बीते कई सालों से राजस्थान की बारिश अप्रत्याशित हो गई है। पहले चार महीने की (जिसे चौमासा कहा जाता है) लगातार बारिश होती थी। यह बारिश जून के अंतिम सप्ताह में शुरू होकर सितम्बर तक होती थी। अब मानसून देरी से आता है और जब आता है तो बाढ़ आ जाती है। एक तरफ़, सर्दी का मानसून—जिसमें सर्दियों में 15 से 20 दिनों तक बारिश होती है—अब समाप्त हो चुका है। दूसरी तरफ़, थार के रेगिस्तानी इलाके में अक्सर ही बाढ़ आने लगी है और जैसलमेर जैसे ज़िलों में हरियाली आ गई है जहां पहले रेगिस्तान था। इस तरह के बदलावों ने समुदायों की फसल और खानपान के तरीके को भी बदल दिया है।
परंपरागत रूप से, जैसलमेर जिले में रहने वाले समुदाय सर्दियों के मौसम में खादिन (कृषि के लिए सतही जल संचयन के लिए बनाई गई एक स्वदेशी प्रणाली) में चना उगाया करते है। चने की फसल सर्दियों के मानसून के दौरान कम बारिश पर निर्भर करती है, और अत्यधिक वर्षा इसके विकास के लिए हानिकारक होती है। इसलिए, जैसलमेर की जलवायु में बदलाव और सिंचाई नहरों की स्थापना के साथ, चने की लोकप्रियता में कमी आ रही है और गेहूं सर्दियों की पसंद की फसल के रूप में उभरा है क्योंकि यह चने की तुलना में अधिक पानी की मांग करता है। आजकल, जैसलमेर में, भूजल की कमी जैसे दीर्घकालिक प्रभावों के बावजूद लोग गेहूं के खेतों की सिंचाई के लिए बोरवेल और नलकूपों का उपयोग कर रहे हैं। वास्तव में, 600 से 1,200 फीट की गहराई तक खोदे गए बोरवेल को देखना कोई असामान्य बात नहीं है।
गेहूं के अलावा, समुदायों ने उन नकदी फसलों की ओर रुख किया है जो इन क्षेत्रों में लगभग अनुपस्थित थीं। आज जैसलमेर में किसानों के बाजार मूंगफली और प्याज जैसी फसलों से भरे हुए हैं। गेहूं, प्याज और कपास ने बाजार पर कब्जा कर लिया है और पारंपरिक खाद्य फसलों जैसे बाजरा (मोती बाजरा) वगैरह गायब हो चुके हैं। अप्रत्याशित बारिश के पैटर्न के कारण भी खाने की कुछ किस्में थाली से ग़ायब हो चुकी हैं। ओरान (पवित्र उपवन) सेवन और तुम्बा जैसी जंगली घासों से भरे होते थे जो मानसून के दौरान उगते थे। यहां बसने वाले समुदाय के लोग सेवन घास के दानों का उपयोग रोटी बनाने के लिए करते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है क्योंकि घास को उगने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है।
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अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।
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