
लद्दाख के चांगथांग पठार में में घुमंतू चरवाहे वसंत ऋतु में अपनी पश्मीना बकरियों के झुंडों के साथ प्रवास करते हैं। लेकिन गर्मियां आते-आते इन परिवारों की कई महिलाओं को जननांग के हिस्से में खुजली, संक्रमण और तेज जलन जैसी परेशानियों की शिकायत के चलते लेह लौटना पड़ता है।
सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी दिंचिन डोलकर अक्सर घुमंतू महिलाओं से जुड़े ऐसे मामले देखती हैं। वह बताती हैं, “कुछ दिन पहले दो महिलाओं को लेह के सोनम नोरबू अस्पताल रेफर किया गया था। वहां भीड़ होने के चलते उन्हें एक प्राइवेट क्लिनिक में भेजा गया। जांच में यीस्ट और यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन (यूटीआई) मिलने पर उन्हें एंटीबायोटिक दवाएं दी गयीं।”
लेकिन इलाज से मिलने वाली राहत अस्थायी होती है। दिंचिन बताती हैं, “ये संक्रमण बार-बार लौट आते हैं। इसका सीधा संबंध प्रवास के दौरान अस्वच्छ परिस्थितियों और साफ पानी की कमी से है।”
लद्दाख की घुमंतू महिलाओं के लिए ये संक्रमण केवल स्वास्थ्य संबंधी मुद्दा नहीं, बल्कि तेजी से शुष्क होते मौसम की चेतावनी भी है। पैंतालीस वर्षीय कुंजेस डोलमा हर सुबह अपनी भेड़ों को चराने के लिए पैदल निकलती हैं। वह इस काम को छोड़ नहीं सकती हैं। उनका कहना है, “दोपहर में इतनी गर्मी होती है कि भेड़ों को बाहर ले जाना मुश्किल हो जाता है। फिर मुझे इतना पसीना निकलता है कि शाम तक सिरदर्द शुरू हो जाता है।”
कुंजेस पानी साथ लेकर चलती हैं जो अक्सर काफी नहीं होता है। वह कहती हैं, “पहले इन रास्तों के दोनों ओर ग्लेशियर दिखते थे और झरने भी खूब बहते थे। अब तो कई जगह एक बूंद पानी तक नहीं मिलता। रूपशू घाटी के कुछ चरागाह रास्तों पर अब भी नदियां बहती हैं, लेकिन ऊपर की तरफ पानी बहुत कम हो गया है।”
पानी की कमी और लगातार पसीने के कारण महिलाओं के लिए साफ-सफाई बरकरार रखना मुश्किल हो जाता है। कुंजेस को हाल ही में एक स्थानीय स्वास्थ्य शिविर में यीस्ट संक्रमण के इलाज से गुजरना पड़ा था। इस दौरान उन्हें पांच दिनों के लिए पेसारी (योनि में लगाने वाली दवा) दी गयी थी।
चांगथांग के घुमंतू बाशिंदे प्रवास के रास्तों पर पानी के अलग-अलग स्रोतों पर निर्भर होते हैं। कुछ जगहों पर सरकार ने बोरवेल और सौर पंप लगाए हैं, लेकिन ज्यादातर लोग अब भी छोटी-छोटी प्राकृतिक धाराओं पर ही भरोसा जताते हैं। कुंजेस कहती हैं, “अगर सोलर पंप चल रहा हो, तो सही रहता है। लेकिन अक्सर नल ही खराब हो जाते हैं और फिर पंप किसी काम के नहीं रहते।”
चाय बेचने वाली स्टैनजिन डोलकर बताती हैं कि पिछले साल त्सो कर झील के पास जल जीवन मिशन के तहत लगाए गए सौर पंप अब बमुश्किल ही काम करते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के अभियंता लुंडुप जम्यांग कहते हैं, “कभी वायरिंग खराब हो जाती है, तो कभी मोटर में कीचड़ अटक जाता है। हर जाड़े के बाद जमने के कारण पाइप फट भी जाते हैं।”
मौसम विज्ञान विभाग के निदेशक सोनम लोटस के अनुसार हिमालय लगातार गर्म हो रहा है। वह बताते हैं, “अब जुलाई और अगस्त में तापमान 34–35 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।” मद्धम हवा और नमी की कमी गर्मी को और तीव्र बना देते हैं और ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ जाती है। वह आगे जोड़ते हैं, “पिघला हुआ पानी तेजी से सिंधु घाटी में बह जाता है और लद्दाख सूखा ही रह जाता है।”
स्वास्थ्य कार्यकर्ता कुंजेस डोलमा के भारी कपड़ों को भी उनकी हालात का जिम्मेदार मानते हैं। वे उनसे कहते हैं कि पहले याक या भेड़ की ऊन से बने कपड़े हवादार होते थे। लेकिन अब प्रचलित सिंथेटिक कपड़ों में हवादार होने की गुंजाइश नहीं होती। कुंजेस कहती हैं, “वे हमारे काम को नहीं समझते। शाम को लौटने तक ठंडी हवाएं तेज हो जाती हैं। इसलिए हमें इन परतों की जरूरत पड़ती है।”
कपड़ों की इन परतों (जिसमें कमीज, स्वेटर, जैकेट और एक से ज्यादा पतलून शामिल होती हैं) में गर्मी के साथ-साथ पसीना भी होता है। प्रवास के सफर के दौरान इन्हें शायद ही कभी धोया जाता है, जिससे फंगल संक्रमण होने की संभावना बढ़ जाती है।
लेह में जन-जागरूकता कार्यक्रम चलाने वाले स्वास्थ्य शिक्षक मोहम्मद भैरक कहते हैं कि स्वच्छता का पानी से सीधा संबंध है। वह बताते हैं, “जब हम घुमंतू महिलाओं से नहाने या मासिक धर्म के दौरान सफाई के बारे में बात करते हैं, तो वे चुप रहती हैं। फिर वे पूछती हैं कि पानी कहां से लायें? ऐसे में कई महिलाएं महीनों तक नहाए बिना रहती हैं।”
आशा कार्यकर्ता सैनिटरी पैड बांटती हैं, लेकिन अधिकतर महिलाएं अब भी कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं। भैरक बताते हैं, “और कभी-कभी वह भी बिना धोए, क्योंकि उनके पास उसे साफ करने और दोबारा इस्तेमाल करने लायक पानी ही नहीं होता।”
लद्दाख के दूरस्थ क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में संक्रमण जांचने के लिए प्रयोगशालाएं नहीं हैं। वे बताते हैं, “हम सिर्फ कुछ साधारण जांचें कर सकते हैं। जैसे हीमोग्लोबिन, पेशाब, ब्लड शुगर और ब्लड प्रेशर वगैरह।”
लेह के सोनम नोरबू अस्पताल की स्त्रीरोग विशेषज्ञ डॉ पद्मा डोलमा पुष्टि करती हैं कि अब अधिक महिलाएं बार-बार होने वाले योनिक या सर्वाइकल संक्रमण की शिकायत लेकर आती हैं। वे बताती हैं, “पहले पानी उपलब्ध था और तापमान भी ठीक होता था। लेकिन अब बढ़ती गर्मी और सूखते स्रोतों के बीच, पूर्वी लद्दाख में लगातार यात्रा में रहने वाली महिलाओं के लिए स्वच्छता बड़ी चुनौती बन गयी है। मैंने दिल्ली में ऐसे जितने मामले देखे थे, उससे अधिक मामले अब लद्दाख में देखती हूं।”
सफीना वानी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेख 101 रिपोर्टर्स पर मूल रूप से प्रकाशित आलेख का संपादित अंश है।
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