ओड़िशा के गांवों में सामुदायिक शिक्षण की अवधारणा बहुत अधिक लोकप्रिय है। इसके तहत अभिभावक अपने बच्चों को अपने ही समुदाय के एक शिक्षक के पास भेजते हैं। बच्चे अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वहां जाकर कुछ नया सीखते हैं। आमतौर पर, एक गांव या समुदाय में एक या उससे अधिक सामुदायिक शिक्षक होते हैं। यह अभिभावकों का अपने समुदाय के लोगों पर गहरे विश्वास का नतीजा है। इसके अलावा यह एक तथ्य भी है कि जब माता-पिता काम पर होते हैं तब किसी ऐसे की ज़रूरत होती है जो उनके छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल करे और उन्हें पढ़ाए।
थिंकज़ोन नाम के एक शैक्षणिक स्वयंसेवी संस्था में अपने काम के रूप में मैंने देखा है कि इन सामुदायिक शिक्षकों में ज़्यादातर महिलाएं हैं। ये गांव के विभिन्न घरों की बेटियां या बहुएं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों का मानना है कि महिलाएं बच्चों के देखभाल के काम में स्वाभाविक रूप से अच्छी होती हैं। यह एक ऐसा काम है जिसे महिलाएं अपनी पढ़ाई या काम से जुड़ी अपनी दिनचर्या को प्रभावित किए बिना ही कर सकती हैं। शिक्षकों से बात करने पर, अविवाहित युवा महिलाओं ने कहा कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सामुदायिक ट्यूशन में हिस्सा लेती हैं। वहीं विवाहित महिलाओं ने बताया कि इससे उनके निजी ख़र्चों के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे आ जाते हैं।
कटक ज़िले में बलिसाही गांव की सौभाग्यलक्ष्मी कहती है कि “पूरा गांव मेरे परिवार की तरह है, और इस गांव का हर परिवार मुझे अपनी बहू की तरह ही सम्मान देता है। इसी भरोसे के कारण माता-पिता अपने बच्चों को मेरे पास भेजते हैं।”
हालांकि समुदाय के बच्चों की देखभाल और उनकी शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की इस महत्वपूर्ण भूमिका की कोई ख़ास क़ीमत नहीं है। सौभाग्यलक्ष्मी की तरह ही अन्य महिलाएं भी अपने समुदाय के बच्चों को बहुत ही कम शुल्क या कभी-कभी बिना किसी शुल्क के पढ़ाती हैं। चूंकि वे समुदाय का हिस्सा होती हैं इसलिए बच्चे किसी न किसी तरह से उनके संबंधी होते हैं। नतीजतन पैसों की बात करना सही नहीं माना जाता है। अभिभावक भी यही मानते हैं कि शिक्षक जो भी कर रहे हैं वह उनका कर्तव्य है, और उन्हें इसके लिए वेतन नहीं लेना चाहिए। बातचीत में एक अभिभावक ने कहा “वह ट्यूशन टीचर नहीं है; वह मेरी बेटी जैसी है जो सिर्फ़ मेरे बच्चे की देखभाल कर रही है।” इससे उन महिलाओं को कठिनाई होती है जिनके लिए शिक्षण का काम आय का एक स्त्रोत होता है। सौभाग्यलक्ष्मी ने आगे बताया, “अभिभावक नियमित रूप से ट्यूशन का शुल्क नहीं देते हैं। वे अपनी सुविधा के अनुसार मुझे पैसे देते हैं। कभी-कभी तो मुझे चार महीने में एक बार पैसा मिलता है। मैं इस गांव की बहू हूं और एक बहू के लिए पैसे की मांग करना अच्छा नहीं माना जाता है। इसके अलावा अपने रिश्तेदार से पैसे मांगना भी स्वीकार्य नहीं होता है।”
इतिश्री बेहेरा अपने राज्य ओड़िशा में थिंकज़ोन नाम के एक शैक्षणिक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम करती हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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