शीलाबेन अहमदाबाद के पटड़ नगर की रहने वाली हैं। वे दो कमरों के घर में रहती हैं जिनमें से एक कमरे का उपयोग वे ब्लाउज और स्कर्ट पर पत्थर चिपकाने का काम करने के लिए करती है। एक ब्लाउज का काम पूरा करने में उन्हें दो से तीन घंटे का समय लगता है। एक कपड़े पर उन्हें लगभग 15 से 25 रुपए तक मिल जाते हैं। यह काम उन्हें ठेकेदार से मिलता है और यह नियमित नहीं है।
त्योहारों विशेष रूप से नवरात्रि का समय यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि उन्हें कितना काम मिलने वाला है। शीलाबेन बताती हैं कि “त्योहारों के मौसम आने से पहले मैं रात के 12 बजे तक काम करती हूं। हमारे पास अतिरिक्त काम होता है और यही समय होता है जब हम थोड़े ज़्यादा पैसे कमा कर अपने लिए कुछ बचा सकते हैं।”
शीलाबेन के लिए, अपने इस छोटे से घर में काम करना आसान नहीं है। उनके जैसे अनगिनत कारीगर यहां ऐसे घरों में रहते हैं जहां आमतौर पर छतें और दीवारें स्थायी नहीं होती हैं। इन घरों में मौलिक सुविधाएं भी नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए, जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण मानसून के दिनों में इन घरों में पानी भर जाता है। इसके चलते, कच्चे माल को नुक़सान पहुंचता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौसम में आए चरम बदलाव सीधे इनके घरों को प्रभावित करते हैं। इसका असर इनके काम पर भी होता है। शीलाबेन ने बताया कि “हमारी छतें एस्बेस्टस की बनी होती हैं, इसलिए यह बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती हैं। इसके नीचे बैठना मुश्किल हो जाता है लेकिन हमें फिर भी काम करना पड़ता है। मैं अपने काम से होने वाली आमदनी पर कोई समझौता नहीं कर सकती हूं।” घर के अंदर प्रचंड गर्मी के कारण उनके काम करने की क्षमता पर असर पड़ता है। ऐसे में उन्हें इधर-उधर जाकर काम करना और रात में मौसम ठंडा होने पर काम करना पड़ता है।
मानसून में काम करने की अपनी अलग चुनौतियां हैं। बारिश के मौसम में गोंद को सूखने में अधिक समय लगता है और घर की सीलन कपड़ों को नुक़सान पहुंचाती है। इलाक़े में सीवर पाइप न होने के कारण पानी रिसता है जो आख़िर में काम पर असर डालता है। शीलाबेन आगे बताती हैं कि “मैं मानसून में काम नहीं करती हूं क्योंकि उन दिनों में जितना फायदा होता है, उससे ज़्यादा कपड़ों का नुक़सान हो जाता है। इससे मुझ पर ठेकेदार का भरोसा भी कम होता है।”
यही काम करने वाली पटड़ नगर की एक अन्य कारीगर मालतीबेन कहती हैं कि “दोपहर में, माला (मनके हार) बनाने वाली हमारे आस-पड़ोस की महिलाएं कभी-कभी काम करने के लिए सामुदायिक मंदिर या छायादार सड़कों के नीचे बैठती हैं। लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे लिए टुकड़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना आसान नहीं है। पत्थर चिपकाने के बाद कपड़े को सीधा रखकर सुखाने की ज़रूरत होती है।”
इलाके की दूसरी महिलाएं माला-बनाने, दर्ज़ी का काम करने और चम्मचों की पैकेजिंग जैसे काम करती हैं। पत्थर चिपकाने के काम से कम पैसे मिलने के बावजूद रुक्मिणीबेन माला बनाने का ही काम करती हैं। उनका कहना है कि “पत्थर चिपकाने का काम हर कोई नहीं कर सकता है। मैं कपड़े कहां सूखने के लिए डालूंगी? मेरे घर में बैठने और काम करने की जगह नहीं है।”
अनुज बहल एक अर्बन रिसर्चर और व्यवसायी हैं।
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