यह एक व्यापक सच्चाई है और हम आदिवासियों का भी मानना है कि ज्ञान किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होता है, इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए हजारों वर्षों से विभिन्न आदिवासी समुदायों द्वारा सहेजे गए ज्ञान को संरक्षित करना मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। मेरे पिता, दिवंगत पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा – एक प्रमुख विद्वान, लेखक, अनुवादक, संगीतकार और आदिवासी सांस्कृतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने मुझसे पहले इस संस्कृति को संरक्षित किया और मुझे यकीन है कि उनसे पहले भी तमाम लोग इसे इसी तरह संजोने का काम करते रहे होंगे। किसी संस्कृति को लुप्त होने के लिए केवल एक पीढ़ी की उपेक्षा चाहिए होती है और मैं वह पीढ़ी या उसका हिस्सा नहीं बनना चाहता हूं।
पिछले एक दशक से कई आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा, हो, भूमिज, संथाल वग़ैरह के सदस्य यहां आते हैं। ये सब टाटा स्टील फाउंडेशन के एक आदिवासी सम्मेलन संवाद में शामिल होने के लिए इकट्ठा होते हैं। इसके ज़रिये यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाता है कि हमारी परंपराएं आगे भी ऐसे ही फलती-फूलती रहें। इसके लिए इस वार्षिक आयोजन में हमारे कई वाद्ययंत्रों का प्रदर्शन और उनकी मदद से प्रस्तुतियां भी की जाती हैं। इनमें नगाडा, ढुलकिस, डुमांग और डैंक सहित लगभग 500 विभिन्न वाद्ययंत्र शामिल हैं जो हमारी संस्कृतियों से बहुत गहराई से जुड़े हैं। यह प्रस्तुतियां पूरी तरह से एक सामुदायिक पहल होती हैं। हम ख़ुद संगीत का प्रवाह और धुन तय करते हैं। इसके लिए हमारे पास कोई पेशेवर कोरियोग्राफर नहीं होता जो हमें मार्गदर्शन दे सके।
रिहर्सल के दौरान, जब विभिन्न आदिवासी समुदायों से आने वाले लोग एक साथ इकठ्ठा होते हैं तो हमें एक-दूसरे से बातचीत करने और सीखने का अनोखा अवसर भी मिलता है। आमतौर पर, हमारे पास एक-दूसरे से जुड़ने और अपनी सफलताओं-असफलताओं पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त मौक़े और मंच नहीं होते हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि आदिवासियों के रूप-रंग और पहनावे में अंतर के बावजूद दुनियाभर में उनके संघर्ष एक जैसे ही हैं। तेजी से बदलती दुनिया में, हम में से अनगिनत लोग अपने भूमि अधिकारों, अपनी परंपराओं और अपनी भाषा को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए, इस तरह के नेटवर्क विचारों और ज्ञान के आदान-प्रदान के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
गुंजल इकिर मुंडा एक शिक्षाविद् हैं जो भारत के विश्वविद्यालयों में आदिवासी संस्कृति से संबंधित विषयों को पढ़ा रहे हैं। वह आदिवासी कला, संस्कृति, संगीत और नृत्य के संरक्षण के लिए समर्पित रांची स्थित संगठन रंबुल के सह-संस्थापक भी हैं।
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