November 26, 2024

जलवायु संकट से निपटने के वे उपाय कौन से हैं, जो सीमांत किसान सुझाते हैं

ब्रिजस्पैन की एक रिपोर्ट जो बताती है कि कैसे देश के सीमांत किसान जिनमें मुख्यरूप से आदिवासी, दलित और महिला किसान शामिल हैं, जलवायु संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
5 मिनट लंबा लेख

कर्नाटक के बागेपल्ली गांव के शिवप्पा एक सीमांत किसान हैं जो तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के मुताबिक ढलने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। कई पीढ़ियों से उनका परिवार आधे हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती कर अपना भरण-पोषण करता रहा है। लेकिन अब मानसून का सही पूर्वानुमान लगा पाना मुश्किल होता जा रहा है, बारिश या तो बहुत देर से होती है या बहुत जल्दी हो जाती है। लंबे समय तक सूखे जैसे हालात के कारण कभी जमीन सूख जाती है और फिर बारिश आने के साथ बाढ़ आ जाती है। भूजल भी लगातार कम होता जा रहा है। इसके चलते उन्हें अपने कुओं को और गहरे खोदना पड़ा जिसका खर्च उठाने के लिए वे कर्ज लेने पर भी मजबूर हुए। कीट और बीमारियां भी फसलों को कमजोर कर देती हैं। हमेशा से आत्मनिर्भर रहा उनका परिवार अब आर्थिक संकटों और खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहा है।

शिवप्पा जैसे सीमांत किसान – जो एक हेक्टेयर से कम जमीन पर खेती करते हैं – भारत के कृषि क्षेत्र को सशक्त बनाते हैं और किसान समुदाय का लगभग 70% हिस्सा हैं। फिर भी, दस करोड़ लोगों का यह समुदाय आर्थिक और सामाजिक संकेतकों पर खराब प्रदर्शन कर रहा है और जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित है। बार-बार आने वाली लू (हीट वेव), सूखा, अनियमित बारिश और बाढ़ जैसी आपदाएं, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बिगाड़ती हैं और किसानों के लिए खेती करना दिन पर दिन अधिक चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। इससे वे किसान सबसे अधिक प्रभावित होते हैं जिनके पास जमीन और अनुकूलन उपायों पर खर्चने के लिए धन कम है। असल में, जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले कई देशों के सरकारों के दल (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज-आईपीसीसी) ने पाया है कि भारत, खेती के लिहाज से जलवायु जोखिमों के मामले में पूरे एशिया में सबसे कमजोर स्थिति में है।

जलवायु अनुकूलन (अडाप्टेशन) तत्काल किया जाना क्यों जरूरी है?

कई अध्ययन सुझाते हैं कि अनुकूलन उपायों के बगैर, प्रमुख फसलों की पैदावार में काफी गिरावट आ सकती है। इससे किसानों की आजीविका के साथ-साथ, देश की खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है। वैसे तो सरकार ने अनुकूलन प्रयासों के लिए एक बड़ी रकम – 2024 से 2030 के लिए 57 लाख करोड़ रुपये – तय की है। लेकिन पिछले कुछ सालों में जलवायु परिवर्तन के लिए नेशनल अडाप्टेशन फंड को दिया जाना वाला धन लगातार और तेजी से कम हुआ है। यह फंड स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु से जुड़ी चुनौतियों से निपटने की परियोजनाओं को जारी रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें गिरावट कुछ इस तरह है कि साल 2015-16 में जो रकम 118 करोड़ रुपए थी, वह 2022-23 में घटकर लगभग 20 करोड़ रुपए रह गई है। देश के सामने आई इस भीषण अनुकूलन चुनौती से निपटने के लिए न केवल सरकारी मदद चाहिए बल्कि निजी वित्तीय प्रयास (फिलैन्थ्रपी और निवेश दोनों के जरिए) भी किए जाने की जरूरत है।

अनुकूलन के लिए जरूरी यह धन, कृषि समुदायों की आजीविका को मजबूत करने और जलवायु संकट से निपटने में सक्षम बनाने की दिशा में कैसे जा सकता है? यह समझने के लिए हमने हाल ही में, एचएसबीसी इंडिया के सहयोग से आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में लगभग 800 किसानों और 150 खेतिहर मजदूरों का सर्वेक्षण और गहन साक्षात्कार करने के साथ-साथ इलाके का दौरा कर एक अध्ययन किया है। इन राज्यों को एग्रोइकोलॉजिकल जोन्स, इलाके में उगाई जाने वाली फसलों और जलवायु से जुड़े खतरों के अलग-अलग संयोजन सुनिश्चित करने के लिए चुना गया था। अध्ययन में वंचित तबकों जैसे महिलाओं, दलित और आदिवासी समुदाय के सदस्यों पर ध्यान केंद्रित किया गया।

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सर्वेक्षण में शामिल 98% किसानों का कहना था कि उन्होंने पिछले 10 सालों में जलवायु से जुड़े खतरों का अनुभव किया है। कई सीमांत किसान, परिवार के उपयोग के लिए फसल उपजाते हैं और बचा हुआ अनाज बेच देते हैं। हमने जिनसे बात की उनमें से 79% किसान सालाना 40,000 रुपये से कम कमाते हैं, जो लगभग चार लोगों के परिवार के लिए गरीबी रेखा के बराबर है। केवल 16% ही इतना कमाते हैं कि वे अपने घरेलू खर्चों को पूरा कर सकें और उनके पास बचत हो। सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वालों का एक बड़ा हिस्सा अन्य कामों जैसे जानवर पालने, पशु उत्पाद बेचने और कभी-कभी मिलने वाले श्रम कार्य से अपनी कमाई पूरी करते हैं। इस दौरान केवल 15% किसानों और 13% खेतिहर मजदूरों ने आय का कोई अन्य जरिया ना होने की बात कही है।

आदिवासी और दलित किसानों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

सर्वेक्षण के दौरान अपनी आय बहुत कम (40,000 रुपये या उससे कम) बताने वालों में आदिवासी और दलित समुदाय के लोग अधिक थे। आदिवासी और दलित समुदाय से आने वाले किसानों और श्रमिकों ने बताया कि उनके पास ग्राम पंचायत, किसान समूह, स्वयं सहायता समूह या सरकारी सहायता प्राप्त कार्यक्रम तक पहुंच जैसी कोई सहायता प्रणाली नहीं है। कम बचत और संपत्ति के साथ, ये किसान निर्वाह-स्तर की खपत पर निर्भर हैं और इनके सामने स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े जोखिम भी अधिक होते हैं। जब जलवायु आपदाओं के चलते इनकी आजीविका छिन जाती है तो परिवार अक्सर भोजन में कटौती करते हैं, बच्चों (खासकर लड़कियों) को स्कूल से निकाल लेते हैं, उत्पादक परिसंपत्ति (सोना, घर, जमीन, बचत बॉन्ड वगैरह) बेच देते हैं, या ऐसे ही अन्य नकारात्मक समाधान अपनाते हैं।

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हमेशा से आत्मनिर्भर रहे परिवार अब आर्थिक संकटों और खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे है। | ब्रिजस्पैन/शिखा कुमार

उनके सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में विस्तार से पूछे जाने पर, सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वालों ने जलवायु-संबंधी समस्याओं की पहचान की, जो सामाजिक-आर्थिक और प्रणालीगत चुनौतियों के साथ मिलकर, उनके लिए जोखिम और बढ़ा देती हैं। एक मुद्दा जिसका सबसे अधिक जिक्र किया गया वह कीटों और बीमारियों के बढ़ने का था, इसके बाद जल संकट दूसरे नंबर पर था। इसके अलावा मिट्टी की उर्वरता में कमी, मुश्किल से या ना मिल सकने वाले खेती के संसाधन और फसल की कम कीमतें भी प्रमुख मुद्दों में शामिल रहा। ज्यादातर लोगों का कहना था कि खेती से जुड़े उनके फैसलों जिनमें बीज की किस्में बदलना, काम के घंटे और खेती के तरीके बदलना शामिल है, सभी पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ा है।

सर्वेक्षण में शामिल किसानों के पास, पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय संदर्भों की समझ है और वे यह भी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन से उनके खेती के तरीकों में बदलाव आ रहा है। लेकिन अनुकूलन की जरूरत कहां पर है, यह बात अच्छी तरह से जानने के बाद भी उनके जीवन को प्रभावित करने वाले फैसलों और समाधानों से उन्हें बाहर रखा जाता है। सीमांत किसानों के पास कम आर्थिक संपत्ति होती है जिस पर वे निर्भर हो सकें, और सामाजिक सहयोग हमेशा उन तक नहीं पहुंच पाता है। उदाहरण के लिए, अनेक किसानों के पास अपनी भूमि का स्वामित्व नहीं है  लेकिन सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए जमीन का मालिकाना हक जरूरी है। यह किराए की जमीन पर खेती करने वाले किसानों, भूमिहीन खेत मजदूरों और उन सभी को अयोग्य घोषित करती हैं, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है।

किसान क्या समाधान सुझा रहे हैं?

यह जरूरी है कि अनुकूलन में निवेश, स्थानीय समुदायों की समझ और प्राथमिकताओं के अनुसार हो, इस मामले में एक समाधान सभी के लिए कारगर नहीं हो सकता है। हमारे सर्वेक्षण के एक हिस्से के तौर पर, हमने समुदायों से जलवायु चुनौतियों से निपटने के संभावित समाधानों के बारे में बात की। उन्होंने यह कुछ सुझाव दिए हैं और हमारा मानना है कि अगर सरकार और निजी फंडर्स अपना निवेश बढ़ाते हैं तो यह उपयोगी साबित हो सकते हैं:

  • खेती के प्राकृतिक तरीकों की ओर बढ़ने में मदद करना जैसे गाय के गोबर, घासपात या पलवार वाला (मल्च्ड) बायोमास और मिट्टी की नमी बचाने वाली फसलों (कवर क्रॉप) के साथ मिट्टी को समृद्ध करना। एक की बजाय कई फसलें लगाना और अगली फसल के लिए बीज इकट्ठा करना। इन तरीकों के जलवायु से जुड़े फायदे हैं क्योंकि इनसे जल संरक्षण होता है और मिट्टी में कार्बन भंडारण बढ़ाता है। फिलैंथ्रॉपी से किसानों के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की गतिविधियां की जा सकती हैं। साथ ही, इन उपायों को जमीन पर लागू करने के प्रयास और किसानों के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्थाओं को चलाने के खर्च भी उठाए जा सकते हैं।
  • किसान-उत्पादक संगठनों (एफपीओ) को लो-कोलैटरल कर्ज दिए जाएं, जो किसानों को सामूहिक रूप से आपूर्ति खरीदने, उपज बेचने और मुनाफा इकट्ठा करने में सक्षम बनाता है। ये कर्ज, किसान उत्पादक संगठनों को जलवायु लचीलापन (मौसमी बदलावों को झेलने की क्षमता) बढ़ाते हुए कृषि उत्पादकता और आय बढ़ाने के लिए जल स्रोत (जैसे, खेत तालाब, सामान्य कुएं, बांध) विकसित करने या सामुदायिक पशु-पालन संसाधनों (जैसे, आश्रय, चारा भंडारण) में निवेश करने में मदद कर सकते हैं।
  • जलवायु-लचीली यानि मौसमी बदलावों को झेलने में सक्षम फसलों के लिए एफपीओ द्वारा संचालित बीज बैंकों का समर्थन करें जो स्थानीय हालातों और सांस्कृतिक मानदंडों के लिए उपयुक्त हों। फिलैंथ्रॉपी या इम्पैक्ट-फर्स्ट निवेशक, किसान उत्पादक संगठनों को जलवायु सहज बीजों को इकट्ठा करने, उन्हें वितरित करने और उनकी खेती के तरीकों का प्रसार करने में मदद कर सकते हैं। इसके साथ, वे कार्यान्वयन (जमीन पर कार्यक्रम लागू करने वाले) भागीदारों और समाजसेवी संगठनों के संचालन खर्च में भी मदद कर सकते हैं।
  • उच्च मार्जिन वाली फसलों को बाजार में लाने में एफपीओ का समर्थन करें, उन्हें कर्ज हासिल करने और वह क्षमता बनाने में मदद करें कि वे सप्लाई चेन में मूल्य वर्धित सेवाएं (वैल्यू ऐडेड सर्विसेस) दे सकें। उच्च मार्जिन वाली फसलों की तरफ बढ़ रहे किसानों को न केवल खाद वगैरह को लेकर मदद की जरूरत होती है बल्कि नए तरीकों तक पहुंच हासिल करने में भी मदद चाहिए होती है; आउटरीच (पहुंच बढ़ाने) और प्रशिक्षण में एफपीओ, कार्यान्वयन भागीदार और समाजसेवी संगठन मदद कर सकते हैं।
  • जब मौसम एक खास चरम पर जाता दिखे तो तत्काल भुगतान शुरू करें, बीमा प्रीमियम पर सब्सिडी देकर, बीमाकर्ताओं के लिए जोखिम मानकर, अनुसंधान एवं विकास, डेटा संग्रह और मौसम की निगरानी जैसे प्रयासों से यह किया जा सकता है। यह पारंपरिक फसल हानि बीमा की कमियों को दूर करेगा जहां भुगतान नुकसान की सीमा पर निर्भर करता है और आपदा के बाद लंबे समय तक प्राप्त नहीं होता है। इस तरह के बीमा से विशेष रूप से महिला, दलित और आदिवासी किसानों और मजदूरों को फायदा होगा, जिनके पास जमीन नहीं है।
  • लोन डिफॉल्ट के जोखिम को कम करके सूक्ष्म-कृषि उद्यमों के लिए कर्जों तक पहुंच बढ़ाना। किसानों को बड़े कमर्शियल लोन और क्षमता-निर्माण सहायता के जरिए पूंजी तक सीधी पहुंच मिल सकती है। यह उन्हें कृषि उत्पादों (जैसे, खाद, उपकरण और पूंजी) तक पहुंच प्रदान करेगी, साथ ही ग्रामीण मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करेगी और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगी।

इनमें से कुछ समाधान पहले से ही देश के विभिन्न हिस्सों में समाजसेवी संगठनों द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे हैं, लेकिन कई छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों तक पहुंचने के लिए इन्हें और बढ़ाया जा सकता है। समाजसेवी समुदाय (फिलैंथ्रॉपिस्ट) और इन्पैक्ट फर्स्ट निवेशकों द्वारा उत्प्रेरक निवेश, नवाचारों को बढ़ावा दे सकते हैं, सबूत तैयार कर सकते हैं, जोखिमों को कवर कर सकते हैं और अधिक लोगों को भाग लेने के लिए एक सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) का निर्माण कर सकते हैं। उनके सहयोगात्मक प्रयास, सरकारी योजनाओं और बैंकों द्वारा दी जाने वाली पूंजी तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं और संकटग्रस्त किसान समुदायों को फिर से जलवायु परिवर्तन से होने वाली चुनौतियों के लिए तैयार कर सकते हैं।

ब्रिजस्पैन की पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें।

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  • पढ़िए सीमांत किसानों के लिए खेती को सहज कैसे बनाया जा सकता है?
  • जानें जलवायु अनुकूल खेती कैसे की जा सकती है?

लेखक के बारे में
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अनंत भगवती

अनंत भगवती ब्रिजस्पैन इंडिया में एक भागीदार हैं। इससे पहले, वे दसरा में क्षमता निर्माण और विशेषज्ञता के निदेशक थे। यहां उनका काम रणनीतिक फिलैंथ्रॉपी, संस्थानों के निर्माण और प्रवासी श्रमिकों के लिए सामाजिक अनुबंध सहयोग तैयार करने पर केंद्रित था।

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ऋषभ तोमर

ऋषभ ब्रिजस्पैन के मुंबई कार्यालय में सीनियर मैनेजर हैं। उन्होंने शिक्षा और एड-टेक, स्वास्थ्य सेवा, कौशल और ग्रामीण आजीविका, जलवायु और ऊर्जा, भूमि अधिकार और शहरी प्रशासन जैसे क्षेत्रों में फंडर्स और समाजसेवी संगठनों दोनों के साथ, रणनीतिक सलाहकार और संचालन मॉडल सहभागिता को लेकर बड़े पैमाने पर काम किया है।

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