संघर्ष के पहियों पर सपनों की राह: पन्ना की आदिवासी स्केटबोर्डर लड़कियां

Location Icon पन्ना जिला, मध्य प्रदेश
स्केट बोर्डिंग का खाली मैदान— स्केट बोर्डिंग
स्केट बोर्डिंग खेल सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि कई लड़कियों भविष्य की कुंजी है। | चित्र सभार: आशा गोंड

मेरा नाम आशा गोंड है और मैं पन्ना जिले के जनवार गांव की रहने वाली हूं। स्केट बोर्डिंग मेरा जुनून है, मेरा सपना है ! लेकिन इस सपने को पूरा करने की राह में कई अड़चनें हैं।

जब पहली बार मैंने स्केट बोर्डिंग के बारे में सुना, तो यकीन नहीं हुआ कि मेरे जैसी किसी गांव की लड़की भी इसे खेल सकती है। 2014 में जर्मनी की उलरिके रेनहार्ट यहां आयी और उन्होंने हमें इस खेल से परिचित करवाया। उनके मार्गदर्शन में ही हमने यह खेल सीखा। हम गिरते-पड़ते आगे बढ़ते गए और धीरे-धीरे यह खेल हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया।

लेकिन शुरुआती दिनों में मुझे बहुत कुछ सहना पड़ा। गांव के लोग कहते थे, “ऐसे खेल लड़कियों के लिए नहीं होते।” मेरे माता-पिता भी डरते थे कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। फिर जब मैंने 2018 में विश्व स्केट बोर्डिंग चैम्पियनशिप में भारत का प्रतिनिधित्व किया तो हालात बदले और मेरा परिवार भी मेरा साथ देने लगा।

आज मैं अपने गांव के 20-25 लड़के और लड़कियों को स्केट बोर्डिंग सिखाती हूं। हम में से कई लड़कियों ने राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल जीते हैं। लेकिन अब हमारी सबसे बड़ी चुनौती है फंड और खेल की अपनी जगह। पिछले तीन-चार सालों से हम पैसों की तंगी के चलते राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग नहीं ले पा रहे हैं। हम यात्रा, रहने-खाने और रजिस्ट्रेशन फीस का सारा खर्च खुद उठाने में सक्षम नहीं हैं।

हमारी दूसरी बड़ी चुनौती है खेल की जगह की कमी। हमारे पास अपना स्केट पार्क नहीं है। अभी जो पार्क और कम्युनिटी सेंटर है, वह लीज़ पर है, जिसके लिए हमें हर साल 60-65 हजार रुपये भरने पड़ते हैं। जब तक हमारे पास अपनी जगह नहीं होगी, तब तक हम इस खेल को सही तरीके से आगे नहीं बढ़ा पाएंगे।

मेरे साथ खेलने वाली कल्पना गोंड भी यही कहती हैं कि “हमारे गांव में लड़कियों के लिए पहले से ही कई रुकावटें हैं। जब हम स्केट बोर्डिंग करते हैं, तो लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। कहते हैं कि ये लड़कियां तो लड़कों के साथ घूमती हैं, इनकी शादी करवा देनी चाहिए। हमने इन बातों को नज़रअंदाज़ कर सिर्फ अपने खेल पर ध्यान दिया। लेकिन अब फंड और जगह की समस्या हमारी राह में सबसे बड़ी बाधा बन रही है।”

मेरी साथी प्रियंका गोंड, जो हाई स्कूल में पढ़ती हैं, कहती हैं, “शुरुआत में मुझे डर लगता था। लेकिन जब मैं इस खेल में माहिर हो गयी, तो लगा कि यह मेरा भविष्य हो सकता है। अब मैं चाहती हूं कि छोटी लड़कियों को भी यह खेल सिखाऊं। लेकिन इसके लिए हमें संसाधन चाहिए।”

हम सरकार और समाज से अपील करते हैं कि हमारी मदद करें। यह खेल सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की कुंजी है। यदि हमें पर्याप्त फंड और अपनी जगह मिल जाए, तो हम देश के लिए और भी बड़े मुकाम हासिल कर सकते हैं।



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