राजस्थान के कई जिलों में दलित जाति के लोगों से भेदभाव और हिंसा आम बात है। इस भेदभाव का एक रूप इस तरह भी दिखाई देता है कि दलित जातियों से आने वाले दूल्हों को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता है। लेकिन राजस्थान के हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर और अनूपगढ़ जिले इस कुप्रथा को बदल रहे हैं। यहां दलित समाज की बिंदोरी (शादी की एक रस्म जिसमे लड़का या लड़की अपने परिवार के साथ अपने गांव में जुलूस निकालते है) निकलने पर किसी तरह के सवाल नहीं उठते हैं। इतना ही नहीं, हालिया सालों में इन जिलों में बेटियों को भी घोड़ी पर बैठा कर शादी के लिए ले जाया जाने लगा है।
श्रीगंगानगर जिले को 1994 में विभाजित कर हनुमानगढ़, और फिर 2023 में बांटकर अनूपगढ़ जिला बनाया गया था। भौगोलिक रूप से पंजाब से सटा यह इलाका भले ही तीन जिलों में बंटा है मगर यहां लोगों की सोच एक जैसी है। विवाह के समय घोड़ी पर बैठना केवल पुरुषों का ही अधिकार माना जाता रहा है और अब तक किसी भी समाज ने बेटियों को घोड़ी चढ़ने का हक नहीं दिया है। राजस्थान में तो दलित पुरुषों से भी यह अधिकार छीना जाता रहा है, मगर इस इलाके में दलित हों या सवर्ण सभी बिरादरी के लोग अपने बेटों के साथ-साथ बेटियों को भी घोड़ी पर बैठा कर बिंदोरी निकालते हैं।
शहर-कस्बों से ज्यादा गांवों में बेटियों की बिंदोरी का चलन ज्यादा देखने में आ रहा है। दलित समाज से आने वाले, पोहड़का गांव निवासी मनीराम मेहरड़ा ने अपनी बेटी मूर्ति को घोड़ी पर बैठा कर धूमधाम से बिंदोरी निकाली थी। मेहरड़ा कहते हैं, ‘‘हमने हमेशा सवर्णों के बच्चों को ही घोड़ी चढ़ते देखा था। हमारे परिवार के किसी भी विवाह में कभी कोई घोड़ी नहीं चढ़ा था। बुजुर्ग कहते थे कि यह ऊंची जाति वालों का ही अधिकार है। हमने भी इसे ही शाश्वत मान लिया था लेकिन अब माहौल बदल रहा है। मैंने बेटे और बेटी दोनों को विवाह के समय घोड़ी पर बैठाया।’’
दलित समाज को किस तरह इस सांस्कृतिक अधिकार से वंचित किया जाता था, इस पर सूरतगढ़ के 79 वर्षीय पत्रकार एवं लेखक करणीदान सिंह राजपूत कहते हैं, ‘‘प्रदेश के अन्य क्षेत्रों की तरह श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ इलाके में भी जातिगत भेदभाव खूब रहा है। कई उच्च कही जाने वाली जातियों के लोग आज भी दलितों के घर जाने या साथ खाने-पीने से परहेज करते हैं। पारंपरिक रूप से शादी के समय सवर्ण जाति के दूल्हे ही घोड़ी पर चढ़ते आए हैं। दलितों को घोड़ी पर चलने की अपनी इच्छाओं का दमन ही करना पड़ा है।’’
राजपूत कहते हैं, ‘‘पुराने जमाने में घोड़ियां बड़े जमींदारों और ठाकुरों के पास ही थीं। यह उनका स्टेट्स सिंबल था। उच्च जातियों के यहां काम करके आजीविका चलाते रहे दलित, कमेरा (कामकाज करने वाला) वर्ग ने कभी घोड़ी चढ़ने जैसी महत्वाकांक्षा ही नहीं पाली। या यूं कहें कि उन्होंने इस पर सवर्णों का ही अधिकार होने की बात मान ली। अब परिवेश बदल रहा है।’’
समाज की सोच में बदलाव कैसे आया, उस पर दलित समाज के सेवानिवृत जिला आबकारी अधिकारी केसराराम दहिया कहते हैं, ‘‘पिछले कुछ सालों में पंचायतों में आरक्षण तथा शिक्षा की बदौलत दलित समाज की तस्वीर खासी बदली है। अब दलित युवा सरकारी नौकरियों में आ रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधरी है। इसी के साथ जागरुकता भी आई है। इसका असर समाज में नजर आ रहा है।’’
दलित जाति से आने वाले हनुमानगढ़ पंचायत समिति के पूर्व प्रधान राजेन्द्र प्रसाद नायक कहते हैं, ‘‘पिछले एक दशक में कई जगह दलित दूल्हे घोड़ी पर सवार होने लगे हैं लेकिन लड़कियों को घोड़ी चढ़ाने का चलन बीते पांच-छह सालों में बढ़ा है। लगता है, सामाजिक वर्जनाओं के चलते घुट कर रह गईं इच्छाएं अब उछाल मार रही हैं। अब दलित समाज भी बेटियों को घोड़ी पर चढ़ाकर गौरवान्वित होने का मौका नहीं चूक रहा है।’’
हनुमानगढ़ के एडवोकेट दौलत सिल्लू बताते हैं, “हमारे परिवार में कभी कोई लड़का भी घोड़ी नहीं चढ़ा था लेकिन इस साल हमने शादी के समय भतीजी पूजा को घोड़ी पर बैठाकर बिंदौरी निकाली। हमने उसी चाव से पूजा की शादी की, जिस चाव से लोग बेटों की करते हैं।’’
अमरपाल सिंह वर्मा, एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और राजस्थान में रहते हैं।
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