
हाल ही में प्रदान ने मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के आदिवासी अंचल में बसी एक बैगा बस्ती में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन से जुड़ी गतिविधि की। बैगा समुदाय की गिनती विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों में होती है। गांवों को बेहतर ढंग से समझने की हमारी रणनीति के तहत, हमने उन क्षेत्रों में सहभागी संपदा श्रेणीकरण (पार्टिसिपेटरी वेल्थ रैंकिंग) को अंजाम दिया जहां नई पहल की जानी थी। इस प्रक्रिया से हमें पता चला कि बस्ती के अधिकांश परिवार अत्यंत गरीब श्रेणी में आते हैं।
इस गतिविधि के नतीजों को देखते हुए यह तय हुआ कि इन परिवारों को स्थायी रोजगार से जोड़ने के लिए उन्हें कुछ संसाधन दिए जाने चाहिए। इसके तहत मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन के लिए जरूरी छत्ते और औजार उपलब्ध कराए गए, ताकि परिवारों को बुनियादी रोजगार मिल सके।
लेकिन जब यह संसाधन सौंपने के लिए परिवारों को बैठक में बुलाया गया तो उन्होंने उसे लेने से साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि चूंकि गांव के प्रभावशाली (या संपन्न) लोगों से इस बारे में सलाह नहीं ली गई है, इसलिए वे बाद में आपत्ति कर सकते हैं। परिवारों को डर था कि कहीं वे उनके छत्ते ही न नष्ट कर दें। मामले को सुलझाने के लिए हमने कई बार इन प्रभावशाली लोगों को बैठक में बुलाने की कोशिश की, लेकिन वे तैयार नहीं हुए। पहले से ही बेहद असुरक्षित हालात में जी रहे परिवारों को और जोखिम में डालना सही नहीं था। इसलिए आखिरकार हमें वहां मधुमक्खी पालन का कार्यक्रम रोकना पड़ा।
इस प्रयास के असफल होने की एक बड़ी वजह यह भी रही कि गांव में कोई ग्राम संगठन मौजूद नहीं था। आमतौर पर यह संगठन स्वयं सहायता समूहों का एक संघ होता है, जो गांव में सामूहिक फैसले लेने और लोगों को एकजुट करने का मंच बनता है। ऐसे संगठन की गैर-मौजूदगी के चलते इस बस्ती में लोगों को संगठित करना बेहद मुश्किल हो गया था।
यहां तक आते-आते हालात हमारे हाथ से निकल चुके थे। यह क्षेत्र हमारे लिए बिल्कुल नया था और हमारी मुहिम से गांव के लोगों (खासतौर से प्रभावशाली वर्ग) के बीच झिझक और अविश्वास की भावना पैदा हो गयी थी। आमतौर पर हम नए क्षेत्रों में सबसे पहले समुदाय का भरोसा जीतने के लिए कुछ गतिविधियां करते हैं। जैसे, सामाजिक मानचित्रण, सामूहिक भ्रमण और एक्सपोजर दौरा। लेकिन इस क्षेत्र में हमने तब तक ये कदम नहीं उठाए थे।
इस अनुभव से हमने सीखा कि किसी भी योजना या कार्यक्रम को स्थानीय संस्थाओं, जैसे स्वयं सहायता समूह (एसएचजी), ग्राम संगठन और ग्राम सभा, के बगैर आगे बढ़ाना संभव नहीं है। साथ ही, भरोसा बनाने की प्रक्रिया भी केवल कुछ परिवारों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। इसे जाति और वर्ग की सीमाओं से परे पूरे गांव को साथ लेकर चलना चाहिए। यह विशेष रूप से उन समुदायों के लिए अहम है, जो पहले से हाशिए पर होते हैं और अक्सर सबसे पीछे छूट जाते हैं।
हमारे लिए सबसे बड़ी सीख यह रही कि किसी भी पहल को एक तय क्रम में लागू करना बहुत जरूरी होता है। इसमें सबसे पहले भरोसा बनाने से जुड़ी गतिविधियां शामिल हैं, फिर सहज-सरल बातचीत, पूरे गांव की सक्रिय भागीदारी और उसके बाद सहभागी सदस्यों का चयन। अगर यह क्रम न अपनाया जाए, तो टकराव और अविश्वास की स्थिति पैदा हो सकती है। इस कारण उन लोगों के लिए सतत रोजगार का रास्ता मुश्किल हो सकता है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत होती है।
सत्त्व वसावदा सेनगुप्ता मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले के बिरसा ब्लॉक में संस्थागत सशक्तिकरण और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर काम कर रहे हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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