जोंगू क्षेत्र सिक्किम के उत्तरी जिले में कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान के बाहरी इलाके में स्थित है। यह लेप्चा आदिवासी समुदाय का पारंपरिक रहवास है। तीस्ता और उसकी कई सहायक नदियां जोंगू से होकर बहती हैं। लेकिन पिछले दो दशकों में जलवायु परिवर्तन और जलविद्युत संयंत्र (हाइड्रोपॉवर प्लांट) के चलते यहां की नाजुक पारिस्थितिकी और बिगड़ गयी है।
इलाके में भूस्खलन और अचानक बाढ़ के मामले तेजी से बढ़े हैं। 2016 में, एक बड़े भूस्खलन ने लेप्चा समुदाय के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। उस समय ऊपरी जोंगू क्षेत्र के 16 गांव सिक्किम के बाकी हिस्सों से पूरी तरह से कट गए थे। आज नौ साल बाद भी ये गांव महज एक अस्थाई पुल के जरिए आसपास के इलाकों से जुड़े हुए हैं, जो मानसून के दौरान बाढ़ में बह जाता है। स्थानीय लोगों द्वारा बनाए गए इस पुल को कई बार भारतीय सेना भी इस्तेमाल करती है। इसके बाद भी, सरकार ने इस मसले का कोई स्थाई समाधान नहीं निकाला है। 2024 में भी इलाके में बादल फटने से भारी बाढ़ आयी थी, जिससे कई गांव डूबने के साथ-साथ संपत्ति और पशुधन का नुकसान भी हुआ था।
ऐसी आपदाएं जलविद्युत परियोजनाओं के कारण अक्सर और भी बढ़ जाती हैं। 2009 में तीस्ता-3 जलविद्युत परियोजना के विरोध में समुदाय के लोगों ने भूख हड़ताल की थी, लेकिन फिर भी परियोजना को रोका नहीं गया। यहां तक कि अदालती मामले भी दायर किए गए, पर उनका कोई फायदा नहीं हुआ। 2023 में, इस परियोजना के तहत बनाया गया बांध हिमनदी में आयी एक भयंकर बाढ़ में बह गया था। इस हादसे में 55 लोगों की मौत भी हुई। इसके बावजूद अब बांध का पुनर्निर्माण हो रहा है और स्थानीय लोगों की कोई राय नहीं ली जा रही है।
इलाके के पर्यावरण में इस तबाही के कारण लेप्चा समुदाय की संस्कृति भी खतरे में आ गयी है। लेप्चा सिक्किम के मूल निवासी हैं और उनके लगभग सभी रीति-रिवाज नदी और जंगलों से जुड़े हुए हैं। लेप्चा परंपरा के अनुसार, मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा को कंचनजंगा पर्वत की तलहटी में लौटना पड़ता है। समुदाय के पुरोहित आत्मा को नदी किनारे तक ले जाते हैं। वहां से आत्माएं रोंगयोंग नंदी के जरिए अपना सफर तय करती हैं, जो तीस्ता की एक सहायक नदी है। इस तरह लेप्चा अपने नदी, जंगल और समूचे पर्यावरण को समुदाय का एक अभिन्न अंग मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार, हर परिवार से एक पुरुष सदस्य साल में एक बार जंगल में चढ़ावा देते हैं। इसमें वे चावल, फल, जिंदा मुर्ग़े और खमीर (फरमेंट किया हुआ) मिलेट का चढ़ावा देते हैं। परंपरागत रूप से एक शिकारी समुदाय होने के नाते लेप्चा लोगों का मानना है कि जंगल उन्हें जो कुछ भी देता है, उसके लिए उन्हें जंगल का आभार जताना चाहिए।
बीते कुछ सालों में कई दवा कंपनियों ने तीस्ता किनारे अपनी फैक्ट्रियां खड़ी की हैं जिससे नदी में प्रदूषण बढ़ गया है। स्थानीय लोग अब रोजी-रोटी के लिए पर्यटन क्षेत्र का रुख कर रहे हैं, ताकि उन्हें बिजली संयंत्र या दवा फैक्टरियों को अपनी जमीन बेचने के लिए विवश न होना पड़े । वहीं युवा अब बेहतर अवसरों की तलाश में शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं।
लेप्चा समुदाय जोंगू इलाके को नदी अभयारण्य (रिवराइन सैंक्चुरी) का दर्जा देने की मांग कर रहा है, ताकि इन निरंकुश विकास गतिविधियों पर कुछ हद तक लगाम लगायी जा सके। लेकिन सरकार के हस्तक्षेप और समर्थन के बिना यह संभव नहीं है। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी लगातार बिगड़ती चली जाएगी।
मयल्मित लेप्चा एक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘सिक्किम लेप्चा इंडिजीनियस ट्राइबल एसोसिएशन’ की प्रमुख हैं।
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