वन्यजीव संरक्षण: भेड़ियों को पकड़ने वाले गड्ढों को स्तूपों में बदलना

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लेह के पहाड़ों और नीले आसमान के बीच त्साबा घाटी में निष्प्रभावी शेंगडोंग और स्तूप_रिग्ज़ेन दोरजे-वन्यजीव संरक्षण

लद्दाख का लेह ज़िला मुख्यतः कृषि-पशुपालक समुदायों का इलाक़ा है। इन इलाक़ों में शेंगडोंग (भेड़िया पकड़ने वाले गड्ढे) का दिखना आम बात है। ये इस इलाक़े के पारम्परिक गड्ढे हैं और सुदूर-हिमालय क्षेत्र के लोगों ने अपने मवेशियों को भेड़ियों से बचाने के लिए इन गड्ढों को तैयार किया था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से इनका उपयोग नहीं हुआ है और ये बुरी हालत में हैं। इन गड्ढों की ऐसी स्थिति के पीछे का मुख्य कारण लद्दाख के इंफ़्रास्ट्रक्चर में होने वाला विस्तार और वनजीव संरक्षण उपायों का लागू होना है। 

2017 में एक कंजरवेशनिस्ट समूह के हिस्से के रूप में हम लोगों ने चुशूल के चरवाहों के गाँव के सदस्यों और राजनीतिक प्रतिनिधियों से इस विषय पर चर्चा शुरू की। हम लोगों ने उनसे इस इलाक़े के स्थानीय सांस्कृतिक विरासत शेंगडोंग को संरक्षित रखते हुए उन्हें सम्भावित रूप से निष्क्रिय करने के बारे में कहा।

कई बार की भेंट-मुलाक़ात और बातचीत से समुदाय के लोगों के साथ हमने एक अच्छा और स्थाई संबंध बना लिया है। इससे हमें यह समझने में मदद मिली कि वे लोग अपने मवेशियों की सुरक्षा के लिए भेड़ियों को मारते हैं। इसके अलावा हम उन्हें यह भरोसा भी दिला पाए कि हम उन्हें न तो इस काम के लिए दंडित करना चाहते हैं और न ही शेंगडोंग को ख़त्म ही करना चाहते हैं जो उनकी सांस्कृतिक विरासत का एक प्रमुख हिस्सा है। 

हमने एक प्रभावशाली धार्मिक नेता और विद्वान महामहिम बकुला रंगडोल न्यिमा रिनपोछे से शेंगडोंग साइट पर एक स्तूप बनाने की सलाह के लिए संपर्क किया। हमनें उनसे कहा कि ऐसा करने से न केवल स्थानीय बौद्ध समुदाय के लिए इसका धार्मिक महत्व होगा बल्कि पर्यटकों के आने से अर्थव्यवस्था में भी तेज़ी आएगी।

रिनपोछे के मार्गदर्शन में शेंगडोंगों को निष्क्रिय करने, संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध होने और सामूहिक रूप से एक स्तूप के निर्माण की संभावना को चुशूल समुदाय ने उत्साह के साथ पूरा किया। जून 2018 में इस समुदाय ने अपने इलाक़े के सभी चारों शेंगडोंग को बेअसर कर दिया। इसके लिए उन्होंने इस ढाँचे में से कुछ पत्थरों को हटा कर एक गलियारा जैसा बना दिया। यह गलियारा किसी भी फँसे हुए जानवर के बचने के लिए एक रास्ते का काम करती है। शेंगडोंग में इस तरह के परिवर्तन से उन्हें बेअसर करने के साथ चुशल के लोगों ने अपनी पारम्परिक वास्तुकला संरचना को भी संरक्षित कर लिया।

अतीत में उपयोग में आने वाले इन चारों शेंगडोंगों में से एक शेंगडोंग के बग़ल में एक स्तूप का निर्माण किया गया।

हालाँकि स्तूप के निर्माण के खर्च में हमारा भी आर्थिक योगदान था लेकिन स्थानीय लोगों ने स्वेच्छा से न केवल धन जुटाने का काम किया बल्कि इस स्तूप के भीतर रखे जाने वाले अवशेषों को भी एकत्रित किया। स्तूप को बाद में सार्वजनिक रूप से रिनपोछे द्वारा पवित्र करवाया गया। समुदाय के लोगों से अनौपचारिक बातचीत में हमें यह महसूस हुआ कि इस पहल में उनकी भागीदारी से उनके अंदर गर्व और संतोष का भाव आया है। एक स्थानीय चरवाहे सोनम लोटस का कहना है कि “इस स्तूप से होकर गुजरते वक्त हम कुछ मंत्र पढ़ते हैं।” भेड़ियों के शिकार जैसे मामले पर उपलब्ध आँकड़ों का उपयोग करके संरक्षण पहल के असर का ढंग से मूल्यांकन किया जाना बाक़ी है। हालाँकि वास्तविक सबूत बताते हैं कि शेंगडोंग की संरचना में किए गए बदलाव के बाद इस इलाक़े में एक भी भेड़िए की हत्या नहीं हुई है।

अजय बिजूर लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाईएल्टीट्यूड प्रोग्राम में असिस्टेंट प्रोग्राम हेड के रूप में काम करते हैं; कर्मा सोनम लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के हाईएल्टीट्यूड प्रोग्राम में फील्ड मैनेजर के तौर पर कार्यरत हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन पर प्रकाशित हुआ था। इसके सह-लेखक रिग्जेन दोरजे, मुनीब खान्यारी, शेरब लोबज़ांग, मानवी शर्मा, श्रुति सुरेश, चारुदत्त मिश्रा और कुलभूषण सिंह आर. सूर्यवंशी हैं।

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अधिक जानें: वन्यजीव संरक्षण में भारत के प्रयासों में किए जाने वाले आवश्यक बदलावों के बारे में जानें।

अधिक करें: अजय बिजूर से [email protected] पर और करमा सोनम से [email protected] पर सम्पर्क करें और उनके काम के बारे में विस्तार से जानें।


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