बिहार में किसानों के लिए पॉपलर की खेती करना आसान क्यों नहीं है?

ट्रैक्टर से खेती करता किसान_नकद खेती
किसान अतिरिक्त आमदनी के लिए पॉपलर खेती के साथ-साथ ईख, गेहूं, पपीता आदि की खेती भी कर सकते हैं। | चित्र साभार: राहुल सिंह

बिहार के बेगूसराय जिले में रहने वाले शैलेंद्र कुमार चौधरी हमेशा से आधुनिक पद्धतियों से खेती करना चाहते थे। साल 2014 में, वे अपने पिता के साथ हरियाणा के यमुनानगर गए जहां उन्होंने चिनार (पॉपलर) के पेड़ों के कई तरह के उपयोग देखे और उनके बारे में जाना। पॉपलर का प्रमुख इस्तेमाल प्लायवुड बनाने में किया जाता है। साथ ही, पेंसिल की लकड़ी, स्लेट का फ्रेम, बंदूक का बट और खिलौने बनाने में भी इसका उपयोग होता है। इसके अलावा, इसका जलावन भी अच्छा होता है। किसान को इस लकड़ी की कीमत पांच से सात रुपये किलो तक मिल जाती है। पेड़ लगाने के पांचवे साल में यह बेचने के लिए तैयार हो जाती है।

यह सब देखकर शैलेंद्र ने अपने गांव अहियापुर में पॉपलर की खेती करने का निर्णय लिया और 25 एकड़ जमीन में इसकी खेती शुरू की। शैलेंद्र बताते हैं कि ‘शुरुआत में हमने अपनी खेतिहर भूमि पर पॉपलर के करीब 10 हजार पेड़ लगाये। इनमें से लगभग आठ से साढ़े आठ हजार पेड़ जीवित बचे। पहली खेप के पेड़ों को मैंने वर्ष 2021 में बेचा और उसको बेचने से मुझे इतना मुनाफा हुआ कि मेरी बेटी की शादी का खर्च उसी पैसे से निकल गया।’

शैलेंद्र अपने खेत में लक्ष्मी वेराइटी के पौधे लगाते हैं जो वे इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्टिविटी, (आइएफपी, रांची) से लाते हैं। अपने अनुभवों के आधार पर शैलेन्द्र बताते हैं कि पॉपलर के लिए ऐसी भूमि उपयुक्त होती है जहां पानी का जमाव नहीं होता हो। वे कहते हैं कि ‘किसान अतिरिक्त आमदनी के लिए पॉपलर खेती के साथ-साथ ईख, गेहूं, पपीता आदि की खेती भी कर सकते हैं जो मैं भी अपने खेतों में लगाता हूं।’

शैलेंद्र, पॉपलर की लक्ष्मी वैरायटी के पौधे के सर्टिफाइड ग्रोवर हैं और इसके लिए उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट प्रोडक्टिविटी, रांची से प्रमाण पत्र हासिल किया है। इसका मतलब है कि वे पॉपलर की नर्सरी तैयार कर पुनर्रोपण के लिए अन्य किसानों बेच सकते हैं और यह अनुमति उन्हें सरकार की तरफ़ से दी गई है।

अहियापुर के ही एक और सर्टिफ़ाइड ग्रोवर, किसान संजय कुमार चौधरी भी चिनार या पॉपलर की खेती करते हैं। संजय कहते हैं कि ‘सागवान-महोगनी के पौधे हम लगायेंगे तो उसकी लकड़ी का आर्थिक उपयोग हमारे बच्चे करेंगे क्योंकि उन्हें तैयार होने में लंबा वक्त लगता है। लेकिन पॉपलर का उपयोग हम खुद ही करेंगे और एक बार कर भी चुके हैं। अगर हर साल हम कुछ-कुछ पौधे लगाते रहेंगे तो साल दर साल हमारे लिए आय का जरिया खुलता जाएगा।’

बिहार सरकार पॉपलर के लिए एक अलग योजना चला रही है जिसके तहत किसानों को 10 रुपये की जमानत राशि पर इसके पौधे दिये जाते हैं। पटेढ़ी बेलसर ब्लॉक, वैशाली में पड़ने वाले पड़वारा गांव के 56 वर्षीय किसान पवन सिंह बताते हैं कि वर्तमान में सरकार द्वारा 10 रुपये मूल्य पर हमें पौधे दिये जाते हैं और फिर तीन साल बाद कुल लगाये गये पौधों में 50 प्रतिशत या उससे अधिक के जीवित रहने पर 60 रुपये बोनस और 10 रुपये लागत मूल्य सहित वापस किये जाने का प्रावधान रखा गया है। लेकिन इसमें दिक्कत यह है कि किसान को पौधों के लिए आवेदन करने से लेकर पौधे लाने तक लगभग 10 दिन का वक्त लग जाता है। इस दौरान पौधों की देखरेख अगर सही से न हो तो उनको जीवित रखना मुश्किल हो जाता है जिससे किसानों को नुकसान होता है। ऐसे में इस पूरी प्रक्रिया को तेज़ी से करने की आवश्यकता है।

कुछ किसानों से बात करते हुए पता चला कि जिन किसानों के पास दो हेक्टेयर या उससे कम ज़मीन है, उनके लिए पॉपलर की खेती करना उतना व्यवहारिक नहीं है। अब इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि बिहार में इसे बेचने के लिए कोई उचित मार्केट नहीं है और ज्यादातर बड़े किसान अपनी फसल बेचने के लिए हरियाणा के यमुनानगर जाते हैं। वे बताते हैं कि ऐसे में छोटे किसानों के लिए अपनी फसल दूसरे राज्य में ले जाकर मुनाफा कमाना एक तरह से नामुमकिन है क्योंकि माल भाड़े में ही उनका काफी सारा पैसा चला जाता है।

पॉपलर की खेती, कम समय में किसानों की आजीविका को बढ़ाने का एक अच्छा स्रोत तो है लेकिन अभी इस राह में कई चुनौतियां हैं।

राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।

अधिक जानें: जानें कि कैसे मौसम की अनियमितता किसानों से उनकी खेती-बाड़ी छीन रही है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और अपना समर्थन देने के लिए उनसे
[email protected] पर सम्पर्क करें।

हिमाचल का एक गांव जो अपने पशुओं के स्वागत में उत्सव मनाता है

पहाड़ों से उतरती भेड़-बकरियाँ_पशु पालन
जानवरों की वापसी पर गांव के लोग जश्न मनाते हैं। | चित्र साभार: आस्था चौधरी

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में तीर्थन घाटी के बीचोंबीच 8 हजार फीट की ऊंचाई पर पेखरी नाम का एक गांव स्थित है। क्षेत्र के अन्य गांवों की तरह, पेखरी में रहने वाला समुदाय भी अपने जीवनयापन के लिए पशुपालन और खेती पर ही निर्भर है। हिमाचल की दुरूह जलवायु परिस्थितियों को देखते हुए, इलाक़े में पशुधन का मौसमी प्रवास महत्वपूर्ण हो गया है ताकि सभी जानवरों के अस्तित्व और जीवन को सुनिश्चित किया जा सके।

प्रत्येक वर्ष मई माह में, 700–800 मवेशियों को चरने के लिए ऊपर वाले हिस्से में स्थित सार्वजनिक भूमि में भेज दिया जाता है। इन मवेशियों के साथ गांव के दो पुरुष भी जाते हैं और 15–20 दिनों में उनके वापस लौटने के बाद दो अन्य लोग उनकी जगह पर जाते हैं। नवम्बर तक चलने वाले इस प्रवास के दौरान यह चक्र चलता रहता है। गांव की 22 वर्षीय एक महिला सोनू कहती हैं कि, ‘इन महीनों में, हमारी गैसिनिस (पारंपरिक चरागाह) में पर्याप्त रूप से चारा उपज जाता है, जिन्हें सर्दियों के आने से पहले काटकर रख लेते हैं। मवेशियों के लिए यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि बर्फबारी के दौरान पहाड़ों से वापस लौटने के बाद वे इसे ही खाते हैं।’

मवेशियों के गांव से प्रवास के बाद, गांव में लोग पट्टू (शॉल) की बुनाई, फसलों की बोआई, मधुमक्खी पालन और सर्दियों के लिए चारा जमा करने जैसे दूसरे काम जारी रखते हैं।

मवेशियों के वापस लौटने पर गांव वाले जश्न मनाते हैं। सभी लोग गांव के प्रवेश द्वार पर इकट्ठा होते हैं, जयकार कर और तालियां बजाकर उन मवेशियों का स्वागत करते हैं। अपने मवेशियों की गिनती करते हुए वे उनकी आरती और पूजा भी करते हैं। घरों के दरवाज़ों को बुरुश के पत्तों से सजाया जाता है, और पूरे गांव में मुडी के लड्डू (मक्के या ज्वार से बनी) नाम की मिठाई बांटी जाती है।

पेखरी के ही निवासी चन्देराम बताते हैं कि ‘हम इस त्योहार को इसलिए मनाते हैं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ये पशुधन ही हमारी आजीविका का एक मात्र स्रोत रहे हैं। जब हमारे मवेशी पहाड़ों से सुरक्षित वापस लौट आते हैं तब हम उनका स्वागत अपने बच्चों की तरह करते हैं।’ इस त्योहार को कातिक खड्डू पूजा कहते हैं।

हालांकि, लगातार बढ़ते निर्माण कार्य, वनों की कटाई के कारण चरागाह की सार्वजनिक ज़मीन में आई कमी आई है। इन कारणों ने मवेशियों के इस प्रवास की अवधि को लंबा और अपेक्षाकृत कठिन, दोनों बना दिया है। इलाक़े में रहने वाला समुदाय सर्दी के महीनों के लिए पर्याप्त चारा भी नहीं इकट्ठा कर पाता है।

मवेशियों के प्रवास के दौरान उनके साथ जाने वाले गांव के निवासी ताराचंद कहते हैं कि ‘बदलती जलवायु और मवेशियों का आर्थिक मूल्य कम होने के कारण, गांव के कुछ लोग अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर मज़दूरी और खेती के काम की तरफ जा रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण पारंपरिक चरागाह भूमि में कमी आई है। लेकिन अपनी पहचान को बचाए रखने और अपनी जड़ों से वास्तव में जुड़े रहने के लिए हम इस परंपरा को अब भी निभा रहे हैं।’

आस्था चौधरी उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली एक शोध छात्रा हैं। वे कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कि ऊंट संकट के बावजूद राजस्थान में रायका कैसे ऊंटों की देखभाल कर रहे हैं।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

स्पीति घाटी में सिंचाई, महिलाओं के जिम्मे होने के क्या मायने हैं

हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी के दायरे में आने वाले किब्बर गांव में खेती के दौरान सिंचाई का ज़िम्मा महिलाओं पर होता है।

फसलों की सिंचाई एक तय चक्र के अनुसार की जाती है। मिट्टी की जुताई के कुछ सप्ताह बाद, महिलाएं खेतों से खरपतवार चुनकर हटा देती हैं और उसमें सूखी यालो (स्थानीय जंगली घास) फैला देती हैं। ऐसा करने से मिट्टी का बहाव रुकता है और उसकी जल-धारण क्षमता बढ़ जाती है। इसके बाद युरमा आता है जो सिंचाई का पहला चक्र होता है। युरमा के पहले दिन, केवल अमचिसों (डॉक्टरों) और देवता (गांव के देवता) के खेतों की ही सिंचाई की जाती है। इस दिन गांव के प्रत्येक घर की महिलाएं सिंचाई में भाग लेती हैं।

दूसरा दिन ऐसे परिवारों के लिए रखा जाता है जिसमें पिछले साल कोई गंभीर रूप से बीमार था या किसी की मृत्यु हुई थी, या फिर उस घर में गर्भवती महिलाएं हैं जो खेतों में काम नहीं कर सकती हैं। तीसरा दिन टिपिंग लैंगज़ेट, यानी कि उन परिवारों के लिए होता है जिन्होंने जल चैनलों के रखरखाव में भाग लिया है। बाक़ी के बचे खेतों की सिंचाई तीसरे दिन के बाद की जाती है।

महिलाएं ही सिंचाई-चक्र के दूसरे और तीसरे दिन को तय करती हैं। वे ही स्पीति की एक पवित्र चोटी कनामो की पिघली हुई बर्फ से आने वाले पानी के दैनिक वितरण का भी प्रबंधन करती हैं। खुल्स का उपयोग करके पानी को खेतों तक पहुंचाया जाता है। खुल्स लंबे प्राकृतिक चैनल होते हैं जो चट्टानों से बने होते हैं और सदियों से स्पीति की घाटियों में पाये जाते हैं। शुरुआत में इसे जौ और काली मटर की सिंचाई के लिए बनाया गया था, लेकिन समय के साथ इस क्षेत्र में हरी मटर उगाने के लिए यहां की महिलाओं ने इस सिंचाई व्यवस्था में फेरबदल करके इसे बेहतर बनाया है।

प्रत्येक वर्ष, दो महिलाओं को खुल के प्रबंधक के रूप में चुना जाता है। वे खुल की प्रभारी होती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि सभी खेतों को उनके हिस्से का पानी मिले और पानी वितरण से जुड़े किसी भी विवाद का समाधान किया जाए। महिलाओं पर खेतों में क्यारियां बनाने की ज़िम्मेदारी भी होती है। क्यारियां, मिट्टी के ऐसे बंधान हैं जो पानी के प्रवाह को दिशा देने में मदद करते हैं और भूमि की प्राकृतिक ढलान के आधार पर सावधानीपूर्वक बनाए जाते हैं। 

किब्बर की एक महिला किसान लोबजांग कहती हैं कि ‘यदि आप उन्हें बहुत जल्दी पानी देते हैं तो पौधे प्यासे हो जाते हैं और उन्हें अधिक पानी की ज़रूरत पड़ने लगती है। आपको उन्हें सही समय पर और सही मात्रा में पानी देने की ज़रूरत होती है।’  लोबजांग यह भी बताती हैं कि कई पीढ़ियों से इस सिंचाई व्यवस्था में बदलाव नहीं किया गया है। छोटी लड़कियों द्वारा खेत के कामों में मदद करना शुरू करते ही माताएं अपनी बेटियों को सिंचाई का ज्ञान देने लगती हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।

रंजिनी मुरली हम्बोल्ट-यूनिवर्सिटी एट ज़ू बर्लिन में पोस्ट-डॉक्टरल वैज्ञानिक हैं। यह मूलरूप से हिमकथा पर प्रकाशित आलेख का संपादित अंश है।

अधिक जानें: राजस्थान में बोरवेल और भूजल के बारे में विस्तार से जानने के लिए इस लेख को पढ़ें। 

महाराष्ट्र के गांवों में त्यौहारों का हिस्सा बना रक्त परीक्षण

एक समूह में बैठी कुछ महिलाएं_स्वास्थ्य जागरुकता
महिलाओं में बुनियादी रोगनिरोधी चिकित्सा जांच की आवश्यकता से जुड़ी जानकारी का भी अभाव है। | चित्र साभार: ज्ञान प्रबोधिनी

स्वास्थ्य सेक्टर में काम करने के दौरान हमने पाया कि भारत के कई हिस्सों में महिलाएं अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे रखने की आदी हैं। महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में स्थित वेल्हे गांव भी इसका कोई अपवाद नहीं है। अक्सर, महिलाओं के स्वास्थ्य पर दिया जाने वाला ध्यान उनके परिवार के रवैये और उनकी अपनी धारणाओं पर निर्भर करता है। आमतौर पर महिलाओं में रोगों से बचाव के लिहाज़ से स्वास्थ्य जांच करवाने की जागरुकता का अभाव भी देखने को मिलता है। वे डॉक्टर से चर्चा के लिए भी स्वास्थ्य को एक निजी मामला मानती हैं। इसके अलावा, उन्हें यह भी लगता है कि जांच और इलाज के बारे में डाक्टर से ज़्यादा सवाल करना ठीक नहीं हैं। उन्हें तो केवल विशेषज्ञों से मिलने वाले सलाह का पालन करना चाहिए।

इसी संदर्भ में, 2018 में, जब हमने महिलाओं के लिए हीमोग्लोबिन (एचबी) स्तर की जांच का अभियान शुरू करने के बारे में सोचा, तब हमारे लिए यह सोच पाना भी असंभव था कि वे अपनी इच्छा से जांच के लिए आगे आएंगी। हमने दिवाली के आसपास अपने इस अभियान को शुरू करने का फ़ैसला किया। महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में यह एक महत्वपूर्ण त्योहार है और मानसून की फसल (अक्तूबर महीने के शुरुआत में) की कटाई के साथ आता है। गांवों में, ऐसे त्यौहार आपस में मिलने-जुलने और सामूहिक गतिविधियों के साथ प्रसिद्ध स्थानीय मंदिरों के आसपास सामुदायिक समारोहों या जत्राओं (मेलों) के आयोजन का अवसर बनते हैं। नवरात्रि के दौरान सामाजिक उत्सवों में महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया था इसलिए हम त्यौहारों के दौरान ही महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता के विचार को स्थापित करना चाहते थे। अंत में, इस अभियान की दो उपलब्धियां रहीं – रक्त जांच से जुड़ी सामाजिक रूढ़िवादी सोच को समाप्त करना और वह भी सार्वजनिक स्थलों पर, और नियमित खून की जांच का महत्व बताना।

पहले साल में, ज़्यादातर महिलाएं अपने खून की जांच करवाने की इच्छुक नहीं थीं। इसके कई कारण थे। कुछ महिलाओं को सुई से डर लगता था जबकि कुछ महिलाओं के पास समय नहीं था। उनका हमसे एक ही सवाल होता था कि, ‘त्योहार के शुभ अवसर पर ही क्यों? क्या हम खून की जांच कभी और नहीं करवा सकते हैं?’

चूंकि हम वहां ज्ञान प्रबोधिनी नामक एक ऐसे संगठन के साथ काम कर रहे थे जिसने पहले ही उस क्षेत्र में कुछ अभियान करवाए थे, इसलिए हम स्थानीय स्वयं-सहायता समूह की मदद से एक छोटी सी बैठक आयोजित करवाने में सफल हो पाए। इस बैठक में महिलाओं की कई धारणाओं पर खुलकर चर्चा की गई। स्थानीय आशा कर्मचारी की उपस्थिति, जो कि एक जाना-पहचाना चेहरा था, से भी हमें विश्वास बनाने और संवाद करने में मदद मिली।

रक्त जांच अभियान उस समय चल रही उन कई गतिविधियों – खेल आयोजनों, गीतों और नृत्य प्रतियोगिताओं – के साथ सहजता से मिश्रित हो गया, जिन्हें प्रबोधिनी स्वयंसेवकों द्वारा नवरात्रि मनाने के लिए भी आयोजित किया गया था। इस प्रकार, इस अभियान का स्वरूप केवल स्वास्थ्य से जुड़ा नहीं रह गया और इसमें एक उत्सव की भावना आ गई। इससे महिलाओं में रक्त जांच को लेकर झिझक भी कम हो गई।

आशा कार्यकर्ताओं ने रक्त की जांच की और प्रतिभागियों के सामने ही परिणाम सुनाए। उच्च और ‘अच्छी’ एचबी स्तर (13 से अधिक) वाले लोगों को सम्मानित करने के साथ-साथ एक उपहार भी दिया गया। आठ से कम एचबी स्तर वाले लोगों को सांत्वना दी गई और उनसे कहा गया कि वे उचित दवा के लिए आशा कर्मचारियों से संपर्क करें। इसके अलावा, किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर कम एचबी के प्रभाव के बारे में चर्चा की गई जिनमें कृषि कार्य के दौरान कार्यक्षमता में कमी आदि जैसे विषय शामिल थे। साथ ही, उन्हें ऐसे खाद्य पदार्थों के बारे में भी बताया गया जो एचबी स्तर में सुधार कर सकते हैं।

पहले साल में लगभग सौ महिलाएं अपने रक्त परीक्षण के लिए सामने आईं थीं। 2023 में, यह संख्या बढ़कर लगभग तेरह सौ तक पहुंच गई, जो पुणे के दो ब्लॉक- भोर और वेल्हे के 48 गांवों में रहती हैं। कभी वर्जित रहा विषय, स्वास्थ्य अब बातचीत का मुद्दा बन चुका है। कुछ अनजान करने के डर और उससे जुड़ी चिंता ने ‘मुझे पता लगाना चाहिए कि मेरी स्थिति क्या है और मैं इसे ठीक करने के लिए क्या कर सकती हूं।’ जैसी प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया। अब यह इतना लोकप्रिय हो चुका है कि इन गांवों के पुरुषों ने भी अपने रक्त परीक्षण के लिए कहना शुरू कर दिया है।

डॉ अजीत कानिटकर पुणे स्थित एक शोधकर्ता और नीति विश्लेषक हैं। सुवर्णा गोखले ज्ञान प्रबोधिनी के स्त्री शक्ति ग्रामीण विभाग की प्रमुख हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और विवाह प्रमाण पत्र की अनुपस्थिति में महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में विवाहित महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में विस्तार से जानें।

अधिक करें: लेखकों के काम को जानने के लिए उनसे [email protected] और [email protected] पर संपर्क करें।

महिलाओं के एग्रो-टूरिज्म से सम्पन्न बनता राजस्थान का एक गांव

राजस्थान के चुरु जिले के सुजानगढ़ ब्लॉक में स्थित गोपालपुरा पंचायत अपने गांवों के पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जाना जाने लगा है। दरअसल, आसपास के इलाक़ों में तेज़ी से हो रहे खनन के कारण इस क्षेत्र की जलवायु बुरी तरह से प्रभावित होने लगी थी। अपने इलाक़े को प्रदूषण मुक्त करने और खनन से होने वाले नुक़सान को कम के लिए यहां की पंचायत ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक अनूठे प्रयास की शुरुआत की।

इस प्रयास के तहत गोपालपुरा पंचायत के लोगों ने अपने यहां पर्यटन की संभावनाओं को देखते हुए कुछ साल पहले तक डंपिंग ग्राउंड बन कर रह गई 144 बीघा सरकारी ज़मीन पर पेड़ लगाने का काम शुरू किया। इस पहल के तहत उन्होंने कुल तीस हज़ार पौधे लगाए। आज की तारीख़ में उन तीस हज़ार पौधे में से क़रीब बीस हज़ार पौधे जीवित हैं। हरीतिमा ढाणी नामक इस पहल की शुरुआत के बारे में बताते हुए गोपालपुरा पंचायत की सरपंच कहती हैं कि ‘हमारे यहां चार सौ साल पुराना डुंगरबाला जी मंदिर है, जिसके आसपास बहुत सुंदर-सुंदर पहाड़ियां भी हैं। यहां पर्यटन को विकसित करने की पूरी संभावना थी, लेकिन क्षेत्र का प्रदूषण एक बड़ी बाधा था। इसके लिए ज़रूरी था कि हम अपने क्षेत्र में हरियाली को विकसित करें। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमने पेड़ लगाने शुरू किए।’

पेड़ लगाने से शुरू होने वाले इस प्रयास को, यहां की महिलाएं एक कदम आगे लेकर गईं और उन्होंने सब्जियां भी उगानी शुरू कर दी। गोपालपुरा में पानी आसपास की पहाड़ियों से आता है जो कि बहुत मीठा होता है। मीठे पानी के कारण यहां उगाई जाने वाली सब्ज़ियां बहुत स्वादिष्ट होती हैं। अपने अच्छे स्वाद के लिए मशहूर गोपालपुरा की सब्जियां आसपास के गांवों में हरीतिमा ढाणी नाम के ब्रांड के रूप में लोकप्रिय हो गई हैं।

गांव की महिलाओं ने अपने इसी ब्रांड के अंर्तगत एग्रो-टूरिज़्म को विकसित करने के लिए प्रयास शुरू कर दिया है। इसके लिए उन्होंने यहां झोपड़ियां बनाई हैं जहां बाहर से आने वाले लोग आकर रहते हैं और इन सब्ज़ियों का आनंद उठाते हैं। यहां आकर रहने वालों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था भी यही महिलाएं करती हैं। इसके अलावा, महिलाओं को बाहर से भी ऑर्डर मिलने लगे हैं। सब्जियां उगाने के साथ-साथ इस हरीतिमा ढाणी की महिलाएं बाजरे के बिस्किट, काचर की कैंडी जैसी चीजें बनाने का प्रशिक्षण भी ले रही हैं। शहर की भाग-दौड़ और प्रदूषित हवा-पानी से कुछ दिनों के लिए बचने के उद्देश्य से शहरी लोग यहां आते हैं। आने के बाद वे यहां की प्राकृतिक रूप से उगाई गई सब्ज़ियों और खाने की अन्य चीजों का भरपूर आनंद उठाते हैं।

इस गांव की पंचायत अब मनरेगा के तहत काम करने वाली महिलाओं को भी इस पहल से जोड़ने का प्रयास कर रही है। ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य उन्हें आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर, सशक्त और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रति जागरूक बनाना है।

क्षेत्र में हो रहे खनन के कारण यहां के लोगों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। गोपालपुरा की सरपंच बताती हैं कि, ‘हालांकि, हम मनरेगा के तहत काम कर रहे हैं लेकिन हमारे पास फंड की बहुत कमी है। पहले खनन पर लगने वाले टैक्स का एक फ़ीसद पंचायतों को दिया जाता था। लेकिन अब उस राशि को भी डीएमएफ़टी (डिस्ट्रिक्ट मिनरल फ़ाउंडेशन ट्रस्ट) में बदल दिया गया है। इसके बाद माननीय ज़िला कलेक्टर की अध्यक्षता में उनकी समिति तय करती है कि उस राशि को कहां और कैसे खर्च करना है। हमारी मांग है कि डीएमएफ़टी की राशि को उसी जगह पर खर्च किया जाना चाहिए जहां कि खनन से नुक़सान हो रहा है।’

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

सविता राठी पेशे से वकील हैं और राजस्थान के चुरू जिले में पड़ने वाली गोपालपुरा पंचायत में तीसरी बार सरपंच के पद पर हैं।

अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि राजस्थान की ग्रामीण लड़की यूट्यूब का क्या करेगी?।


जलवायु परिवर्तन के चलते ख़त्म होती भीलों की कथा परंपरा

महाराष्ट्र के नंदुरबार जिले में स्थित सतपुड़ा की पहाड़ियों में ‘कथा’ गाई जाती हैं जिनमें मुख्य रूप से पौराणिक कथाएं और गीत होते हैं। यहां रहने वाले भील समुदाय के जीवन में इन कथाओं और गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इस समुदाय के पास जीवन, मृत्यु और इन दोनों के बीच में मौजूद तमाम बातों से जुड़ी पौराणिक कथाएं हैं। किसी की मृत्यु हो जाने पर, पूरी रात चलने वाले ऐसे समारोह आयोजित किये जाते हैं जिनमें लोग इकट्ठा होते हैं और कथावाचकों के साथ मिलकर गाते हैं। इन कथावाचकों को स्थानीय लोग गान्यू वालो (क्योंकि ये कहानियों को गाते हैं) के नाम से पुकारते हैं। खेती के कामों में भी इस प्रथा की छाप देखने को मिलती है जहां पूरी की पूरी ऐसी मिथक कहानियां हैं जिनमें न केवल सतपुड़ा में भीलों के बीच खेती का लोक इतिहास दर्ज है बल्कि इन कहानियों में ये भी बताया गया है कि कौन सी फसल – धान और सब्जियां सहित – किस मौसम में उगाई जानी चाहिए। इन लोक गीतों में बीज के अंकुरण और बोआई तथा सिंचाई के तरीक़ों का भी ज़िक्र किया गया है।

भील परंपरा का दस्तावेज़ीकरण करने के मेरे काम के दौरान, मुझे ऐसी कथाएं मिलीं, जिनमें इस समुदाय के चारागाहों से लेकर कृषिविदों तक की यात्रा के बारे में बताया गया है। एक आम मिथक है जो इस बारे में बताता है कि जब इस समुदाय ने पहली बार खेती का काम शुरू किया था तो उनके कुल देवताओं ने बीज की खोज के लिए लोगों को सात समुंदर पार भेजा था, जिससे अंत में इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन में समृद्धि आई। ये कहानियां मानवीय लालच और संसाधनों के अत्यधिक दोहन के प्रति भी सचेत करती हैं जो सूखा, कमी और अकाल का कारण बन सकता है।

मिथकों के अनुसार, देवियों और देवताओं ने इन गीतों के माध्यम से भीलों को खेती से जुड़ी शिक्षा दी थी। इस प्रकार गान्यू वालो को इन कहानियों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। गीतों के माध्यम से ही समुदाय के लोगों ने मोर और कोदारो जैसी चावल की क़िस्मों के बारे में जाना। इन क़िस्मों की खेती में बहुत ही कम पानी लगता है और इनकी खेती पहाड़ी के निचले हिस्सों में की जाती है जहां पानी के स्रोतों से उनकी सिंचाई होती है। उन्हें यह भी मालूम है कि उड़द और मूंग जैसी दालों की खेती मानसून के दिनों में की जानी चाहिए क्योंकि इन फसलों को एक निश्चित समय अवधि के लिए नियमित बारिश की ज़रूरत होती है। हालांकि, ये सभी ज्ञान अब अप्रासंगिक हो गए हैं क्योंकि पानी के झरने सूख चुके हैं और बारिश भी अनियमित हो गई है। बहुत अधिक बारिश होने से मोर और कोदारो के बीज बह जाते हैं और उड़द और मूंग की खेती के समय पर्याप्त रूप से नियमित बारिश नहीं होती है। 

इसके अलावा, खेतों में मज़दूरों की जगह मशीनों ने ले ली है और बाज़ार से लाये गये बीज और खाद ने प्राकृतिक परंपराओं को ख़त्म कर दिया है। अब जब, पारंपरिक अनाजों के बदले इन पहाड़ियों में स्ट्रॉबेरी जैसे फल उगाए जाने लगे हैं, ऐसे में समुदाय के लोग ‘पौराणिक प्रथाओं’ को इससे कैसे जोड़ पाएंगे? आपको यह बदलाव विशेष रूप से नंदुरबार बाजार के आसपास की जगहों पर देखने को मिलेगा

चूंकि खेती के पुराने तरीक़ों ने अपना महत्व खो दिया है, उनसे जुड़े मिथक भी अब महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं। अब खेती से जुड़ी पौराणिक गीतों और कहानियों को सुनने के लिए कोई भी गान्यू वालो को नहीं बुलाता है, जिसके कारण उनकी आजीविका बहुत अधिक प्रभावित हो रही है और भीली परंपरा के एक महत्वपूर्ण हिस्से के मिट जाने का ख़तरा भी पैदा हो रहा है।

जीतेन्द्र वसावा देहवाली भीली कवि हैं और भील लोक-इतिहास के दस्तावेज़ीकरण का काम करते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कि जलवायु परिवर्तन, कैसे ओडिशा में मनाए जाने वाले पर्व-त्योहारों की देरी का कारण बन रहा है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

गोवंडी में आया बदलाव सामुदायिक ताक़त का उदाहरण है

एक डंपिंग ग्राउंड और धुएं छोड़ती चिमनी_नागरिक समुदाय
गोवंडी एम-ईस्ट वार्ड का हिस्सा है, जो मुंबई के सबसे बड़े डंपिंग ग्राउंड और इसके एकमात्र बायोमेडिकल अपशिष्ट भट्टी के लिए कुख्यात है। | चित्र साभार: शेख फ़ैयाज़ आलम

सितंबर 2023 में, हमारे नागरिक-नेतृत्व वाले संगठन – गोवंडी न्यू संगम वेलफेयर सोसाइटी – को पहली बड़ी जीत उस समय मिली जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने गोवंडी के शिवाजी नगर से बायोमेडिकल अपशिष्ट भट्टी को हटाने का आदेश दिया। हमने अक्टूबर 2022 में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर करते हुए तत्काल कार्रवाई की मांग की थी, और हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि प्लांट को दो साल के भीतर एक औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाए।

गोवंडी एम-ईस्ट वार्ड का हिस्सा है, जो मुंबई के सबसे बड़े डंपिंग ग्राउंड और इसके एकमात्र बायोमेडिकल अपशिष्ट भट्टी के लिए कुख्यात है। इन कारकों की वजह से यह क्षेत्र तेज़ी से टीबी (तपेदिक), ब्रोंकाइटिस और ऐसी ही अन्य बीमारियों  की चपेट में आ रहा है।

मेरा जन्म और पालन-पोषण गोवंडी में ही हुआ है और मैं, हमारे आसपास के इलाकों के प्रति नगरपालिका की उदासीनता के नतीजों का साक्षी रहा हूं। यहां, नागरिक मुद्दों पर कई समाजसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं, लेकिन हमें मालूम है कि इसके बावजूद जमीनी हकीकत कुछ और ही है और यहां परिस्थितियों में कोई बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है। स्वच्छता की कमी, कुछ खुली जगहें और शिक्षा की खराब सुविधाएं ऐसी समस्याएं हैं जिन्हें प्रशासन के सामने लाये जाने की जरूरत है, और इसके लिए समुदायों के प्रतिनिधियों से बेहतर दूसरा कौन हो सकता है?

शुरुआत में मैंने अकेले ही काम किया। मैं सोशल मीडिया पर सड़कों के गड्ढों और स्वच्छता की बदतर स्थिति के बारे में लिखता था। स्थानीय लोगों ने मेरे प्रयासों पर ध्यान दिया और मेरे इस काम की सराहना भी की। इसके बाद, धीरे-धीरे वे मेरे साथ इस अभियान में जुड़ने लगे। 2021 में, हमने अपने संगठन का पंजीकरण करवाया क्योंकि हमारा मानना था कि यह समुदाय के प्रतिनिधियों के रूप में हमारे काम को आधिकारिक बना देगा। हमने अपनी जनहित याचिका का समर्थन करने के लिए स्वास्थ्य और सामाजिक-आर्थिक डेटा इकट्ठा करते हुए, बायोमेडिकल कचरा भट्टी के खिलाफ सक्रिय रूप से अभियान शुरू किया। इनमें टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज की 2015 की रिपोर्ट भी शामिल थी, जिसमें पता चला था कि एम-ईस्ट वार्ड का मानव विकास सूचकांक शहर में सबसे कम था।

हमने सूचना के अधिकार का उपयोग करके एक आवेदन दिया ताकि हम सांस से संबंधित रोगों से जुड़े सरकारी स्वास्थ्य आंकड़े प्राप्त कर सकें। इस आवेदन के बाद प्राप्त आंकड़ों से हमें पता चला कि इस वार्ड में हर साल लगभग 5,000 लोग टीबी से पीड़ित हो जाते हैं। 

अदालत का आदेश आने से हमें नई प्रेरणा मिली। अब हम अपने पड़ोसी उपनगर देवनार में वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट स्थापित करने के बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) के फैसले के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। हमने अपने समुदाय के लोगों को दिल्ली और ओखला में स्थित इसी तरह के प्लांट से होने वाले प्रदूषण और स्थानीय लोगों के विरोध के बारे में जागरूक किया है।

जानकारी का प्रचार-प्रसार हमारे मुख्य उद्देश्यों में से एक है और इसके लिए हम वीडियो, समाचार क्लिपिंग और सोशल मीडिया पोस्ट जैसे माध्यमों का उपयोग करते हैं।

हम लैंडफ़िल पर पुराने समय से चली आ रही मानव द्वारा मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ भी अभियान चला रहे हैं। हम बीएमसी पर एक अतिरिक्त मुस्लिम कब्रिस्तान के निर्माण के लिए दबाव बना रहे हैं; और खुली जगहों को दोबारा ठीक करवाने के लिए काम कर रहे हैं। क़रीब 50-60 सदस्यों की हमारी कोर टीम वार्ड के विभिन्न मोहल्लों के सैकड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। उन समुदायों के पास अपने-अपने व्हाट्सएप ग्रुप हैं जहां स्थानीय समस्याओं पर चर्चा की जाती है। उन समस्याओं को हल करने के तरीके खोजने के लिए कोर टीम महीने में एक या दो बार बैठक करती है।

स्थानीय नेताओं को इस बात का डर सताता रहता है कि हमारे काम का कोई राजनीतिक उद्देश्य है और उन लोगों ने असामाजिक तत्वों की मदद से हमें डराने का प्रयास भी किया। लेकिन हमारी ज़मीन मज़बूत है। समुदाय के कुछ सदस्यों ने भी हमें यह कहते हुए भटकाने की कोशिश की कि हमें अपने जीवन और करियर पर ध्यान देना चाहिए। लेकिन अब, हमारे द्वारा किए गये प्रयासों के सकारात्मक परिणाम के कारण हमने अपने विरोधियों का दिल भी जीत लिया है।

शेख़ फ़ैयाज आलम गोवंडी न्यू संगम वेलफेयर सोसाइटी के प्रमुख हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें भलस्वा लैंडफिल में ई-कचरे से किसे फायदा होता है।

अधिक करें: लेखक के काम को जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

दैवीय ताकतों के सहारे खनन माफिया से निपटने का अनोखा तरीका

रेगिस्तान में एक खान_अवैध खनन
जमीन का एक बड़ा हिस्सा, जमीन क़ानून का उल्लंघन कर लीज पर लिया गया है। | चित्र साभार: ईश्वर सिंह

राजस्थान के राजसमंद जिले में राजवा गांव, अरावली पहाड़ियों के बीच में है। इन पहाड़ियों पर बसे लोगों के पास खेती और उपज वाली जमीन सीमित होती है। इसके चलते, ज्यादातर लोगों को काम की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ता है या फिर वे पशुपालन के सहारे बसर करते हैं। महिलाएं ज्यादातर मनरेगा योजना के तहत मिलने वाले काम करती हैं।

साल 2014 से, इस गांव में खनन के माफिया सक्रिय हैं। उन्होंने मार्बल पत्थर वाले इलाकों को लीज पर ले रखा है। इनमें कुछ जमीनें निजी तौर पर ख़रीदी गईं है लेकिन एक बड़ा हिस्सा, ज़मीन क़ानून का उल्लंघन कर लीज पर लिया गया है। यह जमीन पहले चारागाह की जमीन थी। लगभग 500 मीटर चौड़े और चार किलोमीटर लंबे, इस इलाके में अब पांच मार्बल खानें चल रही हैं। इलाक़े में खनन माफियाओं का प्रभाव कुछ ऐसा था कि जब लोग अपने जानवरों को लेकर चरागाह की जमीन पर जाते तो उन्हें पुलिस की धमकी दी जाती। वे लोग जिनकी जमीनों पर मार्बल था उन्होंने अपनी आर्थिक जरूरतों और कर्ज़ चुकाने के लिए जमीन बेचना शुरू कर दिया। इसके चलते, गांव के चारागाह की आधे से ज्यादा जमीन पर खनन होने लगा। पशुओं के चरने के लिए, मनरेगा के काम के लिए, लकड़ी लाने की जगहें धीरे-धीरे बड़े और गहरे गड्ढों मे तब्दील होती गईं। इन मुश्किलों के चलते राजवा गांव के एक बाड़िया धोरा के लोगों — जिनकी जमीन पर इलाके की पहली खान शुरू हुई थी — ने इन खानों को बंद करने की पहल की। वे लोग जो अपनी जमीन खनन के लिए बेच चुके थे, उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने बाकी गांव वालों से जमीन वापस लेने के लिए मदद मांगी। लेकिन खनन मालिकों के पास 60 साल की लीज होने के कारण प्रशासन से किसी तरह की मदद नहीं मिल सकी।

जब कोई रास्ता नहीं मिला तो लोगों ने नए उपाय सोचे। खनन की जगह पर उनके लोक देवता का मंदिर था जिसकी वे पूजा करते थे। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि देवता के बहाने वहां की जमीन से हटना नहीं है। गांव वालों ने मिलकर तय किया कि वे बिना तोड़फोड़ और हिंसा के अपना प्रदर्शन करेंगे। इसके लिए वे अपना बोरिया-बिस्तर, भेड़-बकरी, गाय-भैंस वग़ैरह लेकर जाएंगे और दिन भर वही बैठे रहेंगे। लगभग 100-150 आदमी रोज जमीन पर जाकर इसी तरह बैठने लगे ताकि खनन के काम पर रोक लगी रहे।

महिलाओं ने एक कदम आगे बढ़कर, अंधविश्वास कहे जा सकने वाले एक तरीक़े से पर्यावरण को बचाने का फैसला किया। यह अनोखा तरीक़ा था ‘भाव’। भाव आना मतलब शरीर में देवता का निवास होना – ऐसे लगता है कि लोगों के अंदर कोई दैवीय शक्ति आने के कारण उनके भावनात्मक और शारीरिक व्यवहार में बदलाव आ रहा है। प्रदर्शन के दौरान, मनरेगा का काम करने वाली 30-40 महिलाएं भाव करने लगीं। वे 10-10 के गुट बनाकर यह करती थीं। इस दौरान पुरुषों ने घर के काम संभाले जो आमतौर पर महिलाएं करती रही हैं।

यह सिलसिला लगातार एक महीने तक चला। जब खान मालिकों को एहसास हुआ कि ये लोग नहीं हटेंगे तो उन्होंने जगह खाली कर दी। बीते दो सालों से उस खान को दोबारा नहीं चलाया गया। लेकिन इलाक़े में अभी भी चार और खाने है जहां रात दिन खुदाई चल रही है।

ईश्वर सिंह एक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो अनौपचारिक श्रमिकों और शिक्षा के मुद्दों पर काम करते हैं।

अधिक करें: लेखक के काम के बारे में अधिक जानने और उसका समर्थन करने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें। 

क्या अंग्रेजी भाषा ही योग्यता और अनुभवों को आंकने का पैमाना है?

मेरा नाम अनिल कुमार है। मैं महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में सक्रिय एक ज़मीनी कार्यकर्ता हूं। बीते 17 सालों से विकास सेक्टर में होने के बावजूद मुझे पिछले दिनों नौकरी ढूंढने में अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसकी एक अहम वजह मेरा सीमित अंग्रेज़ी ज्ञान था क्योंकि अब तक के अपने काम में मुझे सिर्फ़ हिंदी और मराठी की ही ज़रूरत रही थी। नौकरी ढूंढने के दौरान मैंने पाया कि चाहे अपना काम मैं इन भाषाओं में ही करूं, लेकिन नौकरी पाने के लिए मेरा अच्छी अंग्रेज़ी जानना बहुत ज़रूरी है। 

मैंने अलग-अलग राज्यों में विकास सेक्टर के अलग-अलग हिस्सों में लंबे समय तक काम किया है। और, मुझे लगता है कि ज़मीनी कार्यकर्ताओं की नियुक्ति या उनके दैनिक काम, उसी भाषा में होने चाहिए जिसमें वे सहज हों। या फिर, कम से कम अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी या क्षेत्रीय भाषा का भी विकल्प होना चाहिए। अगर नौकरी पाने और करने के दौरान अंग्रेज़ी का दबाव नहीं होगा हो तो हम ज़मीनी कार्यकर्ता बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे।

अधिक जानें: जानें कैसे एक ज़मीनी कार्यकर्ता ने लैंगिक भूमिकाओं पर काम करते हुए समानता के सही मायने समझे।

आदिवासी समुदाय मिलकर अपनी संस्कृति को बचा सकते हैं

यह एक व्यापक सच्चाई है और हम आदिवासियों का भी मानना है कि ज्ञान किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होता है, इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए हजारों वर्षों से विभिन्न आदिवासी समुदायों द्वारा सहेजे गए ज्ञान को संरक्षित करना मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। मेरे पिता, दिवंगत पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा – एक प्रमुख विद्वान, लेखक, अनुवादक, संगीतकार और आदिवासी सांस्कृतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने मुझसे पहले इस संस्कृति को संरक्षित किया और मुझे यकीन है कि उनसे पहले भी तमाम लोग इसे इसी तरह संजोने का काम करते रहे होंगे। किसी संस्कृति को लुप्त होने के लिए केवल एक पीढ़ी की उपेक्षा चाहिए होती है और मैं वह पीढ़ी या उसका हिस्सा नहीं बनना चाहता हूं।

पिछले एक दशक से कई आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा, हो, भूमिज, संथाल वग़ैरह के सदस्य यहां आते हैं। ये सब टाटा स्टील फाउंडेशन के एक आदिवासी सम्मेलन संवाद में शामिल होने के लिए इकट्ठा होते हैं। इसके ज़रिये यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाता है कि हमारी परंपराएं आगे भी ऐसे ही फलती-फूलती रहें। इसके लिए इस वार्षिक आयोजन में हमारे कई वाद्ययंत्रों का प्रदर्शन और उनकी मदद से प्रस्तुतियां भी की जाती हैं। इनमें नगाडा, ढुलकिस, डुमांग और डैंक सहित लगभग 500 विभिन्न वाद्ययंत्र शामिल हैं जो हमारी संस्कृतियों से बहुत गहराई से जुड़े हैं। यह प्रस्तुतियां पूरी तरह से एक सामुदायिक पहल होती हैं। हम ख़ुद संगीत का प्रवाह और धुन तय करते हैं। इसके लिए हमारे पास कोई पेशेवर कोरियोग्राफर नहीं होता जो हमें मार्गदर्शन दे सके।

रिहर्सल के दौरान, जब विभिन्न आदिवासी समुदायों से आने वाले लोग एक साथ इकठ्ठा होते हैं तो हमें एक-दूसरे से बातचीत करने और सीखने का अनोखा अवसर भी मिलता है। आमतौर पर, हमारे पास एक-दूसरे से जुड़ने और अपनी सफलताओं-असफलताओं पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त मौक़े और मंच नहीं होते हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि आदिवासियों के रूप-रंग और पहनावे में अंतर के बावजूद दुनियाभर में उनके संघर्ष एक जैसे ही हैं। तेजी से बदलती दुनिया में, हम में से अनगिनत लोग अपने भूमि अधिकारों, अपनी परंपराओं और अपनी भाषा को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए, इस तरह के नेटवर्क विचारों और ज्ञान के आदान-प्रदान के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

गुंजल इकिर मुंडा एक शिक्षाविद् हैं जो भारत के विश्वविद्यालयों में आदिवासी संस्कृति से संबंधित विषयों को पढ़ा रहे हैं। वह आदिवासी कला, संस्कृति, संगीत और नृत्य के संरक्षण के लिए समर्पित रांची स्थित संगठन रंबुल के सह-संस्थापक भी हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़े

अधिक जाने: जानें कि गुजरात में राठवा समुदाय और अनुसूचित जनजाति के अधिकार क्या हैं?