मैं राजस्थान के राजसमंद जिले की भीम तहसील के अजीतगढ़ गांव से हूं। मैं एक ऐसे पिता के साथ बड़ी हुई जिन्हें अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देने में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। वहीं, हमारी मां एक मेहनतकश महिला हैं और वो हमारे परिवार का गुजारा करने के लिए पत्थर तोड़ने जैसा मुश्किल काम करती थीं।
हमारे इलाके में 10वीं या 12वीं के बाद लड़कियों का पढ़ाई छोड़ देना और 18 साल से पहले उनकी शादी हो जाना, एक आम बात है। मेरे परिवार की स्थिति को देखते हुए मुझसे भी यही उम्मीद की गई थी। लेकिन मैंने तय कर लिया था कि मुझे इस राह पर नहीं जाना है। अमूमन परिवार और समाज के दबाव के चलते युवाओं के लिए शादी का निरंतर विरोध कर पाना बहुत मुश्किल होता है। गहराई तक जड़ें जमा चुकी ऐसी रूढ़ियों और व्यवहार को बदलने का एक ही तरीका है – समय के साथ अपने लिए एक सशक्त आधार तैयार करना।
समाज में लड़कियों की भूमिका को लेकर लोगों की सोच बदल सके, इसके लिए मैं नए-नए तरीके खोजती रही। स्कूल खत्म करने के बाद, मैं स्कूल फॉर डेमोक्रेसी (एसएफडी) की कॉन्स्टिट्यूशनल वैल्यूज फैलोशिप के साथ पार्ट-टाइम फेलो के रूप में जुड़ गई। इससे मुझे थोड़े पैसे कमाने और गांव में एक लाइब्रेरी चलाने का मौका मिला। मेरे परिवार को यह समझ नहीं आता था कि मैं शादी करने और ‘घर बसाने’ की बजाय संवैधानिक जागरुकता पर क्यों काम कर रही हूं। उन्हें चिंता थी कि लोग क्या कहेंगे।
इसके अलावा, लैंगिक भेदभाव के साथ-साथ मुझे जातिगत भेदभाव का सामना भी करना पड़ता था। अन्य जातियों के बच्चे मेरी लाइब्रेरी में प्रवेश नहीं करते थे। उनके माता-पिता उन्हें किसी खटीक के घर में नहीं जाने देना चाहते थे, क्योंकि हमें निचली जाति का माना जाता है। इसलिए मैंने किताबें पढ़ने, कहानियां सुनाने जैसी गतिविधियों को बाहर खुली जगहों पर करना शुरू किया, जिससे आसपास से गुजरने वाले लोग देख सकें कि बच्चे कितना सीख रहे हैं।
कुछ समय बाद माता-पिता अपने बच्चों को लाइब्रेरी भेजने लगे। इस काम से मुझे जो सम्मान मिला, उससे मेरे परिवार के साथ-साथ समुदाय के नजरिये में भी बदलाव आया। मेरी बात को अधिक गंभीरता से सुना जाने लगा।
जब मैं एसएफडी के साथ फुल-टाइम कार्यकर्ता के तौर पर काम करने लगी तो मेरी मां फिर से चिंता में पड़ गईं। लेकिन मैं लगातार उनसे बात करती रहती थी। हर ट्रेनिंग या वर्कशॉप के बाद मैं उन्हें फोन करती और बताती कि मैं क्या सीख रही थी। इसमें हमारे अधिकारों, समानता से जुड़ी बातों के साथ अलग-अलग राज्यों और समुदायों के लोगों के किस्से-कहानियां भी शामिल होते थे। मैंने उन्हें वे किताबें दिखाई जो मैं पढ़ रही थी। जब भी हो सके, मैं उन्हें पैसे भी भेजती थी। धीरे-धीरे उनका डर दूर होता गया।
सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब मुझे अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, भोपाल में दाखिला मिला। मैं अपनी मां को अपना कैम्पस दिखाने ले गई। मैं चाहती थी कि वह देखें कि मैं कहां पढ़ूंगी, लोगों से मिलें और आश्वस्त हों कि सब कुछ सुरक्षित है। उन्होंने मुझसे कहा, “तुम्हें जो करना है करो, लेकिन कभी ऐसा कोई काम मत करना जिससे मुझे शर्म से सिर झुकाना पड़े।” भले ही ऐसा लगे कि वह बेमन से सब स्वीकार कर रही थीं, लेकिन उनकी उपस्थिति मेरे लिए एक बड़ा पल था। उन्होंने हमारे रिश्तेदारों, जातिवादी विचारों और सामाजिक रूढ़ियों से लड़ाई लड़ी, तब मुझे यह आजादी मिल पाई है।
मैंने अपने गांव की ऐसी लड़कियों के साथ एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया है, जिन्हें शादी या अन्य रोकटोक के चलते पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। वे अक्सर योजनाओं, स्कॉलरशिप या कोर्स वगैरह की जानकारी के लिए मुझे मैसेज भेजती हैं। मैं उन्हें नए मौकों के बारे में बताती हूं और गाइड करती हूं। उनमें से कुछ ने ओपन स्कूल में दाखिला लिया है। एक ने तो एक एनजीओ के साथ काम करना शुरू कर दिया है। यह पहला मौका था जब वह अपने घर से बाहर निकली थी।
कई लड़कियां मुझसे पूछती हैं कि मैंने अपनी मां को कैसे राजी किया। मैं उन्हें कहती हूं, “छोटी शुरूआत करें। आप जो सीख रहे हैं, उसके बारे में बात करें। घर में मदद करें। थोड़ी बचत करें और जितना हो सके सहयोग करें। धीरे-धीरे करके उनका भरोसा जीतें। बहस से नहीं, बल्कि उन्हें यह दिखाकर कि आप क्या कर सकते हैं।”
पूजा कुमारी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही हैं। वह वॉलंटरी समूह अवसर का भी हिस्सा हैं, जो युवाओं को शिक्षा और विकास सेक्टर के मौकों से जोड़ता है।
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