फोटो निबंध: नानकमत्ता के मौसमी मछुआरे

प्रदीप साना (45) अपने 20 मछुआरे दोस्तों के साथ, हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के नानकसागर बांध के पास सूखी जमीन पर मछली पकड़ने के लिए नानकमत्ता आते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मैं अपने घर से 30 किलोमीटर दूर सिर्फ़ मछली पकड़ने आया हूँ। यहां बहुत सारे मच्छरों के बीच और बिना रोशनी या बिजली के रहना बहुत मुश्किल है। हमें रात में रोशनी के लिए अपनी बाइक की बैटरी का इस्तेमाल करना पड़ता है।”

तालाब किनारे कुछ लोग_प्रवासी मछुआरे
ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

वे अपनी अस्थाई झोंपड़ियां बनाने के लिए, बांध के आस-पास से बांस, लकड़ी और पुआल इकट्ठा करते हैं। इसे बनाने में उन्हें सिर्फ़ एक दिन लगता है, लेकिन ये झोपड़ियां तेज़ हवा और बारिश से सुरक्षित नहीं रहती हैं।

मछली पकड़ते कुछ लोग_प्रवासी मछुआरे
पानी में मिट्टी बांध बनाकर मछली पकड़ने एक तरीका है जो छोटी मछलियों को पकड़ने मे उपयोगी है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

प्रवासी मछुआरे ज्यादा से ज्यादा मछलियां पकड़ने के लिए, विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं – जलाशयों में बड़े जाल लगाने से लेकर, उन क्षेत्रों में बांध बनाने तक जहां पानी की गति तेज़ होती है, जो छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए उपयोगी होती है।

मछली पकड़ते लोग_प्रवासी मछुआरे
एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

मछली पकड़ने में मदद के लिए यांत्रिक उपकरणों का उपयोग सबसे प्रभावी है। जनरेटर के साथ, एक तरफ पानी छोड़ा जाता है, जिससे मछलियां रह गए कीचड़ में फंस जाती हैं और इसलिए उन्हें पकड़ना ज्यादा आसान होता है। इससे उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा मछलियां पकड़ने और ज्यादा कमाई करने में मदद मिलती है।

पकड़ी हुई मछलियां_प्रवासी मछुआरे
हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

प्रदीप कहते हैं – “हमारा जीवन संघर्ष से भरा है। यहां आते ही, हमें जनरेटर, ईंधन, जाल और अन्य जरूरी चीजों पर 70-80 हजार रुपये खर्च करने पड़ते हैं। और फिर हमारा ठेकेदार कभी-कभी 10 से 15 दिन बाद तक भुगतान नहीं करता है।”

जाल से मछली बीनते लोग_प्रवासी मछुआरे
मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। | चित्र साभार: विलेज स्क्वायर

मौसमी मछली पकड़ने के इस काम में जीवन कठिन है। लेकिन पुरुषों को रोमांच और उपलब्धि का अहसास भी होता है, क्योंकि वे अपने परिवार के लिए आजीविका कमाते हैं। प्रदीप कहते हैं – “मछलियां हर जगह हैं, लेकिन नानकमत्ता में हमें जो मज़ा आता है, वह कुछ और ही है।”

यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।

यौन पहचान, स्वास्थ्य और अधिकारों से जुड़े 50 शब्द

जेंडर पहचान और यौनिक अभिव्यक्ति

लिंग – लिंग को अक्सर जन्म के समय जननांगों की उपस्थिति के आधार पर निर्धारित किया जाता है। यह लोगों की विभिन्न जैविक और शारीरिक विशेषताओं को संदर्भित करता है, जैसे कि प्रजनन अंग, गुणसूत्र, हार्मोन आदि। लिंग जेंडर के समान नहीं है।

जेंडर – समाज ‘महिला’ एवं ‘पुरुष’ को जैसे देखता है, जैसे उनमें अंतर करता है तथा उन्हें जो भूमिकाएं प्रदान करता है, उन्हें जेंडर कहते हैं। सामान्य तौर पर लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे उन्हें दिए गए जेंडर को स्वीकार करें और उसी के अनुसार उचित व्यवहार करें। जहां जेंडर से जुड़ी भूमिकाएं सांस्कृतिक एवं सामाजिक अपेक्षाओं के आधार पर होती हैं, वहीं जेंडर पहचान व्यक्ति द्वारा स्वयं तय की जाती है कि वे स्वयं को पुरुष की श्रेणी में रखना चाहते हैं, महिला की श्रेणी में रखना चाहते हैं या किसी भी श्रेणी में नहीं रखना चाहते हैं। संकेतों के एक जटिल समूह के आधार पर किसी व्यक्ति का जेंडर तय किया जाता है जो हर संस्कृति में अलग हो सकता है। यह संकेत अनेक प्रकार के हो सकते हैं, जैसे व्यक्ति कैसे कपड़े पहनते हैं, कैसे व्यवहार करते हैं, उनके रिश्ते किसके साथ हैं और वे सत्ता का प्रयोग कैसे करते हैं।

पुरुषत्व पुरुषत्व कई प्रकार के हो सकते हैं। ये दैनिक भाषा में उपयोग की जाने वाली गतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणियां हैं जो संस्कृति के भीतर मान्यता-प्राप्त कुछ व्यवहारों और प्रथाओं को ‘पुरुषों’ की विशेषता के रूप में संदर्भित करती हैं। ये अवधारणाएं सीखी जाती हैं और यौन अभिविन्यास या जैविक सार का वर्णन नहीं करती हैं। ये संस्कृति, धर्म, वर्ग, समय के साथ और व्यक्तियों और अन्य कारकों के साथ बदलते हैं। पुरुषत्व कई हो सकते हैं – कभी-कभी देशों, क्षेत्रों और संस्कृतियों के भीतर भिन्न होते हैं – लेकिन अक्सर कुछ सामान्य या प्रमुख अवधारणाएं हो सकती हैं जो किसी को ‘पुरुष’ बनाती हैं। उदाहरण के लिए, कई संस्कृतियों में, पुरुषों की अपने परिवार को आर्थिक सहयोग देने की क्षमता, शारीरिक और भावनात्मक रूप से ‘ताकतवर ‘ होने, परिवार में सभी वित्तीय निर्णयों के लिए ज़िम्मेदार होने आदि में पुरुषत्व देखा जाता है।

महिला – वो जो एक महिला के रूप में पहचान करते हैं और जिनके पास महिलाओं के जननांग और स्तन, योनि और अंडाशय जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।

पुरुष – वे जो एक पुरुष के रूप में पहचान करते हैं; उनके पुरुष जननांग, या लिंग, या वृषण जैसे प्रजनन अंग हो भी सकते हैं या नहीं भी।

जेंडर बाइनरी (जेंडर द्विचर) – यह विचार कि केवल दो जेंडर हैं और यह कि हर कोई इन में से एक जेंडर के है। यह शब्द उस प्रणाली का भी वर्णन करता है जिसमें समाज लोगों को पुरुषों और महिलाओं की जेंडर भूमिकाओं, जेंडर पहचान और विशेषताओं में विभाजित करता है।

जेंडर पहचान – लोगों की आंतरिक रूप से महसूस की गई, पुरुषत्व या लड़का/आदमी होने की अंतर्निहित भावना, अथवा स्त्रीत्व या लड़की/महिला होने की अंतर्निहित भावना, या कोई अन्य जेंडर (उदाहरण के लिए – जेंडरक्वीर, जेंडर नॉन-कन्फर्मिंग, जेंडर न्यूट्रल) होने की भावना जो किसी के जन्म के समय दिए गए जेंडर के अनुरूप हो भी सकता है और नहीं भी। चूंकि जेंडर की पहचान आंतरिक होती है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि किसी की जेंडर पहचान दूसरों के लिए स्पष्ट हो।

सिस्जेंडर – सिस्जेंडर (अक्सर संक्षिप्त में सिस) लोग वे लोग होते हैं जिनके जन्म के समय उन्हें दिए गए जेंडर, उनके शरीर और उनकी जेंडर पहचान के बीच एक मेल होता है। उदाहरण- कोई व्यक्ति जो एक आदमी के रूप में पहचान करता है और उसे जन्म के समय पुरुष-जेंडर ही दिया गया था। दूसरे शब्दों में, वे जिनकी जेंडर पहचान या जेंडर भूमिका को समाज उनके लिंग के लिए उपयुक्त मानता है।

ट्रांसजेंडर – अपने शारीरिक जेंडर को स्वीकार न करते हुए स्वयं को दूसरे जेंडर का मानने वाले लोगों को ट्रांसजेंडर लोग कहते हैं। ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को ‘तीसरे जेंडर’ का मान भी सकते हैं और नहीं भी। ट्रांसजेंडर लोग शारीरिक रूप से पुरुष हो सकते हैं जो स्वयं को महिला मानते हैं और महिलाओं की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। उसी प्रकार, वे शारीरिक रूप से महिलाएं हो सकते हैं जो स्वयं को पुरुष मानते हैं और पुरुषों की तरह कपड़े पहनते हैं और बर्ताव या व्यवहार करते हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि सब ट्रांसजेंडर लोग स्वयं को समलैंगिक मानें।

नॉन-बाइनरी – एक जेंडर पहचान जो पुरुष/महिला जेंडर द्विचर से परे है। गैर-द्विचर लोग कई रूपों में पहचान कर सकते हैं – ट्रांसजेंडर, बिना किसी जेंडर वाले या कई जेंडर वाले (उदाहरण के लिए, बाई-जेंडर, जेंडरक्वीर) या फ़िर एक ऐसे जेंडर के जो किसी बाइनरी में बड़े करीने से फिट नहीं होते है (उदाहरण के लिए, डेमीबॉय, डेमीगर्ल)। कुछ लोग “नॉन-बाइनरी” के लेबल का भी अपनी जेंडर पहचान के लिए सक्रिय रूप से प्रयोग करते हैं।

इंटरसेक्स – ज़्यादातर बच्चे जब पैदा होते हैं तो उनके बाहरी यौनांगों को देखकर डॉक्टर द्वारा तय किया जाता है कि वे लड़कें हैं या लड़की। पर कुछ बच्चों के यौनांगों को देखकर यह बता पाना मुश्किल होता है कि वे लड़कें हैं या लड़कियाँ। हो सकता है कि उनके कुछ बाहरी यौनांग लड़के और कुछ लड़की की तरह हों या हो सकता है उनके बाहरी यौनांग लड़के की तरह हों पर भीतरी जननांग लड़की की तरह या इसके विपरीत। अतः यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग होता है जिनके यौनांगों में ये विविधताएं होती हैं।

विषमलैंगिक – जो लोग मुख्य रूप से भावनात्मक, शारीरिक और/या यौनिक रूप से किसीदूसरे जेंडर के सदस्यों के प्रति आकर्षित होते हैं, जिसे अक्सर गलती से “विपरीत लिंग” कहा जाता है।

लिंग और जेंडर समान नहीं है। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

समलैंगिक (होमोसेक्शुअल) – होमोसेक्शुअल लोग अपने ही जेंडर के लोगों की ओर आकर्षण महसूस करते हैं (महिलाएं जो दूसरी महिलाओं की ओर आकर्षित होती हैं उन्हें लेस्बियन और पुरुष जो दूसरे पुरुषों की ओर आकर्षित होते हैं उन्हें गे कहते हैं)।

गे – जो लोग अपने जेंडर के सदस्यों के प्रति भावनात्मक, रोमांटिक और/या यौन रूप से आकर्षित होते हैं। पुरुष, महिलाएँ और गैर-बाइनरी लोग इस शब्द का उपयोग स्वयं का वर्णन करने के लिए कर सकते हैं, हालांकि यह शब्द आमतौर पर उन पुरुषों का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जो अन्य पुरुषों के प्रति आकर्षित होते हैं।

लेस्बियन एक महिला जो अन्य महिलाओं के प्रति यौनिक रूप से आकर्षित होती है और/या एक लेस्बियन के रूप में पहचान करती है। लेस्बियन के रूप में पहचान करने वाले लोगों के बारे में आम गलत धारणाएं हैं कि वे ‘पुरुषों से नफरत’ करते हैं’, या उनके पुरुषों के साथ ‘बुरे यौन अनुभव’ रहे हैं जो उन्हें लेस्बियन महिलाओं में ‘बदल’ देते हैं, या यह कि यह एक पश्चिमी आयात है जिसकी भारत या एशियाई संदर्भ में कोई प्रासंगिकता नहीं है।ये धारणाएं गलत हैं और अक्सर इनका उपयोग लेस्बियन के रूप में पहचान करने वालों के खिलाफ हिंसा को सही ठहराने के लिए किया जाता है। एक लेस्बियन का उनके कपड़ों या तौर-तरीकों के आधार पर ‘पहचान’ करना भी संभव नहीं है (उदाहरण के लिए, “जो महिलाएं मर्दानी हैं वे लेस्बियन हैं” एक गलत और आपत्तिजनक मान्यता है)।

द्विलिंगी ( बाईसेक्शुअल) – जो लोग अपने ही जेंडर के लोगों और अपने स्वयं के अलावा किसी अन्य जेंडर के लोगों के प्रति यौन रूप से आकर्षित होते हैं।

अलैंगिक (एसेक्शुअल) – अलैंगिक लोग किसी के भी प्रति यौनिक आकर्षण या तो बिलकुल नहीं महसूस करते हैं या आंशिक रूप से करते हैं, पर वे और लोगों की तरह रोमांटिक आकर्षण महसूस कर सकते हैं और गहरे भावनात्मक रिश्ते बना सकते हैं। अलैंगिकता एक स्पेक्ट्रम पर मौजूद है, और अलैंगिक लोगों को कम, कम या सशर्त यौन आकर्षण का अनुभव हो सकता है। निसंदेह, उनकी भावनात्मक ज़रूरतें हो सकती हैं और अन्य लोगों की तरह वे इनको कैसे पूरा करते हैं यह उनका व्यक्तिगत मामला है। वे डेट पर जा सकते हैं, लम्बे अरसे तक भावनात्मक रिश्ते/रिश्तों में रह सकते हैं या अकेले रहने का निश्चय भी कर सकते हैं।

क्वीर – वे लोग जो विषमलैंगिकता की प्रबलता पर सवाल उठाते हैं। क्वीर लोग समलैंगिक, लेस्बियन, गे, इंटरसेक्स या ट्रांसजेंडर हो सकते हैं। हालांकि इस शब्द को आक्रमक माना गया था, कई समूहों और समुदायों ने इस शब्द को सशक्तिकरण हेतु स्वीकारा है और इसका इस्तेमाल यह दावा करने के लिए किया है कि वे विषमलैंगिक नहीं हैं, गैर-अनुरूपतावादी हैं, एक प्रमुख विषमलैंगिक ढांचे के खिलाफ हैं।इसके अंतर्गत वो लोग भी आते हैं जो स्वयं पर इस्तेमाल किए गए ‘लेबल’ से असंतुष्ट हैं और जो विषमलैंगिक मानदंडों के अनुरूप जीवन नहीं जीते हैं।

एलजीबीटीक्यूआईए+ – लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल (द्विलैंगिक), ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स, एसेक्शुअल (अलैंगिक) के लिए संक्षिप्तीकरण। जोड़ का चिह्न (प्लस) अन्य पहचानों और अभिव्यक्तियों को संदर्भित करता है जो “एलजीबीटीक्यू” परिवर्णी शब्द में शामिल नहीं हैं और जिनका अभी तक पूरी तरह से वर्णन नहीं हो सका है। यह एक छत्र-शब्द जिसे अक्सर समग्र रूप से इस पूरे समुदाय को संदर्भित करने के लिए उपयोग किया जाता है।

हिजरा – भारतीय उपमहाद्वीप में इस्तेमाल किया जाने वाला यह शब्द उन लोगों के समुदाय को संदर्भित करता है जिन्हें जन्म के समय “पुरुष” का जेंडर दिया गया था, लेकिन जो पुरुषों के रूप में पहचान नहीं करते, या जो लोग इंटरसेक्स हैं, और इसमें वे लोग भी शामिल हो सकते हैं जो बधिया करना चाहते हैं और/या करवाते हैं। हालांकि कुछ हिजरे स्त्रीलिंग सर्वनामों का प्रयोग करते हुए खुद को संदर्भित करते हैं, कुछ कहते हैं कि वे तीसरे जेंडर के हैं और न तो पुरुष हैं और न ही महिलाएं। ‘हिजरा’ एक जेंडर पहचान नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक पहचान है। भारत में हिजरों के अपने दीक्षा अनुष्ठान और पेशे हैं, जिनमें भीख मांगना, यौन कार्य और शादियों में नृत्य करना या बच्चों को आशीर्वाद देना शामिल हैं। भारत में उन्हें कानूनी रूप से ट्रांसजेंडर लोग माना जाता है (भले ही समुदाय के कुछ सदस्य इस तरह से पहचान न करते हो), और वे कुछ सरकारों या राज्य विभागों द्वारा नौकरियों, शिक्षा आदि के लिए आवंटित आरक्षण तक पहुंचने में सक्षम हैं। दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों जैसे कि बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान में भी हिजरा समुदाय हैं। भारत के अन्य हिस्सों में समान (लेकिन समरूप नहीं) सांस्कृतिक समुदाय हैं, जैसे कि अरवनी (तमिलनाडु में), जोगप्पा (कर्नाटक में), और कोती (उत्तर भारत और महाराष्ट्र सहित देश के विभिन्न हिस्सों में)।

होमोनेगटिविटी – ‘होमोफोबिया’ शब्द से व्युत्पन्न, जो उन लोगों के भय, घृणा या असहिष्णुता का वर्णन करता है जो अपनी यौन और जेंडर पहचान और यौन अभिविन्यास या पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं से बाहर होने वाले किसी भी व्यवहार में आदर्श से भिन्न होते हैं।‘होमोनेगटिविटी’ शब्द के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि ‘होमोफोबिया’ का अर्थ है कि गैर-विषमलैंगिक लोगों के प्रति पक्षपाती और भेदभावपूर्ण व्यवहार एक ‘फोबिया’ (यानी डर) है – ऐसा कुछ जिसके लिए ‘होमोफोबिक’ व्यक्ति को सहानुभूति मिलनी चाहिए।यह शब्द होमोनेगटिव लोगों को कसूरदार नहीं ठहराता है।

यौन एवं प्रजनन स्वास्थ और अधिकार के पहलू 

यौन स्वास्थ्य – यह यौनिकता के संबंध में शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक खुशहाली की स्थिति है; यह केवल रोग, शिथिलता या दुर्बलता की अनुपस्थिति नहीं है। यौन स्वास्थ्य के लिए यौनिकता और यौन संबंधों के प्रति सकारात्मक और सम्मानजनक दृष्टिकोण की आवश्यकता होने के साथ-साथ आनंददायक और सुरक्षित यौन अनुभव होने की संभावना तथा ज़बरदस्ती, किसी भी प्रकार के सामाजिक भेदभाव और हिंसा से मुक्ति भी आवश्यक है। यौन स्वास्थ्य प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए सभी व्यक्तियों के यौन अधिकारों का सम्मान, संरक्षण और पूर्ती होनी ज़रूरी है।

प्रजनन स्वास्थ्य – प्रजनन प्रणाली और इसके कार्यों और प्रक्रियाओं से संबंधित सभी मामलों में न केवल बीमारी या दुर्बलता की अनुपस्थिति, परन्तु पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक भलाई की स्थिति। प्रजनन स्वास्थ्य का तात्पर्य है कि सभी लोग एक संतोषजनक और सुरक्षित यौन जीवन जीने में सक्षम हैं और उनके पास प्रजनन करने की क्षमता है और के साथ-साथ यह तय करने की स्वतंत्रता भी है कि उन्हें यह करना है की नहीं, और यदि करना है तो कब और कितनी बार।

यौनिक अधिकार – इनमें सभी के, बिना किसी ज़बरदस्ती, भेदभाव तथा हिंसा के निम्नलिखित अधिकार शामिल हैं – यौनिक तथा प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल तक आसानी से पहुँच, यौनिकता से संबंधित जानकारी, यौनिकता संबंधी शिक्षा, शारीरिक निष्ठा के लिए आदर, अपनी पसंद का साथी चुनना, यौनिक रूप से सक्रिय होने या न होने का निर्णय, आपसी सहमति से यौनिक संबंध, आपसी सहमति से विवाह, निर्णय लेना कि बच्चें चाहते हैं या नहीं और यदि चाहते हैं तो कब, और संतोषजनक, सुरक्षित तथा आनंदमय यौनिक जीवन व्यतीत करना।

प्रजनन अधिकार – वे अधिकार जो सभी लोगों को सुरक्षित, प्रभावशाली, सामथ्र्य के अनुकूल तथा अपनी पसंद के, स्वीकृत परिवार नियोजन उपायों के साथ-साथ परिवार नियोजन के लिए अपनी पसंद के अन्य तरीकों(जो कानून के विरूद्ध नहीं हैं) के विषय में सूचना एवं उन तक पहुंच प्रदान करते हैं। ये अधिकार उचित स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर पहुँच के अधिकार भी हैं जो गर्भधारण तथा प्रसूति की अवस्था को सुरक्षित रूप से पार करने में लोगों को सशक्त बनाते हैं और दम्पतियों को स्वस्थ शिशु पैदा करने की बेहतरीन संभावना प्रदान करते हैं। 

एसटीआई – ‘सेक्शुअली ट्रांसमिटेड इंफेक्शन’ को संक्षेप में एसटीआई कहते हैं जो उन संक्रमणों की ओर संकेत करता है जिनका संचार यौन संपर्क के द्वारा होता है। यह “गुप्त रोग” के नाम से ज़्यादा जाना जाता है।

आरटीआई – ‘रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इंफेक्शन’ (प्रजनन पथ में होने वाले संक्रमण) को संक्षेप में आरटीआई कहते हैं। ये वे संक्रमण हैं जो प्रजनन प्रणाली को प्रभावित करते हैं, जो सामान्य रूप से योनि में मौजूद जीवों के अतिवृद्धि के कारण होता है या जब बैक्टीरिया या सूक्ष्म जीवों को यौन संपर्क के दौरान या चिकित्सा प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रजनन पथ में प्रवेश कर जाते हैं। वे अनुचित तरीके से निष्पादित चिकित्सा प्रक्रियाओं जैसे असुरक्षित गर्भ समापन या खराब प्रसव प्रथाओं के कारण भी हो सकते हैं। आरटीआई के उदाहरणों में बैक्टीरियल वेजिनोसिस, यीस्ट इन्फेक्शन, सिफलिस और गोनोरिया शामिल हैं। इनमें से कुछ योग्य उपचारों द्वारा रोके जा सकते हैं।। जरूरी नहीं कि किसी में आरटीआई की उपस्थिति यौन गतिविधि को दर्शाए।

एचआईवी – ‘ह्यूमन इम्यूनो डेफिशियेंसी वायरस’, इस नाम की रचना इस प्रकार हुई – एच से ह्यूमन, यानि मनुष्य, आई से इम्यूनो डेफिशियेंसी, यानि रोग से लड़ने की क्षमता में कमी, और वी से वायरस या विषाणु। एचआईवी वायरस संक्रमित लोगों के शरीर में सीडी4 कोशिकाओं पर नियंत्रण कर लेता है और संक्रमित कोशिकाओं के माध्यम से अपने आप प्रजनन करने लगता है। हर संक्रमित सीडी4 कोशिका मरने से पहले वायरस की हज़ारों प्रतियां बना सकती है। एचआईवी से संक्रमित लोगों के शरीर में रोज़ लाखों एचआईवी विषाणु कण बन सकते हैं। एचआईवी अपने आप में कोई बिमारी नहीं है और हालांकि इससे आगे जाकर एड्स की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, इस प्रक्रिया में कई साल लग सकते हैं। एचआईवी द्वारा संक्रमित लोग कई सालों तक एक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।

एड्स – ‘अक्वायर्ड इम्यून डेफिशियेंसी सिंड्रोम’, इसको यह नाम इन कारणों से दिया गया है – ए से अक्वायर्ड, क्योंकि यह एक अनुवांशिक स्थिति नहीं है, बल्कि एक बीमारी है, जो चार संचरण के माध्यम से होती है – 1) संक्रमित लोगों के साथ असुरक्षित यौन सम्बन्ध; 2) संक्रमित माता-पिता से शिशु को गर्भावस्था में; 3) बिना जांच का रक्त चढ़वाना, जो संक्रमित हो सकता है; 4) संक्रमित सुई या अन्य चिकित्सक उपकरणों के माध्यम से। आई से इम्यून, क्योंकि यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है; डी से डेफिशियेंसी, क्योंकि यह इस प्रणाली को कमज़ोर करता है; और एस से सिंड्रोम, क्योंकि जो लोग एड्स के साथ जी रहे होते हैं, उन्हें विभिन्न बीमारियाँ और संक्रमण हो सकते हैं।

विंडो पीरियड – एचआईवी परीक्षण में शरीर में एचआईवी की उपस्थिति के लिए आम तौर पर जाँच नहीं की जाती है; वे प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा उत्पादित उन एंटीबॉडी की उपस्थिति के लिए जाँच करते हैं जो प्रतिरक्षा प्रणाली एचआईवी का सामना होने पर उत्पन्न करती है। एक ‘पाज़िटिव’ जांच परिणाम के लिए पर्याप्त एचआईवी एंटीबॉडी का उत्पादन करने में शरीर को 3 महीने तक लग सकते हैं। संक्रमण और सही परीक्षण परिणामों के बीच के इस तीन महीने की अवधि को विंडो पीरियड कहा जाता है। इस दौरान व्यक्ति पहले से ही संक्रमित हो सकते हैं और ऐसे में वे एचआईवी का प्रसार भी कर सकते हैं।

गर्भ समापन – गर्भावस्था के प्रेरित या सहज समाप्ति को गर्भ समापन कहते हैं।एक सहज गर्भ समापन तब होता है जब एक गर्भावस्था किसी भी चिकित्सा या शल्य चिकित्सा हस्तक्षेप के बिना समाप्त हो जाती है, जैसा ‘मिसकैरेज’ के मामले में होता है।प्रेरित गर्भ समापन में गर्भावस्था की समाप्ति के लिए शल्य चिकित्सा या चिकित्सा प्रक्रियाओं की मदद ली जाती है। “गर्भ समापन” का प्रयोग “गर्भपात” से अधिक उपयुक्त है। 

गर्भनिरोधक – इनका उद्देश्य गर्भावस्था को रोकना है। गर्भनिरोधक विकल्प होने से लोगों, विशेष रूप से महिलाओं, के लिए यह चुनने का अवसर बढ़ जाता है कि वे कितने बच्चे, कब पैदा करना चाहते हैं और बच्चे पैदा करना चाहते हैं या नहीं। गर्भनिरोधन के कुछ अस्थायी तरीके होते हैं (जैसे गर्भ निरोधक गोली और कंडोम) और कुछ स्थायी होते हैं (जैसे नसबंदी और नलबंदी), और कुछ लोग यौन संबंध को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए महीने के कुछ दिन चुनते हैं – इस कम प्रभावी विधि को किसी की मासिक धर्म चक्र के “सुरक्षित दिन (सेफ डेज़)” कहा जाता है। 

इंद्रधनुष के रंग_यौनिकता शब्दावली
जेंडर की पहचान आंतरिक होती है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि किसी की जेंडर पहचान दूसरों के लिए स्पष्ट हो। | चित्र साभार: सिद्धार्थ मचाडो / सीसी बाइ

अनुर्वरता – इसे 12 महीने के असुरक्षित यौन संबंध के बाद गर्भधारण करने में असमर्थता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसका कारण दोनों सहभागियों में से किसी एक में या दोनों में भी हो सकता है। प्राथमिक अनुर्वरता तब होती है जब कोई व्यक्ति 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी गर्भधारण नहीं कर पाता है। माध्यमिक अनुर्वरता एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करती है जिसमें जिन लोगों का पहले शिशु हो चुका होता है, वे 12 महीने के असुरक्षित संभोग के बाद भी दोबारा गर्भधारण करने में असमर्थ होते हैं। ये चर्चाएँ महत्वपूर्ण हैं और इन पर नियमित रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है, विशेष रूप से अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से काम करते समय। “नपुंसकता” और “बांझपन” शब्दों का प्रयोग अनुपयुक्त और रूढ़िवादी है।

जेंडर-पक्षपाती लिंग चयन – गर्भावस्था की स्थापना से पहले जेंडर-आधारित लिंग चयन हो सकता है (उदाहरण के लिए, प्रीइम्प्लांटेशन लिंग निर्धारण और चयन, या इन-विट्रो निषेचन के लिए “शुक्राणु छँटाई”) या गर्भावस्था के दौरान (लिंग-चयनात्मक गर्भ समापन)। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जहां प्रौद्योगिकी ने लिंग चयन के लिए एक अतिरिक्त विधि को सक्षम किया है, वहीं प्रौद्योगिकी समस्या का मूल कारण नहीं है। उन जगहों पर जहां बेटे की वरीयता नहीं देखी जाती है, इन तकनीकों की उपलब्धता से जेंडर-पक्षपातपूर्ण लिंग चयन में रुझान नहीं देखा गया है।

मातृ मृत्युदर – गर्भावस्था की अवधि और स्थान के निरपेक्ष, गर्भावस्था या उसके प्रबंधन से संबंधित किसी भी कारण (आकस्मिक कारणों को छोड़कर) से गर्भावस्था और प्रसव के दौरान या गर्भावस्था की समाप्ति के 42 दिनों के भीतर महिलाओं की मृत्यु की वार्षिक संख्या।

लिंगानुपात – लिंगानुपात 100 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या है। इसका प्रयोग जेंडर पक्षपाती लिंग चयन, जन्म या बचपन में शिशु उपेक्षा या लड़कियों पर लड़कों के मुकाबले सांस्कृतिक वरीयता को इंगित करने के लिए संदर्भ के रूप में किया जा सकता है।

जेंडर परीक्षण – एक एथलीट, ज़्यादातर महिला एथलीटों, के जेंडर को “निर्धारित” करने के लिए परीक्षणों की एक श्रृंखला। ये परीक्षण अक्सर एथलीट के टेस्टोस्टेरोन हार्मोनस्तर को मापते हैं और यदि टेस्टोस्टेरोन का स्तर निर्धारित स्तर से अधिक है, तो एथलीट को इस आधार पर प्रतिस्पर्धा करने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है कि उनके पास इंटरसेक्स भिन्नताएं हो सकती हैं और इसलिए वे एक महिला के रूप में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती हैं। इन परीक्षणों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और ये अब सिर्फ तब किये जाते हैं जबतब किसी एथलीट के प्रदर्शन के आधार पर “संदेह” की गुंजाइश होती है। कैस्टर सेमेया, दुती चंद और पिंकी प्रमाणिक जैसे एथलीट इन परीक्षणों के अधीन रहे हैं और उनकी भागीदारी, प्रदर्शन या जीत पर सवाल उठाया गया था या उसे निरस्त कर लिया गया था। इन परीक्षणों के खिलाफ काफी आलोचना हो रही है और इन्हें कानूनी रूप से कई संस्थानों में चुनौती दी गई है, जिसमें कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट भी शामिल है। 

विकलांगता – विकलांगता की कानूनी परिभाषा प्रत्येक देश के अनुसार अलग-अलग होती है, लेकिन विकलांगता मोटे तौर पर उस सामाजिक प्रभाव को संदर्भित करती है जिसका किसी व्यक्ति को किसी भी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक या संवेदी क्षति के कारण सामना करना पड़ता है, जो विभिन्न बाधाओं के साथ जुड़कर समाज में उनकी पूर्ण और प्रभावी भागीदारी को समान रूप से बाधित कर सकता है। इसमें दूसरों के लिए उपलब्ध स्थानों और सेवाओं तक पहुँचने में बाधाएँ, कलंक और भेदभाव, दया या गैर-समावेशी होना शामिल हैं। विकलांगता का निर्माण सामाजिक रूप से भी किया जाता है, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण लोगों को उनकी दुर्बलता से अधिक अक्षम बनाता है। उदाहरण के लिए, श्रवण-बाधित लोग ‘विकलांग’ हैं क्योंकि ‘मुख्यधारा’ के समाज के अन्य लोग सांकेतिक भाषा (साइन लैंग्वेज) नहीं जानते हैं और उनके साथ संवाद नहीं कर सकते हैं। अधिकांश समाज सांकेतिक भाषा सीखने की आवश्यकता पर विचार नहीं करता है, जो एक श्रवण बाधित व्यक्ति और सामान्य रूप से विकलांग लोगों द्वारा सामना किये जाने वाले अनधिमान की बाधा को दर्शाता है। यह रवैया उन्हें अपने अधिकारों का दावा करने से रोकता है। भारत में, विकलांगता को विकलांग व्यक्तियों के अधिकार – राइट्स ऑफ़ पर्सन्स विथ डिसेबिलिटीज़ (RPD) – अधिनियम 2016 के तहत कवर किया गया है, जो 21 प्रकार की विकलांगताओं को मान्यता देता है, और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम – मेन्टल हेल्थ केयर एक्ट – 2017 के तहत, जो मनोसामाजिक और बौद्धिक अक्षमताओं का वर्णन करता है।

जातिवाद – प्रथाओं और विश्वासों का समूह जो लोगों को जाति पदानुक्रम में उनकी स्थिति के अनुसार असमान अभिकर्तृत्व, सामाजिक प्रतिष्ठा, संसाधनों पर नियंत्रण और ज्ञान तक पहुँच प्रदान करता है। जातिवाद अक्सर जाति पदानुक्रम में “उच्च” लोगों द्वारा जाति पदानुक्रम में पिछड़ी जातियों के लोगों के खिलाफ भेदभाव या हिंसा के रूप में दिखता है। भारत में जातिवाद के सामान्य उदाहरणों में अंतर्जातीय विवाह के खिलाफ होना, कार्यस्थल में किसी के साथ उनकी जाति के कारण भेदभाव करना, कुछ जातियों के लोगों के लिए कुछ पूजा स्थलों में प्रवेश की अनुमति नहीं देना आदि शामिल हैं।

बर्नआउट – बर्नआउट एक सिंड्रोम है जिसकी अवधारणा लंबे समय तक कार्य-सम्बन्धी तनाव के परिणामस्वरूप होती है जिसे सफलतापूर्वक प्रबंधित नहीं किया गया है। यह तीन आयामों की विशेषता है – ऊर्जा की कमी या थकावट की भावना; किसी के काम से मानसिक दूरी में वृद्धि, या किसी के काम से संबंधित नकारात्मकता या निंदा की भावनाएं; और यह उन क्षेत्रों में हमारी रुचि या उत्साहित होने की क्षमता को कम कर सकता है जिनसे हमारा गहराई से लगाव होता है या जो हमें प्रेरित करने वाले होते हैं।बर्नआउट के बारे में अक्सर भुगतान या औपचारिक काम के संदर्भ में बात की जाती है, लेकिन यह किसी भी तरह के काम पर लागू हो सकता है, भुगतान या अवैतनिक, औपचारिक या अन्यथा। उदाहरण के लिए, कोई परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल करते हैं या किसी आपदा के बाद राहत कार्य के लिए स्वेच्छा से काम करते हैं, उन्हे भी बर्नआउट हो सकता है।

व्यापक यौनिकता शिक्षा

व्यापक यौनिकता शिक्षा – (कॉम्प्रिहेंसिव सेक्शुएलिटी एजुकेशन/ सीएसई) यौनिकता के संज्ञानात्मक, भावनात्मक, शारीरिक और सामाजिक पहलुओं के बारे में सीखने और सिखाने की एक पाठ्यक्रम-आधारित प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य बच्चों और युवाओं को ज्ञान, कौशल, व्यवहार और मूल्यों से लैस करना है जो उन्हें सशक्त बनाएगा – उनके स्वास्थ्य, खुशहाली और गरिमा के एहसास के लिए; सम्मानजनक सामाजिक और यौनिक संबंधों के विकास के लिए; उनके चुनाव उनकी अपनी खुशहाली और अन्य लोगों को कैसे प्रभावित करते हैं, इस विचारशीलता के लिए; और अपने जीवन भर में अपने अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए। (रिवाइज़्ड एडिशन ऑफ़ द इंटरनेशनल टेक्निकल गाइडेंस ऑन सेक्शुअलिटी एजुकेशन, यूनेस्को, २०१८)

यौनिकता – यौनिकता के सिद्धांत को कई सालों से परखा जा रहा है। यौनिकता की कई परिभाषाएँ हैं जो इसके कई अवयवों को सम्मिलित करती हैं। हालांकि, कोई भी एक परिभाषा सर्वमान्य नहीं है, फिर भी नीचे दी गई परिभाषा यौनिकता की एक मूलभूत एंव काफ़ी हद तक व्यापक समझ देती है। 

यौनिकता मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन का मुख्य पहलु है जिसमें लिंग, जेंडर पहचान व भूमिका, यौन प्रवृत्ति, सुख, घनिष्ठता व प्रजनन सम्मिलित है। यौनिकता विचार, परिकल्पना, इच्छा, विश्वास, अभिवृत्ति, मूल्य, व्यवहार, अनुभव, सम्बन्ध में अनुभव व अभिव्यक्ति की जाती है। यद्यपि यौनिकता के अंतर्गत उपरोक्त सभी पहलु आते हैं परन्तु सभी एक साथ अनुभव व व्यक्त नहीं किए जाते। यौनिकता पर जैविक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, नैतिक, कानूनी, ऐतिहासिक, धार्मिक व आध्यात्मिक कारक का प्रभाव होता है। (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईज़ेशन ड्राफ्ट परिभाषा 2002)

सहमति – यौन संबंधों के संदर्भ में सहमति तब होती है जब सभी पक्ष एक-दूसरे के साथ शारीरिक और यौन रूप से शामिल होने के लिए सहमत होते हैं। इसमें शामिल सभी लोगों को चुनाव करने की स्वतंत्रता और क्षमता होती है। सहमति एक बार का समझौता नहीं है और इसे किसी भी समय निरस्त किया जा सकता है। अतः सच्ची सहमति के लिए ज़रूरी है कि सहमति स्पष्ट, सुसंगत, इच्छुक और निरंतर हो। सहमति के बिना, यौन गतिविधि यौन हमला या यौन हिंसा है।

बाल यौनशोषण – अगर कोई उम्र में बड़ा या ज़्यादा ताकतवर व्यक्ति नाबालिक लोगों के यौनांगों, स्तनों या शरीर के किसी और हिस्से को उनकी मर्ज़ी के बिना छुए या उनको अपने यौनांग दिखाए, उनके शरीर के साथ अपना शरीर रगड़े (कपड़े पहने हुए या बिना पहने हुए), फोन पर या आमने-सामने उनसे सेक्स-संबंधी बातें करें, उनको कपड़े बदलते हुए या नहाते हुए देखें, उनसे अपने यौनांग छुआए या उनके यौनांग छुए तो यह बाल यौन शोषण है – चाहे छूने वाला व्यक्ति अपने परिवार का हो या बाहर का।

भारत में बाल यौन शोषण यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (2012) – प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेकशुअल ओफ्फेंसेस एक्ट (2012) – के तहत दंडनीय है, जिसमें उन गतिविधियों का वर्णन भी है जो दुर्व्यवहार करने वाले और बच्चे के बीच ‘त्वचा से त्वचा’ के संपर्क से परे हैं। कानून के मुताबिक 18 साल से कम उम्र वाले लोगों को बच्चा माना जाता है।

पीडोफ़ीलिया – ऐसा यौन व्यवहार जिसमें कामोत्तेजना प्राप्त करने का पसंदीदा/एकमात्र तरीका बच्चों के साथ सेक्स या अन्य यौनिक क्रियाएं करना, या इसकी कल्पना करना है। सभी बाल यौन अपराधी पीडोफाइल नहीं होते हैं। बच्चों पर ऐसी क्रियाओं के दीर्घकालीन प्रभाव उनके मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हो सकते हैं।

समता – यह मापने योग्य, समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व, स्थिति, अधिकार और अवसरों को संदर्भित करता है। जेंडर समता का अर्थ समानता नहीं है, लेकिन समाज में सभी जेंडरों के लोगों की समान अहमियत और उन्हें समान अधिकार और उपचार दिया जाना है।

विविधता – एक पारिस्थितिकी तंत्र में जीवित जीवों की विविधता की विस्तृत श्रृंखला। लोगों और जनसंख्या समूहों का वर्णन करते समय, विविधता में आयु, जेंडर, यौनिकता, विकलांगता की स्थिति, जाति, नस्ल, जातीयता, राष्ट्रीयता और धर्म के साथ-साथ शिक्षा, आजीविका और वैवाहिक स्थिति जैसे कारक शामिल हो सकते हैं।

सुरक्षित स्थान (सेफ स्पेस) – यौनिकता के दृष्टिकोण से, एक सुरक्षित स्थान किसी लोगों के समूह के लिए उनकी यौनिकता और यौन व जेंडर अभिव्यक्ति के बिनह पर पक्षपात, निगरानी व नियंत्रण, पूर्वाग्रह, उत्पीड़न और हिंसा से मुक्त है। यह सम्मान, खुलेपन, ईमानदारी और विविधता को प्राथमिकता देता है, और उस तरह के भेदभाव को कायम नहीं रखता है जिसका लोगों को बड़े पैमाने पर समाज से और समाज में सामना करना पड़ सकता है।

समावेशी स्थान – एक स्थान (एक कार्यस्थल, एक शैक्षणिक संस्थान, एक समुदाय, एक बैठक) को ‘समावेशी’ माना जा सकता है, अगर यह विविध जेंडर और यौन पहचान; मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के साथ जी रहे; शारीरिक, मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं के साथ जी रहे; विविध धर्मों, वर्गों और जातियों के; और कोई अन्य पहचान/जनसांख्यिकीय के लोगों को स्वीकार कर रहा हो। यह वह जगह है जहां लोग सुरक्षित, समर्थित और शामिल महसूस करते हैं, और जहां उनकी पहचान या अभिव्यक्ति (जैसे जेंडर और यौनिकता) अनुचित या अपमानजनक व्यवहार को जन्म नहीं देती है। यौन और प्रजनन अधिकारों के संदर्भ में, एक समावेशी स्थान यौनिकता और संबंधित मुद्दों पर विविध दृष्टिकोणों को भी समायोजित करता है, जैसे कि विवाह, यौन साझेदारों की संख्या, बाल-मुक्त रहने के निर्णय आदि, और इनके लिए लोगों को नकारात्मक रूप से नहीं देखता है।

विशेषाधिकार (प्रिविलेज) – एक अनर्जित संसाधन, सामाजिक अवस्था या जीवन की स्थिति जो केवल कुछ लोगों को उनके सामाजिक निर्धारकों के कारण आसानी से उपलब्ध होती है, जैसे कि एक विशेष जेंडर (पुरुष), या जाति, या राष्ट्रीयता, का होना; या विषमलैंगिक, या धनी होना आदि। यह अनेक संसाधनों तक पहुंच, सामाजिक लाभ और समाज के मानदंडों और मूल्यों को आकार देने के अभिकर्तृत्व के संबंध में लाभ प्रदान करता है। विशेषाधिकार वाले लोग एक आदर्श बन जाते हैं जिसके विरुद्ध दूसरों को परिभाषित किया जाता है।

यह आलेख मूलरूप से तार्शी डॉट नेट पर प्रकाशित हुआ था। इस शब्दावली को 2021 में इंटरन्यूज़ के सहयोग से विकसित किया गया था।

भारतीय संविधान के बनने की शुरुआत कैसे हुई?

भारतीय संविधान एक मजबूत लोकतंत्र की नींव है, जो आज भारत है। समान, न्यायसंगत, निष्पक्ष और सभी भारतीयों के लिए एक जैसा, संविधान हमारे जीवन को चुपचाप हमारी संभावनाओं को साकार करने की दिशा में मार्गदर्शन करता है। हम आशा करते हैं कि ये विचार मिलकर भारत के लगातार बढ़ते लोकतंत्र को मजबूत करने की बड़ी तस्वीर में योगदान देंगे।

भारतीय संविधान के 75वें वर्ष में कदम रखते हुए, नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया ने ‘संविधान की बात’ नामक पॉडकास्ट श्रृंखला शुरू की है। यह पॉडकास्ट श्रृंखला एनएफआई के चल रहे अभियान ‘संविधान से हम’ का हिस्सा है।

यह वीडियो मूलरूप से नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया पर प्रकाशित हुआ था।

आर्थिक विकास के साथ ग्रामीण मज़दूरों की आय क्यों नहीं बढ़ रही है?

लगभग 55 वर्ष के वीर सिंह हरियाणा के गुरुग्राम जिले के एक खेत‍िहर गांव नुनेरा में पैदा हुए जहां वे जीवनभर एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में रहे और काम किया। वर्ष 1991 में आर्थिक उदारीकरण, 2000 के दशक में आर्थिक उछाल, गुरुग्राम का प्रौद्योगिकी और वित्तीय केंद्र बनना, सिंह ने तीन दशकों से अधिक समय तक भारत के आर्थिक परिवर्तन को देखा है। लेकिन बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में ग्रामीण भारत को छोड़कर शहरों में पलायन करने वाले लाखों श्रमिकों के विपरीत सिंह ने कभी नुनेरा नहीं छोड़ा।

इसकी बजाय उन्होंने ‘कुजनेट्स इनवर्टेड यू-कर्व’ के प्रभावी होने का वर्षों तक इंतजार किया। 1950 के दशक में अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुजनेट्स ने एक प्रसिद्ध परिकल्पना प्रस्तावित की जिसके अनुसार जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है और यह कृषि से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित होती है, आय असमानता पहले बढ़ती है और फिर घटती है।

अप्रैल 2024 में भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की सदस्य आशिमा गोयल ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) को बताया कि भारत में असमानता बढ़ी है। लेकिन “प्रसिद्ध ‘कुजनेट्स इनवर्टेड यू-कर्व’ हमें बताता है कि उच्च विकास की अवधि में यह सामान्य है और समय के साथ इसमें कमी आनी चाहिए”।

नुनेरा गुरुग्राम से केवल 45 किमी दूर है। लेकिन यहां पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक परिवर्तन बहुत कम हुआ है, सिवाय एक अच्छी तरह से पक्की दो-लेन वाली सड़क के जो गांव से होकर गुजरती है और दर्जनों फार्महाउस जिन्हें रियल एस्टेट बिल्डरों ने शहर के अमीर लोगों के लिए सप्‍ताह के अंत में घूमने के लिए बनाया है।

एक दोपहर जब गर्म हवाएं चल रही थीं, रेत उड़ रही थी, सिंह एक निर्माण स्थल पर दर्जनों पांच फुट के खंभे बनाने के लिए कंक्रीट के मिश्रण का एक पूल बना रहे थे। 500 रुपए के लिए वे सुबह 6 बजे से लगे थे और देर रात तक काम करते थे। सिंह ने बताया, “अच्छे महीनों में उन्हें 12-15 दिन काम मिल जाता है।”

अधिकांश दिनों में वे मजदूरी दर के बारे में सोचते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लोग घर से निकलने से पहले मौसम के बारे में सोचते हैं। सिंह कहते हैं, “खेतों में या छोटे निर्माण स्थलों पर ही काम है।” “खेतों में हमें प्रतिदिन 300-350 रुपए मिलते हैं। निर्माण स्‍थलों पर काम के बदले 500 रुपए मिलते हैं। पिछले चार सालों में मजदूरी में बमुश्किल 30-40 रुपए की वृद्धि हुई है। मैंने ज्‍यादा मजदूरी मांगना बंद कर दिया है। यहाँ कोई भी ज्‍यादा पैसे नहीं देगा। अगर मैं काम नहीं करूंगा तो कोई और करेगा।”

सिंह को उम्मीद थी कि उनके चार सदस्यों वाले परिवार के लिए हालात बेहतर हो जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। गुरुग्राम में चलती महंगी गाड़‍ियों को देखकर और प्रवासी मजदूरों से सुनी गई समृद्धि की कहानियों से उम्‍मीद को और बल म‍िला था। उन्होंने कहा कि वे सिर्फ ज्‍यादा मजदूरी चाहते थे। लेकिन अब यह उम्मीद मोहभंग में बदल गई है। उनकी पत्नी के स्वास्थ्य पर हुए खर्च की वजह से उनकी वित्तीय स्थिति बिगड़ गई है और वे अब 25,000 रुपए के कर्ज में हैं। उन्होंने कहा, “मैं गुस्से से उबल रहा हूं।” लंबी चुप्पी के बाद सिंह ने अचानक दिन का समय पूछा। सुबह के 11.15 बजे थे। उन्होंने पेट पर हाथ हुए कहा, “मुझे सुबह 11 बजे तक भूख लग जाती है। लेकिन मैं फिर भी काम कर रहा हूँ।”

ईंट ढोते हुए मजदूर_ग्रामीण मज़दूर
अधिकांश दिनों में वे मजदूरी दर के बारे में सोचते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लोग घर से निकलने से पहले मौसम के बारे में सोचते हैं। | चित्र साभार: अजय बेहेरा, ग्राम विकास

विकास, लेकिन किसके लिए?

वर्ष 2023 के आखिरी तीन महीनों में सकल घरेलू उत्पाद में 8.4% की वृद्धि हुई, जिसके साथ भारत ने सबसे तेजी से बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था का ताज बरकरार रखा। इसके शेयर बाजार ने ज्‍यादातर एशियाई देशें की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। पिछले साल ब्लूमबर्ग ने रिपोर्ट किया था कि भारत ‘विलासिता व्यय का नया केंद्र’ बन गया है।

हालांकि इसके वित्तीय बाजार और औपचारिक अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन और देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 17 करोड़ से ज्‍यादा परिवारों के बीच एक बड़ा अंतर उभर कर आया है, जहां लगभग 65% आबादी रहती है।

पिछले 10 वर्षों से वास्तविक ग्रामीण वेतन वृद्धि – जिसे अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने आज भारत में सबसे महत्वपूर्ण और उपेक्षित मैक्रोइकनॉमिक संकेतकों में से एक कहा है – स्थिर बनी हुई है। वास्तविक वेतन मुद्रास्फीति के प्रभाव को समायोजित करने के बाद की आय है और अगर वास्तविक आय नहीं बढ़ती है तो लोगों के पास अधिक सामान और सुव‍िधाओं पर क्रय की शक्ति नहीं होती है। इससे अर्थव्यवस्था में लोगों की मांग और समाज की भलाई, दोनों प्रभावित होते हैं।

इकोनॉमिक थिंक टैंक, इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के लिए वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में वृद्धि 2009-10 और 2013-14 के बीच लगभग 8.6% और 6% से घटकर लगातार 3% और 3.3% रह गई। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान स्थिति और खराब हो गई क्योंकि विकास नकारात्मक हो गया। यह दर कृषि मजदूरी के लिए -0.6% और गैर-कृषि मजदूरी के लिए -1.4% पर आ गया।

रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर द्रेज ने इंडियास्पेंड को बताया, “मजदूरी के हालिया ठहराव पर बहुत कम शोध हुआ है, क्योंकि पिछले साल तक बहुत कम लोगों ने इस पर ध्यान दिया था।” “भारत में लंबे समय से ग्रामीण मजदूरी की सुस्त वृद्धि की समस्या रही है, खासकर पिछले 35 वर्षों के दौरान। लेकिन आज, यह ठहराव काफी तेज आर्थिक विकास के बावजूद हो रहा है। “इस लंबे समय से चली आ रही प्रवृत्ति का एक कारण यह है कि भारत में कामगारों की एक बड़ी संख्‍या है जिनकी शैक्षणिक योग्यता कम है और उनके पास बाजार में बिकने लायक कौशल नहीं है, भले ही उनके पास अन्य कौशल बहुत ज्‍यादा हों। इससे मजदूरी कम रहती है।”

योजना बनाम वास्तविकता

रॉयटर्स ने 8 मई को बताया कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2030 तक ग्रामीण प्रति व्यक्ति आय में 50% की वृद्धि करने की योजना बनाई है, जबकि वे भारत के चल रहे आम चुनावों में तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।

रॉयटर्स के अनुसार ग्रामीण भारत में गैर-कृषि नौकरियों को बढ़ाने के लिए मोदी लघु उद्योगों में निवेश को बढ़ावा देने की योजना बना रहे हैं। इससे पहले 28 फरवरी 2016 को उत्तर प्रदेश के बरेली में किसानों की एक बड़ी सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने घोषणा की कि वे 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देंगे, तब जब देश अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाएगा। भीड़ ने जयकारे लगाए।

हालांकि, सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि पांच लोगों के परिवार की औसत मासिक आय 2012-13 में 6,426 रुपए से बढ़कर 2018-19 में लगभग 10,200 रुपए हो गई, फिर भी कृषि परिवार काफी वित्तीय संकट में हैं और लगभग 50% कर्ज में हैं और औसत बकाया ऋण 59% बढ़ गया है। इंडियास्पेंड ने सितंबर 2021 में अपनी र‍िपोर्ट में भी इसका ज‍िक्र क‍िया था।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 8.2 करोड़ परिवार जिनमें 41 करोड़ लोग शामिल हैं – दो हेक्टेयर से कम या उसके बराबर आकार की भूमि पर फसल उगाते हैं। इस समूह में जो देश के सभी कृषि परिवारों का 88% है। लगभग 38.7 मिलियन परिवार कर्ज में हैं, जिनमें 0.01-0.40 हेक्टेयर, 0.41-1.00 हेक्टेयर और 1.01-2.00 हेक्टेयर के बीच भूमि वाले किसानों के लिए औसत बकाया ऋण राशि क्रम से 33,220 रुपए, 51,933 रुपए और 94,498 रुपए है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि कृषि क्षेत्र कितना अच्छा प्रदर्शन करता है। बढ़ती कृषि आय ग्रामीण खपत, कृषि और गैर-कृषि मजदूरी और यहां तक कि विनिर्माण और निर्माण जैसे क्षेत्रों में मजदूरी पर भी प्रभाव डालती है।

ड्रेज 2007 और 2013 के बीच के वर्षों को ग्रामीण मजदूरी की लंबी प्रवृत्ति में एक विसंगति के रूप में संदर्भित करते हैं। “[ग्रामीण मजदूरी] वास्तविक रूप में प्रति वर्ष लगभग 5-6% बढ़ रही थी। काफी संभावना है कि इस उछाल का संबंध राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम लागू होने के बाद श्रम बाजारों में आई सख्ती से है। अब हम वास्तविक मजदूरी के लगभग स्थिर होने के पुराने पैटर्न पर वापस आ गए हैं और अब यह अधिक गंभीर है, क्योंकि इस 10 साल के दौरान अर्थव्यवस्था तेज दर से बढ़ी,” ड्रेज़ ने कहा।

खेत से गुजरता एक मजदूर_ग्रामीण मज़दूर
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि कृषि क्षेत्र कितना अच्छा प्रदर्शन करता है। | चित्र साभार: अजय बेहेरा, ग्राम विकास

नई दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हिमांशु ने इंडियास्पेंड को बताया कि 2007 और 2013 के बीच ग्रामीण मजदूरी को बढ़ाने वाले कई कारक थे, तब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सत्ता में था। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के कार्यान्वयन के अलावा, कृषि उत्पादकता, फसलों के लिए उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य (एसएसपी), निर्माण क्षेत्र की वृद्धि और शहरीकरण ने ग्रामीण मजदूरी को बढ़ाया।

हालांकि हिमांशु के अनुसार आज इनमें से कोई भी कारक काम नहीं कर रहा है। कंपनियों ने पाया है कि उनके उत्पादों की बिक्री में शायद ही कोई वृद्धि हुई है। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले 10 वर्षों में पिछली अवधि की तुलना में मांग में कमी आई है।

“विनिर्माण और निर्माण जैसे गैर-कृषि क्षेत्रों से भी मांग में कमी आई है और लोग वापस कृषि की ओर लौट रहे हैं। कृषि की कीमतें – एमएसपी के संदर्भ में, गैर-कृषि कीमतों की तुलना में उतनी तेजी से नहीं बढ़ी हैं। व्यापार की शर्तें कृषि के खिलाफ हो गई हैं। और इससे मजदूरी कम हो गई है,” हिमांशु ने आगे कहा क‍ि यह देखते हुए कि निर्माण क्षेत्र में निवेश की भरमार है, ग्रामीण मजदूरी में शायद ही कोई सकारात्मक बदलाव हो।

वर्ष 2021 में मोदी ने कहा कि भारत बंदरगाहों, सड़कों, जलमार्गों और आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण के लिए लगभग 1.4 ट्रिलियन डॉलर या लगभग 100 ट्रिलियन रुपए का निवेश करेगा, जिससे लाखों नौकरियां भी पैदा होंगी। रियल एस्टेट कंसल्टेंसी नाइट फ्रैंक ने 2023 में एक रिपोर्ट में कहा कि भारत के शीर्ष आठ शहरों में तेजी से बढ़ते आवास बाजार निर्माण क्षेत्र को 2030 तक अर्थव्यवस्था में लगभग पांचवां योगदान देने के लिए प्रेरित करेगा जिससे 10 करोड़ श्रमिकों को रोजगार मिलेगा, जिनमें से लगभग 80% अर्ध-कुशल होंगे।

जब किसी ग्रामीण व्यक्ति की आय बढ़ती है तो सबसे पहला काम वह करता है अपने कच्चे मकानों को पक्के मकानों में बदलना, जो 2007 से 2012 के बीच हुआ था।

मई 2019 और मई 2024 के बीच, निफ्टी रियल्टी इंडेक्स – रियल एस्टेट सेक्टर के लिए एक बेंचमार्क इंडेक्स, जिसमें नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के 10 स्टॉक शामिल हैं – 280% से अधिक बढ़ गया। इसके विपरीत 2018 और 2023 के बीच निर्माण क्षेत्र के श्रमिकों की औसत दैनिक वास्तविक ग्रामीण मजदूरी पुरुष श्रमिकों के लिए 182.44 रुपए से बढ़कर 205.80 रुपए और महिला श्रमिकों के लिए 136.95 रुपए से बढ़कर 157.95 रुपए हो गई। अरिंदम दास और योशिफुमी उसामी द्वारा श्रम ब्यूरो द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार, 2021-22 और 2022-23 के बीच समान समूह के लिए वास्तविक मजदूरी की वृद्धि में क्रमशः -0.1% और -3% की नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई।

“जब किसी ग्रामीण व्यक्ति की आय बढ़ती है तो सबसे पहला काम वह करता है अपने कच्चे मकानों को पक्के मकानों में बदलना, जो 2007 से 2012 के बीच हुआ था” हिमांशु कहते हैं। वे यह भी कहते हैं क‍ि जहां निर्माण में श्रमिक कार्यरत हैं, वह प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में नहीं है, क्योंकि इन परियोजनाओं में काम तीव्रता कम है। हम [वर्तमान में] देख रहे हैं कि बुनियादी ढांचे में निवेश से जीडीपी वृद्धि में योगदान श्रम-प्रधान होने के बजाय बहुत अधिक पूंजी-प्रधान है।”

भारत के अर्थशास्त्री और पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन ने इंडियास्पेंड को बताया कि ग्रामीण आवास और सड़क निर्माण जैसी श्रम-प्रधान परियोजनाएं उच्च श्रम तीव्रता के कारण ग्रामीण मजदूरी को सकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। “ग्रामीण भारत में, कृषि अब आर्थिक गतिविधियों का चालक नहीं है। वैकल्पिक व्यवसाय उतनी तेज़ी से नहीं बढ़ रहे हैं, इसलिए आपके पास ज्‍यादा श्रमिक हैं।

नोटबंदी और अन्य प्रणालीगत झटके

अर्थशास्त्री ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को मापने के लिए दोपहिया वाहनों की बिक्री जैसी कई तरह की वजहों को देखते हैं। वित्तीय वर्ष 2018 में, लगभग 2.2 करोड़ दोपहिया वाहन बेचे गए जो वित्तीय वर्ष 2023 में घटकर 1.58 करोड़ रह गये। वहीं रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023 में भारत की रिकॉर्ड 40 लाख कार बिक्री में आधे से अधिक स्पोर्ट-यूटिलिटी वाहनों (एसयूवी) की हिस्सेदारी रही।

मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय एमहर्स्ट में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर जयति घोष ने कहा कि विमुद्रीकरण और कोविड-19 महामारी जैसे आर्थिक झटकों ने भारत के विशाल अनौपचारिक क्षेत्र और इसमें काम करने वाले लाखों श्रमिकों को बुरी तरह प्रभावित किया है।

घोष ने इंडियास्पेंड से कहा, “इस सबका वास्तविक मजदूरी पर असर पड़ा है।” “जब वास्तविक मजदूरी कम होती है, तो वास्तविक खपत कम होती है और हमने इसे 2017-18 के [अब] रद्दी हो चुके घरेलू उपभोग सर्वे में देखा जो ग्रामीण उपभोग 2011-12 की तुलना में कम था – जो अविश्वसनीय है। अगर आप इसके बारे में सोचें तो यह उस दुष्चक्र को दर्शाता है जिसमें अर्थव्यवस्था अब फंस गई है। स्थिर मजदूरी का मतलब है कम मांग, जिसका अर्थ है कि छोटे उद्यम जो कार्यबल के बड़े हिस्से को रोजगार देते हैं, उनके उत्पादों की मांग नहीं हो रही है और इसका मतलब है कम मजदूरी।”

“यहां तक कि शहरी वास्तविक मजदूरी के लिए भी औसत बढ़ रहा है, लेकिन औसतन मजदूरी दर नहीं बढ़ रही है। इसका मतलब है कि शहरी क्षेत्रों में भी आधे श्रमिकों को बेहतर मजदूरी नहीं मिल रही है” घोष ने आगे कहा।

हिमांशु और घोष दोनों का तर्क है कि भारत की उच्च जीडीपी वृद्धि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति में परिलक्षित नहीं होती है और इसका प्रभाव समय बीतने के साथ घरेलू मांग पर पड़ेगा। हिमांशु कहते हैं, “भारत एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो मांग से प्रेरित है।” हम चीन या वियतनाम की तरह निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्था नहीं हैं। इसलिए यदि घरेलू मांग नहीं बढ़ रही है तो आपको समस्याएं होने की संभावना है। उदाहरण के लिए, ऑटोमोबाइल क्षेत्र में इन्वेंट्री बिल्ड-अप के मुद्दों को लें। निजी निवेश में सुस्ती का एक कारण घरेलू मांग में कमी है: अगर कंपनियां बिक्री नहीं कर पा रही हैं, तो वे निवेश करने को तैयार नहीं हैं।”

द्रेज के अनुसार, यह दिखने लगा है। “पिछले 10 सालों में औसत उपभोक्ता व्यय की वृद्धि काफी कम रही है।” “राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा जारी नवीनतम डेटा के अनुसार, 2011-12 और 2022-23 के बीच उपभोक्ता व्यय वास्तविक रूप से केवल 2-3% बढ़ा है, जबकि 2004-05 और 2011-12 के बीच यह 5-6% बढ़ा था। इससे यह भी पता चलता है कि हाल के वर्षों में जीडीपी वृद्धि के आधिकारिक अनुमान अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकते हैं।”

कल्याणकारी खर्च का पूरा सच क्‍या है?

वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने कल्याणकारी खर्च बढ़ाने को प्राथमिकता दी और सरकार के अनुसार इसने शौचालय, रसोई गैस, मुफ्त खाद्यान्न, पाइप से पानी, बिजली और कई तरह की नकद हस्तांतरण योजनाओं जैसे कल्याणकारी प्रावधानों पर 10 वर्षों में लगभग 400 बिलियन डॉलर खर्च किए हैं, इस प्रवृत्ति को पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने ‘न्यू वेलफेयरिज्म’ कहा है – कल्याण के प्रति एक अनूठा दृष्टिकोण जहां आवश्यक वस्तुओं के प्रावधान को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं के प्रावधान पर प्राथमिकता दी जाती है। सर्वे में कल्याणकारी खर्च और मतदान वरीयता के बीच संबंध पाया गया है।

पहले गरीबों को यह दो रुपए प्रति किलोग्राम मिल रहा था। अब सरकार 5 किलो अनाज मुफ्त दे रही है। लेकिन बाकी [खाद्य पदार्थों] की कीमत बढ़ गई है।

द्रेज इस दावे का खंडन करते हैं। “[मनरेगा और वृद्धावस्था पेंशन योजना जैसी योजनाओं] को अन्य योजनाओं में बदल दिया गया, उदाहरण के लिए घर की सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया। कोविड-19 संकट के दौरान, कुछ सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को फिर से बड़े पैमाने पर नया रूप देना पड़ा। लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चला। कुल मिलाकर कल्याणकारी योजनाओं पर जीडीपी के अनुपात के तौर पर केंद्रीय व्यय आज भी उतना ही है जितना 10 साल पहले था। उन्होंने आगे बताया कि मनरेगा मजदूरी 15 साल से वास्तविक रूप में स्थिर रही है, 2009 के बाद से मजदूरी हर साल केवल मूल्य स्तर के अनुरूप ही बढ़ाई गई थी। यह बहुत लंबा समय है।”

घोष ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि कोई नया कल्याणवाद है।” “उदाहरण के लिए, मुफ्त खाद्यान्न पर विचार करें। पहले गरीबों को यह दो रुपए प्रति किलोग्राम मिल रहा था। अब सरकार 5 किलो अनाज मुफ्त दे रही है। लेकिन बाकी [खाद्य पदार्थों] की कीमत बढ़ गई है। उनकी शुद्ध खरीद में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। सच कहूं तो शून्य और दो रुपए के बीच का अंतर ज्यादा नहीं है।”

घोष सरकार द्वारा जारी नवीनतम घरेलू उपभोग सर्वे के एक आंकड़े का हवाला देते हैं: ग्रामीण भारत के लिए सरकारी कल्याण हस्तांतरण से पहले और बाद में औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय के बीच का अंतर केवल 87 रुपए है। घोष बताते हैं, “अंतर मामूली है।” “मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि कल्याणकारी खर्च में बहुत ज्‍यादा वृद्धि हुई है। यह इस बात का संकेत है कि कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च उतना ज़्यादा नहीं है।”

फाइनेंशियल टाइम्स के विश्लेषण के अनुसार 2014 से 2022 के बीच भारत की जीडीपी चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर के लिहाज से औसतन 5.6% बढ़ी है, जबकि इसी अवधि में 14 अन्य बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की औसत वृद्धि दर 3.8% रही है। वैश्विक आर्थिक ऐतिहासिक रुझानों को ध्यान में रखते हुए द्रेज और घोष को वैश्विक स्तर पर ऐसा ही रुझान ढूंढ़ना मुश्किल लगा जहां एक रेखा ग्राफ पर आर्थिक विकास और ग्रामीण मजदूरी विपरीत दिशाओं में चली गई हो।

द्रेज ने कहा कि अगर कोई ऐसा दूसरा उदाहरण हो जहां 10 साल तक इतनी तेजी से विकास हुआ हो और वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में शायद ही कोई वृद्धि हुई हो, तो यह आश्चर्य की बात होगी। घोष कहते हैं, “यह बहुत, बहुत दुर्लभ है।”

हरियाणा के चुहारपुर में एक खेतिहर मजदूर सुषमा इस रुझान पर सवाल उठाती रही हैं। लौकी के पौधों के एक बड़े खेत में तेजी से चलते हुए, फसल को तोड़ते हुए और सिर पर रखी टोकरी में इकट्ठा करते हुए वह पिछले चार वर्षों से लगभग आठ घंटे काम कर रही हैं ज‍िसके बदले उन्‍हें 250 रुपए म‍िलते हैं। “दूध, सब्जियां, खाना पकाने का तेल, आटा, बिजली। सभी की कीमतें बढ़ गई हैं,” उन्‍होंने इंडियास्पेंड को बताया।

मार्च 2024 में, भारत में सब्जी मुद्रास्फीति 28.3% पर थी; फरवरी में यह 30.2% थी। नवंबर 2023 से खाद्य मुद्रास्फीति – जिसमें अनाज, सब्जियां, मसाले, खाना पकाने का तेल, दूध, अंडे, मांस शामिल हैं – 8% से अधिक बढ़ रही है।

“हम केवल अपने परिवारों को खिलाने के लिए इतनी मेहनत नहीं करना चाहते हैं,” सुषमा ने कहा, क्योंकि उसने टोकरी से लौकी को खेत के किनारे एक अस्थायी भंडारण कक्ष के फर्श पर फेंक दिया।

“मैं बस यही प्रार्थना कर सकता हूं कि हमारी स्थिति बेहतर हो जाए। मैं अपने बच्चों को बड़े शहर में काम करने के लिए नहीं छोड़ सकती।”

यह लेख मूलरूप से इंडिया स्पेंड पर प्रकाशित हुआ था।

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भारत में हीट एक्शन प्लान कितने प्रभावी हैं?

अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में अप्रैल में आई हीटवेव कई संवेदनशील और पिछले समुदायों के लिए काफी हानिकारक थी। इस रिपोर्ट में हीटवेव की वजह से आई समस्याओं का भी जिक्र किया गया है। इनमें हीट स्ट्रोक की वजह से अस्पताल में भर्ती होने की घटनाएं, जंगलों में आग लगने की घटनाएं और स्कूलों का बंद होना प्रमुख है।

इस साल की शुरुआत में ही भारत के मौसम विभाग ने फरवरी 2023 को 1901 से लेकर अभी तक सबसे गर्म फरवरी घोषित किया था। 2022 में साउथ एशिया में आई भयंकर हीटवेव के बाद की गई वर्ल्ड वेदर एट्रीब्यूशन की ओर से की गई एक स्टडी में जलवायु परिवर्तन के भारतीय हीटवेव पर प्रभावों का आकलन किया और पाया कि इस क्षेत्र में इंसानी गतिविधियों की वजह से भीषण हीटवेव की घटनाएं 30 गुना बढ़ गईं।

काउंसिल ऑफ एनर्जी, एन्वारनमेंट एंड वाटर (CEEW) में सीनियर प्रोग्राम लीड विश्वास चिताले बढ़ती हीटवेव के प्रभावों के प्रति चिंता जताते हुए कहते हैं, ‘जैसे-जैसे जलवायु संकट बढ़ रहा है हीट एक्शन प्लान को धारण करने और उन्हें लागू करने संबंधी जरूरतें भारत में काफी बढ़ रही हैं ताकि हीटवेव के प्रभावों को अच्छी तरह से कम किया जा सके।’ 

हीटवेव क्या है?

हीववेव को भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग परिभाषित किया जाता है। मौसम विभाग के मुताबिक, मैदानी इलाकों में अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या उससे ज्यादा होने पर उसे हीटवेव कहा जाता है। वहीं, तटीय इलाकों में अधिकतम तापमान 37 डिग्री सेल्सियस या ज्यादा होने पर उसे हीटवेव कहा जाता है। पहाड़ी इलाकों में यही आंकड़ा 30 डिग्री सेल्सियस या ज्यादा होने पर हीटवेव कहा जाता है। भारत में हीटवेव की परिस्थितियां आमतौर पर मार्च और जुलाई के बीच महसूस की जाती हैं। वहीं, भीषण हीटवेव अप्रैल से जून के बीच होती है।

हीटवेव प्राथमिक तौर पर उत्तर पश्चिमी भारत के मैदानों, मध्य और पूर्वी क्षेत्र और भारत के पठारी क्षेत्र के उत्तर हिस्से को प्रभावित करती है। पिछले कुछ सालों में भारत में ज्यादा तापमान की घटनाएं काफी ज्यादा हो गई हैं। यहां तक ऐतिहासिक रूप से कम तापमान वाले इलाकों जैसे कि हिमाचल प्रदेश और केरल में भी हीटवेव की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं। साल 2019 में हीटवेव का असर 23 राज्यों में हुआ जबकि 2018 में 18 राज्य प्रभावित हुए थे। भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ हीटवेव की घटनाएं संवेदनशील समुदाय के लिए सेहत से जुड़ी गंभीर समस्याएं पैदा कर रहे हैं।

चिताले कहते हैं, ‘हीटवेव की समस्या का समाधान करने के लिए काफी बेहतर और प्रभावी हीट एक्शन प्लान की जरूरत है ताकि लोगों की जान बचाई जा सके और इसका असर कम किया जा सके। ये उपाय साथ-साथ काम करते हैं ताकि हीटवेव के समय लोग सुरक्षित और सेहतमंद रहें और उनकी सेहत बची रहे।’

हीट एक्शन प्लान (HAP) भीषण हीटवेव की घटनाओं के समय लोगों को सुरक्षित रखने और उनकी जान बचाने में अहम भूमिका निभाते हैं। अहमदाबाद के 2013 के हीट एक्शन प्लान से प्रेरणा लेते हुए भारत के शहरों, राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर हीट वार्निंग सिस्टम लागू करने और तैयारियों की योजना बनाने की दिशा में काम किया जा रहा है।

हीटवेव बढ़ने का भारत पर क्या असर हो रहा है?

भारत भीषण गर्मी के प्रति जितना संवेदनशील है उससे देश की अर्थव्यवस्था और लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ने की आशंका ज्यादा है। इसका असर गरीबों पर ज्यादा पड़ेगा और वही इसका अधिकतम नुकसान भी झेलेंगे। 2021 की एक रिसर्च बताती है कि गर्मी और उमस की परिस्थितियों की वजह से दुनियाभर में मजदूरों की कमी होगी और भारत इस मामले में शीर्ष 10 देशों में शामिल होगा जिसके चलते उत्पादकता पर असर भी पड़ेगा।

गर्मी और उमस की परिस्थितियों की वजह से दुनियाभर में मजदूरों की कमी होगी

भारत में काम करने वाले कामगारों का तीन चौथाई हिस्सा भीषण गर्मी वाले सेक्टर में काम करते हैं जिनका कि देश की कुल जीडीपी में आधे का योगदान होता है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन का अनुमान है कि साल 2030 तक भीषण गर्मी के चलते काम के घंटे कम होने में 5.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी जो कि 3.4 करोड़ नौकरियों के बराबर है। इनमें बाहर के काम वाले सेक्टर जैसे कि कृषि, खनन और उत्खनन शामिल हैं। इसके अलावा, अंदर वाले काम जैसे कि मैन्युफैक्चरिंग, हॉस्पिटैलिटी और ट्रांसपोर्टेशन जैसे काम भी शामिल हैं।

स्वास्थ्य के मामले में देखें तो जून 2023 में AP News ने रिपोर्ट छापी थी कि उत्तर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश में हीटवेव के चलते 119 लोगों की जान चली गई। ये लोग भीषण गर्मी के चलते बीमार पड़े थे। वहीं, पड़ोसी राज्य बिहार में भी 45 लोगों की मौत हुई है। इसी समय में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया और आर्द्रता 30 से 50 प्रतिशत के बीच रही।

भारत का उत्तरी हिस्सा गर्मी के मौसम दौरान तपती और भीषण गर्मी के लिए जाना जाता है। वहीं, भारत के मौसम विभाग ने बताया है कि सामान्य तापमान लगातार बढ़ा हुआ था और अधिकतम तापमान भी 43.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। नेशनल ओसेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के हीट इंडेक्स कैलकुलेटर के मुताबिक, ये परिस्थितियां इंसान के शरीर के लिए 60 डिग्री सेल्सियस जैसी हो सकती हैं और ये गंभीर खतरे को दर्शाती हैं।

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के रमित देबनाथ की अगुवाई में शोधार्थियों ने एक अप्रैल 2023 में एक स्टडी की। इस स्टडी में सामने आया कि भारत में 2022 में आई हीटवेव ने लगभग 90 प्रतिशत लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं, खाने की कमी और मौत की आशंकाओं को बढ़ा दिया। PLOS क्लाइमेट जर्नल में प्रकाशित इस स्टडी में बताया गया कि हो सकता है कि भारत सरकार का ‘क्लाइमेट वलनेरेबिलिटी इंडेक्स’ देश के विकास के प्रयासों पर हीटवेव के असर को सही से न पकड़ सके।

बाज़ार की एक गली में अति जाती भीड़_हीटवेव
इंसानी गतिविधियों की वजह से भीषण हीटवेव की घटनाएं 30 गुना बढ़ गईं। | चित्र साभार: पिक्साबे

इन शोधार्थियों ने हीट इंडेक्स और वलनेरेबिलिटी इंडेक्स को मिलाया तो पाया कि देश के 90 प्रतिशत लोग आजीविका की क्षमता, खाद्य उत्पादन, बीमारियों के संक्रमण और शहरी सतत जीवन के प्रति काफी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

यह स्टडी भारत की अर्थव्यवस्था पर हीट वेव के दुष्प्रभावों के बारे में भी आगाह करती है। यह बताती है कि भारत जलवायु संबंधी कई आपदाओं के मेल का सामना कर रहा है। इसके चलते साल भर मौसम की खराब परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। भीषण हीटवेव के चलते यह स्थिति देश की 140 करोड़ जनता में से 80 प्रतिशत जनता के सामने बड़ा खतरा पैदा कर रही है।

स्टडी में यह भी बताया गया है कि जैसे-जैसे एयर कंडीशनर और जमीन से पानी निकालने की जरूरत बढ़ रही है, वैसे-वैसे भारत की पावर ग्रिड पर ऊर्जा की मांग का दबाव भी बढ़ता जा रहा है।

बढ़ते तापमान की वजह से एयर कंडीशनर, पानी के पंप जैसे उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ा है। इसके चलते बिजली की जरूरत बढ़ी है और इसका असर उन उद्योगों पर पड़ता है जो बिजली पर निर्भर होते हैं।

हाल ही में आई CRISIL की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले वित्त वर्ष की तुलना में इस साल भारत की ऊर्जा जरूरतों में 9.5 से 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने वाली है जो कि एक दशक में सबसे ज्यादा और पिछले 20 सालों के औसत से भी ज्यादा है।

चिताले ने मोंगाबे-इंडिया को बताया, ‘अगले वित्त वर्ष में हम बिजली की मांग में काफी बढ़ोतरी देख सकते हैं क्योंकि गर्मियां सामान्य से ज्यादा होंगी और हीटवेव की संख्या भी बढ़ेगी। पिछले दो सालों में मजबूत बढ़ोतरी के बावजूद बिजली की डिमांड में 5.5 से 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने वाली है और साल के पहले आधे हिस्से में तो यह बढ़ोतरी और भी ज्यादा होने वाली है।

हीट एक्शन प्लान क्या है?

हीट एक्शन प्लान एक नीतिगत दस्तावेज है जिसे हीटवेव के दुष्प्रभावों को समझने और उससे प्रभावी तरीके से निपटने की तैयारी की जा सके।

हीट एक्शन प्लान को सरकारी संस्थाओं की ओर से अलग-अलग स्तर पर तैयार किया जाता है और वे विस्तृत गाइड की तरह काम करती हैं। इनमें हीटवेव की घटनाओं के बारे में समझने, उनसे उबरने और उनसे निपटने संबंधी तैयारियां करने में मदद मिलती है।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (CPR) में असोसिएट फेलो और हीट एक्शन प्लान के बारे में सीपीआर की रिपोर्ट के सहलेखक आदित्य वलीनाथन पिल्लई ने मोंगाबे इंडिया को बताया, ‘हीट एक्शन प्लान सलाह देने वाले एक ऐसा दस्तावेज है जिसे राज्य या स्थानीय सरकारों द्वारा तैयार किया जाता है। इनमें यह बताया जाता है कि हीटवेव के लिए कैसी तैयारियां की जानी चाहिए, हीटवेव की घोषणा किए जाने के बाद क्या किया जाना चाहिए। साथ ही, इनमें आपात स्थिति से निपटने के उपाय बताए जाते हैं और हीटवेव के अनुभवों से सीखने की सलाह दी जाती है ताकि हीटवेव एक्शन प्लान को बेहतर बनाया जा सके।’

हाल ही में और भी हीटवेव एक्शन प्लान में यह कोशिश की गई है कि हीटवेव की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सके।

इन प्लान का प्राथमिक उद्देश्य संवेदनशील जनसंख्या को सुरक्षित रखना और स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक मदद सूचनाओं और मूलभूत सुविधाओं जैसे संसाधनों को निर्देशित करना होता है, ताकि भीषण गर्मी की स्थितियों में सबसे ज्यादा खतरा झेलने वालों को बचाया जा सके।

पिल्लई आगे कहते हैं, ‘ये प्लान अलग-अलग सेक्टर से जुड़े होते हैं। उन्हें लागू करने के लिए जरूरी होता है कि कई अलग-अलग सरकारी विभाग हीटवेव शुरू होने से पहले से ही काम करें। इनका मुख्य मकसद होता है कि भीषण गर्मी की परिस्थितियों में किसी की भी जान न जाए। हाल ही में और भी हीटवेव एक्शन प्लान में यह कोशिश की गई है कि हीटवेव की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान को कम किया जा सके।’

भारत की केंद्र सरकार हीटवेव से प्रभावित 23 राज्यों के और 130 शहरों और जिलों के साथ मिलकर देशभर में हीट एक्शन प्लान लागू करने का काम कर रही है। पहला हीट एक्शन प्लान साल 2013 में अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने लॉन्च किया था और आगे चलकर इस क्षेत्र में यही टेम्पलेट बन गया।

हीट एक्शन प्लान अहम भूमिका निभाते हैं ताकि व्यक्तिगत और समुदाय के स्तर पर जागरूकता फैलाई जा सके और हीटवेव की स्थिति में लोगों को सुरक्षित रखने के लिए सही सलाह दी सके। इसमें, कम समय और ज्यादा समय के एक्शन का संतुलन रखा जाता है।

कम समय वाले हीट एक्शन प्लान प्राथमिक तौर पर हीटवेव के प्रति तात्कालिक उपाय देते हैं और भीषण गर्मी की स्थिति में त्वरित राहत दिलाते हैं। इनमें आमतौर पर स्वास्थ सहायता, जन जागरूकता अभियान, कूल शेल्टर और दफ्तर या स्कूल के समय में बदलाव जैसे उपाय शामिल होते हैं ताकि लोग कम गर्मी के संपर्क में आएं। वहीं, दूसरी तरफ लंबे समय वाले हीट एक्शन प्लान सतत रणनीतियों पर जोर देते हैं जिनका असर एक हीटवेव सीजन से आगे भी होता है। ये प्लान गर्मी के खतरों की अहम वजहों का खात्मा करने और भविष्य में आने वाले हीट वेव के प्रति तैयारियों पर जोर देते हैं। 

इन हीट एक्शन प्लान में हीटवेव चेतावनी सिस्टम को भी शामिल किया जाता है ताकि संवेदनशील जनता तक समय से अलर्ट पहुंच सके। वे अलग-अलग सरकारी विभागों के बीच समन्वय करते हैं, सेहत से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के प्रयास करते हैं, काम के घंटों में बदलाव करते हैं और व्यावहारिक बदलाव के लिए रणनीतियां लागू करते हैं। हीट एक्शन प्लान में आधारभूत ढांचों में निवेश, जलवायु के प्रति लचीली खेती और सतत शहरी योजनाएं लागू करने, ग्रीन कॉरिडोर बनाने और ठंडी छतें बनाने जैसे उपायों पर भी जोर देते हैं।

हीट एक्शन प्लान के तहत कम और ज्यादा समय के उपाय लागू करने के साथ ही सरकारें इंसानों के जीवन और अर्थव्यवस्था पर हीटवेव के असर को कम कर सकती हैं। हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन एक्शन प्लान को कहां तक लागू किया जा रहा है।

कितने प्रभावी हैं मौजूदा हीट एक्शन प्लान?

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने एक विस्तृत मूल्यांकन किया है जिसमें 18 राज्यों को 37 हीट एक्शन प्लान का विश्लेषण किया गया है। इसमें स्वास्थ्य से जुड़े खतरों और संवेदनशील जनसंख्या के साथ-साथ कृषि पर इसके असर के बारे में पता चला है। सीपीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि हीटवेव की समस्याओं से निपटने और इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए हीट एक्शन प्लान को प्रभावी बनाने की जरूरत है।

इस रिपोर्ट में सामने आया है कि इनमें से कुछ प्लान में कई खामियां हैं जो दिखाती हैं स्थानीय स्तर पर इनका ख्याल नहीं रखा जाता है, फंडिंग कम मिलती है और संवेदनशील समूहों की टारगेटिंग खराब होती है। साल 2023 के शुरुआती महीनों में आई हीटेवव ने इसकी खराब परिस्थितियों के प्रति भारत की तैयारियों की ओर ध्यान खींचा था।

पिल्लई के मुताबिक, ‘हमने कुल 37 हीट एक्शन प्लान का विश्लेषण किया है इन सभी में ऐसी कमियां मिली हैं जिनकी वजह से इनका असर कम होता है। उदाहरण के लिए, सिर्फ दो प्लान ऐसे थे जिनमें संवेनदशीलता का आकलन किया जाता है जबकि हीटवेव को सहने में अक्षम लोगों की मदद करने और उनकी पहचान करने के लिए यह सबसे जरूरी चीज है।’

वह आगे कहते हैं, ‘यह भी चिंताजनक बात है कि 37 प्लान में से सिर्फ 3 ही ऐसे थे जिनके तहत सुझाए गए उपायों के लिए फंडिंग मिल पाई। यह चिंताजनक इसलिए क्योंकि ज्यादातर हीट एक्शन प्लान में मूलभूत ढांचों में बदलाव, सिटी प्लानिंग और इमारतों को लेकर महंगे सुझाव दिए गए थे।’

हाल में आई हीटवेव के प्रति भारत के हीट एक्शन प्लान की अनुकूलता कितनी प्रभावी है इसका आकलन अभी तक किया जा रहा है। साथ ही, कड़ी से कड़ी जोड़ने वाले सबूत जुटाए जा रहे हैं जो इन्हें लागू करने और इनके प्रभावों से जुड़े अलग-अलग स्तर के सुझाव देते हैं।

पिल्लई के मुताबिक, ‘इन प्लान का असर करने के लिए इनका विस्तृत अध्ययन और मूल्यांकन किए जाने की जरूरत है। फिलहाल, बहुत कम डेटा उपलब्ध है जिससे यह समझा जा सके कि ऐसे कौन से हीट एक्शन प्लान हैं जो प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं और हीटवेव की वजह से आने वाली चुनौतियों का सही समाधान दे पा रहे हैं.’

हीट एक्शन प्लान को लागू करने से संबंधी और इसके लागू करने से पहले और बाद के किसी भी कारण से होने वाली मृत्यु की दर के बारे में अध्ययन करने की जरूरत है।

वह इस बात पर भी जो देते हैं कि हीट एक्शन प्लान को लागू करने से संबंधी और इसके लागू करने से पहले और बाद के किसी भी कारण से होने वाली मृत्यु की दर के बारे में अध्ययन करने की जरूरत है। ऐसी स्टडी से पता चल सकता है कि ये प्लान कितने प्रभावी हैं और गर्मी की वजह से होने वाली मौतों को ये कितना कम कर पा रही हैं। पिल्लई आगे कहते हैं, ‘कई क्षेत्रों, राज्यों और स्थानीय सरकारों में हीट एक्शन प्लान के काफी नया होने की वजह से इनके बारे में विस्तार से से नहीं समझा जा सका है कि ये प्लान कैसे काम करते हैं और वे कुल मिलाकर कितने प्रभावी होते हैं।’

हीट एक्शन प्लान के मौजूदा प्रभावों को सुनिश्चित करने के लिए उनके विस्तार और शहरों और राज्यों में उन्हें लागू किए जाने की मॉनीटरिंग जरूरी है। इन हीट एक्शन प्लान का असर और प्रभाव समझने के लिए कठोर मूल्यांकन वाली स्टडी की जरूरत है ताकि यह समझा जा सके कि भीषण गर्मी की स्थितियों के समय आने वाली चुनौतियों के प्रति ये कितनी असरदार हैं। इससे नीति निर्माताओं और अन्य हिस्सेदारों को अहम जानकारी मिलेगी जिससे वे हीट एक्शन प्लान को सुधारकर उसे और बेहतर बना सकेंगे, ताकि भारत में हीटवेव के असर को कम से कम किया जा सके।

क्या प्रभावी बनाए जा सकते हैं हीट एक्शन प्लान?

इस सवाल का जवाब देते हुए पिल्लई कई प्रयासों को सूचीबद्ध करते हैं ताकि अलग-अलग चुनौतियों को हल करने के लिए कई रास्ते अपनाए जाएं और हीटवेव के खिलाफ इन्हें प्रभावी बनाया जा सके। वह कहते हैं कि पर्याप्त फंडिंग, एक कानूनी आधार बनाने और जिम्मेदारी तय करने, भागीदीरी को बढ़ावा देने और हीट एक्शन प्लान के बारे में दूरगामी सोच लेकर चलने से इन्हें मजबूत किया जा सकता है।

वह आगे कहते हैं कि हीट एक्शन प्लान को सफलतापूर्वक लागू करने और उनके तहत सुझाए गए सुझावों को अपनाने के लिए पर्याप्त फंड जारी किए जाने की जरूरत है। इसके बाद हीट एक्शन प्लान को लेकर कानूनी अनिवार्यता करने से इनके कार्यन्यवन, प्रभाव और असर की मॉनिटरिंग की जा सकेगी। साथ ही, संवेदनशील समूहों और हिस्सेदारों को शामिल करने जैसे समीक्षा के तरीकों से पारदर्शिता और जिम्मेदारी को सुनिश्चित किया जा सकता है।

हीट एक्शन प्लान के विकास और उनको फिर से जांचने में प्रभावित होने वाले लोगों के समूहों और हिस्सेदार समुदायों के इनपुट और उनका निर्देशन लेने से ज्यादा भागीदारी वाला और समावेशी दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।

हीट एक्शन प्लान में लंबे समय की जलवायु के अनुमानों को और हीटवेव की चुनौतियों का हल निकालने वाले मॉडल को शामिल किया जाना चाहिए। पिल्लई आगे कहते हैं कि मौजूदा समय के साथ-साथ भविष्य की योजनाएं तय करना जरूरी है ताकि बढ़ते तापमान के साथ बढ़ती चुनौतियों को कम किया जा सके।

यह आलेख मूलरूप से मोंगाबे पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

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व्यापक यौनिकता शिक्षा – मनोरंजन और मीडिया एक पूरक है, विकल्प नहीं

व्यापक यौनिकता शिक्षा किशोरावस्था के विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो दृष्टिकोण, व्यवहार, और समग्र विकास को प्रभावित करती है। समाज में बदलाव के साथ युवाओं के लिए यौनिकता शिक्षा का परिदृश्य भी बदल रहा है। परम्परागत रूप से यौनिकता के बारे में ज्ञान प्रदान करने की प्राथमिक विधि के रूप में औपचारिक स्कूली शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, डिजिटल युग के आगमन के साथ मनोरंजन और मीडिया युवाओं की धारणाओं और दृष्टिकोण को आकार देने में एक शक्तिशाली और प्रभावशाली साधन के रूप में उभरा है।

बदलाव को नकारा नहीं जा सकता है – युवा यौनिकता के बारे में अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए तेज़ी से ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, टीवी शो, फ़िल्मों, और सोशल मीडिया की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं। इस प्रतिमान बदलाव को पहचानते हुए व्यापक यौनिकता शिक्षा और संवेदनशीलता प्रदान करने के साधन के रूप में मनोरंजन और मीडिया का उपयोग करने की क्षमता का पता लगाना अनिवार्य हो जाता है।

मनोरंजन और मीडिया का आकर्षण जानकारी को ऐसे तरीक़े से प्रस्तुत करने की क्षमता में निहित है जो न केवल सुलभ हो बल्कि युवा दर्शकों के लिए प्रासंगिक भी हो। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत, जो सामाजिक वर्जनाओं या संस्थागत सीमाओं से बाधित हो सकती है, मनोरंजन और मीडिया में यौनिकता को उसकी सभी जटिलताओं में संबोधित करने,और रिश्तों और अनुभवों की गहरी समझ को बढ़ावा देने की स्वतंत्रता है। मनोरंजन और मीडिया ऐसा साधन बन जाता है जहां कथाएं सामने आ सकती हैं, बातचीत शुरू हो सकती है, और जानकारी को इस तरह से प्रसारित किया जा सकता है ताकि उन दर्शकों का ध्यान आकर्षित हो सके जो सक्रिय रूप से ऐसी सामग्री की तलाश करते हैं जो उनके जीवन के अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हो।

यह बदलाव चुनौतियों से रहित नहीं है। ज्ञान की तलाश में किशोरों को अनजाने में अविश्वसनीय स्रोतों से ग़लत सूचना का सामना करना पड़ सकता है, ख़ासकर इंटरनेट के विशाल विस्तार में। इससे उनकी मान्यताओं, उनके व्यवहारों और समग्र कल्याण पर ऐसी ग़लत सूचना के संभावित प्रभाव के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं। नतीजतन, यौनिकता शिक्षा में शोधकर्ताओं को इन स्रोतों से उत्पन्न होने वाली ग़लत सूचना के नुकसान से निपटने के साथ-साथ मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का दोहन करने की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ता है।

इस लेख में हम व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने की जटिल गतिशीलता, इसके द्वारा प्रस्तुत अवसरों और समवर्ती चुनौतियों की जांच करेंगे, जो युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा की समग्र और सटीक समझ सुनिश्चित करने के लिए रणनीतिक हस्तक्षेप की मांग करते हैं।

मनोरंजन और मीडियाएक दोहरी धार वाली तलवार

युवा सक्रिय रूप से मनोरंजन-मीडिया की तलाश करते हैं क्योंकि यह आकर्षक तरीके से जानकारी प्रदान करता है। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत मनोरंजन और मीडिया में वर्जित विषयों को संबोधित करने, कहानी के माध्यम से ध्यान खींचने, और जानकारी को इस तरह से प्रस्तुत करने की क्षमता है जो उसके दर्शकों के साथ जुड़ती है। स्कूलों में औपचारिक यौनिकता शिक्षा से जुड़ी सीमाओं और चुनौतियों को देखते हुए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।

युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया पर बढ़ती निर्भरता कई चुनौतियाँ सामने लाती है। एक प्राथमिक चिंता ग़लत सूचना एवं रिश्तों और यौनिकता के अवास्तविक चित्रण की संभावना है। इंटरनेट, विशेष रूप से, सामग्री के एक विशाल भंडार के रूप में कार्य करता है जो गुणवत्ता, सटीकता और उपयुक्तता में व्यापक रूप से भिन्न होता है। युवा खोज करने और सीखने की उत्सुकता में भ्रामक जानकारी पर ठोकर खा सकते हैं, और सहमति, सुरक्षित यौन प्रथाओं, और रिश्तों की जटिलताओं जैसे विषयों के बारे में मिथकों को क़ायम रख सकते हैं।

हमारे अनुभव में भारत-नेपाल सीमा के पास बसे बहराइच जनपद के एक ग्रामीण समुदाय मिहींपुरवा की किशोरी सोनी (काल्पनिक नाम) के साथ सत्र के दौरान हमको यह पता चला कि कैसे किशोरियां यौनिकता के बारे में जानकारी के लिए इंटरनेट स्रोतों पर भरोसा करती हैं। हालांकि आगे के सत्रों में यह देखा गया कि कुछ ऑनलाइन सामग्री में ग़लत सूचना और अवास्तविक चित्रण ने सहमति, सुरक्षित यौन सम्बन्ध, और रिश्तों में संचार के महत्व के बारे में ग़लत धारणाओं को बढ़ावा दे दिया है। यह मनोरंजन और मीडिया में प्रस्तुत जानकारी का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

स्कूल की कक्षा में बैठे कुछ बच्चे_यौन शिक्षा
समाज में बदलाव के साथ युवाओं के लिए यौनिकता शिक्षा का परिदृश्य भी बदल रहा है। | चित्र साभार: अनस्प्लैश

इसके अलावा, इन ऑनलाइन मंचो के इस्तेमाल करने में मार्गदर्शन की कमी हानिकारक रूढ़िवादिता और अवास्तविक अपेक्षाओं को सुदृढ़ करने में योगदान कर रही है। युवा अनजाने में ग़लत मंचो से अपनी समझ विकसित करते हैं, जिससे उनके आत्म-सम्मान, शरीर की छवि, और एक स्वस्थ रिश्ते का गठन करने वाली धारणाओं पर असर पड़ सकता है। अनुचित सामग्री के संपर्क में आने का जोखिम चुनौतियों को और बढ़ा देता है, जिससे संभावित रूप से यौनिकता की ग़लत समझ विकसित हो सकती है।

व्यापक यौनिकता शिक्षा को ट्रैक पर रखने के लिए क्या किया जा सकता है?

इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें शोधकर्ताओं, मनोरंजन निर्माता, सहकर्मी शिक्षकों, और समुदायों का सहयोग शामिल हो। एक महत्वपूर्ण क़दम सहकर्मी शिक्षकों और मनोरंजन निर्माताओं के बीच साझेदारी की स्थापना भी है। एक साथ काम करके, ये हितधारक के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर सकते हैं जो न केवल आकर्षक हो बल्कि सटीक, ज़िम्मेदार, और किशोरों के अनुभवों की विविध वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने वाली हो। किशोरों की यौनिकता की समझ पर मनोरंजन मीडिया के प्रभाव को समझते हुए समुदायों के साथ काम कर रहे सहकर्मी शिक्षक मनोरंजन निर्माताओं को एक गहन और सही दृष्टिकोण भी प्रदान कर सकते हैं।

युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

हमें मीडिया साक्षरता कार्यक्रम भी लागू करना चाहिए जो समाधान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलु है। किशोरों में भ्रामक स्रोतों और विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने के लिए कौशल विकसित करने की आवश्यकता है। ये कार्यक्रम युवाओं को उनके सामने आने वाली सामग्री पर सवाल उठाने, उसकी विश्वसनीयता का मूल्यांकन करने, और यौनिकता की उनकी समझ में शामिल जानकारी के बारे में सूचित निर्णय लेने के लिए सशक्त बना सकते हैं।

संभावित रूप से भ्रामक जानकारी के संपर्क में आने से युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये शिक्षक खुली चर्चा के लिए सुरक्षित स्थान बना सकते हैं, मिथकों को दूर कर सकते हैं, और सटीक जानकारी प्रदान कर सकते हैं।

उन समुदायों में, जहां औपचारिक यौनिकता शिक्षा तक पहुंच सीमित हो, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यौनिकता शिक्षा की शैक्षिक सामग्रियों में स्थानीय रीति-रिवाज़ों और मूल्यों का एकीकरण शामिल हो सकता है। इसके अलावा, युवाओं की सोच और कौशल को सशक्त बनाने के लिए मंच, कार्यशालाएं, और सत्र आयोजित किए जा सकते हैं, जिससे वे भ्रामक स्रोतों से विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने में सक्षम हो सकें।

व्यापक यौनिकता के बारे में जानकारी देने लिए समुदायों के विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों का इस्तेमाल कर के शैक्षिक पाठ्यक्रम को तैयार करना चाहिए, जो मनोरंजक होने के साथ यह भी सुनिश्चित करता हो की वह स्थानीय आबादी के साथ मेल खाती है, और अधिक समावेशी और प्रभावी शिक्षण अनुभव को बढ़ावा देती है।

अंततः स्कूली शिक्षा के भीतर व्यापक यौनिकता शिक्षा को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है। जबकि मनोरंजन और मीडिया एक मूल्यवान पूरक हो सकता है, औपचारिक शिक्षा शारीरिक रचना, सहमति, संचार, और रिश्तों सहित यौनिकता के विभिन्न पहलुओं को व्यवस्थित रूप से संबोधित करने के लिए एक संरचित मंच प्रदान करती है। व्यापक यौनिकता शिक्षा को पाठ्यक्रम में एकीकृत करके, स्कूल सटीक जानकारी को सुदृढ़ कर, प्रदान कर सकते हैं।

मनोरंजन और मीडिया एक पूरक है, विकल्प नहीं

निष्कर्ष में हम यह देखते हैं कि व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया का उपयोग युवाओं तक प्रभावी ढंग से पहुंचने का एक आशाजनक अवसर प्रदान करता है। हालांकि यह चुनौतियों के साथ आता है और उन्हें सटीक सूचना प्रसार सुनिश्चित करने के लिए संबोधित किया जाना चाहिए। व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने में चुनौतियाँ मौजूद हैं पर रणनीतिक सहयोग, मीडिया साक्षरता पहल, और समुदाय-केंद्रित शिक्षा प्रयास इन चुनौतियों को सकारात्मक प्रभाव के अवसरों में बदल सकते हैं।

यह दृष्टिकोण जागरूक और सशक्त पीढ़ी के निर्माण में योगदान दे सकता है जो अपने रिश्तों और यौन जीवन में जिम्मेदार विकल्प चुनने में सक्षम होंगे। विचारशील हस्तक्षेपों के साथ डिजिटल युग की जटिलताओं को दूर करके, हम युवाओ को सटीक जानकारी के साथ सशक्त बनाने के लिए मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का उपयोग कर सकते हैं, और यौनिकता के बारे में समावेशी और ज़िम्मेदार ज्ञान पंहुचा सकते हैं।

यह आलेख मूलरूप से इनप्लेनस्पीक पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं। 

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क्यों भारत को किशोर लड़कियों के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश करना चाहिए?

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में किशोरों की संख्या 25.3 करोड़ है और इनमें 47% लड़कियां हैं। किशोरावस्था वाली तमाम लड़कियां एनीमिया की शिकार होने के अत्यधिक जोखिम के अलावा, यौन स्वास्थ्य को लेकर बेहद कम जागरूकता, कुपोषण और मानसिक स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से भी जूझ रही हैं। उनके स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ने की संभावना तो ज्यादा रहती ही है, साथ ही घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।

आखिर भारत में किशोरियों के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश करना इतना महत्वपूर्ण क्यों है। राज्यों की विशिष्ट जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वित्तपोषण में अंतर को पाटने के साथ ही आधारभूत कौशल और डिजिटल साक्षरता पर ध्यान केंद्रित करके बजट में भारतीय किशोरों के समग्र विकास की एक मजबूत नींव रखी जा सकती है। इससे उन्हें उत्पादक और डिजिटली-सक्षम भविष्य के लिए तैयार किया जा सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के मुताबिक 10 से 19 के बीच की उम्र को किशोरावस्था माना जाता है जो मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विकास के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण उम्र होती है।

भारत में किशोर विकास से जुड़ी नीतियां तैयार करते वक्त उन्हें जनसांख्यिकी के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिहाज से मूल्यों, सिद्धांतों और उद्देश्यों की व्यापक कसौटी पर परखा जाता है। इन नीतियों को तैयार करने में शिक्षा, महिला एवं बाल विकास, युवा एवं खेल मामले, और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण जैसे विभिन्न मंत्रालय अहम भूमिका निभाते हैं।

किशोर समूह से जुड़ी प्रमुख नीतियों में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम या आरकेएसकेराष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017, राष्ट्रीय युवा नीति, 2033 एवं 2014 और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति, 2014 आदि शामिल हैं। इनमें जहां अपने कुछ खास लक्ष्य हैं, तो कुछ परस्पर जुड़े लक्ष्य भी निहित हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 और हालिया राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 भी हैं जो पूरी तरह किशोरों पर केंद्रित तो नहीं हैं लेकिन इसके कुछ पहलू इस आयु वर्ग के लिए मायने रखते हैं।

स्वास्थ्य और किशोरियां

2019-2021 में किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, देश में 10-19 उम्र की हर पांच किशोरियों में से तीन एनीमिया की शिकार हैं जबकि लड़कों के मामले में यह आंकड़ा 28% है। ये आंकड़ा लड़कियों के मामले में एक खास स्वास्थ्य चुनौती को दिखाता नजर आता है, जो आगे चलकर गंभीर स्वास्थ्य समस्या की वजह बन सकती है और उनकी सोचने समझने का शक्ति और शारीरिक विकास में रुकावट डाल सकती है।

इंडियास्पेंड की अक्टूबर 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया के कारण ‘सिर्फ व्यक्ति विशेष की ही नहीं बल्कि पूरी आबादी की कार्य क्षमता घटती है और इसका गंभीर आर्थिक प्रभाव देश के विकास को भी बाधित कर देता है।’ जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन में प्रकाशित 2002 के एक अध्ययन की मानें तो एनीमिया के कारण भारी शारीरिक श्रम करने वाले श्रमिकों की उत्पादकता 17% घटी है, वहीं मध्यम सक्रियता वाले श्रमिकों के उत्पादन में 5% की गिरावट आई है।

किशोर लड़कियों का समूह-किशोरी स्वास्थ्य
किशोरावस्था मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विकास के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण उम्र होती है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दे भी चर्चा के महत्वपूर्ण बिंदु बने हुए हैं, जिनमें कम उम्र में गर्भधारण और प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता का अभाव चिंता का बड़ा कारण हैं। हालांकि 15-19 की उम्र में प्रति 1,000 महिलाओं पर आयु-विशिष्ट प्रजनन दर एनएफएचएस-4 (2015-16) के दौरान 51 से घटकर एनएफएचएस-5 में 43 हो गई। यूएनएफपीए की रिपोर्ट के मुताबिक, फिर भी वैश्विक स्तर पर पर हर सात अनपेक्षित गर्भधारण में से एक भारत में होता है। वहीं, एनएफएचएस-5 से यह भी पता चलता है कि 15 से 19 की उम्र की 6.8% किशोरियां बच्चों को जन्म दे रही हैं।

इस उम्र में पोषण की कमी के चलते बौनेपन और कम वजन की समस्याएं भी नजर आती हैं। एनएफएचएस-4 के मुताबिक, स्कूल जाने वाली 41.9% से अधिक लड़कियों का वजन औसत से कम है। ये समस्या बिहार, झारखंड और गुजरात जैसे कुछ राज्यों में अधिक स्पष्ट दिखाई देती है, जो क्षेत्रीय स्तर पर पोषण संबंधी असमानता का संकेत है।

नए मिशन पोषण 2.0 के तहत किशोरियों की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने पर जोर दिया गया है। पिछली योजना में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को शामिल किया गया था। वहीं पोषण 2.0 में आकांक्षी जिलों की 14-18 वर्ष की सभी लड़कियां को शामिल किया गया है।

एनएफएचएस सर्वे मासिक धर्म स्वास्थ्य की स्थिति भी दर्शाता है, जिसमें मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले स्वच्छता उत्पादों के इस्तेमाल में अच्छी-खासी बढ़ोतरी नजर आती है। अब 15-19 वर्ष आयु वर्ग की 78% लड़कियां इन उत्पादों का इस्तेमाल कर रही हैं, जबकि 2015-16 में यह आंकड़ा 58% ही था। हालांकि, सभी लड़कियों तक मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पाद की उपलब्धता और उन्हें शिक्षा मिल सके, यह सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयास किए जाने की जरूरत बताई गई है।

मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ना भी किशोर स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है।

मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ना भी किशोर स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी स्थितियों में से आधी की शुरुआत 14 वर्ष की उम्र में होती है, और 15 से 19 साल के बच्चों की मौत का एक प्रमुख कारण उनका खुद को नुकसान पहुंचाना ही है। भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 में पाया गया कि 13-17 वर्ष की आयु के किशोरों में मानसिक विकार के शिकार होने का जोखिम करीब 7.3% था और लड़कों की तुलना में लड़कियों के तनाव के शिकार होने की घटनाएं ज्यादा पाई गईं। भारत में किशोर कल्याण पर यूनिसेफ की 2019 की रिपोर्ट मानसिक स्वास्थ्य (किशोरों में अवसाद और चिंता के मामले) की बढ़ती समस्या को रेखांकित करती है और इस दिशा में लक्षित प्रयासों की जरूरत बताती है।

आरकेएसके और पोषण 2.0 जैसे कार्यक्रमों का असरदार होना और सबको इसका फायदा मिले, यह पूरी तरह इस पर बात पर निर्भर करता है कि इसके लिए वित्तीय संसाधन कितने मजबूत हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम किशोरों के स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन धन के कम इस्तेमाल की वजह से इसके अमल में कई तरह की बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं।

शिक्षा एवं किशोरियां

किशोरावस्था उम्र का वह दौर है जब बच्चे प्रारंभिक से माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से कैरियर की राह पर चलने की तैयारी करते हैं। लेकिन शिक्षा के सीमित अवसर लड़कियों की भविष्य की संभावनाओं पर अच्छा खासा असर डालते हैं। भारत सहित आठ देशों में किए गए 2020 के एक शोध अध्ययन के मुताबिक, सार्वभौमिक माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के लिए प्रति लड़की प्रति दिन 1.53 डॉलर का निवेश, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को औसतन 10% तक बढ़ाने में मदद कर सकता है।

मौजूदा समय में भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर (फ़ीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट – एफएलपीआर) 37% है। यह दर जी-20 देशों में सबसे कम में से एक है। जहां एक तरफ लड़कियों का उच्च शिक्षा न मिल पाना महिला श्रम बल भागीदारी दर के बढ़ने का एक कारण है, वहीं दूसरी ओर पर्याप्त ज्ञान, कौशल और शिक्षा की कमी भी महिलाओं को कुशल कार्यबल का हिस्सा बनने से रोक रही है।

14-18 साल की उम्र में ही लड़कियां माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से अपने कैरियर की ओर रुख करती हैं। कह सकते हैं कि ये उम्र उनके आगे के जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में पर्याप्त सुधार हुआ है। यह दर 2012-13 में 43.9 फीसद थी, जो 2021-22 में बढ़कर 48 फीसद पर पहुंच गई। लेकिन बड़ी संख्या में किशोर लड़कियां अभी भी स्कूल से बाहर हैं। शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली के मुताबिक, 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर 1.35% है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढ़कर 12.25% हो गई, जबकि किशोर लड़कों के लिए यह आंकड़ा 12.96% है। कोविड-19 महामारी ने भारत की किशोरियों की सीखने की क्षमता पर गहरा असर डाला है। एएसईआर 2023 ‘बियॉन्ड बेसिक्स’ सर्वे बताता है कि 14-18 वर्ष की उम्र की 24% लड़कियां दूसरी कक्षा की किताबें भी ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाती हैं।

महामारी के दौरान स्कूलों को वर्चुअल मोड में बदल दिया गया था। इसने उन छात्रों की शिक्षा को सबसे अधिक प्रभावित किया जिनके पास डिजिटल उपकरणों तक पहुंच नहीं थी या सीमित थी। असर (एएसईआर) सर्वे में किशोर युवाओं के बीच लैंगिक असमानता का भी पता चलता है। जो लोग स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर सकते हैं, उनमें से 43% छात्रों के पास अपने खुद के फोन थे, जबकि छात्राओं के लिए ये आंकड़ा 19% था।

पर्याप्त ज्ञान, कौशल और शिक्षा की कमी भी महिलाओं को कुशल कार्यबल का हिस्सा बनने से रोक रही है।

बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल सके, इसके लिए सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की मौजूदगी बेहद मायने रखती है। लेकिन यहां भी आंकड़े बताते हैं कि स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 2022-23 में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पदों में से माध्यमिक स्तर पर 15% और उच्च माध्यमिक स्तर पर 19% पद खाली हैं।

क्योंकि माध्यमिक स्तर पर शिक्षा मुफ्त नहीं है, इसलिए माता-पिता अपनी बेटियों की तुलना में अपने बेटों को पढ़ाने के ज्यादा इच्छुक रहते हैं। उन्हें बेटियों की बजाए बेटों पर खर्च करना ज्यादा उचित लगता है। ऐसे में कम शुल्क लेने वाले सरकारी स्कूल अप्रत्यक्ष रूप से माध्यमिक स्तर पर लड़कियों को अधिक बढ़ावा देने वाले साबित होते हैं। जाहिर सी बात है, किशोरियों के लिए माध्यमिक शिक्षा के लिए सरकार की तरफ से दी जाने वाली आर्थिक मदद बेहद महत्वपूर्ण है।

इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2018 में ‘नन्ही कली’ की ओर से जारी ‘टीन एज गर्ल्स’ रिपोर्ट के आधार पर बताया था ‘स्कूल में बिताया गया एक अतिरिक्त साल एक लड़की द्वारा अर्जित आय में कम से कम 10% -20% से वृद्धि करता है। माध्यमिक शिक्षा पर रिटर्न 15%-25% तक है।’ ‘नन्ही कली’ किशोर लड़कियों के साथ काम करने वाली एक संस्था नन्दी फाउंडेशन का एक प्रोजेक्ट था।

ग्रामीण इलाकों में सर्वे में शामिल सिर्फ 18.6% लड़कियों ने कहा कि उनके समुदाय के लड़के उतना ही घरेलू काम करते हैं जितना कि वे करती हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में ऐसा कहने वाली लड़कियों का आंकड़ा 23.8% रहा। घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।

माध्यमिक शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कुल सार्वजनिक व्यय पिछले पांच सालों से सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1% पर स्थिर है और केंद्र सरकार का हिस्सा समय के साथ घट रहा है। सीबीजीए-क्राई अध्ययन का अनुमान है कि 15-19 वर्ष की उम्र की सभी योग्य लड़कियों को सार्वभौमिक गुणवत्ता वाली माध्यमिक शिक्षा मिल पाए इसके लिए सकल घरेलू उत्पाद का 0.2% – 0.3% अतिरिक्त चाहिए होगा।

2022 में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को फिर से नामांकित करने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग के साथ मिलकर कन्या शिक्षा प्रवेश उत्सव नाम से ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत एक विशेष अभियान शुरू किया था। सरकार ने जुलाई 2023 में लोकसभा को बताया कि 2022-23 में, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत केंद्र सरकार ने 90 करोड़ रुपये जारी किए थे। 2020-21 और 2021-22 में यह आंकड़े क्रमशः 53 करोड़ रुपये और 57 करोड़ रुपये थे। पोर्टल के अनुसार, 2022 तक 22 राज्यों में 144,000 किशोर लड़कियों की पहचान की गई और उनमें से 100,000 को फिर से नामांकित किया गया है। हालांकि, स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या रिपोर्ट की गई संख्या से अधिक होगी क्योंकि प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड ऑफ समग्र शिक्षा अभियान की बैठक के मिनट्स से पता चलता है कि कई राज्यों ने अभी तक प्रबंध पोर्टल पर डेटा अपलोड करना शुरू नहीं किया है।

यह आलेख मूलरूप से इंडिया स्पेंड पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

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क्या बेहतर उद्यमिता और रोज़गार सृजन भारत में गरीबी ख़त्म कर सकता है? 

भारत अब दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो गया है और यहां हर महीने दस लाख से अधिक नए श्रमिक कार्य-बल में शामिल होते हैं – यह स्वीडन की हर साल कार्य-बल में शामिल होने वाली पूरी जनसंख्या के बराबर है (ब्लूम एवं अन्य 2011, ग़नी 2018)। चूंकि यह स्थिति अगले दो दशकों तक जारी रहने की संभावना है, ऐसे में नौकरियों के सृजन की गति ही भविष्य में गरीबी की कमी की गति को निर्धारित करेगी।

हालांकि आर्थिक इतिहास के महान दिग्गजों ने रोज़गार सृजन और गरीबी में कमी के बीच के संबंध को पहचाना है, फिर भी अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। क्या नए और छोटे प्रतिष्ठान या बड़ी और स्थापित कम्पनियां रोज़गार सृजन में अधिक योगदान देती हैं? क्या विनिर्माण या सेवा क्षेत्र गरीबी को कम करने में अधिक योगदान देता है? क्यों कुछ शहरों में अधिक नौकरियों का सृजन होता है और वहां गरीबी तेज़ी से कम होती है?

कई शोध अध्ययनों ने उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, रोज़गार सृजन में उद्यमिता की भूमिका की जांच की है। लेकिन भारत के संदर्भ में ऐसे अनुभवजन्य साक्ष्य की बहुत कमी है। इस लेख में (ग़नी एवं अन्य 2011ए) हमने भारत के लगभग 600 जिलों में स्थित विनिर्माण और सेवा क्षेत्र, दोनों में उद्यमिता और नौकरियों के बीच सम्बन्ध की जांच की है।

भारत में उद्यमिता का आर्थिक भूगोल

यद्यपि उद्यमिता और रोज़गार सृजन के लिए भारत का आर्थिक परिवेश अभी भी विकसित हो रहा है, साक्ष्य दर्शाते हैं कि बड़े पैमाने पर नौकरियों का सृजन नए स्टार्ट-अप द्वारा किया जा रहा है, न कि बड़ी और पुरानी कम्पनियों द्वारा। दुर्भाग्य से, विकास के वर्तमान चरण को देखते हुए, भारत में नए स्टार्ट-अप की संख्या और उद्यमिता की दरें कम बनी हुई हैं (ग़नी एवं अन्य 2011बी)। तीन साल से कम पुराने उद्यमों की संख्या में समय के साथ थोड़ी बढ़ोतरी देखी गई है (डेसमेट एवं अन्य 2011), जबकि यह हर साल लाखों अपेक्षित नौकरियों के सृजन के लिए पर्याप्त नहीं है। देश के विभिन्न जिलों और राज्यों में स्टार्ट-अप के स्थानिक वितरण में भी भारी विषमताएं मौजूद हैं।

फोन पर बात करता एक व्यक्ति_रोजगार
भारत में उद्यमशीलता की क्षमता सुनिश्चित करने, नौकरियों के निर्माण और गरीबी को कम करने में योगदान देने में शहर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। | सीसी बाय: विक्टर ग्रिगॉस / सीसी बाय

कौन से क्षेत्रीय और स्थानिक लक्षण भारत में नए स्टार्ट-अप और स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा देते हैं? इसका एक सम्भावित स्पष्टीकरण निवेश और उद्यमिता पर अलग-अलग ‘रिटर्न’ का होना है। दूसरा यह है कि नए उद्यमी स्थानीय बुनियादी ढांचे, शिक्षा, जनसंख्या घनत्व, व्यापार के अंतर-संपर्क और यहां तक कि जनसांख्यिकी में अंतर के अनुसार प्रतिक्रिया करते हैं, जबकि उनके पास व्याख्या करने की शक्ति सीमित होती है। कारणों की यह सूची किसी भी तरह से सम्पूर्ण नहीं है, लेकिन यह आर्थिक गतिविधियों के एकत्रीकरण और नए स्टार्ट-अप के विकास के लोकप्रिय स्पष्टीकरणों की सूची के समानांतर है।

हमने पाया कि नए स्टार्ट-अप और उद्यमिता का अनुमान लगाने वाले दो सबसे सुसंगत कारक हैं – स्थानीय शिक्षा का स्तर और स्थानीय भौतिक बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता। यह विनिर्माण और सेवा क्षेत्र, दोनों के संदर्भ में सच है। भारत में उद्यमिता और रोज़गार सृजन की गति को धीमा करने में कारक बाज़ार और पारिवारिक बैंकिंग गुणवत्ता भी अपनी भूमिकाएं निभाते हैं। दुर्भाग्य से, भारत में कारक बाज़ार अत्यधिक बिगड़ा हुआ है। भूमि और वित्तीय बाज़ार विशेष रूप से, श्रम बाज़ारों की तुलना में अधिक विकृत हैं (ड्यूरेंटन एवं अन्य 2016)। खराब पारिवारिक बैंकिंग माहौल के साथ ही, भूमि का खराब आवंटन भी स्टार्ट-अप को, खासकर नए और छोटे उद्यमों को, हतोत्साहित करता है।

गरीबी चक्र को तोड़ने के लिए क्या किया जा सकता है?

नीति-निर्माताओं को रोज़गार सृजन और गरीबी में कमी के बीच के मज़बूत सम्बन्ध को पहचानने की ज़रूरत है। यह चिंताजनक है कि भारत में विकास के वर्तमान स्तर के अनुसार बहुत कम उद्यमी हैं। यदि भारत उद्यमियों को समर्थन देने के लिए कारक बाज़ार की विकृतियों को कम करने, भौतिक व मानव बुनियादी ढांचों दोनों को, विकसित करने और नेटवर्किंग तथा समूह अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के साथ-साथ, कुछ बुनियादी नीतिगत कदम उठाना जारी रखता है तो इन उपायों में व्यापार सृजन, नौकरी वृद्धि और गरीबी में कमी लाने की क्षमता है।

जिस गति से देश भौतिक पूंजी और भौतिक बुनियादी ढांचे को जमा कर सकते हैं, उसकी परिभाषित सीमाएं हैं, लेकिन जिस गति से मानव-बुनियादी-ढांचे और शिक्षा को बढ़ाया जा सकता है, और फिर ज्ञान में अंतर को समाप्त किया जा सकता है, उसकी सीमाएं कम स्पष्ट हैं। चूंकि शिक्षा, स्टार्ट-अप और नौकरियों के बीच मज़बूत आपसी सम्बन्ध हैं, नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे स्थानीय कॉलेजों और शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता और वृद्धि को रोकने वाली सभी बाधाओं को दूर करें।

नीति-निर्माताओं को फर्मों के पीछे लगने (अर्थात अन्य स्थानों से बड़ी परिपक्व फर्मों को आकर्षित करने) में व्यस्त रहने की बजाय अपने समुदायों में उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। छोटा भी सुंदर और दमदार होता है, इसलिए रोज़गार सृजन में ‘नए और छोटे उद्यमों’ पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। भारत के अनुभवों से पता चलता है कि नई और छोटी कम्पनियों के प्रारंभिक स्तर और उसके बाद नौकरी में वृद्धि और गरीबी में कमी के बीच एक मज़बूत आपसी सम्बन्ध है।

भारत में उद्यमशीलता की क्षमता सुनिश्चित करने, नौकरियों के निर्माण और गरीबी को कम करने में योगदान देने में शहर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि शहरों में अधिकांश नई नौकरियां सृजित करने और प्रति व्यक्ति आय में चार गुना वृद्धि लाने की क्षमता है (ग़नी एवं अन्य 2014)। ऐसे प्रतिस्पर्धी शहर जो रहने योग्य हों, जिनमें अच्छा बुनियादी ढांचा हो, ज्ञान सृजन और क्षमता निर्माण में व्यापक रूप से निवेश करते हों, अच्छी तरह से शासित हों, मज़बूत राष्ट्रीय शहरी नीति ढांचे का समर्थन करते हों और स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत सार्वजनिक और निजी भागीदारी के माध्यम से काम करते हों, उद्यमियों को भी आकर्षित करते हैं।

आर्थिक विकास के लिए उद्यमिता भी महत्वपूर्ण है। भारत में ऐतिहासिक रूप से उद्यमिता दर कम रही है, फिर भी स्थिति में सुधार हो रहा है और इस कमज़ोरी पर काबू पाना तेज़ आर्थिक और नौकरी वृद्धि के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा। भारत का आर्थिक परिवेश अभी भी विनियमन से पहले मौजूद स्थितियों को समायोजित कर रहा है और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों की तुलना में, यहां के स्थानिक परिणामों में बहुत अधिक भिन्नता मौजूद है। यह स्थानीय क्षेत्रों के समूहीकरण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं से लाभ उठाने के लिए प्रभावी नीति डिज़ाइन के महत्व को भी रेखांकित करता है। 

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यह आलेख मूलरूप से आइडिया फ़ॉर इंडिया पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

अच्छे लड़के और बेहतर मर्द बनाने की ज़िम्मेदारी आप कैसे निभा सकते हैं?

सामाजिक विकास के क्षेत्र में लैंगिक बराबरी से जुड़े मुद्दों पर होने वाले काम में पारम्परिक रूप से महिलाओं और लड़कियों को ही शामिल किया जाता रहा है। नब्बे के दशक के मध्य तक आने के बाद ही कुछ चुनिंदा गैर-सरकारी संगठनों ने लैंगिक मुद्दों को लेकर लड़कों और पुरुषों के साथ काम करना शुरू किया। इसके शुरूआती बिंदुओं में से एक था जनसंख्या नियंत्रण और प्रजनन स्वास्थ्य, जिसके अंतर्गत लड़कों और पुरुषों को कॉन्डोम का इस्तेमाल करने और अपनी गर्भवती पत्नियों के साथ स्वास्थ्य केंद्रों तक जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

इसका उद्देश्य पुरुषों को लैंगिक संवेदीकरण कार्यशालाओं के माध्यम से महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य में शामिल करना था। जल्दी ही इसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा, खासकर पत्नियों के साथ मारपीट के रूप में होने वाली हिंसा को रोकने का भी हो गया। साल 2000 के अंत तक आते-आते ‘मेन एंगेज’ जैसे कई वैश्विक मंच दक्षिण एशिया में सक्रिय हो गए और इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर ‘फोरम टु एंगेज मेन (एफईएम)’ का भी उदय हुआ। यह बहुत हाल की ही बात है जब लड़कों और पुरुषों के साथ जेंडर पर होने वाले काम में ‘मर्दानगी’ की ओर गौर करना शुरू किया गया है। हिंसा को लिंग आधारित हिंसा से परे हटकर एक अधिक व्यापक नज़रिए से देखने की कोशिश हुई है।

नारीवादी प्रयासों में मर्दों की क्या भूमिका है? यह वह प्रश्न है जिसे विकास के क्षेत्र में काम कर रहे कुछ शिक्षक स्वयं से पूछते आ रहे हैं और इसका जवाब तलाशने की कोशिश में हैं। बहुत लम्बे समय तक पुरुषों को एक विशुद्ध चुनौती की श्रेणी में रखा गया जिन्हें शराब पीने, जुआ खेलने, पत्नी को पीटने, और बच्चों पर चिल्लाने से रोका जाना चाहिए।

नब्बे के दशक के मध्य में एक नया नज़रिया उभरा जिसमें विकास क्षेत्र ने महिलाओं के साथ काम को आसान और अधिक स्थाई बनाने के लक्ष्य को पाने के लिए पुरुषों को भी हितधारक मानना शुरू किया। हमने उन प्रशिक्षकों से कुछ सवाल पूछे जो कि लड़कों के साथ और/अथवा मर्दानगी पर काम कर रहे थे: उन्हें किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? वे अपने ज़मीनी अनुभवों से मर्दानगी के बारे में क्या सीख रहे हैं? पुरुषों और मर्दानगी पर काम करने के लिए नारीवादी शिक्षण पद्धती (पेडागॉजी) कैसे खुद में फेर-बदल करती है? जैसे कि जब आप लड़कों से भरे हुए किसी कमरे में घुसते हैं तो लिंग या यौनिकता या मर्दानगी के बारे में उन्हें सिखाने का जो लक्ष्य आप सोचकर जाते हैं उसकी जगह आप खुद और उन्हें क्या सिखाने में सफल हो पाते हैं?

हमने 11 लोगों से बात की, जिनमें फैसिलिटेटर, प्रशिक्षक, फिल्म निर्माता, अकादमिक आदि शामिल थे, ताकि हम उन विभिन्न तरीकों की शिनाख्त कर पाएं जिनके द्वारा पुरुष एक नई दुनिया में; जहां महिलाएं बदल चुकी हैं, खुद को देखते और महसूस करते हैं। इससे एक बात उजागर हुई कि लैंगिक विषयों पर काम करना कितना गड़बड़ या ऐसा जिसमें सारे पहलू मिल-जुले हों, से भरा हो सकता है, और तब जब जिस लिंग को लेकर आप काम कर रहे हैं वो स्वयं ताकतवर हो।

सत्ता को क्यों छोड़ा जाए?

वाईपी फाउंडेशन के पूर्व डायरेक्टर मानक मटियानी ने इस सवाल के साथ वाईपी के समक्ष मर्दानगी के एजेंडे को रखा कि, ‘मर्दों को बिना अलगाव में डाले जेंडर के कार्यक्रम कैसे उनसे जुड़ी बात करें…’ अपनी आंखों में एक चौंध लिए वे जोड़ते हैं, ‘और इस बात के प्रति भी सचेत रहते हुए कि उनके विशेषाधिकार और मज़बूत न हो जाएं?’

यही तो पहला संकट है, क्योंकि युवा महिलाओं के साथ की जानेवाली कार्यशालाएं, सकारात्मक रूप से अपने बारे में बात करने और सशक्तीकरण जैसे पहलुओं पर केंद्रित हैं, उससे ठीक इतर युवा लड़कों के साथ किए जाने वाले सत्र उन्हें सज़ा देने जैसे लगते हैं। जैसा कि मानक कहते हैं, ‘ये सकारात्मक अनुभवों के ठीक उलट हैं’ जिनमें काफी हद तक लगता है कि लड़कों को कैद में रखा गया है और अब उन्हें बताया जाएगा कि उन्होंने क्या गलत किया है। ऐसे में लड़के इस तरह के सत्रों/ मंचों का हिस्सा बनेगें ही क्यों?

‘लाख टके का सवाल यह है कि इससे (जेंडर के बारे में सीखने से) मुझे बदले में क्या मिलेगा, क्योंकि एक चीज़ जिससे हम सभी जूझते हैं कि पुरुषों को अपने विशेषाधिकार छोड़ने होंगे। अगर मैं अपने सभी विशेषाधिकार छोड़ दूं, जिनका फायदा मैं वर्षों से उठाता आ रहा हूं, तो मुझे बदले में क्या मिलेगा? वे कौन से व्यक्तिगत लाभ होंगे जो मुझे मिलेंगे?’ मुम्बई स्थित मेन अगेंस्ट वायलेंस एंड एब्यूज़ (मावा) के सचिव और मुख्य कर्ताधर्ता हरीश सदानी कहते हैं।

सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (सीएचएसजे) के प्रबंध संरक्षक अभिजीत दास, जिन्हें मर्दानगी के क्षेत्र में बीते तीन दशकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के ज़रिए हुए हस्तक्षेपों का अनुभव है, तर्क देते हैं कि मर्दानगी की पैरवी करने वालों के लिए  ‘लैंगिक समानता’ इकलौता लक्ष्य नहीं हो सकता। पहला, वे इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि अधिकांश बार महिलाओं के साथ किये जाने वाले कार्यक्रमों में अक्सर सिर्फ उनके हाशियाकरण या उनकी उपेक्षा पर ध्यान दिया जाता है, इसके मुकाबले पुरुषों के साथ काम करने के दौरान हमेशा यह समझा जाता है कि वे अपने विशेषाधिकारों के साथ आएंगे। मर्दानगी पर विकास क्षेत्र के द्वारा किए जाने वाले काम विशुद्ध रूप से गरीबी-आधारित कार्यक्रम मालूम पड़ते हैं जो कि ग्रामीण इलाके और/अथवा वंचित जाति/वर्ग से आने वाले पुरुषों से जुड़ा है। ऐसे में इन पुरुषों के पास जेंडर संबंधी विशेषाधिकार तो हैं लेकिन दूसरी ओर ये रोज़ाना जाति और/अथवा वर्ग के कारण दमन का शिकार होते हैं (वैसे, यह स्थिति तब अलग होती जब विकास क्षेत्र के यह कार्यक्रम सवर्ण, उच्च-वर्गीय सिस-विषमलैंगिक पुरुषों के साथ चल रहे होते हैं, हालांकि तब इसकी अपनी चुनौतियां होती हैं)। इस तरह से विशेषाधिकार के साथ हमेशा अधीनता की भावना मौजूद रहती है। वे कहते हैं कि, ‘महज़ मर्दानगी ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की समानता पर किए जा रहे काम के दौरान आपको विशेषाधिकार को समझना ज़रूरी है क्योंकि समानता किसी भी अधीन समूह का इकलौता हित नहीं हो सकती। ऐतिहासिक रूप से भी अधीन सामाजिक समूहों ने ही समानता की मांग की है। लेकिन जब समानता महज़ अधीन समूह की ही सामाजिक आकांक्षा होगी तो फिर असल में समानता कहां है?’

पर, जब लड़कों से विशुद्ध रूप से यह उम्मीद की जाएगी कि वे सत्ता छोड़ दें, तो…

लड़के इस प्रक्रिया में शामिल ही क्यों होंगें?

जैसा कि मानक कहते हैं कि, ‘पितृसत्तात्मक मर्दानगी के हिसाब से काम करने के एवज़ में एक तरह से असली फायदे मिलते हैं… मैं कैसे जाकर लड़कों से यह कहूं कि भाई अपने को इस तरह के दबाव में मत रखो (और जो फायदे मिल रहे हैं उसे लेने से बचो)?’ जेंडर लैब के सह-संस्थापक अक्षत सिंघल कहते हैं कि, ‘बतौर मर्द हमारे लिए यह बहुत आसान और आरामदेह है कि वर्तमान में मौजूद ढांचों के साथ जुड़े रहें। यह हमारे लिए बेहद आसान है कि बगैर सवाल पूछे चुपचाप सब करते रहें क्योंकि इससे कोई समस्या नहीं आएगी। क्योंकि ज्यों ही मैं लड़कों के सामने उनकी ताकत और विशेषाधिकार पर सवाल उठाउंगा तब उन्हें खुद पर काम करना पड़ेगा और उसकी अलग कीमत होगी। खुद पर काम करना इतना आसान नहीं होता। उन्हें एक स्तर पर आने के बाद वह सब कुछ छोड़ना पड़ेगा जो उन्हें विरासत में मिल रहा था।’

लेकिन क्या वर्तमान में मौजूद ढांचा लड़कों और मर्दों के लिए सुचारु रूप से काम कर रहा है? हरीश अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि, ‘मैं उस वक्त अकेला और तनावग्रस्त रहा करता था’ क्योंकि मुझे ‘नाज़ुक और लड़कियों के जैसा’ होने की वजह से छेड़ा जाता और ताने मारे जाते थे। नियम कायदों से हटकर जीने वाले मर्दों (सिस-विषम हों या नहीं) का अपना अकेलापन है और अति-मर्दवादी पुरुषों का अपना अकेलापन है जिसकी वजह से वे कभी सार्थक रिश्ते नहीं बना पाते हैं। जहां एक ओर नारीवादी पैरवी महिलाओं को सामूहिकता, दोस्ती, और एकजुटता का भाव मुहैया कराती है वहीं, दूसरी ओर इस देश के युवा मर्दों को यह सिर्फ़ और सिर्फ़ अकेलापन ही दे पाती है। यह बात न सिर्फ़ हमें साक्षात्कार देने वाले प्रशिक्षकों के अनुसार सही है, बल्कि युवा संस्था द्वारा 50 भारतीय शहरों के लगभग 100 कॉलेजों में किए गए सर्वेक्षण से भी यही बात सामने निकलकर आती है। (यह अध्ययन 2022 में मुम्बई स्थित रोहिणी निलेकनी, लोकोपकार – फिलैन्थ्रपिस की संस्था द्वारा आयोजित ‘बिल्ड टुगेदर: जेंडर एंड मैस्क्युलिनिटीज़ सम्मेलन’ में युवा द्वारा प्रस्तुत किया गया था।)

युवा संस्था के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और संस्थापक निखिल तनेजा कहते हैं कि, ‘ऐसा क्यों है कि अधिकतर लड़कों द्वारा लड़कियों के प्रति दर्शाया जाने वाला इकलौता भाव प्रेम ही है? क्योंकि यही वह भाव है जिसे दर्शाने की उन्हें अनुमति है। वे हमेशा प्रेम और दिल टूटने की ही बात करते हैं क्योंकि उदासी जताने का यही एकमात्र रास्ता उन्हें दिखाई पड़ता है।’ दिल टूटना एक आम बहाना है जिसके ज़रिये मर्द संगठित हो सकते हैं।

ऑस्ट्रेलियाई समाजशास्त्री आरडब्ल्यू कॉनेल के मर्दवाद के सिद्धांत से प्रभावित होकर मानक, इस काम के सैद्धांतिक आधार की व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि, ‘मर्दानगी को आमतौर पर सत्ता तक पहुंच या सत्ता की धुरी समझा जाता है जबकि असल में वह सत्ता की अपेक्षा है। आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप हमेशा ताकतवर रहें जबकि मर्दानगी का अनुभव बताता है कि असल में ऐसा है नहीं!’

मर्दों के सत्ता के उनके अनुभव और सत्ता की अपेक्षाओं में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है। मर्दों के विभिन्न समूह इस फ़र्क को अलग-अलग तरीके से अनुभव करते हैं जो कि इस बात से तय होता है कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सीढ़ी में उनका स्थान कहां है और यही वह वजह है जिससे भिन्न-भिन्न किस्म की मर्दानगियों का उदय होता है। यानी मर्दानगी का संकट शायद तब सामने आता है जब पितृसत्ता सता के अपने वादे से मुकर जाती है।

प्रशिक्षक, जेंडर और मर्दानगी पर बातचीत की कई भिन्न-भिन्न तरीकों से शुरुआत करते हैं, जैसे- यौनिक एवं प्रजनन स्वास्थ्य, यौनिकता, रोमांस, और कई मामलों में मर्दानगी के प्रचलित विचार से ही। मानक, के एक सत्र में बातचीत इस सवाल से शुरू होती है कि ‘आप कूल होने से क्या समझते हैं और क्या आप खुद को एक कूल इंसान मानते हैं?’ बिना जेंडर और मर्दानगी का ज़िक्र किए यह सवाल मर्दानगी के प्रति असुरक्षाओं की ओर स्वतः ही ध्यान ले जाता है। मानक इसे ‘आत्म-छवि की खोज’ का नाम देते हैं- जिसमें बाहर की ओर देखने से पहले खुद के अंदर झांकने से शुरुआत होती है।

‘मर्दों वाली बात’ नामक अपने कार्यक्रम पर आई प्रतिक्रिया के बारे में वे बताते हैं कि, ‘जो पहला पोस्टर हमने एक कॉलेज में लगाया उसपर सुपरमैन की फोटो के साथ ‘मर्दानगी क्या होती है’ लिखकर एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया और उस कार्यक्रम में ऐसे बहुत सारे लड़के आए क्योंकि उन्हें इस सवाल का जवाब चाहिए था! उनका मानना था कि  हां, हम जानना चाहते हैं कि मर्दानगी क्या होती है ताकि हम इसे ढंग से निभा पाएं।’

शिक्षा और मनोरंजन दोनों ही क्षेत्रों में काम करने का अनुभव लिए हुए निखिल यह बात जानते हैं कि हास्य एक ऐसा माध्यम है जिससे लोगों को निहत्था करने में आसानी होती है। ‘मैं एक कहानी से बात शुरू करता हूं और उन्हें बातचीत में शामिल करता हूं ताकि वे यह न समझें कि, यह इंसान सिर्फ़ हमें उपदेश देने, पकाने और यहां तक कि चुनौती देने के लिए आया है।’ जितनी जल्दी वे बातचीत में शामिल हो जाते हैं तब वह अपनी एक सधी हुई असुरक्षा उनके सामने रखते हैं, जैसे कि पैनिक अटैक की कोई घटना। निखिल के अनुसार, अगर आप चाहते हैं कि लड़के आपसे खुलें तो आपको उन्हें इतना सम्मान देना होगा ताकि वो आपके सामने अपनी असुरक्षा को ज़ाहिर कर सकें। ‘मेरा विश्वास है कि कहानियां हमें सिर्फ़ कहानियों की ओर ले जाती हैं और असुरक्षा हमें असुरक्षा की ओर।’

साल 2021 में डॉ केतकी चौखानी ने मुम्बई में मध्य-वर्गीय और उच्च-वर्गीय विषमलैंगिक लड़कों के साथ एक शोध अध्ययन किया जिसमें उनसे उनकी किशोरावस्था के रोमांस के अनुभवों के बारे में पूछा गया और यह भी पूछा गया कि इसके बारे में उनकी जानकारी के स्रोत क्या हैं। उनके अध्ययन में एक बात उभर कर आई कि अनिश्चितता, यानी परिभाषा की अनुपलब्धता, और रोमांस में ‘विफलता’ किशोरों के लिए बेहद आम अनुभव हैं और यह घटनाएं बहुत कम ही हिंसा का रूप ले पाती हैं, चाहे रिश्ता कितना ही संजीदा क्यों न रहा हो।

‘इससे हिंसक मर्द का समूचा विचार ही पूरी तरह से बदल गया। मैंने यह महसूस किया कि उनके भीतर ढेर सारा डर और ढेर सारा ख्याल रखने का भाव मौजूद था। हमारा शुरुआती बिंदु आमतौर पर हिंसा होता है लेकिन क्या हो अगर हम यह बिंदु असुरक्षा रखें? अगर हम अनिश्चितता, विफलता, असुरक्षा, और झिझक को हिंसा से बदल दें तो लैंगिक संबंधों का क्या होगा?’ इस शोध के दौरान डॉ केतकी ने यह भी अनुभव किया कि शोध की जगह, धीरे-धीरे ‘थेरेपी’ का रूप ले रही थी। ‘उन्हें लगता था कि मैं एक मनोवैज्ञानिक हूं और वे इस पूरी प्रक्रिया को ‘थेरेपी की प्रक्रिया’ की ही तरह देखते थे।’ इस प्रक्रिया ने उन्हें अपनी किशोरावस्था के दौरान मिली रोमांटिक विफलताओं और अस्वीकार होने के बारे में बोलने में मदद की, जिन्हें अक्सर मर्दानगी की प्रचलित छवियों और समझदारी के अंतर्गत नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

और इस तरह प्रशिक्षकों ने पहले आए संकट का जवाब दिया। इस तरह से उन्हें लड़कों को बातचीत के स्तर पर लाने में मदद मिली। उन्होंने लड़कों को इस बात के प्रति आश्वस्त भी किया कि लड़कों की कहानियां उसी तरह सुनी जाएंगी जैसे एक पैडगॉजी वाली जगहों पर सुनी जानी चाहिए और किसी भी तरह से उन्हें पूर्वाग्रह से नहीं देखा जाएगा। लेकिन इससे एक अन्य गहरा संकट उभर कर सामने आया।

(लेख में दी गई महत्त्वपूर्ण जानकारी के लिए निरंतर ट्रस्ट के लर्निंग रिसोर्स सेंटर का आभार)

इस लेख का हिंदी अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है।

यह आलेख मूलरूप से दथर्डआई पर प्रकाशित हुआ है जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

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