July 13, 2022

ग्रामीण भारत में मधुमेह का संकट क्यों गहराता जा रहा है?

ग्रामीण आंध्र प्रदेश में हुआ एक अध्ययन इशारा करता है कि इसका जवाब खान-पान की आदतों में बदलाव और किसानों का कम श्रम प्रधान फसलों की ओर झुकाव हो सकता है।
8 मिनट लंबा लेख

आंध्र प्रदेश के चित्तूर के पास थवनमपल्ले मंडल, थोडाथारा गांव के एक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टर विजय कुमार अपने अगले मरीज को अंदर आने के लिए आवाज़ देते हैं। डॉक्टर कुमार थोड़े गर्व के साथ उनके बारे में बताते हैं कि “मेरी जानकारी में ये सबसे अनुशासित व्यक्ति हैं।” तब तक रेड्डीयप्पा रेड्डी अंदर आए और डॉक्टर कुमार के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। साठ वर्ष के रेड्डीयप्पा ने बताया कि “दस साल पहले मुझे पता चला कि मुझे मधुमेह है। मैंने डॉक्टर कुमार की सलाह मानी। अब मैं हर रात खाना खाने के बाद आम के बगीचे तक टहलने जाता हूं।” उनके बारे में डॉक्टर कुमार कहते हैं कि रेड्डी इस क्लिनिक में आने वाले बाक़ी मरीज़ों के लिए एक प्रेरणा हैं।

आंकड़ों का खेल

2013 में अपोलो फ़ाउंडेशन की पहल, टोटल हेल्थ इनीशिएटिव ने थवनमपल्ले मंडल की 32 ग्राम पंचायतों के 195 गांवों में एक सर्वे किया। इसके लिए हमने 31,453 लोगों के स्वास्थ्य से जुड़े आंकडे जुटाए और पाया कि इनमें से 6.2 फ़ीसदी लोग मधुमेह से पीड़ित हैं। साथ ही ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि 16.7 फ़ीसदी पुरुष और 12.2 फ़ीसदी महिलाएं मोटापे से ग्रस्त हैं जिसके चलते मधुमेह का ख़तरा बढ़ जाता है।

गांवों की तुलना में शहरों में मधुमेह फैलने की दर दोगुनी है लेकिन थवनमपल्ले मंडल में यह बड़ी चिंता का विषय है।

हाल ही में थवनमपल्ले मंडल में मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या में 10.1 फ़ीसदी की बढ़त दर्ज की गई है। लेकिन अब भी यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से कम है। एनल्स ऑफ एपिडेमियोलॉजी में प्रकाशित 2021 मेटा-एनालिसिस के अनुसार, साल 1972 में ग्रामीण और शहरी भारत मधुमेह पीड़ितों की दर क्रमशः 2.4 फ़ीसदी और 3.3 फ़ीसदी थी। 2015 आते-आते यह आंकड़ा बढ़कर क्रमश: 15 और 19 फ़ीसदी पर पहुंच गया।

चीन के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है जहां मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या सबसे अधिक है। भारत में 7 करोड़ 47 लाख लोग मधुमेह के शिकार हैं। गांवों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में मधुमेह के मामले दोगुने अधिक हैं।

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टोटल हेल्थ इनीशिएटिव पर लौटें तो इसका कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से थवनमपल्ले मंडल है और इस इलाक़े में यह बीमारी गंभीर चिंता का विषय है। यहां मोबाइल क्लिनिक की एक इकाई चलाने वाले डॉक्टर वी भार्गव कहते हैं कि “पिछले महीने मैं 600 लोगों से मिला था जिनमें से 200 लोग मधुमेह के मरीज़ थे।” इस बीमारी की चपेट में आने वाले ज़्यादातार लोगों की उम्र 50 वर्ष से अधिक होती है। यदि इसकी तुलना राष्ट्रीय आंकड़ों से करें तो 2009 में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि 54 फ़ीसदी लोग 50 की उम्र में पहुंचने से पहले ही इस बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं। इस अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आया है कि भारतीय लोगों में मधुमेह के लक्षण उनके पश्चिमी समकक्षों की तुलना में लगभग एक दशक पहले से ही दिखाई देने लग जाते हैं।

एगुवामाथ्यम में एक महिला अपने ब्लड शुगर के स्तर की जांच करवाती हुई-मधुमेह
उत्तर की तुलना में दक्षिण भारत में मधुमेह का प्रतिशत अधिक है। इसका संभावित कारण चावल का अधिक उपयोग है जिसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स ज़्यादा होता है। | चित्र साभार: टोटल हेल्थ

ग्रामीण इलाक़ों के खान-पान में बदलाव

थवनमपल्ले में सैटेलाइट क्लिनिक चलाने वाले डॉक्टर टी स्वर्ण का कहना है कि “भारत के गांवों का वातावरण बदल रहा है जिसकी शुरूआत यहां के खान-पान से होती है।”

2016 में उत्तर-पश्चिम तमिलनाडु के कृष्णागिरी में एक अध्ययन किया गया जिसमें शोधकर्ताओं ने इस समस्या के मुख्य कारणों की पहचान की। उनका कहना है कि “लोगों के खान-पान में आया बदलाव मधुमेह के बढ़ते मामलों की मुख्य वजह है।” बेशक गावों में अब ‘सिटी फूड्स’ जैसे ढेर सारी शक्कर वाला सोडा और मिठाइयां या ट्रांस-फ़ैट से भरे चिप्स और बेकरी उत्पादों की उपलब्धता बढ़ी है लेकिन यह इस समस्या का मुख्य कारण नहीं है। इन इलाक़ों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) द्वारा राशन की दुकानों पर मुफ़्त में बंटने वाले चावल को इसका ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। दरअसल मुफ़्त में मिलने वाला यह चावल अब लोगों का मुख्य आहार बन गया है।

डॉक्टरों का कहना है कि कृष्णागिरी से 150 किमी से भी कम दूरी पर स्थित थवनमपल्ले में भी लोगों का मुख्य आहार अब चावल हो चुका है। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में मधुमेह की दर अधिक है। संभव है कि इसका मुख्य कारण सफ़ेद चावल का सेवन हो जिसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स (किसी खाद्य पदार्थ में कार्बोहाइड्रेट्स की मात्रा) अधिक होता है। इसे पानी में पका कर कांजी (चावल का दलिया) तैयार किया जाता है। स्टार्च वाले यह चावल शरीर में रक्त शर्करा (ब्लड-शुगर) के स्तर को बढ़ा देते हैं।

अरगोंडा में आयुष क्लिनिक की प्रमुख डॉक्टर एम गायत्री बताती हैं कि “स्थानीय लोग ऐसा मानते हैं कि चावल के बिना उनका खाना अधूरा है।” उनका मुख्य उद्देश्य भूख शांत करना है क्योंकि ज़्यादातर लोग फल और मांस आदि नहीं खा सकते हैं। मौसमी सब्ज़ियां खाई जाती हैं लेकिन भोजन का ज़्यादातर हिस्सा चावल होता है और सब्ज़ी की मात्रा बहुत कम होती है। चावल से तैयार खाना सस्ता होता है और इसे खाने से लोगों का पेट भर जाता है। इसी तरह डॉक्टर भार्गव कहते हैं, “खेतों में काम करने वाले मज़दूर घर से सुबह आठ बजे निकलने से पहले ऐसा कुछ खाना चाहते हैं जिससे उन्हें दिन भर भूख न लगे।” इन इलाक़ों में गेहूं की खेती नहीं होती है इसलिए आमतौर पर लोग रोटियां नहीं खाते हैं। वहीं डॉक्टर स्वर्ण जोड़ते हैं कि “लोगों का ऐसा मानना है कि सुबह के समय चपाती खाने से शरीर में गर्मी पैदा होती है।”

टोटल हेल्थ इनीशिएटिव से जुड़े डॉक्टरों को यह आशंका है कि शारीरिक गतिविधियों में आई कमी और खानपान की आदतों में रहे बदलाव भी मधुमेह के बढ़ते मामलों का कारण हो सकते हैं।

चावल ने रागी और बाजरा जैसे अनाजों की जगह ले ली है जो पहले थवनमपल्ले में भोजन का हिस्सा हुआ करते थे। डॉक्टर भार्गव कहते हैं, “हम लोग अब भी रागी के पकौड़े बनाते हैं लेकिन बदलते स्वाद के कारण अब रागी और चावल के आटे का अनुपात (2:1) उल्टा हो गया है। वह बताते हैं कि “मैं अपने खाने में जितना सम्भव हो सके उतनी मात्रा में पत्तेदार और हरी सब्ज़ियां शामिल करता हूं। साथ ही मैंने चाय पीनी बिलकुल बंद कर दी है (ज़्यादातर गांवों में लोग बहुत अधिक मीठी चाय पीते हैं।)” हालांकि डॉक्टर भार्गव अब भी पीडीएस पर निर्भर हैं और ब्राउन या लाल चावल नहीं खा पाते हैं जो कभी इस इलाक़े का पारम्परिक खाना था। ‘शहरी भोजन’ की सूची में शामिल हो जाने के कारण अब इन अनाजों की क़ीमत बहुत अधिक बढ़ गई है।

पारंपरिक चावल को बढ़ावा देनी वाली चेन्नई स्थित संस्था स्पिरिट ऑफ़ द अर्थ की प्रमुख जयंती सोमासुंदरम कहती हैं कि “भारत में हरित क्रांति के आने से पहले हमारे खाने में सौ अलग-अलग क़िस्म के चावल शामिल थे। वे थूयामल्ली, कातुयनम और मापिल्लई चम्पा जैसी क़िस्मों की तरफ़ इशारा करती हैं। सोमासुंदरम बताती हैं कि “1950 और 60 के दशक में ऐसी धारणा थी कि सम्भ्रांत लोगों द्वारा खाया जाने वाला सफ़ेद चावल सबसे अच्छा होता है। मोटा अनाज खाने वाले मध्यम वर्ग के लोगों के लिए सफ़ेद चावल बड़ी चीज़ थी।” कर्नाटक स्थित संस्था सहज समृद्ध के संस्थापक कृष्ण प्रसाद कहते हैं मिलिंग तकनीक में आए सुधार के कारण चावलों की चमक और उसकी सुगंध में बढ़ोतरी हुई है। इससे लोगों को लगने लगा है कि ये चावल उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं। वे 1960 के दशक में आंध्र प्रदेश के रायलसीमा इलाक़े को याद करते हुए कहते हैं: “कपास और मूंगफली जैसे नक़दी फसलों के लिए लोकप्रिय होने से पहले इस इलाक़े के लोग खारी मिट्टी वाले अपने खेतों में कई क़िस्म के चावल उगाते थे।”

थोडाथारा में रहने वाली मधुमेह की मरीज़ आर इंद्राणी हमारा ध्यान इस बात पर ले जाती हैं कि इतने वर्षों में केवल लोगों के खान-पान में ही बदलाव नहीं आया है। वे कहती हैं, “मुझे ऐसा लगता है कि वे फसलें जो हम उगाते हैं उनमें आए बदलाव ने भी हमारी जीवनशैली को प्रभावित किया है।” पहले थवनमपल्ले में पारम्परिक रूप से गन्ने की खेती होती थी और यहां के लोग गुड़ उत्पादक थे। इंद्राणी आगे कहती हैं, “हमारे पास गन्नों के खेत भी थे। लेकिन अब बहुत कम ऐसे खेत बचे हैं। यहां के अन्य किसानों की तरह हमने भी 10 एकड़ में आम की खेती शुरू कर दी है। गन्ने की खेती में लगातार पानी और श्रम की खपत होती है वहीं आम एक मौसमी फल है और इसकी खेती में मेहनत भी कम लगती है।” टोटल हेल्थ के डॉक्टरों का ऐसा मानना है कि लोगों की शारीरिक गतिविधियों में आई कमी और उनके खान-पान में आया बदलाव मिलकर मधुमेह के मामलों के बढ़ने की वजह बन रहे हैं। इंद्राणी विडंबना वाली हंसी हंसते हुए कहती हैं कि “मैं जो आम उगाती हूं उसे खा नहीं सकती हूं।”

मधुमेह की जांच

इंद्राणी को अपने मधुमेह का पता एक साल पहले ही चला जब वह नेत्र जांच शिविर में अपनी आंखों की जांच करवाने गई थीं। डॉक्टर गायत्री बताती हैं कि “यहां लोग नियमित जांच को लेकर उतने गम्भीर नहीं है। जब तक उन्हें कोई शारीरिक समस्या दिखाई नहीं देती है जैसे कि पेशाब में अनियमितता वग़ैरह होना, तब तक वे नहीं आते हैं। इनका रवैया भी बचाव उपायों को बहुत गंभीरता से नहीं लेने वाला है।”

इसी तरह डॉक्टर स्वर्ण हमें बताते हैं कि “अक्सर जब लोग हमारे पास आते हैं तो उनका शुगर लेवल पहले से ही 11 प्रतिशत (सामान्य स्तर 6.5 प्रतिशत होता है) पहुंच चुका होता है। ज्यादातर मामलों में हो सकता है कि वे कई वर्षों से मधुमेह से पीड़ित हों लेकिन उन्हें इसकी जानकारी अब हुई है।”

2019 में पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला कि भारत में 15–49 वर्ष की आयु वाले प्रत्येक दो में से एक व्यक्ति मधुमेह से पीड़ित होता है और उसे इसकी जानकारी नहीं होती है। इस अध्ययन में यह भी सामने आया कि गांवों में रहने वाले पुरुषों में मधुमेह का खतरा अधिक होता है।

निचले से मध्यम स्तर का ख़तरा पैदा करने वाले मधुमेह का इलाज महत्वपूर्ण है ताकि इसे गंभीर होने से रोका जा सके।

डॉक्टर गायत्री कहती हैं, “लोगों को इस बात का डर होता है कि अगर उन्होंने एक बार दवाइयां लेनी शुरू कर दीं तो उन्हें यह जीवन भर लेनी पड़ेंगी। आमतौर पर लोग दवाइयों पर निर्भर नहीं होना चाहते हैं।”

सभी डॉक्टर इस बात से सहमत हैं कि मधुमेह के पहले की स्थिति अर्थात् इससे बचाव और नियंत्रण पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। इससे बचाव के कई उपायों में एक उपाय पारम्परिक खान-पान को दोबारा चलन में लाना है। पारंपरिक खान-पान में विविधता होती है और चावल इसका मुख्य हिस्सा नहीं होता है। ऐसा करने से मधुमेह की रोकथाम में मदद मिल सकती है।

सबसे बड़ी मुश्किल शारीरिक गतिविधि को लेकर लोगों के रवैये में है। देश के किसी अन्य ग्रामीण और शहरी इलाक़े की तरह थवनमपल्ले में भी शारीरिक श्रम का संबंध जाति व्यवस्था से है। अपेक्षाकृत समृद्ध परिवार के लोग अपने कामों के लिए लोगों को नौकरी पर रख लेते हैं। इससे उनकी शारीरिक गतिविधियों में कमी आ जाती है।

इसके अलावा लोगों में निचले से मध्यम स्तर का ख़तरा पैदा करने वाले मधुमेह का इलाज महत्वपूर्ण है ताकि इसे और अधिक गंभीर होने से रोका जा सके। जैसा कि इस वर्ष किए गए राष्ट्रीय एनसीडी सर्वेक्षण के परिणामों में देखा गया है, पर्याप्त जांच, नियमित स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन कर इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है। साथ ही मधुमेह को लेकर लोगों को यह समझाना भी आवश्यक है कि यह जीवनशैली से जुड़ी बीमारी है। जीवनशैली से जुड़े बदलावों की जानकारी के मिलने पर लोग स्वयं को मधुमेह से ग्रसित होने से बचा सकते हैं।

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लेखक के बारे में
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स्वेता अकुंडी

स्वेता अकुंडी अपोलो फाउंडेशन के लिए बतौर कंटेंट राइटर काम करती हैं। यहां वे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के गांवों से जुड़ी कहानियां लेकर आती हैं। इससे पहले स्वेता द हिंदू में बतौर रिपोर्टर काम कर चुकी हैं। उन्हें आम लोगों के जीवन में रुचि है और वे उनकी कहानियां लोगों तक पहुंचाना पसंद करती हैं। उनके लेखन में स्वास्थ्य से जुड़े फ़ीचर प्रोफ़ाइल और शोध-परख, दोनों तरह के लेख शामिल हैं।

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