1. टीम मीटिंग में फंडिंग अपडेट को लेकर मैनेजर के सवाल पूछने के लिए कहने पर खामोश रह जाने वाली टीम, लंच ब्रेक में:
2. टीम जो प्रोजेक्ट पर चर्चा करने के लिए समय मांगे जाने पर बहुत व्यस्त होती है लेकिन इसका 30 मिनट का लंच ब्रेक एक घंटे चलता है:
3. नए आइडिया पर काम करने के लिए राय पूछे जाने पर सिर्फ अपना पीछा छुड़ाने के लिए ढेर सारी तारीफ कर देने वाली टीम के असली इरादे:
4. नए साथी के आने पर पहले दिन शालीनता से मुस्कुराते हुए परिचय देने वाली टीम लंच ब्रेक में:
5. छुट्टी पर गया साथी काम का अपडेट ले ना ले, लंच टाइम की गॉसिप का ज़रूर लेता है:
6. दिनभर पूरी टीम के साथ सख्ती से रहने वाला मैनेजर भी जब लंच ब्रेक में टीम सदस्यों के साथ गप्पें मारे और टीम उसके ही मजे ले ले:
विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक खास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं, जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।
सरल कोश में इस बार का शब्द है चाइल्ड राइट्स या बाल अधिकार।
बच्चों के हित के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र संस्था यूनिसेफ़ ने बच्चों के लिए कुछ अधिकार तय किए हैं। इन्हें चाइल्ड राइट्स या बाल अधिकार कहते हैं। भारतीय संविधान के मूल अधिकारों में भी इन्हें शामिल किया गया है। किसी बच्चे की उम्र, जाति, लिंग, वर्ग आदि से परे ये अधिकार हर बच्चे के पास होते हैं।
अक्सर बाल अधिकारों को केवल शोषण या बाल-मजदूरी से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन विकास सेक्टर में बच्चों से जुड़े हुए काम करते हुए आपके लिए इन पर एक ठोस समझ बनाना बहुत जरूरी है। यही नहीं, आप शिक्षा, पोषण से लेकर मानसिक स्वास्थ्य तक बच्चों से जुड़े, किसी भी तरह के कार्यक्रम के तहत उन्हें इन अधिकारों की जानकारी दे सकते हैं। यह उन्हें एक बेहतर नागरिक बनाने में मददगार साबित होता है।
बाल अधिकारों को थोड़ा विस्तार से समझें तो यह हर बच्चे को जीवित रहने, शिक्षा और स्वास्थ्य हासिल करने के साथ ही समाज में अपनी पहचान बनाने का अधिकार देते हैं। इसमें बच्चों को सुरक्षित रखने, उन्हें सही भरण-पोषण दिए जाने और उनकी सामाजिक भागीदारी सुनिश्चित करने पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है। इसे अंग्रेजी में प्रोटेक्शन, प्रोविजन और पार्टिसिपेशन कहा जाता है।
अगर आप इस सीरीज में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।
—
म्यांमार के मुस्लिम अल्पसंख्यक, रोहिंग्या समुदाय ने अपने देश में दशकों से उत्पीड़न और हिंसा का सामना किया है। इसके चलते बड़े पैमाने पर उनका पलायन हुआ है – खासतौर पर बांग्लादेश की ओर, और कुछ कम ही सही पर भारत, मलेशिया, थाईलैंड में भी। इसके अलावा दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे हिस्सों में भी रोहिंग्या शरणार्थी पहुंचे हैं। भारत सरकार ने 2017 में बताया था कि देश में एक अनुमान के हिसाब से करीब 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी हैं। जटिल कानूनी चुनौतियों, गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, आर्थिक कठिनाइयों के साथ भविष्य के लिए अनिश्चितता के कारण देश में उनकी स्थिति अस्थिर बनी हुई है।
भारत में रह रहे रोहिंग्या समुदाय के लोगों को उनके कमजोर कानूनी दर्जे के कारण उत्पीड़ित किया जाता है, हिरासत में रखा जाता है और अक्सर उन्हें निर्वासन की स्थिति का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि नवंबर 2022 तक, 312 रोहिंग्या शरणार्थी इमिग्रेशन हिरासत केंद्रों में थे जिनमें से 263 जम्मू के हिरासत केंद्रों में और 22 दिल्ली के एक कल्याण केंद्र में थे। सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक 2017 से 2022 के बीच कम से कम 16 रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार वापस भेज दिया गया है। उत्पीड़न और निर्वासन के साथ ही उनके खिलाफ जेनोफोबिक (विदेशी नागरिकों को पसंद न किए जाने की) सोच प्रचारित की जा रही है। इसने रोहिंग्याओं को दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति में पहुंचा दिया है। उन्हें सीमित रोजगार के अवसरों, मानवाधिकार उल्लंघनों, खाद्य और शिक्षा जैसे सामाजिक अधिकारों की कमी, और खराब शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं जैसी दूसरी और भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
समुदाय के कुछ लोग वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और समाजसेवी संगठनों की मदद से इन चुनौतियों का समाधान निकालने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, यह आसान काम नहीं है। हमने जमीनी स्तर पर काम कर रहे संगठनों और लोगों से बातचीत की, ताकि उनकी चुनौतियों को समझा जा सके, सफल कोशिशों को उजागर किया जा सके, और भविष्य में मध्यस्थता से जुड़े सुझाव दिए जा सके।
सबसे अहम बात कि भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन का हिस्सा नहीं है और यहां शरणार्थियों के लिए कोई मानक कानूनी ढांचा नहीं है। ऐसे में भारत में शरणार्थियों के साथ परिस्थितियों के मुताबिक व्यवहार किया जाता है। रोहिंग्याओं को औपचारिक शरणार्थी का दर्जा नहीं दिया गया है और प्रशासन उन्हें ‘अवैध प्रवासी’ कहता है। श्रीलंका और तिब्बत जैसे देशों से आने वाले दूसरे शरणार्थी समूहों को गृह मंत्रालय से कुछ पहचान पत्र मिलते हैं जबकि रोहिंग्या यूएनएचसीआर की सुरक्षा के तहत आते हैं। यूएनएचसीआर के कार्ड उन्हें बुनियादी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में मदद करते हैं और हिरासत से कुछ हद तक सुरक्षा मुहैया करवाते हैं, हालांकि इनकी कानूनी वैधता तय नहीं है। साल 2023 में, एक रोहिंग्या व्यक्ति की हिरासत के मामले की सुनवाई के दौरान भारतीय सरकार ने अदालत में बताया कि भारत यूएनएचसीआर के शरणार्थी कार्ड को मान्यता नहीं देता है और इसलिए रोहिंग्याओं को देश में रहने का अधिकार नहीं है।
हालांकि, कानूनी जानकारों का कहना है कि रोहिंग्याओं के साथ होने वाला किसी भी तरह का मानवाधिकार उल्लंघन, भारतीय संविधान में दर्ज जीवन के अधिकार के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्विस कहते हैं, “शरणार्थियों, जिनमें रोहिंग्या भी शामिल हैं, को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार निर्वासन से पूरी तरह से सुरक्षा मिली है, जो जीवन के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है। यह अनुच्छेद केवल देश के नागरिकों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत की सीमा के भीतर रहने वाले किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है। यदि हम रोहिंग्या जैसे किसी शरणार्थी को निर्वासित करते हैं, जिसे वापस जाने पर नुकसान का सामना करना पड़ सकता है तो इससे उसके जीवन के अधिकार का उल्लंघन होता है। राज्य को अपनी सीमा के भीतर मौजूद सभी व्यक्तियों की सुरक्षा करनी चाहिए। शरणार्थियों को वापस खतरे में निर्वासित करना स्वीकार्य नहीं है।”
लेकिन समुदाय की कठिनाइयां कम नहीं हो रही हैं। रोहिंग्या समुदाय की सैयदा* शिक्षिका और परामर्शदाता हैं। वे कहती हैं, “कभी-कभी मुझे भारत के दूसरे राज्यों के हिरासत केंद्रों में रखे गए लोगों के परेशान कर देने वाले कॉल आते हैं। बहुत से लोग कई सालों से इन केंद्रों में हैं। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें तब हिरासत में लिया गया जब वे इन केंद्रों में अपने रिश्तेदारों से मिलने गए थे। मुझे नहीं पता कि मैं उनकी मदद के लिए किससे संपर्क करूं या उनके मामलों को लड़ने के लिए कोई है भी या नहीं।”
रोहिंग्या समुदाय से जुड़े अधिकारों के उल्लंघन के मामलों को उठाने के लिए वकील ढूंढना मुश्किल है। शरणार्थी अधिकार वकील फज़ल अब्दाली कहते हैं, “भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो शरण लेने वालों को अधिकार और हक देने के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता हो, वकीलों को शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए संविधान, दूसरे तरह के कानूनों, मिसालों और अधिकारों की जानकारी देनी पड़ती है।” यह उन वकीलों के काम को और मुश्किल बना देता है, जो समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
हम कानूनी सहायता शिविर आयोजित करते रहते हैं और हिरासत केंद्रों में कैदियों के साथ काम कर रहे हैं।
खबरों में यह बताया जाता रहा है कि रोहिंग्या शरणार्थियों को रखने वाले हिरासत केंद्रों में बुनियादी सुविधाएं, जैसे साफ शौचालय नहीं हैं और धूप की भी कमी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने साल 2023 में, संबंधित सरकारी अधिकारियों को केंद्रों का निरीक्षण करने और उचित सुविधाएं मुहैया करवाने का निर्देश दिया था। हालांकि आधिकारिक तौर पर स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है, लेकिन जमीनी स्तर पर काम कर रहे गैर-लाभकारी संगठनों ने इससे निपटने के तरीकों को ढूंढ निकाला है।
एक मानवाधिकार केंद्रित समाजसेवी संगठन के साथ काम करने वाले आकाश* बताते हैं कि कुछ मामलों में वे स्थानीय प्रशासनिक निकायों से समर्थन पाने में कामयाब रहे हैं। वे कहते हैं, “हम कानूनी सहायता शिविर आयोजित करते रहते हैं और हिरासत केंद्रों में कैदियों के साथ काम कर रहे हैं। हमने उन्हें जरूरत का सामान जैसे कि गर्म कपड़े पहुंचाए हैं। यह स्थानीय स्तर के अधिकारियों की मदद से ही मुमकिन हो पाया है। इसलिए, शरणार्थियों के साथ काम करने वाले नागरिक समाज संगठन स्थानीय अधिकारियों, सेवा प्रदाताओं, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा विभाग और स्थानीय कानूनी सहायता दिलवाने में मदद करते हैं। सरकार की संरचना के भीतर ऐसे स्थान हैं जहां हम शरणार्थियों तक राहत पहुंचाने वाली व्यवस्था का हिस्सा बनकर काम कर सकते हैं।”
रोहिंग्याओं का ‘अवैध प्रवासी’ दर्जा यह साबित करता है कि जिन लोगों को हिरासत में नहीं रखा गया है, वे भी सरकार की ओर से बनाई गई रहवासी व्यवस्था में अच्छा जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा, उन्हें अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी नहीं है।
कानूनी सहायता शिविरों और कार्यशालाओं ने समुदाय को उनके अधिकारों और कर्तव्यों को समझने में मदद की है। इसके साथ ही पंचायत, पुलिस और स्थानीय अधिकारियों के साथ बातचीत करने के तरीके भी उन्हें सिखाए हैं। फ़ज़ल हमें 2013 में हरियाणा के मेवात में किए गए एक अभियान के बारे में बताते हैं, जहां उन्होंने देखा कि रोहिंग्या शरणार्थी बेहद खराब हालात में रह रहे थे। “वे मेंढ़कों से भरे हुए कुओं का पानी पीते थे और उनके पास साफ सफाई की सुविधाएं नहीं थीं जिससे उन्हें कीचड़ से भरे हुए गड्ढों में शौच जाना पड़ता था। इन अमानवीय परिस्थितियों के खिलाफ, हमने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।” अगले 10 साल में, फ़ज़ल और उनकी टीम ने रोहिंग्याओं को न्याय प्रणाली तक पहुंचने के तरीकों के बारे में शिक्षा देने के वाली कार्यशालाएं, संवेदनशीलता कार्यक्रम और प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए। इनमें खासतौर पर बुनियादी सुविधाओं, हिरासत और निर्वासन के खतरों के बारे में बात की जाती रही है। “मेवात से शुरू होकर, यह पहल धीरे-धीरे जम्मू, हैदराबाद, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और भारत के दूसरे हिस्सों में पहुंच गई, जहां हमने उनके कानूनी अधिकारों और भारतीय कानून को समझाने पर ध्यान केंद्रित किया। पिछले 10 सालों में, हम भारत के अलग-अलग राज्यों में रोहिंग्याओं के साथ लगभग 2,300 प्रशिक्षण सत्र आयोजित कर चुके हैं।”
कोलिन कहते हैं, “संविधान के अनुसार स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और भोजन सभी मौलिक अधिकारों के तहत आते हैं जो आम आदमी को जीने का हक देते हैं।” लेकिन रोहिंग्या समुदाय के लोगों को इन सभी चीजों के लिए अब तक संघर्ष करना पड़ रहा है। कानूनी पहचान न होने के कारण रोहिंग्याओं को औपचारिक रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूलभूत सुविधाओं तक पहुंच नहीं मिलती है। यही वह जगह है जहां सीएसओज (सिविल सोसाइटी ऑर्गेनाइजेशंस), सामुदायिक कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो उनकी मदद करते हैं और इन सुविधाओं तक उनकी पहुंच बनाते हैं।
भारत में रोहिंग्या लोगों के साथ काम करने वाले एक सीएसओ के सदस्य ने एक बड़ी समस्या को उजागर किया: इन शरणार्थियों के पास बैंक खाते और आधार कार्ड नहीं हैं। इस वजह से वे सब्सिडी वाले राशन, पेंशन और शिक्षा जैसी सरकारी सामाजिक योजनाओं का लाभ नहीं ले पाते हैं। भले ही इसकी कानूनी अनिवार्यता नहीं है, लेकिन कई सरकारी स्कूलों में प्रवेश पाने या यूनिफॉर्म, पाठ्यपुस्तकें और अन्य सरकारी संसाधनों का लाभ लेने के लिए आधार कार्ड की जरूरत होती है।
रोहिंग्या समुदाय की एक और सदस्य फातिमा* बताती हैं कि हमारे समुदाय के बच्चों के लिए शिक्षा पाना आसान नहीं है। वे कहती हैं, “जब मैं साल 2014 में पहली बार भारत आई तो मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए स्कूल में दाखिला लेना मुश्किल लगा। फिर हैदराबाद में एक ट्रस्ट ने हमसे संपर्क किया और कहा कि हम उनके पास आ सकते हैं। वे लोग मेरी और मेरे भाई-बहनों की पढ़ाई का ध्यान रखेंगे। आजकल, कुछ गैर-लाभकारी संगठनों की मदद से हम नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग से स्कूल की डिग्री हासिल कर सकते हैं। लेकिन उच्च शिक्षा या कॉलेज की पढ़ाई के लिए अब भी आधार कार्ड जैसे पहचान पत्र की जरूरत होती है।”
फातिमा यह भी बताती हैं कि जो प्रतिभाशाली युवा भारतीय शिक्षा प्रणाली में उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हैं, वे यूएनएचसीआर यूनिवर्सिटी एक्सेस स्कॉलर्स कार्यक्रम—डुओलिंगो जैसे कार्यक्रमों के जरिए विदेश में पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति के लिए आवेदन कर सकते हैं। उनकी बहन ने ऐसे ही एक छात्रवृत्ति के जरिए कनाडा जाकर पढ़ाई की, लेकिन यह मौका केवल उन कुछ छात्रों को मिल पाता है जो निर्धारित मानदंडों (जैसे आयु और शैक्षिक योग्यताएं) को पूरा करते हैं और आवेदन प्रक्रिया को समझ और पूरा कर पाते हैं।
फातिमा जैसे समुदाय के कई युवाओं ने शिक्षा हासिल करने के लिए आसान तरीके तलाश किए हैं। फातिमा कहती हैं कि “मैं बच्चों और महिलाओं को बुनियादी साक्षरता सिखाने पर ध्यान दे रही हूं। भारत आने के बाद पहली चुनौती यह होती है कि हमें यहां की स्थानीय भाषा नहीं आती है। मैं सबकुछ शुरू से समझाना शुरू करती हूं, सबसे पहले अक्षरमाला से, और फिर मेरे छात्र अपने नाम और अपने परिवार के सदस्यों के नाम जैसे शब्द लिखना सीखते हैं। मैं उन्हें महत्वपूर्ण नंबर जैसे फोन नंबर, बस नंबर और अस्पताल के नंबर लिखना भी सिखाती हूं। आखिरी मैं उन्हें उनके कैंप का पता याद करवाती हूं—जैसे कि ‘कैंप नंबर 12’—ताकि वे अपने स्थान की पहचान कर सकें।”
आवास और आजीविका तक पहुंच भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। नूर बेगम* दिल्ली में कई परिवारों की एक अस्थायी बस्ती में एक कमरे की झोपड़ी में रहती हैं। वे कहती हैं, “अक्सर हमें कई दिनों तक बिजली नहीं मिलती जिससे गर्मियों के महीनों में बहुत दिक्कत होती है। पानी का टैंकर हर दिन आता है लेकिन हमें कभी नहीं पता होता कि कब आएगा और हम अपने परिवार की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए बहुत कम पानी ला पाते हैं।”
एक दूसरी बस्ती में रहने वाली रोहिंग्या समुदाय की रजिया* बताती हैं कि उनके समुदाय के अधिकांश लोगों में दिल्ली जैसे शहरों में काम करने के लिए जरूरी कौशल की कमी है। वे कहती हैं, “म्यांमार में, पुरुष खेती करते थे। वे कई सब्जियां और गेहूं जैसे अनाज उगाते थे जो मुख्य रूप से परिवार की खपत के लिए होता था। महिलाएं घरेलू काम करती थीं। हम स्कूल नहीं गए और न ही पढ़ना सीखा।”
दिल्ली में उनके खेती-किसानी के कौशल का ज्यादा उपयोग नहीं है और उनके पास कुछ भी उगाने के लिए मुश्किल से कोई जगह होती है। कानूनी रूप से काम करने के अधिकार के बिना, ज्यादातर लोग अनौपचारिक रोजगार पर निर्भर हैं। आमतौर पर निर्माण कार्य में दिहाड़ी मजदूरी, कचरा बीनना, रिक्शा चलाना, और सड़क पर फेरी लगाना शामिल हैं। ये नौकरियां अस्थिर होती हैं और इनसे होने वाली आय परिवार चलाने के लिए काफी नहीं है, जिससे बहुत सारे परिवार गरीबी के जाल में फंस जाते हैं। बैंकों तक उनकी पहुंच ना के बराबर है, ऐसे में समुदाय के लोग आर्थिक स्तर को बेहतर बनाने के तरीकों जैसे संपत्ति खरीदने, व्यवसाय शुरू करने, या सुरक्षित रूप से बचत करने से वंचित रहते हैं।
नरसंहार और जबरन पलायन के उनके पिछले दर्दनाक अनुभवों और उनके विस्थापन के कारण चल रहे तनाव का मतलब है कि भारत में रहने वाले रोहिंग्या गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। कई लोगों ने गंभीर हिंसा और नुकसान का सामना किया है, जिसमें परिवार के सदस्यों की मृत्यु और उनके घरों का विनाश शामिल है। स्थायी निवास की उम्मीद के बिना अनिश्चित हालातों में रहना मौजूदा पीड़ा को और बढ़ा देता है। आज़ादी प्रोजेक्ट से जुड़ी श्रेयस जयकुमार समुदाय की महिलाओं और लड़कियों के साथ काम करती है। वे बताती हैं, “क्षमता निर्माण की दिशा में कई प्रयास किए गए इसके बाद भी बहुत सारे लोग रोजगार के लिए संघर्ष करते हैं। रहने की संकुचित परिस्थितियों और घर लौटने की नाकामयाबी के कारण निराशा और हताशा और बढ़ जाती है।
रोहिंग्या महिलाओं को अक्सर घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।
हाल ही में, इस संगठन ने दिल्ली में एक केंद्र शुरू किया है जो रोहिंग्या शरणार्थी महिलाओं और लड़कियों के साथ-साथ अनौपचारिक बस्ती और उसके आसपास रहने वाली दूसरी महिलाओं को समग्र मनोवैज्ञानिक मदद मुहैया करता है। उन्हें सबसे पहले संघर्ष, दुख और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी धारणाओं से पैदा हुई मुश्किलों का सामना करने के लिए समुदाय के साथ विश्वास का रिश्ता बनाना पड़ा। आजादी प्रोजेक्ट ने पाया कि व्यक्तिगत चिकित्सा सत्रों के अलावा, समूह चिकित्सा विशेष रूप से प्रभावी है। समूह चिकित्सा में महिलाओं को एक-दूसरे के अनुभव साझा करने का अवसर मिलता है। इन सत्रों में कला, गाना और हाथ पकड़कर एक-दूसरे के दर्द को स्वीकार करने जैसे तरीके शामिल हैं। इस प्रयास ने मेजबान भारतीय समुदाय और शरणार्थी समुदाय के बीच उपचार और संबंध के लिए जगह बनाई है। इन सत्रों ने रोहिंग्या महिलाओं को नींद की गड़बड़ी, भविष्य के बारे में अनिश्चितताओं, घर की लालसा और प्रियजनों के खोने का शोक जैसे मुद्दों पर चर्चा करना शुरू किया है।
समुदाय के भीतर पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देते हैं। बाहर से होने वाली छिपी और प्रत्यक्ष हिंसा के अलावा, रोहिंग्या महिलाओं को अक्सर घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। सईदा कहती हैं, “महिलाओं का कहना है कि उन्हें अपने पति की बात माननी पड़ती है, वरना वे उनके साथ हिंसक बर्ताव करने का अधिकार रखते हैं। अगर वे कुछ बोलती हैं तो उन्हें अक्सर तलाक की धमकी दी जाती है। उन्हें ज्यादा बाहर जाने की भी मनाही है। अभी कुछ समय पहले तक तो उन्हें प्रसव के लिए अस्पताल जाने की भी अनुमति नहीं थी।”
लेकिन इसमें धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। समुदाय के साथ विश्वास स्थापित करने में सफलता प्राप्त करने के बाद समाजसेवी संगठनों ने लैंगिक जागरूकता कार्यशालाएं और सत्र आयोजित करना शुरू किया। यहां उन्होंने महिलाओं के सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकार, और अपने बच्चों की शिक्षा के महत्व पर जोर दिया। समुदाय के सदस्यों का उनके साथ काम करना हमेशा फायदेमंद रहा है। सईदा कहती हैं, “मैं एक युवा महिला के रूप में अपने आप को उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करती हूं, जो अब बाहर जा रही है, पैसे कमा रही है, और अपने परिवार की मदद कर रही है। हम दंपतियों को भी सलाह देते हैं। धीरे-धीरे, हमने बदलाव देखा है।”
भारत में रोहिंग्या समुदाय के लोगों के जीवन में कई चुनौतियां हैं, जो उनकी अस्पष्ट कानूनी स्थिति, आर्थिक कमजोरियों, और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पैदा होती हैं। उनके लिए हालातों को बेहतर करने में समाजसेवी संगठनों, नागरिक समाज संगठनों (सीएसओएस), और भारतीय समुदाय का समर्थन सबसे अहम है।
यह कुछ तरीके हैं जिनसे विभिन्न हितधारक हस्तक्षेप कर सकते हैं:
मेजबान समुदायों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संगठन रोहिंग्या समुदायों के साथ सामाजिक संबंधों और बंधनों को प्रोत्साहित करने के लिए पहल शुरू कर सकते हैं। आजादी परियोजना ने मेजबान और रोहिंग्या समुदायों दोनों की महिलाओं और बच्चों को विभिन्न कार्यक्रमों और संवादों में शामिल करके ऐसा करना शुरू कर दिया है।
समाजसेवी संगठनों को अपने साथ काम करने वाले सभी समुदायों को जेनोफोबिया, इस्लामोफोबिया, विस्थापन और शरणार्थी अनुभवों के बारे में संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम सामान्य रूप से आयोजित करने चाहिए।
शरणार्थियों के साथ काम करने वाले नागरिक संगठनों को स्थानीय प्रशासन, कानूनी सहायता क्लीनिक, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और शिक्षा जैसे संबंधित सरकारी विभागों के साथ सहयोग करना चाहिए। इन संबंधों को स्थापित करने से एक ऐसी व्यवस्था बन सकती है जिससे समुदायों को संकट के समय, जैसे कि निर्वासन या हिरासत के दौरान, सहायता मिल सके।
रोहिंग्या समुदाय के साथ या उसके करीब काम करने वाले समाजसेवी संगठन और कार्यकर्ताओं को, हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को तात्कालिक कानूनी सहायता प्रदान करने वाले मामलों को प्राथमिकता देनी चाहिए। कोलिन कहते हैं, “यदि किसी संगठन को रोहिंग्या समुदाय का कोई व्यक्ति फोन कर अपनी मुश्किल के बारे में बताए, तो पहला कदम एक वकील से संपर्क करना और कानूनी सलाह और हस्तक्षेप मांगना होना चाहिए। ऐसा जल्दी करने से हिरासत में लिए गए व्यक्ति की रिहाई की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सकता है, खासकर अगर वे पहले से ही देश में अवैध प्रवेश के लिए अधिकतम सजा (तीन वर्ष) काट चुके हैं।”
ये संगठन रोहिंग्याओं को उनके कानूनी अधिकारों और उपलब्ध कानूनी सहायता के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान चला सकते हैं। इसमें कार्यशालाएं, सूचनात्मक पैम्फलेट का वितरण या रोहिंग्या आबादी वाले क्षेत्रों में कानूनी सहायता डेस्क स्थापित करना शामिल हो सकता है। इससे उन्हें खुद के लिए बात करने और सिस्टम को समझने में मदद मिलेगी।
समाजसेवी संगठनों को रोहिंग्या समुदाय को शिक्षा और आजीविका के कार्यक्रमों से जोड़ना चाहिए, जैसे यूएनएचसीआर की ओर से संचालित कार्यक्रम। सारा (आजादी प्रोजेक्ट से) विस्तार से बताती हैं, “एक परिवार का उदाहरण लें जो पहले से ही एक दुकान चला रहा है। ऐसे यूएनएचसीआर कार्यक्रम हैं जो उन्हें अपने व्यवसाय का विस्तार करने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान कर सकते हैं, जिससे आर्थिक स्थिरता और आत्मनिर्भरता सुनिश्चित होती है।”
भारत में रहने वाले रोहिंग्याओं को मिलने वाले अधिकार और पात्रता बहुत सीमित हैं। इसलिए, गैर-लाभकारी संगठनों को इस समुदाय को उनके अधिकारों को प्राप्त करने में सक्रिय रूप से मदद करनी चाहिए। इसमें स्कूलों में समुदाय के बच्चों के प्रवेश को आसान बनाना, समुदाय के लोगों को सम्मानजनक रोजगार दिलवाने में मदद करना और जहां भी संभव हो वहां उच्च शिक्षा कार्यक्रम और छात्रवृत्तियां देना शामिल है। सामाजिक क्षेत्र को समुदाय की जरूरतों के अनुरूप कौशल-निर्माण पहलों में भी निवेश करना चाहिए, जैसे कि व्यावसायिक प्रशिक्षण, भाषा कक्षाएं और अन्य कार्यक्रम जो उन्हें आजीविका खोजने में मदद कर सकते हैं।
कई मानवाधिकार अधिवक्ताओं ने बताया है कि लोकतंत्र की असली परीक्षा यह है कि वह अपने शरणार्थी आबादी की राजनीतिक और सामाजिक संप्रभुता को कैसे सुनिश्चित करता है? यही सिद्धांत उन नागरिक समाज संगठनों पर भी लागू होता है जिनका काम नागरिकता की स्थिति की परवाह किए बिना लोगों की सेवा करना है, और खासकर उन लोगों के लिए जिन्हें सीमित सुविधाएं मिली हैं, जो अदृश्य होते हैं, और जिनके अधिकारों का हनन होता है, जैसे कि रोहिंग्या। इन संगठनों और व्यक्तियों को शरणार्थियों के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय नीति की मांग भी जारी रखनी चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
फंडर्स की तुलना काजू कतली से की जा सकती है – फैन्सी, हमेशा डिमांड में रहने वाली और मिठाई समाज में प्रतिष्ठित। शायद ही कोई होगा जिसे काजू कतली नहीं पसंद होती है, हर कोई इसे पाना, या खाना चाहता है लेकिन यह कभी उतनी मात्रा में नहीं मिल पाती जितने की उम्मीद होती है।
बड़े समाजसेवी संगठन, मगज के लड्डू की तरह होते हैं। वे हमेशा से हैं, हमेशा के लिए हैं और हर जगह हैं। उनके बिना दीवाली अधूरी है। ये संगठन लड्डुओं की तरह, बाहर से एकदम व्यवस्थित, सुडौल और मजबूत दिखाई देते हैं। भीतर की तो वे ही जानें। कई बार, लड्डुओं की तरह ये एक से दूसरी जगह पर लुढ़कते हुए भी दिख जाते हैं।
जमीनी कार्यकर्ताओं को जलेबी की तरह देखा जाता है। ज्यादातर बार जिस संस्था के लिए वे काम कर रहे होते हैं, वे ही उनकी जरूरतों और मुश्किलों को नहीं समझ पाते हैं। वहीं, कई बार ऐसा भी होता है जिस समुदाय के साथ वे काम कर रहे होते हैं, वह भी नहीं बता पाता है कि जमीनी कार्यकर्ता क्या और क्यों कर रहे हैं। लेकिन इतने के बाद भी ये जलेबी सरीखी अपनी मिठास, कुरकुरेपन और गर्माहट के साथ सबको साथ लाने में सफल होते हैं।
जैसे कोई नहीं जानता कि सोनपापड़ी के डिब्बे के घूमने का सिलसिला कहां से शुरू होता है और कहां खत्म होता है, और कैसे वो एक से दूसरे और दूसरे तीसरे हाथ में पहुंचती रहती है। वैसे ही, कोई इम्प्लीमेंटेशन टीम के बारे में कुछ नहीं बता सकता है क्योंकि ये हर दिन एक नए मिशन पर निकलती है। सोनपापड़ी की तरह नाजुक, परतदार और अक्सर गलत समझी जाने वाली इम्प्लीमेंटेशन टीम की मेहनत बहुत बार अनदेखी रह जाती है।
सुंदर, छोटी-छोटी, सुनहरी बूंदियों से बना मोतीचूर का लड्डू ही समुदाय को सबसे अच्छी तरह से दिखा सकता है। और, बता सकता है कि जब छोटी-छोटी इकाइयां साथ आती हैं तो कितना स्वाद आ सकता है। मोतीचूर के लड्डुओं की तरह समुदाय को भी बहुत सावधानी और प्यार से बरतना पड़ता है, अगर एक छोटी गलती हुई तो इन्हें बिखरने में देर नहीं लगती है।
स्टेकहोल्डर्स रसगुल्ले की तरह नरम और स्पंजी होते हैं। कितना भी ज़रूरी काम हो आप उन पर ज़्यादा दबाव नहीं दे सकते हैं! अक्सर इनकी अपनी अलग राय, विचार और अपेक्षाएं होती हैं। अगर इनके साथ काम करते हुए, असावधानी हुई तो ये अपनी मिठास खो सकते हैं और आपको एक चिपचिपी हालत में पहुंचा सकते हैं।
नीतियां बनाने वाले अक्सर पेड़े की तरह मजबूत और भरोसेमंद होते हैं। अक्सर मिठाई सेक्टर की नवाचार मिठाई परियोजनाओं का आधार यही बनते हैं। कुछ लोगों को ये थोड़े रूखे-सूखे से लग सकते हैं और जिनसे ठोस ज्ञान निगला नहीं जाता, उन्हें यह खाने के बाद तुरंत बाद पानी की ज़रूरत महसूस हो सकती है।
नवंबर 2023 में, भारत सरकार की कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय (एमएसडीई), ने इज़राइली सरकार के साथ एक त्रिवर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके तहत वो ‘भारतीय श्रमिकों को एक विशिष्ट श्रम बाजार के क्षेत्र, विशिष्ट तौर पर निर्माण (कंस्ट्रक्शन) उद्योग में अस्थायी तौर पर रोजगार मुहैया कराएंगे।’ हमास हमले के बाद, तय किये गये इस समझौते के बाद, प्रवासी श्रमिकों के स्वीकार करने पर इस्राइल की नीति में बदलाव हुआ, जहां उन्होंने हजारों फ़लिस्तिनियों द्वारा आवेदिन किये गये वर्क या श्रम वीज़ा को एक सिरे से रद्द कर दिया है। इसके बजाय, उन्होंने श्रमिकों की कमी से जूझ रहे उद्योगों के लिए, अन्य देशों से भारतीय नागरिकों और अन्य श्रमिकों की भर्ती की, जिनमें निर्माण कार्य से जुड़ी योजनाओं को पढ़ पाने की मामूली क्षमता होना जरूरी था, इसके अलावा उन्हें शटरिंग, कारपेंट्री, सिरेमिक टाईलिंग, प्लास्टरिंग और आइरन बेंल्डिंग जैसे कामों को करने की कुशल जानकारी हो।
राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) और जिला श्रम अधिकारी, सामाजिक एवं पारंपरिक मीडिया प्रचार माध्यम की मदद से भर्ती की सुविधा प्रदान करते हैं। भारतीय युवाओं को इज़राइल में काम करने के लिए तैयार करने का काम काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे प्रेरित हो कर 18,000 भारतीय पहले ही इज़राइल में काम कर रहे हैं। इनमें लोग खासकर केयरगिवर के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। कुछ अन्य देश भी हैं जो भारत को ऐसे निवेदन भेज रहे हैं। ग्रीस ने भी अपने कृषि क्षेत्र में काम करने के 10,000 किसान श्रमिकों की मांग भारत के सामने रखी है और इटली ने अपनी म्युनिसिपल सेवाओं के लिए भारतीय मजदूरों की सेवा लेने की इच्छा जाहिर की है। विदेशों में भारतीय श्रमिकों की बढ़ती मांग के कारण भारतीय कामगारों को इन देशों में भेज पाने के लिये, सरकारी कागजी प्रक्रिया को और सरल बनाने पर ध्यान दिया जा रहा है। साथ ही इन देशों में कामगारों की कमी से निपटने के लिए भारत से स्किल्ड और सेमी-स्किल्ड मजदूरों की सेवा ले पाने के लिये कई विकसित देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते पर सहमति बनायी जा रही है।
इस तरह के स्थापित हो रहे द्विपक्षीय समझौतों से भारतीय शहरी युवाओं को विदेशों में बेहतर श्रेणी के रोजगार के अवसर मिल रहे हैं। भारत के गांवों और कस्बों से बड़ी संख्या में युवा प्रवासी नौकरी और रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं। इनमें से कुछ लोग ही ऐसे हैं जिन्हें फुलटाइम नौकरी मिली हुई है; बाकी सभी आंशिक तौर छोटे-मोटे काम से बंधे हुए हैं। और बाकी काफी सारे लोग ऐसे हैं जो बगैर किसी जॉब अथवा कार्य के हैं। अगर हम अपने इन युवा वर्कफोर्स को कुशल ट्रेनिंग दे पायें और उनके भीतर विदेशों में ज़िम्मेदारियां उठाने की दक्षता विकसित कर सकें तो, इस हालात से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता है। ऐसा होने से भारतीय शहरों में बेरोजगारी की समस्या में कमी आयेगी, जनसांख्यिकी आंकड़ा भी छोटा होगा, शहर के बुनियादी ढांचों पर दबाव घटेगा और बेहतर कानून और व्यवस्था की मदद से देश में रोजगार को लेकर जो दबाव है वो कम होगा।
इस परिप्रेक्ष्य में, आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय, द्वारा राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत लॉन्च किये गये दीनदयाल अंत्योदय योजना, कौशल विकास के लिए बेहतर अवसर का सृजन करने की प्रक्रिया में भारी भूमिका अदा कर सकती है। जिससे शहरी युवा को अंतरराष्ट्रीय समेत विभिन्न श्रम बाज़ार में नियोजित किये जाने योग्य बना सकेगी। इसके साथ ही, भारत सरकार की राष्ट्रीय कौशल योग्यता रूपरेखा (एनएसक्यूएफ), जो ज्ञान, योग्यता एवं कौशल का विश्लेषण कर योग्य पात्रों को एक जगह एकत्र करती है, वह भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
प्रशिक्षण महानिदेशालय (डीजीटी) ने अपने सभी कार्यक्रमों को नेश्नल स्किल्स क्वॉलिफिकेशंस फ्रेमवर्क के साथ एकरूप करने का प्रयास किया है ताकि दोनों कार्यक्रमों की ट्रेनिंग एक जैसी हो और इसके तहत अभ्यास एवं शिक्षा पाकर हम एक स्टैंडर्ड उच्च स्तरीय कामगारों का निर्माण कर सके जो हर पैमाने पर संतुलित हो। डीजीटी, राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) और एडोबी इंडिया ने मिलकर कौशल विकास संबंधी एक त्रिपक्षीय समझौते पर सहमति कायम की है। इन प्रयासों के बदौलत अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर लोग गतिशील होने लगे हैं और वे भारतीय कामगारों की योग्यता को अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार बना पाने के लिए जरूरी जो अतिरिक्त बेंचमार्किंग है उसे भी पूरा कर एनएसक्यूएफ को भी संतुष्ट कर पा रहे हैं।
इस संबंध में और बेहतर परिणाम कौशल विकास मंत्रालय जो स्कूलों और यूनिवर्सिटी में अनौपचारिक स्तरीय व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाने का काम करता है, उनके और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बीच तालमेल स्थापित कर पाया जा सकता है। ऐसे प्रयासों का और भी बेहतर परिणाम तब निकल पायेगा अगर एनएसडीसी ने और भी व्यापक स्तर पर व्यावसायिक समूहों में इन कौशल को शामिल कर लिया होता ताकि देश के शहरी युवा अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इन क्षेत्रों में कड़ी प्रतिस्पर्धा कर पाने लायक हो जाते।
दुर्भाग्यवश, युवा भारतीयों को युद्ध क्षेत्र में धकेलने के आरोपों की वजह से देशभर में अलग-अलग स्तरों पर भारत-इज़राइल समझौते की आलोचना हो रही है। 15 जनवरी 2024 को, सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन (सीआईटीयू ने इन प्रयासों की तीख़ी भर्त्सना की और भारतीय श्रमिकों से इज़राइल में इन नौकरी को स्वीकार न करने की अपील की। इसकी सहयोगी, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (सीडब्ल्यूएफआई) ने भारतीय युवाओं का जीवन खतरे में डाले जाने को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की है। उन्होंने इन युवाओं को मौत के जाल में धकेले जाने की चिंता व्यक्त की है। उसी तरह से, विभिन्न दलों ने, देश में बड़े पैमाने पर बढ़ रही बेरोजगारी की तरफ सरकारों का ध्यान आकर्षित किया है, जो युवाओं को रेड जोन (खतरे के निशान) के ऊपर जाने को विवश कर रहा है और इस वजह से उन्होंने काम करने के लिये इज़राइल जा रहे भारतीय युवाओं को जरूरी सुरक्षा एवं उदार इंश्योरेंस की सुविधा दिये जाने की वकालत की है।
अन्य देशों में, खासकर खाड़ी के देशों में, भारतीय कामगार मुख्यरूप से श्रम मुहैया कराते हैं, जो कि इन देशों के विकासशील बुनियादी ढांचे और सेवाओं के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।
पर ऐसा लगता है कि इस तरह की आलोचनाओं का देश के युवाओं पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। रोजगार पाने की इच्छा में, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब के युवा जितनी नौकरी मौजूद थी, उससे कहीं अधिक संख्या में कौशल परीक्षण के लिए नियोजित भर्ती केंद्रों पर पहुंच रहे हैं। इनमें से ज्यादातर लोग बेरोजगार हैं, और जिनके पास रोजगार है भी तो वे भी प्रति महीने 10 से 20 हजार रुपये की मामूली नौकरी कर रहे हैं। उनके लिए, इज़राइल-हमास के बीच युद्ध का होना कोई खास मायने नहीं रखता है। उन्हें इसका फर्क नहीं पड़ रहा है। एक महीने में 1.37 लाख रूपये कमाने के आकर्षण के सामने, जान का खतरा भी कम पड़ रहा है। इज़राइल में रोजगार पाने के लिये कतार में खड़े कुछ आकांक्षी लोगों का कहना है कि वर्तमान में जहां वे काम करते हैं वह उनके घरों से काफी दूर है, और वे साल में सिर्फ एक बार ही अपने घर जा पाते हैं। ऐसे में उनका मानना है कि इज़राइल में नौकरी करने से उनके जीवन में काफी सकारात्मक परिवर्तन आ पाएगा।
दुनिया के कई देशों में भारत भर के कई प्रवासी समुदाय बसे हुए हैं। दिसंबर 2018 में अनुमान लगाया गया कि इनकी संख्या 32.3 मिलियन के करीब है, और 1981 के बाद से अब-तक, इसमें लगभग 20 मिलियन की बढ़त दर्ज की गई है। पश्चिमी देशों और अन्य विकसित देशों में काम करने वाले ये लोग जिनमें महिलायें और पुरुष दोनों ही शामिल हैं, वे सीढ़ी के सबसे उपरी पायदान पर बैठे हैं, ये लोग अपने लिए काफी बेहतर कर पा रहे हैं और अपनी कौशल और सेवाओं के बदौलत अपने देशों की अर्थव्यवस्था में काफी उल्लेखनीय योगदान कर रहे हैं। अन्य देशों में, खासकर खाड़ी के देशों में, भारतीय कामगार मुख्यरूप से श्रम मुहैया कराते हैं, जो कि इन देशों के विकासशील बुनियादी ढांचे और सेवाओं के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।
साल दर साल, विदेश में रह रहे भारतीयों द्वारा देश को मिलने वाले धन या प्रेषण (रेमिटेंस) में काफी वृद्धि होते हुए देखी गई है। वर्ष 2017–18 में अमेरिकी डॉलर में कुल विदेशी प्रेषण 69.129 मिलियन डॉलर था। साल 2021-22 आते-आते ये रेमिटेंस अमेरिकी डॉलर में 127 मिलियन तक पहुंच चुका था। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, आगामी 2023 तक भारत को दुसरे देशों से प्राप्त होने वाला रेमिटेंस अमेरिकी डॉलर में 125 बिलियन तक पहुंच जाएगा। इनमें से 20 से 25 प्रतिशत धन का श्रेय, मध्य-पूर्वी खाड़ी देश में कार्यरत कुशल/अर्ध-कुशल ब्लू कॉलर श्रमिकों को जाता है।
प्रवासी श्रमिकों के लिये ये एक बड़ी जीत है, जैसा कि कई लोगों ने बताया भी है। ये उन्हें कई तरह का फायदेमंद रोजगार उपलब्ध कराता है जो उन्हें अपने देश में मिलना मुश्किल है, और जिसकी मदद से वे अपने परिवारों की देखभाल कर सकते हैं, अपनी आर्थिक स्थिती मजबूत कर सकते हैं और अंत में गरीबी से बाहर निकल सकते हैं। विदेश में काम करते हुए, एक आम भारतीय मज़दूर कम से कम पांच साल तक वहां रहता है, जहां वे अपना कौशल बेहतर भी करते हैं, जो वापिस घर आने पर यहां नौकरी ढूंढने में उनकी मदद कर सकता है।
दाता देशों की ओर से, ये महत्वपूर्ण होगा कि वे उस देश की उन प्रक्रियाओं के सुदृढ़ीकरण में भी हिस्सा लें, जहां के मजदूर उनके देशों में आकर श्रमदान कर रहे हैं।
भारत से होने वाले श्रम आयात को कई विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। देखा गया है कि, अपनी विशाल आबादी की बदौलत भारत, कई दशकों से अपने युवा पुरुष एवं महिला श्रम शक्ति के लिए उनके लायक रोजगार को ढूंढ पाने में असफल एवं संघर्षरत रहा है। इस संदर्भ में, देश के बाहर रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध होने की स्थिति में, शहरी युवाओं को बेरोजगार अथवा अल्प-बेरोजगार रखने का कोई औचित्य नहीं है। देश के भीतर की बेरोजगारी को कम करने का यह काफी सार्थक तरीका है। बढ़ती उम्र वाले देशों में, उद्योगों को चलायमान रखने के लिये प्रवासी श्रमिक, उनके लिये जीवन रेखा बनने का काम करते हैं। जिन देशों को ये सुविधा मिलती है वे भी अपने औद्योगिक एवं आर्थिक गतिविधियों में और सुधार ला पाते हैं, जो प्रवासी श्रमिकों की उपलब्धता के बगैर संभव नहीं हो पाता।
प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे जाने वाले प्रेषित धन से, श्रम उपलब्ध कराने वाले देशों को भी काफी फायदा होता है। भारत में, गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) देशों (बहरीन, कुवैत, ओमान, कतार, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात) जहां मुख्य तौर पर भारतीय प्रवासी मज़दूर के तौर पर अपनी सेवा दे रहे हैं, वहां से भी वर्ष 2021-2022 के दौरान 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर की रकम भारत आ रही है। आर्थिक रूप से कमजोर एवं कम समृद्ध उत्तर प्रदेश, और बिहार जैसे राज्यों से वहां जाने वाले श्रमिकों की संख्या, देश के अन्य समृद्ध राज्यों की तुलना में काफी तेजी से बढ़ी है, और इस वजह से उनके जरिये जो आय इन राज्यों को हासिल हुई उससे इन राज्यों को एक अतिरिक्त सुरक्षा कवच उपलब्ध मिला, क्योंकि इन राज्यों के पास अपनी युवा आबादी को देने के लिये न तो उचित रोजगार के अवसर थे और न ही जरूरी आर्थिक शक्ति थी।
इस पृष्ठभूमि के विपरीत, यह सही है कि नौकरी देने वाला देश पूरे विश्व को मजदूरों को पलायन की सुविधा दे रहा है। जिस प्रकार से भारत के पश्चिमी प्रवासियों की गुणवत्ता एवं उनकी भूमिका को वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई है, ठीक उसी तरह से कामगार के कामों के लिए, भारत से विदेश यात्रा कर रहे प्रशिक्षित, कुशल श्रमिकों की भी इन देशों के निर्माण में अपने प्रतिबद्ध एवं शांतिप्रिय योगदान के लिए सराहना की जाती है। इसी संदर्भ में, पश्चिमी देश भी अब भारतीय श्रम को विकल्प के तौर पर अपनाने के लिये तैयार होते दिख रहे हैं।
दाता देशों की ओर से, ये महत्वपूर्ण होगा कि वे उस देश की उन प्रक्रियाओं के सुदृढ़ीकरण में भी हिस्सा लें, जहां के मजदूर उनके देशों में आकर श्रमदान कर रहे हैं। ये जरूरी है कि इन मजदूरों के देशों में उनके लिये सुविधा हो। इसके लिये इन मजदूरों के कल्याण को लागू करने एवं उसे प्राथमिकता देने के लिये समुचित नीतियां और कानून लाया जाये। इसके लिये प्रवासी श्रमिकों के कल्याण एवं उनके अधिकारों का संज्ञान लेने वाली सामंजस्यपूर्ण नीतियां एवं कानून बनाए जाने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके लिये भारत को चाहिए कि प्रवासी श्रमिकों से संबंधित सवालों के तत्काल जवाब के लिए देश भर से होने वाले मजदूरों के पलायन पर विस्तृत आंकड़े तैयार किए जायें।
यह लेख मूलरूप से ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन हिन्दी पर प्रकाशित हुआ था।
हल्का-फुल्का का यह अंक सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के संस्थापक साक़िब अहमद के अनुभव पर आधारित है।
भारत की बाल संरक्षण (फॉस्टर केयर) प्रणाली में एक समस्या है। यह प्रणाली किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और सुरक्षा) अधिनियम, 2015, या जुवेनाइल जस्टिस (जेजे) अधिनियम, 2015 के तहत संचालित होती है। फॉस्टर केयर प्रणाली उन बच्चों की देखभाल, सुरक्षा और पुनर्वास की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाई गई है, जो अनाथ हैं या जो दुर्व्यवहार, परित्याग, उपेक्षा या किसी दूसरे संकट का सामना कर रहे हैं। वर्तमान में, यह प्रणाली बहुत हद तक संस्थागत देखभाल पर निर्भर करती है, यानी बाल देखभाल संस्थानों (चाइल्ड केयर इंस्टीट्यूशन – सीसीआई) पर। लेकिन, ये संस्थान ‘अंतिम विकल्प’ होने चाहिए।
हाल के सालों में, परिवार आधारित देखभाल पर बढ़ता ध्यान उन परिवारों की सहायता के लिए ज्यादा प्रयास कर रहा है, जो वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं या जिनके लिए बच्चों की देखभाल एक वित्तीय बोझ बन गई है। सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिए इन्हें सहायता प्रदान की जा रही है। इन पहलों का उद्देश्य परिवारों को अपने बच्चों की देखभाल घर पर करने में मदद करना है, ताकि आर्थिक कठिनाइयों के कारण उन्हें संस्थान में भेजने की आवश्यकता न पड़े।
हालांकि, कई बच्चों के लिए परिवार के साथ रहना कोई विकल्प ही नहीं है क्योंकि परिवार उन्हें पालने की इच्छा नहीं रखते या परिवार को ‘अयोग्य’ माना जाता है। जब ये बच्चे एक बाल देखभाल संस्थान (सीसीआई) में जाते हैं तो उनमें से कई लंबे समय तक संस्थागत देखभाल में रहते हैं और परिवार के माहौल में बड़े होने का अधिकार खो देते हैं। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर चिंता व्यक्त की है। ‘अनाथ, परित्यक्त और समर्पित’ (ऑर्फन्ड अबन्डन्ड सरेंडर्स – ओएएस) श्रेणी में आने वाले छह साल से बड़े बच्चे भी इसी स्थिति का सामना करते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, इनके गोद लिए जाने की संभावना भी काफी कम होती जाती है क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत गोद लेने वाले माता-पिता दो साल से छोटे बच्चों को ही प्राथमिकता देते हैं। महिला और बाल विकास मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 3 लाख 70 हजार बच्चों में से 50,000 से ज्यादा ओएएस श्रेणी के बच्चे 7 से 18 साल की आयु वर्ग में हैं। ऐसे बच्चों के लिए, जेजे अधिनियम, 2015 के तहत फॉस्टर केयर, यानी परिवार आधारित देखभाल, एक संभावित विकल्प बन सकता है।
फॉस्टर केयर एक ऐसा सिस्टम है जो उन बच्चों को देखभाल और सुरक्षा प्रदान करता है जिन्हें अपने जैविक माता-पिता के साथ रहने का मौका नहीं मिल रहा है और जो छह साल से बड़े हैं। यह बच्चों को परिवार के माहौल में बड़े होने का मौका देता है। यह खास तौर पर उन बच्चों के लिए उपयुक्त है जिन्हें अपने परिवारों से अस्थायी रूप से दूर रहने की जरूरत है और जो बाल देखभाल संस्थानों में इसलिए जाते हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं होता। ये बच्चे आमतौर पर उन परिवारों से आते हैं जो अस्थायी संकट का सामना कर रहे होते हैं, जैसे माता-पिता की मृत्यु या अलगाव, वित्तीय कठिनाई, माता-पिता का जेल जाना, गंभीर बीमारी, या काम की तलाश में प्रवास करने की जरूरत। ऐसे कारण बच्चों के माता-पिता की देखभाल और पालन-पोषण की क्षमता को प्रभावित करते हैं।
फॉस्टर केयर को भारत की बाल न्याय प्रणाली में पहली बार -किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और सुरक्षा) अधिनियम 2000, यानी जेजे अधिनियम 2000 के जरिए शामिल किया गया था। साल 2015 में जेजे अधिनियम के फिर से लागू होने के साथ इसमें महत्वपूर्ण बदलाव किए गए। फॉस्टर केयर के लिए संचालन और प्रशासनिक प्रक्रियाएं केंद्रीय सरकार की ओर से 2016 में जारी किए गए मॉडल गाइडलाइन्स में स्पष्ट की गई थीं, जिन्हें 2024 में फिर से संशोधित किया गया। फॉस्टर केयर को लागू करने का काम जिला स्तर पर बाल कल्याण अधिकारी करते हैं, जिसमें जिला बाल संरक्षण इकाई (डिस्ट्रिक्ट चाइल्ड प्रोटेक्शन यूनिट – डीसीपीयू) और बाल कल्याण समिति (चाइल्ड वेलफेयर कमेटी – सीडब्लूसी) शामिल होती है।
फॉस्टर केयर और गोद लेने में अंतर है। फॉस्टर केयर एक अस्थायी व्यवस्था है जिसमें एक बच्चे को उसकी आवश्यकता के हिसाब से कुछ समय के लिए रखा जाता है, जो बच्चे की परिस्थितियों के आधार पर कुछ महीनों से लेकर कई सालों तक हो सकता है। फॉस्टर केयर में बच्चे और उसके जैविक परिवार के बीच का कानूनी संबंध बना रहता है और बच्चा फॉस्टर परिवार से विरासत का अधिकार नहीं प्राप्त करता है।
इसके विपरीत, गोद लेना एक स्थायी प्रक्रिया है जिसमें बच्चे को गोद लेने वाले माता-पिता के साथ स्थायी रूप से रखा जाता है। गोद लेने से बच्चे और उसके जैविक परिवार के बीच का कानूनी संबंध समाप्त हो जाता है और गोद लेने वाले माता-पिता के साथ एक नया कानूनी संबंध स्थापित हो जाता है। इस प्रक्रिया में बच्चा गोद लेने वाले परिवार के खुद के बच्चे के समान अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त करता है, जिसमें विरासत का अधिकार भी शामिल होता है।
फॉस्टर केयर के आदर्श दिशानिर्देश 2024 ने साल 2016 के दिशानिर्देशों के कई प्रावधानों में संशोधन किया है और कुछ नए उपाय भी पेश किए हैं ताकि फॉस्टर केयर को संभावित फॉस्टर माता-पिता के लिए ज्यादा सुलभ और आकर्षक बनाया जा सके, साथ ही बच्चों के अधिकारों को भी बनाए रखा जा सके।
यह लेख साल 2024 के दिशानिर्देशों के मुख्य पहलुओं की जांच करता है और भारत में फॉस्टर केयर प्रणालियों और प्रथाओं को मजबूत करने के लिए सिफारिशें प्रदान करता है।
आदर्श दिशानिर्देश 2024 के अनुसार, देखभाल और संरक्षण की जरूरत वाले सभी बच्चे, जो छह साल से ज्यादा उम्र के हैं, जैसा कि किशोर न्याय अधिनियम 2015 में परिभाषित किया गया है, फॉस्टर केयर के लिए पात्र हैं। इसके अलावा, यह दिशानिर्देश दो नई परिभाषाएं पेश करता है—‘परिवार के संपर्क में ना रहने वाले बच्चे’ और ‘अयोग्य अभिभावक वाले बच्चे’— जो उन बच्चों के सामान्य परिणामों को उजागर करने के लिए हैं जो लंबे समय तक संस्थागत देखभाल में रहते हैं।
‘परिवार के संपर्क में ना रहने वाले बच्चे, ’वे बच्चे हैं जिनसे उनके माता-पिता या रिश्तेदारों ने एक साल से ज्यादा समय से मुलाकात नहीं की है। वहीं, ‘अयोग्य अभिभावक वाले बच्चे,’ वे बच्चे हैं जिनके माता-पिता या अभिभावक देखभाल करने में सक्षम या इच्छुक नहीं हैं, या जो परिभाषा में बताए गए मानदंडों के आधार पर पालन-पोषण के लिए अयोग्य माने गए हैं।
हालांकि पूरे देश में फॉस्टर केयर के सफल मामले दर्ज किए गए हैं, लेकिन साल 2000 से किशोर न्याय कानून का हिस्सा होने के बावजूद यह प्रथा ज्यादा लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाई है। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें से एक प्रमुख कारण सार्वजनिक जागरूकता की कमी है, जिसके परिणामस्वरूप बहुत कम लोग फॉस्टर माता-पिता के रूप में पंजीकरण कराने में रुचि दिखाते हैं। इसके अलावा, और भी चुनौतियां शामिल हैं:
आवेदन प्रक्रिया लंबी और जटिल होती है, और इसे पार करने के लिए पर्याप्त मदद नहीं मिलती है।
साल 2024 के दिशा-निर्देश सही दिशा में एक कदम हैं, लेकिन निम्नलिखित अनुशंसाओं के लिए जगह बनाकर फॉस्टर केयर में और भी बेहतर परिणाम हासिल हो सकते हैं:
फॉस्टर केयर के लिए बच्चों की पहचान करते समय केवल पात्रता मानदंडों पर ध्यान देना काफी नहीं है, क्योंकि सभी पात्र बच्चे (यानी, छह साल से ऊपर के बच्चे जो देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता में हैं) इस व्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते। बच्चे की उम्र, उन्हें सीसीआई में रखने के कारण, बच्चे की इच्छाशक्ति, और फॉस्टर केयर में रखने के लिए परिवार की सहमति जैसे कारकों पर ध्यान देना जरूरी है। फॉस्टर केयर के लिए बच्चे की उपयुक्तता निर्धारित करने में प्रशिक्षित पेशेवर की ओर से एक विस्तृत मूल्यांकन बेहद अहम है।
संभावित फॉस्टर माता-पिता के चयन के दौरान, यह देखा गया है कि ध्यान अक्सर माता-पिता बच्चे को पाने की इच्छा की ओर बढ़ जाते हैं। इसमें ऐसे मामलों को शामिल किया जा सकता है जहां एक दंपति फॉस्टर करना चाहता है क्योंकि वे जैविक बच्चे नहीं पैदा कर पा रहे हैं, और गोद लेने की प्रक्रिया लंबी और समय लेने वाली होती है। या उनके अपने बच्चे बड़े हो चुके हैं और घर छोड़ चुके हैं, जिससे उनके पास किसी अन्य बच्चे की देखभाल करने के लिए समय और संसाधन हैं। ये धारणाएं मान्य हैं बशर्ते बच्चे की जरूरतों को प्राथमिकता दी जाए। मूल्यांकन को इस बात पर केंद्रित करना चाहिए कि क्या संभावित माता-पिता उस भावनात्मक समर्थन को देने में सक्षम हैं जिसकी जरूरत एक बच्चे को होती है, जिसने शायद आघात और उपेक्षा का अनुभव किया हो। इसके अलावा, परिवार के सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी विचार किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह बच्चे की पृष्ठभूमि के साथ मेल खाता है, या माता-पिता बच्चों की जरूरत के हिसाब से बदलाव करने के लिए तैयार और सक्षम हैं, जिससे बच्चे के लिए किसी भी संभावित बदलाव के मसले को हल किया जा सके।
संभावित फॉस्टर माता-पिता के उचित प्रशिक्षण को सफल फॉस्टर केयर के लिए सबसे प्राथमिक अपेक्षाओं में से एक माना जा सकता है। दुर्भाग्यवश, साल 2024 के आदर्श दिशानिर्देश माता-पिता के लिए विशेष पूर्व-फॉस्टर केयर प्रशिक्षण को अनिवार्य नहीं करते हैं। यह जरूरी है कि संभावित फॉस्टर माता-पिता को फॉस्टर केयर व्यवस्था के बारे में साफ और सही जानकारी दी जाए, उन्हें समझाया जाए कि उनसे क्या अपेक्षा की जा रही है, और यह भी प्रशिक्षण दिया जाए कि जब बच्चे को उनकी देखभाल में रखा जाए तो वे आने वाली परिस्थितियों को कैसे संभालें? इसमें यह जानना और मानना शामिल है कि फॉस्टर केयर एक अस्थायी व्यवस्था है, जिसे समाप्त किया जा सकता है यदि जैविक माता-पिता या परिवार (यदि मौजूद हैं) सीडब्ल्यूसी की अनुमति से अपने बच्चे को वापिस पाना चाहते हैं। फॉस्टर माता-पिता को इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि वे बच्चे और उनके जैविक माता-पिता या रिश्तेदारों के बीच संपर्क को आसान बनाएं। साथ ही, समझें कि बच्चे का व्यवहार और आदतें उनकी अपेक्षाओं से अलग हो सकती हैं क्योंकि यह बच्चे के पिछले अनुभवों से प्रभावित हो सकती हैं।
बच्चों के लिए तैयारी उतनी ही महत्वपूर्ण है। एक बार पहचान लेने के बाद, बच्चों—विशेष रूप से उन बच्चों के लिए जिन्होंने संस्थागत देखभाल में काफी समय बिताया है और जो इसकी दिनचर्याओं के आदी हो चुके हैं—को परामर्श और पारिवारिक जीवन के मानदंडों से परिचित कराने की जरूरत है। फॉस्टर माता-पिता के साथ बच्चे का परिचय कराने से पहले उनकी पहचान कराना भी बहुत अहम है।
आदर्श दिशानिर्देश 2024 में सीडब्ल्यूसी को बच्चों की भलाई की निगरानी के लिए फॉस्टर परिवारों का मासिक निरीक्षण करने की जरूरत है। चूंकि परिवारों को आने वाली किसी भी चुनौती को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए ज्यादा आर्थिक मदद की जरूरत हो सकती है। यह मदद रोज़मर्रा के कामों में उपयोग होती है। जैसे कि बच्चे को स्कूल में नामांकित करना, खासतौर से यदि बच्चे के पास जरूरी दस्तावेज नहीं हैं, या स्वास्थ देखभाल, बीमा, स्कूल शिक्षा, और यात्रा के लिए उन्हें फॉस्टर माता-पिता के रूप में पहचानने वाले दस्तावेज़ दिलवाना। इसके अलावा, यदि बच्चे में व्यवहार संबंधी दिक्कतें होती हैं, तो परिवारों को परामर्श या मनो-सामाजिक मदद की जरूरत हो सकती है। डीसीपीयू के लिए यह जरूरी है कि वह बच्चे के फॉस्टर परिवार को सभी जरूरी मदद देना सुनिश्चित करे।
फॉस्टर केयर का मुख्य उद्देश्य उन बच्चों को अस्थायी देखभाल प्रदान करना है जिनका परिवार संकट में है, और इसका अंतिम लक्ष्य जैविक परिवार के साथ बच्चे को फिर से मिलवाना है। इसलिए, यह अहम है कि बाल कल्याण अधिकारी फॉस्टर केयर के दौरान जैविक परिवार के साथ मिलकर काम करें ताकि उनकी क्षमता को विकसित किया जा सके और उन चुनौतियों का सामना किया जा सके जो बच्चे के अलग होने का कारण बनीं। हालांकि, आदर्श दिशानिर्देश 2024 में परिवार को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक प्रयासों का जिक्र नहीं किया गया है।
जब हम भारत में फॉस्टर केयर को मजबूत करने के लिए काम कर रहे हैं तो हमें उन देशों के अनुभवों से सीखना चाहिए जहां यह प्रणाली कभी-कभी बच्चों की सुरक्षा करने में विफल रही है।
परिवार को सशक्त बनाना एक प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि बच्चे के जैविक परिवार से संबंध बनाए रखे जा सकें और माता-पिता के लिए एक बार फिर अपने बच्चे के साथ होने की कोशिश की जा सके। नियमित फॉलो-अप की जरूरत है ताकि जो आर्थिक मदद दी जा रही है उसकी निगरानी की जा सके, परिवार की परिस्थितियों में बदलाव को दर्ज किया जा सके, और समय पर फिर से एक होने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए जरूरी किसी भी अतिरिक्त सहायता को समझा जा सके। यह मानना चाहिए कि माता-पिता की अपने बच्चे की देखभाल करने में असमर्थता या अनिच्छा, जो अलगाव का कारण बन सकती है, उनके हालात के सुधार के साथ बदल सकती है। परिवार को सशक्त बनाने के उपायों को डीसीपीयू की ओर से सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के साथ परिवार को जोड़कर लागू किया जाना चाहिए लेकिन वास्तव में, ये प्रयास गैर-लाभकारी संगठनों की ओर से किए जाते हैं।
फॉस्टर केयर एक ऐसे सिद्धांत की तरह लगता है जो पश्चिम से आया है, लेकिन इसका भारतीय समाज में गहरा आधार है। भारत में अक्सर इसे रिश्तेदारी की देखभाल के तौर पर अनौपचारिक तरीके से मान्य किया गया है, जहां परिवार और समुदाय हमेशा जरूरतमंद बच्चों की मदद के लिए आगे आए हैं। पौराणिक संदर्भ और ऐतिहासिक प्रथाएं विस्तारित परिवारों (रिश्तेदार के घरों) में बच्चों की देखभाल की पुरानी परंपरा प्रमाण रही हैं। जब हम भारत में फॉस्टर केयर को मजबूत करने के लिए काम कर रहे हैं तो हमें उन देशों के अनुभवों से सीखना चाहिए जहां यह प्रणाली कभी-कभी बच्चों की सुरक्षा करने में विफल रही है। आखिर में, फॉस्टर केयर के सफल होने के लिए सरकार और नागरिक समाज के बीच सहयोग सबसे अहम है। यह सहयोग मिलकर, एक ऐसा सिस्टम बना सकता हैं जो न केवल बच्चों की सुरक्षा करे, बल्कि हर जरूरतमंद बच्चे को पोषण भी प्रदान करे।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
मैं साल 1975 में केरल से एक युवा छात्र के तौर पर पहली बार पूर्वोत्तर आया था। तब से, मुझे चर्च समूहों, समाजसेवी संस्थाओं और शैक्षणिक संस्थानों के साथ जुड़े रहने के कारण असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा राज्यों की यात्रा करने का मौका मिलता रहा है। साल 2008 में, मैं असम के जोरहाट स्थित बोस्को इंस्टीट्यूट का निदेशक बना जो न केवल सोशल वर्क प्रोग्राम में मास्टर डिग्री प्रदान करता है, बल्कि समाजसेवी संगठनों के प्रोजेक्ट्स को प्रभावी तरीके से ज़मीन पर लागू करने में उनकी मदद भी करता है। इसके साथ ही, यह एक इनक्यूबेशन प्रोग्राम भी चलाता है जो इनक्यूबेशन, शुरूआती फंडिंग, क्षमता निर्माण, संगठनात्मक विकास आदि के जरिए पूर्वोत्तर में युवा सामाजिक उद्यमियों को सहयोग देता है।
इतने सालों में, इस इलाके के युवाओं के साथ मिलकर काम करते हुए मैंने जाना कि वे मुखर और महत्वाकांक्षी तो हैं लेकिन अकेले भी हैं। इसलिए कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने या उद्यमी बनने जैसे अपरंपरागत व्यवसायों को अपनाने को लेकर उन्हें परिवार और समुदाय का पूरा साथ नहीं मिलता है। उनके पास समाज को बेहतर बनाने के सपने तो हैं, लेकिन अक्सर जानकारी, धन और उचित मार्गदर्शन की कमी के कारण वे पीछे रह जाते हैं। विकास सेक्टर में इन समुदायों की सांस्कृतिक, भौगोलिक और सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को लेकर कोई स्पष्ट समझ नहीं है और इसका नुकसान भी समुदायों को झेलना पड़ता है।
पूर्वोत्तर के पारिस्थितिकी तंत्र में काम करने वाले फंडर्स, समाजसेवी संगठनों और महत्वाकांक्षी समाजसेवी लीडर्स के साथ मैं यहां कुछ सीखें साझा करना चाहूंगा। मेरा मानना है कि ये उन लोगों के लिए एक शुरुआती बिंदु हो सकती हैं जो इन राज्यों के साथ कुछ सार्थक करने के लिए जुड़ना चाहते हैं।
पिछले कुछ दशकों में पूर्वोत्तर में सामाजिक सेक्टर का तेजी से विकास हुआ है लेकिन इससे समुदाय को हमेशा फायदा हुआ हो, ऐसा नहीं है। इसके पीछे का कारण यह भी रहा है कि जिन बड़े फंडर्स और गैर-लाभकारी संगठनों ने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया, उन्होंने इस क्षेत्र को बनाने वाले आठ राज्यों की भौगोलिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जटिलताओं की वास्तविकता को ठीक तरह से समझे बिना काम किया। यहां भी उन्होंने भारत के अन्य हिस्सों में चल रहे अपने कार्यक्रमों को बगैर स्थानीय संदर्भों को जांचे शुरू कर दिया।
उदाहरण के लिए, कई लोग मानते हैं कि नागालैंड की एक ही नागा पहचान है, लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं है कि इसके भीतर कई समुदाय और कबीले भी हैं। उनकी अपनी अलग-अलग भाषाएं/बोलियां और संस्कृतियां हैं और इसीलिए उनकी चुनौतियां एक-दूसरे से भी अलग हैं। इन सभी के लिए कोई एक ही समाधान काम में नहीं आएगा। पूर्वोत्तर में समुदाय भौगोलिक रूप से विभाजित है – लोग मैदानों, पहाड़ियों और नदी किनारे के इलाकों में रहते हैं और उनके अपने अलग संसाधन और समस्याएं हैं। ऐसे में एक समाजसेवी संस्था जो इस तरह की विविधता को नहीं समझती, क्या वास्तव में इन समुदायों की मदद कर सकती है?
सामाजिक क्षेत्र में संस्थाओं की दौड़ आंकड़ों के पीछे भागने की ज्यादा रही है क्योंकि फंडर उनसे यही सब मांगते हैं। समाजसेवी संगठन किसी एक गांव में चुनिंदा लोगों के समूह (जैसे स्वयं सहायता समूह मॉडल) के साथ काम करना शुरू करते हैं, अपना कार्यक्रम चलाते हैं, उसका प्रभाव मापते हैं और फिर अगले गांव में चले जाते हैं। वहीं, आंकड़े बताते हैं कि ये समूह अक्सर वंचित वर्ग के लोगों को छोड़ देते हैं। अधिक समावेशी सामाजिक विकास मॉडल का रहस्य छोटे पैमाने पर सोचने में निहित हो सकता है। कम समय में, किसी राज्य के 30 गांवों को कवर करने के बजाय, समाजसेवी संस्थाओं को एक गांव या उस क्षेत्र के सभी समुदाय के सदस्यों तथा गांवों के समूह के साथ तब तक काम करना चाहिए जब तक कि समुदाय परिवर्तन को ख़ुद से बनाए रखने में सक्षम न हो जाए।
दरअसल, असम के कामरूप मेट्रोपॉलिटन जिले के सोनापुर इलाके में, बॉस्को इंस्टीट्यूट ने खेती और कृषि-आधारित उद्यमिता पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था स्प्रेड एनई के साथ साझेदारी की है। प्राकृतिक खेती पर आधारित इस परियोजना में हर घर से युवा, महिलायें और बच्चे इसका हिस्सा हैं। कृषि उद्यम के जिस पहलू में उनकी रुचि है, उसके आधार पर समुदाय के सदस्य उत्पादन, मार्केटिंग और नेटवर्किंग में शामिल होते हैं। लोग सीमित समय सीमा के भीतर लक्ष्य पूरा करने के तनाव के बगैर अपनी गति से काम करते हैं। चूंकि उन्होंने इस परियोजना को अपना लिया है इसलिए वे अतिरिक्त व्यावसायिक विचारों के साथ आए हैं जैसे कि एक पर्यटन मार्ग बनाना जिससे पर्यटक खेतों में रुक सकें और इससे उन्हें अतिरिक्त आय हो सके।
पूर्वोत्तर के राज्य वर्षों से राजनीतिक अशांति से गुजर रहे हैं, जिसका असर लोगों के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक ताने-बाने पर पड़ा है। संसाधनों की कमी के कारण वे, जोखिम भरे माने जाने वाले, उद्यमिता और सामाजिक कार्य जैसे पेशे नहीं अपना पाते हैं। उन्हें सरकारी नौकरी करने या डॉक्टर या इंजीनियर बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है क्योंकि इन्हें स्थिर करियर विकल्प माना जाता है।
जब युवा सामाजिक सेक्टर में काम करना चुनते हैं तो वे एक तरह से धारा के विपरीत जाकर ऐसा करने का निर्णय लेते हैं। उनमें से कई लोग इसमें पहल तो शुरू कर देते हैं, लेकिन पारिवारिक और सामाजिक दबाव तथा वित्तीय तनाव के कारण इसे छोड़ने पर मजबूर भी हो जाते हैं। इसके अलावा, इलाके में आपदाएं भी आती रहती हैं। यहां हर साल बाढ़ आना एक आम बात है जो समाजसेवी कार्यों में अतिरिक्त चुनौतियां लेकर आती है। पूर्वोत्तर राज्यों में नए समाजसेवी संगठनों में निवेश करने वाले फंडर्स को इस क्षेत्र में विफलताओं की संभावना पर विचार करना चाहिए और संगठनों पर ऐसी समय-सीमाएं पूरी करने का दबाव नहीं डालना चाहिए जो उनकी वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल न हों। उन्हें समयबद्ध, परियोजना-आधारित फंडिंग के बजाय दीर्घकालिक प्रतिबद्धताएं भी बनानी चाहिए।
यदि समाजसेवी संस्थाओं के युवा लीडर्स असफल भी होते हैं तो उन्हें अपने आपको अयोग्य नहीं मान लेना चाहिए। अगर कोई व्यवसायी दोबारा अपने काम की शुरुआत कर सकता है तो सामाजिक क्षेत्र के इन लीडर्स को भी दूसरा मौका मिलना चाहिए। इसके लिए पूर्वोत्तर में समजसेवियों और फंडर्स को एक साथ मिलकर ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे।
हमारे इनक्यूबेशन प्रोग्राम में, हम सामाजिक उद्यमिता पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हमारा मानना है कि नए समाजसेवी संगठनों को बाहरी फंडिंग के लिए आवेदन करने से पहले कुछ वर्षों तक खुद को बनाए रखने पर जोर देना चाहिए।
क्षेत्र में छोटे समाजसेवी संगठनों के लिए शुरुआती चरण में फंडिंग प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण है और हम नहीं चाहते कि युवा लोग पैसे की कमी के कारण अपने प्रयासों को आगे बढ़ाना बंद कर दें। अगर कोई नया समाजसेवी संगठन फंडिंग पाने में कामयाब हो भी जाता है तो अक्सर फंडर्स यह तय करना शुरू कर देते हैं कि उसे क्या काम करना चाहिए। इन सबको लेकर युवा लीडर्स अपनी बात पूरी ताकत के साथ नहीं रख पाते हैं। फंड देने वालों के दबाव के कारण कई लोग उस मूल विचार से भटक जाते हैं जिसके लिए उन्होंने वास्तव में पहल शुरू की थी।
क्या सामाजिक क्षेत्र, जो लोगों की सेवा करने पर गर्व करता है, उसे समुदाय के तरीकों के अनुकूल नहीं होना चाहिए?
फंड देने वाले लोग संबंधित क्षेत्र के बारे में पहले से शोध नहीं करते हैं और अक्सर ऐसी मांगें करते हैं जो उस जगह पर लागू नहीं होती हैं। हाल ही में, मैं एक युवा लीडर से बात कर रहा था जो ऐसे ही एक फंडर के साथ काम कर रहा है। वे ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और किशोर बच्चों के साथ ऑनलाइन अभियान चलाने की योजना बना रहे हैं लेकिन पूर्वोत्तर के कई गांवों में ठीकठाक इंटरनेट कनेक्शन ही नहीं है।
पूर्वोत्तर में सामाजिक सेक्टर की कमी यह है कि यह समुदायों की बात नहीं सुन पाता और उन पर अपने विचार थोपने की प्रवृत्ति रखता है। दूसरे राज्यों से आने वाले फंडर और समाजसेवी संगठन जो इस क्षेत्र में काम करना शुरू करते हैं, वे अक्सर स्थानीय लोगों में उद्यमशीलता की भावना और उनकी उत्पादकता की कमी की शिकायत करते हैं। लेकिन विकास के आधुनिक विचार को उन पर थोपे जाने से पहले यहां के लोगों की जीवनशैली आत्मनिर्भर थी। वे अपना भोजन खुद उगाते थे, अपने कपड़े खुद बुनते थे और धीमी गति से जीवन जीते थे। आप आज भी इन राज्यों के छोटे शहरों और गांवों में इसकी झलक देख सकते हैं।
मैं हमेशा कहता हूं कि जब मैं 1975 में केरल से मेघालय के शिलांग आया था तो हम पैदल चलते थे क्योंकि यह सुखद था और यहां कोई वाहन नहीं था। अब शिलांग के लोगों को पैदल चलना पड़ता है क्योंकि सड़कें बहुत सारे वाहनों से भरी हुई हैं और हर जगह ट्रैफिक जाम है। यह किस तरह का विकास है? अगर लोग इंडस्ट्रियल टाइम के अनुसार काम नहीं करना चाहते हैं, अगर वे फैक्टरियों में काम करते रहने के बजाय अपने त्योहारों और सामुदायिक कार्यक्रमों को प्राथमिकता देते हैं तो यह बाजार की ताकतों के मुताबिक ढलने से उनका इनकार है। क्या सामाजिक क्षेत्र, जो लोगों की सेवा करने पर गर्व करता है, उसे समुदाय के तरीकों के अनुकूल नहीं होना चाहिए? बजाय इसके कि उन्हें ऐसा कुछ करने के लिए मजबूर किया जाए जो उनकी खुशी की समझ के खिलाफ हो?
पूर्वोत्तर के कई समुदाय आज अपनी भाषा, संस्कृति, गीत-संगीत और परम्पराओं को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अपनी संस्कृति को बचाने के लिए समुदाय के युवा प्रयास कर रहे हैं लेकिन उन्हें आर्थिक सहयोग के लिए जूझना पड़ रहा है। कुछ ऐसे लोग और समूह भी हैं जो स्लो फूड (अच्छा गुणवत्तापूर्ण खाना जो फास्ट फूड के बिलकुल उलट है), स्लो फैशन (फैशन उद्योग के पर्यावरण पर नकारात्मक असर को कम करने की सोच), खेती के प्रति लगाव, लोक संगीत, कला और लोक कथाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। समुदाय के लिए महत्व रखने वाले ऐसे लोगों और संस्थानों को बढ़ावा देने में विकास क्षेत्र की अहम भूमिका हो सकती है। इससे उन्हें अपनी शर्तों पर समुदाय के साथ संवाद करने की दिशा में आगे बढ्ने में मदद मिलेगी।
जेरी थॉमस, असम के जोरहाट में स्थित बोस्को इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
—
थियेटर का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक मंच की तस्वीर उभरती है, जिस पर कलाकार नाटक पेश कर रहे होते हैं और हम, दर्शक, ताली बजा रहे होते हैं। लेकिन क्या हो अगर मंच पर घटने वाली कहानी का हिस्सा हम भी बन जाएं? अगर कलाकारों के साथ-साथ हम भी अपनी राय रखें, सवाल पूछें और समाधान तलाशें? थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड, कुछ ऐसा ही अनुभव कराता है। शोषितों-वंचितों का एक ऐसा मंच जो उनके लिए और उन्हीं के द्वारा बनाया गया है। यह पारंपरिक थियेटर से बिल्कुल अलग और बेहद अनोखा तरीका है, जो संवाद और सहभागिता को केंद्र में रखता है। आइये समझते हैं कि थियेटर का यह विशिष्ट रूप क्यों बना, इसे कैसे मंचित किया जाता है और इसकी व्यावहारिक उपयोगिता क्या है?
ब्राज़ील के थियेटर कर्मी अगस्तो बोआल ने 1950 के दशक में थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड की शुरुआत की थी जो सुविधा-सम्पन्न और वंचितों (दूसरे शब्दों में शोषक और शोषित) के बीच संवाद के जरिये मुद्दों को हल करने के विचार पर आधारित है। ब्राज़ील के ही शिक्षाविद और विचारक पॉलो फ्रेरे की किताब ‘पैडागौजी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ इसका मुख्य आधार है और यह थियेटर के माध्यम से शोषक और शोषित के संबंध की जटिलताओं को समझने का प्रयास करता है। विभिन्न कलाएं, ऐतिहासिक रूप से सीखने-सिखाने का माध्यम होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का भी सशक्त माध्यम रही हैं। मानवीय इतिहास में जब अधिकारों और बराबरी की बात आई तो उसमें थियेटर सहित विभिन्न कलाओं का शामिल होना स्वाभाविक ही था। शोषित अपनी आवाज उठाने के लिए कला का इस्तेमाल कैसे करें और इसके लिए कम समय में कला को ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह एक बड़ा सवाल था। इस सवाल के जवाब की तलाश में ही आगे जाकर पारंपरिक थियेटर का पैटर्न भी टूटा और थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड जैसे विशिष्ट रूप ने आकार भी लिया।
पारंपरिक थियेटर में मंच और दर्शक के बीच एक अदृश्य दीवार होती है—कलाकार अपनी भूमिका निभाते हैं और दर्शक देखते हैं। थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड में यह दीवार तोड़ दी जाती है। मंचन के दौरान कलाकारों और दर्शकों के बीच सीधे संवाद होते हैं, नाटक को बीच में ही रोका जा सकता है, और उस मुद्दे पर बात की जा सकती है जो कहानी में उठाया गया है। मंचन के एक अन्य रूपों जैसे नुक्कड़ नाटक से यह इस मायने में अलग है कि इसमें कलाकार अपनी बात कहकर चले जाते हैं। वहीं, थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड में दर्शकों को भी मंच पर आने, कहानी का हिस्सा बनने और खुद को शोषित के स्थान पर रखकर समाधान तलाशने का मौका मिलता है। साथ ही नुक्कड़ नाटक की ही तरह थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को भी नुक्कड़, गली, बाजार, मीटिंग्स जैसी और भी सार्वजनिक जगहों पर किया जा सकता है।
किसी भी मुद्दे की गहराई में जाएं तो हम देख सकते हैं कि उसका कारण, मूलरूप से एक असहमति होती है। यह असहमति ही शोषक और शोषित के बीच का अंतर है, अगर दोनों के बीच सहमति बन जाए तो मुद्दे को सुलझाने की दिशा में बढ़ा जा सकता है। इस तरह देखें तो थिएटर हर उस जगह उपयोग किया जा सकता है, जहां किसी भी तरह की असहमति है। जहां भी कोई दबा हुआ या शोषित महसूस कर रहा हो या अपनी बात नहीं रख पा रहा हो, वहां इसका प्रयोग किया जा सकता है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) जैसे जन संगठनों से लेकर प्रदान और पतंग जैसी सामाजिक संस्थाओं ने अपने काम के दौरान थिएटर का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। केरल और दिल्ली की कुछ ट्रेड यूनियनों ने भी श्रमिक अधिकारों पर जागरूकता लाने के लिए इसका उपयोग किया है। थिएटर ऑफ द ऑप्रेस्ड वास्तविक कहानियों या परिस्थितियों पर आधारित होता है, ‘जिसकी लड़ाई उसकी अगुवाई’ के मूल्य को केंद्र में रखते हुए विचार यह होता है कि अभिनय भी वही करें जो प्रभावित हैं। इसलिए यह भी खयाल रखा जाता है कि इसमें हिस्सा लेने के लिए किसी खास अभिनय कुशलताओं की भी जरूरत न हो।
सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं, समुदाय के साथ मुद्दों और आपसी संबंधों पर समझ बेहतर करने के लिए इसका प्रयोग कर सकती हैं। साथ ही, अपनी संस्था के लोगों के साथ जिस भी विषय पर असहमति हो, उस पर बात करने के लिए इसका उपयोग कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था बच्चों और शिक्षक के संबंध की दृष्टि से बच्चों के अधिकारों और उनके शोषण को समझने के लिए इसका प्रयोग कर सकती है। श्रमिक अधिकार पर काम करने वाली संस्थाएं उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने और मालिक वर्ग के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए इसका प्रयोग कर सकती हैं।
थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को संचालित करने वाला एक प्रशिक्षित थियेटर कर्मी होता है जिसे ‘जोकर’ कहा जाता है।
हमने एक बार छत्तीसगढ़ में एक कार्यशाला की जिसमें वन अधिकार को लेकर समुदाय ने उनकी परेशानियों और मांगों को दर्शाने वाला एक नाटक तैयार किया गया। इसका मंचन वहां के वन विभाग के अधिकारियों के सामने किया गया, इस तरह समुदाय अपने मुद्दों पर वन विभाग से संवाद कर पाया। इसी तरह दिल्ली के एक झुग्गी-झोपड़ी के इलाके में हम जेंडर पर एक नाटक कर रहे थे। नाटक के बीच में जब हम वहां मौजूद लड़कों से महिलाओं के साथ होने वाली छेड़खानी को लेकर बात कर रहे थे, तभी एक युवा लड़की बोली कि ये क्या कहेंगे ये तो खुद मुझे छेड़ते हैं। इस पर बस्ती की एक वयस्क महिला ने उस युवती से कहा कि अगली बार ऐसा हो तो मुझे भी बताना। इससे तरह थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड न केवल शोषक और शोषित के बीच संवाद कायम करता है बल्कि शोषित का सहयोग कौन कर सकते हैं, इसकी भी पहचान करता है।
थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को अपने काम में इस्तेमाल करने के लिए इसके बारे में केवल पढ़ लेना काफी नहीं है, इसका अभ्यास भी उतना ही जरूरी है। सबसे पहले अगर कहीं थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड किया जा रहा है तो इसे जा कर देखें और फिर विचार करें कि आपकी संस्था में इसे कैसे प्रयोग किया जा सकता है। थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को संचालित करने वाला एक प्रशिक्षित थियेटर कर्मी होता है जिसे ‘जोकर’ कहा जाता है। जोकर, किसी एक्टर और स्पेक्ट एक्टर (सक्रिय दर्शक) के बीच होने वाली बातचीत को संचालित करता है, उसका प्रयास होता है कि आपसी संवाद के जरिये एक अहिंसापूर्ण हल तलाशा जा सके। अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो वह उसे वहीं पर रोक लेता है। हमारे देश में कुछ ऐसे प्रशिक्षित जोकर हैं जो इसकी ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें भी आप अपनी संस्था में बुला सकते हैं। इसके लिए एक से पांच दिन तक के ट्रेनिंग मॉड्यूल से लेकर एक साल तक के कैंपेन भी डिजाइन किए जा सकते हैं, जिन्हें आप अपने काम की जरूरत के अनुसार तय कर सकते हैं। वर्तमान में दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, बिहार, कर्नाटक, केरल, और तमिलनाडु आदि राज्यों में ये जोकर सक्रिय हैं जो थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड का प्रयोग कर रहे हैं, इसे सीखने के लिए उनसे संपर्क किया जा सकता है।
ज़ुबैर इदरीसी एक सक्रिय थिएटर प्रेक्टिशनर हैं और थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड के प्रशिक्षक भी हैं। ज़ुबैर के काम के बारे में और जानने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
—
नागालैंड में सूखे फूल, बाजारों और दुकानों में अक्सर देखे जाते हैं। स्थानीय लोग मानते हैं कि यह प्रथा 1990 के दशक में शुरू हुई थी। इसका उद्देश्य ताजे फूलों को सड़ने से बचाना और उन मौसमों के लिए तैयारी करना था जब कुछ विशेष फूलों की प्रजातियां नहीं खिलती। हालांकि नागालैंड की भौगोलिक स्थिति और जलवायु कई मौसमी फूलों के लिए अनुकूल हैं, फिर भी ये पूरे साल उपलब्ध नहीं होते। इस समस्या के समाधान के लिए फूलों को संरक्षित करने की तकनीकों का विकास किया गया, ताकि उनके सौंदर्य को लंबे समय तक बनाए रखा जा सके।
एक वित्तीय संस्थान में काम करने वाले और फूलों के शौकीन ज़ुचानो किथन कहते हैं, “1990 के दशक में मैं [कोहिमा के पास एक शहर] वोखा में पला-बढ़ा। वहां मैं अपनी बहनों के साथ मौसमी फूलों की खेती करता था, खासतौर पर ऑर्निथोगलम (घास लिली) की। हम उन्हें अपने घरों में लगाते थे। मौसम खत्म होने के बाद हम देखते कि गमलों में लगे फूल सूख जाते थे, उनका सफेद रंग एक खूबसूरत ऑफ-व्हाइट शेड में बदल जाता था। हमने फूलों की सुंदरता को बनाए रखने के लिए उन्हें उल्टा लटकाना शुरू कर दिया। मेरे पिता भी जंगली फूलों के बहुत शौकीन हैं और जंगल में घूमने के दौरान, वे उन्हें घर लाते और सुखाते थे।”
हालांकि, फूलों को सुखाने की परंपरा जो एक जरूरत के तौर पर शुरू हुई थी, कई महिलाओं के लिए आजीविका का विकल्प बन गई है। ये महिलाएं दुकानों, फुटपाथों और बाजारों में गुलदस्ते, बुकमार्क और सभी प्रकार की फूलों की सजावट वाले सामान बेचती हैं। यह फोटो निबंध फूल विक्रेताओं के अनुभवों, उनकी उद्यमशीलता की यात्रा, चुनौतियों और अवसरों को दर्शाता है। साथ ही इन सूखे फूलों की लोकप्रियता ने नागालैंड के समाज में जो क्रमिक परिवर्तन लाया है, उनकी एक झलक भी यहां दिखती है।
बीते कुछ सालों में, नागालैंड में उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव आया है। कई स्थानीय फूल विक्रेताओं ने बताया है कि लोग अब फूलों को ज्यादा महत्व देते हैं, जिसके कारण फूलों की खरीदारी बढ़ रही है और इन्हें तोहफे देने के लिए एक अच्छे विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। अलग-अलग फूल और उनके रंग अलग-अलग भावनाओं का प्रतीक हैं, जैसे दोस्ती, प्यार, शांति और कृतज्ञता! कभी-कभी, फूल बस देने की खुशी को भी जाहिर करते हैं। कई लोग ताजे फूलों को पसंद करते हैं, लेकिन उनका जीवनकाल बहुत कम होता है। समारोहों और पार्टियों में अक्सर ताजे फूलों की सजावट होती है जिन्हें बाद में फेंक दिया जाता है। हाल के सालों में, सूखे फूल पर्यावरण के अनुकूल जीवन के प्रतीक के तौर पर उभरे हैं। यह उन लोगों के लिए दिलचस्प विकल्प है जो अपने उपहारों में नया बदलाव लाना चाहते हैं।
ज़ुचानो कहते हैं कि लंबे समय तक चलने वाले सूखे फूल उपहार देने के लिए आदर्श विकल्प बन गए हैं। कई लोग उपहार की याद को बनाए रखने और उसे लंबे समय तक संजोने के लिए मिले हुए ताजे फूलों को सुखाने का विकल्प भी चुनते हैं।
राज्य में सूखे फूलों की लोकप्रियता के पीछे कुछ और कारण भी हैं। स्थानीय फूल विक्रेताओं का मानना है कि नागालैंड में बिकने वाले ज़्यादातर ताजे फूल राज्य के बाहर से आते हैं, जबकि सभी सूखे फूल स्थानीय स्तर पर उत्पादित होते हैं। नागालैंड में केवल मौसमी फूल- जैसे ऑर्किड, स्टेटिस और लिली- ही पनपते हैं, ऐसे में विक्रेता दूसरे ताजे फूलों के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर हैं। ज्यादातर मौसमी फूल कुछ खास इलाकों में ही खिलते हैं लेकिन कॉसमॉस और गुलदाउदी जैसे पूरे साल खिलने वाले फूल यहां के सामान्य मौसम के अनुकूल नहीं हैं। जब फूलों का मौसम खत्म हो जाता है, तब न बिक पाने वाले फूलों को सुखाकर बिक्री के लिए तैयार किया जाता है।
फूलों का संरक्षण एक नाजुक और लंबी प्रक्रिया है जो मौसमी उतार-चढ़ाव, बाजार की मांग और दूसरे कारणों के हिसाब से अलग-अलग होती है। इनसे प्रभावित एक ऐसा लोकप्रिय सूखा फूल है स्टेटिस, जो आमतौर पर बाजारों और फूलों की दुकानों में पाया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में, इसे बसंत के मौसम (मार्च-अप्रैल) के दौरान उगाया जाता है, जबकि मैदानी इलाकों में इसे अक्टूबर और नवंबर में लगाया जाता है। कटाई के बाद, फूल वाले इन फूलों को झड़ने से बचाने और उनकी सुंदरता को बनाए रखने के लिए उन्हें उल्टा लटकाकर सुखाते हैं।
कुछ फूल प्राकृतिक रूप से सूख जाते हैं वहीं कुछ को फूल विक्रेता इनकी जीवंतता बढ़ाने और बाजार की मांग को पूरा करने के लिए उन्हें रंग देते हैं। कोहिमा में, फूलवाले तेज बारिश के मौसम में अपने सूखे फूलों को फफूंद से बचाने के लिए भी रंगते हैं।
नागालैंड में फूलों का कारोबार कई महिलाओं को स्थायी आजीविका प्रदान कर रहा है। इनमें से एक हैं ज़ुविनु टेट्सो। ज़ुविनु कोहिमा के बीओसी में बांस मार्केट में एक सफल स्टॉल चलाती हैं। कुछ सालों तक सब्जियां बेचने के बाद, उन्होंने 2021 में फूलों के कारोबार शुरू किया। वे अपने खूबसूरत सूखे फूलों के लिए जानी जाती हैं, जिन्हें वह अपने शेड के ऊपर सुखाती हैं। वह बताती हैं, “मैं ताजे फूल भी बेचती हूं, लेकिन अगर वे बिक नहीं पाते, तो वे जल्दी सड़ जाते हैं और इससे नुकसान होता है। सूखे फूलों के साथ ऐसा नहीं होता, क्योंकि उन्हें सालभर रखा जा सकता है। यही सूखे फूल मेरे स्टोर में पर्यटकों और ग्राहकों को पसंद आते हैं। इस कारोबार से ज़ुविनु अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रही हैं। हालांकि, वह चाहती हैं कि उन्हें एक बड़ी जगह मिल जाए क्योंकि उनके मौजूदा छोटे स्टॉल में ग्राहकों के लिए घूमना भी मुश्किल होता है और फूलों को सही तरीके से प्रदर्शित करना भी।
ज़ुविनु की तरह, टेम्सुयांगला पोंगेन भी कई सालों से फूल बेचने का काम कर रही हैं। वह इस व्यवसाय के ज़रिए अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं। उनका यह व्यवसाय खासतौर पर इंडोर प्लांट्स यानि घर के भीतर सजाए जाने वाले पौधों और सूखे फूलों पर केंद्रित है, जिसकी बाजार में काफी मांग है। टेम्सुयांगला, जो नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी में उपाध्यक्ष भी हैं (एक गैर-लाभकारी संस्था जो उद्यमियों का सहयोग करती है) समझाती हैं, “इंडोर प्लांट्स और सूखे फूलों का सही से खयाल रखा जाए तो वह लंबे समय तक चलते हैं, यही खासियत उन्हें बहुत फायदेमंद बनाती है। मैंने पांच साल पहले एक राजनेता के लिए सूखे फूलों का गुलदस्ता बनाया था, और वह आज भी बिल्कुल नया जैसा दिखता है।”
उद्यमी बनने की संभावना और इससे मिलने वाली आजादी एक और अहम वजह है कि, लोग नौकरी करने की बजाय इस व्यवसाय की ओर आकर्षित हो रहे हैं। कोहिमा ट्रेड सेंटर में एक फूलों की दुकान की मालिक रुकुनु केनाओ सूखे और ताजे दोनों तरह के फूल बेचती हैं। नवंबर 2023 में अपना व्यवसाय शुरू करने से पहले, उन्होंने चार साल तक कोहिमा जिला न्यायालय में एक निजी वकील के रूप में काम किया। अब नागालैंड के कई फूल विक्रेता डिजिटल हो गए हैं और अपने उत्पादों को दिखाने और बेचने के लिए इंस्टाग्राम का उपयोग करते हैं। अक्सर, उन्हें राज्य के बाहर से भी ऑर्डर मिलते हैं। रुकुनु भी एक इंस्टाग्राम अकाउंट (peta_lparadise) चलाती हैं, जहां वह फूलों को दिखाती और बेचती हैं। हालांकि उन्हें स्टोर में पूरा समय देना जरूरी है इसलिए रोजाना सोशल मीडिया पर पोस्ट करना किसी चुनौती से कम नहीं लगता।
सूखे फूलों का कारोबार 1990 के दशक की शुरुआत से अब काफी आगे बढ़ चुका है। पहले उद्यमियों को बड़े बाजारों तक पहुंच बनाने और उन तक पहुंचने के लिए संघर्ष करना पड़ा था। उदाहरण के लिए, 1994 में केवीमेसे-ii, ने जब फूलों को संरक्षित करना शुरू किया तब वह बीस साल की थी। वे बताती हैं, “पहले, सूखे फूल आमतौर पर सर्दियों के मौसम में बाजारों में दिखाई देते थे, लेकिन अब वे पूरे साल मिलते हैं।” उनके लिए, यह एक झटके जैसा था। उन्होंने फूलों का इस्तेमाल बुकमार्क और फ्रेम वाली सजावटी चीजें बनाने के लिए किया। इनमें से बहुत से तो उन्होंने अपने दोस्तों को तोहफे के तौर पर दी और कुछ को घर पर सजाया।
केवीमेसे-ii ने एक बार अपनी इस कारीगरी को बड़े व्यवसाय में बदलने का सपना तो देखा, पर सफलता नहीं मिली। वह बताती हैं, “1994-95 के आसपास, मुझे एक व्यवसायी से मिलवाया गया, जिसने बताया कि वह दिल्ली हाट [दिल्ली में एक ओपन-एयर क्राफ्ट बाज़ार जिसमें कई भारतीय राज्यों के स्टॉल हैं] में एक प्रदर्शनी में भाग लेगा। मैंने सूखे फूलों के टुकड़ों को फ्रेम के साथ तैयार किया और उन्हें कार्यक्रम के लिए भेज दिया, इस उम्मीद में कि कुछ पैसे कमाऊंगी और अपना व्यवसाय शुरू करूंगी। लेकिन एक बार जाने के बाद दोबारा उससे कोई संपर्क नहीं हो पाया।”
हालांकि अब हालात अलग हैं। अब कोई बिचौलिया नहीं है और आजकल, कई फूल उद्यमियों ने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया को अपना लिया है। केवीमेसे-ii का मानना है कि इस नई पीढ़ी के फूल विक्रेताओं की सफलता के पीछे उनकी उद्यमिता और रचनात्मकता, सरकार और स्थानीय लोगों का सहयोग, और इंटरनेट की व्यापक पहुंच है।
इस बदलाव का एक कारण राज्य के फूल विक्रेताओं को एकजुट करने का प्रयास भी है। नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी की स्थापना साल 2006 में हुई। यह फूल उत्पादकों के लिए एक ऐसा मंच है जहां वे एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं और बाजार में अपनी मौजूदगी बढ़ा सकते हैं। सोसाइटी की महासचिव मेयेविनो बताती हैं कि इस मंच की शुरुआत नागालैंड सरकार के बागवानी विभाग की ओर से की गई थी, जब उन्होंने फ्लोरीकल्चर पर काम करना शुरू किया। यह पहल राज्य सरकार की मदद से शुरू हुई, और अब यह सोसाइटी एक पंजीकृत गैर-सरकारी संगठन के तौर में काम कर रही है। हर महीने के दूसरे शुक्रवार को, सोसाइटी कोहिमा के पीडब्ल्यूडी कॉलोनी में किसानों के बाजार में एक बिक्री का आयोजन करती है। काम करने वाले और महत्वाकांक्षी फूल उत्पादकों के समूहों को अपने उत्पादों को रोटेशन के आधार पर बेचने के लिए जगह दी जाती है, क्योंकि बाजार सभी सदस्यों को एक साथ समायोजित नहीं कर सकता है।
मेयेविनो राज्य के बाहर से ताजे फूलों की आवक के बारे में कहती हैं, “हम अपने सदस्यों को ताजे फूल उगाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन ऐसा काम शुरू करने के लिए काफी लागत लगती है, जो कई सदस्यों के पास नहीं है। फूलों के व्यवसाय के लिए निवेश सुरक्षित करना भी चुनौती वाला काम है। पिछले साल, हममें से कुछ लोगों ने कम लागत वाला पॉलीहाउस बनाने के लिए एक छोटा सा कर्ज लिया था, लेकिन दुर्भाग्य से, इस साल की हवाओं ने उसे खराब कर दिया।” उन्होंने बताया कि बहुत से सदस्यों को पॉलीहाउस की कमी की वजह से राज्य के बाहर से आने वाले ताजे फूलों पर निर्भर रहना पड़ता है। राज्य का बागवानी विभाग हर साल आवेदकों को पॉलीहाउस मुहैया करवाता है, लेकिन मांग ज्यादा होने के कारण सभी को इसका फायदा नहीं मिल पाता। विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि यह चयन जिला बागवानी अधिकारी करते हैं। और (फूलों की) फसलों के साथ-साथ पॉलीहाउस के लिए सामान बांटने का काम उन्हें उसी फंड से करना जरूरी है जो केंद्र की तरफ से आवंटित होता है।
नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी की महिला सदस्य पिछले एक दशक से फूलों के व्यापार में हैं। उन्होंने एक दिलचस्प बदलाव देखा है—असल में अब पुरुष पहले से ज्यादा फूल खरीदने लगे हैं, जो वाकई एक दुर्लभ नजारा है। कई विक्रेताओं का कहना है कि पहले, जब पुरुषों से उनके साथी के लिए फूल खरीदने के लिए कहा जाता था, तो वे शर्माते थे और इसे टाल देते थे। यह बदलाव फूल विक्रेताओं के लिए सशक्तिकरण का प्रतीक है, क्योंकि यह सभी जनसांख्यिकी के बीच फूलों की बढ़ती सराहना को दर्शाता है।
नागालैंड में फूलों के मुख्य ग्राहक में पुरुष और महिलाएं—दोनों ही, चाहे वे युवा हों या बुजुर्ग, साथ ही चर्च जैसी संस्थाएं भी शामिल हैं। कई चर्चों के पास सजावट के लिए अलग बजट होता है, जिसे आमतौर पर ताजे और सूखे फूलों पर खर्च किया जाता है। शादी में भी ताजे, सूखे और कृत्रिम फूलों को मिलाकर इस्तेमाल करते हैं। खासकर, अंत्येष्टि के लिए कृत्रिम फूलों की मांग ज्यादा होती है क्योंकि वे टिकाऊ होते हैं और जलवायु के प्रति सहनशील होते हैं।
हालांकि, टेम्सुयांगला और मेयेविनो दोनों ही मांग को पूरी करने के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन की जरूरत पर जोर देते हैं, जिसमें समाज को धन और सहायता की कमी के कारण संघर्ष करना पड़ रहा है। टेम्सुयांग्ला कहती हैं, “हम नागा लोगों के पास जमीन, प्रचुर मात्रा में पानी और कई क्षेत्रों में उपजाऊ मिट्टी है—जो सभी फूल उगाने के लिए उपयुक्त है। अगर हम इन संसाधनों को एकजुट कर सकें, तो हम ज्यादा मजबूत समाज बन सकते हैं।” वह सुझाव देती हैं कि और जिलों में ज्यादा से ज्यादा तादाद में महिलाओं को संगठित कर प्रशिक्षित किया जा सकता है जिससे ताजे मौसमी फूलों की खेती के लिए सभी जरूरतें पूरी हो सकती हैं। इस नजरिए के पीछे का उद्देश्य कोहिमा और दीमापुर को स्थानीय फूलों की आपूर्ति करना है, जिससे राज्य के बाहर से फूलों के ऑर्डर को पूरा करने की आवश्यकता कम हो जाएगी और रोजगार के अवसर भी पैदा हों। वह आगे कहती हैं, “मौजूदा कमियों को दूर करके और एक मजबूत नेटवर्क बनाकर, हम दूसरे राज्यों के ग्राहकों को भी रोजाना फूलों की आपूर्ति कर सकते हैं।”
नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी को उम्मीद है कि विभिन्न संगठन उन्हें सभी जिलों में उद्यमियों के समूह संगठित करने में मदद करेंगे। इसके साथ ही, उन्हें फूल उगाने, संरक्षित करने और आपूर्ति करने के लिए जरूरी उपकरण भी मुहैया किए जाएंगे, ताकि फूलों की खेती का उद्योग फल-फूल सके।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
—