बीती 29 अप्रैल को, दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) ने पश्चिमी दिल्ली के रघुबीर नगर में फुटपाथ के किनारे 50-60 झुग्गियों को ध्वस्त कर दिया। तिरपाल चादरों और टिन की छतों वाली इन झुग्गियों में मुख्य रूप से फेरी (पारंपरिक कपड़ा रीसाइक्लिंग) का काम करने वाले लोग रहते थे। इन घरों में रहने वाली महिलाएं दिल्ली के आस-पास के इलाकों में पुराने कपड़ों के बदले बर्तन बेचती थीं और इन्हें रीसाइक्लिंग बाजारों में बेचकर अपनी आजीविका चलाती थीं।
एमसीडी ने इन झुग्गियों को ध्वस्त करने से पहले किसी तरह की कोई सूचना नहीं दी थी। अपने सात महीने के बच्चे को गोद में लिए एक छब्बीस वर्षीय महिला का कहना है कि ‘लिखित की तो छोड़िये उन्होंने हमें मौखिक सूचना भी नहीं दी। अब हम अपने बच्चों को लेकर कहां जाएंगे?’ सुबह दस बजे बिना किसी सूचना के बुलडोजर हमारी बस्ती में आ गया और हमारी झुग्गियों को ध्वस्त करके दोपहर बारह बजे तक लौट गया।
एक दूसरे स्थानीय निवासी ने बताया कि, ‘हमें अपना सामान हटाने या कुछ और सोचने तक का समय भी नहीं दिया गया। हमने उनसे पूछा भी कि हमें क्यों हटाया जा रहा है लेकिन उन्हें इसका जवाब देने में किसी तरह की दिलचस्पी नहीं थी।’
इन झुग्गियों में रहने वाले लोगों का दावा है कि वे कई पीढ़ियों यहां रह रहे हैं और कुछ की झुग्गी तो साल 1982 से यहीं पर है। 62 साल की दुर्गा* कहती हैं कि ‘हमारे बच्चों और उनके बच्चों का जन्म भी यहीं हुआ है। हमारे पास वोटर कार्ड, आधार कार्ड, राशन कार्ड, स्कूल प्रमाणपत्र जैसे सभी ज़रूरी दस्तावेज हैं।’
दिल्ली की स्लम और झुग्गी झोपड़ी पुनर्वास और स्थानांतरण नीति, 2015 में कहा गया है कि 1 जनवरी 2015 से पहले स्थापित बस्तियों और 1 जनवरी 2006 से पहले अस्तित्व में आई झुग्गियों के निवासियों को वैकल्पिक आवास प्रदान किए बिना नहीं हटाया जा सकता है। इसलिए, ये आवश्यक दस्तावेज़ उस स्थान पर उनके निवास के प्रमाण हैं, जो उन्हें पुनर्वास सेवाओं के लिए पात्र बनाते हैं। यहीं रहने वाली गौरी* ने अपनी हताशा व्यक्त करते हुए कहा, ‘उन्होंने हमारी त्रिपाल की चादरों को भी फाड़ दिया। क्या वे इन झुग्गियों को खड़ा करने के संघर्ष को समझते हैं? घर की तो छोड़िये क्या सरकार नये त्रिपाल भी देगी?’
झुग्गियों को ध्वस्त करने के बाद यहां रहने वाले लोग अपनी अपनी झुग्गियों के मलबे के नीचे रह रहे हैं। गर्मी और बेमौसम की बरसात से बचने के लिए वे त्रिपाल की चादरें तानना चाहते हैं लेकिन उन्हें पुलिस स्टेशन का डर सता रहा है।
*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।
अनुज बहल एक अर्बन रिसर्चर और प्रैक्टिशनर हैं।
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उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में थारू आदिवासी समुदाय के लोग सदियों से जंगल के आसपास बसे हुए हैं। हमने इन जंगलों की वनस्पतियों और जीवों की रक्षा की और बदले में जंगल ने हमें बहुत कुछ दिया। जैसे लकड़ियां, जिसका उपयोग हमने खाना पकाने और घर बनाने में किया। लेकिन साल 1977 में जब से दुधवा नेशनल पार्क का निर्माण हुआ, तब से हमारा समुदाय विस्थापन के साथ-साथ वनोपज तक पहुंच को लेकर कई तरह के प्रतिबंधों का सामना कर रहा है।
वन विभाग हमें अतिक्रमणकारियों के रूप में देखता है। हम यहां 300 सालों से बसे हुए हैं लेकिन इसके बावजूद विभाग हमें हमारी ही ज़मीन पर खेती करने से रोकता है। ऐसा तब है जब हमारे तीन गांवों में लोगों को व्यक्तिगत वन अधिकार प्राप्त हो चुके हैं, और 20 सामुदायिक वन अधिकार के दावे हैं जो आज भी मंजूरी का इंतज़ार कर रहे हैं।
पहले हम अपनी सीमित ज़मीन पर गन्ना और चावल उगाते थे। लेकिन जो चीनी मिलें हमसे गन्ना खरीदती थीं, वे महीनों तक हमें पैसा नहीं देती थीं। इसलिए अब हम ज्यादातर समय अपना मुख्य भोजन गेहूं और चावल ही उगाते हैं।
लेकिन इसमें भी हमें चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। पिछले तीन-चार सालों से बारिश का समय आगे-पीछे हो गया है। मॉनसून से पहले की बारिश जो जून की शुरुआत में आती थी और बीज के अंकुरण में मदद करती थी, अब गायब हो गई है। इन दिनों, जुलाई में जब बारिश होती भी है, तो मूसलाधार बारिश होती है। यदि कोई किसान इस दौरान बीज बोता है तो भारी बारिश से पौधे बह जाते हैं। फसल के मौसम के दौरान फिर से बारिश होने लगती है इसलिए हमारे लिए फसल का भंडारण कर पाना मुश्किल हो जाता है।
सरकार द्वारा संचालित बाजार शहर में बहुत दूर हैं। अगर कोई किसान अपनी उपज के साथ वहां पहुंचने में कामयाब भी हो जाता है, तो उसे इसे बेचने से के लिए कई दिनों तक लाइन में लगकर इंतजार करना पड़ता है। इससे फसल खराब होने का खतरा रहता है। हमारे लोग अब बिचौलियों को बेचना पसंद करते हैं, भले ही वे इसकी कम कीमत ही क्यों न दे रहे हों।
बाजार तक हमारी पहुंच को सुविधाजनक बनाने या हमें अपनी ज़मीन के दावे देने की जगह, सरकार हमें कह रही है कि कि हम सार्वजनिक वितरण प्रणाली से दिये चावल खाएं। वह चावल निम्न गुणवत्ता का होता है और हम लोग उसे नहीं खाना चाहते हैं। हम अक्सर इसे राशन की दुकानों को बेच देते हैं और बदले में पैसे ले लेते हैं।
निबादा राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की उपाध्यक्ष हैं। सहबिनया राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की महासचिव हैं।
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छेरछेरा छत्तीसगढ़ में फसलों से जुड़ा एक पारंपरिक त्योहार है जो पौष (जनवरी) के महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस त्योहार में गांव के लोग घर-घर जाकर एक-दूसरे से भंडार में रखे गये नई फसल वाले चावल मांगते हैं। इस दौरान लोग, व्यक्तिगत रूप से और समूहों में एक दूसरे से मिलने जाते हैं। एक-दूसरे के घर जाते समय वे ‘छेरछेरा कोठी के धान हेरते हेरा’ (अपने भंडार में से थोड़ा सा चावल मुझे भी दो) वाला गीत भी गाते हैं। डंडा नाच और सुआ नाच जैसे पारंपरिक नृत्य भी उत्सव का हिस्सा हैं।
इस त्यौहार में अमीर-गरीब, बच्चे-बूढ़े, जाति-वर्ग से परे सभी लोग एक दूसरे के घर जाते हैं। यहां तक कि राज्य के मुख्यमंत्री और राज्यपाल भी धूमधाम से इस त्योहार को मनाते हैं। समुदाय का मानना है कि मांगना हम मनुष्यों को विनम्र बनाता है। आमतौर पर, लोग अपनी क्षमता के आधार पर एक-दूसरे को चावल देते हैं; अक्सर इस मौक़े पर घर आने वालों को महुआ से बनी ताजी शराब भी परोसी जाती है। नृत्य की मंडलियां त्योहार से एक-दो सप्ताह पहले ही समूह बनाकर लोगों के घर जाना शुरू कर देती हैं। उन्हें प्रत्येक घर से 5–6 किलो चावल मिल जाता है। लोग त्योहार पर आसपास रहने वाले रिश्तेदारों के घर भी ज़रूर जाते हैं क्योंकि वहां उन्हें अधिक चावल मिलने की संभावना होती है।
छेरछेरा एक समय में पूरे राज्य में लोकप्रिय था लेकिन शहरी आबादी के इससे दूर हो जाने के कारण अब ये ग्रामीण इलाक़ों तक ही सिमट कर रह गया है। इतना ही नहीं, स्थिति ऐसी हो चुकी है कि छत्तीसगढ़ के गांवों में भी लोग इस त्योहार को इसके पारंपरिक स्वरूप में नहीं मना पा रहे हैं।
पिछले कुछ दशकों में, इलाक़े में कोयला खदानों के शुरू हो जाने के कारण यहां के लोगों से उनकी ज़मीन छिन गई है। खेती वाली ज़मीन के कम होने का सीधा मतलब है – बहुत कम या ना के बराबर उपज। इस स्थिति ने, लोगों को छेरछेरा में चावल की जगह पैसे देने पर मजबूर कर दिया है, वहीं चावल के बदले मक्का उपजाने वाले किसानों ने मक्का देना शुरू कर दिया है। इन सबके बावजूद, अब भी भूमिहीन समुदायों के कई ऐसे सदस्य हैं जो इस त्योहार को इसके वास्तविक स्वरूप में मनाने की इच्छा रखते हैं। इसलिए वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से मिलने वाले चावल का एक हिस्सा छेरछेरा पर मांगने आने वाले लोगों के लिए अलग से बचा कर रख लेते हैं।
मुरली दास संत एकता परिषद में छत्तीसगढ़ राज्य परियोजना समन्वयक हैं।
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लद्दाख के पांग इलाक़े में ज़मीन के एक बहुत बड़े -लगभग 80 किमी क्षेत्र वाले- हिस्से पर एक मेगा सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना किया जाना तय हुआ है। अनुमान है कि इस ऊर्जा संयत्र से 13 गीगा वॉट तक अक्षय ऊर्जा उत्पन्न हो सकती है। लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिलने के तुरंत बाद ही शुरू हुई इस परियोजना को पूरा करने की समयसीमा, साल 2029–30 तक रखी गई है।
लेकिन 13 गीगा वॉट वाला यह विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र हमारे लिए एक बड़ी चिंता बन गया है, क्योंकि इसके कारण हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ सकता है। उदाहरण के लिए, पांग एक शुष्क क्षेत्र है जहां धूल बहुत उड़ती है। समय के साथ इन सौर पैनलों पर धूल की परत चढ़ेगी जिसे धोने के लिए भारी मात्रा में पानी खर्च करना पड़ेगा। हमें डर है कि इससे क्षेत्र के जल स्तर और ग्लेशियरों पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा। यह क्षेत्र घुमंतू जनजातियों के लिए चारागाह के तौर पर महत्वपूर्ण है क्यों कि इससे उनके मवेशियों को नियमित चारा उपलब्ध होता है। इस प्रोजेक्ट के कारण इलाक़े की कई जनजातियां इस भूमि के उपयोग से वंचित हो जाएंगी।
परियोजना के लिए, एक अतिरिक्त पाइपलाइन को मंजूरी दे दी गई है जो इस बिजली को हिमाचल प्रदेश और पंजाब से होते हुए हरियाणा के कैथल तक पहुंचाएगी, जहां इसे राष्ट्रीय ग्रिड के साथ एकीकृत किया जाएगा। इस पाइपलाइन के निर्माण से अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ, हमारे द्वारा बनाए गए नाजुक संतुलन को और अधिक ख़तरा पहुंचने की संभावना है।
इस सौर ऊर्जा संयंत्र से हम लद्दाखियों की बिजली की मांग पर कोई विशेष असर नहीं पड़ेगा क्योंकि हमारी वर्तमान ज़रूरत निमो बाज़गो और चुटक जैसे हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट और अन्य कई सौर संयंत्रों के जरिए पहले से ही पूरी हो रही है। परियोजना की योजना बनाते समय हममें से किसी से सलाह नहीं ली गई। स्थानीय निर्वाचित पार्षदों की एक वैधानिक संस्था लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, लेह को भी इस पूरी योजना और प्रक्रिया से बाहर रखा गया था।
जिग्मत पलजोर, लद्दाख के एक कार्यकर्ता और एपेक्स बॉडी लेह के को-ऑर्डिनेटर हैं।वे वर्तमान में #क्लाइमेट फ़ास्ट आंदोलन के भी को-ऑर्डिनेटर हैं।
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सोन तट का तिलौथू प्रखण्ड कभी मिर्ची, गन्ना और दलहन की खेती के लिए जाना जाता था। एक समय पर, यहां के डालमियानगर में जैन उद्योग समूह होने के चलते रोजगार की कमी नहीं थी। इस उद्योग समूह की एक चीनी उत्पादन इकाई थी जिसके कारण गन्ने की खेती के लिए भी ठीक-ठाक मजदूरी मिल जाती थी। इसके अलावा भी कमाई के कुछ और अवसर मौजूद थे। बाद में, जैन उद्योग समूह के बंद हो जाने के बाद लोगों ने यहां से पलायन शुरू कर दिया। यही वह समय था जब राज्य की राजधानी से 152 किलोमीटर दूर, रोहतास जिले में बसा यह इलाका मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझने लगा।
तिलौथू महिला मंडल की अध्यक्ष रंजना सिन्हा बताती हैं कि इन परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने गांव की महिलाओं के साथ मिलकर कुछ नया करने का निर्णय लिया। तिलौथू महिला मण्डल, पिछले कई वर्षों से महिलाओं से जुड़कर आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने का काम कर रहा है।
बीते कुछ समय से तेजी से बढ़ते सड़कों निर्माण के चलते रोहतास जिले में प्रशिक्षित मानवश्रम की कमी महसूस की जा रही थी। इलाक़े में मूलभूत ढांचों (इंफ्रास्ट्रक्चर) की बढ़ती मांग के पूरा होने की संभावनाएं मजबूत हो रही थीं लेकिन इसके लिए कुशल श्रमिकों की आवश्यकता पूरी नहीं हो रही थी। इसीलिए आधारभूत सुविधाओं से जुड़े कामकाज को ध्यान में रखकर इस महिला मंडल ने महिलाओं के लिए राजमिस्त्री, बढ़ई, इलैक्ट्रिशियन, और प्लंबर जैसे कौशलों से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए।
रंजना बताती हैं कि समाज की रूढ़िवादी सोच और पारिवारिक दबाव की वजह से इन महिलाओं के लिए घर की चौखट से बाहर निकल पाना इतना आसान नहीं था। उन्हें महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता का महत्व समझाना बहुत जरूरी था। शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र की प्रमुख रत्ना चौधरी इस बात में जोड़ती हैं कि “घर में अगर महिलाएं एक दूसरे का साथ देती हैं, तो काम का माहौल बनता है।” उनके मुताबिक़ ससुराल में बुजुर्ग महिलाओं ने जब चाहा तभी बहुएं काम सीखने बाहर निकल पाईं या फिर दो वक्त की रोटी कमाने की लाचारी में ही महिलाएं निकल सकीं थीं।
महिलाओं की आर्थिक स्वायत्तता को प्राथमिकता देते हुए सबसे पहले आसपास के स्वयं-सहायता समूहों की कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया गया। दर्जनों गांवों में, घर-घर घूमकर महिलाओं की सास, पतियों और परिवार के अन्य सदस्यों को जागरूक किया गया। ख़ासतौर पर घर के बुजुर्गों को उदाहरणों के साथ बताया गया कि महिलाओं का काम करना कितना ज़रूरी है। लेकिन इस काम में कोई महत्वपूर्ण सफलता मिलने में सालों लग गए।
तिलौथू की हसीना खातून अपने समाज की महिलाओं को समझाने में सफल रहीं कि एक महिला भी कमाकर अपने घर को खुशहाल रखने में भूमिका निभा सकती है। इसकी सारी जिम्मेदारी केवल शौहर पर ही क्यों डाली जाए? हसीना खातून उन महिलाओं में से एक हैं जिनके पति की आमदनी कम है और अब दोनों के कमाने से घर की व्यवस्था संतुलित हो गई है।
अब महिलाएं फेरो सीमेंट तकनीक (जिसमें मिट्टी, बालू, औद्योगिक अपशिष्ट वाली राख और सीमेंट का इस्तेमाल होता है) से होने वाले निर्माण कार्यों में काम करने के लिए जाती हैं। निर्माण कार्य पूरा होने के बाद कारपेंटर, प्लम्बर और इलेक्ट्रीशियन वग़ैरह की जरूरत पड़ती है।
उर्मिला कुमारी रोहतास जिले के बांदू गांव की हैं और प्लम्बर का काम करतीं हैं। उनके मुताबिक़ “अब गांवों में भी लोग बेहतर जीवन-शैली में रहना चाहते हैं। यहां अभी प्रशिक्षित पुरुष प्लम्बर नहीं मिलते हैं। इसलिए हमें काम मिलने लगा है।” वे अपनी खुशी जाहिर करते हुए बताती हैं कि “हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी हम भी ऐसे काम सीखकर कमाने लगेंगे।”
सीता देवी इलेक्ट्रीशियन का काम करती हैं। हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि महिला होने की वजह से वे यह काम अच्छे से नहीं कर पायेंगी तो इसलिए उन्हें लोगों से अभी सीधे तौर पर उतना काम नहीं मिल रहा है। सीता देवी ने स्थानीय अकबरपुर बाजार की एक दूकान से संपर्क साधा, जहां बिजली का ज्यादातर सामान बिकता है। अब वहीं से इन्हें ग्राहकों से सीधे तौर पर इलेक्ट्रीशियन का काम मिल रहा है।
राजमिस्त्री के तौर पर काम करने वाली बसंती कुंवर कहती हैं कि “हमने समाज की दकियानूसी सोच पर ध्यान नहीं दिया और इस काम से हमें एक अलग पहचान मिली है।”
अमरेन्द्र किशोर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं। वे कुदरती संसाधनों और स्थानीय समुदायों के बीच ख़त्म होते रिश्ते और उभरती चुनौतियों के समाधान की वकालत करते रहे हैं।
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इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि पड़ोसी राज्य असम में ऊंची क़ीमत पर काले धान की बिक्री होते देखकर बिहार के भी कुछ किसानों ने इसकी खेती करने की सोची। लेकिन, ग़रीबी से निकलने के लिए की गई उनकी यह कोशिश और कुछ आज़माने का उनका यह प्रयोग उल्टा पड़ गया है।
गया जिले के गुरारू ब्लॉक में स्थित सोनडीहा गांव के निवासी मनोज कुमार को उनके एक रिश्तेदार ने बताया था कि काले धान से निकलने वाले चावल की क़ीमत दस से पंद्रह हज़ार प्रति क्विंटल तक होती है। अधिक पैसे कमाने की चाह में मनोज और उस गांव के अन्य किसानों ने दस एकड़ से अधिक ज़मीन पर काले धान की खेती करने का फ़ैसला किया। गया जिले के अन्य आठ गांवों के किसान भी ‘सुपर ग्रेन’ नाम से तेज़ी से लोकप्रिय हो रही इस फसल को अपने खेतों में उपजा कर देखना चाहते थे। किसानों को इस खेती से प्रति बीघा बारह क्विंटल उपज की उम्मीद थी। मगर, उनकी योजना धरी की धरी रह गई।
धान की रोपाई के समय मनोज ने लगभग 25 किलो यूरिया का इस्तेमाल किया था। मनोज बताते हैं कि “बहुत बाद में मुझे इस बात का पता चला कि इस फसल के लिए इस रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करना था। यूरिया के कारण धान के पौधों की लंबाई बढ़ गई और उसकी फ़लियां खेत में ही गिरनी शुरू हो गई। हमारी सारी मेहनत बेकार हो गई। मुझे मेरी एक बीघा जमीन से केवल 6 क्विंटल धान ही मिला।”
लेकिन काले धान की खेती करने वाले किसानों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल थी इस अनाज के ख़रीददारों को खोजना। मनोज का कहना है कि “बिहार में इसके ख़रीददार लगभग ना के बराबर हैं।” स्थानीय बाजार में इस फसल की मांग ना होने के कारण किसानों ने अपनी उपज को छत्तीसगढ़ के एक व्यापारी को प्रति क्विंटल साढ़े चार हज़ार की दर पर बेच दिया। हालांकि यह क़ीमत उनकी उम्मीद से तो आधी ही थी लेकिन बिहार में सामान्य धान के लिए मिलने वाली क़ीमत से फिर भी दोगुनी थी।
काले धान की उपज से नुक़सान उठाने वाले किसान दुखी थे। मनोज ने बताया कि “हमें यह सपना दिखाया गया था कि इस उपज से हमारी आमदनी बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आमतौर पर, इस इलाक़े में लोग एक बीघा ज़मीन में 12 से 14 क्विंटल धान उपजा [जिनसे उन्हें अधिकतम 23 हज़ार 8 सौ रुपये तक मिल जाता है] लेते हैं। लेकिन काले धान के मामले में हमारी फसल प्रति बीघा 6 से 7 क्विंटल [जिससे अधिकतम 31 हज़ार 5 सौ रुपये ही मिले] तक ही सीमित रह गई। अब हमें नहीं पता कि इस धान का क्या करना है। कई किसानों के घरों में यह बेकार पड़ा हुआ है। दोबारा इस फसल की खेती करने से पहले हमें कई बार सोचना होगा।”
रामनाथ राजेश बिहार के गया जिले में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेख मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित लेख का एक अंश है।
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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि बिहार में किसानों के लिए पॉपलर की खेती करना आसान क्यों नहीं है?
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पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले का बगुरान जलपाई अपने खूबसूरत समुद्र तट और लाल केकड़ों के लिए जाना जाता है। यह पूर्व मेदिनीपुर में पड़ने वाले कांथी शहर से करीब 15 किमी दूर बंगाल की खाड़ी का तटीय इलाक़ा है। कुछ समय पहले तक यहां केवल स्थानीय लोग ही ज़्यादा दिखाई पड़ते थे लेकिन हाल के सालों में इसने पर्यटन के लिए कुछ नया तलाशने वाले लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन अब यही बढ़ता पर्यटन यहां के लिए संकट की एक वजह बनता नज़र आ रहा है।
आमतौर पर, यहां तटीय इलाके में मछली के अलावा केकड़े की कुछ प्रजातियां एक प्रमुख जलीय आहार होती हैं। इन सब में लाल केकड़ा इसलिए अनोखा है और इसे खाया नहीं जाता है। लाल केकड़े मनुष्य या किसी अन्य जीव की उपस्थिति को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं और आहट पाते ही छिपने के लिए जमीन में बनाए अपने छिद्रों में चले जाते हैं। इसीलिए उनके आस-पास ज़्यादा हलचल होना उनके जीवन के लिए हानिकारक है।
बगुरान जलपाई गांव की निवासी और गांव के आखिरी छोर पर, समुद्र के पास रहने वाली 34 वर्षीया ज्योत्सना बोर लाल केकड़ों को मनुष्य का दोस्त बताती हैं। वे जिस जमीन पर रहते हैं, उसमें छेद करके अपना आवास बनाकर रहते हैं और वहां की मिट्टी व रेत को भुरभुरा कर देते हैं। वे बताती हैं कि इस तरह से रेत को भुरभुरा करने से समुद्र तट पर रेत की परत ऊंची बन जाती है और ऐसे में यह समुद्री हलचल व लहरों के प्रभाव को रोकने के लिए अपेक्षाकृत अधिक बेहतर प्रतिरोधक का काम करती है। स्थानीय वन कर्मी बप्पादित्या नास्कर भी इसमें जोड़ते हैं कि लाल केकड़े द्वारा बालू या रेत को भुरभुरा कर देने से रेत हल्की हो जाती है और उसकी सतह ऊपर हो जाती है तथा इससे हमें पौधे रोपने में भी आसानी होती है।
बगुरान गांव के निवासी देवाशीष श्यामल कहते हैं कि “लाल केकड़े की मौजूदगी से यह पता चलता है कि हमारे गांव के समुद्र तट का स्वास्थ्य ठीक है।” ऐसे फ़ायदों के चलते स्थानीय समुदाय लाल केकड़ों के संरक्षण के लिए काफी संवेदनशील है।
ज्योत्सना बताती हैं कि “पर्यटक लाल केकड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। वे समुद्र के तट पर बाइक व अन्य दूसरी गाड़ियां लेकर पहुंच जाते हैं। इनसे कुचल जाने पर केकड़ों की मौत हो जाती है”। वे बताती हैं कि समुदाय यह ध्यान रखता है कि लोग बाइक व चार पहिया गाड़ी लेकर समुद्र के तट पर न जायें। ज्योत्सना स्वयं मछ्ली पकड़ने का काम करती हैं लेकिन वे या इलाके का कोई भी मछुआरा लाल केकड़े को नहीं पकड़ता।
गांव के 37 वर्षीय किसान शक्ति खुठिया कहते हैं कि “पहले लाल केकड़े को लेकर कोई सख्त नियम नहीं था, कोई भी समुद्र के किनारे गाड़ी लेकर चला जाता था। लेकिन हाल ही में सरकार ने सख्ती की है, जिससे लाल केकड़े को बचाने की कोशिश हो रही है। लोगों की बढ़ती संख्या के कारण लाल केकड़े इस इलाके को छोड़ने पर मजबूर हो सकते हैं और ऐसा नहीं होने देना है।”
साल 2023 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर, बिरामपुर से बगुरान जलपाई तक के 7.3 किलोमीटर लंबे समुद्र तट को बायोडायवर्सिटी हेरिटेज साइट घोषित कर दिया है। इस अधिसूचना के बाद यहां पर भारत सरकार का जैव विविधता अधिनियम 2002 और पश्चिम बंगाल जैव विविधता नियम, 2005 प्रभावी हो जाता है। अधिसूचना के अनुसार, जिलाधिकारी द्वारा और ब्लॉक स्तर पर अलग-अलग जैव विविधता प्रबंधन समितियां बनाकर यहां की जैव विविधता का संरक्षण करने का प्रावधान है।
इलाके में वन विभाग का एक स्थाई कैंप भी लगाया गया है ताकि स्थानीय समुदाय के सहयोग से यह सुनिश्चित किया जाए कि लाल केकड़ों को कोई नुकसान तो नहीं पहुंच रहा है।
राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।
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साल 1992 में मैंने अनंतशक्ति के साथ काम करना शुरू किया था। यह एक सहकारी समिति है जो आंध्र प्रदेश के श्री सत्य साईं ज़िले में काम कर रही टिम्बकटू कलेक्टिव्स के सहयोग से काम करती है। शुरुआत में, मैंने एक ग्रामीण-स्तर पर काम करने वाले संघ के सदस्य के रूप में काम शुरू किया था और अब मैं इस समिति की बोर्ड की सदस्य हूं। मैं महाशक्ति फेडरेशन की उपाध्यक्ष भी हूं, जो चार किफायती सहकारी समितियों का एक समूह है, जिसकी कुल संपत्ति 55.17 करोड़ रुपये (वित्त वर्ष 2023-24) है और इसकी महिला सदस्यों की संख्या बत्तीस हज़ार है। मेरी औपचारिक पढ़ाई-लिखाई नहीं हुई है लेकिन इससे मुझे पैसों से जुड़े मामलों को और बदलाव लाने की इसकी क्षमता को समझने में किसी तरह की बाधा नहीं आई।
पहले लोग शादियों, बीज और रासायनिक खाद ख़रीदने या अपने बेटे के लिए मोटरसाइकिल का इंतज़ाम करने के लिए ऋण लेते थे। लेकिन आज की तारीख़ में, लिए गए आधे ऋण हमारे सदस्यों द्वारा चलाये जाने वाले छोटे-स्तर के व्यवसायों के लिए होते हैं। लोग ज़मीन ख़रीदने, घर बनाने या उसकी मरम्मत करने या फिर बच्चों की पढ़ाई के लिए भी ऋण लेते हैं। ऋण लेने वाली अधिकांश महिलाओं में अब जोखिम उठाने को लेकर एक तरह का आत्मविश्वास दिखाई पड़ता है जो पहले पैसों के मामलों में घबराती थीं। इस बदलाव में इन महिलाओं को मिलने वाली ऋण से जुड़ी उन सलाहों की मुख्य भूमिका है जो उन्हें समितियों से मिलती हैं।
समिति के काम करने का एक तरीक़ा है। जब किसी सदस्य को ऋण की ज़रूरत होती है तब वह सबसे पहले इसके बारे में अपने संघ से बात करती है। इस संघ के सदस्य ही ऋण लेते समय एक दूसरे के लिए गारंटर की भूमिका निभाते हैं। इस प्रक्रिया में उनके ऋण की गारंटी के बदले किसी तरह की संपत्ति नहीं रखवाई जाती है। बल्कि उस ऋण के भुगतान की क्षमता का आकलन उसके साथी सदस्य ही करते हैं। इसमें उनसे कुछ सवाल किए जाते हैं। जैसे कि क्या इन्होंने इससे पहले किसी तरह का ऋण लिया और उसे चुकाया है? उनके द्वारा भुगतान ना कर पाने की स्थिति में क्या उनके परिवार के सदस्य भुगतान कर सकते हैं? क्या उन्हें किसी तरह की पेंशन वगैरह मिलती है?
ऋण का आवेदन करने वाले सदस्य से पूछा जाता है कि वे इस पैसे का क्या करेंगी और इसके भुगतान को लेकर उन्होंने क्या सोचा है। इस पूरी योजना में संघ उस आवेदक की मदद करता है। उदाहरण के लिए, वे उस आवेदक को सलाह दे सकते हैं कि अपनी बेटी की शादी के लिए डेढ़ लाख का ऋण लेने के बदले वे उस पैसों का एक हिस्सा सोने के गहने जैसी संपत्ति बनाने में कर सकती हैं। अगर वह साड़ी की दुकान खोलने के लिए ऋण लेना चाहती हैं तो ऐसे संघ उनका ध्यान इस ओर दिला सकता है कि गांव में पहले से ही साड़ी की कई दुकानें हैं; और ऐसे में उसे किसी दूसरे व्यवसाय के बारे में सोचना चाहिए।
संघ लीडर्स द्वारा शुरू की गई यह जांच जोखिम के मूल्यांकन का पहला स्तर होते है। वे उस आवेदक की मदद करते हैं ताकि वह व्यक्ति ऋण के रूप में मिलने वाले पैसों को खर्च करने के अपने अधिकार और आज़ादी के बारे में भी सोच सके। जैसे कि अगर वह घर बनाने या ज़मीन ख़रीदने के लिए ऋण ले रही है तो क्या संपत्ति में उसका मालिकाना हक़ होगा? क्या फ़ैसले लेते समय उसकी राय ली जाएगी? इस तरह के सवालों को सुनकर महिलाएं अपने ही परिवार में अपनी स्थिति के बारे में सोचने पर मजबूर होती हैं और बदले में अपनी आर्थिक भलाई में उनका अपना योगदान भी होता है।
सलाह और जोखिम मूल्यांकन के अगले स्तर पर समितियों के बोर्ड के सदस्य शामिल होते हैं। ये सदस्य भी उनसे वही पहले वाले सवाल पूछते हैं लेकिन साथ ही ऋण की ज़रूरत के बारे सोचने में उनकी मदद करते हैं। इसके अलावा ये लोग आवेदक को ब्याज दर और भुगतान की शर्तों के बारे में भी बताते हैं।
जहां सलाह देने वाली औपचारिक प्रक्रिया में बोर्ड के सदस्य की भागीदारी होती हैं वहीं पैसों के समुचित उपयोग जैसे विषय पर आवेदक आपस में भी चर्चा करते हैं। इस बातचीत में आवेदक एक दूसरे से ऋण लेने के कारणों और उसके इस्तेमाल आदि पर बातचीत करके अपनी समझ स्पष्ट करते हैं।
जब किसी महिला को उसका ऋण मिल जाता है तब उसका संघ उसके काम की प्रगति की नियमित जांच करता है। इस जांच के दौरान कुछ बातें देखी जाती हैं जैसे कि क्या उस महिला ने ऋण के पैसों का इस्तेमाल उसी काम के लिए किया है जिसके लिए उसे ऋण दिया गया है? क्या किस्तों के भुगतान में उसे किसी तरह की समस्या आ रही है? आगे उसे किस तरह की मदद की ज़रूरत है?
समुदाय के स्तर पर मिलने वाले सहयोग और सलाह की संस्कृति ने वित्तीय योजनाओं को लेकर महिलाओं को मज़बूत बनाया है। सदस्यों के बीच आपसी भरोसे और कार्यक्रम के प्रति स्वामित्व के भाव ने भी भुगतान की उच्च दर को बनाए रखने, महिलाओं की विश्वसनीयता को बढ़ाने में मदद पहुंचाई है। साथ ही, इससे अपने व्यवसायों को खड़ा करने के लिए महिलाओं को ऋण आवेदन के लिए प्रोत्साहन भी मिला है। इससे मिलने वाली वित्तीय सुरक्षा के कारण इन महिलाओं की अपने परिवार और समाज दोनों में स्थिति बेहतर है। ये महिलाएं इसे बाक़ी किसी भी दूसरी चीज से अधिक मूल्यवान समझती हैं।
के रामलक्ष्म्मा महाशक्ति फ़ेडरेशन की उपाध्यक्ष हैं। महाशक्ति फ़ेडरेशन महिलाओं के साथ काम करने वाली चार विभिन्न समितियों का एक समूह है।
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मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में पड़ने वाले पेल्मा गांव का निवासी हूं। मैं एक किसान हूं और पशुपालन भी करता हूं। पिछले कुछ दशकों में हमारे आसपास के कई गांवों में कोयला खनन का काम बहुत ही तेज़ी से हो रहा है। कोयला खनन करने के लिए कंपनियों ने ज़मीनों का अधिग्रहण कर लिया। नतीजतन, लोगों के पास खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं रह गई है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर खनन होने के कारण आसपास का पर्यावरण भी बहुत अधिक प्रदूषित हो गया है। इस प्रदूषण का हानिकारक प्रभाव ना केवल यहां रहने वाले इंसानों पर पड़ रहा है बल्कि इलाक़े के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी इसके प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं।
हमारा गांव उन कुछ गांवों में से एक है जहां के लोगों ने जन आंदोलन, अदालती सुनवाइयों और धरना-प्रदर्शन आदि के ज़रिए कोयला खनन पर रोक लगाने में सफलता हासिल की है। कंपनियों का दावा है कि वे हमें रोज़गार मुहैया करवाएंगी, लेकिन हमें इसमें किसी तरह का फ़ायदा नहीं दिखता है। वे एक परिवार से केवल एक व्यक्ति को रोज़गार देने की बात करते हैं, लेकिन हमारे गांव में खेती के काम में परिवार के प्रत्येक सदस्य की भागीदारी होती है।
हालांकि, यह सच है कि हमें खदानों के आसपास रहने का भारी ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हमारे आसपास की हरियाली खत्म हो चुकी है। जब हमारे मवेशी घास और वनोपज चरते हैं तो उनके शरीर में कोयला खनन से निकलने वाले हानिकारक और ज़हरीले पदार्थ भी प्रवेश कर जाते हैं।
मवेशियों के स्वास्थ्य पर इन हानिकारक पदार्थों के सेवन का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और वे कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इन बीमारियों के कारण गायों और बकरियों से होने वाले दूध के उत्पादन में भारी कमी आने लगी है। नतीजतन, मुझ जैसे पशुपालक के भरोसे अपनी आजीविका चलाने वाले लोगों की आमदनी में भारी कमी आई है।
इस के कारण हमारे सामने आजीविका का एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अब खेती में आई कमी के कारण खेतिहर मज़दूरों के पास काम की कमी हो गई है और उनके पास कुछ नया काम सीखने का ना तो विकल्प है और ना ही पर्याप्त साधन हैं। इसके अलावा, आसपास के गांवों में खनन के लिए किए जाने वाले भारी विस्फोटों के कारण हमारे घरों की दीवारों पर भी दरारें पड़ने लगी हैं।
महाशय राठिया जन चेतना, रायगढ़ नाम की एक समाजसेवी संस्था के सदस्य हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव में स्थित एक सामुदायिक संगठन है। महाशय पेशे से एक पशुपालक हैं।
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46 साल के बाबुल* को यमुना पुश्ता (नदी किनारे का जलभराव क्षेत्र) के पास रहते हुए क़रीब एक दशक से अधिक हो गया है। मध्य प्रदेश से दिल्ली आने के बाद बाढ़-प्रभावित यह मैदान ही उसका एक मात्र ठिकाना है। बाबुल शादियों और विभिन्न आयोजनों में वेटर का काम करते हैं। अपने काम से वे इतना नहीं कमा पाते हैं कि शहर में एक घर लेकर रह सकें। सड़क पर रहने के कारण उनका जीवन पूरी तरह से असुरक्षित है।
बाबुल का कहना है कि ‘दिनभर चिलचिलाती धूप के कारण ज़मीन बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती है और रात तक गर्म ही रहती है। इसके कारण रात में सोना मुश्किल हो जाता है। दिन की चिलचिलाती धूप और गर्मी हम जैसे लोगों (बेघरों) को सुबह जल्दी जागने के लिए मजबूर कर देती है, और फिर दिन भर किसी तरह की राहत नहीं मिलती।’
बाबुल ने अत्यधिक गर्मी से निपटने के लिए दवाओं और नशे पर बढ़ती अपनी निर्भरता की ओर भी इशारा करते हैं। बाबुल क़हते हैं कि ‘शराब पीने से मुझे थोड़ी शांति मिलती है और इससे उमस भरी गर्मी सहने में भी आसानी होती है। एक बार इसका नशा चढ़ जाने के बाद मुझे आसपास की चीजों का पता नहीं चलता है।’
चिराग़ दिल्ली के फ़्लाइओवर के पास रहने वाले मुरली कहते हैं कि ‘सिर को ढंकने के लिए त्रिपाल शीट का इस्तेमाल करना भी हमारे लिए चुनौतीपूर्ण है क्योंकि बहुत अधिक गर्मी में यह फट और टूट जाता है।’
चूंकि दिल्ली में हर साल गर्मियों में उच्च तापमान के नए रिकॉर्ड बन रहे हैं, ऐसे में बाबुल को होने वाला अनुभव अनोखा नहीं है। मैं जिस समाजसेवी संस्था हाउसिंग लैंड राइट्स नेटवर्क के साथ काम करता हूं, उसके द्वारा हाल ही में किए गये एक अध्ययन के अनुसार, दिल्ली में रहने वाले बेघर लोगों में लगभग 99 फ़ीसद लोग अत्यधिक गर्मी के कारण रातों में सो नहीं पाते हैं।
दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड (डीयूएसआईबी) द्वारा बेघरों को दिये गये आश्रय गृह भी मददगार साबित नहीं हो रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये आश्रय गृह टीन की चादरों से बने होते हैं जो दिन के समय तेज धूप के कारण बहुत अधिक गर्म हो जाते हैं और जिससे कमरे का तापमान बढ़ जाता है। इसके अलावा, तापमान को कम करने और कमरे को ठंडा करने वाले तरीक़ों और साधनों का ना होना या अक्षम होना पहले से ही चुनौतीपूर्ण स्थितियों में इजाफ़ा ही करती है। यमुना बाज़ार हनुमान मंदिर आश्रय गृह में रहने वाले 50 साल के मूलचंद कहते हैं कि ‘आश्रय गृह में लगे पंखों से गर्म हवा निकलती है। कमरे में भीषण गर्मी के कारण हम लोग रात भर नहीं सो पाते हैं।’
अनिद्रा, अत्यधिक गर्मी के कारण बेघरों पर पड़ने वाले प्रभावों में से एक है। उन्होंने ने सांस लेने में कठिनाई, मतली, चक्कर आना, निर्जलीकरण और भूख न लगना जैसी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में भी बताया है।
एक बेघर आदमी की औसत मासिक आमदनी लगभग 8 हज़ार रुपये होती है, जिसके कारण वे पंखों और कूलर का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। उचित आश्रय, भोजन, पानी और दवाओं का खर्च उठाने की अक्षमता और सरकार से पर्याप्त मदद ना मिलने जैसे कारकों ने इस मामले को और भी बदतर बना दिया है। जैसा कि निज़ामुद्दीन की सड़कों पर रहने वाली सुधा* कहती हैं ‘गर्मी के कारण हम बार-बार बीमार पड़ते हैं, लेकिन दवाओं की बढ़ती क़ीमत के कारण हमारे लिए पूरी खुराक लेना मुश्किल होता है।’
पूर्वी दिल्ली के चांद सिनेमा के पास रहने वाले ललित* बताते हैं कि ‘चक्कर आना शुरू हो जाता है और प्यास असहनीय हो जाती है। कभी-कभी मतली आती है, बुखार बढ़ता है, शरीर में दर्द होता है और बेचैनी बढ़ जाती है।’
*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।
अनुज बहल एक शहरी रिसर्चर और स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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