वर्ष 2025 में प्रदान के एक शोध कार्यक्रम के तहत हमने तेलंगाना के मुलुगु और नगरकुरनूल जिलों के कई गांवों का दौरा किया। इन गांवों की कुल आबादी में एक बड़ा हिस्सा अनुसूचित जनजातियों का है। इसमें कोया और नायकपोडो समुदायों के साथ, चेंचू समुदाय जैसे विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह भी शामिल हैं। इनमें से अधिकांश परिवारों के पास या तो बहुत कम जमीन है या वे भूमिहीन हैं।
कपास की खेती, जिसकी अपनी चुनौतियां हैं, से इतर इस इलाके की पूरी अर्थव्यवस्था मिर्च की खेती पर टिकी हुई है। एक एकड़ जमीन पर मिर्च की खेती करने के लिए किसानों को बीज, पानी, जुताई, उर्वरक, कीटनाशक और कटाई के लिए लगभग एक लाख रुपए का निवेश करना पड़ता है। इसके लिए छोटे और सीमांत किसान अक्सर साहूकारों से तीन प्रतिशत प्रति माह की दर पर कर्ज लेते हैं। कई बार उन्हें अपनी फसल भी इन साहूकारों को बेचनी पड़ती है, क्योंकि यह उनके लिए ब्याज समेत कर्ज चुकाने का सबसे आसान तरीका होता है।
कुछ साल पहले तक मिर्च की कीमत 35,000 रुपए प्रति क्विंटल तक होती थी, जिससे किसानों को अच्छा मुनाफा होता था। लेकिन पिछले दो सालों में यह कीमत घटकर 6,000-7,000 रुपए प्रति क्विंटल पर आ गई है, जिसके चलते उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। लेकिन इस दौरान भी साहूकार ब्याज के जरिए अपने निवेश पर 36 प्रतिशत सालाना मुनाफा कमा रहे हैं।
यह पूछने पर कि वे मिर्च की खेती करना छोड़ क्यों नहीं देते हैं, किसान बताते हैं कि अगर उनमें से अधिकांश लोगों ने ऐसा किया, तो मिर्च की कीमत में उछाल आ सकता है। इससे उन लोगों को फायदा होगा, जो खेती करना जारी रखेंगे। इसलिए, हर कोई दूसरों के खेती छोड़ने का इंतजार कर रहा है। इसके अलावा, उन्हें यह भी उम्मीद है कि किसी बाहरी वजह से मिर्च की कीमतें बढ़नी चाहिए।
कपास और मिर्च की कई सालों की खेती ने उन पारंपरिक तरीकों को भी खत्म कर दिया है, जिन्हें पहले विकल्प की तरह देखा जाता था। बड़े पैमाने पर मिर्च और कपास की खेती ने चेंचू जैसे समुदायों की आजीविका को नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है, जो लकड़ी से इतर अन्य वनोपजों पर निर्भर रहते थे। चेंचू समुदाय पारंपरिक रूप से जंगल से शहद इकट्ठा करता रहा है। लेकिन मिर्च और कपास के खेतों में कीटनाशकों के भारी उपयोग से मधुमक्खियों की आबादी में भी बड़ी गिरावट आई है। अमराबाद के चेंचू बहुल गांव के एक निवासी के मुताबिक, एक दशक पहले वे हर साल लगभग 30 क्विंटल शहद इकट्ठा करते थे। लेकिन अब यह घटकर महज 3-4 क्विंटल रह गया है। इसके अलावा, गांव वालों का यह भी कहना है कि मिर्च की फसल के लिए अधिक मात्रा में पानी की जरूरत के चलते अनियमित रूप से बोरवेल खोदे गए हैं, जिससे भूजल स्तर भी गिर गया है। नतीजतन, अब लोगों के पास कपास या मिर्च के अलावा कोई तीसरी फसल उगाने का विकल्प नहीं रह गया है।
अविनाश कुमार और दिब्येंदु चौधरी, प्रदान की शोध और ज्ञान प्रबंधन यूनिट में काम करते हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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