्रित करती, कई बार तो माहौल ऐसा होता है कि प्रशासन के लोग खुद विडियो बनाते और आनंद से सुनते।

खास बात यह थी कि ऐसे माध्यमों के प्रयोग से एक माह तक लंबे चले इस धरने में हमें न तो कभी समय का पता चला न ही किसी के जोश में कमी आई। इसी अनोखे तरीके से हमने अपने मुद्दों को भावनात्मक रूप से स्थानीय लोगों के भीतर इतना तो जोड़ ही लिया कि स्थानीय लोग भी इस धरने की बात इलाके में करने लगें।

आखिरकार हमारी मेहनत भी रंग लाई 23 जनवरी 2024 को शुरू हुए इस धरने ने 27 फरवरी 2024 यानी करीबन 1 माह में ही प्रशासन से अपनी बात मनवा ली। इसमें हमारे इलाके सहित राजस्थान के 42 नव सृजित शहरी क्षेत्रों में मनरेगा का काम शुरू हुआ है।

अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और ओडिशा की जुआंग महिलाएं के बारे में जानें जो अपने जंगलों की रक्षा में तैनात हैं।

क्या सरकारी योजनाओं की परीक्षण-प्रक्रिया पर दोबारा विचार की ज़रूरत है?

आमतौर पर बड़े-पैमाने वाले सरकारी कार्यक्रम पायलेट्स की तरह शुरू किए जाते हैं। पायलट प्रोजेक्ट एक छोटे-पैमाने का प्रयोग होता है जिसके माध्यम से कार्यान्वयन प्रक्रिया की व्यवहारिकता का आकलन किया जाता है। आमतौर पर, सरकारी योजनाओं के मामले में किसी भी तरह के पायलट को छोटी जगहों, कुछ गांवों, या जिले की ग्राम पंचायतों में शुरू किया जाता है। इसके माध्यम से इस बात का पता लगाया जाता है कि क्या कारगर है और क्या नहीं। साथ ही, यह समझा जाता है कि कार्यक्रम या योजना को बड़े पैमाने पर ले जाने से पहले इसमें किस तरह के बदलाव की जरूरत है।

सरकारी योजनाओं के लिए यह एक सामान्य नियम है। इसके लिए प्रधान मंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम कुसुम) का उदाहरण देख सकते हैं। यह योजना 2019 में किसानों की आय बढ़ाने के साथ-साथ सौर सिंचाई की मदद से कृषि क्षेत्र को विकार्बनन करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। पीएम कुसुम योजना का पहला चरण जुलाई और दिसंबर 2019 के बीच था। इस चरण में विभिन्न प्रयोगों द्वारा सब्सिडी दरें और फीड-इन-टैरिफ़्स (एफ़आईटी) जैसे विभिन्न घटकों की जांच का प्रयास किया गया। फीड-इन-टैरिफ़्स, वह मूल्य होता है जिस पर बिजली वितरण कंपनियां ज़मीन पर काम करने वाले किसानों से नवीकरणीय ऊर्जा वापस ख़रीदती हैं।

इसके बाद से इस योजना ने गति पकड़ ली है। जून 2023 तक, छोटे सौर ऊर्जा संयंत्रों की कुल 113.08 मेगावाट क्षमता – प्रत्येक 2 मेगावाट तक की क्षमता – और 2.45 लाख पंप लगाये जाने या सौर ऊर्जा से संचालित होने की सूचना मिली है। कॉप-26 में, भारत सरकार ने साल 2070 तक नेट-जीरो एमिशन हासिल करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत ने अपनी संचयी विद्युत ऊर्जा का 50 फ़ीसद गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से प्राप्त करने का फ़ैसला लिया है, जिसमें सौर ऊर्जा भी शामिल है। जहां कुल कार्बन उत्सर्जन में खेती दूसरे स्थान पर है वहीं किसानों पर बिना अतिरिक्त बोझ दिए इस काम को करने की पूरी संभावना है। पीएम कुसुम योजना इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है।

पायलट से बड़े पैमाने पर हुई इसकी शुरुआत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस योजना से जुड़ी किसी भी तरह की गड़बड़ी में इसके प्रयोग वाले चरण में ही राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किए जाने से पहले ही सुधार लाया जा चुका था। लेकिन इतना भी सीधा और सरल नहीं था।

पायलट चरण हमेशा ही पर्याप्त नहीं होते हैं

पायलट प्रोजेक्ट बहुत अधिक उपयोगी होते हैं लेकिन इनमें जोखिम भी होता है – जब अलग-अलग मामलों में बड़े पैमाने पर इसकी सफलता दिखती है, वहीं कभी-कभी इसके अनचाहे परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं। यह विशेष रूप से कृषि और जल क्षेत्र से जुड़े कार्यक्रमों के बारे में सच साबित होता है। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले खेतों में बनाए जाने वाले तालाब बहुत लोकप्रिय हुए थे। यह छोटा कृषि-स्तरीय कार्यक्रम था जो शुष्क क्षेत्रों में किसानों को रबी (सर्दी) और ख़रीफ़ (गर्मी) मौसम के दौरान पानी तक पहुंच प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था ताकि वे दूसरी और तीसरी फसल उगा सकें। छोटे पैमाने पर, कुछ खेतों में बने तालाब आमतौर पर प्रभावी होते हैं और शायद ही कभी इनका कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालांकि, बड़े खेतों में या अधिक संख्या में बनाए गए तालाब पानी की असमानता और पानी के निजीकरण जैसे अप्रत्याशित मुद्दों को जन्म दे सकते हैं।

पीएम कुसुम से जुड़ी पायलट परियोजना के दौरान नीचे बताई गई तीन समस्याओं का सामना करना पड़ा था:

इसलिए, इन शुरुआती पायलटों के अनुभव से मिला डेटा भारत जैसे विविध संदर्भों वाले देश में बड़ी परियोजनाओं के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हमारे शोध से यह निकला है कि मॉडलिंग अभ्यास अपेक्षाकृत अधिक व्यापक रूप से प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं।

खेत में लगे सोलर पैनल_पायलेट प्रोजेक्ट
पीएम कुसुम जैसी योजनाएं ‘गोल्ड-प्लेटेड’ हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें अत्यधिक आकर्षक शर्तों पर पेश किया जाता है। | चित्र साभार: मेट्रो मीडिया / सीसी बीवाई

एजेंटआधारित मॉडलिंग क्या है?

मॉडलिंग, सिमुलेशन (अनुरूपता) के रूप में, संभावित परिणामों का संभावित अवलोकन प्रदान कर सकता है। मॉडल वास्तविकता का एक सरल किया गया रूप होता है, जिसे अक्सर उस वास्तविकता के कुछ पहलुओं को समझाने, समझने या भविष्यवाणी करने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किया जाता है। किसी मॉडल की प्रभावशीलता आमतौर पर इस बात पर निर्भर करती है कि यह वास्तविक दुनिया की प्रणाली या परिदृश्य का कितनी अच्छी तरह दिखाता है।

पायलट, जहां वास्तविक कार्यक्रम हैं और कार्यान्वयन के लिए संसाधनों में समय और उच्च निवेश की आवश्यकता होती है। लेकिन मॉडल अक्सर, कार्यक्रम के संभावित प्रभावों को समझने का एक तेज़ गति वाला और कम खर्चीला तरीका है। इन्हें केवल कंप्यूटर पर उन उपकरणों का उपयोग करके बनाया जा सकता है जिनके लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, लेकिन इनमें पायलट प्रोजेक्ट जितने बहुत अधिक निवेश की ज़रूरत नहीं होती है।

सौर सिंचाई के संदर्भ में, एजेंट-आधारित मॉडलिंग (एबीएम) हमें किसानों द्वारा किए जाने वाले उन चुनावों को समझने में मदद कर सकती है जो उनके सामने वाले आय बढ़ाने वाले विकल्प प्रस्तुत किए जाते हैं जो सौर पंप के इस्तेमाल से होती है। एबीएम का उपयोग समग्र रूप से सिस्टम पर उनके प्रभावों का आकलन करने के लिए स्वायत्त एजेंटों (व्यक्तियों या सामूहिक संस्थाओं जैसे संगठनों या समूहों) के कार्यों और संवाद को अनुकरण करने के लिए किया जाता है।

ऐसे परिदृश्य में दो संभावित परिणाम हैं: (1) बिजली और सिंचाई तक पहुंच के बिना किसान अंत में अधिक खेती के लिए आवश्यक पानी पंप कर सकते हैं, या (2) सिंचाई और बिजली दोनों सुविधाओं तक पहुंच वाले किसान फीड-इन-टैरिफ़ के माध्यम से ग्रिड को अपने द्वारा निर्मित ऊर्जा को बेच सकते हैं। और फिर भी, कारकों का एक संयोजन है – स्थानीय जैव-भौतिकीय, सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक – जो किसानों द्वारा किए जाने वाले संभावित निर्णयों को निर्धारित करते हैं।

हमने पीएम कुसुम योजना पर किसानों द्वारा मिलने वाली संभावित प्रतिक्रियाओं का पता लगाने के लिए एक एबीएम अभ्यास का आयोजन किया। इस मामले में ‘किसान’ एजेंट की भूमिका निभा रहे थे। मॉडलिंग ढांचा इस सोच पर आधारित है कि अधिकतम लाभ और जोखिम को कम करने की आवश्यकता से प्रेरित होकर, किसान व्यक्तिगत स्तर पर इस बात का फ़ैसला लेते हैं कि कौन सी फसल उगानी है। वे जिन फसलों की खेती का चुनाव करते हैं वे इन चीजों पर निर्भर होती है:

हमने किसानों की पानी, जमीन और बिजली तक पहुंच के आधार पर छह मामलों का चुनाव किया। इस लेख में उनमें से एक लेख को आधार बनाकर हम अपने अनुभव और सीख को साझा कर रहे हैं।

केस स्टडी: बठिंडा, पंजाब

पंजाब के बठिंडा ज़िले में ज़्यादातर किसान तीन में से एक फसल प्रणाली चुनते हैं: धान-गेहूं (ख़रीफ़ के मौसम में धान, उसके बाद रबी फसल के रूप में गेहूं), कपास-आलू, और किन्नू (एक खट्टे फल का पेड़)।

इन समूहों में, धान-गेहूं की फसल प्रणाली में सबसे अधिक पानी की आवश्यकता होती है, इसके बाद कपास-आलू और फिर किन्नू की फसल होती है। इस जिले में, भूमि की उपलब्धता प्रमुख बाधा है, क्योंकि लगभग 99 प्रतिशत फसल भूमि पहले से ही सिंचाई के अधीन है। अधिकांश किसान सिंचाई-गहन धान-गेहूं फसल पैटर्न का पालन करते हैं और न तो सिंचाई के तहत अधिक भूमि ला सकते हैं और न ही पंप से निकलने वाले पानी की मात्रा बढ़ा सकते हैं।

बठिंडा में किसानों को ऊर्जा की सीमित मात्रा के उपयोग जैसी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता है क्योंकि पंजाब सरकार किसानों को मुफ्त या भारी सब्सिडी दरों पर बिजली प्रदान करती है। उनके उथले ट्यूबवेल, ग्रिड से जुड़ी बिजली से संचालित होते हैं, और, ख़रीफ़ और रबी फसलों के दौरान, उन्हें हर दिन औसतन चार से आठ घंटे बिजली मिलती है। यह सौर पैनल द्वारा प्रदान की जाने वाली औसत चार से पांच घंटे की बिजली के बराबर है।

जहां तक पानी तक पहुंच की बात है, पंजाब में भूजल विशाल जलोढ़ों में जमा है; इसलिए भूजल के स्तर में आई थोड़ी सी गिरावट का असर यहां के किसानों ने अब तक महसूस नहीं किया है। यहां तक कम बारिश वाले सालों में भी पानी की कमी नहीं होती है। अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि पंजाब में धान की खेती करने वाले क्षेत्रों में बारिश में आई कमी का जरा भी असर देखने को नहीं मिला है।

सिंचाई की अधिकतम क्षमता को देखते हुए; अब सवाल यह उठता है कि क्या इसमें इतनी कमी आ सकती है कि अतिदोहन की वर्तमान दर में कमी आ सके। किसान किन फसलों का चयन करेंगे? उनका मुनाफ़ा कैसे बदलेगा? भूजल की स्थिति कैसे बदलेगी?

एजेंट-आधारित मॉडलिंग का सुझाव है कि एक ‘स्थायी परिवर्तन’ सैद्धांतिक रूप से संभव है

हम स्थायी परिवर्तन को एक ऐसी घटना के रूप में परिभाषित करते हैं जहां एक किसान अपनी आय में वृद्धि करते हुए पानी का उपयोग कम करता है और जोखिम के स्तर को कम करता है या उतने पर ही बनाए रखता है।

धान-गेहूं की खेती करने वाले एक किसान के पास तीन विकल्प होते हैं।

सैद्धांतिक रूप से एक किसान के लिए धान-गेहूं या कपास-आलू की खेती से किन्नू की खेती का फ़ैसला लेना संभव है। हमारी गणना से पता चलता है कि ये परिवर्तन आर्थिक रूप से व्यावहारिक और पानी की कम खपत वाले हैं। किसान अपने पानी के उपयोग में बड़े स्तर पर कटौती करते हुए सौर ऊर्जा और फसलों की बिक्री के माध्यम से अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकेंगे क्योंकि धान-गेहूं और कपास-आलू की तुलना में किन्नू को कम सिंचाई की आवश्यकता होती है।

हालांकि, सौर सिंचाई के परिणामस्वरूप उनकी कमाई में थोड़ी बहुत वृद्धि के बावजूद इस बात की बहुत कम संभावना है कि धान-गेहूं और कपास-आलू, दोनों ही की खेती करने वाले किसान इस मध्यम-अवधि में खेती के अपने पैटर्न में किसी तरह का बदलाव लाएंगे।

पंजाब के बठिंडा में चावल-गेहूं किसान के लिए उपलब्ध विकल्पों और चुने जाने की सबसे अधिक संभावना को दर्शाने वाला चार्ट_पायलेट प्रोजेक्ट
पंजाब के बठिंडा में धान-गेहूं किसान के लिए विकल्प उपलब्ध हैं, और इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि यहां के किसान इस विकल्प का चुनाव करेंगे। | स्रोत: वेल लैब्स

ऐसे दो जोखिम हैं जिसके कारण किसान किसी भी तरह के स्थायी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हो सकते हैं:

इसलिए, सौर सिंचाई की शुरूआत से बठिंडा में स्थायी परिवर्तन नहीं हो सकता है, क्योंकि एजेंट/किसान धान-गेहूं की खेती की अपनी परंपरा को जारी रखेंगे। सौर सिंचाई से लाभ में केवल मामूली वृद्धि हो सकती है, क्योंकि किसान को सौर पंप के लिए प्रारंभिक पूंजीगत खर्च उठाना होगा। इस विकल्प के परिणामस्वरूप भूजल संसाधनों का निरंतर अत्यधिक दोहन होने की संभावना है – चूंकि फसलें वही रहती हैं, इसलिए सिंचाई के लिए पानी की अधिक आवश्यकता होती है।

एक अलग फसल की खेती से जुड़े स्पष्ट लाभों के बावजूद ये विकल्प ‘लॉक्ड-इन‘ हैं। हमारे संवेदनशीलता विश्लेषण से पता चला है कि कम एफआईटी और कम सब्सिडी पर, सौर सिंचाई के साथ धान-गेहूं की खेती करने वाले किसान के लिए इसी खेती जारी रखना लाभदायक नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो, यदि किसान किसी भी तरह का जोखिम उठाने से बचना चाहते हैं तो ऐसे में सौर सिंचाई के विकल्प को अपनाने की संभावना कम है। किसी भी किसान के लिए सौर सिंचाई का उपयोग करते हुए धान-गेहूं उगाना तभी लाभदायक होगा जब एफ़आईटी की दर 5 रुपये प्रति किलोवॉट-घंटा हो और जिसपर 70 फ़ीसद की सब्सिडी मिले। हालांकि, इस बात का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अधिकांश एफआईटी और सब्सिडी के बावजूद कपास-आलू और किन्नू की खेती के विकल्प को अपनाना किसी भी किसान के लिए लाभदायक है। लेकिन मूल्य-संबंधी और सांस्कृतिक जोखिमों से जुड़ी किसानों की धारणाओं के पहले के विवरणों से पता चलता है कि यह एक बेहद असंभव परिणाम है।

सिमुलेशन हमेशा कारगर नहीं होता है

इस बात को भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि ऐसी आकस्मिक घटनाएं या परिदृश्य होंगे जिनकी भविष्यवाणी करने में मॉडलिंग विफल हो जाएगी क्योंकि मानव व्यवहार का पूरी तरह से अनुमान लगाना संभव नहीं है। ऐसी घटनाएं भी हो सकती हैं जो काम करने के तरीक़े को पूरी तरह से बदल सकते हैं, और जिससे हमारे द्वारा यहां बताए गए परिणाम शून्य हो जाएंगे। उदाहरण के लिए, एक ग्रामीण उद्यमी किन्नू से बनने वाले जैम की फैक्ट्री स्थापित कर सकता है और इससे उस क्षेत्र में किन्नू स्थायी मांग बनी रह सकती है, जो किसानों को आर्थिक झटके से बचाता है और बठिंडा जैसे परिदृश्य के लिए पर्यावरण की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है।

इसके अलावा कुछ और भी सीमाएं हैं। उनमें से एक है कि यह अध्ययन इसकी बात नहीं करता है कि कार्यक्रम के क्रियान्वयन के दौरान किसान अपने-अपने ज्ञान को आपस में कैसे साझा करेंगे। साथ में सीखने की यह प्रक्रिया एक महावपूर्ण कारक है जो उनके व्यवहार को प्रभावित करता है। यह अध्ययन फसल परिवर्तन पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित नहीं करता है, न कि सिंचाई तकनीकों पर, भले ही विभिन्न सिंचाई तकनीकों के परिणामस्वरूप एक फसल को छोड़कर दूसरी फसल की उपज शुरू करने पर अलग-अलग स्तर पर पानी की बचत होगी। इसके अलावा, यह केवल फसल की खेती से होने वाली आय पर विचार करता है, न कि पशुधन पालन जैसे गैर-कृषि स्रोतों पर।

हालांकि, मॉडलिंग का काम अभी भी महत्व रखता है। कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने से पहले सिमुलेशन विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं ताकि हम योजना प्रक्रिया के दौरान ही अनजाने परिणामों का हिसाब रख सकें। भारत की संघीय प्रकृति यह तय करती है कि केंद्र सरकार कार्यक्रम डिज़ाइन करे और राज्य सरकारें उन्हें लागू करें। हालांकि भारत की भौगोलिक, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए राज्य सरकारों को कार्यक्रम डिजाइन की जानकारी देने के तरीके खोजना अधिक लाभदायक है। इस तरह के सिमुलेशन शक्तिशाली उपकरण हो सकते हैं जो राज्य सरकारों को नीति डिजाइन से जुड़ी जानकारी देने और बाद में अधिक प्रभावी कार्यक्रम कार्यान्वयन की अनुमति देते हैं।

सरकारी धन का ग़ैर-पक्षपाती आवंटन सुनिश्चित करने के लिए, सिमुलेशन पर भरोसा करना आवश्यक है। ये उपकरण हमें विभिन्न परिदृश्यों को सावधानी के साथ मॉडल करने में सक्षम बनाने के साथ ही सार्वजनिक खर्च की जानकारी लेने जैसी महत्वपूर्ण समझ प्रदान करते हैं। सिमुलेशन का उपयोग करके, हम परिणामों का अधिक सटीक पूर्वानुमान लगा सकते हैं, संभावित नुकसान की पहचान कर सकते हैं और खर्च किए जाने वाले एक-एक रुपये की प्रभाव को अधिकतम स्तर तक ले जा सकते हैं। एक जिम्मेदार राजकोषीय प्रबंधन और वांछित नीति परिणामों की उपलब्धि के लिए इस दृष्टिकोण को अपनाया जाना महत्वपूर्ण है।

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