पढ़ाई के साथ अंधविश्वास से लड़ाई करते माजुली के स्कूली बच्चे 

मैं जनवरी 2021 से असम के माजुली जिले में स्थित हमिंगबर्ड स्कूल में शिक्षक हूं। मैं कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को विज्ञान पढ़ाता हूं। हमारे यहां आसपास के कई गांवों से बच्चे पढ़ने आते हैं। सीखने में उनकी मदद करने के लिए वीडियो और तस्वीरों का उपयोग करने के अलावा हम उनसे कई तरह के व्यावहारिक प्रयोग भी करवाते हैं। इन प्रयोगों का उद्देश्य उन्हें यह दिखाना होता है कि विज्ञान किस तरह से हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है।

अपने स्कूल के छात्रों को खमीर और सूक्ष्मजीवों के काम के बारे में सिखाने के लिए, हम उनसे राइस बियर बनाने के लिए कहते हैं। राइस बियर एक ऐसी चीज़ है जो यहां के स्थानीय लोग घर पर ही बनाते हैं। माजुली में अचार एक लोकप्रिय चीज़ है इसलिए हम छात्रों को नमक वाले और बिना नमक वाले अचार बनाने को भी कहते हैं। इससे उन्हें खाने को लम्बे समय तक संरक्षित रखने में नमक की भूमिका समझने में मदद मिलती है। 

छात्र हर चीज़ पर सवाल करते हैं, यहां तक कि समुदाय की परम्पराओं और आस्थाओं पर भी। उदाहरण के लिए, एक बार हम लोग धारणाओं और उन्हें प्रमाणित और अप्रमाणित करने के विषय पर चर्चा कर रहे थे। छात्रों ने पास के कोलमुआ गांव में भूत होने की अफ़वाह पर हमसे बात की। इस गांव के स्थानीय लोगों ने गांव में नदी से सटे एक इलाक़े को भुतहा घोषित कर उसे प्रतिबंधित कर दिया था। ऐसा कहा जाता है कि इस गांव की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली थी और उसे वहीं दफ़नाया गया था। कई लोगों का दावा था कि उन्होंने उस लड़की को रात में नदी के तट पर घूमते देखा है इसलिए उन्हें वहां जाने से डर लगता है। अब धारणा यह थी कि भूतों का अस्तित्व है, लेकिन हम इसे अप्रमाणित कैसे कर सकते हैं? एक छात्र ने सुझाव दिया कि हमें रात में वहां जाकर देखना चाहिए कि भूत है या नहीं। 

यदि भूत नहीं दिखता है तो वे मान लेंगे कि कहानी ग़लत है। हमने तय किया कि हम वहां जाएंगे और उस स्थान से थोड़ी दूरी पर अपना टेंट लगाएंगे। वहां मुझे मिलाकर तीन शिक्षक और कुल 14 बच्चे थे। कुछ बच्चे बहुत ज़्यादा डरे हुए थे, लेकिन कुछ में उत्साह था। डरने वाले बच्चों से हमने कहा कि वे हम में से एक शिक्षक के साथ टेंट में ही रुकें और बाक़ी के लोग रात के दस बजे टेंट से बाहर निकल गए।

हमने अगले आधे घंटे तक भूत को उसके नाम से पुकारा लेकिन वह हमारे सामने प्रकट नहीं हुआ। इस तरह हमने इस डरावनी कहानी को ग़लत साबित किया और वापस लौट आए। छात्र तो इतने गर्व के साथ उछल रहे थे, मानो वे युद्ध में जीत हासिल कर लौटने वाले योद्धा हों। 

दीपक राजपूत असम के माजुली में हमिंग बर्ड स्कूल में विज्ञान के शिक्षक हैं।

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माजुली नदी द्वीप क्षरण के कुछ अनसोचे नतीजे

ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित द्वीप, माजुली 1950 के दशक में 1250 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ था लेकिन अब यह सिकुड़ कर 483 वर्ग किलोमीटर रह गया है। कभी यह क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप के नाम से प्रसिद्ध था। लेकिन अब इस क्षेत्र की मिट्टी नदी में आने वाली बाढ़ के कारण नष्ट हो रही है। इसका गम्भीर प्रभाव यहां के निवासियों के भरण-पोषण पर पड़ रहा है। माजुली में काम कर रहे SeSTA के इग्ज़ीक्यूटिव कीशम बलदेव सिंह का कहना है कि “मैंने एक साल के भीतर ही [लगभग] 500 मीटर का कटाव देखा है। पिछले साल हमने श्री लुहित पंचायत के पास पिकनिक का आयोजन किया था। इस साल वह जगह गायब हो चुकी है।”

सरकार ने मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए नदी के तट पर जियोबैग और कंक्रीट के तिकोने ढांचों का निर्माण करवाया है जिसे पर्क्यूपाईन या साही कहा जाता है। लेकिन इन समाधानों का प्रभाव सीमित है। कटाव के कारण कई गांव ढह गए हैं और वहां के निवासियों को विस्थापित होना पड़ा है। क्षेत्रफल में आई कमी के कारण जानवर अब गांवों का रुख़ करने लगे हैं। इसके चलते उनके और स्थानीय किसानों के बीच टकराव के मामले भी सामने आए हैं।

बाढ़ के कारण क्षेत्र में उपजाऊ जमीन की उपलब्धता और वन्यजीव के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए, माजुली में पहले बंदर दिखाई नहीं पड़ते थे लेकिन पिछले कुछ सालों में वे गांवों की तरफ़ आ गए हैं और किसानों की फसल को नुक़सान पहुंचाने लगे हैं। माजुली के आसपास फलों का कोई बगीचा या घने जंगल वाला इलाक़ा नहीं है जहां ये बंदर रह सकें और अपना पेट भर सकें। इसलिए वे किसानों की फसल खा जाते हैं और कभी-कभी न खाने लायक़ फसलों को जड़ से उखाड़कर बर्बाद कर देते हैं। अपनी आजीविका को बचाने के लिए किसानों के पास उन बंदरों को मार कर भगाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता है।

फसल के लिए उपलब्ध सीमित भूमि ने इलाक़े के अनगिनत किसानों को पशुपालन अपनाने की तरफ भेज दिया है। बेलोगुरी गांव में मुर्गीपालन करने वाली सपना घोष बताती हैं कि मवेशियों को पालने की अपनी चुनौतियां हैं। गांव के भीतर घुस चुकी जंगली बिल्लियों के लगातार हमलों के कारण उसके मुर्गीपालन व्यापार का आकार बहुत छोटा हो गया है। इसलिए उन्होंने अपनी मुर्गियों के लिए एक आश्रय बनवाया है और अपनी मेहनत पर पानी फेरने वाले उन शिकारी बिल्लियों को पकड़ने के लिए पिंजरे भी लगवाए हैं। सपना कहती हैं कि “मैं क्या कर सकती हूं? मैंने पिंजरा बनवाया और तीन जंगली बिल्लियों को पकड़ा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से एक भी बिल्ली पकड़ में नहीं आई है। अब वे पिंजरे में नहीं घुसती हैं।”

इंसानों और जानवरों के बीच इस विवाद का मुख्य कारण भूमि पर किया जाने वाला क़ब्ज़ा है। द्वीप का तेज़ी से हो रहा क्षरण इसके निवासियों के बीच स्वामित्व और अस्तित्व के प्रश्न को उठा रहा है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

कीशम बलदेव सिंह असम के माजुली में SeSTA के इग्ज़ेक्युटिव हैं। सपना घोष असम के माजुली में मुर्गीपालन का काम करती हैं।

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राजस्थान के एक गांव तक साड़ियों का नया फैशन पहुंचाती दुकानदार 

हमारा परिवार राजस्थान के अलवर जिले के चोरोटी पहाड़ गांव में रहता है। यहां हमारे पास 0.75 बीघा (0.47 एकड़) जमीन है। तीन साल पहले तक हम खेती, दूध के व्यापार और मेरे पति की मज़दूरी के सहारे अपना गुज़ारा करते थे। लेकिन मेरे पति की नौकरी छूटती रहती थी और केवल खेती से होने वाली कमाई हमारे लिए पर्याप्त नहीं थी। हमें हमारे बेटे की पढ़ाई-लिखाई का खर्च भी उठाना था।

मैं एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हूं जिसे अलवर स्थित एक समाजसेवी संगठन इब्तदा ने बनाया है। 2020 में मैंने इस समूह से 10,000 रुपये का ऋण लेकर अपनी ख़ुद की एक दुकान शुरू की थी। आसपास की महिलाओं ने मुझसे कहा कि मुझे दुकान में महिलाओं के कपड़े जैसे साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोट वगैरह रखना चाहिए ताकि वे अलवर जाकर साड़ी लेने की बजाय मुझसे ही खरीद सकें।

आमतौर पर महिलाओं के लिए बाहर सफर करना मुश्किल होता है। यहां तक ​​कि अगर उनके पति के पास मोटरसाइकिल होती भी थी तो भी उन्हें अपने पति पर निर्भर रहना पड़ता था कि वे काम से छुट्टी लें और उन्हें लेकर जाएं। सार्वजनिक परिवहन सीमित और महंगा है। मेरी दुकान से खरीदारी करने से उनके 50 से 100 रुपये तक बच जाते हैं जो उन्हें अलवर आने-जाने पर खर्च करने पड़ते।

मैंने केवल एक दर्जन साड़ियों के साथ शुरुआत की थी। जब मैंने इनकी मांग बढ़ते देखी तो मैंने इसे 20 तक बढ़ा दिया। मैं अपने बेटे के साथ खरीदारी करने के लिए अलवर जाने से पहले, महिलाओं से पूछती हूं कि उन्हें क्या चाहिए। शुरू में वे 250 से 300 रुपये की कीमत वाली साड़ियां ही मंगवातीं थीं, अब वे मेरी दुकान से फैंसी साड़ियां खरीदती हैं। जब मुझे किसी ग्राहक की कोई खास मांग समझ में नहीं आती है तो मैं उनसे मेरे लिए एक नोट लिखने को कहती हूं, जिसे मैं अलवर के दुकानदार को दिखा सकूं।

मैंने खिलौने रखना भी शुरू कर दिया है क्योंकि महिलाएं अक्सर अपने बच्चों के साथ आती हैं जो इनकी मांग करते हैं। आगे चलकर हम बच्चों के लिए स्नैक्स और सॉफ्ट ड्रिंक्स भी रखना शुरू कर देंगे। इसके अलावा, मेरा बेटा कहता रहता है कि दिल्ली में साड़ियां सस्ती हैं और हमें वहां जाना चाहिए। हम यह योजना बना रहे हैं कि जब हमारे पास पर्याप्त पैसा होगा तो हम दिल्ली से साड़ियां मंगवाया करेंगे।

मुनिया देवी राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव में रहने वाली एक किसान और साड़ी विक्रेता हैं। 

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बच्चों की देखभाल पिता की भी जिम्मेदारी है!

एक पिता अपने दो नवजात शिशुओं को हाथों में लिए हुए है-पिता
स्थानीय अस्पतालों में काम करने वाले लोगों का अक्सर ऐसा मानना होता है कि नवजात बच्चों की देखभाल में पुरुषों के करने लायक कोई काम नहीं होता है। | चित्र साभार: ताहा इब्राहिम सिद्दीक़ी

उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक अस्पतालों के प्रसूति (मैटरनिटी) या बाल चिकित्सा वार्ड के बाहर “पुरुषों का प्रवेश निषेध है” का बोर्ड टंगा हुआ दिखाई पड़ना एक आम बात है। इस बोर्ड के पीछे नवजात शिशुओं की देखभाल और पालन-पोषण में पुरुषों की भूमिका से जुड़ी मान्यताएं हैं। स्थानीय अस्पताल के प्रशासक आमतौर यह मानते हैं कि इन कामों में पुरुषों के करने लायक़ कुछ नहीं होता है और इसलिए वार्ड में उनकी उपस्थिति से भीड़ बढ़ेगी और/या महिलाओं को असुरक्षित भी महसूस होगा।

2022 में अगस्त की एक भीषण गर्मी वाले दिन निज़ाम को यह ख़बर मिली कि उनकी पत्नी मीना को समय से पहले ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई है और उसे एक बड़े सार्वजनिक अस्पताल में सीज़ेरियन सेक्शन का ऑपरेशन करवाना होगा। निज़ाम दिल्ली में एक प्रवासी श्रमिक के रूप में काम करते हैं। यह खबर मिलते ही वे जल्दी से अपने घर पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए निकल गए। रास्ते में ही उन्हें पता चला कि मीना ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है। दोनों ही बच्चों का वजन 1.6 किलोग्राम था। एक सामान्य नवजात शिशु का वजन 2.5 किलोग्राम होता है। यानी, निज़ाम के बच्चों का वजन औसत से बहुत कम था।

अक्सर समय से पहले और कम वजन के साथ पैदा होने वाले बच्चों को, अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उनमें दूध पीने की क्षमता का विकास भी पूरी तरह नहीं हो पाता है। इसलिए निज़ाम और मीना के जुड़वा बच्चों को अस्पताल के स्तनपान और नवजात शिशु देखभाल कार्यक्रम के अंतर्गत नामांकित कर लिया गया था। परिवारों, विशेषकर पिताओं की भागीदारी को ध्यान में रखकर निकाले गए सरकारी दिशा-निर्देशों के बावजूद, अस्पताल ने अन्य लोगों की तरह पिताओं को भी नवजात शिशु की देखभाल वाले आईसीयू में बच्चे और उसकी मां के साथ रहने की अनुमति नहीं दी थी। हालांकि निज़ाम का मामला एक अपवाद बना और जुड़वा बच्चों की देखभाल से जुड़े तर्क के कारण अस्पताल को उसे विशेष अनुमति देनी पड़ी थी।

इस अनुमति के कारण निज़ाम को अपने बच्चों के साथ तब तक रहने का अवसर मिला जब तक कि वे अस्पताल से घर नहीं आ गए। इससे पहले वे अपनी पत्नी को, बच्चे के जन्म के एक माह के भीतर ही छोड़कर चले जाते थे। लेकिन इस बार वे पूरे तीन महीनों तक घर पर ही रहे और तब तक रहने की योजना बनाई जब तक कि उनके जुड़वा बच्चे पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएं। उनका कहना है कि “मेरे बड़े बच्चों की तुलना में मुझे अपने इन दोनों बच्चों से अधिक लगाव महसूस होता है क्योंकि मैंने इनके साथ ज़्यादा समय बिताया है। वे भी मुझसे अधिक जुड़े हुए हैं। मैं जैसे ही काम से घर लौटता हूं वे दोनों मेरे लिए रोना शुरू कर देते हैं और मुझसे बंदर की तरह चिपक जाते हैं।”

मीना को भी ऐसा लगता है कि निज़ाम की मदद से उसे फायदा हुआ है। ऑपरेशन के बाद होने वाले दर्द से खाना खाने और दवा लेने जैसे साधारण कामों में भी मुश्किल होती है। ऐसे में मदद के बिना बच्चों की देखभाल करना संभव नहीं हो पाता। मीना कहती हैं कि “यदि निज़ाम नहीं होते तो मुझे अस्पताल से जल्दी निकलना पड़ता।”

इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त चिकित्सीय साक्ष्य हैं जो यह बताते हैं कि बच्चों के पिता भी कुशलतापूर्वक देखभाल कर सकते हैं। हालांकि इससे पिताओं पर पड़ने वाला वह सामाजिक दबाव ख़त्म नहीं हो जाता है जिसका सामना उन्हें पितृसत्तात्मक लैंगिक मानदंडों का पालन करने के लिए करना पड़ता है। बच्चों की देखभाल को केवल महिलाओं के ज़िम्मे आने वाले काम के रूप में देखा जाता है और इस काम में मदद की इच्छा रखने वाले पिताओं को अक्सर ही हतोत्साहित किया जाता है। अपने नवजात शिशुओं की गम्भीरता से देखभाल करने वाले एक और पिता पुत्तन का कहना है कि “हमारे आसपास कुछ लोग ऐसे थे जिनका कहना था कि यह आदमियों का काम नहीं है और मुझे इस प्रकार अपने बच्चों की देखभाल नहीं करनी चाहिए।” लेकिन उन्होंने इन बातों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। “आजकल, महिलाएं सब कुछ कर रही हैं। वे अफ़सर, डॉक्टर बन रही हैं तो हम पुरुष भी सारे काम क्यों नहीं कर सकते हैं? यदि पति-पत्नी एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो काम कैसे चलेगा?”

ताहा इब्राहिम सिद्दिक़ी रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्पैशनट एकनॉमिक्स (आरआईसीई) में एक शोधकर्ता और डेटा विश्लेषक हैं। इन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया से अर्थशास्त्र में बीए किया है।

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गांव वाले पशु सखियों को भुगतान क्यों नहीं करते?

एक बकरी को टीका लगाती दो महिला पैरावेटरनरी कर्मी-पशु सखी
पशु सखी मॉडल के आने से पहले पशु चिकित्सा एवं पशु प्रजनन से जुड़ी सभी सेवाएं पुरुषों की जिम्मेदारी थी | चित्र साभार: रोहिन मैनुएल अनिल

ग्रामीण क्षेत्रों में उन महिलाओं को ‘पशु सखी’ कहा जाता है जिन्हें अपने समुदाय में पशु चिकित्सा सेवाएं, प्रजनन सेवाएं और पशुओं को दवाइयां प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इनका चयन इनकी साक्षरता और संचार कौशल के आधार पर किया जाता है। अपनी इन सेवाओं के बदले पशु सखियां पशुपालकों से मामूली शुल्क लेती हैं।

लेकिन, यह शुल्क हासिल करना इनके लिए एक बड़ी चुनौती है। कटरिया गांव की पशु सखी भारती देवी ने बताया कि “लोग हमसे पूछते हैं कि हम शुल्क क्यों लेते हैं। उन्हें ये सेवाएं और दवाइयां मुफ़्त में चाहिए होती हैं या फिर वे नहीं लेना चाहते हैं।” उत्तर भारत में ज़्यादातर घरों में आय के अतिरिक्त स्त्रोत के लिए पशुपालन किया जाता है। इसलिए पशुओं के लिए किसी भी प्रकार के खर्च को अक्सर ये लोग अतिरिक्त या अवांछित खर्च मानते हैं। ऐसी भी कई सखियां हैं जिन्हें अपना शुल्क मांगने में झिझक होती है। आमतौर पर समुदाय और पशु सखियों के बीच पहले से ही सौहार्दपूर्ण संबंध होते हैं। इन संबंधों के कारण भी सखियां अपने काम के बदले भुगतान नहीं मांग पाती हैं। भारती आगे कहती हैं कि “यदि इलाज के दौरान पशु की मृत्यु हो जाती है तब तो पैसे न मिलना पक्का हो जाता है।”

पशु सखी मॉडल के आने से पहले पशु चिकित्सा और पशु प्रजनन से जुड़ी सभी सेवाएं पुरुषों की जिम्मेदारी थीं। जहां एक ओर इन सखियों द्वारा पशु चिकित्सा की सेवा का स्वागत हुआ, वहीं प्रजनन सेवाओं में इनकी भागीदारी को समुदाय के विरोध का सामना करना पड़ता है। गांव में लोग मानते हैं कि पशुओं के प्रजनन में महिलाओं की भागीदारी अनुचित है। परिवार और गांव के बड़े-बुजुर्ग इस काम के लिए महिलाओं को यह कहकर हतोत्साहित करते हैं कि पशु प्रजनन एक गंदा काम है और इसे पुरुषों को ही करना चाहिए।

पशु सखियां इन मुद्दों पर बात करने के लिए, उन समाजसेवी संस्थाओं के साथ चर्चा करती हैं जिन्होंने इन्हें इस काम का प्रशिक्षण दिया है। कइयों ने मुफ़्त सेवा प्रदाता होने तक सीमित हो जाने की चिंता जताई है। कटरिया की ही एक अन्य पशु सखी सज़दा बेगम का कहना है कि “शुल्क का भुगतान पूरी तरह से ग्राहक के विवेक पर निर्भर होता है और वे इसे आमतौर पर परोपकार से जुड़ा काम मानते हैं।”

हालांकि, भुगतान की कमी पशु सखियों के मार्ग की एक बड़ी बाधा है लेकिन उन्हें इस काम से लाभ भी मिलता है। पशु सखी होने के कारण समुदाय में उनकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। कुछ पशु सखियों ने तो पंचायत चुनाव लड़कर उसमें शानदार जीत भी हासिल की है। 

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रोहिन मैनुएल अनिल एसबीआई यूथ फ़ॉर इंडिया फ़ेलोशिप में एक फेलो हैं और आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के कॉन्टेंट पार्टनर हैं।

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सरहद के आर-पार, जड़ी-बूटियों का कारोबार

पारम्परिक चिकित्सा केंद्र-जड़ी बूटी
मैं गरीब लोगों से कोई तय शुल्क नहीं लेता हूं, यदि वे कुछ देना चाहते हैं तो बीमारी ठीक होने के बाद दे सकते हैं।

मैं पिछले 30 साल से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में आने वाले तेगनवाड़ा गांव में वैद्य (पारंपरिक चिकित्सक) के रुप में काम कर रहा हूं। मैंने अपने पिता और दादा से पारंपरिक चिकित्सा की शिक्षा ली है। वे दोनों भी वैद्य थे। वे अपने मरीज़ों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लेते थे। तमाम तरह की बीमारियों से पीड़ित लोग इलाज के लिए उनके पास आया करते। वे रोगी की जांच करते और उस आधार पर जंगलों से चुनकर लाई गई जड़ी-बूटियों से बनी दवा उन्हें देते थे। इसके बदले में वे मरीज़ों से नारियल और अगरबत्ती लेते थे।

अब समय बदल चुका है। मुझे अपने परिवार के खाने-पीने और बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम भी करना पड़ता है। मैं गरीब लोगों से कोई तय शुल्क नहीं लेता हूं। हां, यदि वे मुझे कोई छोटी-मोटी राशि देना चाहते हैं तो बीमारी ठीक होने के बाद दे सकते हैं। लेकिन दूसरों से मैं उनकी बीमारी की गंभीरता के आधार पर पैसे लेता हूं। अब जड़ी-बूटियां ख़रीदना भी मुश्किल हो गया है। एक समय था जब हमारे गांवों में ये प्रचुरता से उपलब्ध थीं। जल्दी पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले गांव के कुछ लोगों ने इन जड़ी-बूटियों को बाज़ार के विक्रेताओं को बेचना शुरू कर दिया है। बाजार के विक्रेता हमारी इन जड़ी-बूटियों को शहर ले जाते हैं और फिर वहां से हमें ही उंची क़ीमतों पर बेचते हैं।

मुझ जैसों वैद्यों के लिए यह ख़तरा बनता जा रहा था। इसलिए हमने अपने घर के पीछे की ज़मीनों में जड़ी-बूटी उगाने का फ़ैसला किया। इस तरह इन्हें उगाना और देखभाल करना आसान है। हम इनकी पत्तियों को अपने मवेशियों को खिला देते हैं और इसमें किसी प्रकार का नुक़सान नहीं होता है क्योंकि दवा बनाने में इस्तेमाल होने वाली जड़ें आमतौर पर सुरक्षित होती हैं।

हम भी जड़ी-बूटियां बेचते हैं लेकिन हमारे ग्राहक केवल दूसरे वैद्य ही होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि मैं बेल उगाता हूं तो एक दूसरा बेल नहीं उगाने वाला वैद्य, अपनी ऐसी किसी जड़ी-बूटी के बदले मुझसे बेल ले सकता है जो मेरे पास उपलब्ध नहीं है। या फिर, वह मुझसे सीधे ख़रीद भी सकता है। कूरियर सेवा से जड़ी-बूटी की यह अदला-बदली देश के विभिन्न हिस्सों में होती है। मैंने हाल ही में कुछ जड़ी-बूटियों का एक पैकेट श्रीलंका भी भेजा है। अदला-बदली की यह व्यवस्था हमारे लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसी कई जड़ी-बूटियां हैं जो विशेष वातावरण में ही उगाई जा सकती हैं। आंखों से जुड़ी एक बीमारी के इलाज में एक विशेष प्रकार की जड़ी-बूटी इस्तेमाल होती है और यह केवल महानदी नदी के उद्गम स्थल सिवान पहाड़ के आसपास की मिट्टी में ही पैदा होती है। मैंने इसे अपने गांव के वातावरण में उपजाने की कोशिश की थी लेकिन असफलता ही हाथ लगी।

पारम्परिक चिकित्सा का अभ्यास एवं जड़ी-बूटी की ख़रीद-बिक्री के अलावा मैं कपड़ों की सिलाई का काम भी करता हूं। जब मैं 8वीं कक्षा में था तभी मैंने अपने गांव के दर्ज़ियों से टेलरिंग का काम सीखा था। पैसों की कमी के कारण मैं 10वीं के आगे नहीं पढ़ सका लेकिन मैंने वनस्पति विज्ञान में डिप्लोमा किया है। वनस्पति विज्ञान की परीक्षा में मैंने टॉप किया था और इसके बाद जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल, उनके रोपण और खेती से जुड़ा प्रशिक्षण पूरा किया। जब मैं अपने तीन बेटों को सिखाता हूं तब मैं उन्हें प्रत्येक पौधे का वैज्ञानिक नाम और उनके इस्तेमाल के बारे में भी विस्तार से बताता हूं। मेरे बेटे मुझसे पारम्परिक चिकित्सा से जुड़ा ज्ञान भी ले रहे हैं और साथ ही अपनी औपचारिक शिक्षा भी पूरी कर रहे हैं।

सम्मेलाल यादव छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले में रहने वाले वैद्य हैं।

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आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं पर पोषण की एक और जिम्मेदारी

मैं 2011 से उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ज़िले में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हूं। मेरे कंधों पर बच्चों को पढ़ाने, राशन वितरण करने, चुनाव की ड्यूटी करने, टीकाकरण अभियान चलाने, गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य एवं पौष्टिक आहार का ध्यान रखने और नवजात शिशुओं की देखभाल जैसे अनगिनत कामों की जिम्मेदारी है।

आमतौर पर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को एक सहायक दिया जाता है जो बच्चों को आंगनबाड़ी केंद्रों पर लाने और घर पहुंचाने में, कार्यकर्ता की अनुपस्थिति में केंद्र को संभालने जैसे तमाम कामों में उनकी मदद करता है। मेरे केंद्र पर काम करने वाली सहायक तीन साल पहले ही सेवानिवृत हो चुकी है और सरकार ने अब तक उसकी जगह पर किसी को नहीं भेजा है। इस कारण मुझे अकेले ही सारे काम सम्भालने में कठिनाई हो रही है। अगर मुझे किसी मीटिंग में जाना होता है तब बच्चों के साथ रुकने वाला कोई नहीं होता।

2021 से हमारे कंधों पर एक और जिम्मेदारी आ गई है। अब हमें छह साल तक के बच्चों का वजन और उनकी लम्बाई भी मापनी पड़ती है। उनके वजन और लम्बाई के इस आंकड़े को पोषण ट्रैकर ऐप पर दर्ज करना पड़ता है। यह ऐप छोटे बच्चों के पोषण की स्थिति पर नज़र रखता है और इससे कुपोषण से लड़ने में मदद मिलती है। हमें बताया गया था कि इस अतिरिक्त जिम्मेदारी के लिए हमें हर महीने अलग से कुछ पैसे दिए जाएंगे, लेकिन यह भुगतान नियमित नहीं है।

मेरी तनख़्वाह 5,500 रुपए है जो अपने आप में घर चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है। जब से पोषण ट्रैकर ऐप शुरू हुआ तब से किसी-किसी महीने मुझे 7,000 तो किसी महीने 8,000 रुपए मिलते हैं। हमें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि यह सिस्टम कैसे काम करता है और ना ही कोई इस बारे में बताने वाला है। बिना निश्चित राशि के मुझे अपने मासिक खर्च की योजना बनाने में दिक्कत आती है। 

मैं ना तो वास्तविक रूप से एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता और ना ही एक शिक्षक का काम कर रही हूं। मैं चाहती हूं कि सरकार मुझे एक शिक्षक बना दे क्योंकि पढ़ाना मुझे पसंद है। मुझे लगता है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को अपने काम के लिए कम से कम 15-20,000 रुपए की तनख़्वाह और रिटायरमेंट पर कुछ धनराशि तो मिलनी ही चाहिए। 

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अनीता रानी उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ज़िले में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं।

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असम में नुक्कड़ नाटकों से महिलाओं के भूमि अधिकारों की मांग

असम के माजुली जिले में नुक्कड़ नाटक होते दिखाई देना एक आम बात है। यहां की संस्कृति बहुत ही समृद्ध है। ऐतिहासिक रूप से यह प्रदर्शन और कला का वह इलाका है जहां नव-वैष्णव पुनर्जागरण हुआ था। पहले ये नाटक धार्मिक विषयों पर आधारित होते थे। लेकिन इसके एक हालिया संस्करण में महिलाओं के भूमि अधिकार जैसे मुद्दे पर बात होते देखी गई।

महिलाओं द्वारा उनके भूमि अधिकारों का उपयोग न कर पाना माजुली की एक जटिल समस्या है। यहां के अधिकांश खेतिहर परिवारों के पास उस भूमि का मालिकाना हक़ नहीं है जिस पर वे खेती करते हैं। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे के कारण महिलाओं के पास पहले से ही ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है। नतीजतन, ऐसे इलाक़ों में स्थिति और भी खराब हो जाती है जहां भूमि का स्वामित्व आमतौर पर सामान्य से अलग होता है।

माजुली ज़िले में काम कर रही एक समाजसेवी संस्था अयांग ट्रस्ट के फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर प्रोनब डोले का कहना है कि “हालांकि खेतों में महिलाएं ही सबसे अधिक काम करती हैं लेकिन फिर भी ज़मीन उनके नाम पर नहीं होती है।” प्रोनब ने ऊपर ज़िक्र किए गए इस नाटक का डिज़ाइन तैयार करने में मदद की थी। माटी और महिला नाम से तैयार किया गया यह नाटक ज़मीन पर महिलाओं को मालिकाना हक़ मिलने की जरूरत पर बात करता है। थिएटर कलाकार, आदिथ ने समुदाय की भूमिहीन महिलाओं के अनुभवों को चित्रित करके और नाटक की अवधारणा बनाने में समुदाय के सदस्यों की मदद की है।

स्थानीय महिलाओं के अनुभवों को दिखाते हुए यह नाटक भूमि अधिकारों के महत्व को दर्शाता है। साथ ही, ज़मीन पर अपने कानूनी अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास करते समय महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर भी बात करता है। नाटक में भाग लेने वाले लोगों का मानना है कि इसने उन्हें ऐसे दर्शकों तक भी पहुंचाया है जो पर्चे या प्रजेंटेशन के माध्यम से इस विषय की महत्ता को समझने में असमर्थ थे।

नाटक पर काम करने वाली इसी समुदाय की एक अन्य सदस्य प्रोनामिका डोले कहती हैं कि “लोगों को नाटक समझने में आसानी हुई। दर्शकों ने हमें बताया कि इससे पहले उन्होंने भूमि अधिकारों के महत्व को लेकर कभी नहीं सोचा था। विशेष रूप से, विधवाओं और परित्यक्त महिलाओं के लिए जिनके पास अपनी आजीविका सुरक्षित करने का कोई साधन नहीं बचता है।” समुदाय की सकारात्मक प्रतिक्रिया से उत्साहित, नाटक के निर्माण में शामिल स्थानीय लोग भी अब इस क्षेत्र में महिलाओं के लिए भूमि अधिकारों को सुरक्षित करने में मदद कर रहे हैं। प्रोनामिका सरीखे समुदाय के सदस्यों ने भूमि अधिकार प्राप्त करने की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने के लिए स्थानीय सर्कल कार्यालय और जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण के तहत प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रोनामिका अब इन मामलों में मदद के लिए उनसे संपर्क करने वाले समुदाय के लोगों का मार्गदर्शन करती हैं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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प्रोनामिका पेगू डोले लेकोप माजुली महिला किसान निर्माता कंपनी के निदेशकों में से एक हैं। प्रोनब डोले अयांग ट्रस्ट के फील्ड कोऑर्डिनेटर हैं।

नाटक माटी और महिला देखने के लिए इस लिंक पर जाएं।

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राजस्थान में पानी पर चल रही छोटी सी अर्थव्यवस्था

अलवर, राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव की रहने वाली दया देवी एक किसान हैं। अपने गांव के कुछ अन्य जमींदार किसानों की तरह उन्होंने अपनी जमीन पर एक बोरवेल लगवाया है। बोरवेल उनके खेतों की सिंचाई करता है और उनके परिवार को पानी उपलब्ध करवाता है। इसके साथ ही, यह उनके लिए आय का एक स्रोत भी है। इससे वे अपने इलाके के छोटे किसानों को, जिनके पास खुद का बोरवेल नहीं है, किराए पर पानी देती हैं। इसके लिए वे 150 रुपये प्रति घंटे की दर पर भुगतान हासिल करती हैं।

दया देवी का मानना है कि ऐसा करने में सबका फायदा है। वे आगे जोड़ती हैं कि “बोरवेल चलाने वाले मालिक बिजली का बिल भी भरते हैं और उसके रखरखाव का खर्च भी उठाते हैं। पानी खरीदने वालों को [बिना किसी झंझट के] अपने खेतों की सिंचाई करने की सुविधा मिलती है।”

दया के परिवार के पास दो दशकों से अधिक समय से बोरवेल है। उन्होंने इस दौरान लगातार भूजल के स्तर को कम होते देखा है। वे कहती हैं, ”हर साल बारिश कम हो रही है। पहले हमें 200 फीट ज़मीन खोदने पर पानी मिलता था, अब पानी के लिए हमें 500 फीट तक खुदाई करनी पड़ती है।”

सिंचाई के लिए बोरवेल के अलावा कुछ अन्य विकल्प भी हो सकते हैं, जैसे ड्रिप सिंचाई। इसके लिए पानी की टंकी की आवश्यकता होती है। दया को इन तरीक़ों की जानकारी भी है, वे कहती हैं कि “ड्रिप इरिगेशन भविष्य है। यदि आप अपने खेत पर 1,000 लीटर का टैंक रखते हैं और इसका उपयोग सिंचाई के लिए करते हैं तो यह बोरवेल से जुड़े पाइप का उपयोग करने की तुलना में सस्ता है, जिसमें एक बीघे की सिंचाई करने में लगभग 12 घंटे लगते हैं।”

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दया देवी एक किसान हैं और अलवर स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था इब्तदा द्वारा सहयोग प्राप्त एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं।

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अहमदाबाद के कपड़ा कारीगरों पर जलवायु परिवर्तन का असर

शीलाबेन अहमदाबाद के पटड़ नगर की रहने वाली हैं। वे दो कमरों के घर में रहती हैं जिनमें से एक कमरे का उपयोग वे ब्लाउज और स्कर्ट पर पत्थर चिपकाने का काम करने के लिए करती है। एक ब्लाउज का काम पूरा करने में उन्हें दो से तीन घंटे का समय लगता है। एक कपड़े पर उन्हें लगभग 15 से 25 रुपए तक मिल जाते हैं। यह काम उन्हें ठेकेदार से मिलता है और यह नियमित नहीं है।

त्योहारों विशेष रूप से नवरात्रि का समय यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि उन्हें कितना काम मिलने वाला है। शीलाबेन बताती हैं कि “त्योहारों के मौसम आने से पहले मैं रात के 12 बजे तक काम करती हूं। हमारे पास अतिरिक्त काम होता है और यही समय होता है जब हम थोड़े ज़्यादा पैसे कमा कर अपने लिए कुछ बचा सकते हैं।”

शीलाबेन के लिए, अपने इस छोटे से घर में काम करना आसान नहीं है। उनके जैसे अनगिनत कारीगर यहां ऐसे घरों में रहते हैं जहां आमतौर पर छतें और दीवारें स्थायी नहीं होती हैं। इन घरों में मौलिक सुविधाएं भी नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए, जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण मानसून के दिनों में इन घरों में पानी भर जाता है। इसके चलते, कच्चे माल को नुक़सान पहुंचता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौसम में आए चरम बदलाव सीधे इनके घरों को प्रभावित करते हैं। इसका असर इनके काम पर भी होता है। शीलाबेन ने बताया कि “हमारी छतें एस्बेस्टस की बनी होती हैं, इसलिए यह बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती हैं। इसके नीचे बैठना मुश्किल हो जाता है लेकिन हमें फिर भी काम करना पड़ता है। मैं अपने काम से होने वाली आमदनी पर कोई समझौता नहीं कर सकती हूं।” घर के अंदर प्रचंड गर्मी के कारण उनके काम करने की क्षमता पर असर पड़ता है। ऐसे में उन्हें इधर-उधर जाकर काम करना और रात में मौसम ठंडा होने पर काम करना पड़ता है।

मानसून में काम करने की अपनी अलग चुनौतियां हैं। बारिश के मौसम में गोंद को सूखने में अधिक समय लगता है और घर की सीलन कपड़ों को नुक़सान पहुंचाती है। इलाक़े में सीवर पाइप न होने के कारण पानी रिसता है जो आख़िर में काम पर असर डालता है। शीलाबेन आगे बताती हैं कि “मैं मानसून में काम नहीं करती हूं क्योंकि उन दिनों में जितना फायदा होता है, उससे ज़्यादा कपड़ों का नुक़सान हो जाता है। इससे मुझ पर ठेकेदार का भरोसा भी कम होता है।” 

यही काम करने वाली पटड़ नगर की एक अन्य कारीगर मालतीबेन कहती हैं कि “दोपहर में, माला (मनके हार) बनाने वाली हमारे आस-पड़ोस की महिलाएं कभी-कभी काम करने के लिए सामुदायिक मंदिर या छायादार सड़कों के नीचे बैठती हैं। लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे लिए टुकड़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना आसान नहीं है। पत्थर चिपकाने के बाद कपड़े को सीधा रखकर सुखाने की ज़रूरत होती है।”

इलाके की दूसरी महिलाएं माला-बनाने, दर्ज़ी का काम करने और चम्मचों की पैकेजिंग जैसे काम करती हैं। पत्थर चिपकाने के काम से कम पैसे मिलने के बावजूद रुक्मिणीबेन माला बनाने का ही काम करती हैं। उनका कहना है कि “पत्थर चिपकाने का काम हर कोई नहीं कर सकता है। मैं कपड़े कहां सूखने के लिए डालूंगी? मेरे घर में बैठने और काम करने की जगह नहीं है।”

अनुज बहल एक अर्बन रिसर्चर और व्यवसायी हैं।

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