कोविड-19
February 23, 2022

लोगों का हम पर से भरोसा उठ गया है

दक्षिणी राजस्थान में लोग स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं से दवाइयाँ लेने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन आशा कार्यकर्ताओं से नहीं।
उदयपुर जिला, राजस्थान
2 मिनट लंबा लेख

राजस्थान के उदयपुर जिले में गोगुंडा प्रखण्ड की आशा कार्यकर्ता सीता* ने बताया कि “2005 से, मैं आशा कार्यकर्ता (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) के रूप में काम कर रही हूँ। गाँव में जब भी कोई बीमारी होती थी लोग मुझसे संपर्क करते थे। लेकिन कोविड-19 के बाद लोगों का हम पर से भरोसा उठ गया है।”

महामारी की दूसरी लहर के दौरान दक्षिणी राजस्थान के इस इलाके में बहुत सारे मामले सामने आए थे (चूंकि बहुत लोगों की जांच नहीं हुई थी इसलिए ये सभी मामले आधिकारिक रूप से रिपोर्ट नहीं किए गए)। यहाँ तक कि सबसे दूर-दराज वाले गांवों में भी हर घर में दो से तीन लोग बीमार थे। हालांकि, जब आशा कार्यकर्ता मेडिकल किट लेकर उनके पास पहुंचती थीं तब वे बीमारी से इंकार कर देते थे। सीता ने कहा कि वह जहां भी गईं, शुरुआत में गाँव वाले लोग बीमार दिखने के बावजूद “कोई बीमार नहीं है” या “यहाँ सब ठीक है” कहकर टाल देते थे। एक अन्य आशा कार्यकर्ता रोमी* का कहना है कि “एक बार एक आदमी ने मुझे डंडे से धमकाते हुए गाँव से भागने के लिए कहा था”।

इसके उलट, स्थानीय स्वयंसेवी संस्थानों के कार्यकर्ता उन समुदायों के लोगों के पास जाते थे और बीमार मरीजों की पहचान करके उन्हें घर पर ही की जाने वाली देखभाल के लिए समझाते और दवाइयाँ मुहैया करवाते थे। कुछ जगहों पर, लोगों ने उन स्वयंसेवियों से खुले आम यहाँ तक कहा कि वे “सरकार वाली दवाई” (सरकार द्वारा मुहैया कि जाने वाली दवा) नहीं लेंगे लेकिन “संस्था वाली दवाई” (स्वयंसेवी संस्थानों द्वारा दी जाने वाली दवा) से उन्हें आराम हुआ है।

पिछले कुछ सालों में, आशा कार्यकर्ताओं ने सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और वे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और आम लोगों के बीच की कड़ी के रूप में काम कर रही है। फिर ऐसी स्थिति कहाँ से आ गई कि गाँव के लोग हाथ में डंडा लेकर उन्हें बाहर भगा रहे हैं, और समुदाय के बीमार दिखने वाले सदस्य भी उनकी मदद लेने से इंकार कर देते हैं?

महामारी की पहली लहर के दौरान, आशा कार्यकर्ता ‘कोरोना निगरानी टीम’ का हिस्सा थीं। इनका काम अपने गाँव वापस लौटने वाले प्रवासी मजदूरों के क्वारंटाइन को सुनिश्चित करना था। साथ ही जो लोग अपने घरों में क्वारंटाइन नहीं हो सकते थे, उन्हें क्वारंटाइन केन्द्रों में भर्ती करवा दिया जाता था। इन केन्द्रों पर पीने का साफ पानी और शौचालय आदि जैसी मौलिक सुविधाएं नहीं थीं। समुदायों के लोगों ने सरकार के एजेंडों के सूत्रधार के रूप में देखे जाने वाले आशा कार्यकर्ताओं पर संदेह करना शुरू कर दिया। दूसरी लहर के कारण यह संदेह कई गुना बढ़ गया। कोविड-19 और टीका संबंधी गलत धारणाओं और सूचनाओं ने लोगों के मन में आशा कार्यकर्ताओं के प्रति अविश्वास और डर पैदा कर दिया।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है। 

प्रियान्शु कृष्णमूर्ति उदयपुर में बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज में इंडिया फ़ेलो हैं।

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अधिक जानें: यह भी पढ़ें कि प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को क्या चाहिए और महामारी से निबटने के लिए उन्हें किस प्रकार बेहतर सहायता दी जा सकती है।

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