June 23, 2025

नदियों की कहानी, समुदायों की ज़ुबानी : पूर्वोत्तर जनस्मृति का डिजिटल अभिलेख

जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बीच, नदी किनारे बसे समुदाय मेमोरी मैप्स, ऑडियो नोट्स और तस्वीरों के माध्यम से मौखिक इतिहास और पारंपरिक अनुकूलन रणनीतियों को संरक्षित कर रहे हैं।
9 मिनट लंबा लेख

सदियों से पूर्वोत्तर भारत की महान नदियां इस क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान को आकार देती रही हैं। ये नदियां लोगों के जीवन से भी गहराई से जुड़ी रही हैं। उत्तर सिक्किम का लेप्चा समुदाय रोंगयोंग नदी की पूजा करता है और खेती से जुड़ी अपनी जरूरतों के लिए इस पर निर्भर है। असम के तराई वाले इलाके, गौरीपुर की ब्रह्मपुत्र नदी से नजदीकी के चलते ही यहां ग्वालपारिया लोकगीत बने और एक समूचा नौका उद्योग विकसित हुआ। 

नदी किनारे रहने वाले इन समुदायों को अपने पूर्वजों से विरासत में कहानियां, सांस्कृतिक परंपराएं, संगीत, मौखिक इतिहास की विधाएं मिली है, जिसे उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है। इसमें नदियों और उनके आसपास के परिदृश्य और पारिस्थितिकी से जुड़ी गहन ज्ञान प्रणालियां भी शामिल हैं। इनसे नदी तंत्र को समझने के लिए ऐतिहासिक और प्रासंगिक नजरिया मिलता है। दूसरी तरफ, प्रकृति के अधिक करीब होने के चलते, ये समुदाय जलवायु में आ रहे बदलाव के भी गवाह रहे हैं। इनकी वास्तुकला, खेतीबाड़ी की विविधता, पोषण के वैकल्पिक स्रोत, व्यापार के तरीके और उपभोग की शैली जैसी तमाम चीजें इनके प्राकृतिक वातावरण और कठिन मौसम के प्रति अनुकूल होने की क्षमता से गहराई से जुड़ी हुई हैं। तेजी से बदलती जलवायु के दौर में यह पारंपरिक ज्ञान हमें जलवायु अनुकूलन और सहनशीलता (रेसिलिएंस) के स्थाई समाधान खोजने में मददगार साबित हो सकता है, जो आज के समय की बड़ी जरूरत है।

साल 2023 में, इस इतिहास और ज्ञान के दस्तावेजीकरण के लिए मैंने और डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता देबाशीष नंदी ने मिलकर द रिवर प्रोजेक्ट (टीआरपी) की शुरूआत की। टीआरपी एक इंटरैक्टिव मल्टीमीडिया आर्काइव है, जो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों जगह उपलब्ध है। यह एक सहभागी पहल है, जिसमें फिल्म निर्माताओं, कलाकारों, चरवाहों, किसानों और मछुआरों ने मिलकर फिल्मों, मौखिक कहानियों, तस्वीरों और बच्चों की पिक्चर-बुक्स के जरिए कहानियों का एक बहुभाषी संग्रह तैयार किया गया है। इस प्रोजेक्ट की मूल अवधारणा यह थी कि ध्वनि (साउंड) और छवियां (इमेज) एक खास दौर की अभिव्यक्तियों का सशक्त दस्तावेज बन सकती हैं। इसके माध्यम से औपनिवेशिक दृष्टिकोण से हटकर इतिहास का एक वैकल्पिक आख्यान प्रस्तुत किया जा सकता है.

यह लेख लोगों के आर्काइव को तैयार करने की हमारी यात्रा, उसमें अपनाई गई सहभागी प्रक्रिया, और रास्ते में आई चुनौतियों का विस्तार से वर्णन करता है।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

एक सहभागी निर्माण की प्रक्रिया

इस प्रोजेक्ट में मेरे और देबाशीष के पास एक कहानी को अलग-अलग विधाओं में कहने की तकनीकी विशेषज्ञता है। वहीं, समुदाय के लोग सह-निर्माता की भूमिका निभाते हुए हमारा मार्गदर्शन करते हैं। वे नदियों को समझने, कहानियों को गढ़ने और ध्वनि व छवियों को पहचानने और रिकार्ड करने में हमारा साथ देते हैं। आर्काइव में जाने से पहले हर कहानी के अंतिम स्वरूप पर हम सभी की सहमति जरूरी होती है।

कहानियों को अंतिम रूप देने की हमारी प्रक्रिया लगातार बदल रही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सहभागी प्रक्रियाओं में अक्सर शक्तियों (पावर) और विशेषाधिकारों (प्रिविलेज) का असंतुलन मौजूद होता है। यहां पर आप रटे-रटाए तरीकों से काम नहीं कर सकते हैं। ऐसे में, हमारे सह-निर्माताओं और उनके परिवारों को जानना और उन्हें अपने बारे में खुलकर बताना, ताकि वे भी हमें जान सकें, हमारे लिए कारगर रहा। इससे हमारे बीच भरोसे और दोस्ती का रिश्ता बना। आमतौर पर रिसर्च और डॉक्युमेंटेशन के दौरान आपके अंदर अलगाव की भावना आ सकती है, जिसमें आप लोगों और चीज़ों को दूर बैठे बस रिकॉर्ड करते रहते हैं। अंग्रेजी में इसे ‘फ्लाई-ऑन-द-वॉल’ स्टाइल भी बोला जाता है। यानी दीवार पर बैठी किसी मक्खी की तरह सब देखते-सुनते जाना। लेकिन एक सहभागी प्रक्रिया में इसकी कोई जगह नहीं होती।

तीस्ता नदी पर बनाया गया बांस का पुल— नदियों का इतिहास
जून 2024 में, जब भूस्खलन के कारण तीस्ता नदी पर बना संकालंग बेली पुल ढह गया, तो लेप्चाओं ने पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों का उपयोग करके बांस का पुल बनाया। | चित्र साभार: देबाशीष नंदी

इसके अलावा सभी की दिनचर्या और समय एक समान नहीं चलते। इसलिए हम समुदाय के लोगों की उपलब्धता, बाहरी परिस्थितियों (जैसे प्राकृतिक आपदा या मानव-वन्यजीव संघर्ष) और अपनी पेशेवर व्यस्तताओं को ध्यान में रखते हुए अपने काम की गति को धीमा भी करते हैं और एक कहानी पर बार-बार लौटते भी हैं। कई बार एक कहानी को एडिटिंग तक पहुंचने से पहले महज एक फुटेज की तरह साल भर का इंतजार करना पड़ता है एक बार एडिटिंग शुरू होती है, तो कहानी में कई बदलाव और सुधार होते रहते हैं। हम नियमित रूप से इस बात पर चर्चा करते रहते हैं कि कहानी को दर्ज करने वाला व्यक्ति (डॉक्यूमेंटर) उसे किस दिशा में आगे बढ़ाना चाहता है। हर व्यक्ति में अलग-अलग कौशल होते हैं। काम के दौरान इसे ध्यान में रखते हुए ही बातचीत का तरीका, उसे फिल्माने और रिकॉर्ड करने का का माध्यम और यात्रा आदि से जुड़ी बातें तय की जाती हैं।

हमारा द्विभाषी (अंग्रेजी और समुदाय द्वारा बोली जाने वाली भाषा में) ऑनलाइन आर्काइव एक वेबसाइट के रूप में उपलब्ध है। इसके ऑफलाइन संस्करण को एंड्रायड डिवाइसों के लिए एक एप्प की तरह डिजाइन किया गया है। हम जरूरत के मुताबिक टैबलेट्स और स्मार्टफोन भी उपलब्ध करवाते हैं। यह एप्प हमारे सह-निर्माताओं और समुदाय के उन लोगों के फोन पर इंस्टाल की गयी है, जो इसे देखना चाहते हैं। इसके अलावा यह एप्प असम के तेजपुर जिले के डिस्ट्रिक्ट म्यूजियम में एक इंस्टॉलेशन स्पेस में लगे टैबलेट पर भी मौजूद है, ताकि इसे बड़े दर्शक समूह तक पहुंचाया जा सके। साथ ही इसके कुछ भौतिक संस्करण भी तैयार किए गए हैं, जिनमें म्यूजियम इंस्टॉलेशन, कार्यशालाओं के दौरान बनाए गए नक्शे, चित्र, फोटोग्राफ और बच्चों की पिक्चर-बुक्स शामिल हैं।

हमारे सहयोगियों के बारे में

हमारे सहयोगी अरुणाचल प्रदेश, असम और सिक्किम में घूम-घूमकर कहानियों को संजोते हैं।

1. सियांग, दिबांग और ब्रह्मपुत्र के बीच के चरवाहे

धन बहादुर प्रधान असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर बहती दिबांग नदी के एक द्वीप पर भैंस पालन का काम करते हैं। वे खुटियों (चरवाहों के अस्थायी ठिकानों) में जीवनयापन से जुड़ी कहानियां इकट्ठी करते हैं। धन बहादुर पूरे साल फोटो, ऑडियो और वीडियो के जरिए मौसमी बदलावों को दर्ज करते हैं। इसमें उन द्वीपों का ब्यौरा भी शामिल है, जो (कभी-कभी मौसमी तौर पर या फिर स्थायी रूप से) जलमग्न हो जाते हैं। इसके अलावा, वे पारंपरिक प्रथाओं और उस भौगोलिक परिदृश्य से जुड़ी विलुप्त होती ध्वनियों को भी दर्ज करते हैं। वे उन कहानियों के लिए आवाजें भी रिकॉर्ड करते हैं, जो उन्हें अहम लगती हैं। साथ ही, वे अपने समुदाय के उन बुजुर्गों के अनुभव भी दर्ज करते हैं जिन्होंने अपने मवेशी बेच दिए हैं और अब काम करना छोड़ चुके हैं।

धन बहादुर ने हमारे साथ यात्रा कर सियांग, दिबांग और ब्रह्मपुत्र नदियों के किनारे बसे इलाकों में चरवाहों के प्रवासन मार्गों का मानचित्र तैयार करने में मदद की। इस दौरान उन्होंने असम और अरुणाचल प्रदेश में सियांग नदी के द्वीपों पर रहने वाले मिसिंग समुदाय के अन्य अर्ध-घुमंतू चरवाहों से मिलकर उनकी कहानियों को भी दर्ज किया। इस प्रक्रिया के दौरान, धन बहादुर ने इन समुदायों को ऑफलाइन आर्काइव के बारे में बताया और इस पर चर्चा की। वे नियमित रूप से वर्कशॉप में हिस्सा लेने, आर्काइव में अपनी कहानियां दर्ज करवाने, असमिया में बच्चों के लिए पिक्चर-बुक तैयार करने और ऊपरी इलाकों से आने वाले अन्य समुदायों के युवा कहानीकारों को मार्गदर्शन देने के लिए हमारे तेजपुर स्थित दफ्तर आते रहते हैं।

2. तेजपुर के बच्चों के लिए नई यादें

असम के तेजपुर में कोलीबाड़ी मछुआरा गांव के जीब दास फोटोग्राफी और साक्षात्कारों के जरिए अपने गांव का इतिहास दर्ज करते हैं, जिन्हें मैं और देबाशीष फिल्माते हैं। उनका यह दस्तावेजीकरण फिल्म और फोटोग्राफी के माध्यमों से आगे जाकर गांव के लोगों, खासकर महिलाओं और बच्चों, के साथ मिलकर सामूहिक रूप से तैयार होता है।

शुरूआती दौर में, वर्कशॉप को डिजाइन करने के लिए हमने जीब दास के साथ कई बार बातचीत ताकि इसकी जरूरत और इसमें भाग लेने वाले बच्चों की क्षेत्र-विशिष्ट जानकारी को सही तरह से समझा जा सके। इस सहयोगी पहल के पीछे दो वजहें थीं: पहली, बच्चों की यादों को कला के जरिए अभिव्यक्त होने देना, जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य और अपनी पहचान को लेकर उनकी समझ का अंदाजा मिल सके। दूसरा, तेजपुर और उसके आसपास के सार्वजनिक स्थलों में पहुंच (एक्सेस) के मायने और आत्मबोध के मतलब को जानना।

चित्रकारी करते बच्चे—नदियों का इतिहास
तेजपुर और ब्रह्मपुत्र के मानचित्र पर अपनी यादें और रोजमर्रा की कहानियां उकेरते बच्चे। | चित्र साभार: द रिवर प्रोजेक्ट

इसका एक उद्देश्य यह भी था कि प्रतिभागी जिन जगहों पर पहले कभी नहीं गए, वहां नई यादें कैसे बना सकते हैं। हमने इस सोच के साथ अपने सहयोगी अभिलाष राजखोवा, जो सोनितपुर जिला संग्रहालय के संग्रहालय अधिकारी हैं, से संपर्क किया। हमने उनके समक्ष संग्रहालय में वर्कशॉप करने और बच्चों को तेजपुर की हेरिटेज वॉक पर ले जाने का प्रस्ताव रखा। ऐसा इसलिए, ताकि बच्चे संग्रहालय और वो अन्य जगहें देख सकें जहां वे आमतौर पर नहीं जा पाते हैं।

यह पहल अब एक लंबे जुड़ाव में बदल चुकी है, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ रविराज शेट्टी और डॉ अदिति ब्रह्मभट्ट, द रिवर प्रोजेक्ट और कोलीबाड़ी के बुजुर्ग शामिल हैं। जीब दास इन वर्कशॉप्स के डिजाइन और सह-संचालन में मदद करते हैं। इन वर्कशॉप्स के दौरान बच्चों ने मिलकर तेजपुर और ब्रह्मपुत्र नदी का एक नक्शा भी तैयार किया है, जिसमें उन्होंने अपनी यादें और रोजमर्रा की कहानियां भी उकेरी हैं।

3. सिक्किम में जलवायु परिवर्तन का कल और आज

उत्तर सिक्किम की जोंगू घाटी में नदी कार्यकर्ता ग्यात्सो टोंगदेन लेप्चा, लेप्चा समुदाय के मौखिक इतिहास को आज के जलवायु परिवर्तन से जुड़ी कहानियों के साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि इस समय के अनुभवों का एक समकालीन दस्तावेज तैयार किया जा सके।

इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमने जोंगू के लिए ऑफलाइन आर्काइव का एक विशेष डिजाइन तैयार किया है। फिलहाल हम जोंगू के लिए एक विशेष ऑफलाइन संस्करण विकसित कर रहे हैं, जिसमें घाटी के सभी गांवों और वहां बहने वाली नदियों का मानचित्रण किया जा रहा है। यह द्विभाषी (लेप्चा–अंग्रेज़ी) आर्काइव मौखिक इतिहास, लोककथाओं, सांस्कृतिक रीति-रिवाज और पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों का संग्रह होगा। इनके साथ-साथ ये हर गांव से जुड़ी वर्तमान घटनाओं और बदलाव की कहानियों को भी दर्ज करेगा। इस तरह, यह संग्रह इस समय के बदलते पर्यावरणीय और सामाजिक संदर्भ को एक साथ पकड़ने का प्रयास है।

एक बार शुरूआती डिजाइन तैयार हो जाने के बाद ग्यात्सो ने हमें पूरे इलाके का भ्रमण करवाया और वहां के निवासियों से मुलाकात करवाई। हमने जाना कि हर गांव का इतिहास अलग होता है और केवल वहां रहने वाले ही यह तय करते हैं कि क्या साझा किया जाए। ग्यात्सो पहले से तय विषयों पर ऑडियो और वीडियो कहानियां भी रिकॉर्ड करते हैं। इसके अलावा, वे लोगों से होने वाली बातचीत को सुगम बनाते हैं, जिससे हमें उनके समुदाय के उस संघर्ष की गहरी समझ मिलती है जो वे अपनी जमीन बचाने के लिए कर रहे हैं। 

सह-निर्माण में चुनौतियां

जैसा कि किसी भी सहयोगात्मक परियोजना (कोलैबोरेशन प्रोजेक्ट) में अपेक्षित होता है, खासतौर पर जब वह भौगोलिक रूप से दुर्गम इलाकों में हो, हमें कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हमारे सामने कई तरह की चुनौतियां आती हैं, जैसे:

1. निरंतर बदलता मौसम

हमारे सहयोगी जिन समुदायों से आते हैं, वे ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां जलवायु परिवर्तन का गहरा प्रभाव पड़ता है। यहां मौसम लगातार अनिश्चित होता जा रहा है, मानव-वन्यजीव संघर्ष घातक दर से बढ़ रहे हैं और प्राकृतिक आपदाओं के कारण कई बार बहुत से इलाकों में जाना खतरनाक या लगभग असंभव होने लगा है। बरसात के महीनों में कुछ भी फिल्माना हमारे लिए ही नहीं, बल्कि हमारे सहयोगियों के लिए भी चुनौतीपूर्ण होता है, क्योंकि इस समय वे जान-माल के नुकसान से जूझ रहे होते हैं।

उदाहरण के लिए, साल 2024 की गर्मियों में ऊपरी असम में दिबांग और लुइत नदियों में आई बाढ़ के कारण उस नदी द्वीप पर पानी भर गया था, जहां धन बहादुर की खुटी (चरवाहों का ठिकाना) स्थित थी। कई दिनों तक धन बहादुर और उनके साथी चरवाहे खुटी के भीतर ही फंसे रहे। उनके लिए बाहर निकलना भी संभव नहीं था। इस बाढ़ के बाद असम भयानक लू की चपेट में आ गया, जिससे इतनी तेज गर्मी पड़ी कि भैंसों को चराना मुश्किल हो गया। इसके अलावा, उस इलाके में कोई स्वास्थ्य सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी। ऐसे में हमने फिल्मांकन का काम रोक दिया था, ताकि धन बहादुर और उनके साथी चरवाहे अतिरिक्त दबाव में आए बगैर अपने रोजमर्रा के जरूरी काम कर सकें।

 2. डिजाइन की सुलभता

तकनीक के तेजी से विकसित होने के साथ एक और बड़ी चुनौती यह है कि हम न केवल अपटुडेट रहें, बल्कि इस प्रक्रिया में पहुंच (एक्सेस), स्वामित्व, डेटा अधिकार, साक्षरता, उम्र और जेंडर जैसी चुनौतियों को भी समझें और उनके समाधान निकालें। डिजिटल मंचों को कहानियों को कहने, सहेजने और साझा करने के एक साधन की तरह इस्तेमाल करते हुए यह ध्यान रखना और भी जरूरी हो जाता है।

पानी के किनारे खाली मैदान में घूमते मवेशी— नदियों का इतिहास
फरवरी में दिबांग और लुइट नदियों के सूखे नदी-तल। सर्दियों के महीनों में, भैंसें और उनके चरवाहे घास के मैदानों की तलाश में अपने द्वीप से 7-8 किलोमीटर दूर नदी-तल में जाते हैं। | चित्र साभार: धन बहादुर प्रधान

काम के दौरान छोटी और मामूली सी लगने वाली बातों, जैसे कि ऐप्लिकेशन में किस आइकन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, के लिए भी हमें समुदाय के अपने साथियों के साथ बीटा-टेस्टिंग करनी पड़ी। हमने सीखाकि आइकनों के मायने हर जगह एक से नहीं होते। ऐसे में हर समुदाय को समझ में आने वाले सेट तैयार करने की कोशिश ने एक निरंतर प्रक्रिया का रूप ले लिया । उदाहरण के लिए, असम में जब हम ‘भोजन’ को दर्शाने वाले आइकन की तलाश कर रहे थे, तो यह स्पष्ट हुआ कि लकड़ी के चूल्हे पर रखे वोक (गहरे तले वाली कढ़ाई) की तस्वीर, फ्राइंग पैन या शेफ की इमोजी की तुलना में अधिक उपयुक्त होगी। इसी तरह, ‘काम’ के लिए लैपटॉप की बजाय हथौड़े का चित्र ज्यादा सही था। ‘वास्तुकला’ को दर्शाने के लिए सीमेंट के मकान की बजाय फूस की झोपड़ी का आइकन चुना गया। ‘प्रवास’ को दिखाने के लिए सड़क के चित्र का इस्तेमाल किया गया, न कि विमान या ट्रेन का। जोंगू के ऑफलाइन आर्काइव संस्करण के लिए भी आइकन इसी तरह सांस्कृतिक प्रतीकों को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किए जा रहे हैं।

3. कहानीकारों का मानसिक दबाव

मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़े संसाधनों की कमी और समुदाय के लोगों को अपनी कहानियां खुद दर्ज करने में सक्षम बनाने वाले प्रशिक्षण का न होना, दो ऐसी चुनौतियां है जिनका हम लगातार सामना कर रहे हैं। दस्तावेजीकरण करने वाले हमारे ज्यादातर साथी ऐसे समुदायों से आते हैं, जो दुर्गम और सुदूर इलाकों में रहने के कारण अक्सर सामाजिक विमर्श से दूर होते हैं। यहां आमतौर पर बुनियादी ढांचा भी मौजूद नहीं होता है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को याद रखने, दोहराने और साझा करने की प्रक्रिया में जो बात अक्सर नजरअंदाज हो जाती है, वह है पारिस्थितिक शोक (इकलॉजिकल ग्रीफ) का मानसिक प्रभाव, जिसमें एक गहरे अलगाव और ‘पराएपन’ की भावना शामिल होती है। उदाहरण के लिए, खुटी, जो कभी एक फलता-फूलता डेयरी व्यवसाय था, वहां अब कुछ ही चरवाहे रह गए हैं जो नदी के द्वीपों में अलग-थलग रहकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। इन चरवाहों का कौशल पूरी तरह से उस वन-परिदृश्य से जुड़ा होता है, जिसमें वे रहते है और यह चारों ओर से नदियों से घिरा होता है। उनकी सामाजिक व्यवस्थाएं भी इसी जीवनशैली के मुताबिक बनी थीं, जो गांवों और कस्बों से दूर खुली जगहों में रहने की शैली थी।

आज ज्यादातर लोगों को गांवों में बसना पड़ रहा है और आजीविका के लिए नए कौशल सीखने पड़ रहे हैं। उनका पेशे से जुड़ा आत्मबोध और पहचान अब पहले जैसे नहीं रह गए हैं। इसी तरह, कोलीबाड़ी में भी अधिकतर मछुआरों को अब मछली पकड़ने का काम छोड़कर कृषि या इससे जुड़े अन्य काम करने पड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि संसाधन कम होते जा रहे हैं, मिट्टी का क्षरण नदी के बहाव को बदल रहा है और युवा पीढ़ी की आकांक्षाएं पारंपरिक मत्स्य व्यवसाय से दूर होती जा रही हैं।

आज यह जरूरी हो गया है कि हम इतिहास को दर्ज करने और फिर से गढ़ने के वैकल्पिक तरीके खोजें, ताकि एक नया कथानक (नैरेटिव)अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण हो। इसी दिशा में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों, इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और अन्य विशेषज्ञों के जरिए विविध क्षेत्रों का मिलकर काम करना भी महत्वपूर्ण है, ताकि इस नाजुक होती दुनिया में सहनशीलता और अनुकूलनशीलता विकसित की जा सके।

दस्तावेजीकरण और अभिलेखीकरण की इस प्रक्रिया में पीढ़ियों से चली आ रही कहानियां और लोगों के रोजमर्रा के साधारण जीवन में बसी स्मृतियां बार-बार नए सिरे से गढ़ी जाती हैं। जैसे-जैसे व्यक्तिगत और सामूहिक स्मृतियां दोहराई और साझा की जाती हैं, ये कहानियां भी बदलती हैं और विकसित होती जाती हैं। यही प्रक्रिया पहचान और निरंतरता की भावना को बनाए रखती है। हमारी आशा है कि आने वाले वर्षों में द रिवर प्रोजेक्ट पूर्वोत्तर भारत की नदियों का ऐसा दस्तावेज बन पाएगा, जिसे इन नदियों के किनारे रहने वाले लोगों ने खुद तैयार किया हो और जो सबके लिए सुलभ हो।

जीब दास, धन बहादुर प्रधान, और ग्यात्सो टोंगदेन लेपचा द रिवर प्रोजेक्ट के सह-निर्माता हैं।

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लेखक के बारे में
वंदना मेनन-Image
वंदना मेनन

वंदना मेनन द रिवर प्रोजेक्ट की संस्थापक-निदेशकों में से एक हैं। वे बेंगलुरु और तेज़पुर में कार्यरत एक फिल्म निर्माता और कई विधाओं में माहिर विजुअल स्टोरीटेलर हैं। उनका काम नॉन-फिक्शन फिल्मों से लेकर इमर्सिव इंस्टॉलेशंस तक फैला हुआ है, और वे वीडियो, साउंड व प्रोजेक्शन मैपिंग जैसे माध्यमों में सक्रिय हैं। दक्षिण एशिया के अलावा लंदन, इस्तांबुल और जर्मनी में उन्होंने फिल्म निर्माताओं, नाटककारों, संगीतकारों और नृत्यकारों के साथ कई मल्टीडिसीप्लीनरी कोलैबोरेशन किए हैं। उनका काम मौखिक इतिहास, कला और संस्कृति, और अधिकार आधारित पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों को गहराई से छूता है।

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