कश्मीर के चोपनों से भेड़ चराने का अधिकार छीन लिया गया है

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एक चरवाहा लड़का घास के मैदान में खड़ा है-वन अधिकार कश्मीर

सितम्बर 2021 में केंद्र शासित प्रदेश जम्मू एवं कश्मीर के लेफ़्टिनेंट गवर्नर ने गज्जर, बकेरवाल, गद्दी और सिप्पी समुदाय के सदस्यों को वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) के तहत कई तरह के अधिकार दिए। इस आयोजन के दौरान उन्होंने इन समुदायों के कुछ ख़ास लोगों को वन अधिकार सर्टिफिकेट भी बाँटे। इस प्रकार जंगल में रहने वाले जनजातियों को वन संसाधनों के उपयोग का अधिकार मिल गया।            

जम्मू एवं कश्मीर के चोपन समुदाय के लोग भी एफ़आरए के दायरे में आते हैं। यह समुदाय अन्य पारम्परिक वन निवासियों (ओटीएफ़डी) की श्रेणी में आता है। लेकिन सरकार की एफ़आरए अधिकार वितरण कार्यक्रम में इस जनजाति को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वन विभाग के अफ़सरों की यह धारणा थी कि एफ़आरए केवल जनजातियों के लिए ही है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जम्मू एवं कश्मीर में एफ़आरए लागू करने का काम वन विभाग ने किया है। जबकि देश के अन्य राज्यों में इसकी ज़िम्मेदारी क्षेत्रीय समुदायों की बेहतर समझ और जानकारी रखने वाले स्टेट ट्राइबल अफ़ेयर्स डिपार्टमेंट की होती है।

पारम्परिक रूप से चोपन समुदाय के लोग चरवाहे होते हैं लेकिन इनमें ज़्यादातर लोगों के पास ना तो अपने मवेशी हैं ना ही ज़मीन। ये दूसरे किसानों का भेड़ चराकर अपनी जीविका चलाते हैं। भेड़ों को चराने का मौसम मार्च से अक्टूबर तक होता है। इस पूरे मौसम में किसान एक चोपन को 350–400 रुपए प्रति भेड़ देते हैं। इस इलाक़े में प्रत्येक किसान के पास 10–15 भेड़ होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक चोपन को एक मौसम में 30–40 ग्राहक मिल जाते हैं। इस तरह देखा जाए तो उनके पास 400–500 भेड़ें होती हैं। गर्मियों में चोपन घास के विशाल मैदानों और अल्पाइन झीलों तक जाने के लिए पहाड़ी रास्तों का इस्तेमाल करते हैं। इन जगहों पर जून और अगस्त के महीने में भेड़ें चराई जाती हैं। ये चारागाह समुद्र तल से 3,500–4,000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हैं।

वन अधिकार सर्टिफिकेट से चोपनों को जंगल में भेड़ चराने के अधिकार की गारंटी मिल जाती है। इसका सीधा मतलब यह है कि इन इलाक़ों में अपने मवेशियों को चराने के लिए उन्हें किसी भी सरकारी या ग़ैर-सरकारी अफ़सर को पैसे देने की ज़रूरत नहीं है। वन विभाग ने इन चोपनों को ऊँचाई पर स्थित चारागाहों में उनके कोठों (झोपड़ी) के मरम्मत की अनुमति भी नहीं दिया है। लेकिन एफ़आरए सर्टिफिकेट मिलने से उन्हें इसका अधिकार मिल सकता है। मरम्मत की अनुमति न मिलने के कारण चोपनों को गर्मियों में अपना सिर छुपाने के लिए सर्दियों के मौसम में क्षतिग्रस्त हुए इन झोपड़ियों का ही इस्तेमाल करना पड़ता है। अपनी इन झोपड़ियों की मरम्मत के लिए वे ज़बरदस्ती जंगल के अफ़सरों को घूस देते हैं।

कुछ महीने पहले मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम का उपयोग करके एफ़आरए के कार्यान्वयन से जुड़ी जानकारी माँगी थी। मैंने श्रीनगर और जम्मू के इलाक़े में उन लोगों और समुदायों की विस्तृत जानकारी पर एक नज़र डाली जिन्हें एफ़आरए सर्टिफिकेट और अधिकार दिए गए थे। सरकार ने इन सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं किया है। सोलह जिलों और 21 वन प्रभागों से मुझे किसी भी तरह की जानकारी नहीं मिली। कुपवार, किश्तवर, उधमपर और बडगाम ज़िलों से मिली सूचनाओं के अनुसार 81 समुदायों ने यह दावा किया कि उन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट ने चुना था। इनमें से एक भी लाभार्थी चोपन समुदाय या किसी भी अन्य ओटीएफ़डी श्रेणी का नहीं था।

डॉक्टर राजा मुज़फ़्फर भट श्रीनगर आधारित कार्यकर्ता, लेखक और एक स्वतंत्र रिसर्चर हैं।

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अधिक जानें: महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में आदिवासी समुदायों के लिए स्थानीय शासन को मज़बूत करने में एफ़आरए की भूमिका के बारे में विस्तार से पढ़ें।

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