November 4, 2024

रोहिंग्या संकट में नागरिक समाज संगठन कैसे मदद कर सकते हैं?

भारत में रोहिंग्या समुदाय को उनके अधिकारों से वंचित किया गया है, वे विस्थापित हैं और अदृश्य कर दिए गए हैं। नागरिक समाज उन्हें एक गरिमामय जीवन तक पहुंचने में कैसे मदद कर सकता है?
13 मिनट लंबा लेख

म्यांमार के मुस्लिम अल्पसंख्यक, रोहिंग्या समुदाय ने अपने देश में दशकों से उत्पीड़न और हिंसा का सामना किया है। इसके चलते बड़े पैमाने पर उनका पलायन हुआ है – खासतौर पर बांग्लादेश की ओर, और कुछ कम ही सही पर भारत, मलेशिया, थाईलैंड में भी। इसके अलावा दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे हिस्सों में भी रोहिंग्या शरणार्थी पहुंचे हैं। भारत सरकार ने 2017 में बताया था कि देश में एक अनुमान के हिसाब से करीब 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी हैं। जटिल कानूनी चुनौतियों, गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, आर्थिक कठिनाइयों के साथ भविष्य के लिए अनिश्चितता के कारण देश में उनकी स्थिति अस्थिर बनी हुई है।

भारत में रह रहे रोहिंग्या समुदाय के लोगों को उनके कमजोर कानूनी दर्जे के कारण उत्पीड़ित किया जाता है, हिरासत में रखा जाता है और अक्सर उन्हें निर्वासन की स्थिति का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि नवंबर 2022 तक, 312 रोहिंग्या शरणार्थी इमिग्रेशन हिरासत केंद्रों में थे जिनमें से 263 जम्मू के हिरासत केंद्रों में और 22 दिल्ली के एक कल्याण केंद्र में थे। सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक 2017 से 2022 के बीच कम से कम 16 रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार वापस भेज दिया गया है। उत्पीड़न और निर्वासन के साथ ही उनके खिलाफ जेनोफोबिक (विदेशी नागरिकों को पसंद न किए जाने की) सोच प्रचारित की जा रही है। इसने रोहिंग्याओं को दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति में पहुंचा दिया है। उन्हें सीमित रोजगार के अवसरों, मानवाधिकार उल्लंघनों, खाद्य और शिक्षा जैसे सामाजिक अधिकारों की कमी, और खराब शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं जैसी दूसरी और भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

समुदाय के कुछ लोग वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और समाजसेवी संगठनों की मदद से इन चुनौतियों का समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, यह आसान काम नहीं है। हमने जमीनी स्तर पर काम कर रहे संगठनों और लोगों से बातचीत की, ताकि उनकी चुनौतियों को समझा जा सके, सफल कोशिशों को उजागर किया जा सके, और भविष्य में मध्यस्थता से जुड़े सुझाव दिए जा सके।

हिरासत, निर्वासन और कमजोर कानूनी पहचान

सबसे अहम बात कि भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन का हिस्सा नहीं है और यहां शरणार्थियों के लिए कोई मानक कानूनी ढांचा नहीं है। ऐसे में भारत में शरणार्थियों के साथ परिस्थितियों के मुताबिक व्यवहार किया जाता है। रोहिंग्याओं को औपचारिक शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया गया है और प्रशासन उन्हें ‘अवैध प्रवासी’ कहता है। श्रीलंका और तिब्बत जैसे देशों से आने वाले दूसरे शरणार्थी समूहों को गृह मंत्रालय से कुछ पहचान पत्र मिलते हैं जबकि रोहिंग्या यूएनएचसीआर की सुरक्षा के तहत आते हैं। यूएनएचसीआर के कार्ड उन्हें बुनियादी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में मदद करते हैं और हिरासत से कुछ हद तक सुरक्षा मुहैया करवाते हैं, हालांकि इनकी कानूनी वैधता तय नहीं है। साल 2023 में, एक रोहिंग्या व्यक्ति की हिरासत के मामले की सुनवाई के दौरान भारतीय सरकार ने अदालत में बताया कि भारत यूएनएचसीआर के शरणार्थी कार्ड को मान्यता नहीं देता है और इसलिए रोहिंग्याओं को देश में रहने का अधिकार नहीं है।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

हालांकि, कानूनी जानकारों का कहना है कि रोहिंग्याओं के साथ होने वाला किसी भी तरह का मानवाधिकार उल्लंघन, भारतीय संविधान में दर्ज जीवन के अधिकार के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्विस कहते हैं, “शरणार्थियों, जिनमें रोहिंग्या भी शामिल हैं, को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार निर्वासन से पूरी तरह से सुरक्षा मिली है, जो जीवन के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है। यह अनुच्छेद केवल देश के नागरिकों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत की सीमा के भीतर रहने वाले किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है। यदि हम रोहिंग्या जैसे किसी शरणार्थी को निर्वासित करते हैं, जिसे वापस जाने पर नुकसान का सामना करना पड़ सकता है तो इससे उसके जीवन के अधिकार का उल्लंघन होता है। राज्य को अपनी सीमा के भीतर मौजूद सभी व्यक्तियों की सुरक्षा करनी चाहिए। शरणार्थियों को वापस खतरे में निर्वासित करना स्वीकार्य नहीं है।”

लेकिन समुदाय की कठिनाइयां कम नहीं हो रही हैं। रोहिंग्या समुदाय की सैयदा* शिक्षिका और परामर्शदाता हैं। वे कहती हैं, “कभी-कभी मुझे भारत के दूसरे राज्यों के हिरासत केंद्रों में रखे गए लोगों के परेशान कर देने वाले कॉल आते हैं। बहुत से लोग कई सालों से इन केंद्रों में हैं। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें तब हिरासत में लिया गया जब वे इन केंद्रों में अपने रिश्तेदारों से मिलने गए थे। मुझे नहीं पता कि मैं उनकी मदद के लिए किससे संपर्क करूं या उनके मामलों को लड़ने के लिए कोई है भी या नहीं।”

रोहिंग्या समुदाय से जुड़े अधिकारों के उल्लंघन के मामलों को उठाने के लिए वकील ढूंढना मुश्किल है। शरणार्थी अधिकार वकील फज़ल अब्दाली कहते हैं, “भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो शरण लेने वालों को अधिकार और हक देने के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता हो, वकीलों को शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए संविधान, दूसरे तरह के कानूनों, मिसालों और अधिकारों की जानकारी देनी पड़ती है।” यह उन वकीलों के काम को और मुश्किल बना देता है, जो समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

हम कानूनी सहायता शिविर आयोजित करते रहते हैं और हिरासत केंद्रों में कैदियों के साथ काम कर रहे हैं।

खबरों में यह बताया जाता रहा है कि रोहिंग्या शरणार्थियों को रखने वाले हिरासत केंद्रों में बुनियादी सुविधाएं, जैसे साफ शौचालय नहीं हैं और धूप की भी कमी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने साल 2023 में, संबंधित सरकारी अधिकारियों को केंद्रों का निरीक्षण करने और उचित सुविधाएं मुहैया करवाने का निर्देश दिया था। हालांकि आधिकारिक तौर पर स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है, लेकिन जमीनी स्तर पर काम कर रहे गैर-लाभकारी संगठनों ने इससे निपटने के तरीकों को ढूंढ निकाला है।

एक मानवाधिकार केंद्रित समाजसेवी संगठन के साथ काम करने वाले आकाश* बताते हैं कि कुछ मामलों में वे स्थानीय प्रशासनिक निकायों से समर्थन पाने में कामयाब रहे हैं। वे कहते हैं, “हम कानूनी सहायता शिविर आयोजित करते रहते हैं और हिरासत केंद्रों में कैदियों के साथ काम कर रहे हैं। हमने उन्हें जरूरत का सामान जैसे कि गर्म कपड़े पहुंचाए हैं। यह स्थानीय स्तर के अधिकारियों की मदद से ही मुमकिन हो पाया है। इसलिए, शरणार्थियों के साथ काम करने वाले नागरिक समाज संगठन स्थानीय अधिकारियों, सेवा प्रदाताओं, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा विभाग और स्थानीय कानूनी सहायता दिलवाने में मदद करते हैं। सरकार की संरचना के भीतर ऐसे स्थान हैं जहां हम शरणार्थियों तक राहत पहुंचाने वाली व्यवस्था का हिस्सा बनकर काम कर सकते हैं।”

रोहिंग्याओं का ‘अवैध प्रवासी’ दर्जा यह साबित करता है कि जिन लोगों को हिरासत में नहीं रखा गया है, वे भी सरकार की ओर से बनाई गई रहवासी व्यवस्था में अच्छा जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा, उन्हें अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी नहीं है।

कानूनी सहायता शिविरों और कार्यशालाओं ने समुदाय को उनके अधिकारों और कर्तव्यों को समझने में मदद की है। इसके साथ ही पंचायत, पुलिस और स्थानीय अधिकारियों के साथ बातचीत करने के तरीके भी उन्हें सिखाए हैं। फ़ज़ल हमें 2013 में हरियाणा के मेवात में किए गए एक अभियान के बारे में बताते हैं, जहां उन्होंने देखा कि रोहिंग्या शरणार्थी बेहद खराब हालात में रह रहे थे। “वे मेंढ़कों से भरे हुए कुओं का पानी पीते थे और उनके पास साफ सफाई की सुविधाएं नहीं थीं जिससे उन्हें कीचड़ से भरे हुए गड्ढों में शौच जाना पड़ता था। इन अमानवीय परिस्थितियों के खिलाफ, हमने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।” अगले 10 साल में, फ़ज़ल और उनकी टीम ने रोहिंग्याओं को न्याय प्रणाली तक पहुंचने के तरीकों के बारे में शिक्षा देने के वाली कार्यशालाएं, संवेदनशीलता कार्यक्रम और प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए। इनमें खासतौर पर बुनियादी सुविधाओं, हिरासत और निर्वासन के खतरों के बारे में बात की जाती रही है। “मेवात से शुरू होकर, यह पहल धीरे-धीरे जम्मू, हैदराबाद, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और भारत के दूसरे हिस्सों में पहुंच गई, जहां हमने उनके कानूनी अधिकारों और भारतीय कानून को समझाने पर ध्यान केंद्रित किया। पिछले 10 सालों में, हम भारत के अलग-अलग राज्यों में रोहिंग्याओं के साथ लगभग 2,300 प्रशिक्षण सत्र आयोजित कर चुके हैं।”

दो मुस्लिम महिलायें_रोहिंग्या समुदाय
भारत में रोहिंग्या लोगों का जीवन उनकी अनिश्चित कानूनी स्थिति के कारण चुनौतियों से भरा हुआ है। | चित्र साभार: पे‍क्सेल्स

अधिकार, हक और गरिमा

कोलिन कहते हैं, “संविधान के अनुसार स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और भोजन सभी मौलिक अधिकारों के तहत आते हैं जो आम आदमी को जीने का हक देते हैं।” लेकिन रोहिंग्या समुदाय के लोगों को इन सभी चीजों के लिए अब तक संघर्ष करना पड़ रहा है। कानूनी पहचान न होने के कारण रोहिंग्याओं को औपचारिक रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच नहीं मिलती है। यही वह जगह है जहां सीएसओज (सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशंस), सामुदायिक कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो उनकी मदद करते हैं और इन सुविधाओं तक उनकी पहुंच बनाते हैं।

भारत में रोहिंग्या लोगों के साथ काम करने वाले एक सीएसओ के सदस्य ने एक बड़ी समस्या को उजागर किया: इन शरणार्थियों के पास बैंक खाते और आधार कार्ड नहीं हैं। इस वजह से वे सब्सिडी वाले राशन, पेंशन और शिक्षा जैसी सरकारी सामाजिक योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते हैं। भले ही इसकी कानूनी अनिवार्यता नहीं है, लेकिन कई सरकारी स्कूलों में प्रवेश पाने या यूनिफॉर्म, पाठ्यपुस्तकें और अन्य सरकारी संसाधनों का लाभ लेने के लिए आधार कार्ड की जरूरत होती है।

रोहिंग्या समुदाय की एक और सदस्य फातिमा* बताती हैं कि हमारे समुदाय के बच्चों के लिए शिक्षा पाना आसान नहीं है। वे कहती हैं, “जब मैं साल 2014 में पहली बार भारत आई तो मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए स्कूल में दाखिला लेना मुश्किल लगा। फिर हैदराबाद में एक ट्रस्ट ने हमसे संपर्क किया और कहा कि हम उनके पास आ सकते हैं। वे लोग मेरी और मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई का ध्यान रखेंगे। आजकल, कुछ गैर-लाभकारी संगठनों की मदद से हम नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग से स्कूल की डिग्री हासिल कर सकते हैं। लेकिन उच्च शिक्षा या कॉलेज की पढ़ाई के लिए अब भी आधार कार्ड जैसे पहचान पत्र की जरूरत होती है।”

फातिमा यह भी बताती हैं कि जो प्रतिभाशाली युवा भारतीय शिक्षा प्रणाली में उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हैं, वे यूएनएचसीआर यूनिवर्सिटी एक्सेस स्कॉलर्स कार्यक्रम—डुओलिंगो जैसे कार्यक्रमों के जरिए विदेश में पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति के लिए आवेदन कर सकते हैं। उनकी बहन ने ऐसे ही एक छात्रवृत्ति के जरिए कनाडा जाकर पढ़ाई की, लेकिन यह मौका केवल उन कुछ छात्रों को मिल पाता है जो निर्धारित मानदंडों (जैसे आयु और शैक्षिक योग्यताएं) को पूरा करते हैं और आवेदन प्रक्रिया को समझ और पूरा कर पाते हैं।

फातिमा जैसे समुदाय के कई युवाओं ने शिक्षा हासिल करने के लिए आसान तरीके तलाश किए हैं। फातिमा कहती हैं कि “मैं बच्चों और महिलाओं को बुनियादी साक्षरता सिखाने पर ध्यान दे रही हूं। भारत आने के बाद पहली चुनौती यह होती है कि हमें यहां की स्थानीय भाषा नहीं आती है। मैं सबकुछ शुरू से समझाना शुरू करती हूं, सबसे पहले अक्षरमाला से, और फिर मेरे छात्र अपने नाम और अपने परिवार के सदस्यों के नाम जैसे शब्द लिखना सीखते हैं। मैं उन्हें महत्वपूर्ण नंबर जैसे फोन नंबर, बस नंबर और अस्पताल के नंबर लिखना भी सिखाती हूं। आखिरी मैं उन्हें उनके कैंप का पता याद करवाती हूं—जैसे कि ‘कैंप नंबर 12’—ताकि वे अपने स्थान की पहचान कर सकें।”

आवास और आजीविका तक पहुंच भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। नूर बेगम* दिल्ली में कई परिवारों की एक अस्थायी बस्ती में एक कमरे की झोपड़ी में रहती हैं। वे कहती हैं, “अक्सर हमें कई दिनों तक बिजली नहीं मिलती जिससे गर्मियों के महीनों में बहुत दिक्कत होती है। पानी का टैंकर हर दिन आता है लेकिन हमें कभी नहीं पता होता कि कब आएगा और हम अपने परिवार की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए बहुत कम पानी ला पाते हैं।”

एक दूसरी बस्ती में रहने वाली रोहिंग्या समुदाय की रजिया* बताती हैं कि उनके समुदाय के अधिकांश लोगों में दिल्ली जैसे शहरों में काम करने के लिए जरूरी कौशल की कमी है। वे कहती हैं, “म्यांमार में, पुरुष खेती करते थे। वे कई सब्जियां और गेहूं जैसे अनाज उगाते थे जो मुख्य रूप से परिवार की खपत के लिए होता था। महिलाएं घरेलू काम करती थीं। हम स्कूल नहीं गए और न ही पढ़ना सीखा।”

दिल्ली में उनके खेती-किसानी के कौशल का ज्यादा उपयोग नहीं है और उनके पास कुछ भी उगाने के लिए मुश्किल से कोई जगह होती है। कानूनी रूप से काम करने के अधिकार के बिना, ज्यादातर लोग अनौपचारिक रोजगार पर निर्भर हैं। आमतौर पर निर्माण कार्य में दिहाड़ी मजदूरी, कचरा बीनना, रिक्शा चलाना, और सड़क पर फेरी लगाना शामिल हैं। ये नौकरियां अस्थिर होती हैं और इनसे होने वाली आय परिवार चलाने के लिए काफी नहीं है, जिससे बहुत सारे परिवार गरीबी के जाल में फंस जाते हैं। बैंकों तक उनकी पहुंच ना के बराबर है, ऐसे में समुदाय के लोग आर्थिक स्तर को बेहतर बनाने के तरीकों जैसे संपत्ति खरीदने, व्यवसाय शुरू करने, या सुरक्षित रूप से बचत करने से वंचित रहते हैं।

लिंग और मानसिक स्वास्थ्य का अंतर-संबंध

नरसंहार और जबरन पलायन के उनके पिछले दर्दनाक अनुभवों और उनके विस्थापन के कारण चल रहे तनाव का मतलब है कि भारत में रहने वाले रोहिंग्या गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। कई लोगों ने गंभीर हिंसा और नुकसान का सामना किया है, जिसमें परिवार के सदस्यों की मृत्यु और उनके घरों का विनाश शामिल है। स्थायी निवास की उम्मीद के बिना अनिश्चित हालातों में रहना मौजूदा पीड़ा को और बढ़ा देता है। आज़ादी प्रोजेक्ट से जुड़ी श्रेयस जयकुमार समुदाय की महिलाओं और लड़कियों के साथ काम करती है। वे बताती हैं, “क्षमता निर्माण की दिशा में कई प्रयास किए गए इसके बाद भी बहुत सारे लोग रोजगार के लिए संघर्ष करते हैं। रहने की संकुचित परिस्थितियों और घर लौटने की नाकामयाबी के कारण निराशा और हताशा और बढ़ जाती है।

रोहिंग्या महिलाओं को अक्सर घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।

हाल ही में, इस संगठन ने दिल्ली में एक केंद्र शुरू किया है जो रोहिंग्या शरणार्थी महिलाओं और लड़कियों के साथ-साथ अनौपचारिक बस्ती और उसके आसपास रहने वाली दूसरी महिलाओं को समग्र मनोवैज्ञानिक मदद मुहैया करता है। उन्हें सबसे पहले संघर्ष, दुख और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी धारणाओं से पैदा हुई मुश्किलों का सामना करने के लिए समुदाय के साथ विश्वास का रिश्ता बनाना पड़ा। आजादी प्रोजेक्ट ने पाया कि व्यक्तिगत चिकित्सा सत्रों के अलावा, समूह चिकित्सा विशेष रूप से प्रभावी है। समूह चिकित्सा में महिलाओं को एक-दूसरे के अनुभव साझा करने का अवसर मिलता है। इन सत्रों में कला, गाना और हाथ पकड़कर एक-दूसरे के दर्द को स्वीकार करने जैसे तरीके शामिल हैं। इस प्रयास ने मेजबान भारतीय समुदाय और शरणार्थी समुदाय के बीच उपचार और संबंध के लिए जगह बनाई है। इन सत्रों ने रोहिंग्या महिलाओं को नींद की गड़बड़ी, भविष्य के बारे में अनिश्चितताओं, घर की लालसा और प्रियजनों के खोने का शोक जैसे मुद्दों पर चर्चा करना शुरू किया है।

समुदाय के भीतर पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देते हैं। बाहर से होने वाली छिपी प्रत्यक्ष हिंसा के अलावा, रोहिंग्या महिलाओं को अक्सर घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। सईदा कहती हैं, “महिलाओं का कहना है कि उन्हें अपने पति की बात माननी पड़ती है, वरना वे उनके साथ हिंसक बर्ताव करने का अधिकार रखते हैं। अगर वे कुछ बोलती हैं तो उन्हें अक्सर तलाक की धमकी दी जाती है। उन्हें ज्यादा बाहर जाने की भी मनाही है। अभी कुछ समय पहले तक तो उन्हें प्रसव के लिए अस्पताल जाने की भी अनुमति नहीं थी।”

लेकिन इसमें धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। समुदाय के साथ विश्वास स्थापित करने में सफलता प्राप्त करने के बाद समाजसेवी संगठनों ने लैंगिक जागरूकता कार्यशालाएं और सत्र आयोजित करना शुरू किया। यहां उन्होंने महिलाओं के सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकार, और अपने बच्चों की शिक्षा के महत्व पर जोर दिया। समुदाय के सदस्यों का उनके साथ काम करना हमेशा फायदेमंद रहा है। सईदा कहती हैं, “मैं एक युवा महिला के रूप में अपने आप को उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करती हूं, जो अब बाहर जा रही है, पैसे कमा रही है, और अपने परिवार की मदद कर रही है। हम दंपतियों को भी सलाह देते हैं। धीरे-धीरे, हमने बदलाव देखा है।”

आगे का रास्ता क्या है?

भारत में रोहिंग्या समुदाय के लोगों के जीवन में कई चुनौतियां हैं, जो उनकी अस्पष्ट कानूनी स्थिति, आर्थिक कमजोरियों, और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पैदा होती हैं। उनके लिए हालातों को बेहतर करने में समाजसेवी संगठनों, नागरिक समाज संगठनों (सीएसओएस), और भारतीय समुदाय का समर्थन सबसे अहम है।

यह कुछ तरीके हैं जिनसे विभिन्न हितधारक हस्तक्षेप कर सकते हैं:

1. सामाजिक समावेश सुनिश्चित करना

मेजबान समुदायों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संगठन रोहिंग्या समुदायों के साथ सामाजिक संबंधों और बंधनों को प्रोत्साहित करने के लिए पहल शुरू कर सकते हैं। आजादी परियोजना ने मेजबान और रोहिंग्या समुदायों दोनों की महिलाओं और बच्चों को विभिन्न कार्यक्रमों और संवादों में शामिल करके ऐसा करना शुरू कर दिया है।

समाजसेवी संगठनों को अपने साथ काम करने वाले सभी समुदायों को जेनोफोबिया, इस्लामोफोबिया, विस्थापन और शरणार्थी अनुभवों के बारे में संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम सामान्य रूप से आयोजित करने चाहिए।

2. कानूनी जागरूकता और सहायता मुहैया करना

शरणार्थियों के साथ काम करने वाले नागरिक संगठनों को स्थानीय प्रशासन, कानूनी सहायता क्लीनिक, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और शिक्षा जैसे संबंधित सरकारी विभागों के साथ सहयोग करना चाहिए। इन संबंधों को स्थापित करने से एक ऐसी व्यवस्था बन सकती है जिससे समुदायों को संकट के समय, जैसे कि निर्वासन या हिरासत के दौरान, सहायता मिल सके।

रोहिंग्या समुदाय के साथ या उसके करीब काम करने वाले समाजसेवी संगठन और कार्यकर्ताओं को, हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को तात्कालिक कानूनी सहायता प्रदान करने वाले मामलों को प्राथमिकता देनी चाहिए। कोलिन कहते हैं, “यदि किसी संगठन को रोहिंग्या समुदाय का कोई व्यक्ति फोन कर अपनी मुश्किल के बारे में बताए, तो पहला कदम एक वकील से संपर्क करना और कानूनी सलाह और हस्तक्षेप मांगना होना चाहिए। ऐसा जल्दी करने से हिरासत में लिए गए व्यक्ति की रिहाई की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सकता है, खासकर अगर वे पहले से ही देश में अवैध प्रवेश के लिए अधिकतम सजा (तीन वर्ष) काट चुके हैं।”

ये संगठन रोहिंग्याओं को उनके कानूनी अधिकारों और उपलब्ध कानूनी सहायता के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान चला सकते हैं। इसमें कार्यशालाएं, सूचनात्मक पैम्फलेट का वितरण या रोहिंग्या आबादी वाले क्षेत्रों में कानूनी सहायता डेस्क स्थापित करना शामिल हो सकता है। इससे उन्हें खुद के लिए बात करने और सिस्टम को समझने में मदद मिलेगी।

3. आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देना

समाजसेवी संगठनों को रोहिंग्या समुदाय को शिक्षा और आजीविका के कार्यक्रमों से जोड़ना चाहिए, जैसे यूएनएचसीआर की ओर से संचालित कार्यक्रम। सारा (आजादी प्रोजेक्ट से) विस्तार से बताती हैं, “एक परिवार का उदाहरण लें जो पहले से ही एक दुकान चला रहा है। ऐसे यूएनएचसीआर कार्यक्रम हैं जो उन्हें अपने व्यवसाय का विस्तार करने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान कर सकते हैं, जिससे आर्थिक स्थिरता और आत्मनिर्भरता सुनिश्चित होती है।”

भारत में रहने वाले रोहिंग्याओं को मिलने वाले अधिकार और पात्रता बहुत सीमित हैं। इसलिए, गैर-लाभकारी संगठनों को इस समुदाय को उनके अधिकारों को प्राप्त करने में सक्रिय रूप से मदद करनी चाहिए। इसमें स्कूलों में समुदाय के बच्चों के प्रवेश को आसान बनाना, समुदाय के लोगों को सम्मानजनक रोजगार दिलवाने में मदद करना और जहां भी संभव हो वहां उच्च शिक्षा कार्यक्रम और छात्रवृत्तियां देना शामिल है। सामाजिक क्षेत्र को समुदाय की जरूरतों के अनुरूप कौशल-निर्माण पहलों में भी निवेश करना चाहिए, जैसे कि व्यावसायिक प्रशिक्षण, भाषा कक्षाएं और अन्य कार्यक्रम जो उन्हें आजीविका खोजने में मदद कर सकते हैं।

कई मानवाधिकार अधिवक्ताओं ने बताया है कि लोकतंत्र की असली परीक्षा यह है कि वह अपने शरणार्थी आबादी की राजनीतिक और सामाजिक संप्रभुता को कैसे सुनिश्चित करता है? यही सिद्धांत उन नागरिक समाज संगठनों पर भी लागू होता है जिनका काम नागरिकता की स्थिति की परवाह किए बिना लोगों की सेवा करना है, और खासकर उन लोगों के लिए जिन्हें सीमित सुविधाएं मिली हैं, जो अदृश्य होते हैं, और जिनके अधिकारों का हनन होता है, जैसे कि रोहिंग्या। इन संगठनों और व्यक्तियों को शरणार्थियों के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय नीति की मांग भी जारी रखनी चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो।

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  • शरणार्थी समूहों के अधिकार और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए किसी भी सहायता हेतु UNHCR से 011-43530444 या Socio Legal Information Centre से 011-24374501 पर संपर्क करें।

लेखक के बारे में
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सबा कोहली दवे

सबा कोहली दवे आईडीआर में सह-संपादकीय भूमिका में हैं, यहाँ उन्हें लेखन, संपादन, स्रोत तैयार करने, और प्रकाशन की जिम्मेदारी है। उनके पास मानव विज्ञान की डिग्री है और वे विकास और शिक्षा के प्रति एक जमीनी दृष्टिकोण में रुचि रखते है। उन्होंने सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर, बेयरफुट कॉलेज और स्कूल फॉर डेमोक्रेसी के साथ काम किया है। सबा का अनुभव ग्रामीण समुदाय पुस्तकालय के मॉडल बनाने और लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों पर पाठ्यक्रम बनाने में शामिल रहा है।

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देबोजीत दत्ता

देबोजीत दत्ता आईडीआर में संपादकीय सहायक हैं और लेखों के लिखने, संपादन, सोर्सिंग और प्रकाशन के जिम्मेदार हैं। इसके पहले उन्होने सहपीडिया, द क्विंट और द संडे गार्जियन के साथ संपादकीय भूमिकाओं में काम किया है, और एक साहित्यिक वेबज़ीन, एंटीसेरियस, के संस्थापक संपादक हैं। देबोजीत के लेख हिमल साउथेशियन, स्क्रॉल और वायर जैसे प्रकाशनों से प्रकाशित हैं।

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