महिलाओं के एग्रो-टूरिज्म से सम्पन्न बनता राजस्थान का एक गांव

राजस्थान के चुरु जिले के सुजानगढ़ ब्लॉक में स्थित गोपालपुरा पंचायत अपने गांवों के पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जाना जाने लगा है। दरअसल, आसपास के इलाक़ों में तेज़ी से हो रहे खनन के कारण इस क्षेत्र की जलवायु बुरी तरह से प्रभावित होने लगी थी। अपने इलाक़े को प्रदूषण मुक्त करने और खनन से होने वाले नुक़सान को कम के लिए यहां की पंचायत ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक अनूठे प्रयास की शुरुआत की।

इस प्रयास के तहत गोपालपुरा पंचायत के लोगों ने अपने यहां पर्यटन की संभावनाओं को देखते हुए कुछ साल पहले तक डंपिंग ग्राउंड बन कर रह गई 144 बीघा सरकारी ज़मीन पर पेड़ लगाने का काम शुरू किया। इस पहल के तहत उन्होंने कुल तीस हज़ार पौधे लगाए। आज की तारीख़ में उन तीस हज़ार पौधे में से क़रीब बीस हज़ार पौधे जीवित हैं। हरीतिमा ढाणी नामक इस पहल की शुरुआत के बारे में बताते हुए गोपालपुरा पंचायत की सरपंच कहती हैं कि ‘हमारे यहां चार सौ साल पुराना डुंगरबाला जी मंदिर है, जिसके आसपास बहुत सुंदर-सुंदर पहाड़ियां भी हैं। यहां पर्यटन को विकसित करने की पूरी संभावना थी, लेकिन क्षेत्र का प्रदूषण एक बड़ी बाधा था। इसके लिए ज़रूरी था कि हम अपने क्षेत्र में हरियाली को विकसित करें। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमने पेड़ लगाने शुरू किए।’

पेड़ लगाने से शुरू होने वाले इस प्रयास को, यहां की महिलाएं एक कदम आगे लेकर गईं और उन्होंने सब्जियां भी उगानी शुरू कर दी। गोपालपुरा में पानी आसपास की पहाड़ियों से आता है जो कि बहुत मीठा होता है। मीठे पानी के कारण यहां उगाई जाने वाली सब्ज़ियां बहुत स्वादिष्ट होती हैं। अपने अच्छे स्वाद के लिए मशहूर गोपालपुरा की सब्जियां आसपास के गांवों में हरीतिमा ढाणी नाम के ब्रांड के रूप में लोकप्रिय हो गई हैं।

गांव की महिलाओं ने अपने इसी ब्रांड के अंर्तगत एग्रो-टूरिज़्म को विकसित करने के लिए प्रयास शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्होंने यहां झोपड़ियां बनाई हैं जहां बाहर से आने वाले लोग आकर रहते हैं और इन सब्ज़ियों का आनंद उठाते हैं। यहां आकर रहने वालों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था भी यही महिलाएं करती हैं। इसके अलावा, महिलाओं को बाहर से भी ऑर्डर मिलने लगे हैं। सब्जियां उगाने के साथ-साथ इस हरीतिमा ढाणी की महिलाएं बाजरे के बिस्किट, काचर की कैंडी जैसी चीजें बनाने का प्रशिक्षण भी ले रही हैं। शहर की भाग-दौड़ और प्रदूषित हवा-पानी से कुछ दिनों के लिए बचने के उद्देश्य से शहरी लोग यहां आते हैं। आने के बाद वे यहां की प्राकृतिक रूप से उगाई गई सब्ज़ियों और खाने की अन्य चीजों का भरपूर आनंद उठाते हैं।

इस गांव की पंचायत अब मनरेगा के तहत काम करने वाली महिलाओं को भी इस पहल से जोड़ने का प्रयास कर रही है। ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य उन्हें आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर, सशक्त और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रति जागरूक बनाना है।

क्षेत्र में हो रहे खनन के कारण यहां के लोगों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। गोपालपुरा की सरपंच बताती हैं कि, ‘हालांकि, हम मनरेगा के तहत काम कर रहे हैं लेकिन हमारे पास फंड की बहुत कमी है। पहले खनन पर लगने वाले टैक्स का एक फ़ीसद पंचायतों को दिया जाता था। लेकिन अब उस राशि को भी डीएमएफ़टी (डिस्ट्रिक्ट मिनरल फ़ाउंडेशन ट्रस्ट) में बदल दिया गया है। इसके बाद माननीय ज़िला कलेक्टर की अध्यक्षता में उनकी समिति तय करती है कि उस राशि को कहां और कैसे खर्च करना है। हमारी मांग है कि डीएमएफ़टी की राशि को उसी जगह पर खर्च किया जाना चाहिए जहां कि खनन से नुक़सान हो रहा है।’

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

सविता राठी पेशे से वकील हैं और राजस्थान के चुरू जिले में पड़ने वाली गोपालपुरा पंचायत में तीसरी बार सरपंच के पद पर हैं।

अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि राजस्थान की ग्रामीण लड़की यूट्यूब का क्या करेगी?।


जलवायु परिवर्तन के चलते ख़त्म होती भीलों की कथा परंपरा

महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले में स्थित सतपुड़ा की पहाड़ियों में ‘कथा’ गाई जाती हैं जिनमें मुख्य रूप से पौराणिक कथाएं और गीत होते हैं। यहां रहने वाले भील समुदाय के जीवन में इन कथाओं और गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इस समुदाय के पास जीवन, मृत्यु और इन दोनों के बीच में मौजूद तमाम बातों से जुड़ी पौराणिक कथाएं हैं। किसी की मृत्यु हो जाने पर, पूरी रात चलने वाले ऐसे समारोह आयोजित किये जाते हैं जिनमें लोग इकट्ठा होते हैं और कथावाचकों के साथ मिलकर गाते हैं। इन कथावाचकों को स्थानीय लोग गान्यू वालो (क्योंकि ये कहानियों को गाते हैं) के नाम से पुकारते हैं। खेती के कामों में भी इस प्रथा की छाप देखने को मिलती है जहां पूरी की पूरी ऐसी मिथक कहानियां हैं जिनमें न केवल सतपुड़ा में भीलों के बीच खेती का लोक इतिहास दर्ज है बल्कि इन कहानियों में ये भी बताया गया है कि कौन सी फसल – धान और सब्जियां सहित – किस मौसम में उगाई जानी चाहिए। इन लोक गीतों में बीज के अंकुरण और बोआई तथा सिंचाई के तरीक़ों का भी ज़िक्र किया गया है।

भील परंपरा का दस्तावेज़ीकरण करने के मेरे काम के दौरान, मुझे ऐसी कथाएं मिलीं, जिनमें इस समुदाय के चारागाहों से लेकर कृषिविदों तक की यात्रा के बारे में बताया गया है। एक आम मिथक है जो इस बारे में बताता है कि जब इस समुदाय ने पहली बार खेती का काम शुरू किया था तो उनके कुल देवताओं ने बीज की खोज के लिए लोगों को सात समुंदर पार भेजा था, जिससे अंत में इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन में समृद्धि आई। ये कहानियां मानवीय लालच और संसाधनों के अत्यधिक दोहन के प्रति भी सचेत करती हैं जो सूखा, कमी और अकाल का कारण बन सकता है।

मिथकों के अनुसार, देवियों और देवताओं ने इन गीतों के माध्यम से भीलों को खेती से जुड़ी शिक्षा दी थी। इस प्रकार गान्यू वालो को इन कहानियों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। गीतों के माध्यम से ही समुदाय के लोगों ने मोर और कोदारो जैसी चावल की क़िस्मों के बारे में जाना। इन क़िस्मों की खेती में बहुत ही कम पानी लगता है और इनकी खेती पहाड़ी के निचले हिस्सों में की जाती है जहां पानी के स्रोतों से उनकी सिंचाई होती है। उन्हें यह भी मालूम है कि उड़द और मूंग जैसी दालों की खेती मानसून के दिनों में की जानी चाहिए क्योंकि इन फसलों को एक निश्चित समय अवधि के लिए नियमित बारिश की ज़रूरत होती है। हालांकि, ये सभी ज्ञान अब अप्रासंगिक हो गए हैं क्योंकि पानी के झरने सूख चुके हैं और बारिश भी अनियमित हो गई है। बहुत अधिक बारिश होने से मोर और कोदारो के बीज बह जाते हैं और उड़द और मूंग की खेती के समय पर्याप्त रूप से नियमित बारिश नहीं होती है। 

इसके अलावा, खेतों में मज़दूरों की जगह मशीनों ने ले ली है और बाज़ार से लाये गये बीज और खाद ने प्राकृतिक परंपराओं को ख़त्म कर दिया है। अब जब, पारंपरिक अनाजों के बदले इन पहाड़ियों में स्ट्रॉबेरी जैसे फल उगाए जाने लगे हैं, ऐसे में समुदाय के लोग ‘पौराणिक प्रथाओं’ को इससे कैसे जोड़ पाएंगे? आपको यह बदलाव विशेष रूप से नंदुरबार बाजार के आसपास की जगहों पर देखने को मिलेगा

चूंकि खेती के पुराने तरीक़ों ने अपना महत्व खो दिया है, उनसे जुड़े मिथक भी अब महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं। अब खेती से जुड़ी पौराणिक गीतों और कहानियों को सुनने के लिए कोई भी गान्यू वालो को नहीं बुलाता है, जिसके कारण उनकी आजीविका बहुत अधिक प्रभावित हो रही है और भीली परंपरा के एक महत्वपूर्ण हिस्से के मिट जाने का ख़तरा भी पैदा हो रहा है।

जीतेन्द्र वसावा देहवाली भीली कवि हैं और भील लोक-इतिहास के दस्तावेज़ीकरण का काम करते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कि जलवायु परिवर्तन, कैसे ओडिशा में मनाए जाने वाले पर्व-त्योहारों की देरी का कारण बन रहा है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

गोवंडी में आया बदलाव सामुदायिक ताक़त का उदाहरण है

एक डंपिंग ग्राउंड और धुएं छोड़ती चिमनी_नागरिक समुदाय
गोवंडी एम-ईस्ट वार्ड का हिस्सा है, जो मुंबई के सबसे बड़े डंपिंग ग्राउंड और इसके एकमात्र बायोमेडिकल अपशिष्ट भट्टी के लिए कुख्यात है। | चित्र साभार: शेख फ़ैयाज़ आलम

सितंबर 2023 में, हमारे नागरिक-नेतृत्व वाले संगठन – गोवंडी न्यू संगम वेलफेयर सोसाइटी – को पहली बड़ी जीत उस समय मिली जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने गोवंडी के शिवाजी नगर से बायोमेडिकल अपशिष्ट भट्टी को हटाने का आदेश दिया। हमने अक्टूबर 2022 में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर करते हुए तत्काल कार्रवाई की मांग की थी, और हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि प्लांट को दो साल के भीतर एक औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाए।

गोवंडी एम-ईस्ट वार्ड का हिस्सा है, जो मुंबई के सबसे बड़े डंपिंग ग्राउंड और इसके एकमात्र बायोमेडिकल अपशिष्ट भट्टी के लिए कुख्यात है। इन कारकों की वजह से यह क्षेत्र तेज़ी से टीबी (तपेदिक), ब्रोंकाइटिस और ऐसी ही अन्य बीमारियों  की चपेट में आ रहा है।

मेरा जन्म और पालन-पोषण गोवंडी में ही हुआ है और मैं, हमारे आसपास के इलाकों के प्रति नगरपालिका की उदासीनता के नतीजों का साक्षी रहा हूं। यहां, नागरिक मुद्दों पर कई समाजसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं, लेकिन हमें मालूम है कि इसके बावजूद जमीनी हकीकत कुछ और ही है और यहां परिस्थितियों में कोई बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है। स्वच्छता की कमी, कुछ खुली जगहें और शिक्षा की खराब सुविधाएं ऐसी समस्याएं हैं जिन्हें प्रशासन के सामने लाये जाने की जरूरत है, और इसके लिए समुदायों के प्रतिनिधियों से बेहतर दूसरा कौन हो सकता है?

शुरुआत में मैंने अकेले ही काम किया। मैं सोशल मीडिया पर सड़कों के गड्ढों और स्वच्छता की बदतर स्थिति के बारे में लिखता था। स्थानीय लोगों ने मेरे प्रयासों पर ध्यान दिया और मेरे इस काम की सराहना भी की। इसके बाद, धीरे-धीरे वे मेरे साथ इस अभियान में जुड़ने लगे। 2021 में, हमने अपने संगठन का पंजीकरण करवाया क्योंकि हमारा मानना था कि यह समुदाय के प्रतिनिधियों के रूप में हमारे काम को आधिकारिक बना देगा। हमने अपनी जनहित याचिका का समर्थन करने के लिए स्वास्थ्य और सामाजिक-आर्थिक डेटा इकट्ठा करते हुए, बायोमेडिकल कचरा भट्टी के खिलाफ सक्रिय रूप से अभियान शुरू किया। इनमें टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज की 2015 की रिपोर्ट भी शामिल थी, जिसमें पता चला था कि एम-ईस्ट वार्ड का मानव विकास सूचकांक शहर में सबसे कम था।

हमने सूचना के अधिकार का उपयोग करके एक आवेदन दिया ताकि हम सांस से संबंधित रोगों से जुड़े सरकारी स्वास्थ्य आंकड़े प्राप्त कर सकें। इस आवेदन के बाद प्राप्त आंकड़ों से हमें पता चला कि इस वार्ड में हर साल लगभग 5,000 लोग टीबी से पीड़ित हो जाते हैं। 

अदालत का आदेश आने से हमें नई प्रेरणा मिली। अब हम अपने पड़ोसी उपनगर देवनार में वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट स्थापित करने के बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) के फैसले के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। हमने अपने समुदाय के लोगों को दिल्ली और ओखला में स्थित इसी तरह के प्लांट से होने वाले प्रदूषण और स्थानीय लोगों के विरोध के बारे में जागरूक किया है।

जानकारी का प्रचार-प्रसार हमारे मुख्य उद्देश्यों में से एक है और इसके लिए हम वीडियो, समाचार क्लिपिंग और सोशल मीडिया पोस्ट जैसे माध्यमों का उपयोग करते हैं।

हम लैंडफ़िल पर पुराने समय से चली आ रही मानव द्वारा मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ भी अभियान चला रहे हैं। हम बीएमसी पर एक अतिरिक्त मुस्लिम कब्रिस्तान के निर्माण के लिए दबाव बना रहे हैं; और खुली जगहों को दोबारा ठीक करवाने के लिए काम कर रहे हैं। क़रीब 50-60 सदस्यों की हमारी कोर टीम वार्ड के विभिन्न मोहल्लों के सैकड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। उन समुदायों के पास अपने-अपने व्हाट्सएप ग्रुप हैं जहां स्थानीय समस्याओं पर चर्चा की जाती है। उन समस्याओं को हल करने के तरीके खोजने के लिए कोर टीम महीने में एक या दो बार बैठक करती है।

स्थानीय नेताओं को इस बात का डर सताता रहता है कि हमारे काम का कोई राजनीतिक उद्देश्य है और उन लोगों ने असामाजिक तत्वों की मदद से हमें डराने का प्रयास भी किया। लेकिन हमारी ज़मीन मज़बूत है। समुदाय के कुछ सदस्यों ने भी हमें यह कहते हुए भटकाने की कोशिश की कि हमें अपने जीवन और करियर पर ध्यान देना चाहिए। लेकिन अब, हमारे द्वारा किए गये प्रयासों के सकारात्मक परिणाम के कारण हमने अपने विरोधियों का दिल भी जीत लिया है।

शेख़ फ़ैयाज आलम गोवंडी न्यू संगम वेलफेयर सोसाइटी के प्रमुख हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें भलस्वा लैंडफिल में ई-कचरे से किसे फायदा होता है।

अधिक करें: लेखक के काम को जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

दैवीय ताकतों के सहारे खनन माफिया से निपटने का अनोखा तरीका

रेगिस्तान में एक खान_अवैध खनन
जमीन का एक बड़ा हिस्सा, जमीन क़ानून का उल्लंघन कर लीज पर लिया गया है। | चित्र साभार: ईश्वर सिंह

राजस्थान के राजसमंद जिले में राजवा गांव, अरावली पहाड़ियों के बीच में है। इन पहाड़ियों पर बसे लोगों के पास खेती और उपज वाली जमीन सीमित होती है। इसके चलते, ज्यादातर लोगों को काम की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ता है या फिर वे पशुपालन के सहारे बसर करते हैं। महिलाएं ज्यादातर मनरेगा योजना के तहत मिलने वाले काम करती हैं।

साल 2014 से, इस गांव में खनन के माफिया सक्रिय हैं। उन्होंने मार्बल पत्थर वाले इलाकों को लीज पर ले रखा है। इनमें कुछ जमीनें निजी तौर पर ख़रीदी गईं है लेकिन एक बड़ा हिस्सा, ज़मीन क़ानून का उल्लंघन कर लीज पर लिया गया है। यह जमीन पहले चारागाह की जमीन थी। लगभग 500 मीटर चौड़े और चार किलोमीटर लंबे, इस इलाके में अब पांच मार्बल खानें चल रही हैं। इलाक़े में खनन माफियाओं का प्रभाव कुछ ऐसा था कि जब लोग अपने जानवरों को लेकर चरागाह की जमीन पर जाते तो उन्हें पुलिस की धमकी दी जाती। वे लोग जिनकी जमीनों पर मार्बल था उन्होंने अपनी आर्थिक जरूरतों और कर्ज़ चुकाने के लिए जमीन बेचना शुरू कर दिया। इसके चलते, गांव के चारागाह की आधे से ज्यादा जमीन पर खनन होने लगा। पशुओं के चरने के लिए, मनरेगा के काम के लिए, लकड़ी लाने की जगहें धीरे-धीरे बड़े और गहरे गड्ढों मे तब्दील होती गईं। इन मुश्किलों के चलते राजवा गांव के एक बाड़िया धोरा के लोगों — जिनकी जमीन पर इलाके की पहली खान शुरू हुई थी — ने इन खानों को बंद करने की पहल की। वे लोग जो अपनी जमीन खनन के लिए बेच चुके थे, उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने बाकी गांव वालों से जमीन वापस लेने के लिए मदद मांगी। लेकिन खनन मालिकों के पास 60 साल की लीज होने के कारण प्रशासन से किसी तरह की मदद नहीं मिल सकी।

जब कोई रास्ता नहीं मिला तो लोगों ने नए उपाय सोचे। खनन की जगह पर उनके लोक देवता का मंदिर था जिसकी वे पूजा करते थे। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि देवता के बहाने वहां की जमीन से हटना नहीं है। गांव वालों ने मिलकर तय किया कि वे बिना तोड़फोड़ और हिंसा के अपना प्रदर्शन करेंगे। इसके लिए वे अपना बोरिया-बिस्तर, भेड़-बकरी, गाय-भैंस वग़ैरह लेकर जाएंगे और दिन भर वही बैठे रहेंगे। लगभग 100-150 आदमी रोज जमीन पर जाकर इसी तरह बैठने लगे ताकि खनन के काम पर रोक लगी रहे।

महिलाओं ने एक कदम आगे बढ़कर, अंधविश्वास कहे जा सकने वाले एक तरीक़े से पर्यावरण को बचाने का फैसला किया। यह अनोखा तरीक़ा था ‘भाव’। भाव आना मतलब शरीर में देवता का निवास होना – ऐसे लगता है कि लोगों के अंदर कोई दैवीय शक्ति आने के कारण उनके भावनात्मक और शारीरिक व्यवहार में बदलाव आ रहा है। प्रदर्शन के दौरान, मनरेगा का काम करने वाली 30-40 महिलाएं भाव करने लगीं। वे 10-10 के गुट बनाकर यह करती थीं। इस दौरान पुरुषों ने घर के काम संभाले जो आमतौर पर महिलाएं करती रही हैं।

यह सिलसिला लगातार एक महीने तक चला। जब खान मालिकों को एहसास हुआ कि ये लोग नहीं हटेंगे तो उन्होंने जगह खाली कर दी। बीते दो सालों से उस खान को दोबारा नहीं चलाया गया। लेकिन इलाक़े में अभी भी चार और खाने है जहां रात दिन खुदाई चल रही है।

ईश्वर सिंह एक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो अनौपचारिक श्रमिकों और शिक्षा के मुद्दों पर काम करते हैं।

अधिक करें: लेखक के काम के बारे में अधिक जानने और उसका समर्थन करने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें। 

क्या अंग्रेजी भाषा ही योग्यता और अनुभवों को आंकने का पैमाना है?

मेरा नाम अनिल कुमार है। मैं महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में सक्रिय एक ज़मीनी कार्यकर्ता हूं। बीते 17 सालों से विकास सेक्टर में होने के बावजूद मुझे पिछले दिनों नौकरी ढूंढने में अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसकी एक अहम वजह मेरा सीमित अंग्रेज़ी ज्ञान था क्योंकि अब तक के अपने काम में मुझे सिर्फ़ हिंदी और मराठी की ही ज़रूरत रही थी। नौकरी ढूंढने के दौरान मैंने पाया कि चाहे अपना काम मैं इन भाषाओं में ही करूं, लेकिन नौकरी पाने के लिए मेरा अच्छी अंग्रेज़ी जानना बहुत ज़रूरी है। 

मैंने अलग-अलग राज्यों में विकास सेक्टर के अलग-अलग हिस्सों में लंबे समय तक काम किया है। और, मुझे लगता है कि ज़मीनी कार्यकर्ताओं की नियुक्ति या उनके दैनिक काम, उसी भाषा में होने चाहिए जिसमें वे सहज हों। या फिर, कम से कम अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी या क्षेत्रीय भाषा का भी विकल्प होना चाहिए। अगर नौकरी पाने और करने के दौरान अंग्रेज़ी का दबाव नहीं होगा हो तो हम ज़मीनी कार्यकर्ता बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे।

अधिक जानें: जानें कैसे एक ज़मीनी कार्यकर्ता ने लैंगिक भूमिकाओं पर काम करते हुए समानता के सही मायने समझे।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

आदिवासी समुदाय मिलकर अपनी संस्कृति को बचा सकते हैं

यह एक व्यापक सच्चाई है और हम आदिवासियों का भी मानना है कि ज्ञान किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होता है, इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए हजारों वर्षों से विभिन्न आदिवासी समुदायों द्वारा सहेजे गए ज्ञान को संरक्षित करना मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। मेरे पिता, दिवंगत पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा – एक प्रमुख विद्वान, लेखक, अनुवादक, संगीतकार और आदिवासी सांस्कृतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने मुझसे पहले इस संस्कृति को संरक्षित किया और मुझे यकीन है कि उनसे पहले भी तमाम लोग इसे इसी तरह संजोने का काम करते रहे होंगे। किसी संस्कृति को लुप्त होने के लिए केवल एक पीढ़ी की उपेक्षा चाहिए होती है और मैं वह पीढ़ी या उसका हिस्सा नहीं बनना चाहता हूं।

पिछले एक दशक से कई आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा, हो, भूमिज, संथाल वग़ैरह के सदस्य यहां आते हैं। ये सब टाटा स्टील फाउंडेशन के एक आदिवासी सम्मेलन संवाद में शामिल होने के लिए इकट्ठा होते हैं। इसके ज़रिये यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाता है कि हमारी परंपराएं आगे भी ऐसे ही फलती-फूलती रहें। इसके लिए इस वार्षिक आयोजन में हमारे कई वाद्ययंत्रों का प्रदर्शन और उनकी मदद से प्रस्तुतियां भी की जाती हैं। इनमें नगाडा, ढुलकिस, डुमांग और डैंक सहित लगभग 500 विभिन्न वाद्ययंत्र शामिल हैं जो हमारी संस्कृतियों से बहुत गहराई से जुड़े हैं। यह प्रस्तुतियां पूरी तरह से एक सामुदायिक पहल होती हैं। हम ख़ुद संगीत का प्रवाह और धुन तय करते हैं। इसके लिए हमारे पास कोई पेशेवर कोरियोग्राफर नहीं होता जो हमें मार्गदर्शन दे सके।

रिहर्सल के दौरान, जब विभिन्न आदिवासी समुदायों से आने वाले लोग एक साथ इकठ्ठा होते हैं तो हमें एक-दूसरे से बातचीत करने और सीखने का अनोखा अवसर भी मिलता है। आमतौर पर, हमारे पास एक-दूसरे से जुड़ने और अपनी सफलताओं-असफलताओं पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त मौक़े और मंच नहीं होते हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि आदिवासियों के रूप-रंग और पहनावे में अंतर के बावजूद दुनियाभर में उनके संघर्ष एक जैसे ही हैं। तेजी से बदलती दुनिया में, हम में से अनगिनत लोग अपने भूमि अधिकारों, अपनी परंपराओं और अपनी भाषा को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए, इस तरह के नेटवर्क विचारों और ज्ञान के आदान-प्रदान के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

गुंजल इकिर मुंडा एक शिक्षाविद् हैं जो भारत के विश्वविद्यालयों में आदिवासी संस्कृति से संबंधित विषयों को पढ़ा रहे हैं। वह आदिवासी कला, संस्कृति, संगीत और नृत्य के संरक्षण के लिए समर्पित रांची स्थित संगठन रंबुल के सह-संस्थापक भी हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़े

अधिक जाने: जानें कि गुजरात में राठवा समुदाय और अनुसूचित जनजाति के अधिकार क्या हैं?

राजस्थान की ग्रामीण लड़की यूट्यूब का क्या करेगी?

मैं राजस्थान के अजमेर जिले में पड़ने वाले चाचियावास गांव से हूं। मेरी बड़ी बहन की शादी हो चुकी है और मेरा भाई दूसरे शहर में काम करता है। और इसलिए, पिछले कई सालों से घर के कामों के साथ-साथ मानसिक रूप से बीमार हमारी मां के देखभाल की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। हमारे गांव के नियम के अनुसार बीए तक की पढ़ाई करने वाली लड़कियों की भी शादी जल्दी कर दी जाती है। मुझसे भी यही उम्मीद की जा रही थी, लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहती थी – मैं जानती थी कि मैं शादी करके खुश नहीं रह पाऊंगी। मैं अपना जीवन बनाना चाहती थी।

मैं हमेशा ही रचनात्मक थी और क्लास में बैठ-बैठे कपड़ों के डिज़ाइन बनाया करती थी। मुझे इस बारे में पता नहीं था कि डिज़ाइन भी एक पेशा हो सकता है, लेकिन जब मेरे शिक्षक ने मुझसे इसके बारे में बताया तब मुझे पता चला कि मुझे यह करके देखना चाहिए। मैंने यूट्यूब से फैशन डिज़ाइन की पढ़ाई शुरू की और यहां तक कि राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी संस्थान (निफ्ट) की प्रवेश परीक्षा में भी सफल हुई। लेकिन एक लाख रुपये का प्रवेश शुल्क मेरी आर्थिक सीमा से बाहर की चीज थी और मैं अपना नामांकन नहीं करवा सकी। मैंने बीए कोर्स में भी अपना नाम लिखवाया लेकिन बाद में उसे छोड़ने का फैसला करना पड़ा क्योंकि मेरी प्राथमिकता पैसा कमाना था।

तभी मैं आईपीई ग्लोबल के प्रोजेक्ट मंज़िल से जुड़ गई, जो कौशल-आधारित प्रशिक्षण और नौकरी प्लेसमेंट की सुविधा प्रदान करता है। प्रोजेक्ट टीम के साथ अपने करियर से जुड़ी इच्छाओं पर चर्चा करने के बाद, मैं जयपुर शहर चली गई और वहां एडब्ल्यूएस सर्टिफ़िकेशन पूरा किया जो एक क्लाउड कंप्यूटिंग कोर्स है।

शुरुआत में यह कोर्स मेरे लिए चुनौतीपूर्ण था क्योंकि मेरे पास कंप्यूटर चलाने का अनुभव नहीं था। मैं इसे चालू करना भी नहीं जानती थी। लेकिन धीरे-धीरे, मैंने सीखा और बेहतर होती गई, और कोर्स के अंत में मुझे जयपुर में ही नौकरी मिल गई।

मेरे लिए अपने माता-पिता को यह बात समझाना मुश्किल था कि मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र क्यों होना चाहती थी। जब मैंने घर छोड़ने का फ़ैसला लिया तब मेरे पिता बहुत दुखी हो गये थे। मेरे ना रहने पर मेरे हिस्से का सारा काम उन्हें ही करना पड़ता था – घर के कामों की ज़िम्मेदारी से लेकर मेरी माँ की देखभाल तक। उन्होंने कुछ महीनों तक मुझसे बात भी नहीं की। लेकिन, समय के साथ मेरे परिवार ने मेरे फ़ैसले को स्वीकार कर लिया। हालांकि मेरे पड़ोसी अब भी इस बात के लिए उन्हें ताने देने से नहीं चूकते हैं। मैं घर के खर्चों में मदद के लिए अपने पिता को पैसे भी भेजती हूं।

घर छोड़ने का फैसला मेरे लिए भी आसान नहीं था; शुरुआत में, मैं बहुत डरी हुई थी। लेकिन मुझे यह मालूम था कि मैं अपने इस सुरक्षित खांचे से बाहर निकलना चाहती थी। जयपुर जाने के बाद मैंने एक कमरा किराए पर लिया और अब मैं अपना सारा काम – अपने लिए खाना पकाने से लेकर अपना सारा खर्च उठाने तक – खुद ही सम्भालती हूं। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है। कुछ-कुछ समय पर मैं अपने घर भी जाती हूं। एक तरह से, मैं और मेरे पिता, हम दोनों इस नई परिस्थिति के अनुसार ढल चुके हैं।

अब मैं एक स्थायी नौकरी में हूं और मुझ पर – अपनी और मेरे माता-पिता दोनों की – आर्थिक जिम्मेदारियां भी हैं। ऐसे में फैशन डिज़ाइन के क्षेत्र में वापस लौटने या उसकी पढ़ाई का खर्च उठाने की मेरी उम्मीद धुंधली पड़ती जा रही है। हालांकि, मैं हार ना मानने का पक्का इरादा किया है। इसलिए, मैं ऐसे प्रयास करती रहती हूं जिससे कि अलग से कुछ पैसे कमा सकूं। कभी-कभी मैं ओवरटाइम भी करती हूं। हाल ही में, मैंने अपनी कमाई का एक छोटा सा हिस्सा एसआईपी में भी निवेश करना शुरू किया है। इसके अलावा मैं यूट्यूब से शेयर बाज़ार में ट्रेडिंग के तरीक़े भी सीख रही हूं। तकनीक के साथ मेरे काम के कारण अब मैं इंटरनेट की पेचीदगियों को समझने लगी हूं, जिसमें अधिकतम हिट वाले और समझने में आसान कंटेंट बनाने वाले सही कंटेंट क्रिएटर को चुनना शामिल है। मैं ट्रेडिंग की जटिल अवधारणाओं को ठीक से समझने के लिए ऑडियोबुक भी सुनती हूं। मैं एक अच्छे ऑनलाइन सर्टिफिकेट कोर्स की भी तलाश में हूं और मैंने अपनी डिग्री पूरी करने के लिए बीए कोर्स में नामांकन भी करवाया है। जयपुर आने के बाद से मैंने अपने भीतर एक बदलाव महसूस किया है और मैं सोचती हूं कि काश मुझे अपना खोया हुआ समय वापस मिल जाता।

दीपा शारदा राजस्थान के जयपुर में काम करती हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कैसे ग्रामीण युवा एक अनमोल संसाधन हैं।

अधिक करें: लेखक के काम के बारे में अधिक जानने और उसका समर्थन करने के लिए उससे [email protected] पर संपर्क करें।

बाढ़ के चलते आंगनबाड़ी केंद्र के बिना चल रही पढ़ाई

आंगनबाड़ी में शिक्षिकाओं के साथ बच्चे_आंगनवाड़ी केंद्र
मोथोला में, 1990 के दशक में बना पहला आंगनबाड़ी केंद्र भूस्खलन और मिट्टी के कटाव के कारण नष्ट हो गया है। | चित्र साभार: अत्रेयी दास

डिब्रूगढ़, असम के लाहोवाल ब्लॉक में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित मोथोला गांव एक आपदा-संभावित क्षेत्र है। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और मौसमी परिस्थितियां बाढ़, मिट्टी के कटाव और भूस्खलन का प्रमुख कारण हैं। बाढ़ आने पर इस इलाके में पानी के ऊपर केवल पेड़ों का ऊपरी हिस्सा ही दिखाई पड़ता है और लोगों के घरों की छत तक पानी में डूबी होती है।

मोथोला की आबादी 500 से अधिक है, फिर भी यहां के सबसे नजदीकी प्री-प्राइमरी और प्राइमरी स्कूल लगभग 5-10 किमी की दूरी पर हैं। 1990 के दशक में बना यहां का पहला आंगनबाड़ी केंद्र भूस्खलन और मिट्टी के कटाव के कारण नष्ट हो गया। साल 2006 में, सरकार ने ब्रह्मपुत्र के बांध के पास एक और आंगनबाड़ी केंद्र बनाने का आदेश पारित किया। लेकिन 2019 में, मानसून के कारण जब गांव में बाढ़ आई तब बांध का आकार बढ़ाने के लिए इस केंद्र को ध्वस्त कर दिया गया। इसके बाद समुदाय के लोगों ने एक वैकल्पिक केंद्र बनाने का फैसला किया।

2021 में, डिब्रूगढ़ के मोथोला टी स्टेट में काम करने वाली निकी कर्माकर ने अपने एक-मंज़िला घर की बालकनी में एक आंगनबाड़ी केंद्र स्थापित करने का फैसला किया। निकी ने हमें बताया कि हर साल लगभग छह महीने तक, जल स्तर में वृद्धि के कारण क्षेत्र में कोई भी स्कूल काम नहीं कर पाता है। वे बताती हैं कि ‘मेरे घर के बनकर तैयार होने के बाद मुझे लगा कि इस बालकनी वाली जगह का इस्तेमाल बच्चों को पढ़ाने के लिए किया जा सकता है। जब तक कोई नया केंद्र बनकर तैयार नहीं हो जाता तब तक मुझे जगह देने में खुशी होगी।’ हर दिन सुबह नौ बजे उनकी छोटी सी बालकनी में जूट के बोरों से बनी चटाई पर बच्चे इकट्ठा हो जाते हैं। आशा कर्मचारी आरती सोनोवाल मिड-डे भोजन के साथ वहां आती हैं। वे बच्चों को पढ़ाने के लिए चार्ट और किताबों का इस्तेमाल करती हैं। इसके बाद, भोजन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे बच्चों में मिड-डे मील वाला खाना बांटती हैं।

निकी इस बात से खुश हैं कि बच्चों को शिक्षा मिल रही है लेकिन वह यह भी जानती हैं कि यह वैकल्पिक व्यवस्था स्थायी नहीं है। ‘चाहे मैं कितना भी प्रयास क्यों ना कर लूं, मेरा घर एक आंगनबाड़ी केंद्र नहीं हो सकता है। घर में किसी दिन कोई समस्या खड़ी हो जाने या आशा कर्मचारी के अनुपस्थित होने की स्थिति में स्कूल नहीं चल सकता है।’

वे आशा करती हैं कि जल्द ही नया स्कूल गांव के भीतर ही ऊपरी इलाक़े में बन जाएगा, फिर बाढ़ या जलवायु संबंधी अन्य आपदाओं के कारण शिक्षा में किसी तरह की बाधा नहीं पहुंचेगी।

अत्रेयी दास एक महत्वाकांक्षी पत्रकार और सामाजिक प्रभाव के लिए काम करने वाली कार्यकर्ता हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि पोषण ट्रैकर ऐप के साथ आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

राजसमंद की नारी अदालत: महिलाओं को न्याय दिलाने वाला अनोखा मंच

राजस्थान के दक्षिणी हिस्से में बसे राजसमंद जिले में कुछ महिलाएं अपने अलग अंदाज में महिला अधिकारों एवं महिलाओं के साथ हुए अत्याचारों पर काम कर रही हैं।यहां की महिलाएं अपनी नारी अदालत चलाती हैं। इस नारी अदालत में वे महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों जैसे बलात्कार, महिला परित्याग, दहेज, नाता प्रथा, डायन प्रताड़ना वगैरह जैसी कई समस्याओं से जुड़े मामलों को अपने तरीक़े से सुलझाती हैं।

एक सदस्य अपने शब्दों में, नारी अदालत चलाने का कारण बताते हुए कहती हैं कि ‘गरीब महिला के पास वकील करने के लिए पैसे नहीं होते हैं, तारीख पर तारीख आती है और सामने वाला अगर ज्यादा पैसे वाला हो तो उनके लिए न्याय कभी होता ही नहीं।’ ऐसे मुद्दों को सुलझाने के लिए नारी अदालत का गठन हुआ।

वास्तव में, नारी अदालत एक दबाव समूह के रूप में काम करती है। जब कोई महिला अपना केस लेकर आती है तो वे अपने रिकार्ड में केस दर्ज करते हैं। दोनों पक्षों को अपनी बात रखने के लिए उन्हें निश्चित तारीख पर अपने ऑफिस में बुलाकर उन्हें सुनते हैं और मामले को आपसी समझाइश से सुलझाने का प्रयास करते हैं।

कई बार वे पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए दूसरे पक्ष पर जबरदस्त दबाव बनाते हैं और पीड़ित के लिए त्वरित सुनवाई और न्याय सुनिश्चित करते हैं। अब तक यह नारी अदालत ज़िले भर के 2000 से अधिक मामले सुलझा चुकी है। उन्हें अब अन्य जिले एवं राज्यों से आने वाले मामले भी मिलने लगे हैं।

लेकिन नारी अदालत के अपनी ऐसी पहचान बना पाना आसान नहीं था। शुरुआत में उन्हें अपने परिवार तक का विरोध झेलना पड़ा था, इलाके के लोगों से अभद्र शब्द भी सुनने पड़े, लेकिन आज वे ही लोग उनके जज्बे को सलाम करते हैं।     

पहले जहां ये महिलाएं अपने घर में भी नहीं बोलती थीं, आज लगातार प्रशिक्षण के बाद कहती हैं  कि ‘कई मामलों में पुलिसवालों तक पर दबाव डालना पड़ता है। उनको हम कहती हैं कि ये थाने-चौकी तो हमारे पीहर हैं।’

इन स्थानीय महिलाओं ने न केवल अपने घूंघट और घरों से बाहर निकलकर अपनी पहचान बनाई है। बल्कि, एक ऐसा मंच बनाया है जहां आसान और त्वरित न्याय मिलने के चलते अनगिनत महिलाओं के जीवन में भी रोशनी आ रही है। 

शकुंतला पामेचा राजसमंद महिला मंच की निदेशक हैं। उन्होंने साल 2000 में नारी अदालत की शुरुआत की थी। उनके इस मंच से विभिन्न जाति की महिलाएं जुड़ी हैं जो कई अलग-अलग गांवों से आती हैं।

अधिक जाने: जानें कैसे एक स्कूटर सवार पितृसत्ता को पीछे छोड़ रही है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

श्मशान भूमि के लिए कालबेलिया समुदाय का संघर्ष

राजस्थान के कई जिलों में बसा कालबेलिया समुदाय एक घुमंतू समुदाय के तौर पर जाना जाता रहा है। विशेष रूप से जोधपुर के गांवों की बात करें तो इस समुदाय के लोग अब एक जगह पर रहकर ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन अब इस समुदाय के लिए, मृत्यु के बाद अपने लोगों को जलाने के लिए श्मशान घाट की जमीन उपलब्ध नहीं है।

यहां तक कि जो लोग 20-25 सालों से भी एक जगह पर रह रहे हैं, उनके लिए आज भी श्मशान भूमि न मिल पाना एक समस्या बनी हुई है। ऐसे में उनके पास मृतकों को जलाने की बजाय उन्हें जमीन में दफनाने का ही विकल्प बचता है। जमीन न होने की वजह से लोग शवों को अपने घर के सामने ही दफ़नाने पर मजबूर हो रहे हैं। इस वजह से गांवों में हर कहीं कब्रें बनती जा रही हैं। कोविड-19 में तो यह समस्या और भी ज्यादा गंभीर हो गई थी।

कोरो इंडिया संस्था के माध्यम से हमने ऐसे लोगों की मदद करने की कोशिश की है जिन्हें शवों को जलाने के लिए जमीन नहीं मिल पा रही थी। अभी हम लगभग 35 गांवों में काम कर रहे हैं। हमने श्मशान घाट की जमीन की समस्या के लिए कालबेलिया समुदाय के लोगों को साथ लेकर कई बार प्रशासन के सामने धरना दिया है। हम वी, द पीपल अभियान के ज़रिये समुदाय के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए, संविधान की जानकारी देते हैं। इसके फलस्वरूप, श्मशान के लिए कई गांवों में सरकार की ओर से जमीन भी मिल गई है। मैंने खुद अपनी संस्था के प्रयासों से सरकार से अपने गांव के लिए पांच बीघा भूमि आवंटित करवाई है। हालांकि अभी भी कुछ गांव ऐसे हैं जहां ज़मीन तो उपलब्ध हो पाई है मगर जमीन का पट्टा नहीं मिल पाया है और यहां तक कि सरकारी रिकार्ड में भी कालबेलिया समुदाय के लोगों का नाम जुड़ नहीं पाया है।

गांव के कुछ स्थानीय निवासियों का कहना होता है कि ये कालबेलिया समुदाय के लोग तो घुमंतू होते हैं, आज यहां रहेंगे तो कल कहीं और चले जाएंगे तो इसलिए इनको ज़मीन का पट्टा देने का कोई मतलब नहीं है। कई बार स्थानीय प्रतिनिधि भी इस तरह के लोगों के प्रभाव में आ जाते हैं और इस वजह से होने वाला काम बीच में रुक जाता है।

हमने कालबेलिया समुदाय की कुछ प्रमुख मांगें स्थानीय विधायक के सामने रखी हैं। इसमें श्मशान की जमीन का पट्टा दिलाना और हर पंचायत में कालबेलिया समाज के लोगों के लिए एक सामुदायिक भवन की व्यवस्था करना शामिल है। इस समुदाय के लोगों के पास, जब तक ज़मीन संबंधी कागज़ात नहीं होंगे तब तक ये घर बनाने के लिए सरकारी अनुदान, पानी, बिजली आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं से पूरी तरह से वंचित रहेंगे।

तिलोकनाथ कालबेलिया बीते पांच सालों से राजस्थान में कालबेलिया समुदाय के लिए काम कर रहे हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़े

अधिक जानें: जानें कि किस तरह से महिलायें अपनी ज़मीन का मालिकाना हक पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं?

अधिक करें: लेखक के काम के बारे में विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।