July 29, 2025

संवेदनशील नेतृत्व: संघर्षशील परिवेश में भरोसे की नींव

राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में समुदाय के साथ जुड़ने की नींव विनम्रता, संवेदनशीलता और सुनने की क्षमता पर आधारित होनी चाहिए।
6 मिनट लंबा लेख

किसी नए समुदाय में कदम रखने की पहल, खासकर ऐसे क्षेत्र में जिसे राजनीतिक और सामाजिक जटिलताओं ने आकार दिया हो, केवल वहां काम करने तक सीमित नहीं होती। यह रिश्ते बनाने की भी प्रक्रिया होती है। भरोसा रातोंरात नहीं जीता जा सकता है। खासतौर पर इस आधार पर तो बिल्कुल नहीं कि नागरिक समाज का कोई व्यक्ति या संगठन नेक इरादों के साथ लोगों से जुड़ा हो। भरोसा लोगों के बीच रहकर, दृढ़ता और सीखने के प्रति ईमानदारी के जरिए कमाया जाता है। मैं पिछले आठ सालों से कश्मीर में स्कूल लीडर्स, शिक्षकों और छात्रों के साथ काम कर रही हूं। इस दौरान मैंने सीखा है कि भरोसा जीतने के लिये आपके अंदर कई तरह की क्षमताएं होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, यह स्वीकार करना कि आप लोगों के जीवन अनुभवों के बारे में सब कुछ नहीं जानते हैं, जिज्ञासु बने रहना, समानुभूति जताना, इलाके के राजनीतिक इतिहास को जानना और नया सीखने के साथ-साथ पुराना भुलाने के लिए भी तैयार रहना। मैंने एलिसिट संस्था की स्थापना की है, जहां हम संघर्ष प्रभावित इलाकों में शिक्षकों के साथ काम करते हैं, ताकि स्कूल हीलिंग की जगह बन पाएं । लेकिन यह कोशिश एक मुश्किल सवाल से शुरू होती है — किसी जगह को नियंत्रित किए बिना वहां काम कैसे किया जा सकता है?

मैंने सीखा है कि लीडरशिप पर दावा नहीं किया जा सकता। यह एक जिम्मेदारी है जो समुदाय आपको तब सौंपता है जब आप उनसे पूर्वाग्रह नहीं, बल्कि जिज्ञासा से मिलते हैं। समुदाय का निर्माण (कम्युनिटी बिल्डिंग) एक निरंतर और बदलाव से भरी प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में लीडरशिप औपचारिक ढांचों से निकलकर जन-संस्कृति का हिस्सा बन जाती है। इस दौरान विभिन्न क्षमताएं साथ आकर एक दूसरे से मिलती हैं। मेरा काम यहीं से शुरू होता है। मेरा दृष्टिकोण यह है कि कश्मीर के बच्चों की भावनात्मक दुनिया पर एकल घटनाओं का नहीं, बल्कि उनके रोजमर्रा के जीवन में एक साथ टकराते अनेक संकटों का प्रभाव पड़ता है। इनमें लंबे समय से चला आ रहा सशस्त्र संघर्ष, आर्थिक अस्थिरता, क्षेत्रीय अशांति, प्राकृतिक आपदाएं, सामाजिक उथल-पुथल और शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुंच जैसे मुद्दे शामिल हैं। ये सभी मिलकर एक जटिल ‘बहु-संकट’ की स्थिति उत्पन्न करते हैं।

टीच टू एलिसिट हमारा मुख्य फैलोशिप कार्यक्रम है। यह घाटी के भीतर और बाहर से आए ऐसे युवा शिक्षकों का एक समूह है, जो स्वेच्छा से अस्थिर और संवेदनशील क्षेत्रों में बच्चों, शिक्षकों और स्कूली व्यवस्था के साथ गहराई से काम करना चाहते हैं। यह समूह स्कूलों में कुशलता (वेल-बींग) को एक अनिवार्य मूल्य के रूप में स्थापित करने की दिशा में काम करता है। उनकी यह पहल बच्चों द्वारा सहे जाने वाले सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी दबावों के प्रति संवेदनशीलता बरतती है। यह सब मुख्यधारा की शिक्षा के दायरे में रहकर किया जाता है।

यह मेरे निजी अनुभव पर आधारित कुछ सबक हैं, जो राजनीतिक रूप से संवेदनशील इलाकों में काम करते हुए ध्यान रखे जा सकते हैं।

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1. पूर्वाग्रह नहीं, जिज्ञासा से काम लें

एक सार्थक पहल की शुरुआत समाधान सुझाने की बजाय सवाल पूछने से होती है। अक्सर हम किसी नए परिवेश में ‘सही’ या ‘कारगर’ तरीकों की एक तय समझ के साथ प्रवेश करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि हर परिस्थिति में कारगर तरीका अलग हो सकता है। उदाहरण के लिए, कश्मीर में एक नए शिक्षक को स्कूल के लगातार बदलते शेड्यूल या संवाद के अनौपचारिक तरीकों (जैसे बिना पूर्व निर्धारित समय के जरूरत के आधार पर होने वाली बातचीत) से तालमेल बिठाने में परेशानी हो सकती हो और वो उन्हें लचर व्यवस्था की मिसाल मान सकता है। लेकिन अगर उसमें उत्सुकता होगी, तो शायद वह दूसरा तरीका अपनाएगा: ये व्यवस्थाएं यहां क्यों जरूरी हैं? इनके ऊपर कौन सी सामाजिक और ऐतिहासिक समीकरणों का प्रभाव रहा है? जब हम किसी को सही और गलत ठहराने की जगह उत्सुकता से सवाल पूछते हैं, तो इससे आदर भी झलकता है और भरोसे की नींव भी मजबूत होती है।

जिज्ञासा, अवलोकन से परे जाती है। इसके लिए गहरे जुड़ाव की जरूरत होती है, जिससे समुदाय को यह विश्वास हो कि हम उनके अनुभवों को महत्व देते हैं। साथ ही यह भी कि कोई भी काम करने से पहले, हम सबकुछ समझने के लिए तत्पर हैं। मैंने फैलोशिप के माध्यम से अपने काम में यह सीखा है कि हम जितने अधिक सवाल पूछते हैं, उतनी ही अधिक परतें खुलती हैं—जिजीविषा और उपयोगिता की वे परतें, जो पहली नजर में नहीं दिखती हैं। यह प्रक्रिया अक्सर मामूली, लेकिन निर्णायक क्षणों में सामने आती है। हमारे कार्यक्रम की एक फैलो ने एक बार अपना अनुभव साझा किया कि कैसे उन्होंने शुरुआत में एक छात्र की चुप्पी को उसकी अरुचि मान लिया था। लेकिन समय के साथ उन्हें समझ आया कि उसका यह व्यवहार अस्थिर जीवन स्थितियों से उपजी मानसिक थकान का नतीजा था। हमें इस तरह की बातों को समझने के लिए के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। लेकिन संघर्ष-प्रभावित संदर्भों में शिक्षा के लिए हमें अपनी दृष्टि को फिर से प्रशिक्षित करना पड़ता है। जिज्ञासा निष्क्रिय नहीं होती है। यह एक राजनीतिक क्रिया है, जो हमें किसी चीज पर तुरंत प्रतिक्रिया देने की बजाय उसे गहराई से देखने और समझने की ओर ले जाती है।

2. तार्किक समानुभूति का महत्व

जिज्ञासा संबंधों की शुरूआत करती है, लेकिन समानुभूति उन्हें गहरा बनाती है। सिर्फ भावात्मक समानुभूति नहीं, बल्कि तार्किक समानुभूति। यानी अपना नजरिया थोपे बगैर सुनने की क्षमता। तार्किक समानुभूति का अर्थ है अनुभवों को वैसे देखना जैसे वे वास्तव में हैं, न कि जैसे हम उन्हें देखने की अपेक्षा करते हैं।

हमारे कार्यक्रम में शामिल फैलो—चाहे कश्मीरी हों या गैर-कश्मीरी—लगातार इसका अभ्यास करते हैं। एक फैलो ने एक बार अपना अनुभव साझा किया कि वह एक ऐसे बच्चे के प्रति कैसे प्रतिक्रिया देती थी, जो तेज आवाज सुनते ही चौंक उठता था। उन्होंने बच्चे को सांत्वना देने की कोशिश नहीं की। वह चुपचाप उसके साथ बैठ जाती और बस उसके बोलने का इंतजार करती। कुछ मौकों पर बच्चा चुप ही रहा। और कुछ मौकों पर उनके बीच पसरे मौन ने ही उसे सुरक्षा का आभास करवाया।

3. राजनीतिक पहलू व्यक्तिगत भी है

कश्मीर जैसे इलाकों में, राजनीति महज पृष्ठभूमि में रहने वाली कोई चीज नहीं है। यह लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल है। यहां हर बातचीत, हर गैर-मौजूदगी, हर शब्द के मायने हैं। यह विचार कि कश्मीर को लेकर कोई ‘निरपेक्ष’ हो सकता है, एक भ्रम है। एक व्यक्ति का चुनाव, चाहे वह इस इलाके में रहने का हो, इसे छोड़ने का हो, या फिर कहीं पर बोलने या चुप रहने का हो—हर निर्णय इस क्षेत्र के व्यापक विमर्श में अपनी एक भूमिका निभाता है।

हाथ में किताबें लिए हुए स्कूल के छात्र-छात्राएं_संघर्षग्रस्त इलाकों में शिक्षा
कश्मीर जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में काम करते हुए ‘निरपेक्ष’ बने रहना एक भ्रम है। | चित्र साभार: डॉल्फिन इंटरनेशनल स्कूल आर्काइव

एक ऐसे परिवेश में, जहां दशकों से मृत्यु, विस्थापन और अपनों से जुदाई के कारण अकेला “छोड़ दिए जाने” की अनुभूति गहरी जड़ें जमा चुकी हो, वहां आपकी निरंतर उपस्थिति भी मजबूत समर्थन साबित हो सकती है। हमें न तो खुद को ऐसे देखना चाहिए कि हम किसी का उद्धार कर रहे हैं और न ही जबरन कोई भूमिका निभानी चाहिए। जरूरी यह है कि हम समुदाय के अनुभवों को समझें।

4. पहचान से बनता है नजरिया

हम चाहे जितनी भी विनम्रता के साथ किसी जगह पर पहुंचने की कोशिश करें, हमारी पहचान अक्सर हमसे पहले वहां पहुंच जाती है। उदाहरण के लिए, मेरी ‘गुजराती’ पहचान से कई पूर्वाग्रह जुड़े हुए हैं—जैसे कि मैं केंद्र सरकार की करीबी हो सकती हूं या कश्मीर के समुदाय को विभाजनकारी दृष्टिकोण से देखती हूं। कश्मीर में ‘भारतीय’ पहचान इतिहास के बोझ तले लदी हुई है। ऐसे संदर्भ में मेरे व्यक्तिगत विचार या नीयत से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह था कि लोग मुझे कैसे देखते हैं, मैं खुद को कैसे प्रस्तुत करती हूं, और मैंने किस प्रकार की राजनीति के साथ खड़े होने का निर्णय लिया है। इसका अर्थ था एक ऐसा आचरण अपनाना जो न तो लोगों में डर पैदा करे, न ही सांस्कृतिक अधिग्रहण का संकेत दे। उदाहरण के लिए, मैं कैसे कपड़े पहनती हूं, क्या खाती हूं, लोगों की दिनचर्या के प्रति मेरा रवैया कैसा है, मैं उनके दुख को कैसे देखती हूं और अपनी निजी जरूरतों को कैसे पूरा करती हूं।

जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि मेरी धार्मिक और राजनीतिक स्थिति से जुड़ी उनकी धारणाओं पर रक्षात्मक होना बेकार है। इसकी बजाय, मैंने लोगों से थोड़ी दूरी बनाई जिसे मैं ‘क्यूरियस डिस्टेंस’ कहती हूं। यह मुझे सोचने-समझने का अवसर देने वाला ऐसा नजरिया है, जिसमें संघर्ष से उपजे तनाव के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करने और अपने पूर्वाग्रहों से सावधानी के साथ निपटने का मौका मिल जाता है। किसी बात का विरोध करने या उसे साबित करने की बजाय मैंने उसे स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने दिया। इससे लोग मुझे मेरी राजनीतिक पहचान से अलग देख पाए। उदाहरण के लिए, जब बच्चों में थकान को पहचानने की बात आती है तो क्यूरियस डिस्टेंसिंग का मतलब है कि एक शिक्षक तनाव के चलते बच्चों द्वारा अपनाए गए तरीकों—जैसे कि खुद को अलग कर लेना—को लेकर जिज्ञासु बना रहे। वह इस व्यवहार को जल्दबाजी में अनुशासनहीनता या बतौर शिक्षक अपनी कमी ना समझे।

दृष्टिकोण में यह बदलाव संवादों को गहराई देता है, गलतफहमियों को दूर करता है और विश्वास को धीरे-धीरे पनपने का अवसर देता है।

5. अपरिहार्य को समझना

हर परिवेश में कुछ ऐसी बातें होती हैं, जो बदली नहीं जा सकती हैं। ऐसी सीमाएं, जिनके पार जाने से संबंधों में दरारें आती हैं और सामाजिक ताने-बाने में ऐसी टूटन पैदा होती है जिसे फिर से जोड़ना मुश्किल होता है। कश्मीर में अस्थिरता एक ऐसी निरंतर उपस्थिति है, जो लोगों के अनुभवों में रच-बस गई है। यह ऐतिहासिक, वर्तमान और संभावित संकटों की एक जटिल परत है, जिसे वहां के लोग रोजमर्रा की जिंदगी की तरह जीते हैं।

तार्किक समानुभूति का अर्थ है अनुभवों को वैसे देखना जैसे वे वास्तव में हैं।

ऐसे संदर्भ में सीमित संवाद, निगरानी के डर और अस्थिरता के मनोवैज्ञानिक असर को समझना बेहद जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए, जहां डिजिटल ब्लैकआउट आम हैं, वहां ऐसी योजनाएं बनाना जो पूरी तरह नेटवर्क पर आधारित हो या मुख्यधारा मीडिया की एकतरफा कहानियों से प्रभावित होकर समुदाय से संवाद करना। यह न केवल संवेदनहीन होगा, बल्कि कभी-कभी नुकसानदेह भी साबित हो सकता है। जब हम इन अपरिहार्य वास्तविकताओं को पहचानते हैं, तो हम अपनी कार्यशैली को उसी अनुरूप ढालते हैं। यही अनुकूलन हमारी उपस्थिति को भरोसेमंद बनाता है।

6. विश्वास एक धीमी प्रक्रिया है

भरोसा, खासतौर पर राजनीतिक और सामाजिक रूप से जटिल जगहों पर, किसी प्रोजेक्ट साइकल या सुनियोजित हस्तक्षेप कार्यक्रम से नहीं हासिल किया जा सकता है। यह समय के साथ निरंतर प्रयासों और चुनौतीपूर्ण नजरियों का सामना करने से बनता है। हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि “हम यहां नेतृत्व करने आए हैं या सुनने?” सच तो यह है कि सबसे प्रभावी नेतृत्व अक्सर पीछे हटने से आता है—निर्देश देने के बजाय साथ देने से, बाहरी ढांचे थोपने के बजाय स्थानीय समझदारी को सम्मान देने से। विश्वास यूं ही नहीं मिलता। इसे अर्जित करना पड़ता है।

किसी लंबे समय से संघर्षग्रस्त क्षेत्र में नेतृत्व करने का मतलब है यह समझना कि सिर्फ रणनीति काफी नहीं है। इसके लिए वहां मौजूद रहना जरूरी है, अभ्यास जरूरी है, और सबसे ज़रूरी है—यह विनम्रता कि जब ज़रूरत हो, तब खुद को पीछे कर लेना।

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लेखक के बारे में
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लोपा शाह

लोपा शाह एलिसिट फाउंडेशन की संस्थापक और प्रबंध निदेशक हैं, जो संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में शिक्षा पर काम करता है। उन्हें निजी और सामुदायिक स्कूलों और समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करते हुए डिजाइन थिंकिंग और अप्लाइड थिएटर आर्ट्स के जरिए बदलाव लाने में 12 सालों का अनुभव हासिल है। लोपा एक्यूमेन इंडिया फ़ेलो 2020, कॉक्स स्कॉलर्स एशिया प्लेटो स्कॉलर 2022 और फोर्ब्स फ़ेलो 2023 हैं।

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