पारंपरिक पेय हड़िया पर प्रतिबंध से परेशान आदिवासी 

Location Icon रांची जिला, झारखंड

रांची और उसके आसपास के इलाकों में सप्ताह में एक दिन और कुछ अन्य जगहों पर दो दिन हाट बाजार लगते हैं। ये बाजार, शहर से दूर बसने वाले आदिवासियों के लिए खुद उगाई गईं और बनाई हुई पारंपरिक वस्तुओं को बेचने और खरीददारी करने की एकमात्र बेहतर जगह होती है। हाट बाजार में सबसे ज्यादा खरीदी जाने वाली चीजों में हड़िया भी शामिल है। हड़िया झारखंड के आदिवासी समाज का एक पारंपरिक पेय है, जिसे खासतौर पर चावल और जड़ी-बूटियों से तैयार किया जाता है।  

लेकिन हालिया समय में सरकार द्वारा इस पर प्रतिबंध लगाए जाने से एक बड़े आदिवासी समूह के सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया है।   

आदिवासी कई पीढ़ियों से हड़िया बनाते आए हैं। इसे पारंपरिक रूप से स्थानीय चावल की बियर भी कहा जाता है, जो आदिवासी संस्कृति का अहम हिस्सा है। हड़िया न केवल एक पेय है, बल्कि आदिवासी विवाह, रीति-रिवाजों, त्योहारों और सामाजिक आयोजनों का भी अभिन्न अंग है। झारखंड के प्रमुख आदिवासी समूह, जैसे संथाल, मुंडा, उरांव, हो और गोंड, हड़िया को न केवल अपनी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा मानते हैं, बल्कि इससे उनके परिवार की आमदनी भी होती है। 

आदिवासी समुदायों के लिए हड़िया केवल पारंपरिक पेय न होकर पोषण का स्रोत भी है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो चावल के कारण इसमें कार्बोहाइड्रेट की मात्रा होती है तथा किण्वन (फरमेंटशन) की वजह से इसमें प्राकृतिक प्रोबायोटिक्स विकसित हो जाते हैं, जो पाचन तंत्र के लिए फायदेमंद रहते है। इसमें पाया जाने वाला जड़ी-बूटी पेय समुदाय में बहुत अहम माना जाता है।  

हड़िया को धार्मिक और सामाजिक परंपराओं से भी गहरा नाता है। यह उनके विवाह समारोह, पारंपरिक पूजा, फसल कटाई के त्योहारों और अन्य खास मौकों पर अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाता है। समुदाय के बुजुर्ग इसे सामाजिक एकता का प्रतीक मानते हैं, क्योंकि इसे मिल-बांटकर पिया जाता है।  

पहले हड़िया बनाना और बेचना आदिवासियों के लिए एक सामान्य बात थी। गांवों के हाट-बाजारों में इसे खुले तौर पर बेचा जाता था, क्योंकि यह उनकी आय का भी एक मुख्य स्रोत था। लेकिन अब प्रशासन ने इस पर सख्ती कर दी है। पुलिस हड़िया दुकानों को हटाने लगी है और कई जगहों पर छापेमारी भी की जा रही है। प्रशासन का कहना है कि हड़िया अवैध है और इसे बनाने और बेचने पर जुर्माना या जेल तक हो सकती है। उनका कहना है कि यह नशीला पदार्थ है, जिसे पीकर लोग उत्पात मचाते हैं।  

एक तथ्य यह भी है कि कच्ची शराब बनाने वाले व्यापारी भी अपनी शराब को हड़िया के नाम से बेचने लगे हैं। इसके चलते पुलिस उन लोगों पर अक्सर कार्रवाई करती है, जिसमें आदिवासी भी फंस जाते हैं।   

हड़िया बनाने के लिए कैरनी धान के चावल को उबालकर ठंडा किया जाता है। इसके बाद इसमें ‘रानू’ नामक जड़ी-बूटी का मिश्रण मिलाया जाता है, जो किण्वन (फरमेंटशन) की प्रक्रिया को तेज करता है। रानू में कई पारंपरिक औषधीय जड़ी-बूटियां होती हैं, जिनमें तुलसी, गिलोय, हर्रे, बहेड़ा, आंवला और सतोआ प्रमुख हैं। इस मिश्रण को मिट्टी के बर्तन में डालकर तीन से चार दिनों तक प्राकृतिक रूप से किण्वन (फरमेंटशन) के लिए रखा जाता है। जब यह पूरी तरह से तैयार हो जाता है, तो इसे पानी मिलाकर छानने के बाद पीने के लिए परोसा जाता है। 

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि शहर के बड़े बार और होटलों में हड़िया को ‘लिकर ऑफ झारखंड’ के नाम से ऊंचे दाम पर बेचा जा रहा है। वहीं जो आदिवासी बुजुर्ग और महिलाएं अपने घरों में परंपरागत तरीके से हड़िया बनाकर बेचते थे, उनसे अब अपराधी जैसा सलूक किया जा रहा है। 

गांवों में कई परिवार इस पेय को बनाकर बेचने से होने वाली आय पर निर्भर हैं। लेकिन हड़िया बेचना सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय के लिए उनकी संस्कृति का भी एक अहम हिस्सा रहा है। इसलिए जब से प्रशासन ने हड़िया बेचने पर कड़ाई की है, तो परिवारों की आय का यह स्रोत भी खत्म होने लगा है।  

आदिवासी हड़िया को मान्यता दिलवाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी तक उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली है। उनका कहना है कि अगर प्रशासन उन्हें इसे बेचने की प्रक्रिया से अवगत करा दे, तो उससे इन्हें काफी मदद मिलेगी। लेकिन फिलहाल सरकार की सख्ती से उनके सामने न केवल आजीविका का संकट पैदा हो गया है, बल्कि अपनी परंपरा को जीवित रखना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। 

राजीव पिछले 10 सालों से सामाजिक विकास क्षेत्र में बतौर लेखक काम कर रहे हैं।

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अधिक जानें: नागालैंड की ख्यामनियुंगन जनजाति के बारे में पढ़ें, जो प्रकृति के साथ सहजीवन का एक उदाहरण प्रस्तुत करती है।

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