गांव वाले पशु सखियों को भुगतान क्यों नहीं करते?

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एक बकरी को टीका लगाती दो महिला पैरावेटरनरी कर्मी-पशु सखी
पशु सखी मॉडल के आने से पहले पशु चिकित्सा एवं पशु प्रजनन से जुड़ी सभी सेवाएं पुरुषों की जिम्मेदारी थी | चित्र साभार: रोहिन मैनुएल अनिल

ग्रामीण क्षेत्रों में उन महिलाओं को ‘पशु सखी’ कहा जाता है जिन्हें अपने समुदाय में पशु चिकित्सा सेवाएं, प्रजनन सेवाएं और पशुओं को दवाइयां प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इनका चयन इनकी साक्षरता और संचार कौशल के आधार पर किया जाता है। अपनी इन सेवाओं के बदले पशु सखियां पशुपालकों से मामूली शुल्क लेती हैं।

लेकिन, यह शुल्क हासिल करना इनके लिए एक बड़ी चुनौती है। कटरिया गांव की पशु सखी भारती देवी ने बताया कि “लोग हमसे पूछते हैं कि हम शुल्क क्यों लेते हैं। उन्हें ये सेवाएं और दवाइयां मुफ़्त में चाहिए होती हैं या फिर वे नहीं लेना चाहते हैं।” उत्तर भारत में ज़्यादातर घरों में आय के अतिरिक्त स्त्रोत के लिए पशुपालन किया जाता है। इसलिए पशुओं के लिए किसी भी प्रकार के खर्च को अक्सर ये लोग अतिरिक्त या अवांछित खर्च मानते हैं। ऐसी भी कई सखियां हैं जिन्हें अपना शुल्क मांगने में झिझक होती है। आमतौर पर समुदाय और पशु सखियों के बीच पहले से ही सौहार्दपूर्ण संबंध होते हैं। इन संबंधों के कारण भी सखियां अपने काम के बदले भुगतान नहीं मांग पाती हैं। भारती आगे कहती हैं कि “यदि इलाज के दौरान पशु की मृत्यु हो जाती है तब तो पैसे न मिलना पक्का हो जाता है।”

पशु सखी मॉडल के आने से पहले पशु चिकित्सा और पशु प्रजनन से जुड़ी सभी सेवाएं पुरुषों की जिम्मेदारी थीं। जहां एक ओर इन सखियों द्वारा पशु चिकित्सा की सेवा का स्वागत हुआ, वहीं प्रजनन सेवाओं में इनकी भागीदारी को समुदाय के विरोध का सामना करना पड़ता है। गांव में लोग मानते हैं कि पशुओं के प्रजनन में महिलाओं की भागीदारी अनुचित है। परिवार और गांव के बड़े-बुजुर्ग इस काम के लिए महिलाओं को यह कहकर हतोत्साहित करते हैं कि पशु प्रजनन एक गंदा काम है और इसे पुरुषों को ही करना चाहिए।

पशु सखियां इन मुद्दों पर बात करने के लिए, उन समाजसेवी संस्थाओं के साथ चर्चा करती हैं जिन्होंने इन्हें इस काम का प्रशिक्षण दिया है। कइयों ने मुफ़्त सेवा प्रदाता होने तक सीमित हो जाने की चिंता जताई है। कटरिया की ही एक अन्य पशु सखी सज़दा बेगम का कहना है कि “शुल्क का भुगतान पूरी तरह से ग्राहक के विवेक पर निर्भर होता है और वे इसे आमतौर पर परोपकार से जुड़ा काम मानते हैं।”

हालांकि, भुगतान की कमी पशु सखियों के मार्ग की एक बड़ी बाधा है लेकिन उन्हें इस काम से लाभ भी मिलता है। पशु सखी होने के कारण समुदाय में उनकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। कुछ पशु सखियों ने तो पंचायत चुनाव लड़कर उसमें शानदार जीत भी हासिल की है। 

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रोहिन मैनुएल अनिल एसबीआई यूथ फ़ॉर इंडिया फ़ेलोशिप में एक फेलो हैं और आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के कॉन्टेंट पार्टनर हैं।

अधिक जानें: जानें कि ओडिशा के ग्रामीण इलाक़ों में समुदाय के लोग महिला शिक्षकों को उनके काम का भुगतान क्यों नहीं करना चाहते हैं?

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