राजस्थान के बाड़मेर जिले में महिलाओं के खिलाफ हिंसा, आत्महत्या और जातिवाद अपेक्षाकृत अधिक है। मैं थार महिला संगठन नामक एक महिला समूह का हिस्सा हूं। यह घरेलू हिंसा, यौन शोषण, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, बाल विवाह और अशिक्षा जैसी समस्याओं का सामना करने वाली महिलाओं की मदद करता है। मेरा अनुभव है कि विधवा और अकेली महिलाओं के लिए स्थिति और भी खराब है क्योंकि उन्हें अधिक सामाजिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।
बाड़मेर में हर जातिगत या धार्मिक समुदाय में यह परंपरा है कि विधवा महिलाओं को उनकी पहचान बताने वाले एक ख़ास तरह के कपड़े पहनने होते हैं। इन महिलाओं की चुनरी (चूंदड़ी) का रंग अक्सर गहरा और धूसर होता है। उन्हें चटक रंग के कपड़े, मेहंदी, बिंदी या मेकअप का इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं होती है। विधवा महिलाएं शादी, जन्म-उत्सव या किसी और तरह के शुभ काम में हिस्सा नहीं ले सकती हैं, न ही वे मंदिरों या अन्य धार्मिक स्थानों में प्रवेश कर सकती हैं। उन्हें अशुभ माना जाता है।
एक महिला जिनसे मैंने बात की, वे अपनी बेटी की शादी में भी शामिल नहीं हुई थीं। वह कहती हैं कि “मैं अपनी बेटी की शादी में जाना चाहती थी। हम जैसे लोग इस पिछड़ी परंपरा का पालन नहीं करना चाहते हैं, लेकिन अगर हम विरोध करें तो समाज की निंदा का डर रहता है।”
संगठन का हिस्सा होने के चलते, हम उन विधवाओं को समर्थन और सहयोग प्रदान करते हैं जो अब इस परंपरा का पालन नहीं करना चाहती हैं। हम विधवाओं के प्रति, समाज की धारणा बदलने के लिए ‘चुनरी परिवर्तन’ नाम की एक रस्म करते हैं। यह एक तरह का विरोध प्रदर्शन है जिसमें हम इन महिलाओं को रंगीन चुनरियां पहनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। कभी-कभी हम सामूहिक रूप से चुनरी परिवर्तन की रस्म करते हैं, और बाकी समय हम लोगों के घर जाकर यह करने में उनकी मदद करते हैं। चुनरी बदलने के साथ-साथ, संगठन की महिलाएं हिस्सा लेने वालों को मेहंदी लगाने के लिए भी प्रेरित करती हैं। हम महिलाओं और उनके परिवारों को समझाते हैं और उन्हें किसी भी तरह के सामाजिक प्रतिरोध का सामना करने के लिए मजबूत बनाने की तैयारी करते हैं।
विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों में संगठन की बैठकों के दौरान, हम इस परंपरा के पिछड़ेपन के बारे में बात करते हैं और लोगों को इसे अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करते हैं। कभी-कभी इसके बारे में सुनकर अथवा अन्य महिलाओं की कहानियां जानकर, विधवा महिलाएं हमारे पास आती हैं और हमसे कहती हैं कि हम उनके घर पर भी यह रस्म करें। फिर हम उनके घर जाते हैं और रस्म करते हैं। हम अब तक सौ से अधिक बार यह कर चुके हैं।
इन बैठकों में अधिकतर महिलाएं होती हैं, लेकिन कभी-कभी पुरुष भी शामिल होते हैं। एक बार हमें एक पंचायत में बुलाया गया। पंचायत के कुछ पुरुष सदस्य जो हमसे नाराज़ थे, उन्होंने हमसे पूछा कि हम पुरानी परंपराओं में क्यों हस्तक्षेप कर रहे हैं। हमने उनसे कुछ अचूक सवाल पूछे जैसे कि “क्या पुरुषों को भी अपने विधुर होने का प्रतीक दिखाना पड़ता है?” “क्या उन्हें समारोहों में शामिल होना बंद करना पड़ता है?” “क्या पंचायत को महिलाओं समेत सबको समान न्याय प्रदान नहीं करना चाहिए?” कुछ पुरुष हमसे खुली चर्चा करते हैं, और कुछ नहीं।
कई महिलाएं जिनके घर हम जाते हैं, वे संगठन में शामिल हो जाती हैं और इस परंपरा को आगे बढ़ाती हैं। हेमा देवी* जिन्होंने अपने घर पर अनुष्ठान किया था, कहती हैं कि “उस दिन के बाद से, मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं शादियों में, काम पर, मंदिर में, जहां भी जाना चाहती हूं, जाती हूं। यहां तक कि मेरे ससुराल वाले और आसपास के लोग भी मान गए हैं कि विधवा महिलाएं अपशकुन नहीं लातीं हैं।”
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदला गया है।
अनीता सोनी एक सामाजिक कार्यकर्ता और थार महिला संगठन, बाड़मेर की संस्थापक हैं।
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