राजस्थान में ऊंटों और रायका समुदाय पर आया संकट

रेगिस्तान मे ऊंटों के झुंड मे खड़े व्यक्ति _राजस्थान के ऊंट
राजस्थान के रायकों की कई पीढ़ियां ऊंट चराने का काम ही करती आई हैं। | चित्र साभार: अंसा ऑगस्टीन

बीकानेर जिले के ग्रांधी गांव में गनाराम रायका अपने 300 ऊंटों के बेड़े के साथ रहते हैं। राजस्थान के रायकों की कई पीढ़ियां ऊंट चराने वाली रही हैं। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में इसमें बदलाव आया है।

साल 2015 में राज्य के बाहर ऊंटों की बिक्री और निर्यात पर प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून लागू किया गया। इस कानून के कारण स्थानीय ऊंट व्यापार में काफी गिरावट आई। राज्य में इस कानून के लागू होने के बाद से ऊंट व्यापारियों एवं चरवाहों के पास अपने मवेशियों की विशेष देखभाल का कोई कारण नहीं रह गया है। नतीजतन, कई व्यापारी और चरवाहे अपने मवेशियों को खुला छोड़ने पर मजबूर हो गये हैं, और कुछ ने तो अपने ऊंटों को यूं ही जंगल में भटकने के लिए छोड़ दिया है।

चूंकि ऊंट अब उनके लिए लाभदायक नहीं रह गये हैं, इसलिए गनाराम के गांव के कई अन्य रायका परिवारों ने आजीविका के लिए दूसरे पेशे चुन लिए हैं।

गनाराम स्वयं भी खेती करते हैं, लेकिन उनका प्राथमिक पेशा आज भी ऊंट चराना ही है, क्योंकि ऊंट उनकी संस्कृति और मान्यताओं का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं। उनका कहना है इन पशुओं में उन्हें भगवान शिव दिखाई पड़ते हैं। अपने मवेशियों की देखभाल के अलावा गनाराम अन्य लोगों द्वारा उनकी देखरेख में छोड़े गए ऊंटों की भी देखभाल करते हैं जो अब उनका भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं। कभी-कभी, इस व्यवस्था में पैसों का लेनदेन भी शामिल होता है, जिसमें ऊंट मालिक गनाराम को उनकी सेवा के बदले में प्रति माह एक छोटी राशि देता है। लेकिन जब लोग उन्हें पैसे देने की स्थिति में नहीं होते हैं तब बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के वे ऊंट गनाराम की झुंड का हिस्सा हो जाते हैं।

गनाराम अपने ऊंटों के विशाल बेड़े को अपने गांव के आसपास के बचे-खुचे चारागाह में लेकर जाते हैं। ऊंट चराने वाले अपने चरागाहों को गोचर, ओरण और पैठन जैसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। ये नामकरण अलग-अलग क्षेत्रों – घास के मैदान, जंगल और जल जलाशयों का प्रतिनिधित्व करते हैं – जो उनकी देहाती जीवन शैली का अभिन्न अंग हैं। लेकिन जमीनों के क्षेत्रफल में तेजी से कमी आ रही है या फिर इनका पुनर्उपयोग किया जा रहा है। गनाराम परंपरागत रूप से जिस चरागाह भूमि पर निर्भर थे, उसका अधिकांश हिस्सा अब अवैध चूना पत्थर खनन के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो क्षेत्र के लोगों को आजीविका प्रदान करता है।

गनाराम ने जहां खनन को रोकने के प्रयास किए, वहीं बकरी जैसे छोटे मवेशियों को पालने वाले चरवाहे, इन चारागाह के सिकुड़ते आकार को लेकर कुछ खास चिंतित नहीं हैं।

अत्यधिक गर्मी और सर्दी में मवेशियों को चराना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। ऐसी स्थिति में गनाराम अपने ऊंटों को चारा खिलाना शुरू कर देते हैं।

यह एक महंगा विकल्प है। उनका वित्तीय बोझ तब और बढ़ जाता है जब उनके मवेशी बीमार पड़ने लगते हैं और उन्हें इलाज की ज़रूरत पड़ती है। गनाराम जैसे चरवाहों की मदद के लिए सरकार ने प्रत्येक नवजात ऊंट बछड़े के लिए 15,000 रुपये का मानदेय तय किया है। लेकिन इस राशि का दावा करना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए पशुचिकित्सक द्वारा जारी किया गया जन्म प्रमाण पत्र आवश्यक है, और राजस्थान के दूरदराज के क्षेत्रों में पशुचिकित्सक दुर्लभ हैं।

सरकार के समर्थन के बिना, राजस्थान में ऊंटों की आबादी तेजी से घट रही है। साल 2012 में ऊंटों की संख्या तीन लाख से अधिक थी जो 2019 में घटकर दो लाख से कम हो गई है। इसलिए पशुओं के संरक्षण के गनाराम के प्रयास भले ही सराहनीय हों, लेकिन इन प्रयासों को संस्थागत समर्थन की जरूरत है।

अंसा ऑगस्टीन एसबीआई यूथ फॉर इंडिया फेलो हैं, जो आईडीआर पर #जमीनी कहानियां के लिए कंटेंट पार्टनर हैं।

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असम के किसानों के सामने धर्म और जलवायु का दोहरा धर्मसंकट

अंबुबाची मेले के दौरान गुवाहाटी में कामाख्या मंदिर की एक तस्वीर_जलवायु परिवर्तन अनुकूलन
पूरे असम और भारत से भक्त और संन्यासी अंबुबाची मेले के लिए गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर में इकट्ठा होते हैं। | चित्र साभार: पोलाश पटांगिया

अंबुबाची मेला असम में मनाया जाने वाला एक वार्षिक उत्सव है। आमतौर पर इस मेले का आयोजन जून के दूसरे-तीसरे सप्ताह में किया जाता है। इसमें राज्य और देशभर से आने वाले श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। इसके लिए वे गुवाहाटी स्थित कामाख्या मंदिर में इकट्ठा होते हैं। इस दौरान राज्य के शहरी इलाक़ों में जहां औद्योगिक जीवन अपनी रफ्तार से चलता रहता है। वहीं, ग्रामीण इलाकों में लगभग सभी प्रकार की कृषि गतिविधियां रुक जाती हैं।

हाल ही में, चिरांग जिले में काम के दौरान मैंने देखा कि इस दौरान लोग धान की बुआई करने से बच रहे थे। इस परंपरा का पालन विशेषरूप से हिंदू असमिया, बंगाली और संथाली किसान करते देखे गये। उनकी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार, अंबुबाची मेले के दौरान धान की रोपनी अशुभ मानी जाती है और ऐसा करने से उस साल ख़राब फसल हो सकती है। इसलिए इस दौरान वे रोपनी की बजाय खेतों में नर्सरी बेड तैयार करना, बीजों के उपचार जैसी अन्य तरह की गतिविधियों में लगे रहते हैं, और मेला खत्म होने के बाद ही बीजारोपण करते हैं।

पहले जब मौसम का अनुमान लगाना आसान था, तब यह व्यवस्था कारगर थी। मध्य-जून से बारिश शुरू हो जाती थी और कभी-कभी तो बाढ़ भी आ जाती थी। जब तक मेला समाप्त होता था, बाढ़ भी कम हो जाती थी और अपने पीछे गीली मिट्टी छोड़ जाती थी जिससे पोखर तैयार करने में मदद मिलती थी। यह रोपणी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम होता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब स्थितियां पहले जैसी नहीं रह गई हैं। अब मानसून देरी से आता है और मेले के समय लगभग सूखे जैसी स्थिति होती है। जब तक त्योहार ख़त्म होता है, तेज बारिश शुरू हो जाती है। भारी वर्षा वाली यह अवधि फसलों के लिए हानिकारक होती है क्योंकि यह वर्षा, अंकुरों के साथ-साथ मिट्टी को भी बहा ले जाती है।

यह ग्रामीण असम में कृषि समुदायों के लिए एक नई समस्या बन गई है जो अपनी खपत एवं आय दोनों के लिए चावल पर ही निर्भर होते हैं। वे ना तो अपनी सदियों-पुरानी परंपरा को छोड़ सकते हैं और ना ही मौसम की अनिश्चितताओं के अनुकूल स्वयं को ढाल सकते हैं।

पोलाश पटांगिया ऐड एट एक्शन में नॉलेज हब और कम्युनिकेशंस के प्रबंधक के रूप में काम करते हैं।

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छोटाउदेपुर: जहां खनन के चलते खेती से लेकर पढ़ाई तक बंद है

छोटाउदेपुर, गुजरात में खनन की एक जगह
कुछ दशक पहले छोटाउदेपुर में बड़ी मात्रा में डोलोमाइट और ग्रेनाईट जैसे खनिज पाये गए थे। | चित्र साभार: सेजल राठवा

गुजरात राज्य का आदिवासी जिला, छोटाउदेपुर कुदरती सौंदर्य और खनिज संपदा से भरपूर है। इसका समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास भी रहा है जिसमें लोक पूजा और धार्मिक चित्रों से बनी दीवार शामिल हैं। इस आदिवासी जिले में राठवा समुदाय आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। कई अन्य आदिवासी समुदायों की तरह, राठवा भी पारंपरिक रूप से प्रकृति की पूजा करने वाले लोग हैं। वे आसपास के डूंगर (पहाड़ियां) और उनकी गुफाओं की पूजा करते हैं। ये गुफाएं पिथोरा चित्रों से सजी हुई हैं। इन्हें राठवाओं मुख्य देव बाबा पिठोरा के सम्मान में बनाया गया था। समुदाय के सदस्य नियमित रूप से इन जगहों पर जाते हैं।

कुछ दशक पहले इस इलाके में बड़ी मात्रा में डोलोमाइट और ग्रेनाईट जैसे खनिज पाये गए थे। तब से पहाड़ों और ज़मीन पर बड़े पैमाने पर शुरू हुए खनन और विस्फोटों ने लोगों के जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया है। यह न केवल लोगों के सामान्य कामकाज को भी बाधित करता है बल्कि इससे सदियों पुरानी सांस्कृतिक प्रथाओं भी खतरे में आती दिखने लगी हैं। इसके अलावा, यह सिलिकोसिस जैसी कई खनन-संबंधी बीमारियों का कारण तो बन ही रहा है।

विस्फोटों ने राठवाओं के कई पूजा स्थलों को नष्ट कर दिया है और विस्फोटों से उड़ने वाली चट्टानों ने आसपास के इलाकों में लोगों का आना-जाना सीमित कर दिया है। उदाहरण के लिए जेतपुर पावी तालुका के रायपुर गांव में, बच्चों को अपने स्कूल तक पहुंचने के लिए इन पहाड़ियों से गुजरना पड़ता है। किसी भी समय विस्फटने होने, चट्टानों-पत्थरों के बच्चों की ओर उड़ने और उन्हें घायल करने के डर से उनके माता-पिता ने उन्हें स्कूल भेजना बंद कर दिया है। जिन स्थानीय लोगों के खेत पहाड़ियों के करीब हैं, वे भी विस्फोट का काम नियमित होने के बाद से खेती नहीं कर पा रहे हैं। ग्रामीणों के विरोध और ग्राम सभा में आवेदनों देने के बाद खनन का काम फिलहाल रोक दिया गया है।

हालांकि, रायपुर की जीत सामान्य बात नहीं है। छोटाउदेपुर के गांवों में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए खनन ही आजीविका का एकमात्र स्रोत है। वनार की एक खदान में काम करने वाले मजदूर खिमजी भाई बताते हैं कि ‘पहले जब 12 आना मजदूरी मिलती थी, तब से लेके अब तक हम इन्हीं खदानों में काम कर रहे है। हमारे बच्चे भी खदानों में ही काम करते है।’ खदान में काम करने वाले अन्य निवासी गोविंद भाई मेहनताना कम मिलने की ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि ‘खनन में सिर्फ एक ट्रक भरने के हम पांच या छह लोग लगते हैं। दिन भर में हम पांच से छह ट्रक भर देते हैं। हमें एक ट्रक के 300 या 350 रुपए ही मिलते हैं।’ वे बताते हैं कि यह पैसा उनकी सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

इसके अलावा वनार और अन्य गांवों में डोलोमाइट खनन के चलते कई बड़ी-बड़ी खाइयां बन गई हैं। बारिश के मौसम में इनमें पानी भर जाता है। डोलोमाइट में फॉस्फोरस होता है जो पानी के साथ मिल कर उसे हरा कर देता है। ये खाइयां अब पर्यटन स्थल बन गए हैं जहां लोग तस्वीरें खिंचवाने के लिए इकट्ठा होते हैं। लेकिन बीते कुछ सालों में ये कई दुर्घटनाओं के लिए भी जिम्मेदार रही हैं – कई राहगीर इनमें गिरकर घायल हुए हैं, कुछ लोगों को तो जान भी गंवानी पड़ी है।

सेजल रठवा एक पत्रकार हैं और गुजरात के छोटाउदेपुर में रहती हैं।

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वन गुज्जरों के घरों की कीमत पर चारधाम परियोजना

वन गुज्जरों की नौकी बस्ती_वन गुज्जर बाढ़
वन विभाग वन गुज्जरों को इस इलाके का स्थायी निवासी नहीं मानता है। | चित्र साभार: निकिता नाइक

साल 2023 में, जब बारिश समय से थोड़ा पहले आ गई और सामान्य से अधिक मात्रा में पानी बरस गया तो गंगा नदी का जल स्तर एक सप्ताह के भीतर ही बढ़ गया – आमतौर पर नदी के जलस्तर को इस अनुपात में बढ़ने में लगभग एक महीने का समय लग जाता है। इतनी भारी वर्षा के कारण बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो गई। इससे उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले में नौकी बस्ती के नौ घर बह गए। इस इलाक़े में लगभग 100 घर हैं। हालांकि हरिद्वार में बाढ़ कोई नई घटना नहीं है लेकिन चरवाहे और अर्ध-खानाबदोश समुदायों से आने वाले वन गुज्जरों की इस बस्ती नौकी पर इससे पहले बाढ़ का इतना गंभीर असर कभी भी देखने को नहीं मिला था।

वन गुज्जर, इसका दोषी भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) द्वारा चारधाम राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना के लिए बनाई गई रिटेनिंग दीवारों को मानते हैं। इसी बस्ती में रहने वाले यकूफ बताते हैं कि ‘सौ साल से पानी नहीं आया इतना, इस साल बारिश भी बहुत हुई और रास्ता भी बन रहा है। उन्होंने बांध लगाया है, आप देखें तो बाजू से जाने वाली नदी सूखी है और सारा पानी हमारे घरों में आ गया है।’

बाढ़ की स्थिति में संभावित नुकसान का आकलन करने के लिए एनएचएआई आमतौर पर लक्षित क्षेत्र के मानचित्र को ध्यान में रखता है। इस मामले में भी, उन्होंने पानी के बहाव को दूसरी दिशा में मोड़ने के लिए भूमिगत चैनल बनाये हैं। हालांकि क्षेत्र के आधिकारिक मानचित्र में इस बस्ती का जिक्र नहीं है क्योंकि वन विभाग वन गुज्जरों को इस इलाके का स्थायी निवासी नहीं मानता है। नौकी बस्ती को आधिकारिक तौर पर वन गुज्जर समुदाय से संबंधित क्षेत्र नहीं माना गया है। हालांकि वे भूमि के इस टुकड़े पर अपने अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से अभियान चला रहे हैं।

इस इलाके में बाढ़ की स्थिति दो दिनों तक बनी रही और तीसरे दिन जाकर उन्हें आसपास के गांवों और स्थानीय सामुदायिक संगठनों से थोड़ी बहुत मदद मिली। इसी इलाके में रहने वाले गुलाम रस्सोल कहते हैं कि ‘सब लोग अपना अपना घर बचाने में जुड़ गये। कोई मिट्टी की बोरियों का बांध लगा रहा है, कोई पानी निकाल रहा है, कुछ लोग सब होने के बाद बाहर आके नदी पल्ली (दूसरी) तरफ मोड़ने की कोशिश में जुड़ गये।’

बाढ़ के बाद, जब आपदा प्रबंधन समिति आई तो समिति के लोग, वन गुज्जरों से मिलने के बजाय आसपास के गांवों में चले गए। यहां तक कि क्षेत्र में बाढ़ राहत कोष से मिलने वाली मुआवजे की राशि इन गांव पंचायतों को दे दी गई। हालांकि इस गांव के लोगों ने भोजन और अन्य संसाधनों से वन गुज्जरों की मदद की थी लेकिन यह समुदाय अब भी सरकार की नजर में अस्तित्वहीन ही बना हुआ है।

निकिता नाइक 2022 इंडिया फेलो रही हैं और आईडीआर की #जमीनीकहानियां की कंटेंट पार्टनर भी हैं।

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मध्य प्रदेश में पीएम कुसुम योजना किसानों तक देर से क्यों पहुंच रही है?

खेत मे सोलर ट्यूबवेल के पास खड़े 2 व्यक्ति_पीएम कुसुम योजना
प्लांट शुरूआत के 13-14 सालों में किसानों के लिए कोई आमदनी पैदा नहीं करेगा | चित्र साभार: सनव्वर शफ़ी

फरवरी 2019 में भारत सरकार ने पर्यावरण प्रदूषण को कम करने और किसानों की आय दोगुनी करने के दोहरे उद्देश्य से प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम कुसुम योजना) की शुरुआत की थी। इस योजना के तहत किसानों की बंजर भूमि पर सोलर पॉवर प्लांट लगाए जाते हैं। योजना का उद्देश्य है कि इन सोलर प्लांटों से पैदा होने वाली बिजली को वितरन कंपनियों को बेचने से किसानों को अतिरिक्त आय हो सके। इस योजना के तहत देशभर में साल 2022 के अंत तक सौर ऊर्जा की 30,800 मेगावाट क्षमता स्थापित करना का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन कोरोना महामारी के चलते इसका क्रियान्वयन प्रभावित होने से यह समयसीमा मार्च 2026 तक बढ़ा दी गई है।

मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले में खेती का काम करने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं कि ‘साल 2020 में मैंने अपनी जमीन पर 0.5 मेगावाट का सोलर पावर प्लांट लगवाने के लिए आवेदन किया था। तब से लेकर अब तक मैं काग़ज़ी कार्यवाही में ही उलझा हुआ हूं। उस वक्त प्लांट की लागत करीब 3.5 करोड़ के आसपास थी। अब यह बढ़ कर करीब 4.5 करोड़ हो गई है।’ वे आगे जोड़ते हैं कि ‘राजगढ़ के गांगोरनी गांव में मेरी पांच एकड़ जमीन है। अब सरकारी बैंक नई लागत पर लोन देने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना हैं कि पुरानी कीमत पर ही लोन दिया जाएगा। वहीं प्राइवेट बैंक फाइनेंस नहीं करना चाहते हैं।

राजेंद्र सिंह, मध्य प्रदेश ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड के साथ बिजली खरीदने का पावर पर्चेज एग्रीमेंट भी साइन कर चुके हैं। उनकी ज़मीन पर सोलर पावर प्लांट लग जाने के बाद ऊर्जा विकास निगम 3.07 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदेगा।

रायसेन जिले के किसान शुभम राय ने 2020 में सोलर प्लांट का आवेदन दिया था। राय बताते हैं कि ‘मेरा कंपनी से बिजली खरीदी का एग्रीमेंट हो चुका है लेकिन अब बैंक फाइनेंस करने को तैयार नहीं हैं। मैं अपनी चार एकड़ की जमीन पर एक मेगावाट का सोलर प्लांट लगवाना चाहता था। मंजूरी मिलने में ही दो साल लग गए और इतने समय में लागत में एक करोड़ का इजाफा हो गया है। यदि प्लांट लगवा भी लिया तो मुझे प्लांट के मेंटेनेंस और सुरक्षा के लिए चौकीदार आदि का खर्चा उठाना पड़ेगा। लोन के साथ इन चीज़ों का खर्चा देखें तो प्लांट शुरूआत के 13-14 सालों में मेरे लिए कोई आमदनी पैदा नहीं करेगा।’

जब से किसानों ने प्लांट के लिए आवेदन किया है, उस दौरान जीएसटी भी पांच से बढ़कर 12 प्रतिशत हो गया है। किसान अपनी परेशानी का जिम्मेदार धीमी दस्तावेज़ीकरण और सत्यापन प्रक्रिया को ठहराते हैं। यदि लागत कम होने पर वे अपना प्लांट लगवा पाते तो उनकी यह स्थिति नहीं होती। उनकी मांग है कि उनसे खरीदी गई बिजली की प्रति यूनिट कीमत नई लागत के मुताबिक बढ़नी चाहिए। लेकिन क्या ऐसा होना संभव है?

सनव्वर शफ़ी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और भोपाल, मध्य प्रदेश में रहते हैं।

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सफ़ाई कर्मचारियों के बिना दिल्ली दिल्ली नहीं रह सकेगी

मैं दिल्ली के उत्तर-पश्चिम जिले की भलस्वा लैंडफ़िल में पिछले बारह सालों से सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करती हूं। शादी से पहले और लैंडफिल के पास रहने से पहले, मैं कूड़ा इकट्ठा करने और उसे स्क्रैप मार्केट में बेचने के लिए जहांगीरपुरी से यहां आया करती थी।

पहले हमारी आय बेहतर होती थी। हम ई-कचरे को छांटने और बेचने से 500-600 रुपये तक कमा लेते थे; अब हम 200-250 रुपये ही कमाते हैं। इस कमाई में हम अपने बच्चों को शिक्षा कैसे दें सकेंगे, सिलेंडर और बिजली का बिल कैसे भरेंगे, कपड़े कैसे खरीदेंगे, और कैसे अच्छा जीवन जिएंगे?

पहले हमारे पास सूखा और गीला, दोनों तरह का कूड़ा एक साथ आता था जिनकी हम छंटाई करते थे। लेकिन अब सूखे और गीले कचरे को हम तक आने से पहले ही अलग कर दिया जाता है, और कीमती स्क्रैप जैसे कि ई-कचरे और इसके धातु भागों को हमारे क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले ही कचरा ट्रकों द्वारा ले जाया जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नगर पालिकाओं का उन प्राइवेट कंपनियों के साथ समझौता होता है जिनके पास ये ट्रक होते हैं। अब इन कंपनियों का कचरे पर एकाधिकार हो गया है।

अनौपचारिक कचरा श्रमिक होने के कारण हमे पक्की सैलरी नहीं मिलती है। हम रोज़ जो कचरा इकट्ठा करते है और बेचते है, उसी से अपनी आजीविका चलाते है। हमने दिल्ली नगर पालिका से भी हमें काम पर रखने के लिए कहा है, लेकिन इसकी बजाय सरकार भलस्वा डंपिंग ग्राउंड को बंद करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है।

हम कचरे को अलग करके, प्रदूषण कम कर रहे हैं और अपनी नदियों और नालों को साफ रखने में मदद कर रहे हैं। हमारे बिना, दिल्ली दिल्ली नहीं होगी।

सायरा बानो सफाई सेना की सदस्य हैं जो दिल्ली में अनौपचारिक कचरा श्रमिकों का संघ है।

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बिहार में कुप्रबंधन से बढ़ती बाढ़ आपदा

नदी में खड़ा एक आदमी_बाढ़ नियंत्रण नीति
बैराज जैसी बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की शुरूआत ने समय के साथ नदियों की प्रवाह व्यवस्था को बदल दिया है। | चित्र साभार: सिद्धार्थ अग्रवाल

बाढ़ के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों से भरी कहानियां सैदपुर गांव के निवासियों के बीच पीढ़ियों से चली आ रही हैं। यह गांव गंगा नदी के उत्तरी तट पर, गंगा और कोसी नदियों के दोआब (दो नदियों के बीच का क्षेत्र जो आपस में मिल जाते हैं) पर स्थित है। नदी के किनारे रहने वाले लोगों ने समझ लिया है कि अपने जान-माल को नुक़सान से बचाने और बाढ़ के संभावित प्रभावों को कम करने के लिए ख़तरनाक क्षेत्रों में निर्माण न करना ही ठीक है। दो नदियों द्वारा लाई गई गाद के कारण एक ओर जहां यह इलाका बहुत अधिक उपजाऊ और घनी आबादी वाला हो गया है, वहीं दूसरी तरफ़ बार-बार आने वाली बाढ़ इस इलाक़े में बड़े पैमाने पर विध्वंस मचाती रही है। साल 1996 में आई बाढ़, इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की यादों में आज भी ताज़ा है।

बाढ़ के मैदानों में और उसके आस-पास निर्माण किए जाने की प्रवृति बढ़ने के कारण नदी के अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने पर बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। साल 2000 के आसपास, इन क्षेत्रों में नदियों से सटे कृत्रिम तटबंधों का निर्माण किया गया था। ये मिट्टी, रेत या पत्थर से बने, उभरे हुए कृत्रिम तट हैं जो नदियों के समांतर होते हैं। यह एक ऐसा तरीक़ा है जो औपनिवेशिक काल के दौरान अपनाया गया था ताकि नदियों में बढ़ते पानी से खेतों और गांवों को बचाया जा सके। भारत के कई क्षेत्रों में, नदियों पर इन कृत्रिम तटों से सटे बैराज भी बनाये गये थे ताकि इसके पानी को नहरों के जरिए सिंचाई के लिए इस्तेमाल में लाया जा सके। हालांकि, ये निर्माण पूरी तरह से कारगर नहीं हैं और उचित संचालन या इस तरह के ढांचों में गड़बड़ी आने से घटने वाली घटनाएं विनाशकारी साबित हो सकती हैं। 

बैराज जैसी बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की शुरूआत ने समय के साथ नदियों की प्रवाह व्यवस्था में बड़ा बदलाव लाया है। पिछले कुछ सालों में जहां हमने इस तरह के मामलों की पुष्टि करने वाले ऐसे कई उदाहरण देखे हैं, फिर भी इस जानकारी के प्रति उदासीनता बनी हुई है। 2008 में बड़े पैमाने पर कोसी नदी के मार्ग में किए गये बदलाव – जो आगे जाकर सैदपुर तक पहुंचती है – से कई क्षेत्रों में तटबंधों के हर वर्ष टूटने तक, बिहार में बाढ़ से जुड़ी खबरें एक हद तक वार्षिक मामला बन चुकी हैं।

लेकिन बाढ़ के अलावा, इन ढांचों ने पारंपरिक रीति-रिवाजों को भी बदला है। सैदपुर गांव के निवासी उन दिनों को याद करते हैं जब तटबंध नहीं बने थे और इस क्षेत्र की मिट्टी नम होती थी जो इसे धान की खेती के लिए अनुकूल बनाती थी। लेकिन, तटबंधों के निर्माण के बाद मिट्टी ने अपनी नमी को खो दिया है। अब, इस क्षेत्र के निवासियों को गेहूं और बाजरे की सिंचाई के लिए पंप-आधारित सिंचाई पर निर्भर रहना पड़ता है। मिट्टी में नमी के स्तर में कमी का एक दूसरा अर्थ है महिलाओं के श्रम में वृद्धि, जो कृषि कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा हैं। उन्हें समय-समय पर बैठ कर नमी की कमी के कारण मिट्टी में बने ढेलों को तोड़ना पड़ता है।

जलवायु परिवर्तन और अनियमित मौसम भी बाढ़ से होने वाली तबाही का प्रमुख कारण माना जाता है। हालांकि, नदी विज्ञान और सामुदायिक ज्ञान पर ध्यान दिए बिना, बैराज और तटबंधों जैसे बुनियादी ढांचे के हस्तक्षेप के साथ-साथ बाढ़ के मैदानों में अनियमित निर्माण का बढ़ना, बाढ़ के प्रभाव और इन ‘बाढ़ नियंत्रण’ के ढांचो को बदतर बना रहा है। राज्य इन संरचनाओं की मरम्मत के लिए हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करता है। फिर भी, नदी के व्यवहार का सम्मान करने की दिशा में ठोस कार्रवाई की अब भी कमी है। भारत को ऐसी सशक्त नीतियों की आवश्यकता है जो सीमांकित क्षेत्रों में अतिक्रमण और निर्माण पर सख्त नियम लागू करें। बैराजों और तटबंधों का उचित रखरखाव होना चाहिए और उनका संचालन उचित तरीक़े से किया जाना चाहिए, और बाढ़ के इलाक़ों में होने वाले निर्माण – यहां तक कि बाढ़ को रोकने के लिए किया गया निर्माण- इन बाढ़ क्षेत्रों के आसपास रहने वाले लोगों की सलाह के आधार पर वैज्ञानिक तरीके से किया जाना चाहिए।

सिद्धार्थ अग्रवाल पिछले सात वर्षों से भारत में नदियों के किनारे-किनारे पदयात्रा कर रहे हैं। वे वेदितुम इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक हैं, जो एक नॉन-प्रॉफिट रिसर्च, मीडिया और एक्शन ऑर्गनाइजेशन है।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे असम में बाढ़ से प्रभावित इलाक़ों में रहने वाले लोगों को भोजन के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।

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एफसीआरए के चलते बेरोज़गार हुए लोग कहां जाएं? 

मैं बिहार के पटना जिले का रहने वाला हूं। मेरे पास डेवलपमेंट सेक्टर में काम करने का लगभग 12 सालों का अनुभव है। इस दौरान ज्यादातर समय मैंने शिक्षा के क्षेत्र में काम किया है। साल 2018 में मैंने केयर संस्था के साथ काम करना शुरू किया था। करीब दो साल सब कुछ ठीक चला लेकिन फिर कोरोना महामारी के दौरान मेरी नौकरी चली गई। उसके बाद मैं स्वास्थ्य सेक्टर में चला गया लेकिन मई 2022 में पता चला कि केयर का वह प्रोग्राम भी बंद हो रहा है। इसके बाद, मैं डेवलपमेंट सेक्टर में ही अस्थाई तौर पर कुछ-कुछ काम करता रहा। 2023 के अप्रैल में मुझे दोबारा नौकरी मिली जिसमें एक साल का कॉन्ट्रैक्ट था। यहां पर मुझे केयर इंडिया के एजुकेशन इंडियन पार्टनरशिप अर्ली लर्निंग प्रोग्राम के लिए काम करना था। लेकिन फिर जून 2023 में अचानक एक मीटिंग हुई जिसमें हमें बताया गया कि बजट की कमी के चलते मुझे और मेरे कई साथियों को टर्मिनेट किया जा रहा है।

इस बजट की चुनौती का कारण संस्था का एफसीआरए लाइसेंस रद्द होना था। उस समय हमें एफसीआरए के बारे में किसी भी तरह की कोई जानकारी नहीं थी। हमें केवल इतना यह मालूम था कि प्रधानमंत्री कार्यालय में कुछ पैसे अटके हुए हैं और यह राशि सैकड़ों करोड़ रुपए है जिसे सरकार रिलीज़ नहीं कर रही है। फिर हमें समाजसेवी संस्थाओं के अकाउंट सीज होने की बात पता चली। हमें कुछ भी साफ-साफ नहीं पता था। हम बस इतना समझ पा रहे थे कि संस्था की स्थिति ख़राब है और उसके पास पैसे नहीं है।

मैं अपने घर पर अकेला कमाने वाला हूं और पिछले तीन महीने से मेरे पास कोई काम नहीं है। हमें इतने ही पैसे मिलते थे जिससे कि हमारे परिवार का खर्च चल जाता था, लेकिन बचत नहीं हो पाती थी। इधर आख़िरी दो महीने का वेतन भी मुझे नहीं मिल सका है। ऐसे हालात में मुझे अपने प्रॉविडेंट फंड (पीएफ) से पैसे निकालने पड़े हैं।

अब जब मैं 35 साल की उम्र में एक बार फिर नौकरी ढूंढने निकला हूं तो मुझे कई बातें समझ आ रही हैं। सबसे पहली तो यह कि डेवलपमेंट सेक्टर में नौकरियां मिल ही नहीं रही हैं। कई संस्थाओं से लोगों को थोक में निकाला गया है। मैं ऑनलाइन माध्यमों के साथ-साथ अपने पर्सनल नेटवर्क में भी नौकरी ढूंढने का प्रयास कर रहा हूं। लेकिन ज्यादातर जगह से मुझे यही जवाब मिलता है कि कोई जगह खाली नहीं है। जहां है भी, वहां पर टेस्ट-असाइनमेंट पूरा करना होता है जिसके लिए मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है। मैंने यह भी समझा कि ऊपर-ऊपर से हम भले ही कितने भी आधुनिक क्यों ना हो गये हों, ज़मीन पर आज भी हमारे पास संसाधनों की कमी बनी हुई है।

केयर की तरफ से हमें अभी तक कोई मदद नहीं मिल सकी है। बस एक आश्वासन है कि शायद वे दोबारा बुलाएं। जब हम ज़मीन पर लोगों से जुड़कर काम करते थे तो लोग हम पर भरोसा करते थे। हम सरकारी योजनाओं और सुविधाओं को शिक्षकों, अभिभावकों और बच्चों से जोड़ते थे। हमें इस बात की संतुष्टि थी कि हम समाज को बेहतर बना रहे हैं। हमने नौकरी के साथ यह सब भी खो दिया है। और, अब हालात ये हैं कि मैं एसी-फ्रिज ठीक करने वाले मैकेनिक के पास काम सीखने जाने लगा हूं। ताकि हाथ में कोई कौशल आ सके जिससे मैं दो पैसे कमा सकूं। मेरे परिवार में पत्नी, तीन बच्चे और माता-पिता हैं, उन सब की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर है।

एफसीआरए के चलते जब हज़ारों लोग बेरोज़गार हो रहे हैं तो मैं यह सोच रहा हूं कि आख़िर हम जैसे लोग कहां हैं, हमारी जगह क्या है?

मुकेश कुमार पटना और आसपास के क्षेत्रों में समुदायों को संगठित करने और शिक्षकों को प्रशिक्षित करने से जुड़े काम करते हैं।

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भुंजिया महिलाएं: परंपरा से मिला अकेलापन

अपनी झोपड़ी के सामने खड़ी भुंजिया समुदाय की एक महिला_भूमि अधिकार
भुंजिया समुदाय की महिलाएं परंपराओं के चलते अकेले जीवन बिताती हैं। | चित्र साभार: वुमैनिटी फाउंडेशन

मुख्यरूप से ओडिशा और छत्तीसगढ़ में बसने वाली, भुंजिया जनजाति अपनी उन पारंपरिक प्रथाओं का पालन करती हैं जो उनके एकाकी जीवनशैली में योगदान देती हैं। खासतौर पर, इस समुदाय की महिलाएं एकाकी जीवन जीती हैं। बड़े पैमाने पर इनके समाज को देखने पर हम पाते हैं कि इस समुदाय में सत्ता का संतुलन पुरुषों के पक्ष में ही है। महिलाएं आमतौर पर, अपने घरों तक ही सीमित होती हैं और उन्हें केवल लाल बंगला में ही खाने की अनुमति है। यह एक पवित्र रसोई स्थल है जहां इस समुदाय के लोगों के लिए भोजन तैयार किया जाता है। इस जनजाति की भाषा भी अलग है, जिसके कारण अन्य स्थानीय समुदायों और इस जनजाति के बीच के अलगाव की एक और परत जुड़ जाती है।

जब लोक आस्था सेवा संस्था ने गरियाबंद जिले के हटमहुआ गांव में पहली बार समुदाय के लोगों के साथ बैठक आयोजित की तब इस बैठक में उपस्थित महिलाओं ने बातचीत में बिलकुल हिस्सा नहीं लिया था। चूंकि हम बाहरी थे इसलिए हम लोगों के साथ संवाद को लेकर उनके मन में झिझक थी और उनके पास हम पर भरोसा करने का कोई कारण भी नहीं था। समुदाय की महिलाओं के सशक्तिकरण के दौरान, हमने सबसे पहले इस काम में पुरुषों को शामिल किया और उनका भरोसा हासिल किया। हम लोगों ने समुदाय की महिलाओं के साथ भूमि अधिकारों, सरकारी योजनाओं और नेतृत्व जैसे विषयों पर नियमित रूप से बैठकों और प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन किया। नतीजतन वे महिलाएं अब धीरे-धीरे हमारे सामने खुलकर बात करने लगीं।

समुदाय से संवाद स्थापित करने के बाद हमने जाना कि वे वर्षों से अपने व्यक्तिगत वन अधिकारों के दावों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें अपने दावे पेश किए हुए 15 वर्ष हो गये लेकिन अब तक किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हम यह समझ गये कि लंबित दावे का समाधान समुदाय, विशेष रूप से महिलाओं के लिए बेहतर जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया होगा। हालांकि, हम यह भी समझ गये थे कि सशक्तिकरण के मार्ग में आने वाली अनगिनत बाधाओं को देखते हुए भूमि पर पहुंच और नियंत्रण को एक दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके लिए हम पहले उनकी तत्काल जरूरतों को पूरा करके इस रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, उनके पास राशन कार्ड नहीं होने के कारण वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन स्कीम – पीडीएस) का भी लाभ नहीं उठा सकते थे। उन्हें मनरेगा के माध्यम से रोज़गार भी नहीं मिल सकता था क्योंकि उनके पास जॉब कार्ड नहीं थे। भुंजिया महिलाओं को विधवा पेंशन जैसे अपने अधिकारों के बारे में या तो पता नहीं था या फिर वे इसका लाभ उठाने में सक्षम नहीं थीं।

इसलिए हमने इन महिलाओं को जिला कलेक्टर के पास जाकर अपने मुद्दों के बारे में बताने के लिए प्रोत्साहित किया और इसके लिए आवेदन तैयार करने में उनकी मदद भी की। यह उनके लिए एक मुश्किल काम था क्योंकि इससे पहले इन महिलाओं ने अपने गांव की सीमा से बाहर ना तो कभी अपने पैर रखे थे। ना ही वे यह जानती थीं कि बाहर की दुनिया कैसी होगी। फिर भी, उन्होंने कलेक्टर के कार्यालय में जाकर उनसे बात करने का साहस जुटाया। कलेक्टर ने उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया दी और इससे उनका डर और अविश्वास काफी हद तक कम हो गया। हटमहुआ की महिलाओं के अनुभवों को देखकर वे हमारे काम की समर्थक बन गईं और उन्होंने जिले के अन्य गांवों की भुंजिया महिलाओं को हमारे साथ काम करने के लिए तैयार करने में भी हमारी मदद की। 2023 में, गांव के कुछ लोगों को उनके व्यक्तिगत वन अधिकार दावों को मान्यता देने वाले भूमि दस्तावेज मिले। लेकिन यह इस समुदाय के लिए एक शुरुआत भर है क्योंकि महिलाओं ने नेतृत्व की भूमिका में आना और अपने अधिकारों की मांग शुरू कर दी है और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित कर रही हैं।

लता नेताम छत्तीसगढ़-आधारित समाजसेवी संस्था लोक आस्था सेवा संस्थान की संस्थापक हैं। 

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मणिपुर हिंसा का एक कारण जिस पर बात नहीं हो रही है

एकता परिषद के भूमि अधिकार कार्यकर्ता के रूप में, मैं साल 2006 से मणिपुर आता-जाता रहा हूं। हाल में की गई मेरी एक सप्ताह लंबी यात्रा बहुत उदास करने वाली थी। जून में, राज्य में हुई हिंसा के दौरान मैंने अपने एक 24 वर्षीय सहकर्मी को खो दिया। बसंता उस समय शांति समिति के सदस्य के रूप में अपने गांव में गश्त लगा रहे थे जब एक स्नाइपर ने उन्हें गोली मार दी। वे एक भूमि अधिकार कार्यकर्ता भी थे और 2017 से हमारे साथ जुड़े हुए थे।

इस राज्य में हो रहे संघर्ष के कई जटिल, ऐतिहासिक कारण और तात्कालिक कारण हैं। हालांकि, मैतेई और कुकी के बीच चल रही हिंसा पर चर्चा करते समय, मैं मुख्य मुद्दों में से एक के बारे में सोचने से खुद को नहीं रोक पाता हूं। मणिपुर में भूमि अधिकारों को लेकर हमेशा ही अस्थिरता की स्थिति रही है और इस क्षेत्र पर इसके प्रभाव को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।

सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना रिपोर्ट (एसईसीसी), 2011, एक चौंकाने वाले आंकड़े का खुलासा करती है: मणिपुर में लगभग दो-तिहाई आबादी भूमिहीन या बेघर लोगों की है। यह आंकड़ा सभी  पूर्वोत्तर राज्यों में यहीं सबसे अधिक है। 1960 के मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम से राज्य में भूमि सुधार लाया जाना था, लेकिन इसका व्यावहारिक कार्यान्वयन न्यूनतम रहा है। हाल के वर्षों में, घाटी के जिलों में बढ़ती जनसंख्या के परिणामस्वरूप भूमि पर दबाव भी बहुत अधिक बढ़ गया है। बुनियादी ढांचे और रियल एस्टेट के लिए भी भूमि अधिग्रहण बड़े पैमाने पर हुआ है। पहाड़ियों और घाटी में, भूमि दावों को निपटाने के बजाय, सरकार ने वन अतिक्रमण से निपटने वाले कानून तैयार कर लिए हैं। इस कानून से सबसे अधिक प्रभावित वे लोग होंगे जो परंपरागत रूप से इन भूमियों के निवासी रहे हैं।

एकता परिषद में अपने काम के जरिए भूमि अधिकारों में एक दशक की भागीदारी से, हम समझ सके हैं कि भूमि शक्ति और स्थिरता का एक अभिन्न स्रोत है। साथ ही, हम यह भी जान चुके हैं कि भूमि की अनुपस्थिति में, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षाएं और कमजोरियां बढ़ती हैं। मणिपुर में, इन अस्थिरताओं के कई कारणों में भूमि से जुड़ी मदद और उपाय के उचित तरीकों की कमी भी शामिल है। 

भूमिहीनता के अलावा, मणिपुर में खाद्य संकट भी पैदा हो रहा है। सभी प्रकार के कृषि कार्य ठप हो गये हैं क्योंकि दोनों तरफ बंकर हैं। सुरक्षा और सैन्य बलों ने लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्हें घर पर रहने के लिए कहा है। स्थानीय किसान संगठनों द्वारा किए गए एक क्षेत्र-व्यापी सर्वेक्षण से पता चला है कि इस संकट के कारण वर्तमान में लगभग 30,000 एकड़ कृषि भूमि पर खेती नहीं हो रही है। यह वर्तमान में एक लंबे संघर्ष की तरह दिखने वाली स्थिति को जटिल बनाने वाला है।

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रमेश शर्मा भारत में भूमि और वन अधिकारों पर काम करने वाले एकता परिषद नाम के एक सामाजिक आंदोलन के राष्ट्रीय समन्वयक हैं। 

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