दयामनी बरला, एक आदिवासी कार्यकर्ता और पत्रकार हैं और हमेशा ही आदिवासी मुद्दों पर अपनी बात मुखरता से रखती आई हैं। इस इंटरव्यू में दयामनी बरला बताती हैं कि उनका बचपन भी बहुत संघर्षों से भरा रहा और उन्हें अपनी आजीविका चलाने के लिए खुद से संघर्ष करना पड़ता था।
दयामनी बताती हैं कि उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने के बाद पत्रकारिता और एक्टिविज्म क्षेत्र को चुनना इसलिए बेहतर समझा, क्योंकि उन्हें हमेशा लगता था कि जिस तरह से बच्चों, महिलाओं, युवाओं के साथ काम होना चाहिए था, उस तरह से नहीं हो पाया है। वे कई अलग-अलग अखबारों व पत्रिकाओं से जुड़ी रही हैं।
दयामनी, इस इंटरव्यू में संविधान और उसमें दिए गए अधिकारों के प्रति युवाओं के जागरूक होने पर जोर देती हैं। इंटरव्यू में वह बताती हैं कि उन्होंने विभिन्न आंदोलनों के ज़रिए जल, जंगल और जमीन जैसे मुद्दों पर न केवल पूंजीपतियों बल्कि सरकार से भी अपनी बात मनवाई।
उनका मानना है कि पढ़ने-लिखने के साथ-साथ युवाओं को राजनीति में भी ज्यादा से ज्यादा सक्रिय होना चाहिए। इसके पीछे का कारण वो बताती हैं कि जब युवा विधानसभा, लोकसभा या राज्यसभा में चुनकर जाते हैं तो उनके पास संवैधानिक तौर पर आम नागरिकों की भलाई के लिए नीतियों के निर्माण व बदलाव लाने की ताकत होती है। दयामनी बरला, कई पुरस्कारों से भी सम्मानित रही हैं।
1. “मेरा जो बचपन था ना… आम बच्चों की तरह मेरा बचपन नहीं रहा।”
2. “बच्चों, महिलाओं, युवाओं के लिए जिस तरह से काम होना चाहिए था, उस तरह से नहीं हो पा रहा है।”
3. “अगर आप ओरल हिस्ट्री को समझ रहे हैं तो सही मायने में आपकी कलम बहुत ताकतवर होगी।”
4. “कोयल कारो डैम प्रोजेक्ट, मेरा पहला आंदोलन था।”
5. “आदमी का मर जाना दुखद नहीं है, जितना हमारे सिद्धांतों का मर जाना है।”
6. “क्या इस देश को सिर्फ़ स्टील ही चाहिए? इस देश के लिए भोजन, शिक्षा, पानी, स्वस्थ जिंदगी, स्वस्थ पर्यावरण भी तो ज़रूरी है ना।”
7. “विभिन्न सेवाओं के विकास में गैर-लाभकारी संगठनों भूमिका जमीन पर उतनी दिखाई नहीं पड़ती।”
8. “एजुकेट करने का मतलब केवल एबीसीडी सीखाना नहीं है बल्कि अपने हक और अधिकार को समझना सबसे बड़ी एजुकेशन है।”
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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